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गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

सुदामा पांडेय धूमिल | SUDAMA PANDEY "DHOOMIL" | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

सुदामा पांडेय धूमिल 

(सन् 1936-1975)

सुदामा पांडेय 'धूमिल' का जन्म वाराणसी के पास खेवली नामक गाँव में हुआ। हाई स्कूल पास करके रोज़ी की फ़िक्र में पड़ गए। सन् 1958 में आई.टी.आई. वाराणसी से विद्युत डिप्लोमा किया और वहीं पर अनुदेशक के पद पर नियुक्त हो गए। असमय ही ब्रेन ट्यूमर से धूमिल की मृत्यु हो गई। धूमिल की अनेक कविताएँ समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी पड़ी हैं, कुछ अभी तक अप्रकाशित भी हैं। संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे और सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र उनके काव्य-संग्रह हैं। धूमिल को मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

धूमिल के काव्य-संस्कारों के भीतर एक खास प्रकार का गँवईपन है, एक भदेसपन, जो उनके व्यंग्य को धारदार और कविता को असरदार बनाता है। उन्होंने अपनी कविता में समकालीन राजनीतिक परिवेश में जी रहे जागरूक 'व्यक्ति' की तसवीर पेश की है और 1960 के बाद के मोहभंग को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है। संघर्षरत मनुष्यों के प्रति धूमिल के मन में अगाध करुणा है। उन्हें ऐसा लगता है कि समकालीन परिवेश इस करुणा का शत्रु है। इसीलिए उनकी कविता में यह करुणा कहीं आक्रोश का रूप धारण कर लेती है तो कहीं व्यंग्य और चुटकुलेबाज़ी का। साठोत्तरी कविता के इसी आक्रोश और ज़मीन से जुड़ी मुहावरेदार भाषा के कारण धूमिल की कविताएँ अलग से पहचानी जा सकती हैं। धूमिल की काव्य भाषा और काव्य शिल्प में एक ज़बर्दस्त गरमाहट है। ऐसी गरमाहट जो बिजली के ताप से नहीं, जेठ की दुपहरी से आती है।

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

रामचंद्र शुक्ल | RAMCHANDRA SHUKLA | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

रामचंद्र शुक्ल

(सन् 1884-1941)

रामचंद्र शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगोना गाँव में हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू-अंग्रेजी और फ़ारसी में हुई थी। उनकी विधिवत शिक्षा इंटरमीडिएट तक ही हो पाई। बाद में उन्होंने स्वाध्याय द्वारा संस्कृत, अंग्रेजी, बाँग्ला और हिंदी के प्राचीन तथा नवीन साहित्य का गंभीरता से अध्ययन किया। कुछ समय तक वे मिर्जापुर के मिशन हाई स्कूल में चित्रकला के अध्यापक रहे। सन् 1905 में वे काशी नागरी प्रचारिणी सभा में हिंदी शब्द सागर के निर्माण कार्य में सहायक संपादक के पद पर नियुक्त होकर काशी आ गए और बाद में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक बने। बाबू श्यामसुंदर दास के अवकाश ग्रहण के बाद वे हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्य करते रहे और इसी पद पर कार्य करते हुए यहीं उनका निधन हुआ। काशी ही उनकी कर्मस्थली रही।

आचार्य शुक्ल हिंदी के उच्चकोटि के आलोचक, इतिहासकार और साहित्य-चिंतक हैं। विज्ञान, दर्शन, इतिहास, भाषा विज्ञान, साहित्य और समाज के विभिन्न पक्षों से संबंधित लेखों, पुस्तकों के मौलिक लेखन, संपादन और अनुवादों के बीच से उनका जो ज्ञान संपन्न व्यापक व्यक्तित्व उभरता है, वह बेजोड़ है। उन्होंने भारतीय साहित्य की नयी अवधारणा प्रस्तुत की और हिंदी आलोचना का नया स्वरूप विकसित किया। हिंदी साहित्य के इतिहास को व्यवस्थित करते हुए उन्होंने हिंदी कवियों की सम्यक समीक्षा की तथा इतिहास में उनका स्थान निर्धारित किया। आलोचनात्मक लेखन के अलावा उन्होंने भाव और मनोविकार संबंधी उच्चकोटि के निबंधों की भी रचना की।

शुक्ल जी की गद्य शैली विवेचनात्मक है, जिसमें विचारशीलता, सूक्ष्म तर्क-योजना तथा सहृदयता का योग है। व्यंग्य और विनोद का प्रयोग करते हुए वे अपनी गद्य शैली को जीवंत और प्रभावशाली बनाते हैं। उनके लेखन में विचारों की दृढ़ता, निर्भीकता और आत्मविश्वास की एकता मिलती है। उनका शब्द-चयन और शब्द-संयोजन व्यापक है, जिसमें तत्सम शब्दों से लेकर प्रचलित उर्दू शब्दों तक का प्रयोग दिखाई देता है। अत्यंत सारगर्भित, विचार प्रधान, सूत्रात्मक वाक्य-रचना उनकी गद्य शैली की एक बड़ी विशेषता है।

आचार्य शुक्ल की कीर्ति का अक्षय स्रोत उनके द्वारा लिखित हिंदी साहित्य का इतिहास है। इसे उन्होंने पहले हिंदी शब्द सागर की भूमिका के रूप में लिखा था जो बाद में परिष्कृत और संशोधित रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। उनके कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं- गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, चिंतामणि (चार खंड) और रस मीमांसा आदि। इसके अलावा उन्होंने जायसी ग्रंथावली एवं भ्रमरगीत सार का संपादन किया तथा उनकी लंबी भूमिका लिखी।

हजारी प्रसाद द्विवेदी | HAZARI PRASAD DWIVEDI | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

हजारी प्रसाद द्विवेदी

(सन् 1907-1979)

हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म गाँव आरत दुबे का छपरा, ज़िला बलिया (उ.प्र.) में हुआ था। संस्कृत महाविद्यालय, काशी से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने 1930 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त की।

इसके बाद वे शांति निकेतन चले गए। 1940-50 तक द्विवेदी जी हिंदी भवन, शांति निकेतन के निदेशक रहे। वहाँ उन्हें गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और आचार्य क्षितिमोहन सेन का सान्निध्य प्राप्त हुआ। सन् 1950 में वे वापस वाराणसी आए और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने। 1952-53 में वे काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष थे। 1955 में वे प्रथम राजभाषा आयोग के सदस्य राष्ट्रपति के नामिनी नियुक्त किए गए। 1960-67 तक पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में हिंदी विभागाध्यक्ष का पद ग्रहण किया। 1967 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में रेक्टर नियुक्त हुए। यहाँ से अवकाश ग्रहण करने पर वे भारत सरकार की हिंदी विषयक अनेक योजनाओं से संबद्ध रहे। जीवन के अंतिम दिनों में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष थे। आलोक पर्व पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट की मानद उपाधि दी और भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया।

द्विवेदी जी का अध्ययन क्षेत्र बहुत व्यापक था। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बांग्ला आदि भाषाओ एवं इतिहास, दर्शन, संस्कृति, धर्म आदि विषयों में उनकी विशेष गति थी। इसी कारण उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति की गहरी पैठ और विषय वैविध्य के दर्शन होते हैं। वे परंपरा के साथ आधुनिक प्रगतिशील मूल्यों के समन्वय में विश्वास करते थे।

द्विवेदी जी की भाषा सरल और प्रांजल है। व्यक्तित्व-व्यंजकता और आत्मपरकता उनकी शैली की विशेषता है। व्यंग्य शैली के प्रयोग ने उनके निबंधों पर पांडित्य के बोझ को हावी नहीं होने दिया है। भाषा-शैली की दृष्टि से उन्होंने हिंदी की गद्य शैली को एक नया रूप दिया। उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं- अशोक के फूल, विचार और वितर्क, कल्पलता, कुटज, आलोक पर्व (निबंध-संकलन), चारूचंद्रलेख, बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा (उपन्यास), सूर-साहित्य, कबीर, हिंदी साहित्य की भूमिका, कालिदास की लालित्य-योजना (आलोचनात्मक ग्रंथ)। उनकी सभी रचनाएँ हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली (के ग्यारह खंड) में संकलित हैं।

रामविलास शर्मा | RAM VILAS SHARMA | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

रामविलास शर्मा 

(सन् 1912-2000)

रामविलास शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के ऊँचगाँव-सानी गाँव में हुआ था। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. तथा पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। पीएच.डी. करने के उपरांत उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में ही कुछ समय तक अंग्रेजी विभाग में अध्यापन कार्य किया। सन् 1943 से 1971 तक वे आगरा के बलवंत राजपूत कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। 1971 के बाद कुछ समय तक वे आगरा के ही के.एम. मुंशी विद्यापीठ के निदेशक रहे। जीवन के आखिरी वर्षों में वे दिल्ली में रहकर साहित्य समाज और इतिहास से संबंधित चिंतन और लेखन करते रहे और यहीं उनका देहावसान हुआ।

रामविलास शर्मा आलोचक, भाषाशास्त्री, समाजचिंतक और इतिहासवेत्ता रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने कवि और आलोचक के रूप में पदार्पण किया। उनकी कुछ कविताएँ अज्ञेय द्वारा संपादित तार सप्तक में संकलित हैं। हिंदी की प्रगतिशील आलोचना को सुव्यवस्थित करने और उसे नयी दिशा देने का महत्त्वपूर्ण काम उन्होंने किया। उनके साहित्य-चिंतन के केंद्र में भारतीय समाज का जनजीवन, उसकी समस्याएँ और उसकी आकांक्षाएँ रही हैं। उन्होंने वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति के काव्य का नया मूल्यांकन तुलसीदास के महत्त्व का विवेचन भी किया है। रामविलास शर्मा ने आधुनिक हिंदी साहित्य का विवेचन और मूल्यांकन करते हुए हिंदी की प्रगतिशील आलोचना का मार्गदर्शन किया। अपने जीवन के आखिरी दिनों में वे भारतीय समाज, संस्कृति और इतिहास की समस्याओं पर गंभीर चिंतन और लेखन करते हुए वर्तमान भारतीय समाज की समस्याओं को समझने के लिए, अतीत की विवेक-यात्रा करते रहे।

महत्त्वपूर्ण विचारक और आलोचक के साथ-साथ रामविलास जी एक सफल निबंधकार भी हैं। उनके अधिकांश निबंध विराम चिह्न नाम की पुस्तक में संगृहीत हैं। उन्होंने विचारप्रधान और व्यक्ति व्यंजक निबंधों की रचना की है। प्रायः उनके निबंधों में विचार और भाषा के स्तर पर एक रचनाकार की जीवंतता और सहृदयता मिलती है। स्पष्ट कथन, विचार की गंभीरता और भाषा की सहजता उनकी निबंध-शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

रामविलास शर्मा को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। निराला की साहित्य साधना पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ था। अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कारों में सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, उत्तर प्रदेश सरकार का भारत-भारती पुरस्कार, व्यास सम्मान और हिंदी अकादमी दिल्ली का शलाका सम्मान उल्लेखनीय है। पुरस्कारों के प्रसंग में शर्मा जी के आचरण की एक बात महत्त्वपूर्ण है कि वे पुरस्कारों के माध्यम से प्राप्त होने वाले सम्मान को तो स्वीकार करते थे लेकिन पुरस्कार की राशि को लोकहित में व्यय करने के लिए लौटा देते थे। उनकी इच्छा थी कि यह राशि जनता को शिक्षित करने के लिए खर्च की जाए।

उनकी उल्लेखनीय कृतियाँ हैं-भारतेंदु और उनका युग, महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, प्रेमचंद और उनका युग, निराला की साहित्य साधना (तीन खंड), भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी (तीन खंड), भाषा और समाज, भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद, इतिहास दर्शन, भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश आदि।

विद्यापति | VIDYAPATHI | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

विद्यापति

(सन् 1380-1460)

विद्यापति का जन्म मधुबनी (बिहार) के बिस्पी गाँव के एक ऐसे परिवार में हुआ जो विद्या और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था। उनके जन्मकाल के संबंध में प्रामाणिक सूचना उपलब्ध नहीं है। उनके रचनाकाल और आश्रयदाता के राज्यकाल के आधार पर उनके जन्म और मृत्यु वर्ष का अनुमान किया गया है। विद्यापति मिथिला नरेश राजा शिवसिंह के अभिन्न मित्र, राजकवि और सलाहकार थे।

विद्यापति बचपन से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि और तर्कशील व्यक्ति थे। साहित्य, संस्कृति, संगीत, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, न्याय, भूगोल आदि के वे प्रकांड पंडित थे। उन्होंने संस्कृत, अवहट्ट (अपभ्रंश) और मैथिली-तीन भाषाओं में रचनाएँ कीं। इसके अतिरिक्त उन्हें और भी कई भाषाओं-उपभाषाओं का ज्ञान था।

वे आदिकाल और भक्तिकाल के संधिकवि कहे जा सकते हैं। उनकी कीर्तिलता और कीर्तिपताका जैसी रचनाओं पर दरबारी संस्कृति और अपभ्रंश काव्य परंपरा का प्रभाव है तो उनकी पदावली के गीतों में भक्ति और शृंगार की गूँज है। विद्यापति की पदावली ही उनके यश का मुख्य आधार है। वे हिंदी साहित्य के मध्यकाल पहले ऐसे कवि हैं जिनकी पदावली में जनभाषा में जनसंस्कृति की अभिव्यक्ति हुई है।

मिथिला क्षेत्र के लोक-व्यवहार में और सांस्कृतिक अनुष्ठानों में उनके पद इतने रच-बस गए हैं कि पदों की पंक्तियाँ अब वहाँ के मुहावरे बन गई हैं। पद लालित्य, मानवीय प्रेम और व्यावहारिक जीवन के विविध रंग इन पदों को मनोरम और आकर्षक बनाते हैं। राधा-कृष्ण के प्रेम के माध्यम से लौकिक प्रेम के विभिन्न रूपों का चित्रण, स्तुति-पदों में विभिन्न देवी-देवताओं की भक्ति, प्रकृति संबंधी पदों में प्रकृति की मनोहर छवि रचनाकार के अपूर्व कौशल, प्रतिभा और कल्पनाशीलता के परिचायक हैं। उनके पदों में प्रेम और सौंदर्य की अनुभूति की जैसी निश्छल और प्रगाढ़ अभिव्यक्ति है हुई है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं-कीर्तिलता, कीर्तिपताका, पुरुष परीक्षा, भू-परिक्रमा, लिखनावली और पदावली।

मलिक मुहम्मद जायसी | MALIK MUHAMMAD JAYASI | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

मलिक मुहम्मद जायसी

(सन् 1492-1542)

मलिक मुहम्मद जायसी अमेठी (उत्तर प्रदेश) के निकट जायस के रहने वाले थे। इसी कारण वे जायसी कहलाए। वे अपने समय के सिद्ध और पहुँचे हुए फ़कीर माने जाते थे। उन्होंने सैयद अशरफ और शेख बुरहान का अपने गुरुओं के रूप में उल्लेख किया है।

जायसी सूफ़ी प्रेममार्गी शाखा के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं और उनका पद्मावत प्रेमाख्यान परंपरा का सर्वश्रेष्ठ प्रबंधकाव्य है। भारतीय लोककथा पर आधारित इस प्रबंधकाव्य में सिंहल देश की राजकुमारी पद्मावती और चित्तौड़ के राजा रत्नसेन के प्रेम की कथा है। जायसी ने इसमें लौकिक कथा का वर्णन इस प्रकार किया है कि अलौकिक और परोक्ष सत्ता का आभास होने लगता है। इस वर्णन में रहस्य का गहरा पुट भी मिलता है। प्रेम का यह लोकधर्मी स्वरूप मानवमात्र के लिए प्रेरणादायी है।

फ़ारसी की मसनवी शैली में रचित बराबर चलती रहती है। स्थान-स्थान पर काव्य की कथा सर्गों या अध्यायों में बँटी हुई नहीं है, के रूप में घटनाओं और प्रसंगों का उल्लेख अवश्य है। जायसी ने इस काव्य-रचना के लिए दोहा-चौपाई की शैली अपनाई है। भाषा उनकी ठेठ अवधी है और काव्य-शैली अत्यंत प्रौढ़ और गंभीर। जायसी की कविता का आधार लोकजीवन का व्यापक अनुभव है। उनके द्वारा प्रयुक्त उपमा, रूपक, लोकोक्तियाँ, मुहावरे यहाँ तक कि पूरी काव्य-भाषा पर ही लोक संस्कृति का प्रभाव है जो उनकी रचनाओं को नया अर्थ और सौंदर्य प्रदान करता है।

पद्मावत, अखरावट और आखिरी कलाम जायसी की प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं, जिनमें पद्मावत उनकी प्रसिद्धि का प्रमुख आधार है।

घनानंद | GHANANAND | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

घनानंद

(सन् 1673-1760)

रीतिकाल के रीतिमुक्त या स्वच्छंद काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि घनानंद दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के मीर मुंशी थे। कहते हैं कि सुजान नाम की एक स्त्री से उनका अटूट प्रेम था। उसी के प्रेम के कारण घनानंद बादशाह के दरबार में बे-अदबी कर बैठे, जिससे नाराज़ होकर बादशाह ने उन्हें दरबार से निकाल दिया। साथ ही घनानंद को सुजान की बेवफ़ाई ने भी निराश और दुखी किया। वे वृंदावन चले गए और निंबार्क संप्रदाय में दीक्षित होकर भक्त के रूप में जीवन-निर्वाह करने लगे। परंतु वे सुजान को भूल नहीं पाए और अपनी रचनाओं में सुजान के नाम का प्रतीकात्मक प्रयोग करते हुए काव्य-रचना करते रहे। घनानंद मूलतः प्रेम की पीड़ा के कवि हैं। वियोग वर्णन में उनका मन अधिक रमा है। उनकी रचनाओं में प्रेम का अत्यंत गंभीर, निर्मल, आवेगमय, और व्याकुल कर देने वाला उदात्त रूप व्यक्त हुआ है, इसीलिए घनानंद को साक्षात रसमूर्ति कहा गया है।

घनानंद के काव्य में भाव की जैसी गहराई है, वैसी ही कला की बारीकी भी। उनकी कविता में लाक्षणिकता, वक्रोक्ति, वार्गवदग्धता के साथ अलंकारों का कुशल प्रयोग भी मिलता है। उनकी काव्य-कला में सहजता के साथ वचन-वक्रता का अद्भुत मेल है।

घनानंद की भाषा परिष्कृत और साहित्यिक ब्रजभाषा है। उसमें कोमलता और मधुरता का चरम विकास दिखाई देता है। भाषा की व्यंजकता बढ़ाने में वे अत्यंत कुशल थे। वस्तुतः वे ब्रजभाषा प्रवीण ही नहीं सर्जनात्मक काव्यभाषा के प्रणेता भी थे। घनानंद की रचनाओं में सुजान सागर, विरह लीला, कृपाकंड निबंध, रसकेलि वल्ली आदि प्रमुख हैं।

निर्मल वर्मा | NIRMAL VERMA | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

निर्मल वर्मा

(सन् 1929-2005)

निर्मल वर्मा का जन्म शिमला (हिमाचल प्रदेश) में - दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कालेज से इतिहास में हुआ। उन्होंने एम.ए. किया और अध्यापन कार्य करने लगे। चेकोस्लोवाकिया के प्राच्य विद्या संस्थान प्राग के निमंत्रण पर सन् 1959 में वहाँ गए और चेक उपन्यासों तथा कहानियों का हिंदी अनुवाद किया।

निर्मल वर्मा को हिंदी के समान ही अंग्रेज़ी पर भी अधिकार प्राप्त था। उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया तथा हिंदुस्तान टाइम्स के लिए यूरोप की सांस्कृतिक एवं राजनीतिक समस्याओं पर अनेक लेख और रिपोर्ताज लिखे हैं जो उनके निबंध संग्रहों में संकलित हैं। सन् 1970 में वे भारत लौट आए और स्वतंत्र लेखन करने लगे।

निर्मल वर्मा का मुख्य योगदान हिंदी कथा-साहित्य के क्षेत्र में है। वे नयी कहानी आंदोलन के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं। परिंदे, जलती झाड़ी, तीन एकांत, पिछली गरमियों में, कव्वे और काला पानी, बीच बहस में, सूखा तथा अन्य कहानियाँ आदि कहानी-संग्रह और वे दिन, लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख तथा अंतिम अरण्य उपन्यास इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। रात का रिपोर्टर जिस पर सीरियल तैयार किया गया है, उनका उपन्यास है। हर बारिश में, चीड़ों पर चाँदनी, धुंध से उठती धुन में उनके यात्रा संस्मरण संकलित हैं। शब्द और स्मृति तथा कला का जोखिम और ढलान से उतरते हुए उनके निबंध-संग्रह हैं, जिनमें विविध विषयों का विवेचन मिलता है। सन् 1985 में कव्वे और काला पानी पर उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसके अतिरिक्त उन्हें कई अन्य पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया।

निर्मल वर्मा की भाषा-शैली में एक ऐसी अनोखी कसावट है, जो विचार-सूत्र की गहनता को विविध उद्धरणों से रोचक बनाती हुई विषय का विस्तार करती है। शब्दचयन में जटिलता न होते हुए भी उनकी वाक्य-रचना में मिश्र और संयुक्त वाक्यों की प्रधानता है। स्थान-स्थान पर उन्होंने उर्दू और अंग्रेज़ी के शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग किया है, जिससे उनकी भाषा-शैली में अनेक नवीन प्रयोगों की झलक मिलती है।

असगर वजाहत | ASGHAR WAJAHAT | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

असगर वजाहत

(जन्म सन् 1946)

असगर वजाहत का जन्म फतेहपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा फतेहपुर में हुई तथा विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से की। सन् 1955-56 से ही असगर वजाहत ने लेखन कार्य प्रारंभ कर दिया था। प्रारंभ में उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन कार्य किया, बाद में वे दिल्ली के जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने लगे। वजाहत ने कहानी, उपन्यास, नाटक तथा लघुकथा तो लिखी ही हैं, साथ ही उन्होंने फ़िल्मों और धारावाहिकों के लिए पटकथा लेखन का काम भी किया है।

उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-दिल्ली पहुँचना है, स्विमिंग पूल और सब कहाँ कुछ, आधी बानी, मैं हिंदू हूँ (कहानी संग्रह), फिरंगी लौट आए, इन्ना की आवाज़, वीरगति, समिधा, जिस लाहौर नई देख्या तथा अकी (नाटक) सबसे सस्ता गोश्त (नुक्कड़ नाटकों) का संग्रह और रात में जागने वाले, पहर दोपहर तथा सात आसमान, कैसी आगि लगाई (प्रमुख उपन्यास)।

असगर वजाहत की भाषा में गांभीर्य, सबल भावाभिव्यक्ति एवं व्यंग्यात्मकता है। मुहावरों तथा तद्भव शब्दों के प्रयोग से उसमें सहजता एवं सादगी आ गई है। असगर वजाहत ने गज़ल की कहानी वृत्तचित्र का निर्देशन किया है तथा बूँद-बूँद धारावाहिक का लेखन भी किया है।

ममता कालिया | MAMTA KALIA | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

ममता कालिया

(जन्म सन् 1940)

ममता कालिया का जन्म मथुरा उत्तर प्रदेश में हुआ। उनकी शिक्षा के कई पड़ाव रहे जैसे नागपुर, पुणे, इंदौर, मुंबई आदि। दिल्ली विश्वविद्यालय से उन्होंने अंग्रेजी विषय से एम.ए. किया एम.ए. करने के बाद सन् 1963-1965 तक दौलत राम कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्राध्यापिका रहीं। 1966 से 1970 तक एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, मुंबई में अध्यापन कार्य, फिर 1973 से 2001 तक महिला सेवा सदन डिग्री कालेज, इलाहाबाद में प्रधानाचार्य रहीं। 2003 से 2006 तक भारतीय भाषा परिषद् कलकत्ता की निदेशक रहीं। वर्तमान में नयी दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।

उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं-बेघर, नरक दर नरक, एक पत्नी के नोट्स, प्रेम कहानी, लड़कियाँ दौड़ आदि (उपन्यास) हैं तथा 12 कहानी संग्रह प्रकाशित हैं जो संपूर्ण कहानियाँ नाम से दो खंडों में प्रकाशित हैं। हाल ही में उनके दो कहानी-संग्रह और प्रकाशित हुए हैं, जैसे पच्चीस साल की लड़की, थियेटर रोड के कौवे।

कथा-साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से साहित्य भूषण 2004 में तथा वहीं से कहानी सम्मान 1989 में प्राप्त हुआ। उनके समग्र साहित्य पर अभिनव भारती कलकत्ता ने रचना पुरस्कार भी दिया। इसके अतिरिक्त उन्हें सरस्वती प्रेस तथा साप्ताहिक हिंदुस्तान का श्रेष्ठ कहानी पुरस्कार भी प्राप्त है।

ममता कालिया शब्दों की पारखी हैं। उनका भाषाज्ञान अत्यंत उच्चकोटि का है। साधारण शब्दों में भी अपने प्रयोग से जादुई प्रभाव उत्पन्न कर देती हैं। विषय के अनुरूप सहज भावाभिव्यक्ति उनकी खासियत है। व्यंग्य की सटीकता एवं सजीवता से भाषा में एक अनोखा प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। अभिव्यक्ति की सरलता एवं सुबोधता उसे विशेष रूप से मर्मस्पर्शी बना देती है।

पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी | CHANDRADHAR SHARMA GULERI | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी

(सन् 1883-1922)

पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म पुरानी बस्ती, जयपुर में हुआ। गुलेरी जी बहुभाषाविद् थे। संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज, अवधी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, बाँग्ला के साथ अंग्रेजी, लैटिन तथा फ्रेंच आदि भाषाओं में भी उनकी अच्छी गति थी। वे संस्कृत के पंडित थे। प्राचीन इतिहास और पुरातत्व उनका प्रिय विषय था। उनकी गहरी रुचि भाषा विज्ञान में थी। गुलेरी जी की सृजनशीलता के चार मुख्य पड़ाव हैं - समालोचक (1903-06 ई.), मर्यादा (1911-12), प्रतिभा (1918-20) और नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1920-22) इन पत्रिकाओं में गुलेरी जी का रचनाकार व्यक्तित्व बहुविध उभरकर सामने आया।

चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने उत्कृष्ट निबंधों के अतिरिक्त तीन कहानियाँ- सुखमय जीवन, बुद्ध का काँटा और उसने कहा था भी हिंदी जगत को दीं। सिर्फ़ उसने कहा था कहानी तो गुलेरी जी का पर्याय ही बन चुकी है। गुलेरी जी की विद्वत्ता का ही प्रमाण और प्रभाव था कि उन्होंने 1904 से 1922 तक अनेक महत्त्वपूर्ण संस्थानों में अध्यापन कार्य किया, इतिहास दिवाकर की उपाधि से सम्मानित हुए और पं. मदन मोहन मालवीय के आग्रह पर 11 फरवरी 1922 ई. को काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्राच्य विभाग के प्राचार्य बने।

ब्रजमोहन व्यास | BRAJMOHAN VYAS | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय | HINDI WRITER

ब्रजमोहन व्यास

(सन् 1886-1963)

ब्रजमोहन व्यास का जन्म इलाहाबाद में हुआ। पं. गंगानाथ झा और पं. बालकृष्ण भट्ट से उन्होंने संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया। व्यास जी सन् 1921 से 1943 तक इलाहाबाद नगरपालिका के कार्यपालक अधिकारी रहे। सन् 1944 से 1951 के लीडर समाचारपत्र समूह के जनरल मैनेजर रहे। 23 मार्च 1963 को इलाहाबाद में ही उनका देहावसान हुआ। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं - जानकी हरण (कुमारदास कृत) का अनुवाद, पं. बालकृष्ण भट्ट (जीवनी), महामना मदन मोहन मालवीय (जीवनी)। मेरा कच्चा चिट्ठा उनकी आत्मकथा है।

फणीश्वरनाथ 'रेणु' | PHANISHWAR NATH RENU | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

फणीश्वरनाथ 'रेणु'

(सन् 1921-1977)

फणीश्वरनाथ 'रेणु' का जन्म बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना नामक गाँव में हुआ था। उन्होंने 1942 ई. के 'भारत छोड़ो' स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया। नेपाल के राणाशाही विरोधी आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भूमिका रही। वे राजनीति में प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे। 1953 ई. में वे साहित्य-सृजन के क्षेत्र में आए और उन्होंने कहानी, उपन्यास तथा निबंध आदि विविध साहित्यिक विधाओं में लेखन कार्य किया।

रेणु हिंदी के आंचलिक कथाकार हैं। उन्होंने अंचल-विशेष को अपनी रचनाओं का आधार बनाकर, आंचलिक शब्दावली और मुहावरों का सहारा लेते हुए, वहाँ के जीवन और वातावरण का चित्रण किया है। अपनी गहरी मानवीय संवेदना के कारण वे अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा स्वयं भोगते-से लगते हैं। इस संवेदनशीलता के साथ उनका यह विश्वास भी जुड़ा है कि आज के त्रस्त मनुष्य के भीतर अपनी जीवन-दशा को बदल देने की अकूत ताकत छिपी हुई है।

उनके प्रसिद्ध कहानी-संग्रह हैं - ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक। तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम कहानी पर फ़िल्म बन चुकी है। मैला आँचल और परती परिकथा उनके उल्लेखनीय उपन्यास हैं।

फणीश्वरनाथ रेणु स्वतंत्र भारत के प्रख्यात कथाकार हैं। रेणु ने अपनी रचनाओं के द्वारा प्रेमचंद्र की विरासत को नयी पहचान और भंगिमा प्रदान की। इनकी कला सजग आँखें, गहरी मानवीय संवदेना और बदलते सामाजिक यथार्थ की पकड़ अपनी अलग पहचान रखते हैं। रेणु ने मैला आँचल, 'परती परिकथा' जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण उपन्यासों के साथ अपने शिल्प और आस्वाद में भिन्न हिंदी कथा-नई परंपरा को जन्म दिया। आधुनिकतावादी फैशन से दूर ग्रामीण समाज रेणु की कलम से इतना रससिक्त, प्राणवान और नया आयाम ग्रहण कर सका है कि नगर एवं ग्राम के विवादों से अलग उसे नयी सांस्कृतिक गरिमा प्राप्त हुई। रेणु की कहानियों में आंचलिक शब्दों के प्रयोग से लोकजीवन के मार्मिक स्थलों की पहचान हुई है। उनकी भाषा संवेदनशील, संप्रेषणीय एवं भाव प्रधान है। ममतक पीड़ा और भावनाओं के द्वंद्व को उभारने में लेखक की भाषा अंतरमन को छू लेती है।

भीष्म साहनी| BHISHAM SAHNI | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

भीष्म साहनी

(सन् 1915-2003)

भीष्म साहनी का जन्म रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर में ही हुई। इन्होंने उर्दू और अंग्रेज़ी का अध्ययन स्कूल में किया। गवर्नमेंट कालेज लाहौर से आपने अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया, तदुपरांत पंजाब विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की।

देश-विभाजन से पूर्व इन्होंने व्यापार के साथ-साथ मानद (ऑनरेरी) अध्यापन का कार्य किया। विभाजन के बाद पत्रकारिता, इप्टा नाटक मंडली में काम किया, मुंबई में बेरोज़गार भी रहे। फिर अंबाला के एक कॉलेज में तथा खालसा कॉलेज, अमृतसर में अध्यापन से जुड़े। कुछ समय बाद स्थायी रूप से दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज में साहित्य का अध्यापन किया। लगभग सात वर्ष विदेशी भाषा प्रकाशन गृह मास्को में अनुवादक के पद पर भी कार्यरत रहे। रूस प्रवास के दौरान रूसी भाषा का अध्ययन और लगभग दो दर्जन रूसी पुस्तकों का अनुवाद उनकी विशेष उपलब्धि रही। लगभग ढाई वर्षों तक नयी कहानियाँ का कुशल संपादन किया। ये प्रगतिशील लेखक संघ तथा अफ्रो-एशियाई लेखक संघ से भी संबद्ध रहे।

उनकी प्रमुख कृतियों में भाग्यरेखा, पहला पाठ, भटकती राख, पटरियाँ, वाचू, शोभायात्रा, निशाचर, पाली, डायन (कहानी-संग्रह), झरोखे, कड़ियाँ, तमस, बसंती, मय्यादास की माड़ी, कुंतो, नीलू नीलिमा नीलोफर (उपन्यास), माधवी, हानूश, कबिरा खड़ा बजार में, मुआवजे (नाटक), गुलेल का खेल (बालोपयोगी कहानियाँ) आदि महत्त्वपूर्ण हैं।

तमस उपन्यास के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके साहित्यिक अवदान के लिए हिंदी अकादमी, दिल्ली ने उन्हें शलाका सम्मान से सम्मानित किया। उनकी भाषा में उर्दू शब्दों का प्रयोग विषय को आत्मीयता प्रदान करता है। उनकी भाषा-शैली में पंजाबी भाषा की सोंधी महक भी महसूस की जा सकती है। साहनी जी छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग करके विषय को प्रभावी एवं रोचक बना देते हैं। संवादों का प्रयोग वर्णन में ताज़गी ला देता है।

बुधवार, 19 जनवरी 2022

रघुवीर सहाय | RAGHUVIR SAHAY | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

रघुवीर सहाय

(सन् 1929-1990)

रघुवीर सहाय का जन्म लखनऊ (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उनकी संपूर्ण शिक्षा लखनऊ में ही हुई। वहीं से उन्होंने 1951 में अंग्रेजी साहित्य में एम.ए किया। रघुवीर सहाय पेशे से पत्रकार थे। आरंभ में उन्होंने प्रतीक में सहायक संपादक के रूप में काम किया। फिर वे आकाशवाणी के समाचार विभाग में रहे। कुछ समय तक वे हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका कल्पना के संपादन से भी जुड़े रहे और कई वर्षों तक उन्होंने दिनमान का संपादन किया।

रघुवीर सहाय नयी कविता के कवि हैं। उनकी कुछ कविताएँ अज्ञेय द्वारा संपादित दूसरा सप्तक में संकलित हैं। कविता के अलावा उन्होंने रचनात्मक और विवेचनात्मक गद्य भी लिखा है। उनके काव्य-संसार में आत्मपरक अनुभवों की जगह जनजीवन के अनुभवों की रचनात्मक अभिव्यक्ति अधिक है। वे व्यापक सामाजिक संदर्भों के निरीक्षण, अनुभव और बोध को कविता में व्यक्त करते हैं।

रघुवीर सहाय ने काव्य-रचना में अपनी पत्रकार-दृष्टि का सर्जनात्मक उपयोग किया है। वे मानते हैं कि अखबार की खबर के भीतर दबी और छिपी हुई ऐसी अनेक खबरें होती हैं, जिनमें मानवीय पीड़ा छिपी रह जाती है। उस छिपी हुई मानवीय पीड़ा की अभिव्यक्ति करना कविता का दायित्व है। इस काव्य-दृष्टि के अनुरूप ही उन्होंने अपनी नयी काव्य-भाषा का विकास किया है। वे अनावश्यक शब्दों के प्रयोग से प्रयासपूर्वक बचते हैं। भयाक्रांत अनुभव की आवेगरहित अभिव्यक्ति उनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। रघुवीर सहाय ने मुक्त छंद के साथ-साथ छंद में भी काव्य-रचना की है। जीवनानुभवों की अभिव्यक्ति के लिए वे कविता की संरचना में कथा या वृत्तांत का उपयोग करते हैं।

उनकी प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं- सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हँसो हँसो जल्दी हँसो और लोग भूल गए हैं। छह खंडों में रघुवीर सहाय रचनावली प्रकाशित हुई है, जिसमें उनकी लगभग सभी रचनाएँ संगृहीत हैं। लोग भूल गए हैं काव्य संग्रह पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मला था।

केदारनाथ सिंह | KEDARNATH SINGH | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

केदारनाथ सिंह

(1934 - 2018)

केदारनाथ सिंह का जन्म बलिया जिले के चकिया गाँव में हुआ। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. करने के बाद उन्होंने वहीं से 'आधुनिक हिंदी कविता में बिम्ब-विधान' विषय पर पीएच.डी. उपाधि प्राप्त की। कुछ समय गोरखपुर में हिंदी के प्राध्यापक रहे फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र में हिंदी के प्रोफेसर के पद से अवकाश प्राप्त किया। संप्रति दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। केदारनाथ सिंह मूलतः मानवीय संवेदनाओं के कवि हैं। अपनी कविताओं में उन्होंने बिंब-विधान पर अधिक बल दिया है। केदारनाथ सिंह की कविताओं में शोर-शराबा न होकर, विद्रोह का शांत और संयत स्वर सशक्त रूप में उभरता है। ज़मीन पक रही है संकलन में ज़मीन, रोटी, बैल आदि उनकी इसी प्रकार की कविताएँ हैं। संवेदना और विचारबोध उनकी कविताओं में साथ-साथ चलते हैं। जीवन के बिना प्रकृति और वस्तुएँ कुछ भी नहीं हैं यह अहसास उन्हें अपनी कविताओं में आदमी के और समीप ले आया है।

इस प्रक्रिया में केदारनाथ सिंह की भाषा और भी नम्य और पारदर्शी हुई है और उनमें एक नयी ऋजुता और बेलौसपन आया है। उनकी कविताओं में रोज़मर्रा के जीवन के अनुभव परिचित बिंबों में बदलते दिखाई देते हैं। शिल्प में बातचीत की सहजता और अपनापन अनायास ही दृष्टिगोचर होता है। अकाल में सारस कविता संग्रह पर उनको 1989 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से और 1994 में मध्य प्रदेश शासन द्वारा संचालित मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय सम्मान तथा कुमारन आशान, व्यास सम्मान, दयावती मोदी पुरस्कार आदि अन्य कई सम्मानों से भी सम्मानित किया गया है।

अब तक केदारनाथ सिंह के सात काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं-अभी बिलकुल अभी, ज़मीन पक रही है, यहाँ से देखो, अकाल में सारस, उत्तर कबीर तथा अन्य कविताएँ - बाघ, टालस्टाय और साईकिल। कल्पना और छायावाद और आधुनिक हिंदी कविता में बिंब विधान का विकास उनकी आलोचनात्मक पुस्तकें हैं। मेरे समय के शब्द तथा कब्रिस्तान में पंचायत निबंध संग्रह हैं। हाल ही में उनकी चुनी हुई कविताओं का संग्रह प्रतिनिधि कविताएँ नाम से प्रकाशित हुआ है। उनके द्वारा संपादित ताना-बाना नाम से विविध भारतीय भाषाओं का हिंदी में अनूदित काव्य संग्रह हाल ही में प्रकाशित हुआ है।

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' | SACHCHIDANANDA HIRANANDA VATSYAYAN AGYEYA | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय | AGYEYA

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' 

(सन् 1911-1987)

अज्ञेय का मूल नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन है। उन्होंने अज्ञेय नाम से काव्य-रचना की। उनका जन्म कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था, किंतु बचपन लखनऊ, श्रीनगर और जम्मू में बीता। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अंग्रेजी और संस्कृत में हुई। हिंदी उन्होंने बाद में सीखी। वे आरंभ में विज्ञान के विद्यार्थी थे। बी.एससी. करने के बाद उन्होंने एम. ए. अंग्रेज़ी में प्रवेश लिया। क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें अपना अध्ययन बीच में ही छोड़ना पड़ा। वे चार वर्ष जेल में रहे तथा दो वर्ष नज़रबंद। अज्ञेय ने देश-विदेश की अनेक यात्राएँ कीं। उन्होंने कई नौकरियाँ की और छोड़ीं। कुछ समय तक वे जोधपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भी रहे। वे हिंदी के प्रसिद्ध समाचार साप्ताहिक दिनमान के संस्थापक संपादक थे। कुछ दिनों तक उन्होंने नवभारत टाइम्स का भी संपादन किया। इसके अलावा उन्होंने सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, नया प्रतीक आदि अनेक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया।

आज़ादी के बाद की हिंदी कविता पर उनका व्यापक प्रभाव है। उन्होंने सप्तक परंपरा का सूत्रपात करते हुए तार सप्तक, दूसरा सप्तक, तीसरा सप्तक का संपादन किया। प्रत्येक सप्तक में कवियों की कविताएँ संगृहीत जो शताब्दी कई दशकों की काव्य-चेतना प्रकट करती हैं। अज्ञेय कविता के साथ कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, निबंध, आलोचना अनेक साहित्यिक विधाओं लेखन किया है। शेखर-एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी (उपन्यास), यायावर रहेगा याद, बूँद सहसा उछली (यात्रा-वृत्तांत), त्रिशंकु, आत्मने (निबंध), विपथगा, परंपरा, कोठरी बात, शरणार्थी, जयदोल और तेरे प्रतिरूप (कहानी संग्रह) उनकी रचनाएँ।

अज्ञेय प्रकृति-प्रेम और मानव-मन अंतद्वंद्वों के कवि हैं। उनकी कविता में व्यक्ति की स्वतंत्रता आग्रह और बौद्धिकता का विस्तार भी। उन्होंने शब्दों नया देने का हिंदी काव्य-भाषा का विकास किया उन्हें हैं, जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रमुख है। उनकी मुख्य काव्य-कृतियाँ हैं- भग्नदूत, चिंता, हरी घास पर क्षणभर, इंद्रधनु रौंदे हुए ये, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार आदि। अज्ञेय की संपूर्ण कविताओं का संकलन सदानीरा नाम से दो भागों में प्रकाशित हुआ है।

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' | SURYAKANT TRIPATHI NIRALA | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

(1898-1961)

निराला का जन्म बंगाल में मेदिनीपुर जिले के महिषादल गाँव में हुआ था। उनका पितृग्राम उत्तर प्रदेश का गढ़कोला (उन्नाव) है। उनके बचपन का नाम सूर्य कुमार था। बहुत छोटी आयु में ही उनकी माँ का निधन हो गया। निराला की विधिवत स्कूली शिक्षा नवीं कक्षा तक ही हुई। पत्नी की प्रेरणा से निराला की साहित्य और संगीत में रुचि पैदा हुई। सन् 1918 में उनकी पत्नी का देहांत हो गया और उसके बाद पिता, चाचा, चचेरे भाई एक-एक कर सब चल बसे। अंत में पुत्री सरोज की मृत्यु ने निराला को भीतर तक झकझोर दिया। अपने जीवन में निराला ने मृत्यु का जैसा साक्षात्कार किया था उसकी अभिव्यक्ति उनकी कई कविताओं में दिखाई देती है। सन् 1916 में उन्होंने प्रसिद्ध कविता जूही की कली लिखी जिससे बाद में उनको बहुत प्रसिद्धि मिली और वे मुक्त छंद के प्रवर्तक भी माने गए। निराला सन् 1922 में रामकृष्ण मिशन द्वारा प्रकाशित पत्रिका समन्वय के संपादन से जुड़े। सन् 1923-24 में वे मतवाला के संपादक मंडल में शामिल हुए। वे जीवनभर पारिवारिक और आर्थिक कष्टों से जूझते रहे। अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारण निराला कहीं टिककर काम नहीं कर पाए। अंत में इलाहाबाद आकर रहे और वहीं उनका देहांत हुआ।

छायावाद और हिंदी की स्वच्छंदतावादी कविता के प्रमुख आधार स्तंभ निराला का काव्य-संसार बहुत व्यापक है। उनमें भारतीय इतिहास, दर्शन और परंपरा का व्यापक बोध है और समकालीन जीवन के यथार्थ के विभिन्न पक्षों का चित्रण भी। भावों और विचारों की जैसी विविधता, व्यापकता और गहराई निराला की कविताओं में मिलती है वैसी बहुत कम कवियों में है। उन्होंने भारतीय प्रकृति और संस्कृति के विभिन्न रूपों का गंभीर चित्रण अपने काव्य में किया है। भारतीय किसान | जीवन से उनका लगाव उनकी अनेक कविताओं में व्यक्त हुआ है। यद्यपि निराला मुक्त छंद के प्रवर्तक माने जाते हैं तथापि उन्होंने विभिन्न छंदों में भी कविताएँ लिखी हैं। उनके काव्य-संसार में काव्य-रूपों की भी विविधता है। एक ओर उन्होंने राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास जैसी प्रबंधात्मक कविताएँ लिखीं तो दूसरी ओर प्रगीतों की भी रचना की। उन्होंने हिंदी भाषा में गजलों की भी रचना की है। उनकी सामाजिक आलोचना व्यंग्य के रूप में उनकी कविताओं में जगह-जगह प्रकट हुई है। निराला की काव्यभाषा के अनेक रूप और स्तर हैं। राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास में तत्समप्रधान पदावली है तो भिक्षुक जैसी कविता में बोलचाल की भाषा का सृजनात्मक प्रयोग। भाषा का कसाव, शब्दों की मितव्ययिता और अर्थ की प्रधानता उनकी काव्य-भाषा की जानी-पहचानी विशेषताएँ हैं।

निराला की प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं-परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना, गीतगुंज आदि। निराला ने कविता के अतिरिक्त कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे। उनके उपन्यासों में बिल्लेसुर बकरिहा विशेष चर्चित हुआ। उनका संपूर्ण साहित्य निराला रचनावली के आठ खंडों में प्रकाशित हो चुका है।

जयशंकर प्रसाद | JAISHANKAR PRASAD | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

जयशंकर प्रसाद

(1889-1937)

जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी में हुआ। वे विद्यालयी शिक्षा केवल आठवीं कक्षा तक प्राप्त कर सके, किंतु स्वाध्याय द्वारा उन्होंने संस्कृत, पालि, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं तथा साहित्य का गहन अध्ययन किया। इतिहास, दर्शन, धर्मशास्त्र और पुरातत्त्व के वे प्रकांड विद्वान थे। प्रसाद जी अत्यंत सौम्य, शांत एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। वे परनिंदा एवं आत्मस्तुति दोनों से सदा दूर रहते थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। मूलतः वे कवि थे, लेकिन उन्होंने नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध आदि अनेक साहित्यिक विधाओं में उच्चकोटि की रचनाओं का सृजन किया।

प्रसाद साहित्य में राष्ट्रीय जागरण का स्वर प्रमुख है। संपूर्ण साहित्य में विशेषकर नाटकों में प्राचीन भारतीय संस्कृति के गौरव के माध्यम से प्रसाद जी ने यह काम किया। उनकी कविताओं, कहानियों में भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों की झलक मिलती है। प्रसाद ने कविता के साथ नाटक, उपन्यास, कहानी संग्रह, निबंध आदि अनेक साहित्यिक विधाओं में लेखन कार्य किया है। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं - अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, राजश्री, ध्रुवस्वामिनी (नाटक); कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण) (उपन्यास), आँधी, इंद्रजाल, छाया, प्रतिध्वनि और आकाशदीप (कहानी संग्रह), काव्य और कला तथा अन्य निबंध (निबंध संग्रह), झरना, आँसू, लहर, कामायनी, कानन कुसुम, और प्रेमपथिक (कविताएँ)।

विष्णु खरे | VISHNU KHARE | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

विष्णु खरे

(सन् 1940-2018)

विष्णु खरे का जन्म छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश में हुआ। क्रिश्चियन कॉलेज, इंदौर से 1963 में उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया। 1962-63 में दैनिक इंदौर समाचार में उप संपादक रहे। 1963-75 तक मध्य प्रदेश तथा दिल्ली के महाविद्यालयों में अध्यापन से भी जुड़े। इसी बीच 1966-67 में लघु-पत्रिका व्यास का संपादन किया। तत्पश्चात् 1976-84 तक साहित्य अकादमी में उप सचिव (कार्यक्रम) पद पर पदासीन रहे। 1985 से नवभारत टाइम्स में प्रभारी कार्यकारी संपादक के पद पर कार्य किया। बीच में लखनऊ संस्करण तथा रविवारीय नवभारत टाइम्स (हिंदी) और अंग्रेज़ी टाइम्स ऑफ़ इंडिया में भी संपादन कार्य से जुड़े रहे। 1993 में जयपुर नवभारत टाइम्स के संपादक के रूप में भी कार्य किया। इसके बाद जवाहर लाल नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में दो वर्ष वरिष्ठ अध्येता रहे। अब स्वतंत्र लेखन तथा अनुवाद कार्य में रत हैं।

औपचारिक रूप से उनके लेखन प्रकाशन का आरंभ 1956 से हुआ। पहला प्रकाशन टी.एस. इलियट का अनुवाद मरू प्रदेश और अन्य कविताएँ 1960 में, दूसरा कविता संग्रह एक गैर-रूमानी समय में 1970 में प्रकाशित हुआ। तीसरा संग्रह खुद अपनी आँख से 1978 में, चौथा सबकी आवाज़ के परदे में 1994 में, पाँचवाँ पिछला बाकी तथा छठा काल और अवधि के दरमियान प्रकाशित हुए। एक समीक्षा-पुस्तक आलोचना की पहली किताब 1983 में प्रकाशित। उन्होंने विदेशी कविताओं का हिंदी तथा हिंदी-अंग्रेजी अनुवाद अत्यधिक किया है। उनको फिनलैंड के राष्ट्रीय सम्मान नाइट ऑफ दि आर्डर ऑफ दि व्हाइट रोज़ से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त रघुवीर सहाय सम्मान, शिखर सम्मान हिंदी अकादमी दिल्ली का साहित्यकार सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान मिल चुका है। इनकी कविताओं में जड़ताओं और अमानवीय स्थितियों के विरुद्ध सशक्त नैतिक स्वर की अभिव्यक्ति है।