शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी | INDIRA GANDHI

भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी

श्रीमती कृष्णा हठी सिंह ने अपनी पुस्तक 'हम नेहरू' में एक प्रसंग का उल्लेख किया है। उनके पास बैठी नन्हीं इन्दु कुछ बुदबुदा रही थी। उन्होंने पूछा “यह क्या हो रहा है?” इन्दु ने अपने घने काले बालों से घिरे चमकते चेहरे को उठाया और दृढ़ता से कहा “जोन आफ आर्क बनने की कोशिश कर रही हैं। एक दिन उसी की तरह मैं भी अपने लोगां की सेवा करूँगी उनका नेतृत्व करूँगी” आगे चलकर वह नन्ही बच्ची इन्दु भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के नाम से प्रसिद्ध हुई इन्दिरा जी का बचपन का नाम इन्दिरा प्रियदर्शिनी था। सब प्यार से इन्हें इन्दु बुलाते थे।

जन्म - 19 नवम्बर 1917

स्थान – इलाहाबाद

पिता का नाम - पं. जवाहर लाल नेहरू

माता का नाम - श्रीमती कमला नेहरू

पति का नाम - श्री फिरोज गांधी

मृत्यु - 31 अक्टूबर 1984

पं. मोती लाल नेहरू की पौत्री तथा पं. जवाहर लाल नेहरू की पुत्री इन्दिरा के रोम रोम में देश-प्रेम की भावना थी। जब वह मात्र तेरह वर्ष की थीं एक दिन कांग्रेस पार्टी के कार्यालय में जा पहुँचीं और बोलीं “मुझे भी कांग्रेस का सदस्य बनना है।”

उनसे कहा गया, “तुम अभी बहुत छोटी हो बड़ी हो जाओ तुम्हें सदस्य बना देंगे" इन्दिरा जी को यह बात जँची नहीं। उन्होंने संकल्प किया कि मैं अपनी कांग्रेस स्वयं बनाउँगी। उन्होंने बच्चों की बिग्रेड बनायी। इसमें वयस्क शामिल नहीं हो सकते थे। इन्दिरा जी ने इसका नाम “वानर सेना" रखा। इस "वानर सेना” का मुख्य कार्य स्वतंत्रता सेनानियों की सहायता करना था।

वानर सेना के बालक-बालिकाएँ सन्देश पहुँचाने, प्राथमिक सहायता करने, खाने की व्यवस्था करने तथा झण्डा फहराने जैसे सरल परन्तु महत्वपूर्ण कार्य करते थे।

पण्डित जवाहर लाल नेहरू अपनी प्रियदर्शिनी को ऐसी शिक्षा देना चाहते थे कि, उनके व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास हो सके। पं. नेहरू व उनकी पत्नी के स्वतन्तरता आन्दोलन में सक्रिय होने के कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। इसका प्रियदर्शिनी की शिक्षा पर असर पड़ा। वे लगातार एक ही जगह स्थिर रहकर शिक्षा ग्रहण न कर सकीं। उन्होंने दिल्ली, इलाहाबाद और पुणे के स्कूलों में शिक्षा पायी। पुणे से मैटी कुलेशनश्की परीक्षा पास करने के बाद वे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के शान्ति निकेतन में आ गयीं। यहाँ पढाई लिखाई के साथ उन्हों ने नन्दलाल बोस से चित्रकला सीखी।

एक बार एक विदेशी प्रोफेसर कला भवन में भाषण देने आए। कलाभवन में जूते पहन कर जाना मना था। वे भूलवश जूते पहन कर कलाभवन में प्रवेश कर गए। जब तीन चार दिन तक ऐसा ही होता रहा तो एक दिन प्रोफेसर के प्रवेश करते ही सारे विद्यार्थी अनुशासित तरीके से कतारबद्ध होकर कक्ष से बाहर हो गये। शिकायत गुरुदेव के पास पहुँची। जाँच करने पर मालूम हुआ कि विरोधी दल का नेतृत्व इन्दिरा ने किया था। गुरुदेव मुस्कराये सत्य की ऐसी पकड़ और अनुशासन के प्रति ऐसी आस्था देखकर उन्होंने उसी दिन भविष्यवाणी की “यह बालिका असाधारण है और इसमें संकल्पों को जीने की शक्ति है।” इन्दिरा जी के व्यक्तित्व पर पं. नेहरू का बहुत प्रभाव पड़ा। पिता पुत्री के सम्बन्ध बेहद आत्मीय थे। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान पं. नेहरू को कई बार जेल जाना पड़ा वे जेल से पत्रों द्वारा पुत्री से सम्पर्क बनाए रखते थे। पत्रों का संग्रह ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम' से प्रकाशित हुआ है। नेहरू जी द्वारा नैनी जेल से इन्दिरा जी को लिखे एक पत्र के कुछ अंश:

कई बार हम संदेह में भी पड़ जाते हैं कि हम क्या करें क्या न करें? यह निश्चय करना कोई सरल कार्य नहीं है। जब भी तुम्हें ऐसा संदेह हो तो ठीक बात का निश्चय करने के तुम्हें एक छोटा सा उपाय बताता हूँ। तुम कोई भी काम ऐसा न करना जिसे दूसरों से छिपाने की इच्छा तुम्हारे मन में उठे। किसी बात को छिपाने की इच्छा तभी होती है जब तुम कोई गलत काम करती हो। बहादुर बनो और सब कुछ स्वयं ही ठीक हो जायेगा। यदि तुम बहादुर बनोगी तो तुम ऐसी कोई बात नहीं करोगी जिससे तुम्हें डरना पड़े या जिसे करने में तुम्हें लज्जित होना पड़े।

निर्भीकता और आत्मविश्वास जैसे गुण उन्हें पिता से विरासत में मिले थे। इन्दिरा जी कठिन परिस्थितियों में धैर्य खोये बिना स्वविवेक से निर्णय लेने में सक्षम थीं। इन विलक्षण गुणों ने इन्दिरा जी को राजनीति के उच्चशिखर पर पहुँचा दिया। उनके पिता ने उन्हें गहन राजनीतिक प्रशिक्षण दिया था। वह लगातार 29 वर्ष तक पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर राजनीतिक कार्यों में उनकी सहायता करती रहीं। इन्दिरा जी ने अपने पिता के साथ अनेक देशों की यात्रायें भी की। इस बीच सन 1942 ई. में श्री फिरोज गांधी के साथ उनका विवाह हो गया। उनके दो पुत्र थे राजीव गांधी व संजय गांधी ये दोनों भी राजनीति के क्षेत्र में काफी सक्रिय रहे। राजीव गांधी उनकी मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री बने परन्तु संजय गांधी का युवावस्था में एक दुर्घटना में देहान्त हो गया, इन्दिरा जी ने इस सदमे को बहुत धैर्य व साहस से झेला।

इन्दिरा जी का राजनीतिक सफरनामा:

**सन् 1958 में वे कांग्रेस के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड की सदस्या बनीं।

**सन् 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गयीं।

**सन् 1962 में यूनेस्को अधिशासी मण्डल की सदस्य चुनी गयीं।

**श्री लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमण्डल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनीं।

** 24 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1977 तक प्रधानमंत्री पद पर रहीं।

**दूसरी बार 14 जनवरी 1980 से 31 अक्टूबर 1984 तक प्रधानमंत्री पद पर रहीं।

प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते हुए उन्हें भारत-पाक युद्ध का भी सामना करना पड़ा। इस कठिन समय में उन्होंने अभूतपूर्व धैर्य और साहस का परिचय दिया। इन्दिरा जी के कुशल नेतृत्व में भारतीय सेना ने पकिस्तानी सेना के छक्के छुडा दिए। श्रीमती गांधी के अदम्य साहस के बारे में एक ब्रिटिश दैनिक की संवाददाता ने लिखा था कि अनेक भारतीय सैनिक अधिकारियों तथा जवानों ने मुझे बताया कि अक्सर घमासान लड़ाई के बीच साड़ी पहने एक दुबली सी आकृति आ जाती थी। वह इन्दिरा जी हुआ करती थीं जो कि फौज की खैरियत जानने के लिए उत्सुक रहती थीं।

एक महत्वपूर्ण निर्णय

सन् 1971 ई. की लड़ाई में श्रीमती गांधी ने एक तरफा युद्ध विराम की घोषणा की और पाकिस्तान की पराजय हुयी। इसी युद्ध के परिणामस्वरूप बांग्ला देश का जन्म हुआ। इसका श्रेय इन्दिरा जी को जाता है। इस युद्ध से भारत एशिया की प्रमुख शक्ति बनकर उभरा और इन्दिरा जी विश्व की प्रमुख नेता के रूप में उभर कर सामने आयीं।

इन्दिरा जी के राजनैतिक जीवन में यों तो कई उतार-चढ़ाव आये परन्तु सन् 1977 ई. के आम चुनाव में उनकी पार्टी की हार से उन्हें कठिन संघर्ष का सामना करना पड़ा। दरअसल श्रीमती गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा ही उनकी पार्टी की हार का कारण बनी। उनके इस निर्णय से जनता रुष्ट हो गयी परन्तु वे जनता पर अपने अटूट विश्वास के सहारे पुनः सत्तारूढ़ हुयीं। वे सदैव विश्वशांति की प्रबल पक्षधर रहीं। उनका व्यक्तित्व ऐसे समय में उभरा जब राष्ट्र अनेक प्रकार के संकट और समस्याओं से घिरा था। एक राजनीतिक योद्धा के रूप में उन्होंने इस देश की सेवा अपनी सम्पूर्ण क्षमता से की, ताकि विश्व में देश का मान-सम्मान बढ़े। अपने कार्यकाल में उन्होंने अनेक महवपूर्ण कार्यक्रम चलाये। उन्होंने देश की दुखती रग को समझा और 'गरीबी हटाओ' का नारा दिया।

बीस सूत्रीय कार्यक्रम के द्वारा इन्दिरा जी ने अनेक मोर्चों पर महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित कीं। विज्ञान और तकनीकी विकास के नए द्वार खोले परमाणु शक्ति का विकास किया तथा देश को अन्तरिक्ष युग में पहुँचाया। कैप्टन राकेशशर्मा द्वारा अंतरिक्ष यात्रा उनके प्रधानमंत्रित्व काल की महँत्वपूर्ण उपलब्धि है। वे निरन्तर देश को प्रगतिशील तथा समृद्धिशाली बनाने के प्रयास में जुटी रहीं। इन्दिरा जी के शासनकाल में खेलकूद को बहुत प्रोत्साहन मिला। सन् 1982 ई. में एशियाड़ खेलों का भव्य आयोजन हुआ। उन्हें अपने जीवन काल में देशवासियों का अपार स्नेह और सम्मान मिला। उनके रोम-रोम में देशप्रेम व्याप्त था। 30 अक्टूबर 1984 ई. को उडीसा में दिया गया उनका भाषण इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

“देश सर्वोपरि है। अगर मैं देश की सेवा करते हुए मर भी जाती हूँ तो मुझे इस पर नाज होगा। मुझे विश्वास है कि मेरे खून का हर कतरा इस राष्ट्र के विकास में योगदान करेगा और इसे मजबूत और गतिशील बनाएगा”। - श्रीमती इन्दिरा गांधी

यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अपने इस भाषण के अगले ही दिन भारत की यह महान सुपुत्री इन्दिरा अपने ही अंगरक्षक की गोलियों का निशाना बन गयीं। यद्यपि आज वे हमारे बीच नहीं है परन्तु उनकी स्मृतियाँ हर भारतीय के दिल में चिरस्थायी रहेगी।

वर्तमान काल के महान संगीतज्ञ स्वर कोकिला लता मंगेशकर | LATA MANGESHKAR

वर्तमान काल के महान संगीतज्ञ 

स्वर कोकिला लता मंगेशकर

संगीत के क्षेत्र में भारत हमेशा ही सम्पूर्ण विश्व का सिरमौर रहा है। यहाँ के संगीत ने पत्थरों को पिघला दिया, बुझते दीपों को प्रज्ज्वलित कर दिया और विश्वजन को संगीत रस से सराबोर कर दिया।

यहाँ हम संगीत के क्षेत्र की ऐसी विलक्षण प्रतिभाओं के बारे में जानेंगे, जिन्होनें बीसवीं शताब्दी में भारतीय संगीत को नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाया और विश्वसंगीत में भारत के वैशिष्ट्य को बनाए रखा।

देश प्रेम और अखण्डता की सरगम - स्वर कोकिला लता मंगेशकर

गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड विश्व का वह महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें विश्व के आश्चर्य अजूबे अंकित किये जाते हैं। क्या आप जानते हैं? भारत की वह कौन सी गायिका है, जिसके नाम सर्वाधिक गीत गाने का रिकार्ड इस पुस्तक में अंकित है? वह भारत कोकिला, स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर हैं जिन पर हम सब भारतीयों को गर्व है।

लता मंगेशकर का जन्म 28 सितम्बर 1929 को इन्दौर में हुआ। इनकी माता का नाम शुद्धमती तथा पिता का नाम पण्डित दीनानाथ मंगेशकर था। पिता शास्त्रीय गायक थे और थियेटर कम्पनी चलाते थे। वे ग्वालियर घराने में संगीत की शिक्षा भी देते थे। उन्होंने लता को पाँच वर्ष की उम्र से ही संगीत की शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया। लता की संगीत में विशेष प्रतिभा देखकर वे कहा करते, "यह लड़की एक दिन चमत्कार साबित होगी।

लता ने अपना प्रथम आकाशवाणी कार्यक्रम 16 दिसम्बर 1941 को प्रस्तुत किया जिसे सुनकर माता-पिता गद्गद हो गए। दुर्भाग्य से 1942 में दीनानाथ जी की मृत्यु हो गयी और परिवार का सम्पूर्ण दायित्व लता पर आ गया। उनके भाई हृदयनाथ और बहिनें आशा, ऊषा व मीना उस समय अत्यन्त छोटे थे। सन् 1942 से 1948 तक लता ने मराठी और हिन्दी की लगभग छः फिल्मों में अभिनय किया और परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधारा।

लता मंगेशकर ने पहली बार मराठी फिल्म के लिए गाना गाया, जिसे सम्पादन के समय निकाल दिया गया। पहली हिन्दी फिल्म जिसके लिए उन्हों ने गीत गाया वह थी "आपकी सेवा में" यह फिल्म 1947 में आयी पर लता के गाने को कोई ख्याति न मिली। उस समय फिल्मी दुनिया में भारी-भरकम आवाज वाली गायिकाओं का युग था। दुर्भाग्यवश 1948 में आयी फिल्म शहीद में भी लता द्वारा गाये गीत को फिल्म निर्माता ने यह कहकर फिल्म से निकाल दिया कि उनकी आवाज बहुत महीन (पतली) है। इस फिल्म के संगीतकार गुलाम हैदर ने उस वक्त फिल्म निर्माता के सामने ही घोषणा की. “मैं आज ही कहे दे रहा हूँ कि यह लड़की बहुत शीघ्र संगीत की दुनिया पर छा जाएगी।" अपने इसी विश्वास के बल पर गुलाम हैदर ने लता को मजबूर फिल्म में फिर से गंवाया। गाना था “दिल मेरा तोडा" इस गीत की रिकार्डिंग के समय प्रख्यात संगीतकार हस्नलाल भगतराम, अनिल विश्वास, नौशाद व खेमचन्दर प्रकाश उपस्थित थे। लता जी की गायन प्रशैली से प्रभावित होकर नौशाद व हुस्नलाल भगतराम ने उन्हें अपनी फिल्मों 'अंदाज' और 'बडी बहिन' में मौका दिया। फिर आई 'बरसात' जिसके गाने बहुत लोकप्रिय हुए और लता निरन्तर प्रसिद्धि पाती गई। इस प्रसिद्धि के पीछे थी उनकी कड़ी मेहनत, दृढ़ संकल्प और संगीत के प्रति समर्पण।

1949 में लता जी के स्वर से सजी चार फिल्में आयीं 'बरसात', 'अंदाज', 'दुलारी', और 'महल', इनमें महल का गीत 'आयेगा आने वाला'’ अत्यन्त लोकप्रिय हुआ और लता जी श्रोताओं के दिलो दिमाग पर छा गयीं। तब से आज तक वे फिल्म संगीत में साम्राज्ञी के पद पर विराजमान हैं।

ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा की धनी लता ने हर भाव और मनःस्थिति के अनुरूप अपने स्वर को ढाला। शास्त्रीय संगीत का उत्कृष्ट ज्ञान, शहद से भी मीठा भावरंजित स्वर जो श्रोताओं को अपने साथ एकाकार कर लेता है, उनकी बहुत बडी खूबी है।

इसके साथ ही जो अनुपम चमत्कार उन्होंने कर दिखाया है, वह है अपनी राष्ट्रभाषा तथा देश की सभी प्रमुख लगभग सोलह प्रान्तीय भाषाओं में उतनी ही सहजता और निष्ठा से गीत, भजन और लोकगीत गाना, जितना वे अपनी मातृभाषा मराठी में गाती हैं। गाते समय वे शब्दों के सही उच्चारण पर विशेष ध्यान देती हैं। अपने उच्चारण में शुद्धता लाने के लिए ही उन्होंने एक अध्यापक से उर्दू सीखी।

लता जी की प्रसिद्धि के पीछे उनकी लगन, परिश्रम व तपस्या के साथ-साथ विराट अखण्ड भारत के प्रति उनका गहरा प्रेम, निष्ठा और उसके कल्याण की भावना भी है। सन 1962 में हुई चीनी आक्रमण के बाद जब लता जी ने रुंधे कण्ठ से “ऐ मेरे वतन के लोगों” गाया तो सारा देश तड़प उठा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंण्डित जवाहर लाल नेहरू की आँखें भर आयीं। लता जी ने इस गीत की पंक्ति “जो खून गिरा सरहद पर वह खून था हिन्दुस्तानी" को गाकर देश की एकता और अखण्डता की मशाल जलायी उससे दु:ख की घड़ी में भी देशवासियों का हृदय रोशन हो उठा। आज भी यह गीत सुनकर लोगों की आँखों में आँसु आ जाते हैं।

लता जी :- कुछ रोचक बातं :

**छ:-सात वर्ष की उम्र में लता जी छत पर कोई धुन गुनगुना रही थीं। अचानक वे गिर गयीं और मूच्छित हो गयीं। चेतनावस्था में आने पर वे पुनः हँसती खिलखिलाती उसी धुन को गुनगुनाने लगीं, जिसे मूच्छित होने से पूर्व गुनगुना रही थीं।

**लता जी के स्वर की मधुरता का एक रहस्य यह भी है कि वे कोल्हापुरी काली मिर्च बहुत अधिक खाती है।

**प्रत्येक गीत गाने से पूर्व लता जी उसे अपनी हस्तलिपि में लिखती हैं।

आश्चर्यजनक लता जी -

**लता जी की इच्छा है कि अगर उनका पुनर्जन्म हो तो भारत में ही हो।

**लता जी जिस मंच पर भी गाती हैं, हमेशा नंगे पाँव गाती हैं। ऐसा वे मंच के सम्मान भी करती हैं।

**लता जी तीनों सप्तक में गा सकती है जबकि अधिकंश गायक दो ही सप्तक में गा पाते है।

**लता जी रॉयल अल्बर्ट हॉल, लंदन में कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाली प्रथम भारतीय महिला हैं। (सन् 1974)

**लता जी सर्वोच्च भारतीय नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' प्राप्त करने वाली प्रथम पार्श्व गायिका हैं।

**लता जी अभिनेत्रियों की तीन पीढ़ियों - मधुबाला, जीनत अमान व काजोल के लिए पार्श्वगायन कर चुकी हैं और अभी भी पार्श्वगायन में पूर्णतया सक्रिय हैं।

**लता जी लगभग 20 भाषाओं में 50,000 से अधिक गीत गाकर विश्वरिकार्ड बना चुकी हैं जिसके लिए उनका नाम गिनीस बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में अंकित हैं।

भारत में केवल दो ही व्यक्तित्व हैं जिन्हें भारत रत्न व दादा साहब फाल्के दोनों के सम्मान प्राप्त हैं - सत्यजित रे और लता मंगेशकर।

**लता जी को न्यूयार्क विश्वविद्यालय समेत छः विश्वविद्यालयों ने डॉक्टरेट की मानद उपाधि से विभूषित किया है।

**रायल अल्बर्ट हॉल लन्दन ने कम्प्यूटर की सहायता से लता की आवाज का ग्राफ तैयार किया और पाया कि उनकी आवाज विश्व की सबसे आदर्श आवाज है।

**लता मंगेशकर देश की संभवत: ऐसी एकमात्र हस्ती हैं जिनके जीवनकाल में ही उनके नाम पर 'लता मंगेशकर' पुरस्कार दिया जा रहा है। यह पुरस्कार सन 1984 से मध्यप्रदेश सरकार तथा 1992 से महाराष्ट्र सरकार द्वारा दिया जाता है।

प्रमुख सम्मान -

लता जी पिछले दशकों में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित की जा चुकी हैं जिनमें उल्लेखनीय है - फिल्म फेअर पुरस्कार, महाराष्ट्र रत्न पुरस्कार, बंगाल फिल्म पत्रकार संगठन पुरस्कार, पद्म श्री, पद्मभूषण, पद्म विभूषण, वीडियोकॉन लाइफ टाइम एचीवमेण्ट पुरस्कार, जीवन गौरव पुरस्कार, नूरजहाँ सम्मान, हाकिम खान सुर अवार्ड, स्वरभारती पुरस्कार, 250 ट्राफी, 150 गोल्डन डिस्क, प्लेटिनम डिस्क व हिन्दी सिनेमा का सर्वोच्च 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार तथा भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न (2001).

लता जी: महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ:

विभिन्न ख्याति प्राप्त व्यक्तित्वों ने लता जी के बारे में समय-समय पर महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की हैं। उनमें से कुछ हैं:

राजकपूरः “उनके कण्ठ में सरस्वती विराजमान हैं।"

नर्गिस दत्तः “लता जी किसी तारीफ की नहीं, पूजा के योग्य हैं।”

अभिताभ बच्चन: पड़ोसी देश के मेरे एक मित्र कहते हैं "हमारे देश में सब कुछ है सिवाय ताजमहल और लता मंगेशकर के।"

जगजीत सिंह: बीसवीं सदी की केवल तीन चीजें याद रखी जाएंगी - लता जी का जन्म, मानव की चाँद पर विजय और बर्लिन की दीवार ढहना।

जावेद अख्तर: जिस प्रकार एक पृथ्वी है, एक सूर्य है, एक चंद्रमा है उस प्रकार एक ही लता है। निःसन्देह लता जी हम सब भारतीयों का गौरव है।

शहनाई के जादूगर - उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ | BISMILLAH KHAN

शहनाई के जादूगर 

उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ

26 जनवरी 1950 स्वतंत्र भारत के प्रथम गणतन्त्र की संध्या पर शहनाई से राग काफी में उभरी स्वरलहरियों ने सम्पूर्ण वातावरण में जैसे सुरों की गंगा प्रवाहित कर दी है। इस दिवस का हर्षोल्लास द्विगुणित हो गया। श्रोता भाव-विभोर होकर स्वरों की इस अपूर्व बाजीगरी का आनन्द उठा रहे थे और मन ही मन प्रशंसा कर रहे थे उस कलाकार की, जो शहनाई से उभरे स्वरों के रास्ते उनके हृदयों में प्रवेश कर रहा था।

यह शहनाई वादक थे उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ जो स्वतंत्र भारत की प्रथम गणतंत्र दिवस की संध्या पर लाल किले में आयोजित समारोह में शहनाई बजा रहे थे। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ एक ऐसा कोमल हृदय मानव जो संगीत के द्वारा आत्मा की गहराइयों में उतर जाते थे। ऐसा व्यक्तित्व जो विश्वविख्यात शहनाई वादक के रूप में जीते जी किंवदन्ती बन गए।

बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म 21 मार्च 1916 को डुमराँव (बिहार) में हुआ। इनके पूर्वज डुमराँव रियासत में दरबारी संगीतज्ञ थे। इन्हें संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा चाचा अलीबक्श विलायत से मिली। अलीबक्श वाराणसी के विश्वनाथ मन्दिर में शहनाई बजाते थे। चाचा की शिक्षा से जहाँ उनमें संगीत के प्रति गहरी समझ विकसित हुई वहीं सभी धर्मों के प्रति आदर का भाव भी जाग्रत हुआ। उन्हां ने अपना जीवन संगीत को समर्पित कर दिया और शहनाई वादन को विश्वस्तर पर नित नयी ऊँचाइयाँ देने का निश्चय कर लिया।

बिस्मिल्लाह खाँ संगीत और पूजा को एक ही दृष्टि से देखते थे। उनका मानना था कि संगीत, सुर और पूजा एक ही चीज है। बिस्मिल्लाह खाँ ने अपनी शहनाई की गूंज से अफगानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, अफ्रीका, रूस, अमेरिका, जापान, हांगकांग समेत विश्व के सभी प्रमुख देशों के श्रोताओं को रसमग्न किया। उनका संगीत समुद्र की तरह विराट है लेकिन वे विनम्रतापूर्वक कहते थे। “मैं अभी मुश्किल से इसके किनारे तक ही पहँच पाया हूँ मेरी खोज अभी जारी है।'

संगीत में अतुलनीय योगदान हेतु उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ को देश-विदेश में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' महामहिम राष्ट्रपति द्वारा सन् 2001 में प्रदान किया गया। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, तानसेन पुरस्कार, मध्य प्रदेश राज्य पुरस्कार, 'पद्म विभूषण' जैसे सम्मान एवं विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें प्रदान की गयी डॉक्टरेट की उपाधियाँ उनकी ख्याति की परिचायक हैं।

खाँ साहब अत्यन्त विनम्र, मिलनसार और उदार व्यक्तित्व के धनी थे। वे सभी धर्मो का सम्मान करते थे। संगीत के प्रति पूर्णत: समर्पण, कड़ी मेहनत, घंटों अभ्यास, संतुलित आहार, संयमित जीवन और देश प्रेम के अटूट भाव एवं गुणों ने उन्हें विश्वस्तर पर ख्याति दी। अभिमान तो जैसे उन्हें छु तक नहीं गया। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ शास्त्रीय संगीत परम्परा की ऐसी महवपूर्ण कड़ी थे जिन पर प्रत्येक देशवासी को गर्व है।

इनका देहावसान 21 अगस्त, 2006 को हुआ था।

बुधवार, 24 नवंबर 2021

शहीद भगत सिंह | BHAGAT SINGH | शहीद दिवस | 23 मार्च 1931

शहीद भगत सिंह

उस दिन सुबह 'वीरा' स्कूल के लिए कहकर घर से निकला। सन्ध्या हो गयी लेकिन घर नहीं लौटा। जलियाँवाला बाग की घंटना से हम सभी दुःखी और घबराये हुए थे। काफी देर रात बीते वह गुमसुम सा घर आया। मैने कहा -“कहाँ गया था वीरा? सब जगहू तुझे ढँढा, चल फल खा ले। "वह फफक कर रो उठा। मैंने उसे आमतौर पर कभी रोते हुए नहीं देखा था। उसने अपनी नेकर की जेब से एक शीशी निकाली जिसमें मिट्टी भरी हुई थी। उसने कहा “ मिट्टी नहीं अमरों यह शहीदों का खून है। " उस श्शीशी से वह रोज खोलता, उसे चूमता और उसमें भरी हुई मिट्टी से तिलक लगाता, फिर स्कूल जाता।

अमरो का यही वीरा आगे चलकर महान क्रान्तिकारी भगत सिंह के नाम से विख्यात हुआ। भगत सिंह का जन्म लायलपुर (जो अब पाकिस्तान में है) जिले में 27 सितम्बर 1907 को हुआ था। उस समय पूरे देश में अंग्रेजी श्शासन के खिलाफ विद्रोह की ज्वाला धधक रही थी। उनके पिता किशन सिंह अपने चारों भाइयों के साथ लाहौर के सेंट्रल जेल में बन्द थे।

माँ विद्यावती ने अत्यन्त लाड़-दुलार के साथ उनका पालन-पोषण किया। इस परिवार में संघर्ष और देश भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी। जिसका असर भगत सिंह पर भी पड़ा। इनकी बड़ी बहन का नाम अमरो था।

भगत सिंह बचपन से ही असाधारण किस्म के कार्य किया करते थे। एक बार वे अपने पिता के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में ही पिता के एक घनिष्ठ मित्र मिल गये जो अपने खेत में बुवाई का काम कर रहे थे। मित्र को पाकर पिता उनसे हाल-चाल पूछने लगे। भगत सिंह वहीं खेत में छोटे-छोटे तिनके रोपने लगे। पिता के मित्र ने पूछा “यह क्या कर रहे हो भगत सिंह?” बालक भगत सिंह का उत्तर था - "बन्दूकें बो रहा हूँ।" भगत सिंह जैसे-जैसे बड़े होते गये उनकी विशिष्टताएँ उजागर होती गयीं।

इसी समय अंग्रेजी सरकार द्वारा एक कानून लाया गया - रौलेट एक्ट। इस कानून का पूरे देश में विरोध किया जा रहा था। इसी कानून के विरोध में 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक सभा हो रही थी। अचानक अंग्रेज पुलिस आयी और चारों ओर से प्रदर्शनकारियों को घेर लिया। पुलिस अधिकारी जनरल डायर ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। सैकड़ों मासूम मारे गये। इस घटना ने पूरे राष्ट्र को झकझोर कर रख दिया। भगत सिंह के बालमन पर इस घटना का इतना गहरा असर पड़ा कि उन्हां ने बाग की मिट्टी लेकर देश के लिए बलिदान होने की शपथ ली।

आरम्भिक पढ़ाई पूरी करने के बाद भगत सिंह आगे की शिक्षा के लिए नेशनल कालेज लाहौर गये। वहाँ उनकी मुलाकात सुखदेव और यशपाल से हुई। तीनों मिंत्र बन गये और क्रान्तिकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेने लगे।

भगत सिंह जब बी.ए. में पढ़ रहे थे तभी उनके पिताजी ने उनके विवाह की चर्चा छेडी और भगत सिंह को एक पत्र लिखा। पत्र पढ़कर भगत सिंह बहुत दुःखी और उन्होंने दोस्तों से कहा -

“दोस्तों मैं आपको बता दूँ कि अगर मेरी शादी गुलाम भारत में हुई तो मेरी दुल्हन सिर्फ मौत होगी, बारात शवयात्रा बनेगी और बाराती होंगे शहीद।” पिताजी के पत्र का जवाब देते हुए उन्होंने लिखा “यह वक्त शादी का नहीं, देश हमें पुकार रहा है। मैंने तन मन और धन से राष्ट्र सेवा करने की सौगन्द्द खायी है। मुझे विवाह बन्धनों में न बाँधे बल्कि आशीर्वाद दें कि मैं अपने आदर्श पर टिका रहूँ।”

सन् 1926 में उन्होंने लाहौर में नौजवान सभा का गठन किया। इस सभा का उद्देश्य था –

**स्वतन्त्र भारत की स्थापना।

**एक अखण्ड राष्ट्र के निर्माण के लिए देश के नौजवानों में देश भक्ति की भावना जाग्रत करना।

**आर्थिक सामाजिक और औद्योगिक क्षेत्रों के आन्दोलनों में सहयोग प्रदान करना।

**किसानों और मजदूरों को संगठित करना।

इसी बीच भगत सिंह की मुलाकात प्रसिद्ध क्रान्तिकारी एवं देश भक्त गणेशशंकर विद्यार्थी से कानपुर में हुई। गणेशशंकर विद्यार्थी उस समय अपनी प्रखर पत्रकारिता से जनमानस को उद्वेलित करने का काम कर रहे थे। भगत सिंह उनके विचारों से इतने प्रभावित कि कानपुर में ही उनके साथ मिलकर क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने लगे। लेकिन दादी माँ की अस्वस्थता के कारण उन्हें लाहौर लौटना पड़ा।

लाहौर में उस समय सारी क्रान्तिकारी गतिविधियाँ हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसियेशन के बैनर तले संचालित हो रही थीं। भगत सिंह को एसोसियेशन का मंत्री बनाया गया। 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन आने वाला था। भगत सिंह ने कमीशन के बहिष्कार की योजना बनायी। लाला लाजपतराय की अध्यक्षता में साइमन कमीशन का डटकर विरोध किया गया। “साइमन वापस जाओ” और “इन्कलाब जिन्दाबाद” के नारे लगाये गये। निरीह प्रदर्शनकारियों पर अंग्रेज पुलिस ने बर्बरतापूर्वक लाठी चार्ज किया। लाला लाजपत राय के सिर में गंभीर चोटें आयीं जो बाद में उनकी मृत्यु का कारण बनीं। इस घटना से भगत सिंह व्यथित हो गये। आक्रोश में आकर उन्होंने पुलिस कमिश्नर सांडर्स की हत्या कर दी और लाहौर से अंग्रेजों को चकमा देते हुए भाग निकले।

अप्रैल 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंका और गिरफ्तारी दी। इस धमाके के साथ उन्हों ने कुछ पर्चे भी फेंके। भगत सिंह और उनके साथियों पर साण्डर्स हत्याकाण्ड तथा असेम्बली बम काण्ड से सम्बन्धित मुकदमा लाहौर में चलाया गया। मुकदमे के दौरान उन्हें और उनके साथियों को लाहौर के सेंटरल जेल में रखा गया। जेल में कैदियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था। उन्हें प्राथमिक सविधाएँ और भोजन ठीक से नहीं दिया जाता था। भगत सिंह को यह बात ठीक नहीं लगी। उन्होंने इसके विरोध स्वरूप भूख हड़ताल शुरू कर दी। आखिर अंग्रेजी सरकार को उनके आगे झुकना पड़ा और कैदियों को बेतहर सुविधाएँ मिलने लगीं। 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सजा सुनायी गयी। तीनां क्रान्तिकारियों को 23 मार्च 1931 को फाँसी दे दी गयी।

उनकी शहादत की तिथि 23 मार्च को हमारा देश “शहीद दिवस” के रूप में मनाता है। उनके क्रांन्तिकारी विचार, दर्शन और शहादत को यह देश कभी नही भुला सकेगा।

कुछ यादं : कुछ विचार:

1. बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है :-

असेम्बली में बम फेंकने के बाद जो पर्चे फेंके गये थे। उनका शीर्षक यही था। इस पर्चे में और भी कुछ था -

“आज फिर जब लोग साइमन कमीशन से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आँखे फैलाये हैं और इन टुकड़ों के लिए लोग आपस में झगड़ रहे हैं। विदेशी सरकार पब्लिक सेफ्टी बिल (सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक) और टेण्डर्स डिस्प्प्यूट्स विल (औद्योगिक विवाद विधेयक) के रूप में अपने दमन को और भी कडा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आने वाले अधिवेशन में प्रेस सैडिशन एक्ट (अखबारों द्वारा राजद्रोह रोकने का कानून) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है।

जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखण्ड को छोड़कर अपने अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जायें और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरुद्ध क्रान्ति के लिए तैयार करें।”

2. क्रान्ति -

“क्रान्ति से हमारा आशय खून खराबा नहीं। क्रान्ति का विरोध करने वाले लोग केवल पिस्तौल, बम, तलवार और रक्तपात को ही क्रान्ति का नाम देते हैं परन्तु क्रान्ति का अभिप्राय यह नहीं है। क्रांति के पीछे की वास्तविक शक्ति जनता द्वारा समाज की आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन करने की इच्छा ही होती है।"

3. प्रख्यात गांधीवादी श्री पटभिरमैया –

“उस समय भगत सिंह का नाम सारे देश में गाँधीजी की तरह ही लोकप्रिय हो गया था।"

4. बालकृष्ण शर्मा नवीन:

“किसी भी देश का युवक जितना सच्चा चरित्रवान, संतोषी, आदर्शवादी, उत्सुक, और निखरा हुआ तप्त स्वर्ण हो सकता है, भगत सिंह वैसा ही है। यदि भगत सिंह लार्ड इरविन का पुत्रं होता तो हमें विश्वास है वे भी उसे प्यार करते। वह बड़ा ही सुसंस्कृत भोला भाला, नौजवान है। वह हमारी वत्सलता, स्नेह, अपार वात्सल्य और प्यार का व्यक्त रूप है।"

एक और बेबे (माँ)

जेल में जो महिला कर्मचारी भगत सिंह की कोठरी की सफाई करने जाती थी उसे भगत सिंह प्यार से बेबे कहते थे। आप इसे बेबे क्यों कहते है? एक दिन किसी जेल अधिकारी ने पूछा तो वे बोले-जीवन में सिर्फ दो व्यक्तियों ने ही मेरी गंदगी उठाने का काम किया है। एक बचपन में मेरी माँ ने और जवानी में इस माँ ने। इसलिए दोनों माताओं को प्यार से मैं बेबे कहता हूँ।

फाँसी से एक दिन पहले जेलर खान बहादुर अकबर अली ने उनसे पूछा - आपकी कोई खास इच्छा हो तो बताइए, मैं उसे पूरा करने की कोशिश करूँगा।

भगत सिंह ने कहा - हाँ, मेरी एक खास इच्छा है और उसे आप ही पूरा कर सकते हैं। मैं बेबे के हाथ की रोटी खाना चाहता हूँ।

जेलर ने जब यह बात उस सफाई कर्मचारी से कही तो वह स्तब्ध रह गयी। उसने भगत सिंह से कहा “सरदार जी मेरे हाथ ऐसे नहीं हैं कि उनसे बनी रोटी आप खायें।”

भगत सिंह ने प्यार से उसके दोनों कन्धा को थपथपाते हुए कहा “माँ जिन हाथों से बच्चों का मल साफ करती है उन्हीं से तो खाना बनाती है। बेंबे तुम चिन्ता मत करो और रोटी बनाओ।”

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

आचार्य विनोबा भावे | VINOBA BHAVE | विनायक नरहरी भावे | VINAYAK NARAHARI VINOBA BHAVE

आचार्य विनोबा भावे (विनायक नरहरी भावे)

समय-समय पर इस देश में ऐसे व्यक्ति जन्म लेते रहे हैं जिन्होंने अपनी विशिष्ट क्षमताओं से देश तथा समाज को एक नई दिशा दी है। ऐसे ही व्यक्ति थे आचार्य विनोबा भावे। उनके व्यक्तित्व में सन्त, आचार्य (शिक्षक) और साधक तीनों का समन्वय था।

विनोबा जी का जन्म 11 सितम्बर 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गागोदा ग्राम में हुआ था। बचपन में विनोबा जी को घूमने का विशेष शौक था। वे अपने गाँव के आसपास की पहाडियों, खेतों, नदियों एवं अन्य ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण किया करते थे। वे पढ़ाई के दिनों में पाठ्यपुस्तकों के साथ-साथ आध्यात्मिक पुस्तकें भी पढ़ा करते थे। छोटी उम्र में ही उन्होंने तुकाराम गाथा, दासबोध ब्रह्मस्त्र, शंकर भाष्य और गीता का अनेक बार अध्ययन किया।

विनोबा जी को अनेक भाषाओं का ज्ञान था। वे उच्चकोटि के रचनाकार भी थे। उनकी प्रारम्भिक रचनाएं मराठी भाषा में हैं। बाद में उन्होंने हिन्दी, तमिल, संस्कृत और बंगला में अनेक पुस्तकों की रचना की।

कर्त्तव्यनिष्ठ विनोबा -

महात्मा गाँधी के आग्रह पर विनोबा साबरमती आश्रम चले आये। आश्रम में आकर वे खेती का काम करने लगे। वहाँ वे कई महीनों तक मौन रहकर कार्य करते रहे। इनके कार्यों से प्रभावित होकर गाँधीजी ने इन्हें प्रथम सत्याग्रही की संज्ञा दे डाली। लोगों ने सोचा कि वे गँगे हैं, पर थोड़े ही दिनों बाद वे उपनिषदों का नियमित वाचन करने लगे तथा खाली समय में संस्कृत पढ़ाने का काम भी देखने लगे। विनोबा जी के पास कक्षा-5 से लेकर ऊँची कक्षाओं तक के बच्चे पढ़ने आया करते थे। उनकी रोचक और प्रभावशाली शैली से बच्चे और शिक्षक दोनों ही प्रभावित थे। लोगों ने उनके गुणों से प्रभावित होकर उन्हें आचार्य कहना प्रारम्भ कर दिया। विनोबा जी में आलस्य लेशमात्र भी नहीं था। वे दृढ़संकल्पी और सच्चे कर्मयोगी थे।

विनोबा जी किसी पुस्तक का अध्ययन कर रहे थे तभी एक बिच्छु ने उनके पैर में डंक मार दिया। दर्द असह्य था। बिच्छु के जहर से उनका पैर काला पड़ गया। पीड़ा बढ़ने पर उन्होंने चरखा मँगाया और एकाग्र होकर सूत कातने लगे। इस कार्य में वे इतने तन्मय हो गये कि उन्हें न तो बिच्छू के डंक मारने का ध्यान रहा और न ही पीड़ा का।

विनोबा जी के जीवन पर गीता के उपदेशों का गहरा प्रभाव था। सन् 1932 में धलिया जेल में रहकर उन्होंने गीता पर 18 प्रवचन दिये जो आज 'गीता प्रवचन' के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे हर समय चिन्तन-मनन में लीन रहते थे। लोगों की सेवा करना उनका धर्म बन गया था।

गाँधी जी के निधन के बाद विनोवा लगभग चौदह वर्ष तक देश के अनेक हिस्सों में घूमते रहे और भदान आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करते रहे। जगह जगह प्रार्थना सभाएं रहे और भूदान आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करते रहे। जगह-जगह प्रार्थना सभाएं आयोजित कर इस सम्बन्ध में व्यक्तिगत और सामाजिक उत्थान के बारे में अपने विचार व्यक्त करते रहे। उनकी बात बहुत संक्षिप्त, संयत और सटीक होती थी। विनोबा जी कहने की अपेक्षा करने में अधिक विश्वास करते थे। वे पुरानी बातों को नये तालमेल के साथ इस तरह प्रस्तुत करते थे कि लोगों को स्वाभाविक रूप से जीवन की एक नई दिशा मिलती थी। विनोबा जी गाँधी, तिलक, तुकाराम, तुलसीदास, मीरा, रामकृष्ण और बुद्ध के जीवन से बहुत प्रभावित थे।

विनोबा के विचार

**समता का अर्थ है बराबरी, ऐसी बराबरी जिसमें योग्यता के अनुसार सभी का आँकलन हो।

**भक्ति ढोंग नहीं है दिन भर पाप करके झूठ बोलकर प्रार्थना नहीं होती।

** जिस घर में उद्योग की शिक्षा नहीं है उस घर के बच्चे जल्दी घर का नाश कर देंगे।

**स्वावलम्बन का अर्थ है अपने आप पर निर्भर होना। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरे का मुँह न ताकना। अर्थात “जितना कमाओ, उतना खाओ।

भूदान

विनोबा जी देश के कोने-कोने में स्थित सुदूर गाँवों तक जाते थे और वहाँ ज्यादा भूमि वाले किसानों से मिलकर उनकी भूमि का कुछ हिस्सा भूमिहीनों के लिए माँगते थे। इस तरह भूदान यज्ञ के जरिये देश के अनेक भूमिहीन लोगों को विनोबा जी ने जमीन दिलायी।

सर्वोदय सिद्धान्त :-

विनोबा जी के सर्वोदय सिद्धान्त के तीन तत्व हैं - सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह (त्याग) | उनका कहना था कि आध्यात्मिक विकास का आधार सत्य है। सामाजिक विकास का आधार अहिंसा और आर्थिक विकास का आधार अपरिग्रह है। वे सर्वोदय का उद्देश्य स्वशासन और स्वावलम्बन मानते थे।

उन दिनों चम्बल की घाटी में डाकुओं का बहुत आतंक था। विनोबा जी चम्बल घाटी के कनेरा गांव गये। वहाँ उन्होंने लोगों को सम्बोधित किया। उनके विचारों से प्रभावित होकर चम्बल घाटी के उन्नीस डाकुओं ने एक साथ आत्मसमर्पण किया।

आचार्य ने जो कहा

आचार्य विनोबा भावे ने जीवन के कई पहलुओं पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। वे जहाँ तहाँ आयोजित प्रार्थना सभाओं, गोष्ठियों में प्रवचन दिया करते थे। यहाँ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर उनके विचार संक्षेप में दिये जा रहे हैं : -

समता

"समता का मतलब क्या है? बराबरी, कैसी बराबरी? घर में चार रोटियाँ हैं और दो खाने वाले, हर एक को कितनी रोटियाँ दी जाएँ - दो-दो। ऐसी समता अगर माताएँ सीख लें तो अनर्थ हो जायेगा। गणित की समता दैनिक व्यवहार के किसी काम की नहीं। यदि इनमें से एक खाने वाला 2 साल का और दूसरा 25 साल, तो एक अतिसार से मरेगा ओर दूसरा भूख से। समता का अर्थ है योग्यता के अनुसार कीमत आँकना।”

उद्योग

अपने देश में आलस्य का भारी वातावरण है। यह आलस्य बेकारी के कारण आया है। शिक्षितों का तो उद्योग से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता। जो खाता है उसे उद्योग तो करना ही चाहिए चाहे वह जिस तरह का हो। घरों में उद्योग का वातावरण होना चाहिए। आलस्य की वजह से ही हम दरिद्र हो गये हैं, परतंत्र हो गए हैं।

भक्ति

“भक्ति के माने ढोंग नहीं है। हमें उद्योग छोड़कर झूठी भक्ति नहीं करनी है। खाली समय में भगवान का स्मरण कर लो। दिन भर पाप करके, झूठ बोलकर, प्रार्थना नहीं होती।“

सीखना-सिखाना

'जिसे जो आता है वह उसे दूसरे को सिखाये और जो सीख सके, उसे खुद सीखे। केवल पाठशाला की शिक्षा पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।'

तालमेल

“कहा जाता है कि वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में गाय और बाघ एक झरने पर पानी पीते थे। इसका अर्थ क्या हुआ ? बाघ की न केवल कुरूरता नष्ट होती थी बल्कि गाय की भीरुता भी नष्ट हो जाती थी। मतलब गाय-भय शेर क्रूरता" इस तरह मेल बैठता है। नहीं तो शेर को गाय बनाने का सामर्थ्य तो सर्कस वालों में भी है।"

एक आदर्श व्यक्तित्व -

विनोबा जी ने अपना सारा जीवन एक साधक की तरह बिताया। वे ऋषि, गुरु तथा क्रांतिदूत सभी कुछ थे। उनका व्यक्तित्व कुछ ऐसा तेजस्वी एवं प्रभावशाली था कि कोई भी व्यक्ति उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। अदभुत व्यक्तित्व के प्रकाश-पुरुष आचार्य विनोबा का निधन 15 नवम्बर 1982 को हो गया लेकिन अपने विचारों के साथ वे सदैव हमारे बीच हैं, रहेंगे। वर्ष 1983 में इन्हें भारत सरकार के द्वारा मरणोपरान्त 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया।

डॉ० भीमराव अम्बेडकर | B. R. AMBEDKAR | भीमा | जय भीम

डॉ० भीमराव अम्बेडकर

"जब तक हम अपना तीन तरह से शुद्धिकरण नहीं करते, तब तक हमारी स्थायी प्रगति नहीं हो सकती। हमें अपना आचरण सुधारना होगा, अपने बोलचाल का तरीका बदलना होगा और विचारों में दृढ़ता लानी होगी।” ये उद्गार हैं डॉ० भीमराव अम्बेडकर के। डॉ० भीमराव अम्बेडकर को दलितों का मसीहा, समाज सेवी एवं विद्दिवेत्ता के रूप में जाना जाता है इन्होंने देश की स्वतंतरता के पश्चात 4 नवम्बर 1948 को भारतीय संविधान का प्रारूप संविधान सभा में प्रस्तुत किया। डॉ० अम्बेडकर इस प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। इस प्रारूप में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियाँ थीं। संविधान सभा में कई बार पढ़े जाने के बाद अन्तत: 26 नवम्बर 1949 को इस प्रारूप को स्वीकार कर लिया गया।

जन्म: 14 अप्रैल 1891

जन्मस्थान: महू, इन्दौर, मध्य प्रदेश

मृत्यु: माता: भीमा बाई सकपाल

पिता: रामजी

भीमराव अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। बचपन में माँ इन्हें प्यार से “भीमा” कहकर पुकारती थीं। इनके पिता अंग्रेजी सेना में सूबेदार थे। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने 14 साल तक मिलिट्री स्कूल में हेड मास्टर के रूप में कार्य किया। अम्बेडकर के घर में शिक्षा का माहौल था। पिता बच्चों को रामायण तथा महाभारत की कहानियों के साथ संत नामदेव, तुकाराम, मोरोपंत तथा मुक्तेश्वर की कविताएँ सुनाते थे तथा स्वयं उनसे सुनते थे। इन्हीं दिनों ज्योतिबा फुले दलितों में शिक्षा का प्रसार एवं उन्हें सामाजिक स्वीकृति दिलाने की दिशा में कार्य कर रहे थे। भीमराव के पिता रामजी इनके अच्छे मित्र और प्रशंसक थे। ज्योतिबा के व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव बालक भीमराव पर भी पड़ा।

भीमराव पाँच वर्ष की उम्र में स्कूल जाने लगे परन्तु उनका मन पढ़ने से ज्यादा बागवानी में लगता था। पिता उनकी पढ़ाई के बारे में काफी चिन्तित रहते थे। धीरे-धीरे बालक भीम की रुचि पुस्तकों में बढ़ती गयी। अब वे पाठ्यपस्तकों के अलावा अन्य पुस्तकें भी पढ़ने लगे। उन्हें पुस्तकों से गहरा लगाव हो गया। 1907 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने एलफिस्टन कालेज से इण्टर की पढ़ाई पूरी की। 17 वर्ष की उम्र में ही इनका विवाह रमाबाई से कर दिया गया। पिता का स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ने लगा था। अब भीमराव के आगे की पढ़ाई का खर्च भी उठाना मुश्किल हो रहा था।

भीमराव की प्रतिभा को पहचानकर बड़ौदा नरेश सयाजी राव ने उनकी पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की इसके सहारे उन्होंने 1912 में बी0ए0 (स्नातक) की परीक्षा उत्तीर्ण की। सयाजी राव ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भेजा। न्यूयार्क विश्वविद्यालय से उन्होंने 1915 में एम० ए० की डिग्री हासिल की। इसी दौरान भीमराव ने एक शोध प्रबन्ध भी लिखा। इस शोध प्रबन्ध का शीर्षक था - "भारत के लिए राष्ट्रीय लाभांश ऐतिहासिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन”। इस शोध प्रबन्धं पर कोलम्बिया विश्वविद्यालय ने उन्हें "डॉक्टर ऑफ फिलासफी” की उपाधि प्रदान की। अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र के अध्ययन के लिए भीमराव लंदन चले गये। इसी बीच सयाजी राव ने इनकी छात्रवृत्ति समाप्त कर दी। भीमराव को विवश होकर स्वदेश लौटना पड़ा, परन्तु उन्होंने मन ही मन संकल्प कर लिया कि पढ़ाई के लिए एक बार वे पुन: लंदन जायेंगे। पढ़ाई के दौरान उन्होंने अपने दैनिक खर्चों में कटौती करके अब तक लगभग 2000 पुस्तकें खरीद ली थीं।

उल्लेखनीय

** जुलाई 1924 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना। इसका उद्देश्य छुआछूत दूर करना था।

**ब्रिटिश सरकार द्वारा दलितों को सेना में भर्ती पर रोक को लेकर 19-20 मार्च 1927 को महाड़ में दलितों का सम्मेलन बुलाना।

**सरकार ने दलित हितों का प्रतिनिधित्व करने हेतु मुम्बई लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए 1929 में मनोनीत किया। डॉ0 अम्बेडकर ने शिक्षा, मद्य-निषेध, कर व्यवस्था, महिला एवं बाल कल्याण जैसे विषयों पर कड़ा रुख अपनाया।

**प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय गोलमेज सम्मेलन में दलितों के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेना

**महात्मा गांधी के साथ दलितों के उत्थान के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर। यह समझौता ‘पूना समझौता’ कहलाता है।

**प्रमुख रचनाएँ - दी बुद्ध एण्ड हिज गास्पेल, थॉट्स आन पाकिस्तान, रेवोल्यूशंस एण्ड काउन्टर रेवोल्यूशंस इन इण्डिया।

महाराष्ट्र में रहकर उन्होंने शाहूजी महाराज की सहायता से 31 जनवरी 1920 से “मूकनायक” नामक अखबार निकालने की शुरुआत की। इस अखबार का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज में व्याप्त जाति प्रथा को समाप्त करना तथा अस्पृश्यता का निवारण करना था। 21 मार्च 1920 को भीमराव ने कोल्हापुर में दलितों के सम्मेलन की अध्यक्षता की। सम्मेलन में कोल्हापुर नरेश शाहूजी महाराज ने लोगों से कहा –

“तुम्हें अम्बेडकर के रूप में अपना उद्धारक मिल गया है”

भीमराव अम्बेडकर पैसों का प्रबन्ध करके पुनः 1920 में लंदन गये। वहाँ वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत लौट आये। अब वे बैरिस्टर बन चुके थे।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर आजीवन विभिन्न प्रकार के सामाजिक कार्यों से जुड़े रहे। लगातार काम करने से उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। इसी बीच 27 मई 1935 को इनकी पत्नी रमाबाई का निधन हो गया।

1936 में डॉ० अम्बेडकर ने "इंडिपेंडट लेबर पार्टी” नाम से एक राजनैतिक दल का गठन किया। 1937 में हुए प्रांतीय चुनाव में डॉ0 अम्बेडकर और उनके कई साथी भारी बहुमत से विजयी हुए जबकि इस चुनाव में इंडियन नेशनल कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा ‘हिन्दू महासभा जैसे राजनीतिक दल चुनाव में भाग ले रहे थे। डॉ० भीमराव अम्बेडकर को जुलाई 1941 में गणित रक्षा सलाहकार समिति का सदस्य नियुक्त किया गया। 1945 में उन्होंने पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की। इस सोसाइटी ने अपना पहला शिक्षण संस्थान 1946 में सिद्धार्थ कॉलेज के नाम से खोला। 1952 में डॉ. अम्बेडकर लोक सभा के उम्मीदवार थे लेकिन चुनाव हार गये। उनको मार्च 1952 में राज्य सभा के लिए चुन लिया गया और वे भारत सरकार के कानून मन्त्री बने। 14 अक्टूबर 1956 को डॉ० अम्बेडकर ने अपने तीन लाख समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया।

6 दिसम्बर 1956 को भारतीय क्षितिज का यह सितारा सोया तो फिर नहीं उठा। उनके योगदानों के लिए भारत सरकार ने सन् 1990 में उन्हें मरणोपरान्त 'भारत रत्न' से सम्मानित किया। भले ही आज डॉ0 अम्बेडकर हमारे बीच नहीं हैं फिर भी अपने सामाजिक और वैचारिक योगदानों के लिए यह देश उन्हें युगों-युगों तक याद करता रहेगा।

स्मरणीय :-

**डॉ0 अम्बेडकर 1941 में गणित रक्षा सलाहकार समिति के सदस्य बने।

**1945 में पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना।

**1946 में सिद्धार्थ कॉलेज खोलना ।

**1952 में राज्य सभा के लिए निर्वाचित

**14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म ग्रहण करना।

**1990 में मरणोपरान्त 'भारत 'रत्न' से सम्मानित।

सोमवार, 22 नवंबर 2021

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद | ABUL KALAM AZAD

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद 

ABUL KALAM AZAD


आज से लगभग एक शताब्दी पहले की बात है बारह वर्ष की आयु पूरी होने से पहले ही एक बालक ने पुस्तकालय, वाचनालय और वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित करने की संस्था चलायी। जब वह पन्द्रह वर्ष का हुआ तो अपने से दुगुनी आयु के विद्यार्थियों की एक कक्षा को पढ़ाया। तेरह से अठारह साल की आयु के बीच बहुत सी पत्रिकाओं का सम्पादन किया। सोलह वर्ष के इस दुबले-पतले लड़के ने एक बड़े विद्वान के रूप में भाषा विशेष की राष्ट्रीय कान्फ्रेन्स से मुख्य वक्ता के रूप में भाषण दिया। इस बालक का नाम था - अबुल कलाम जो आगे चलकर स्वतन्त्रता प्राप्ति के संघर्ष का एक महान नायक कहलाया।

मौलाना अबुल कलाम का जन्म 11 नवम्बर सन् 1888 ई. को मक्का नगर में हुआ था। इनके पिता मौलाना खैरुद्दीन अरबी भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनकी माँ पवित्र नगर मदीना के मुफ्ती की पुत्री थी। इनका बचपन मक्का मदीना में बीता। इनके मकान पर शिक्षा प्रेमियों की हर समय अपार भीड़ लगी रहती थी। परिवार 1907 में भारत लौट आया और कोलकाता में बस गया।

मौलाना आजाद का प्रारम्भिक जीवन सामान्य बालकों से कुछ भिन्न था। खेलना तो उन्हें भी पसन्द था, पर उनके खेल दूसरे बच्चों के खेलों से कुछ अलग होते थे। उदाहरणार्थ- कभी वे घर के सभी बक्सों को एक लाइन में रखकर अपनी बहनों से कहते “देखो! यह रेलगाड़ी है, मैं इस रेलगाड़ी में से उतर रहा हूँ। तुम लोग चिल्ला-चिल्लाकर कहो हटो-हटो रास्ता दो, दिल्ली के मौलाना आ रहे हैं।” फिर वे अपने पिता की पगड़ी सिर पर बाँधकर बड़ी गम्भीर मुद्रा में धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए बक्सों की रेलगाड़ी से इस प्रकार नीचे उतरते जैसे कि बड़ी उम्र का कोई सम्मानित व्यक्ति उतर रहा हो।

मौलाना आजाद को बचपन से ही पुस्तकें पढ़ने का बड़ा चाव था। वे जब किसी विषय के अध्ययन में लगते तो उसमें ऐसा डूबते कि उन्हें अपने आस-पास का भी होश न रहता। अबुल कलाम बड़ी कुशाग्र बुद्धि के थे। एक बार जो कुछ पढ़ लेते, वह हमेशा के लिए उन्हें याद हो जाता। उन्होंने साहित्य दर्शन और गणित आदि विषयों का गहन अध्ययन किया था। शायरी और गद्य लेखन का शौक बचपन से ही था। अपनी इसी रुचि के कारण उन्होंने समय-समय पर कई पत्र-पत्रिकाएं निकाली और स्वयं उनका सम्पादन किया। उनकी पहली पत्रिका 'नैरंगे आलम' है। जिस समय यह पत्रिका निकली, मौलाना आजाद की आयु मात्र 12 वर्ष थी।

अबुल कलाम आजाद की योग्यता और विद्वता से लोगों का परिचय तब हुआ जब उन्होंने 'लिसानुल सिदक' नाम का एक दूसरा पत्र प्रकाशित किया। इसके माध्यम से उनका उद्देश्य तत्कालीन मुस्लिम समाज में फैले अन्ध-विश्वासों को समाप्त कर उनमें सुधार लाना था। अंजुमन हिदायतुल इस्लाम के लाहौर अधिवेशन में तत्कालीन जाने-माने लेखका एवं कवियों के सामने 15-16 वर्ष का एक दुबला-पतला, बिना दादा मुछ का नवयुवक बोलने के लिये आगे बढ़ा तो लोगों की आँख आश्चर्य से खुली की खुली रह गयीं। इस युवक ने अपनी सधी और संयत भाषा में विचार व्यक्त करने शुरू किये तो सभा में सन्नाटा छा गया। उस लड़के ने करीब ढाई घंटे तक बिना लिखित रूप के सीधे अपना भाषण दिया। इस घटना के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में अबुल कलाम आजाद की बाऊ जम गयी। उन्होंने आगे चलकर 'अलनदवा' और 'वकील' सहित कई पत्र-पत्रिकाओ का सम्पादन किया।

सन् 1912 ई. में उन्होंने अपना प्रसिद्ध साप्ताहिक अखवार 'अलहिलाल’ आरम्भ किया। यह अखबार भारत में और विदेशों में जल्दी प्रसिद्ध हो गया। लोग इकट्ठे होकर उस अखवार के हर शब्द ऐसे पढ़ते या सुनते जैसे वह स्कूल में पढ़ाया जाने वाला कोई पाठ हो। उस अखबार ने लोगों में जागृति की एक लहर उत्पन्न कर दी। आखिर सरकार ने ‘अल-हिलाल’ की 2000 रुपये और 10000 रुपये की जमानतें जब्त कर लीं। मौलाना आजाद को सरकार के खिलाफ़ लिखने के जुर्म में बंगाल से बाहर भेज दिया गया। वे चार वर्ष से भी अधिक समय तक राँची (झारखंड) में कैद रहे।

इसी सम्बन्ध में गांधीजी ने कहा “मुझे खुशी है कि सन् 1920 से मुझे मौलाना के साथ काम करने का मौका मिला है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे महान नेताओं में से वे एक हैं।

राष्ट्रीय गतिविधियों में सक्रिय रहने के कारण मौलाना आजाद को कई बार जेल जाना पड़ा। महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन को उन्होंने अपना पूरा समर्थन दिया। राष्ट्रीयता की भावना का विस्तार तथा 'हिन्दू-मुस्लिम एकता’ उनके मिशन के अंग थे। इससे उन्हें राष्ट्रीय नेताओं का भरपूर विश्वास और असीमित प्यार मिला। एक बार अपनी गिरफ्तारी के समय उन्होंने कहा था - 'हमारी सफलताएं चार सच्चाइयों पर निर्भर करती हैं और मैं इस समय भी सारे देशवासियों को इन्हीं के लिए आमन्त्रित करता है।

हिन्दू मुस्लिम एकता, शान्ति, अनुशासन और बलिदान -

1923 ई. में इन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विशेष अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया। उस समय उनकी आयु केवल 35 वर्ष थी। मौलना आजाद सच्चे राष्ट्रवादी और हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे।

मौलाना आजाद हिन्दू-मुस्लिम एकता के अनन्य दूत थे। उन्होंने एकता के सिद्धान्त से एक इंच भी हटना सहन नहीं किया। आलोचनाओं के बीच वे चट्टान की भाँति दृढ़ रहे। वे 1940 में कांग्रेस अध्यक्ष बने और स्वतन्तरता प्राप्ति के आन्दोलन के समय (1940 1947) अंग्रेजों से हुई विभिन्न वार्ताओं में शामिल रहे।

अगस्त 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ और जवाहर लाल नेहरू ने प्रधान मन्त्री का पद सँभाला। मन्त्रिमण्डल में मौलाना आजाद को शिक्षामंत्री का पद दिया गया। मौलाना ने शिक्षा, कला, संगीत और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये। शिक्षामन्त्री के रूप में मौलाना आजाद के सम्मुख दो लक्ष्य थे राष्ट्रीय एकता की स्थापना और भारत के कल्याण के लिए शिक्षा की नवीन व्यवस्था।

मौलाना आजाद लंगभग दस वर्ष तक भारत के शिक्षामंत्री रहे। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में देश का नेतृत्व किया। यह उनकी सूझबूझ और दूर दृष्टि का ही परिणाम था कि देश में शिक्षा के समुचित विकास का कार्यक्रम दूरत गति और व्यवस्थित ढंग से चलाया जा सका। उन्होंने प्रौढ़ तथा महिला शिक्षा पर भी अत्यधिक बल दिया।

राष्ट्रीय एकता, धार्मिक सहिष्णुता तथा देश-प्रेम का अनूठा आदर्श प्रस्तुत करने वाला एक यशस्वी एवं साहसी साहित्यकार, पत्रकार तथा उच्चकोटि का राजनेता 22 फरवरी सन् 1958 ई. को हमारे बीच से सदा-सदा के लिये विदा हो गया।

लाला लाजपत राय | LALA LAJPAT RAI

लाला लाजपत राय 

LALA LAJPAT RAI


“प्रिय मित्रों, मै आपको कैसे बताऊँ कि इस समय मैं पंजाब की स्थिति के बारे में क्या महसूस कर रहा हूँ। मेरा हृदय दुःख से भरा हुआ है। यद्यपि मेरी जबान मूक है। मैंने बहुत कोशिश की कि इस कष्ट के समय में मैं आप सब के साथ रहूँ और आपका दुःख बाट परन्तु मैं अपने प्रयास में असफल रहा हूँ। मैं शहीद नहीं कहलाना चाहता पर आप सब के संकट की घड़ी में आपके काम आना चाहता हूँ। मेरे हृदय में दुःख है और आत्मा घायल। मुझे नौकरशाहों की करतूतों पर बहुत क्रोध आ रहा है उससे भी ज्यादा गुस्सा आ रहा है अपने देश के लोगों के व्यवहार पर।”

इस संदेश को लाला लाजपत राय ने भेजा था, जब जलियाँवाला बाग का हत्याकाण्ड हुआ और वे उस समय भारत में नहीं थे। लाला लाजपत राय का जन्म फिरोजपुर जिले के ढोडिके नामक स्थान में 28 जनवरी 1865 में हुआ था। उनके पिता राधा किशन आजाद स्कूल के अध्यापक थे और माता थीं गुलाबी देवी। लाजपत राय ने अपने पिता को अपना गुरु स्वीकार किया और कहा “मुझे भारत में उनसे अच्छा अध्यापक नहीं मिला। वे पढ़ाते नहीं थे बल्कि छात्रों को स्वयं सीखने में सहायता करते थे।"

लाला लाजपत राय ने अपने पिता से ही पढ़ने और सीखने का उत्साह पाया, साथ में पाया स्वतन्त्रता के प्रति अथाह प्यार और भारत के लोगों से लगाव। लाजपत राय की माता ने उन्हें धर्म की शिक्षा दी। सन् 1882 में जब वे लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज के छात्र थे उस समय पंजाब और उत्तर भारत के अन्य भागों में आर्य समाज का प्रभाव एक तूफान के समान झकझोर रहा था। लाजपत राय स्वामी दयानन्द और आर्य समाज से प्रभावित हुए तथा आर्य समाज में सम्मिलित हो गये। इससे उनके जीवन को नयी दिशा मिली। लाला लाजपत राय एक संवेदनशील व्यक्ति थे जो कुछ वे सीखते थे उसे आत्मसात कर लेते थे। संवेदनशीलता और स्वतन्त्र विचार की आदत के कारण वे भारतीय देशभक्तों की जीवन कथाओं में रुचि रखने लगे।

सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई स्थापना के तीन वर्ष बाद लाजपत राय इसमें सम्मिलित हुए। उस समय उनकी अवस्था 23 वर्ष की थी। भारतीयों को अपने विचार प्रगट करने का वह एक अच्छा मंच था। लाला लाजपत राय ने कांग्रेस का ध्यान जनता की मूल समस्याओं गरीबी और निरक्षरता की ओर आकर्षित किया।

“लाला लाजपत राय के आस्था एवं विश्वास के कारण उन्हें पंजाब केसरी तथा शेरे पंजाब की उपाधि दी गयी।”

जिस समय ब्रिटिश सरकार की शक्ति अपनी चरम सीमा पर थी उस समय लाला लाजपत राय द्वारा सरकार का खुला विरोध करना बहुत साहस की बात थी। लाजपत राय की राष्ट्रीयता की भावना दिनों-दिन प्रचण्ड होती जा रही थी। इसी समय वह बाल गंगाधर तिलक के सम्पर्क में आये तिलक ने घोषणा की "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहँगा।” लाजपत राय तिलक की इस बात से पूर्णत: सहमत था।

लाला लाजपत राय स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन का प्रचार पूरे देश में करना चाहते थे जिससे ब्रिटिश आर्थिक व्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़े। इस तरह ब्रिटिश सरकार को जबरदस्ती हमारी स्वतन्त्रता की माँग को सुनना पड़ेगा। ब्रिटिश सरकार की अपनी निर्भय आलोचना, अपने दृढ़ विश्वास और जनता पर काबू होने के कारण लाला लाजपत राय पर कई बार राजद्रोह का आरोप लगाया गया। ब्रिटिश सरकार ने इन्हें कई बार अपने रास्ते से हटाने की कोशिश भी की तथा मई 1907 में लाला जी को गिरफ्तार करके कैद में डाल दिया।

राजनैतिक क्षेत्र उन्हें कट्टर देशभक्त कांग्रेस का सबसे योग्य प्रवक्ता मानता था। उन्होंने कई बार भारत का नेतृत्व विदेशों में भी किया। भारत के लिए समर्थन पाने की आशा में उन्होंने इंग्लैण्ड और यूरोप का कई बार दौरा भी किया।

8 नवम्बर 1927 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने भारत के भविष्य पर रिपोर्ट देने के लिए एक आयोग नियुक्त किया। इसमें सात ब्रिटिश सदस्य थे जिसका अध्यक्ष सरजॉन साइमन था लेकिन इस आयोग में भारतीय प्रतिनिधि नहीं थे। यह बात भारतीय राजनीतिज्ञों को बहुत बुरी लगी। जब ये सदस्य भारत आये तब लोगों ने इसका विरोध किया और काले झण्डे दिखाए। “साइमन कमीशन" के सदस्य भारत में जहाँ कहीं भी गए सभी जगह उनका व्यापक विरोध हो गया। लोगों ने 'साइमन वापस जाओ' के नारे लगाये।

आयोग के सदस्य 30 अक्टूबर 1928 को जब लाहौर पहुँचने वाले थे, वहाँ इनका विरोध कर रहे लोगों का नेतृत्व शान्तिपूर्ण ढंग से लाला लाजपत राय कर रहे थे। जैसे ही आयोग रेलवे स्टेशन पर पहँचा, शान्तिपूर्ण जुलूस पर क़रूरता से लाठियाँ बरसायी गयीं। लाजपत राय उनके विशेष निशाने पर थे। उन पर भी लाठियों की खूब बौछारें हुई।

लाठियाँ खाते हुए भी लाला लाजपत राय ने अपने वक्तव्य द्वारा लोगों को नियंत्रित रखा। जब आक्रमण समाप्त हुआ तब वे निर्भीकता से जूलूस का नेतृत्व करते हुए वापस आये। सायंकाल की एक सभा में शेरे पंजाब फिर गरजा -
“प्रत्येक प्रहार जो उन्होंने हम पर किये हैं वह उनके साम्राज्य के पतन के ताबूत में एक और कील है” घायल होने के बावजूद भी पंजाब के शेर के पास भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने की असीम शक्ति थी। लाठी चार्ज में आयी गम्भीर चोटों वे बीमार रहने लगे।

16 नवम्बर सन् 1929 को रात में उनका स्वास्थ्य अत्यधिक बिगड़ गया। अनेक प्रयत्न के बावजूद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका और प्रातः काल उनका निधन हो गया। लाला लाजपत राय राजनैतिक मंच के अलावा सामाजिक गतिविधियों में सतत प्रयत्नशील रहे सामाजिक सुधार के कार्यक्रमों एवं शिक्षा का प्रचार करने के लिये उन्होंने दूर-दूर तक भ्रमण किया। लाला लाजपत राय ने अति वंचित एवं पिछड़े लोगों के लिए, जिन्हें शिक्षा का लाभ नहीं मिल पाता था, एक शिक्षण संस्था की स्थापना की इसके पश्चात् इस तरह की कई संस्थायें खोली गयीं और उनका अस्तित्व बनाये रखने के लिए उन्होंने अपनी बचत से 40,000 रुपया दान दिया। लाला लाजपत राय हृदय से शिक्षाशास्त्री थे। उनका विश्वास था कि जनता के उत्थान के लिए शिक्षा अनिवार्य है। वे बच्चों के शारीरिक विकास पर बहुत जोर देते थे, इसमें बच्चों के लिए पौष्टिक आहार भी शामिल था। उनकी इच्छा थी किं स्कूल के बच्चों को राष्ट्रीयता और देश भक्ति भी अन्य विषयों की तरह पढ़ाया जाय जिससे बच्चे अपने देश पर गर्व करना सीखें। उनकी पत्रिका 'यंग इण्डिया' के अनुसार लाला लाजपत राय का महिलाओं की समस्याओं को देखने का दृष्टिकोण अपने समय से बहुत आगे एवं प्रगतिशील था। वे चाहते थे कि भारतीय महिला अपनी सलज्जता, मर्यादा और परिवार के प्रति अपने कर्तव्य की भावना कायम रखें। वे यह भी चाहते थे कि महिलायें अपने अधिकारों को मानसिक माँगना सीखें। उनका सुझाव था कि बालिकाओं को भी उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास का अवसर दिया जाय।

सन् 1896 में जब उत्तर भारत में भीषण अकाल था, लोग भूख से मर रहे थे, तब ब्रिटिश सरकार के राहत कार्य पर्याप्त नहीं महसूस कर भारतीय नेताओं ने राहत कार्य अपने हाथ में ले लिया जिसमें लाला लाजपत राय सबसे आगे थे।

इसी प्रकार पंजाब में भूकम्प पीडितों को राहत पहँचाने और उनकी सहायता करने में आप अग्रणी रहे। लाला लाजपत राय ने अपने राहत कार्य के दौरान 'सर्वेन्टस ऑफ पीपुल सोसाइटी' की स्थापना भी की थी। इसके सदस्य भारतीय देश भक्त थे जिनका ध्येय ज्यादा से ज्यादा समय राष्ट्र की सेवा में व्यतीत करना था।

लाला लाजपत राय ने कई पुस्तकें भी लिखीं हैं :- जैसे ‘ए हिस्टरी ऑफ इण्डिया', 'महाराज अशोक', 'वैदिक टैक्ट' 'अनहैप्पी इण्डिया'। उन्हों ने कई पत्रिकाओं की स्थापना और सम्पादन भी किया जैसे ‘यंगइण्डिया’, ‘दी पीपुल' और 'दैनिक वन्दे मातरम्' ये उनके काम के हिस्से थे। मुहम्मद अली जिन्ना ने लाला लाजपत राय के लिए कहा था, '

‘वह भारत माता के महान पुत्रों में से एक है' लाला लाजपत राय के योगदानों को यह देश कभी भी भुला नहीं सकता। उनका त्याग और बलिदान देशवासियों के लिए चिरस्मरणीय रहेगा।

स्वामी विवेकानन्द | SWAMI VIVEKANANDA

स्वामी विवेकानन्द 

SWAMI VIVEKANANDA


“यदि कोई व्यक्ति यह समझता है कि वह दूसरे धर्मों का विनाश कर अपने धर्म की विजय कर लेगा, तो बन्धुओं! उसकी यह आशा कभी भी पूरी नहीं होने वाली। सभी धर्म हमारे अपने हैं, इस भाव से उन्हें अपनाकर ही हम अपना और सम्पूर्ण मानवजाति का विकास कर पायेंगे। यदि भविष्य में कोई ऐसा धर्म उत्पन्न हुआ जिसे सम्पूर्ण विश्व का धर्म कहा जाएगा तो वे अनन्त और निर्बाध होगा। वह धर्म न तो हिन्दू होगा, न मुसलमान, न बौद्ध, न ईसाई अपितु वह इन सबके मिलन और सामंजस्य से पैदा होगा।"

ये ही वो शब्द हैं, जिन्होंने विश्वमंच पर भारत की सिरमौर छवि को प्रस्तुत किया और संसार को यह मानने को विवश कर दिया कि भारत वास्तव में विश्वगुरु है। क्या आप जानते हैं, ये शब्द किसने कहे थे? ये शब्द 11 सितम्बर सन् 1893 को शिकागो (अमेरिका) में आयोजित विश्वधर्मसभा के मंच पर स्वामी विवेकानन्द ने कहे थे स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी को कोलकाता में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त तथा माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। इनके बचपन का नाम नरेन्द्र था।

घर का वातावरण अत्यन्त धार्मिक था। दोपहर में सारे परिवार की स्त्रियाँ इकट्ठा होतीं और कथा-वार्ता कहतीं। नरेन्द्र शांत होकर बड़े चाव से इन कथाओं को सुनता। बचपन में ही नरेन्द्र ने रामायण तथा महाभारत के अनेक प्रसंग तथा भजन कीर्तन कण्ठस्थ कर लिये थे।

नरेन्द्र की प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई। इसके उपरान्त वे विभिन्न स्थानों पर शिक्षा प्राप्त करने गए। कुश्ती, बॉक्सिंग, दौड़, घुड़दौड़, तैराकी, व्यायाम उनके शौक थे। उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व के कारण लोग उन्हें मन्त-मुग्ध होकर देखते रह जाते। घर पर पिता की विचारशील पुरुषों से चर्चा होती। नरेन्द्र उस चर्चा में भाग लेते और अपने विचारों से विद्वत्मण्डली को आश्चर्य चकित कर देते। उन्होंने बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त की। इस समय तक उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति का विस्तृत अध्ययन कर लिया था। दार्शनिक विचारों के अध्ययन से उनके मन में सत्य को जानने की इच्छा जागने लगी।

कुछ समय पश्चात् नरेन्द्र ने अनुभव किया कि उन्हें बिना योग्य गुरु के सही मार्गदर्शन नहीं मिल सकता है क्योंकि जहाँ एक ओर उनमें आध्यात्मिकता के प्रति जन्मजात रुझान था वहीं उतना ही प्रखर बुद्धियुक्त तार्किक स्वभाव था। ऐसी परिस्थिति में वे ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित हुए। नरेन्द्र नाथ का प्रश्न था "क्या ईश्वर का अस्तित्व है?” इस प्रश्न के समाधान के लिए वे अनेक व्यक्तियों से मिले किन्तु समाधान न पा सके। इसी बीच उन्हें ज्ञात हुआ कि कोलकाता के समीप दक्षिणेश्वर में एक तेजस्वी साधु निवास करते है।

अपने चचेरे भाई से भी नरेन्द्र ने इन साधु के बारे में सुना। वे मिलने चल दिए। वे साधु थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस नरेन्द्र ने उनसे पूछा - "महानुभाव, क्या आपने ईश्वर को देखा है?” उत्तर मिला "हाँ मैंने देखा है, ठीक ऐसे ही जैसे तुम्हें देख रहा हूँ, बल्कि तुमसे भी अधिक स्पष्ट और प्रगाढ़ रूप में।" नरेन्द्र इस उत्तर पर मौन रह गये। उन्होंने मन ही मन सोचा चलो कोई तो ऐसा मिला जो अपनी अनुभूति के आधार पर यह कह सकता है कि ईश्वर का अस्तित्व है। नरेन्द्र नाथ का संशय दूर हो गया। शिष्य की आध्यात्मिक शिक्षा का श्री गणेश यहीं से हुआ।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने इस उद्विग्न, चंचल और हठी युवक में भावी युगप्रवर्तक और अपने सन्देशवाहक को पहचान लिया था। उन्हां ने टिप्पणी की -

“नरेन (नरेन्द्रर) एक दिन संसार को आमूल झकझोर डालेगा।"

गुरु रामकृष्ण ने अपने असीम धैर्य द्वारा इस नवयुवक भक्त की क्रान्तिकारी भावना का शमन कर दिया। उनके प्यार ने नरेन्द्र को जीत लिया और नरेन्द्र ने भी गुरु को उसी प्रकार भरपूर प्यार और श्रद्धा दी।

अपनी महासमाधि से तीन-चार दिन पूर्व श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपनी सारी शक्तियाँ नरेन्द्र को दे डाली और कहा - “मेरी इस शक्ति से, जो तुममें संचारित कर दी है, तुम्हारे द्वारा बड़े-बड़े कार्य होंगे और उसके बाद तुम वहाँ चले जाओगे जहाँ से आये हो'।

रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात् नरेन्द्र परिव्राजक के वेश में मठ छोड़कर निकल पड़े। उन्होंने सम्पूर्ण भारत में घूम-घूम कर रामकृष्ण के विचारों को फैलाना प्रारम्भ कर दिया। वे भारतीय जनता से मिलते। उनके सुख दुःख बाँटते। दलितों शोषितों के प्रति उनके मन में विशेष करुणा का भाव था। यह समाचार पढ़कर कि कोलकाता में एक आदमी भूख से मर गया, द्रवित स्वर में वे पुकार उठे “मेरा देश, मेरा देश! छाती पीटते हुए उन्होंने स्वयं से प्रश्न किया - “धर्मात्मा कहे जाने वाले हम संन्यासियों ने जनता के लिए क्या किया है?” इसी समय उन्होंने अपना पहला कर्तव्य तय किया - “दरिद्रजन की सेवा, उनका उद्धार” उनके द्रवित कण्ठ से यह स्वर फूटा “यदि दरिद्र पीडित मनुष्य की सेवा के लिए मुझे बार-बार जन्म लेकर हजारों यातनाएँ भी भोगनी पड़ीं, तो मैं भोगूँगा।”

स्वामी जी ने अपने जीवन के कुछ उद्देश्य निर्धारित किये। सबसे बड़ा कार्य धर्म की पुनस्थापना का था। उस समय भारत ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में बुद्धिवादियों की धर्म से श्रद्धा उठती जा रही थी। अतः आवश्यक था धर्म की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत करना जो मानव जीवन को सुखमय बना सके। दूसरा कार्य था हिन्दू धर्म और संस्कृति पर हिन्दुओं की शुद्धा जमाए रखना जो उस समय यूरोप के प्रभाव में आते जा रहे थे।

तीसरा कार्य था भारतीयों को उनकी संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिक परम्पराओं का योग्य उत्तराद्दिकारी बनाना। स्वामी जी की वाणी और विचारों से भारतीयों में यह विश्वास जाग्रत हुआ कि उन्हें किसी के सामने मस्तक झुकाने अथवा लज्जित होने की आवश्यकता नहीं।

लगभग तीन वर्ष तक स्वामी जी ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर प्रत्यक्षतः ज्ञान प्राप्त किया। इस अवधि में अद्दिकांशतः वे पैदल ही चले। उन्होंने देश की अवनति के कारणों पर मनन किया और उन साधनों पर विचार किया जिनसे कि देश का पुन: उत्थान हो सके। भारत की दरिद्रता के निवारण हेतु सहायता प्राप्ति के उद्देश्य से उन्होंने पाश्चात्य देशों की यात्रा का निर्णय लिया।

सन् 1893 ई. में शिकागो (अमेरिका) में सम्पूर्ण विश्व के धर्माचार्यां का सम्मेलन होना निश्चित हुआ। स्वामी जी के हृदय में यह भाव जाग्रत हुआ कि वे भी इस सम्मेलन में जाएँ। खेतरी नरेश, जो कि उनके शिष्य थे, वे स्वामी जी की इस भावना की पूर्ति में सहयोग किया। खेतरी नरेश के प्रस्ताव पर उन्होंने अपना नाम विवेकानन्द धारण किया और अनेक प्रचण्ड बाधाओं को पारकर इस सम्मेलन में सम्मिलित हुए। निश्चित समय पर धर्म सभा का कार्य प्रारम्भ हुआ। विशाल भवन में हजारों नर-नारी शोता उपस्थित थे। सभी वक्ता अपना भाषण लिखकर लाए थे जबकि स्वामी जी ने ऐसी कोई तैयारी न की थी। धर्म सभा में स्वामी जी को सबसे अन्त में बोलने का अवसर दिया गया क्योंकि वहाँ न कोई उनका समर्थक था, न उन्हें कोई पहचानता था। स्वामी जी ने ज्यों ही श्रोताओं को सम्बोधित किया “अमेरिका वासी बहनों और भाइयों! त्यों ही सारा सभा भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। बहुत देर तक तालियाँ बजती रहीं। पूर्व के सभी वक्ताओं ने सम्बोधन में कहा था 'अमेरिका वासी महिलाओं एवं पुरुषों। स्वामी जी के अपनत्व भरे सम्बोधन ने सभी श्रोताओं का हृदय जीत लिया। तालियाँ थमने पर स्वामी जी ने व्याख्यान प्रारम्भ किया। अन्य सभी वक्ताओं ने जहाँ अपने-अपने धर्म और ईश्वर की श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की, वह स्वामी विवेकानन्द ने सभी धर्मों को एकाकार करते हुए घोषणा की "लड़ो नहीं साथ चलो। खण्डन नहीं, मिलो। विग्रह नहीं, समन्वय और शांति के पथ पर बढ़ो।' इस भाषण से उनकी ख्याति सम्पूर्ण विश्व में फैल गयी। अमेरिका के अग्रणी पत्र दैनिक हेराल्ड ने लिखा “शिकागो धर्म सभा में विवेकानन्द ही सर्वश्रेष्ठ व्याख्याता हैं।” प्रेस ऑफ अमेरिका ने लिखा “उनकी वाणी में जादू है, उनके शब्द हृदय पर गम्भीरता से अंकित हो जाते हैं।"

स्वामी जी की विदेश यात्रा के कई उद्देश्य थे। एक तो वे भारतवासियों के इस अन्धविश्वास को तोड़ना चाहते थे कि समुद्र यात्रा पाप है, तथा विदेशियों के हाथ का अन्न-जल ग्रहण करने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है। दूसरा यह कि भारत में अंग्रेजी प्रभाव वाले लोगों को वे यह भी दिखाना चाहते थे कि भारतवासी भले ही अपनी संस्कृति का आदर करें या न करें, पश्चिम के लोग जरूर उससे प्रभावित हो सकते हैं। शिकागो सम्मेलन के बाद जनता के विशेष अनुरोध पर स्वामी जी तीन वर्ष अमेरिका और इंग्लैण्ड में रहे। इस अवधि में भाषणों, वक्तव्यों, लेखों, वाद-विवादों के द्वारा उन्होंने भारतीय विचारधारा को पूरे यूरोप में फैला दिया।

विदेश यात्रा में उन्हें सबसे मधुर मित्र के रूप में जे.जे. गुडविन, सेवियर दम्पति और मार्गरेट नोब्ल मिले जिन्हों ने उनके कार्य एवं विचारों को सर्वत्र फैलाया। मार्गरेट नोब्ल ही 'भगिनी निवेदिता' कहलायी। भगिनी निवेदिता भारतीय तपस्वी समाज में प्रवेश करने वाली प्रथम पाश्चात्य महिला थीं। इन्होंने पश्चिम में विवेकानन्द की विचारधारा के प्रचार-प्रसार हेतु जितना कार्य किया उतना किसी और ने नहीं किया। विदेश यात्रा के दौरान ही उनकी भेंट प्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर से हुई। विवेकानन्द ने उन्हें भारत आने का निमंत्रण दिया। मैक्समूलर स्वामी जी के ज्ञान एवं व्यवहार से अभिभूत हो गये।

स्वामी जी ने यूरोप और अमेरिकावासियों को भोग के स्थान पर संयम और त्याग का महत्त्व समझाया, जबकि भारतीयों का ध्यान समाज की आर्थिक दुरावस्था की ओर आकृष्ट किया। उन्होंने कहा - “जो भूख से तड़प रहा हो उसके आगे दर्शन और धर्मग्रन्थ परोसना उसका मजाक उड़ाना है" उन्होंने कहा -“भारत का कल्याण शक्ति साधना में है यहाँ के जन-जन में जो साहस और विवेक छिपा है उसे बाहर लाना है। मैं भारत में लोहे की माँसपेशियाँ और फौलाद की नाडियाँ देखना चाहता हूँ।" मानव मात्र के प्रति प्रेम और सहानुभूति उनका स्वभाव था। वे कहा करते - "जब पड़ोसी भूखा मरता हो तब मन्दिर में भोग लगाना पुण्य नहीं पाप है। वास्तविक पूजा निर्दन और दरिद्र की पूजा है, रोगी और कमजोर की पूजा है।"

इंग्लैण्ड और अमेरिका में पर्याप्त प्रचार कार्य की व्यवस्था कर स्वामी जी भारत आये। यहाँ पहुँचकर अपने कार्य को दृढ़ आधार देने तथा मानव मात्र की सेवा के उद्देश्य से 1897 ई. में 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की। मिशन का लक्ष्य सर्वधर्म समभाव था। नये मठों का निर्माण, देश-विदेश में परचार कार्य की व्यवस्था, इस सबके कारण स्वामी जी को विश्राम नहीं मिल पाता था। इसका प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ने लगा। चिकित्सकों के सुझाव पर स्थान परिवर्तन कर दार्जिलिंग चले गये, पर तभी कोलकाता में प्लेग फैल गया। उन्हें यह समाचार मिला तो वे महामारी से ग्रस्त लोगों की सेवा के लिए विकल हो उठे। उन्होंने कोलकाता लौटकर प्लेग ग्रस्त लोगों की सेवा का कार्य शुरू कर दिया। स्वामी जी के हृदय में नारियों के प्रति असीम उदारता का भाव था। वे कहते थे जो जाति नारी का सम्मान करना नहीं जानती वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी, न आगे कर सकेगी।

4 जुलाई सन् 1902 ई. को वे प्रातः काल से ही अत्यन्त प्रफुल्ल दिख रहे थे। ब्रह्म मुहूर्त में उठे। पूजा की। शिष्यों के बीच बैठकर रुचिपूर्वक भोजन किया। छात्रों को संस्कृत पढ़ाई। फिर एक शिष्य के साथ बेलूर मार्ग पर लगभग दो मील चले और भविष्य की योजना समझाई। शाम हुई। संन्यासी बन्धुओं से स्नेहमय वार्तालाप किया। राष्ट्रों के अभ्युदय और पतन का प्रसंग उठाते हुए कहा “यदि भारत समाज संघर्ष में पड़ा तो नष्ट हो जाएगा”। सात बजे मठ में आरती के लिए घंटी बजी। वे अपने कमरे में चले गये और गंगा की ओर देखने लगे। जो शिष्य साथ था उसे बाहर भेजते हुए कहा - मेरे ध्यान में विघ्न नहीं होना चाहिए। पैंतालीस मिनट बाद शिष्य को बुलाया सब खिड़कियाँ खुलवा दीं। भूमि पर बायीं करवट चुपचाप लेटे रहे। ध्यान मग्न प्रतीत होते थे। घण्टे पहर बाद एक गहरा निःश्वास छोड़ा और फिर चिर मौन छा गया। एक गुरुभाई ने कहा - "उनके नथुनों, मुँह और आँखों में थोड़ा रक्त आ गया है।” दिखता था कि वे समाधि में थे। इस समय उनकी अवस्था उन्तालीस वर्ष की थी। अगले दिन संघर्ष, त्याग और तपस्या का प्रतीक वह महापुरुष संन्यासी गुरु भाई और शिष्यों के कंधां पर जय-जयकार की ध्वनि के साथ चिता की ओर जा रहा था। वातावरण में जैसे ये शब्द अब भी गूँज रहे थे - “शरीर तो एक दिन जाना ही है, फिर आलंसियों की भाँति क्यों जिया जाए। जंग लगकर मरने की अपेक्षा कुछ करके मरना अच्छा है। उठो जागो और अपने अन्तिम लक्ष्य की पूर्ति हेतु कर्म में लग जाओ।

शनिवार, 20 नवंबर 2021

टीपू सुल्तान TIPU SULTAN | MYSORE

टीपू सुल्तान 

TIPU SULTAN


टीपू सुल्तान हैदरअली का पुत्र था और इसका जन्म सन् 1753 ई. में हुआ था। इसके पिता मैसूर के शासक थे। कुछ लोग समझते हैं कि हैदरअली मैसूर का राजा था। यह बात नहीं है। हैदरअली ने अपने को कभी राजा नहीं बनाया। मैसूर के राजा की मृत्यु के बाद उसने उनके छोटे पुत्र को जिसकी अवस्था तीन-चार वर्ष की थी, राजा घोषित कर दिया और उन्हीं के नाम पर सब काम-काज करता रहा। उसने धीरे-धीरे मैसूर राज्य की सीमा बढ़ा ली थी। कुछ पढ़ा-लिखा न होने पर भी उसको सेना सम्बन्धी अच्छा ज्ञान था। उसका सहायक खांडेराव एक महाराष्ट्री था।

टीपू जब तीस साल का हुआ, हैदरअली की मृत्यु हुई। युद्ध तथा शासन का तब तक उसे बहुत अच्छा ज्ञान हो गया था। उस समय भारत में इंग्लैण्ड की ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपना राज्य फैला रही थी। हैदर अली कई बार कम्पनी से लड़ा था जिसके कारण टीपू को अंग्रेजों से लड़ने के रंग-ढंग की जानकारी हो गयी थी। इस युद्ध में टीपू ने नये ढंग के आक्रमण का तरीका निकाला था। वह एकाएक बहुत जोरों से बिजली की भाँति आक्रमण करता था और शत्रु के पैर उखड़ जाते थे। हैदरअली स्वयं पढ़ा-लिखा नहीं था परन्तु टीपू की शिक्षा की उसने अच्छी व्यवस्था कर दी थी। अत: टीपू शिक्षित भी था और घुड़सवारी में भी निपुण था।

जिस समय टीपू को पिता की मृत्यु का समाचार मिला वह भारत के पश्चिम मालाबार में अंग्रेजों से लड़ रहा था। उसने लड़ाई छोड़ना ही उचित समझा। वहाँ सभी दरबारियों तथा मन्त्रियों ने इनको ही सहायता दी और टीपू मैसूर की बड़ी सेना का सेनापति बनाया गया।

इसके बाद उसे अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने का प्रबन्ध करना था। अंग्रेजों ने मराठों से सन्धि कर ली और टीपू पर आक्रमण किया। इस लड़ाई में टीप और अंग्रेजों को पराजित किया। टीप ने अपनी सहायता के लिए कुछ फ्रेंच सिपाही भी रखे थे जो उन दिनों भारत में थे। अंग्रेजों ने टीप से सन्धि की प्रार्थना की। इस सन्धि की बातें करने के लिए अंग्रेजों की ओर से एक दल आया और टीप से अंग्रेजों की सन्धि हो गयी किन्तु अंग्रेजों ने ये सन्धि इसलिए की थी कि हमें समय मिल जाय जिसमें हम और तैयारी को चूर कर ले और टीपू की सारी शक्ति को चूर कर डाले। टीपू को इसका ध्यान न रहा। वह समझता था कि मैंने अंग्रेजों को हरा दिया है, मेरी शक्ति उनके बराबर तो है ही। यहीं उसने धोखा खाया। उसने शत्रु की शक्ति का अनुमान ठीक नहीं लगाया। फ्रेंच सैनिकों ने भी टीप के इस विचार का समर्थन किया। इतना ही नहीं, उन लोगां ने उसे भड़काया भी था।

उन लोगों का विचार था कि यदि अवसर मिले तो टीपू की सहायता से अंग्रेजों को भारत के दक्षिण से निकालकर स्वयं वहाँ राज्य करें। इन बातों से टीपू का उत्साह बढ़ गया। टीपू ने फ्रांस से कुछ सहायता पाने की आशा की, कुछ जगह पत्र भी लिखा। उसका यही अभिप्राय था कि अंग्रेजों को भारतवर्ष से निकाल दिया जाये। अंग्रेजों को इस बात का पता लग गया और उन्होंने टीपू को समय देना उचित न समझा। उन्होंने टीपू के विरुद्ध सेना भेज दी। इस बार अंग्रेजों और टीपू के बीच कई बार घमासान लड़ाइयाँ हुईं और अन्त में टीपू घिर गया। कुछ दिनों के बाद टीपू लड़ते हुए मारा गया।

टीपू को विजय प्राप्त नहीं हुई, यह उसका दुर्भाग्य था। किन्तु यदि उसे सचमुच सहायता मिली होती तो अंग्रेजों का राज्य भारतवर्ष में शायद दृढ़ न हो पाता और हमारे देश का इतिहास बदल गया होता। यदि वह अंग्रेजों से ले देकर सन्धि कर लेता तो उसे कोई कठिनाई न होती किन्तु उसने ऐसा नहीं किया और इसी कारण अंग्रेज भी उसका नाश करने पर तुले हुए थे।

टीपू ने अपने राज्य में अनेक सुधार किये थे। उस समय वहाँ ऐसी प्रथा थी कि एक स्त्री कई पुरुषों से विवाह कर सकती थी। यह प्रथा उसने बन्द कर दी और नियम बनाया कि जो ऐसा करेगा उसे कठोर दण्ड दिया जायेगा। वह स्वयं शराब नहीं पीता था और उसके राज्य में शराब पीना अपराध था। उसकी पढ़ने-लिखने में रुचि थी और उसका निजी पुस्तकालय था। उन दिनों पुस्तकालय बनाना कठिन था क्योंकि छापाखाना नहीं था और हाथ से लिखी पुस्तकें ही मिलती थीं। उन पुस्तकों से पता चलता है कि साहित्य के साथ साथ टीपू की कविता, गणित, ज्योतिष, विज्ञान तथा कला में भी रुचि थी। टीपू का जीवन आमोद-प्रमोद में नहीं बीतता था। सबेरे से सन्ध्या तक वह परिश्रम करता था और चाहता था कि दूसरे भी इसी प्रकार राज्य का काम-काज करें। उसने तिथियाँ सूर्य-वर्षों के अनुसार चलायी थीं। युद्ध-कला पर उसने एक पुस्तक भी लिखी। उसकी स्पष्ट आज्ञा थी युद्ध के पश्चात् लूटपाट में स्त्रियों को कोई न छुए। अपनी माता का वह बहुत सम्मान करता था और सदा उनकी आज्ञा का पालन करता था।

टीपू ने अपने पिता के सम्मुख युवावस्था में लिख कर प्रतिज्ञा की थी कि मैं झूठ कभी नहीं बोलूँगा, धोखा किसी को नहीं दूँगा, चोरी नहीं करूँगा और जीवन के अन्त तक उसने इस परतिज्ञा का पालन किया।

टीपू हिन्दू-मुस्लिम मेल-जोल का पक्षपाती था। उसकी सेना में तथा मन्त्रि मण्डल में सभी धर्मों के अनुयायी थे। हाँ, धोखा देने वालों के साथ उसका व्यवहार कठोर होता था और उन्हें वह दण्ड देता था।

टीप, वह वीर था जिसने अपने देश को विदेशियों के चंगुल से छुड़ाने का कठिन प्रयत्न किया। उसे सफलता नहीं मिली, किन्तु उसके महान होने में कोई सन्देह नहीं है।