मंगलवार, 23 नवंबर 2021

आचार्य विनोबा भावे | VINOBA BHAVE | विनायक नरहरी भावे | VINAYAK NARAHARI VINOBA BHAVE

आचार्य विनोबा भावे (विनायक नरहरी भावे)

समय-समय पर इस देश में ऐसे व्यक्ति जन्म लेते रहे हैं जिन्होंने अपनी विशिष्ट क्षमताओं से देश तथा समाज को एक नई दिशा दी है। ऐसे ही व्यक्ति थे आचार्य विनोबा भावे। उनके व्यक्तित्व में सन्त, आचार्य (शिक्षक) और साधक तीनों का समन्वय था।

विनोबा जी का जन्म 11 सितम्बर 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गागोदा ग्राम में हुआ था। बचपन में विनोबा जी को घूमने का विशेष शौक था। वे अपने गाँव के आसपास की पहाडियों, खेतों, नदियों एवं अन्य ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण किया करते थे। वे पढ़ाई के दिनों में पाठ्यपुस्तकों के साथ-साथ आध्यात्मिक पुस्तकें भी पढ़ा करते थे। छोटी उम्र में ही उन्होंने तुकाराम गाथा, दासबोध ब्रह्मस्त्र, शंकर भाष्य और गीता का अनेक बार अध्ययन किया।

विनोबा जी को अनेक भाषाओं का ज्ञान था। वे उच्चकोटि के रचनाकार भी थे। उनकी प्रारम्भिक रचनाएं मराठी भाषा में हैं। बाद में उन्होंने हिन्दी, तमिल, संस्कृत और बंगला में अनेक पुस्तकों की रचना की।

कर्त्तव्यनिष्ठ विनोबा -

महात्मा गाँधी के आग्रह पर विनोबा साबरमती आश्रम चले आये। आश्रम में आकर वे खेती का काम करने लगे। वहाँ वे कई महीनों तक मौन रहकर कार्य करते रहे। इनके कार्यों से प्रभावित होकर गाँधीजी ने इन्हें प्रथम सत्याग्रही की संज्ञा दे डाली। लोगों ने सोचा कि वे गँगे हैं, पर थोड़े ही दिनों बाद वे उपनिषदों का नियमित वाचन करने लगे तथा खाली समय में संस्कृत पढ़ाने का काम भी देखने लगे। विनोबा जी के पास कक्षा-5 से लेकर ऊँची कक्षाओं तक के बच्चे पढ़ने आया करते थे। उनकी रोचक और प्रभावशाली शैली से बच्चे और शिक्षक दोनों ही प्रभावित थे। लोगों ने उनके गुणों से प्रभावित होकर उन्हें आचार्य कहना प्रारम्भ कर दिया। विनोबा जी में आलस्य लेशमात्र भी नहीं था। वे दृढ़संकल्पी और सच्चे कर्मयोगी थे।

विनोबा जी किसी पुस्तक का अध्ययन कर रहे थे तभी एक बिच्छु ने उनके पैर में डंक मार दिया। दर्द असह्य था। बिच्छु के जहर से उनका पैर काला पड़ गया। पीड़ा बढ़ने पर उन्होंने चरखा मँगाया और एकाग्र होकर सूत कातने लगे। इस कार्य में वे इतने तन्मय हो गये कि उन्हें न तो बिच्छू के डंक मारने का ध्यान रहा और न ही पीड़ा का।

विनोबा जी के जीवन पर गीता के उपदेशों का गहरा प्रभाव था। सन् 1932 में धलिया जेल में रहकर उन्होंने गीता पर 18 प्रवचन दिये जो आज 'गीता प्रवचन' के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे हर समय चिन्तन-मनन में लीन रहते थे। लोगों की सेवा करना उनका धर्म बन गया था।

गाँधी जी के निधन के बाद विनोवा लगभग चौदह वर्ष तक देश के अनेक हिस्सों में घूमते रहे और भदान आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करते रहे। जगह जगह प्रार्थना सभाएं रहे और भूदान आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करते रहे। जगह-जगह प्रार्थना सभाएं आयोजित कर इस सम्बन्ध में व्यक्तिगत और सामाजिक उत्थान के बारे में अपने विचार व्यक्त करते रहे। उनकी बात बहुत संक्षिप्त, संयत और सटीक होती थी। विनोबा जी कहने की अपेक्षा करने में अधिक विश्वास करते थे। वे पुरानी बातों को नये तालमेल के साथ इस तरह प्रस्तुत करते थे कि लोगों को स्वाभाविक रूप से जीवन की एक नई दिशा मिलती थी। विनोबा जी गाँधी, तिलक, तुकाराम, तुलसीदास, मीरा, रामकृष्ण और बुद्ध के जीवन से बहुत प्रभावित थे।

विनोबा के विचार

**समता का अर्थ है बराबरी, ऐसी बराबरी जिसमें योग्यता के अनुसार सभी का आँकलन हो।

**भक्ति ढोंग नहीं है दिन भर पाप करके झूठ बोलकर प्रार्थना नहीं होती।

** जिस घर में उद्योग की शिक्षा नहीं है उस घर के बच्चे जल्दी घर का नाश कर देंगे।

**स्वावलम्बन का अर्थ है अपने आप पर निर्भर होना। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरे का मुँह न ताकना। अर्थात “जितना कमाओ, उतना खाओ।

भूदान

विनोबा जी देश के कोने-कोने में स्थित सुदूर गाँवों तक जाते थे और वहाँ ज्यादा भूमि वाले किसानों से मिलकर उनकी भूमि का कुछ हिस्सा भूमिहीनों के लिए माँगते थे। इस तरह भूदान यज्ञ के जरिये देश के अनेक भूमिहीन लोगों को विनोबा जी ने जमीन दिलायी।

सर्वोदय सिद्धान्त :-

विनोबा जी के सर्वोदय सिद्धान्त के तीन तत्व हैं - सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह (त्याग) | उनका कहना था कि आध्यात्मिक विकास का आधार सत्य है। सामाजिक विकास का आधार अहिंसा और आर्थिक विकास का आधार अपरिग्रह है। वे सर्वोदय का उद्देश्य स्वशासन और स्वावलम्बन मानते थे।

उन दिनों चम्बल की घाटी में डाकुओं का बहुत आतंक था। विनोबा जी चम्बल घाटी के कनेरा गांव गये। वहाँ उन्होंने लोगों को सम्बोधित किया। उनके विचारों से प्रभावित होकर चम्बल घाटी के उन्नीस डाकुओं ने एक साथ आत्मसमर्पण किया।

आचार्य ने जो कहा

आचार्य विनोबा भावे ने जीवन के कई पहलुओं पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। वे जहाँ तहाँ आयोजित प्रार्थना सभाओं, गोष्ठियों में प्रवचन दिया करते थे। यहाँ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर उनके विचार संक्षेप में दिये जा रहे हैं : -

समता

"समता का मतलब क्या है? बराबरी, कैसी बराबरी? घर में चार रोटियाँ हैं और दो खाने वाले, हर एक को कितनी रोटियाँ दी जाएँ - दो-दो। ऐसी समता अगर माताएँ सीख लें तो अनर्थ हो जायेगा। गणित की समता दैनिक व्यवहार के किसी काम की नहीं। यदि इनमें से एक खाने वाला 2 साल का और दूसरा 25 साल, तो एक अतिसार से मरेगा ओर दूसरा भूख से। समता का अर्थ है योग्यता के अनुसार कीमत आँकना।”

उद्योग

अपने देश में आलस्य का भारी वातावरण है। यह आलस्य बेकारी के कारण आया है। शिक्षितों का तो उद्योग से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता। जो खाता है उसे उद्योग तो करना ही चाहिए चाहे वह जिस तरह का हो। घरों में उद्योग का वातावरण होना चाहिए। आलस्य की वजह से ही हम दरिद्र हो गये हैं, परतंत्र हो गए हैं।

भक्ति

“भक्ति के माने ढोंग नहीं है। हमें उद्योग छोड़कर झूठी भक्ति नहीं करनी है। खाली समय में भगवान का स्मरण कर लो। दिन भर पाप करके, झूठ बोलकर, प्रार्थना नहीं होती।“

सीखना-सिखाना

'जिसे जो आता है वह उसे दूसरे को सिखाये और जो सीख सके, उसे खुद सीखे। केवल पाठशाला की शिक्षा पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।'

तालमेल

“कहा जाता है कि वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में गाय और बाघ एक झरने पर पानी पीते थे। इसका अर्थ क्या हुआ ? बाघ की न केवल कुरूरता नष्ट होती थी बल्कि गाय की भीरुता भी नष्ट हो जाती थी। मतलब गाय-भय शेर क्रूरता" इस तरह मेल बैठता है। नहीं तो शेर को गाय बनाने का सामर्थ्य तो सर्कस वालों में भी है।"

एक आदर्श व्यक्तित्व -

विनोबा जी ने अपना सारा जीवन एक साधक की तरह बिताया। वे ऋषि, गुरु तथा क्रांतिदूत सभी कुछ थे। उनका व्यक्तित्व कुछ ऐसा तेजस्वी एवं प्रभावशाली था कि कोई भी व्यक्ति उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। अदभुत व्यक्तित्व के प्रकाश-पुरुष आचार्य विनोबा का निधन 15 नवम्बर 1982 को हो गया लेकिन अपने विचारों के साथ वे सदैव हमारे बीच हैं, रहेंगे। वर्ष 1983 में इन्हें भारत सरकार के द्वारा मरणोपरान्त 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया।