शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

शहनाई के जादूगर - उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ | BISMILLAH KHAN

शहनाई के जादूगर 

उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ

26 जनवरी 1950 स्वतंत्र भारत के प्रथम गणतन्त्र की संध्या पर शहनाई से राग काफी में उभरी स्वरलहरियों ने सम्पूर्ण वातावरण में जैसे सुरों की गंगा प्रवाहित कर दी है। इस दिवस का हर्षोल्लास द्विगुणित हो गया। श्रोता भाव-विभोर होकर स्वरों की इस अपूर्व बाजीगरी का आनन्द उठा रहे थे और मन ही मन प्रशंसा कर रहे थे उस कलाकार की, जो शहनाई से उभरे स्वरों के रास्ते उनके हृदयों में प्रवेश कर रहा था।

यह शहनाई वादक थे उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ जो स्वतंत्र भारत की प्रथम गणतंत्र दिवस की संध्या पर लाल किले में आयोजित समारोह में शहनाई बजा रहे थे। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ एक ऐसा कोमल हृदय मानव जो संगीत के द्वारा आत्मा की गहराइयों में उतर जाते थे। ऐसा व्यक्तित्व जो विश्वविख्यात शहनाई वादक के रूप में जीते जी किंवदन्ती बन गए।

बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म 21 मार्च 1916 को डुमराँव (बिहार) में हुआ। इनके पूर्वज डुमराँव रियासत में दरबारी संगीतज्ञ थे। इन्हें संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा चाचा अलीबक्श विलायत से मिली। अलीबक्श वाराणसी के विश्वनाथ मन्दिर में शहनाई बजाते थे। चाचा की शिक्षा से जहाँ उनमें संगीत के प्रति गहरी समझ विकसित हुई वहीं सभी धर्मों के प्रति आदर का भाव भी जाग्रत हुआ। उन्हां ने अपना जीवन संगीत को समर्पित कर दिया और शहनाई वादन को विश्वस्तर पर नित नयी ऊँचाइयाँ देने का निश्चय कर लिया।

बिस्मिल्लाह खाँ संगीत और पूजा को एक ही दृष्टि से देखते थे। उनका मानना था कि संगीत, सुर और पूजा एक ही चीज है। बिस्मिल्लाह खाँ ने अपनी शहनाई की गूंज से अफगानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, अफ्रीका, रूस, अमेरिका, जापान, हांगकांग समेत विश्व के सभी प्रमुख देशों के श्रोताओं को रसमग्न किया। उनका संगीत समुद्र की तरह विराट है लेकिन वे विनम्रतापूर्वक कहते थे। “मैं अभी मुश्किल से इसके किनारे तक ही पहँच पाया हूँ मेरी खोज अभी जारी है।'

संगीत में अतुलनीय योगदान हेतु उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ को देश-विदेश में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' महामहिम राष्ट्रपति द्वारा सन् 2001 में प्रदान किया गया। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, तानसेन पुरस्कार, मध्य प्रदेश राज्य पुरस्कार, 'पद्म विभूषण' जैसे सम्मान एवं विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें प्रदान की गयी डॉक्टरेट की उपाधियाँ उनकी ख्याति की परिचायक हैं।

खाँ साहब अत्यन्त विनम्र, मिलनसार और उदार व्यक्तित्व के धनी थे। वे सभी धर्मो का सम्मान करते थे। संगीत के प्रति पूर्णत: समर्पण, कड़ी मेहनत, घंटों अभ्यास, संतुलित आहार, संयमित जीवन और देश प्रेम के अटूट भाव एवं गुणों ने उन्हें विश्वस्तर पर ख्याति दी। अभिमान तो जैसे उन्हें छु तक नहीं गया। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ शास्त्रीय संगीत परम्परा की ऐसी महवपूर्ण कड़ी थे जिन पर प्रत्येक देशवासी को गर्व है।

इनका देहावसान 21 अगस्त, 2006 को हुआ था।

बुधवार, 24 नवंबर 2021

शहीद भगत सिंह | BHAGAT SINGH | शहीद दिवस | 23 मार्च 1931

शहीद भगत सिंह

उस दिन सुबह 'वीरा' स्कूल के लिए कहकर घर से निकला। सन्ध्या हो गयी लेकिन घर नहीं लौटा। जलियाँवाला बाग की घंटना से हम सभी दुःखी और घबराये हुए थे। काफी देर रात बीते वह गुमसुम सा घर आया। मैने कहा -“कहाँ गया था वीरा? सब जगहू तुझे ढँढा, चल फल खा ले। "वह फफक कर रो उठा। मैंने उसे आमतौर पर कभी रोते हुए नहीं देखा था। उसने अपनी नेकर की जेब से एक शीशी निकाली जिसमें मिट्टी भरी हुई थी। उसने कहा “ मिट्टी नहीं अमरों यह शहीदों का खून है। " उस श्शीशी से वह रोज खोलता, उसे चूमता और उसमें भरी हुई मिट्टी से तिलक लगाता, फिर स्कूल जाता।

अमरो का यही वीरा आगे चलकर महान क्रान्तिकारी भगत सिंह के नाम से विख्यात हुआ। भगत सिंह का जन्म लायलपुर (जो अब पाकिस्तान में है) जिले में 27 सितम्बर 1907 को हुआ था। उस समय पूरे देश में अंग्रेजी श्शासन के खिलाफ विद्रोह की ज्वाला धधक रही थी। उनके पिता किशन सिंह अपने चारों भाइयों के साथ लाहौर के सेंट्रल जेल में बन्द थे।

माँ विद्यावती ने अत्यन्त लाड़-दुलार के साथ उनका पालन-पोषण किया। इस परिवार में संघर्ष और देश भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी। जिसका असर भगत सिंह पर भी पड़ा। इनकी बड़ी बहन का नाम अमरो था।

भगत सिंह बचपन से ही असाधारण किस्म के कार्य किया करते थे। एक बार वे अपने पिता के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में ही पिता के एक घनिष्ठ मित्र मिल गये जो अपने खेत में बुवाई का काम कर रहे थे। मित्र को पाकर पिता उनसे हाल-चाल पूछने लगे। भगत सिंह वहीं खेत में छोटे-छोटे तिनके रोपने लगे। पिता के मित्र ने पूछा “यह क्या कर रहे हो भगत सिंह?” बालक भगत सिंह का उत्तर था - "बन्दूकें बो रहा हूँ।" भगत सिंह जैसे-जैसे बड़े होते गये उनकी विशिष्टताएँ उजागर होती गयीं।

इसी समय अंग्रेजी सरकार द्वारा एक कानून लाया गया - रौलेट एक्ट। इस कानून का पूरे देश में विरोध किया जा रहा था। इसी कानून के विरोध में 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक सभा हो रही थी। अचानक अंग्रेज पुलिस आयी और चारों ओर से प्रदर्शनकारियों को घेर लिया। पुलिस अधिकारी जनरल डायर ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। सैकड़ों मासूम मारे गये। इस घटना ने पूरे राष्ट्र को झकझोर कर रख दिया। भगत सिंह के बालमन पर इस घटना का इतना गहरा असर पड़ा कि उन्हां ने बाग की मिट्टी लेकर देश के लिए बलिदान होने की शपथ ली।

आरम्भिक पढ़ाई पूरी करने के बाद भगत सिंह आगे की शिक्षा के लिए नेशनल कालेज लाहौर गये। वहाँ उनकी मुलाकात सुखदेव और यशपाल से हुई। तीनों मिंत्र बन गये और क्रान्तिकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेने लगे।

भगत सिंह जब बी.ए. में पढ़ रहे थे तभी उनके पिताजी ने उनके विवाह की चर्चा छेडी और भगत सिंह को एक पत्र लिखा। पत्र पढ़कर भगत सिंह बहुत दुःखी और उन्होंने दोस्तों से कहा -

“दोस्तों मैं आपको बता दूँ कि अगर मेरी शादी गुलाम भारत में हुई तो मेरी दुल्हन सिर्फ मौत होगी, बारात शवयात्रा बनेगी और बाराती होंगे शहीद।” पिताजी के पत्र का जवाब देते हुए उन्होंने लिखा “यह वक्त शादी का नहीं, देश हमें पुकार रहा है। मैंने तन मन और धन से राष्ट्र सेवा करने की सौगन्द्द खायी है। मुझे विवाह बन्धनों में न बाँधे बल्कि आशीर्वाद दें कि मैं अपने आदर्श पर टिका रहूँ।”

सन् 1926 में उन्होंने लाहौर में नौजवान सभा का गठन किया। इस सभा का उद्देश्य था –

**स्वतन्त्र भारत की स्थापना।

**एक अखण्ड राष्ट्र के निर्माण के लिए देश के नौजवानों में देश भक्ति की भावना जाग्रत करना।

**आर्थिक सामाजिक और औद्योगिक क्षेत्रों के आन्दोलनों में सहयोग प्रदान करना।

**किसानों और मजदूरों को संगठित करना।

इसी बीच भगत सिंह की मुलाकात प्रसिद्ध क्रान्तिकारी एवं देश भक्त गणेशशंकर विद्यार्थी से कानपुर में हुई। गणेशशंकर विद्यार्थी उस समय अपनी प्रखर पत्रकारिता से जनमानस को उद्वेलित करने का काम कर रहे थे। भगत सिंह उनके विचारों से इतने प्रभावित कि कानपुर में ही उनके साथ मिलकर क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने लगे। लेकिन दादी माँ की अस्वस्थता के कारण उन्हें लाहौर लौटना पड़ा।

लाहौर में उस समय सारी क्रान्तिकारी गतिविधियाँ हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसियेशन के बैनर तले संचालित हो रही थीं। भगत सिंह को एसोसियेशन का मंत्री बनाया गया। 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन आने वाला था। भगत सिंह ने कमीशन के बहिष्कार की योजना बनायी। लाला लाजपतराय की अध्यक्षता में साइमन कमीशन का डटकर विरोध किया गया। “साइमन वापस जाओ” और “इन्कलाब जिन्दाबाद” के नारे लगाये गये। निरीह प्रदर्शनकारियों पर अंग्रेज पुलिस ने बर्बरतापूर्वक लाठी चार्ज किया। लाला लाजपत राय के सिर में गंभीर चोटें आयीं जो बाद में उनकी मृत्यु का कारण बनीं। इस घटना से भगत सिंह व्यथित हो गये। आक्रोश में आकर उन्होंने पुलिस कमिश्नर सांडर्स की हत्या कर दी और लाहौर से अंग्रेजों को चकमा देते हुए भाग निकले।

अप्रैल 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंका और गिरफ्तारी दी। इस धमाके के साथ उन्हों ने कुछ पर्चे भी फेंके। भगत सिंह और उनके साथियों पर साण्डर्स हत्याकाण्ड तथा असेम्बली बम काण्ड से सम्बन्धित मुकदमा लाहौर में चलाया गया। मुकदमे के दौरान उन्हें और उनके साथियों को लाहौर के सेंटरल जेल में रखा गया। जेल में कैदियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था। उन्हें प्राथमिक सविधाएँ और भोजन ठीक से नहीं दिया जाता था। भगत सिंह को यह बात ठीक नहीं लगी। उन्होंने इसके विरोध स्वरूप भूख हड़ताल शुरू कर दी। आखिर अंग्रेजी सरकार को उनके आगे झुकना पड़ा और कैदियों को बेतहर सुविधाएँ मिलने लगीं। 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सजा सुनायी गयी। तीनां क्रान्तिकारियों को 23 मार्च 1931 को फाँसी दे दी गयी।

उनकी शहादत की तिथि 23 मार्च को हमारा देश “शहीद दिवस” के रूप में मनाता है। उनके क्रांन्तिकारी विचार, दर्शन और शहादत को यह देश कभी नही भुला सकेगा।

कुछ यादं : कुछ विचार:

1. बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है :-

असेम्बली में बम फेंकने के बाद जो पर्चे फेंके गये थे। उनका शीर्षक यही था। इस पर्चे में और भी कुछ था -

“आज फिर जब लोग साइमन कमीशन से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आँखे फैलाये हैं और इन टुकड़ों के लिए लोग आपस में झगड़ रहे हैं। विदेशी सरकार पब्लिक सेफ्टी बिल (सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक) और टेण्डर्स डिस्प्प्यूट्स विल (औद्योगिक विवाद विधेयक) के रूप में अपने दमन को और भी कडा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आने वाले अधिवेशन में प्रेस सैडिशन एक्ट (अखबारों द्वारा राजद्रोह रोकने का कानून) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है।

जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखण्ड को छोड़कर अपने अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जायें और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरुद्ध क्रान्ति के लिए तैयार करें।”

2. क्रान्ति -

“क्रान्ति से हमारा आशय खून खराबा नहीं। क्रान्ति का विरोध करने वाले लोग केवल पिस्तौल, बम, तलवार और रक्तपात को ही क्रान्ति का नाम देते हैं परन्तु क्रान्ति का अभिप्राय यह नहीं है। क्रांति के पीछे की वास्तविक शक्ति जनता द्वारा समाज की आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन करने की इच्छा ही होती है।"

3. प्रख्यात गांधीवादी श्री पटभिरमैया –

“उस समय भगत सिंह का नाम सारे देश में गाँधीजी की तरह ही लोकप्रिय हो गया था।"

4. बालकृष्ण शर्मा नवीन:

“किसी भी देश का युवक जितना सच्चा चरित्रवान, संतोषी, आदर्शवादी, उत्सुक, और निखरा हुआ तप्त स्वर्ण हो सकता है, भगत सिंह वैसा ही है। यदि भगत सिंह लार्ड इरविन का पुत्रं होता तो हमें विश्वास है वे भी उसे प्यार करते। वह बड़ा ही सुसंस्कृत भोला भाला, नौजवान है। वह हमारी वत्सलता, स्नेह, अपार वात्सल्य और प्यार का व्यक्त रूप है।"

एक और बेबे (माँ)

जेल में जो महिला कर्मचारी भगत सिंह की कोठरी की सफाई करने जाती थी उसे भगत सिंह प्यार से बेबे कहते थे। आप इसे बेबे क्यों कहते है? एक दिन किसी जेल अधिकारी ने पूछा तो वे बोले-जीवन में सिर्फ दो व्यक्तियों ने ही मेरी गंदगी उठाने का काम किया है। एक बचपन में मेरी माँ ने और जवानी में इस माँ ने। इसलिए दोनों माताओं को प्यार से मैं बेबे कहता हूँ।

फाँसी से एक दिन पहले जेलर खान बहादुर अकबर अली ने उनसे पूछा - आपकी कोई खास इच्छा हो तो बताइए, मैं उसे पूरा करने की कोशिश करूँगा।

भगत सिंह ने कहा - हाँ, मेरी एक खास इच्छा है और उसे आप ही पूरा कर सकते हैं। मैं बेबे के हाथ की रोटी खाना चाहता हूँ।

जेलर ने जब यह बात उस सफाई कर्मचारी से कही तो वह स्तब्ध रह गयी। उसने भगत सिंह से कहा “सरदार जी मेरे हाथ ऐसे नहीं हैं कि उनसे बनी रोटी आप खायें।”

भगत सिंह ने प्यार से उसके दोनों कन्धा को थपथपाते हुए कहा “माँ जिन हाथों से बच्चों का मल साफ करती है उन्हीं से तो खाना बनाती है। बेंबे तुम चिन्ता मत करो और रोटी बनाओ।”

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

आचार्य विनोबा भावे | VINOBA BHAVE | विनायक नरहरी भावे | VINAYAK NARAHARI VINOBA BHAVE

आचार्य विनोबा भावे (विनायक नरहरी भावे)

समय-समय पर इस देश में ऐसे व्यक्ति जन्म लेते रहे हैं जिन्होंने अपनी विशिष्ट क्षमताओं से देश तथा समाज को एक नई दिशा दी है। ऐसे ही व्यक्ति थे आचार्य विनोबा भावे। उनके व्यक्तित्व में सन्त, आचार्य (शिक्षक) और साधक तीनों का समन्वय था।

विनोबा जी का जन्म 11 सितम्बर 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गागोदा ग्राम में हुआ था। बचपन में विनोबा जी को घूमने का विशेष शौक था। वे अपने गाँव के आसपास की पहाडियों, खेतों, नदियों एवं अन्य ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण किया करते थे। वे पढ़ाई के दिनों में पाठ्यपुस्तकों के साथ-साथ आध्यात्मिक पुस्तकें भी पढ़ा करते थे। छोटी उम्र में ही उन्होंने तुकाराम गाथा, दासबोध ब्रह्मस्त्र, शंकर भाष्य और गीता का अनेक बार अध्ययन किया।

विनोबा जी को अनेक भाषाओं का ज्ञान था। वे उच्चकोटि के रचनाकार भी थे। उनकी प्रारम्भिक रचनाएं मराठी भाषा में हैं। बाद में उन्होंने हिन्दी, तमिल, संस्कृत और बंगला में अनेक पुस्तकों की रचना की।

कर्त्तव्यनिष्ठ विनोबा -

महात्मा गाँधी के आग्रह पर विनोबा साबरमती आश्रम चले आये। आश्रम में आकर वे खेती का काम करने लगे। वहाँ वे कई महीनों तक मौन रहकर कार्य करते रहे। इनके कार्यों से प्रभावित होकर गाँधीजी ने इन्हें प्रथम सत्याग्रही की संज्ञा दे डाली। लोगों ने सोचा कि वे गँगे हैं, पर थोड़े ही दिनों बाद वे उपनिषदों का नियमित वाचन करने लगे तथा खाली समय में संस्कृत पढ़ाने का काम भी देखने लगे। विनोबा जी के पास कक्षा-5 से लेकर ऊँची कक्षाओं तक के बच्चे पढ़ने आया करते थे। उनकी रोचक और प्रभावशाली शैली से बच्चे और शिक्षक दोनों ही प्रभावित थे। लोगों ने उनके गुणों से प्रभावित होकर उन्हें आचार्य कहना प्रारम्भ कर दिया। विनोबा जी में आलस्य लेशमात्र भी नहीं था। वे दृढ़संकल्पी और सच्चे कर्मयोगी थे।

विनोबा जी किसी पुस्तक का अध्ययन कर रहे थे तभी एक बिच्छु ने उनके पैर में डंक मार दिया। दर्द असह्य था। बिच्छु के जहर से उनका पैर काला पड़ गया। पीड़ा बढ़ने पर उन्होंने चरखा मँगाया और एकाग्र होकर सूत कातने लगे। इस कार्य में वे इतने तन्मय हो गये कि उन्हें न तो बिच्छू के डंक मारने का ध्यान रहा और न ही पीड़ा का।

विनोबा जी के जीवन पर गीता के उपदेशों का गहरा प्रभाव था। सन् 1932 में धलिया जेल में रहकर उन्होंने गीता पर 18 प्रवचन दिये जो आज 'गीता प्रवचन' के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे हर समय चिन्तन-मनन में लीन रहते थे। लोगों की सेवा करना उनका धर्म बन गया था।

गाँधी जी के निधन के बाद विनोवा लगभग चौदह वर्ष तक देश के अनेक हिस्सों में घूमते रहे और भदान आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करते रहे। जगह जगह प्रार्थना सभाएं रहे और भूदान आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करते रहे। जगह-जगह प्रार्थना सभाएं आयोजित कर इस सम्बन्ध में व्यक्तिगत और सामाजिक उत्थान के बारे में अपने विचार व्यक्त करते रहे। उनकी बात बहुत संक्षिप्त, संयत और सटीक होती थी। विनोबा जी कहने की अपेक्षा करने में अधिक विश्वास करते थे। वे पुरानी बातों को नये तालमेल के साथ इस तरह प्रस्तुत करते थे कि लोगों को स्वाभाविक रूप से जीवन की एक नई दिशा मिलती थी। विनोबा जी गाँधी, तिलक, तुकाराम, तुलसीदास, मीरा, रामकृष्ण और बुद्ध के जीवन से बहुत प्रभावित थे।

विनोबा के विचार

**समता का अर्थ है बराबरी, ऐसी बराबरी जिसमें योग्यता के अनुसार सभी का आँकलन हो।

**भक्ति ढोंग नहीं है दिन भर पाप करके झूठ बोलकर प्रार्थना नहीं होती।

** जिस घर में उद्योग की शिक्षा नहीं है उस घर के बच्चे जल्दी घर का नाश कर देंगे।

**स्वावलम्बन का अर्थ है अपने आप पर निर्भर होना। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरे का मुँह न ताकना। अर्थात “जितना कमाओ, उतना खाओ।

भूदान

विनोबा जी देश के कोने-कोने में स्थित सुदूर गाँवों तक जाते थे और वहाँ ज्यादा भूमि वाले किसानों से मिलकर उनकी भूमि का कुछ हिस्सा भूमिहीनों के लिए माँगते थे। इस तरह भूदान यज्ञ के जरिये देश के अनेक भूमिहीन लोगों को विनोबा जी ने जमीन दिलायी।

सर्वोदय सिद्धान्त :-

विनोबा जी के सर्वोदय सिद्धान्त के तीन तत्व हैं - सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह (त्याग) | उनका कहना था कि आध्यात्मिक विकास का आधार सत्य है। सामाजिक विकास का आधार अहिंसा और आर्थिक विकास का आधार अपरिग्रह है। वे सर्वोदय का उद्देश्य स्वशासन और स्वावलम्बन मानते थे।

उन दिनों चम्बल की घाटी में डाकुओं का बहुत आतंक था। विनोबा जी चम्बल घाटी के कनेरा गांव गये। वहाँ उन्होंने लोगों को सम्बोधित किया। उनके विचारों से प्रभावित होकर चम्बल घाटी के उन्नीस डाकुओं ने एक साथ आत्मसमर्पण किया।

आचार्य ने जो कहा

आचार्य विनोबा भावे ने जीवन के कई पहलुओं पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। वे जहाँ तहाँ आयोजित प्रार्थना सभाओं, गोष्ठियों में प्रवचन दिया करते थे। यहाँ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर उनके विचार संक्षेप में दिये जा रहे हैं : -

समता

"समता का मतलब क्या है? बराबरी, कैसी बराबरी? घर में चार रोटियाँ हैं और दो खाने वाले, हर एक को कितनी रोटियाँ दी जाएँ - दो-दो। ऐसी समता अगर माताएँ सीख लें तो अनर्थ हो जायेगा। गणित की समता दैनिक व्यवहार के किसी काम की नहीं। यदि इनमें से एक खाने वाला 2 साल का और दूसरा 25 साल, तो एक अतिसार से मरेगा ओर दूसरा भूख से। समता का अर्थ है योग्यता के अनुसार कीमत आँकना।”

उद्योग

अपने देश में आलस्य का भारी वातावरण है। यह आलस्य बेकारी के कारण आया है। शिक्षितों का तो उद्योग से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता। जो खाता है उसे उद्योग तो करना ही चाहिए चाहे वह जिस तरह का हो। घरों में उद्योग का वातावरण होना चाहिए। आलस्य की वजह से ही हम दरिद्र हो गये हैं, परतंत्र हो गए हैं।

भक्ति

“भक्ति के माने ढोंग नहीं है। हमें उद्योग छोड़कर झूठी भक्ति नहीं करनी है। खाली समय में भगवान का स्मरण कर लो। दिन भर पाप करके, झूठ बोलकर, प्रार्थना नहीं होती।“

सीखना-सिखाना

'जिसे जो आता है वह उसे दूसरे को सिखाये और जो सीख सके, उसे खुद सीखे। केवल पाठशाला की शिक्षा पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।'

तालमेल

“कहा जाता है कि वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में गाय और बाघ एक झरने पर पानी पीते थे। इसका अर्थ क्या हुआ ? बाघ की न केवल कुरूरता नष्ट होती थी बल्कि गाय की भीरुता भी नष्ट हो जाती थी। मतलब गाय-भय शेर क्रूरता" इस तरह मेल बैठता है। नहीं तो शेर को गाय बनाने का सामर्थ्य तो सर्कस वालों में भी है।"

एक आदर्श व्यक्तित्व -

विनोबा जी ने अपना सारा जीवन एक साधक की तरह बिताया। वे ऋषि, गुरु तथा क्रांतिदूत सभी कुछ थे। उनका व्यक्तित्व कुछ ऐसा तेजस्वी एवं प्रभावशाली था कि कोई भी व्यक्ति उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। अदभुत व्यक्तित्व के प्रकाश-पुरुष आचार्य विनोबा का निधन 15 नवम्बर 1982 को हो गया लेकिन अपने विचारों के साथ वे सदैव हमारे बीच हैं, रहेंगे। वर्ष 1983 में इन्हें भारत सरकार के द्वारा मरणोपरान्त 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया।

डॉ० भीमराव अम्बेडकर | B. R. AMBEDKAR | भीमा | जय भीम

डॉ० भीमराव अम्बेडकर

"जब तक हम अपना तीन तरह से शुद्धिकरण नहीं करते, तब तक हमारी स्थायी प्रगति नहीं हो सकती। हमें अपना आचरण सुधारना होगा, अपने बोलचाल का तरीका बदलना होगा और विचारों में दृढ़ता लानी होगी।” ये उद्गार हैं डॉ० भीमराव अम्बेडकर के। डॉ० भीमराव अम्बेडकर को दलितों का मसीहा, समाज सेवी एवं विद्दिवेत्ता के रूप में जाना जाता है इन्होंने देश की स्वतंतरता के पश्चात 4 नवम्बर 1948 को भारतीय संविधान का प्रारूप संविधान सभा में प्रस्तुत किया। डॉ० अम्बेडकर इस प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। इस प्रारूप में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियाँ थीं। संविधान सभा में कई बार पढ़े जाने के बाद अन्तत: 26 नवम्बर 1949 को इस प्रारूप को स्वीकार कर लिया गया।

जन्म: 14 अप्रैल 1891

जन्मस्थान: महू, इन्दौर, मध्य प्रदेश

मृत्यु: माता: भीमा बाई सकपाल

पिता: रामजी

भीमराव अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। बचपन में माँ इन्हें प्यार से “भीमा” कहकर पुकारती थीं। इनके पिता अंग्रेजी सेना में सूबेदार थे। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने 14 साल तक मिलिट्री स्कूल में हेड मास्टर के रूप में कार्य किया। अम्बेडकर के घर में शिक्षा का माहौल था। पिता बच्चों को रामायण तथा महाभारत की कहानियों के साथ संत नामदेव, तुकाराम, मोरोपंत तथा मुक्तेश्वर की कविताएँ सुनाते थे तथा स्वयं उनसे सुनते थे। इन्हीं दिनों ज्योतिबा फुले दलितों में शिक्षा का प्रसार एवं उन्हें सामाजिक स्वीकृति दिलाने की दिशा में कार्य कर रहे थे। भीमराव के पिता रामजी इनके अच्छे मित्र और प्रशंसक थे। ज्योतिबा के व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव बालक भीमराव पर भी पड़ा।

भीमराव पाँच वर्ष की उम्र में स्कूल जाने लगे परन्तु उनका मन पढ़ने से ज्यादा बागवानी में लगता था। पिता उनकी पढ़ाई के बारे में काफी चिन्तित रहते थे। धीरे-धीरे बालक भीम की रुचि पुस्तकों में बढ़ती गयी। अब वे पाठ्यपस्तकों के अलावा अन्य पुस्तकें भी पढ़ने लगे। उन्हें पुस्तकों से गहरा लगाव हो गया। 1907 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने एलफिस्टन कालेज से इण्टर की पढ़ाई पूरी की। 17 वर्ष की उम्र में ही इनका विवाह रमाबाई से कर दिया गया। पिता का स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ने लगा था। अब भीमराव के आगे की पढ़ाई का खर्च भी उठाना मुश्किल हो रहा था।

भीमराव की प्रतिभा को पहचानकर बड़ौदा नरेश सयाजी राव ने उनकी पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की इसके सहारे उन्होंने 1912 में बी0ए0 (स्नातक) की परीक्षा उत्तीर्ण की। सयाजी राव ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भेजा। न्यूयार्क विश्वविद्यालय से उन्होंने 1915 में एम० ए० की डिग्री हासिल की। इसी दौरान भीमराव ने एक शोध प्रबन्ध भी लिखा। इस शोध प्रबन्ध का शीर्षक था - "भारत के लिए राष्ट्रीय लाभांश ऐतिहासिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन”। इस शोध प्रबन्धं पर कोलम्बिया विश्वविद्यालय ने उन्हें "डॉक्टर ऑफ फिलासफी” की उपाधि प्रदान की। अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र के अध्ययन के लिए भीमराव लंदन चले गये। इसी बीच सयाजी राव ने इनकी छात्रवृत्ति समाप्त कर दी। भीमराव को विवश होकर स्वदेश लौटना पड़ा, परन्तु उन्होंने मन ही मन संकल्प कर लिया कि पढ़ाई के लिए एक बार वे पुन: लंदन जायेंगे। पढ़ाई के दौरान उन्होंने अपने दैनिक खर्चों में कटौती करके अब तक लगभग 2000 पुस्तकें खरीद ली थीं।

उल्लेखनीय

** जुलाई 1924 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना। इसका उद्देश्य छुआछूत दूर करना था।

**ब्रिटिश सरकार द्वारा दलितों को सेना में भर्ती पर रोक को लेकर 19-20 मार्च 1927 को महाड़ में दलितों का सम्मेलन बुलाना।

**सरकार ने दलित हितों का प्रतिनिधित्व करने हेतु मुम्बई लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए 1929 में मनोनीत किया। डॉ0 अम्बेडकर ने शिक्षा, मद्य-निषेध, कर व्यवस्था, महिला एवं बाल कल्याण जैसे विषयों पर कड़ा रुख अपनाया।

**प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय गोलमेज सम्मेलन में दलितों के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेना

**महात्मा गांधी के साथ दलितों के उत्थान के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर। यह समझौता ‘पूना समझौता’ कहलाता है।

**प्रमुख रचनाएँ - दी बुद्ध एण्ड हिज गास्पेल, थॉट्स आन पाकिस्तान, रेवोल्यूशंस एण्ड काउन्टर रेवोल्यूशंस इन इण्डिया।

महाराष्ट्र में रहकर उन्होंने शाहूजी महाराज की सहायता से 31 जनवरी 1920 से “मूकनायक” नामक अखबार निकालने की शुरुआत की। इस अखबार का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज में व्याप्त जाति प्रथा को समाप्त करना तथा अस्पृश्यता का निवारण करना था। 21 मार्च 1920 को भीमराव ने कोल्हापुर में दलितों के सम्मेलन की अध्यक्षता की। सम्मेलन में कोल्हापुर नरेश शाहूजी महाराज ने लोगों से कहा –

“तुम्हें अम्बेडकर के रूप में अपना उद्धारक मिल गया है”

भीमराव अम्बेडकर पैसों का प्रबन्ध करके पुनः 1920 में लंदन गये। वहाँ वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत लौट आये। अब वे बैरिस्टर बन चुके थे।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर आजीवन विभिन्न प्रकार के सामाजिक कार्यों से जुड़े रहे। लगातार काम करने से उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। इसी बीच 27 मई 1935 को इनकी पत्नी रमाबाई का निधन हो गया।

1936 में डॉ० अम्बेडकर ने "इंडिपेंडट लेबर पार्टी” नाम से एक राजनैतिक दल का गठन किया। 1937 में हुए प्रांतीय चुनाव में डॉ0 अम्बेडकर और उनके कई साथी भारी बहुमत से विजयी हुए जबकि इस चुनाव में इंडियन नेशनल कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा ‘हिन्दू महासभा जैसे राजनीतिक दल चुनाव में भाग ले रहे थे। डॉ० भीमराव अम्बेडकर को जुलाई 1941 में गणित रक्षा सलाहकार समिति का सदस्य नियुक्त किया गया। 1945 में उन्होंने पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की। इस सोसाइटी ने अपना पहला शिक्षण संस्थान 1946 में सिद्धार्थ कॉलेज के नाम से खोला। 1952 में डॉ. अम्बेडकर लोक सभा के उम्मीदवार थे लेकिन चुनाव हार गये। उनको मार्च 1952 में राज्य सभा के लिए चुन लिया गया और वे भारत सरकार के कानून मन्त्री बने। 14 अक्टूबर 1956 को डॉ० अम्बेडकर ने अपने तीन लाख समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया।

6 दिसम्बर 1956 को भारतीय क्षितिज का यह सितारा सोया तो फिर नहीं उठा। उनके योगदानों के लिए भारत सरकार ने सन् 1990 में उन्हें मरणोपरान्त 'भारत रत्न' से सम्मानित किया। भले ही आज डॉ0 अम्बेडकर हमारे बीच नहीं हैं फिर भी अपने सामाजिक और वैचारिक योगदानों के लिए यह देश उन्हें युगों-युगों तक याद करता रहेगा।

स्मरणीय :-

**डॉ0 अम्बेडकर 1941 में गणित रक्षा सलाहकार समिति के सदस्य बने।

**1945 में पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना।

**1946 में सिद्धार्थ कॉलेज खोलना ।

**1952 में राज्य सभा के लिए निर्वाचित

**14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म ग्रहण करना।

**1990 में मरणोपरान्त 'भारत 'रत्न' से सम्मानित।

सोमवार, 22 नवंबर 2021

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद | ABUL KALAM AZAD

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद 

ABUL KALAM AZAD


आज से लगभग एक शताब्दी पहले की बात है बारह वर्ष की आयु पूरी होने से पहले ही एक बालक ने पुस्तकालय, वाचनालय और वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित करने की संस्था चलायी। जब वह पन्द्रह वर्ष का हुआ तो अपने से दुगुनी आयु के विद्यार्थियों की एक कक्षा को पढ़ाया। तेरह से अठारह साल की आयु के बीच बहुत सी पत्रिकाओं का सम्पादन किया। सोलह वर्ष के इस दुबले-पतले लड़के ने एक बड़े विद्वान के रूप में भाषा विशेष की राष्ट्रीय कान्फ्रेन्स से मुख्य वक्ता के रूप में भाषण दिया। इस बालक का नाम था - अबुल कलाम जो आगे चलकर स्वतन्त्रता प्राप्ति के संघर्ष का एक महान नायक कहलाया।

मौलाना अबुल कलाम का जन्म 11 नवम्बर सन् 1888 ई. को मक्का नगर में हुआ था। इनके पिता मौलाना खैरुद्दीन अरबी भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनकी माँ पवित्र नगर मदीना के मुफ्ती की पुत्री थी। इनका बचपन मक्का मदीना में बीता। इनके मकान पर शिक्षा प्रेमियों की हर समय अपार भीड़ लगी रहती थी। परिवार 1907 में भारत लौट आया और कोलकाता में बस गया।

मौलाना आजाद का प्रारम्भिक जीवन सामान्य बालकों से कुछ भिन्न था। खेलना तो उन्हें भी पसन्द था, पर उनके खेल दूसरे बच्चों के खेलों से कुछ अलग होते थे। उदाहरणार्थ- कभी वे घर के सभी बक्सों को एक लाइन में रखकर अपनी बहनों से कहते “देखो! यह रेलगाड़ी है, मैं इस रेलगाड़ी में से उतर रहा हूँ। तुम लोग चिल्ला-चिल्लाकर कहो हटो-हटो रास्ता दो, दिल्ली के मौलाना आ रहे हैं।” फिर वे अपने पिता की पगड़ी सिर पर बाँधकर बड़ी गम्भीर मुद्रा में धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए बक्सों की रेलगाड़ी से इस प्रकार नीचे उतरते जैसे कि बड़ी उम्र का कोई सम्मानित व्यक्ति उतर रहा हो।

मौलाना आजाद को बचपन से ही पुस्तकें पढ़ने का बड़ा चाव था। वे जब किसी विषय के अध्ययन में लगते तो उसमें ऐसा डूबते कि उन्हें अपने आस-पास का भी होश न रहता। अबुल कलाम बड़ी कुशाग्र बुद्धि के थे। एक बार जो कुछ पढ़ लेते, वह हमेशा के लिए उन्हें याद हो जाता। उन्होंने साहित्य दर्शन और गणित आदि विषयों का गहन अध्ययन किया था। शायरी और गद्य लेखन का शौक बचपन से ही था। अपनी इसी रुचि के कारण उन्होंने समय-समय पर कई पत्र-पत्रिकाएं निकाली और स्वयं उनका सम्पादन किया। उनकी पहली पत्रिका 'नैरंगे आलम' है। जिस समय यह पत्रिका निकली, मौलाना आजाद की आयु मात्र 12 वर्ष थी।

अबुल कलाम आजाद की योग्यता और विद्वता से लोगों का परिचय तब हुआ जब उन्होंने 'लिसानुल सिदक' नाम का एक दूसरा पत्र प्रकाशित किया। इसके माध्यम से उनका उद्देश्य तत्कालीन मुस्लिम समाज में फैले अन्ध-विश्वासों को समाप्त कर उनमें सुधार लाना था। अंजुमन हिदायतुल इस्लाम के लाहौर अधिवेशन में तत्कालीन जाने-माने लेखका एवं कवियों के सामने 15-16 वर्ष का एक दुबला-पतला, बिना दादा मुछ का नवयुवक बोलने के लिये आगे बढ़ा तो लोगों की आँख आश्चर्य से खुली की खुली रह गयीं। इस युवक ने अपनी सधी और संयत भाषा में विचार व्यक्त करने शुरू किये तो सभा में सन्नाटा छा गया। उस लड़के ने करीब ढाई घंटे तक बिना लिखित रूप के सीधे अपना भाषण दिया। इस घटना के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में अबुल कलाम आजाद की बाऊ जम गयी। उन्होंने आगे चलकर 'अलनदवा' और 'वकील' सहित कई पत्र-पत्रिकाओ का सम्पादन किया।

सन् 1912 ई. में उन्होंने अपना प्रसिद्ध साप्ताहिक अखवार 'अलहिलाल’ आरम्भ किया। यह अखबार भारत में और विदेशों में जल्दी प्रसिद्ध हो गया। लोग इकट्ठे होकर उस अखवार के हर शब्द ऐसे पढ़ते या सुनते जैसे वह स्कूल में पढ़ाया जाने वाला कोई पाठ हो। उस अखबार ने लोगों में जागृति की एक लहर उत्पन्न कर दी। आखिर सरकार ने ‘अल-हिलाल’ की 2000 रुपये और 10000 रुपये की जमानतें जब्त कर लीं। मौलाना आजाद को सरकार के खिलाफ़ लिखने के जुर्म में बंगाल से बाहर भेज दिया गया। वे चार वर्ष से भी अधिक समय तक राँची (झारखंड) में कैद रहे।

इसी सम्बन्ध में गांधीजी ने कहा “मुझे खुशी है कि सन् 1920 से मुझे मौलाना के साथ काम करने का मौका मिला है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे महान नेताओं में से वे एक हैं।

राष्ट्रीय गतिविधियों में सक्रिय रहने के कारण मौलाना आजाद को कई बार जेल जाना पड़ा। महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन को उन्होंने अपना पूरा समर्थन दिया। राष्ट्रीयता की भावना का विस्तार तथा 'हिन्दू-मुस्लिम एकता’ उनके मिशन के अंग थे। इससे उन्हें राष्ट्रीय नेताओं का भरपूर विश्वास और असीमित प्यार मिला। एक बार अपनी गिरफ्तारी के समय उन्होंने कहा था - 'हमारी सफलताएं चार सच्चाइयों पर निर्भर करती हैं और मैं इस समय भी सारे देशवासियों को इन्हीं के लिए आमन्त्रित करता है।

हिन्दू मुस्लिम एकता, शान्ति, अनुशासन और बलिदान -

1923 ई. में इन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विशेष अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया। उस समय उनकी आयु केवल 35 वर्ष थी। मौलना आजाद सच्चे राष्ट्रवादी और हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे।

मौलाना आजाद हिन्दू-मुस्लिम एकता के अनन्य दूत थे। उन्होंने एकता के सिद्धान्त से एक इंच भी हटना सहन नहीं किया। आलोचनाओं के बीच वे चट्टान की भाँति दृढ़ रहे। वे 1940 में कांग्रेस अध्यक्ष बने और स्वतन्तरता प्राप्ति के आन्दोलन के समय (1940 1947) अंग्रेजों से हुई विभिन्न वार्ताओं में शामिल रहे।

अगस्त 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ और जवाहर लाल नेहरू ने प्रधान मन्त्री का पद सँभाला। मन्त्रिमण्डल में मौलाना आजाद को शिक्षामंत्री का पद दिया गया। मौलाना ने शिक्षा, कला, संगीत और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये। शिक्षामन्त्री के रूप में मौलाना आजाद के सम्मुख दो लक्ष्य थे राष्ट्रीय एकता की स्थापना और भारत के कल्याण के लिए शिक्षा की नवीन व्यवस्था।

मौलाना आजाद लंगभग दस वर्ष तक भारत के शिक्षामंत्री रहे। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में देश का नेतृत्व किया। यह उनकी सूझबूझ और दूर दृष्टि का ही परिणाम था कि देश में शिक्षा के समुचित विकास का कार्यक्रम दूरत गति और व्यवस्थित ढंग से चलाया जा सका। उन्होंने प्रौढ़ तथा महिला शिक्षा पर भी अत्यधिक बल दिया।

राष्ट्रीय एकता, धार्मिक सहिष्णुता तथा देश-प्रेम का अनूठा आदर्श प्रस्तुत करने वाला एक यशस्वी एवं साहसी साहित्यकार, पत्रकार तथा उच्चकोटि का राजनेता 22 फरवरी सन् 1958 ई. को हमारे बीच से सदा-सदा के लिये विदा हो गया।