शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-23 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 23

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-23

योग और प्याज, 
शामा का सर्पविष उतारना, 
विषूचिका (हैजी) निवारणार्थ नियमों का उल्लंघन, 
गुरु भक्ति की कठिन परीक्षा।



प्रस्तावना

वस्तुतः मनुष्य त्रिगुणातीत (तीन गुण अर्थात् सत्व-रज-तम) है तथा माया के प्रभाव से ही उसे अपने सत्-चित-आनंद स्वरुप की विस्मृति हो, ऐसा भासित होने लगता है कि मैं शरीर हूँ। दैहिक बुद्धि के आवरण के कारण ही वह ऐसी धारणा बना लेता है कि मैं ही कर्ता और उपभोग करने वाला हूँ और इस प्रकार वह अपने को अनेक कष्टों में स्वयं फँसा लेता है। फिर उसे उससे छुटकारे का कोई मार्ग नहीं सूझता। मुक्ति का एकमात्र उपाय है – गुरु के श्री चरणों में अचल प्रेम और भक्ति। सबसे महान् अभिनयकर्ता भगवान् साई ने भक्तों को पूर्ण आनन्द पहुँचाकर उन्हें निज-स्वरुप में परिवर्तित कर लिया है। उपयुक्त कारणों से हम साईबाबा को ईश्वर का ही अवतार मानते है। परन्तु वे सदा यही कहा करते थे कि मैं तो ईश्वर का दास हूँ। अवतार होते हुए भी मनुष्य को किस प्रकारा आचरण करना चाहिये तथा अपने वर्ण के कर्तव्यों को किस प्रकार निभाना चाहिए, इसका उदाहरण उन्होंने लोगो के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने किसी प्रकार भी दूसरे से स्पार्द्ध नहीं की और न ही किसी को कोई हानि ही पहुँचाई। जो सब जड़ और चेतन पदार्थों में ईश्वर के दर्शन करता हो, उसको विनयशीलता ही उपयुक्त थी। उन्होंने किसी की उपेक्षा या अनादर नहीं किया। वे सब प्राणियों में भगवद्दर्शन करते थे। उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि मैं अनल हक्क (सोडह्मम) हूँ। वे सदा यही कहते थे कि मैं तो यादे हक्क (दासोडहम्) हूँ। अल्ला मालिक सदा उनके होठों पर था। हम अन्य संतों से परिचित नहीं है और न हमें यही ज्ञात है कि वे किस प्रकार आचरण किया करते है अथवा उनकी दिनचर्या इत्यादि क्या है। ईश-कृपा से केवल हमें इतना ही ज्ञात है कि वे अज्ञान और बदृ जीवों के निमित्त स्वयं अवतीर्ण होते है। शुभ कर्मों के परिणामस्वरुप ही हममें सन्तों की कथायें और लीलाये श्रवण करने की इच्छा उत्पन्न होती है, अन्यथा नहीं। अब हम मुख्य कथा पर आते है।

योग और प्याज


एक समय कोई एक योगाभ्यासी नानासाहेब चाँदोरकर के साथ शिरडी आया। उसने पातंजलि योगसूत्र तथा योगशास्त्र के अन्य ग्रन्थों का विशेष अध्ययन किया था, परन्तु वह व्यावहारिक अनुभव से वंचित था। मन एकाग्र न हो सकने के कारण वह थोड़े समय के लिये भी समाधि न लगा सकता था। यदि साईबाबा की कृपा प्राप्त हो जाय तो उनसे अधिक समय तक समाधि अवस्था प्राप्त करने की विधि ज्ञात हो जायेगी, इस विचार से वह शिरडी आया और जब मसजिद में पहुँचा तो साईबाबा को प्याजसहित रोटी खाते देख उसे ऐसा विचार आया कि यह कच्च प्याजसहित सूखी रोटी खाने वाला व्यक्ति मेरी कठिनाइयों को किस प्रकार हल कर सकेगा। साईबाबा अन्तर्ज्ञान से उसका विचार जानकर तुरन्त नानासाहेब से बोले कि ओ नाना। जिसमें प्याज हजम करने की शक्ति है, उसको ही उसे खाना चाहिए, अन्य को नहीं। इन शब्दों से अत्यन्त विस्मित होकर योगी ने साईचरणों में पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया। शुदृ और निष्कपट भाव से अपनी कठिनाइयाँ बाबा के समक्ष प्रस्तुत करके उनसे उनका हल प्राप्त किया और इस प्रकार संतुष्ट और सुखी होकर बाबा के दर्शन और उदी लेकर वह शिरडी से चला गया।

शामा की सर्पदंश से मुक्ति

कथा प्रारंभ करने से पूर्व हेमाडपंत लिखते है कि जीव की तुलना पालतू तोते से की जा सकती है, क्योंकि दोनों ही बदृ है। एक शरीर में तो दूसरा पिंजड़े में। दोनों ही अपनी बद्धावस्था को श्रेयस्कर समझते है। परन्तु यदि हरिकृपा से उन्हें कोई उत्तम गुरु मिल जाय और वह उनके ज्ञानचक्षु खोलकर उन्हें बंधन मुक्त कर दे तो उनके जीवन का स्तर उच्च हो जाता है, जिसकी तुलना में पूर्व संकीर्ण स्थिति सर्वथा तुच्छ ही थी।


गत अध्यया में किस प्रकार श्री. मिरीकर पर आने वाले संकट की पूर्वसूचना देकर उन्हें उससे बचाया गया, इसका वर्णन किया जा चुका है। पाठकबृन्द अब उसी प्रकार की और एक कथा श्रवण करें। एक बार शामा को विषधर सर्प ने उसके हाथ की उँगली में डस लिया। समस्त शरीर में विष का प्रसार हो जाने के कारण वे अत्यन्त कष्ट का अनुभव करके क्रंदन करने लगे कि अब मेरा अन्तकाल समीप आ गया है। उनके इष्ट मित्र उन्हें भगवान विठोबा के पास ले जाना चाहते थे, जहाँ इस प्रकार की समस्त पीड़ाओं की योग्य चिकित्सा होती है, परन्तु शामा मसजिद की ओर अपने विठोबा श्री साईबाबा के पास ही दौड़ी। जब बाबा ने उन्हें दूर से आते देखा तो वे झिड़कने और गाली देने लगे। वे क्रोधित होकर बोले – अरे ओ नादान कृतघ्न बम्मन। ऊपर मत चढ़। सावधान, यदि ऐसा किया तो और फिर गर्जना करते हुए बोले, हटो, दूर हट, नीचे उतर। श्री साईबाबा को इस प्रकार अत्यंत क्रोधित देख शामा उलझन में पड़ गया और निराश होकर सोचने लगा कि केवल मसजिद ही तो मेरा घर है और साईबाबा मात्र किसकी शरण में जाऊँ। उसने अपने जीवन की आशा ही छोड़ दी और वहीं शान्तीपूर्वक बैठ गया। थोड़े समय के पश्चात जब बाबा पूर्ववत शांत हुए तो शामा ऊपर आकर उनके समीप बैठ गया। तब बाबा बोले, डरो नहीं। तिल मात्र भी चिन्ता मत करो। दयालु फकीर तुम्हारी अवश्य रक्षा करेगा। घर जाकर शान्ति से बैठो और बाहर न निकलो। मुझपर विश्वास कर निर्भय होकर चिन्ता त्याग दो। उन्हें घर भिजवाने के पश्चात ही पिछे से बाबा ने तात्या पाटील और काकासाहेब दीक्षित के द्धारा यह कहला भेजा कि वह इच्छानुसार भोजन करे, घर में टहलते रहे, लेटें नही और न शयन करें। कहने की आवश्यकता नहीं कि आदेशों का अक्षरशः पालन किया गया और थोड़े समय में ही वे पूर्ण स्वस्थ हो गये। इस विषय में केवल यही बात स्मरण योग्य है कि बाबा के शब्द (पंच अक्षरीय मंत्र-हटो, दूर हट, नीचे उतर) शामा को लक्ष्य करके नहीं कहे गये थे, जैसा कि ऊपर से स्पष्ट प्रतीत होता है, वरन् उस साँप और उसके विष के लिये ही यह आज्ञा थी (अर्थात् शामा के शरीर में विष न फैलाने की आज्ञा थी) अन्य मंत्र शास्त्रों के विशेषज्ञों की तरह बाबा ने किसी मंत्र या मंत्रोक्त चावल या जल आदि का प्रयोग नहीं किया।

इस कथा और इसी प्रकार की अन्य कथाओं को सुनकर साईबाबा के चरणों में यह दृढ़ विश्वास हो जायेगा कि यदि मायायुक्त संसार को पार करना हो तो केवल श्री साईचरणों का हृदय में ध्यान करो।

हैजा महामारी


एक बार शिरडी विषूचिका के प्रकोप से दहल उठी और ग्रामवासी भयभीत हो गये । उनका पारस्परिक सम्पर्क अन्य गाँव के लोगों से प्रायः समाप्त सा हो गया । तब गाँव के पंचों ने एकत्रित होकर दो आदेश प्रसारित किये । प्रथम-लकड़ी की एक भी गाड़ी गाँव में न आने दी जाय । द्घितीय – कोई बकरे की बलि न दे । इन आदेशों का उल्लंघन करने वाले को मुखिया और पंचों द्घारा दंड दिया जायगा । बाबा तो जानते ही थे कि यह सब केवल अंधविश्वास ही है और इसी कारण उन्होंने इन हैजी के आदेशों की कोई चिंता न की । जब ये आदेशलागू थे, तभी एक लकड़ी की गाड़ी गाँव में आयी । सबको ज्ञात था कि गाँव में लगड़ी का अधिक अभाव है, फिर भीलोग उस गाड़वाले को भगाने लगे । यह समाचार कहीं बाबा के पास तक पहुँच गया । तब वे स्वयं वहाँ आये और गाड़ी वाले से गाड़ी मसजिद में ले चलने को कहा । बाबा के विरुदृ कोई चूँ—चपाट तक भीन कर सका । यथार्थ में उन्हें धूनी के लिए लकड़ियों की अत्यन्त आवश्यकता थी और इसीलिए उन्होंने वह गाड़ी मोल ले ली । एक महान अग्निहोत्री की तरह उन्होंने जीवन भर धूनी को चैतन्य रखा । बाबा की धूनी दिनरात प्रज्वलित रहती थी और इसलिए वे लकड़ियाँ एकत्रित कर रखते थे ।

बाबा का घर अर्थात् मसजिद सबके लिए सदैव खुली थी । उसमें किसी ताले चाभी की आवश्यकता न थी । गाँव के गरीब आदमी अपने उपयोग के लिए उसमें से लकडियाँ निकाल भी ले जाया करते थे, परन्तु बाबा ने इस पर कभी कोई आपत्ति न की । बाबा तो सम्पूर्ण विश्व को ईश्वर से ओतप्रोत देखते थे, इसलिये उनमें किसी के प्रति घृणा या शत्रुता की भावना न थी । पूर्ण विरक्त होते हुए भी उन्होंने एक साधारण गृहस्थ का-सा उदाहरण लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया ।

गुरुभक्ति की कठिन परीक्षा


अब देखिये, दूसरे आदेश की भी बाबा ने क्या दुर्दशा की । वह आदेश लागू रहते समय कोई मसजिद में एक बकरा बलि देने को लाया । वह अत्यन्त दुर्बल, बूढ़ा और मरने ही वाला था । उस समय मालेगाँव के फकीर पीरमोहम्मद उर्फ बड़े बाबा भी उनके समीप ही खड़े थे । बाबा ने उन्हें बकरा काटकर बलि चढ़ाने को कहा । श्री साईतबाबा बड़े बाबा का अधिक आदर किया करते थे । इस कारण वे सदैव उनके दाहिनीओर ही बैठा करते थे । सबसे पहले वे ही चिलम पीते और फिर बाबा को देते, बाद में अन्य भक्तों को। जब दोपहर को भोजन परोस दिया जाता, तब बाबा बड़े बाबा को आदरपूर्वक बुलाकर अपने दाहिनी ओर बिठाते और तब सब भोजन करते । बाबा के पास जो दक्षिणा एकत्रित होती, उसमेंसे वे 50 रु. प्रतिदिन बड़े बाबा को दे दिया करते थे । जब वे लौटते तो बाबा भी उनके साथ सौ कदम जाया करते थे । उनका इतना आदर होते हुए भी जब बाबा ने उनसे बकरा काटने को कहा तो उन्होंने अस्वीकार कर स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि बलि चढ़ाना व्यर्थ ही है । तब बाबा ने शामा से बकरे की बलि के लिये कहा । वे राधाकृष्ण माई के घर जाकर एक चाकू ले आये और उसे बाबा के सामने रख दिया । राधाकृष्माई को जब कारण का पता चला तो उन्होंने चाकू वापस मँगवालिया । अब शामा दूसरा चाकू लाने के लिये गये, किन्तु बड़ी देर तक मसजिद में न लौटे । तब काकासाहेब दीक्षित की बारी आई । वह सोना सच्चा तो था, परन्तु उसको कसौटी पर कसना भी अत्यन्त आवश्यक था । बाबा ने उनसे चाकू लाकर बकरा काटने को कहा । वे साठेवाड़े से एक चाकू ले आये और बाबा की आज्ञा मिलते ही काटने को तैयार हो गये । उन्होंने पवित्र ब्राहमण-वंश में जन्म लिया था और अपने जीवन में वे बलिकृत्य जानते ही न थे । यघपि हिंसा करना निंदनीय है, फिर भी वे बकरा काटने के लिये उघत हो गये । सब लोगों को आश्चर्य था कि बड़े बाबा एक यवन होते हुए भी बकरा काटने को सहमत नहीं हैं और यह एक सनातन ब्राहमण बकरे की बलि देने की तैयारी कर रहा है । उन्होंने अपनी धोती ऊपर चढ़ा फेंटा कस लिया और चाकू लेकर हाथ ऊपर उठाकर बाबा की अन्तिम आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगे । बाबा बोले, अब विचार क्या कर रहे हो । ठीक है, मारो । जब उनका हाथ नीचे आने ही वाला था, तब बाबा बोले ठहरो, तुम कितने दुष्ट हो । ब्राहमण होकर तुम बकरे की बलि दे रहे हो । काकासाहेब चाकू नीचे रख कर बाबा से बोले आपकी आज्ञा ही हमारे लिये सब कुछ है, हमें अन्य आदेशों से क्या । हम तो केवल आपका ही सदैव स्मरण तथा ध्यान करते है और दिन रात आपकी आज्ञा का ही पालन किया करते है । हमें यह विचार करने की आवश्यकता नहीं कि बकरे को मारना उचित है या अनुचित । और न हम इसका कारण ही जानना चाहते है । हमारा कर्तव्य और धर्म तो निःसंकोच होकर गुरु की आज्ञा का पूर्णतः पालन करने में है । तब बाबा ने काकासाहेब से कहा कि मैं स्वयं ही बलि चढ़ाने का कार्य करुँगा । तब ऐसा निश्चित हुआ कि तकिये के पास जहाँ बहुत से फकीर बैठते है, वहाँ चलकर इसकी बलि देनी चाहिए । जब बकरा वहाँ ले जाया जा रहा था, तभी रास्ते में गिर कर वह मर गया ।

भक्तों के प्रकार का वर्णन कर श्री. हेमाडपंत यह अध्याय समाप्त करते है । भक्त तीन प्रकार के है

उत्तम, मध्यम और साधारण


प्रथम श्रेणी के भक्त वे है, जो अपने गुरु की इच्छा पहले से ही जानकर अपना कर्तव्य मान कर सेवा करते है । द्घितीय श्रेणी के भक्त वे है, जो गुरु की आज्ञा मिलते ही उसका तुरन्त पालन करते है । तृतीय श्रेणी के भक्त वे है, जो गुरु की आज्ञा सदैव टालते हुए पग-पग पर त्रुटि किया करते है । भक्तगण यदि अपनी जागृत बुद्घि और धैर्य धारण कर दृढ़ विश्वास स्थिर करें तो निःसन्देह उनका आध्यात्मिक ध्येय उनसे अधिक दूर नहीं है । श्वासोच्ध्वास का नियंत्रण, हठ योग या अन्य कठिन साधनाओं की कोई आवश्यकता नहीं है । जब शिष्य में उपयुक्त गुणों का विकास हो जाता है और जब अग्रिम उपदेशों के लिये भूमिका तैयार हो जाती है, तभी गुरु स्वयं प्रगट होकर उसे पूर्णता की ओर ले जाते है । अगले अध्याय में बाबा के मनोरंजक हास्य-विनोद के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

घनानन्द की काव्य-कला की समीक्षा कीजिए। | GANNANAD

घनानन्द की काव्य-कला की समीक्षा कीजिए।
(अथवा)
घनानन्द की प्रेमाभिव्यंजना
(अथवा)
घनानन्द की काव्य - साधना पर प्रकाश डालिए।

१ रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. कृतियाँ

3. रीति मुक्त धारा (या) कवि

4. घनानन्द की विशेषताएँ

5. एकनिष्ठता

6. विरह - मिलन का आदर्श

7. प्रकृति से सम्बन्ध

8. अनुभूति तथा अभिव्यक्ति का सामंजस्य

9. भाषा - शैली

10. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

रीतिमुक्त कवि, ब्रजभाषा प्रवीण, विरह विदग्ध वियोगी कवि घनानन्द का नाम रीति काल में ही नहीं, बल्कि समूचे हिन्दी साहित्य में अप्रमेय है।

घनानन्द दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के मीर मुंशी थे और दरबार की एक वेश्या सुजान पर अनुरकत थे । बादशाह के कहने पर एक बार इन्होंने गाने से मना कर दिया पर सुजान के कहने पर ये बादशाह की ओर पीठ करके अपनी प्रिया के सम्मुख हो गाने लगे। घनानन्द ने ऐसा गाना गाया कि सब लोग तन्मय हो गए। बादशाह इन के गाने पर जितना ही खुश हुआ उतना ही बे अदबी पर नाराज हो इन्हें शहर से निकाल दिया। जब वे चलने लगे तब सुजान को भी साथ चलने के लिए कहा। पर वह न गयी। इस पर घनानन्द हृदयव्यथित हो गये और बे वृंदावन जा कर विरक्त भाव से रहने लगे। इन्होंने अपने काव्य में परमात्मा के स्थान पर स्वत्र सुजान शब्द का प्रयोग किया है।

2. कृतियाँ : -

घनानन्द की कृतियाँ इक्तालीस बताई जाती हैं। लेकिन उन में आज सत्रह (17) कृतियाँ मात्र प्राप्त हैं। उन में घनानन्द - कवित्त, आनन्दघन के कवित्त, कवित्त सुजान हित, वियोग बेलि जमुना जस, सुजान विनोद आदि प्रधान काव्य हैं।

3. रीतिमुक्त धारा कवि :

रीतिकाल श्रृंगार काल भी कहलाता है। इस में प्रधानतः दो धाराएँ प्राप्त होती हैं -

1. रीतिबद्ध काव्य धारा और

2. रीतिमुक्त काव्य धारा

रीतिमुक्त काव्य धारा में शुद्ध प्रेम काव्य होते हैं। घनानन्द, बोधा, आलम और ठाकुर इस धारा के अन्तर्गत आते हैं। रीतिबद्ध कवि नाइका भेद, नख - शिख वर्णन, ऋतु वर्णन आदि विषयों को लक्ष्य बनाकर काव्य का सृजन करते हैं। जूठी उक्तियाँ, कल्पनायें, भ्रष्टप्रेम आदि रीतिबद्ध कवियों में होते हैं।

अन्तर्मथन, आत्मपीडा, स्वानुभूति, आत्म निवेदन, उन्मुक्त प्रेम, वेदना की कसक आदि रीतिमुक्त कवियों की रसधारा है । वे भावविभोर होकर स्वच्छन्द रूप में कविता की लहरों में पल्लवित होते रहते हैं। उन कवियों का हर एक शब्द उनके हृदय की निचोड है। घनानन्द का नाम स्वच्छन्द धारा के कवियों में सर्वोत्तम (सब से ऊँचा) है। वे वियोग रीति के कोविद तथा व्रज भाषा प्रवीण माने जाते है।

"नेही महा ब्रज भाषा प्रवीण और सुन्दरतानि के भेद को जानै।

जोग-वियोग की रीति में कोविद भावना भेद- स्वरूप को ठानै॥"

4. घनानन्द की विशेषताएँ :

घानान्द का प्रेम हृदयगत है। अतः उनकी कविता का सार 'प्रेम की पीर है"। यहाँ पीर का अर्थ पीडा और भगवान दोनों हैं। प्रेम की यह पीडा स्वानुभूति है और उसका उद्गाम हृदय से है। वें हृदय रूपी आँखों से देखते हैं हिय - आँखिन । घनानन्द संयोग तथा वियोग का विधान समझनेवाले सुकवि हैं। उनका प्रेम भावपक्ष अधिक होने के कारण उनका काव्य जग की कविताई बन गया है। कोई भी कवि विद्वात्ता के साथ - साथ विविध भाषाओं का ज्ञान तथा विलक्षण काव्य पा का ज्ञान रखता है। घनानन्द को अनेक भाषाओं का ज्ञान था।

5. एकनिष्ठता :

घनानन्द ने संयोग वर्णन और वियोग वर्णन दोनों पर लिखा है। लेकिन प्रधानतः वे वियोग के कवि हैं। चातक के प्रेम की एकनिष्ठता घनानन्द में भी व्यक्त होती है।

"चितव कि चातक मेघ तजि कबहु दूसरी ओर।”

चातक के मेघ के प्रति प्रेम की भाँति ही घनानन्द का प्रेम सुजान के प्रति सच्चा है। अनुभूतियाँ, आकांक्षाएँ, मनोवृत्तियाँ और करुणा धनीभूत होकर उनकी कविता में संगीत के रूप में स्वाभावकिता के साथ बरसती हैं। व्यथा की नीली लहरें उनके रस हृदय को कल्लोलित करती हैं।

6. विरह मिलन का आदर्श :

वियोग वर्णन तो हर कवि करता ही रहता है। लेकिन वियोग पीडा में जीव का मरना ही अधिक कवियों ने बताया है। घनानंद सुजान की बिरह के कारण मरते नहीं बल्कि वे सुजान की बिरह वेदना में क्षण क्षण जीते हैं। मछली के बिछुडन और पतंग के मिलने की दशा से घनानन्द के बिरह की दशा में बहुत अन्तर है। वे स्वयम कहते हैं

"बिछुरै मिलै मीन पतंग दसा कहा मो जियकी गति को परसे"

वे अपने प्रिया क्रूर, अत्याचारी, निठुर, निर्मम, निर्दयी आदि उपाधियों से कोसते हैं, अपने भाग्य पर क्षण -प्रति क्षण व्यथित होते रहते हैं। वियोगी के मन की दशाओं का मार्मिक तथा व्यापक उद्घाटन जैसा विरह व्यथित भावनाप्रद कविवर घनानन्द ने किया है वैसा कम ही कवि कर सक्ते।

7. प्रकृति से सम्बन्ध :

मनुष्य का प्रकृति से परंपरागत सम्बन्ध है। प्रकृति मानव के सुख-दुख में सहचरी है। मानव जीवन में प्रकृति आदयन्त माँ अथवा सहचरी के रूप में रहती है। हर कवि अपने काव्य में हर दशा में प्रकृति का वर्णन करता जाता है। अतः संयोग और बियोग में कवि प्रकृति के उद्दीपन रूप को ले लेते हैं। घनानन्द ने रसपुष्ट (रसनिष्ठ) कवि होने के कारण बाह्य प्रकृति के साथ अन्तः प्रकृति का वर्णन किया है। कभी रात्री उनको भयंकर तथा विषपूर्ण नागिन सी लगती है। चान्दिनी अग्नि के समान उनको दहती है और वर्षा की बून्हें उनको जलाती है।

"सुधा ते स्रवत विष, फूल में जमत-सूल।

तम उगलित चन्द भई नई रीति॥”

कोयल की कूक, चातक की पुकार और मयूर का नृत्य घनानन्द के विरह व्यथितय को और भी आघात पहुँचाते हैं।

"कारी कूर कोकिला कहाँ को बैर काढ़ति री,

कूकि कूकि अब ही करे जो किन कोरि लै।

पैडे परे पापी ये कलापी निस घास ज्यौं ही

चातक! धातक त्यौं ही तू हू कान फोरि लै ॥”

आखिर घनानन्द मेघों से बरसने वाली वर्षा को अपने विरह हृदय के आँसू बताते हैं।

"बूँदै न परति मेरे जान जान प्यारी तेरे।

बिरही कौं हरि मेघ आँसुनि झरयो करै॥”

दामिनी भी उनके लिए उद्दीपन का काम करती है।

"दामिन हूँ लहकि बहकि यौं जरयो करै।"

8. अनुभूति तथा अभिव्यक्ति का सामंजस्य :

घनानन्द प्रधानतया अनुभूति परक कवि हैं। उनकी हृदयानुभूति ललित अभिव्यक्ति में प्रकट हुई है। हृदय की सूक्ष्म भावनाऐं, रमणीय अभिव्यक्ति हृदय की अंन्तर्दशाओं का चित्रण आदि घनानन्द में मूर्तिमत्ता के साथ प्रकट होते हैं। घनानन्द का अभिव्यंजना कौशल निरुपम है।

9. भाषा - शैली :

घनानन्द की भाषा साहित्यिक, व्याकरण सम्मत, मुहावरेदार, लाक्षणिक युक्त और व्यंजना (हृदय ग्राह्य) प्रधान है। रीतिबद्ध कवियों में बहुत कम कवि घनानन्द्र के समकक्ष ठहर सकते हैं। घनानन्द की भाषा पद- ध्वनि तथा वाक्य- ध्वनि के साथ हृदय नाद करती है और पाठकों (या) (पाठक गणों) से हृदय नाद कराती है। भावना के वेग में उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, व्यतिरेक, रूपक, उपमा, विरोध आदि अलंकारों का समावेश हुआ है।

10. उपसंहार : 

घनानन्द व्रज भाषा प्रवीण हैं । वे रीतिमुक्त स्वच्छन्द मनोवृत्ति बाले कवि हैं। विरह की अन्तर्दशाओं और अन्तर्वृत्तियों के वर्णन में वे अप्रमेय हैं । उनके एक - एक शब्द में विरह - विह्वल हृदय बोलता है। अनुभूति की तीव्रता तथा वेदना की गहराई और व्यथा की कसक उनके काव्य के 'काव्य की आत्मा' है। साहित्यिक प्रांजल व्रज भाषा में लाक्षणिकता तथा पूर्ण व्यंजकता के वैभव में घनानन्द की कविता मनोहरता के साथ ढ़लती है। उनकी भाषा व्याकरण संपन्न तथा अर्थ समन्वित है। भाव, भाषा और काव्य की रसपुष्टि में घनानन्द का रस हृदय छलकता रहता है।

बिहारी की श्रृंगारी भावना (या) कला पर लेख लिखिए। | BIHARI

बिहारी की श्रृंगारी भावना (या) कला पर लेख लिखिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. रीति काव्य के लक्षण

3. श्रृंगार का शास्त्रीय स्वरूप

4. श्रृंगार की व्यापकता

5. संयोग पक्ष

6. नख शिख वर्णन

7. सौन्दर्य

8. उद्दीपन

9. वियोग पक्ष

10. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

श्रृंगारी काव्य रचना परम्परा में बिन्दु में सिन्धु और गागर में सागर भरनेवाले रीतिकालीन मूर्धन्य कवि बिहारीलाल का महत्वपूर्ण स्थान है। बिहारी सतसई भावपक्ष तथा कलापक्ष दोनों में अत्यधिक लोक रंजक बन गई है। कहा जाता है कि - वे आचार्य केशवदास के पुत्र हैं। उनकी पत्नी भी एक कुशल कवयत्री थी। वे राजाओं के और सामन्तों के दरबारों में कुछ श्रृंगार परक तथा अन्य दोहे सुनकर पुरस्कार तथा दक्षिणा प्राप्त करते थे। एक बार जयपूर के राजा जयसिंह नई चौहान रानी से विवाह करके उसी के साथ भोग - विलास में डूबै हुए थे। बिहारी ने -

“नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।

अली कली ही सो बाँध्यों, आगे कौन हवाल॥”

राजा जयसिंह इस दोहे का प्रतीका समझ गये। उन्होंने बिहारी का अपने दरबार में कवि के रूप में सम्मान किया। जीवन पर्यान्त बिहारी वहीं रहें और अपने रसिकतापूर्ण वैविध्य दोहों से दरबार को रंजित करते रहे।

2. रीतिकाव्य के लक्ष्ण :

रीति शब्द संस्कृत, साहत्यि शास्त्र में एक विशिष्ट स्थान रखता है। रीति संप्रदाय के नाम पर यह सिद्धान्त आचार्य वामन के द्वारा प्रयुक्त हुआ। संस्कृत के काव्यों का मार्ग ही रीति शब्द का अर्थ बताया गया - तत्र तस्मिन् काव्ये मार्गा। मतिराम, देव, सुरति मिश्र, सोमनाथ आदि ने रीति शब्द का प्रयोग किया है। डॉ. भगीरथमिश्र के अनुसार रीति शास्त्र का तात्पर्य अलंकार, रस, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि के स्वरूप भेद आदि से समन्वित ग्रन्थ है। रीतिकाल का नामकरण कुछ विद्वानों के अनुसार श्रृंगार और अलंकार से सम्बन्धित है। बिहारी सतसई श्रृंगाररस प्रधान काव्य है। यह मुक्तक काव्य है। भाषा, अलंकार, शब्द योजना तथा समास शक्ति के आधार पर भाव आम्भीर्याथ विम्बयोजना के कारण एक उक्ति प्रचार में है।

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगें घाव करें गम्भीर||"

3. श्रृंगार का शस्त्रीय स्वरूप :

श्रृंगार 'रसराज' कहलाता है। लौकिक भाषा में प्रेमही श्रृंगार है। प्रेम की व्यापक भावना श्रृंगार रस है।

'श्रृंग' का अर्थ है - कामोद्रेक और 'आर' का अर्थ है - लानेवाला । अतः कामोद्रेक लानेवाला श्रृंगार कहलाता है। इस में स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव उपकरण हैं। स्थायी भाव ही रति है। यह नर नारी के अनुराग को प्रकट करता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विभाव और संचारी भाव मानसिक पक्ष कहलाते है और अनुभाव शारीरिक पंक्ष।

4. श्रृंगार की व्यापकता :

गाथा सप्तशती, अमरुक शतक, आर्या सप्तशती आदि ग्रन्थों से बिहारी को भावप्रेरणा प्राप्त हुई। विलक्षण कल्पना, सूक्ष्म निरीक्ष्ण तथा अनुपम प्रतिभा की तूलिका से बिहारी ने सतसई में श्रृंगारी भावना को परिपुष्ट किया। बिहारी लाल संस्कृत के भी विद्वान होने के कारण अग्नि पुराण आदि ग्रन्थों का प्रभाव भी उन पर पडा। परखने पर पता चलता है कि विहारी पर कालिदास की भी छाप है। प्रेम पयोधि में पहाड़ों से भी ऊँचे रसिकों के मन डूब जाते हैं।

"गिरि तैं ऊँचे रसिक मन, बूडे जहाँ हजारू।

वहै सदा पशु नरनु कौं प्रेम - पयोधि पगारू॥”

इस के विपरीत नर रूपी पशु प्रेम रूपी सागर को कोई गढ़ा समझते हैं। तंत्रीनाद, कविता - रस, सरस राग और रति रंग में डूबने वालों का जीवन सफल बताया गया है।

"तंत्री - नाद कवित्त - रस सरस राग रति-रंग।

अन बूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अङ्ग॥”

सत्य और काव्य दोनों एक ही वस्तु हैं। काव्य की जीवन धारा सत्य है। कवि सच्चा शिक्षक है।

“अली कली ही सो बाँयों आगे कौन हवाल।"

उक्ति के द्वारा बिहारी ने श्रृंगार का अनौचित्य रूप प्रस्तुत करके राजा जयसिंह के नेत्र खोल दिये और राजा को कार्योन्मुख किया।

5. संयोग पक्ष : :

संयोग पक्ष में आलम्बन, आश्रय आदि होते हैं। हास्य तथा विनोद के साथ प्रेमियों के नाना प्रकार की क्रीडाएँ होती हैं। साहित्य शास्त्र में संयोग की पृष्टभूमि पूर्वराग है। सौन्दर्य छवि से उन्मन्त नाइका का पूर्वराग देखिए -

"डर न टरै, नींद न परै हरै न काल बिपाकु।"

इसी प्रकार बिहारी सद्यः स्नाता का मनोहर रूप हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं।

"छुटी न सिसुता की झलक, झलकौ जोवन अंग।"

यौवन का उभार कविवर बिहारी विम्बात्मकता के साथ प्रस्तुत करते है।

"दुरत न कुच बिच कंचुकी चुपरीः सारी सेत।"

6. नख शिख वर्णन : :

नख - शिख वर्णन काव्य का एक प्रधान अंग है। चाहे महाकाव्य हो या खण्ड काव्य हो नाइका का नख - शिख वर्णन किसी किसी रूप में प्रस्तुत होता ही रहता है। बिहारी वस्तुतः श्रृंगारी कवि होने के कारण नाइका के सौन्दर्य वर्णन - न - में अत्यन्त प्रमुख तथा सफल हुए हैं। उदाहरण के लिए नाइका का मुख वे 'आनन ओप उजास' कहते हैं। नाइका की दृष्टि पर वे कलम चलाते हैं।

"भौंह उँचै आँचरु उलटि मौरि मोरि मुँहु मोरि ।

नीठि नीठि भीतर गई, दीठि दीठि सौं जोरि ॥”

7. सौन्दर्य :

नख शिख वर्णन करना एक प्रकार से कवि परंपरा (Treadition) है। लेकिन नाइका के सौन्दर्य जगत को पाठक के सामने मनोहर रूप में चित्रांकित करना सच्चा कवि कर्म है।

कवि की प्रतिभा में विद्वत्ता के साथ-साथ भावना तथा काल्पनिक वैविध्य होना चाहिए। क्षण क्षण बदलते हुए नाइका का सौन्दर्य विशेष बिहारी अनुपम ढंग से प्रस्तुत करते हैं।

"लिखन बैठि जाकी सबी, गहि गहि गरब गरुर।

भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर।"

बिहारी लाल के इस सौन्दर्य वर्णन पर महाकवि माघ कृत.-

‘क्षणे - क्षणे यन्नवतामुपैति, तदेक रूप रमणीयतायाः' का प्रभाव है। संयोग के अन्तर्गत बिहारी ने जलक्रीडा, आँख मिचौनी, झूला झूलना, फाग खेलना आदि सभी प्रकार की विलास केलियों का वर्णन किया है।

8. उद्दीपन :

उद्दीपन का श्रृंगार रस में महत्त्वपूर्ण स्थान है। आलम्बन की चेष्टाएँ उद्दीपन मानी जाती हैं। ऋतु वर्णन में भिन्न - भिन्न ऋतुओं से संबन्धित त्योहारों का भी वर्णन किया जाता है। निम्न लिखित वसन्त चित्र में उद्दीपन की मात्रा देखिए।

“छकि रसाल - सौरभ सने मधुर माधुरी गंध।

ठौर-ठौर झौंहत झपत भौर झौर मधु अंध॥"

विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से बिहारी की 'सतसई' सचमुच श्रृंगार रस का 'सदन' बन गयी है। संयोग श्रृंगार का एक दोहा अवलोक करें

"चमक तमक हाँसो ससक मसक झपट लमटानि।

ए जिहि रति सो रति मुक्ति और मुकति अति हानि॥"

9. वियोग पक्ष :

संयोग में कवि नायक तथा नाइका के बाह्य पक्ष तक ही सीमित रहता है। वियोग पक्ष में अधिकांश कवियों की मर्म वेदना प्रकट होती है। नायक और नाइका को आलम्बन बनाकर कवि अपनी अन्तर्वेदना प्रकट करता है। वियोग श्रृंगार में आत्म प्रसार होता है। अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुण, कंपन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जडता और मरण वियोग के फल माने जाते हैं। सतसई के दोहों का शब्द - शब्द और अक्षर - प्रत्यक्षर वियोग श्रृंगार के लिए भरमार है। नाइका का हृदय पसीज - पसीज कर नेत्रों में आँसू के द्वारा बहता है।

"हियौ पसीजि पसीजि हाय, दृग द्वार बहत है"

वियोग पक्ष में बिहारी लाल अधिकांश अतिशयोक्ति को आधार बनाते हैं। विरहणी नाइका पर डाला जाने वाला गुलाब जल बीच में ही भाप बनकर जाता है। उसी प्रकार वियोग व्यथा से व्याकुल तथा कृशित नाइका साँस के साथ आगे और पीछे चली।

"औंधाई सीसी सुलखि बिरह बरनि बितलात।

नहीं सूखि गुलाबु गौ छींटौ छई न गात॥”

"इति आवति चलि जाति उत, चली छसांतक हाथ । चढ़ी हिंडोरै सै रहै लगी उसासनु साथ॥"

वियोग में पूर्वराग, मान, प्रवास तथा करुणा के स्तर होते हैं। प्रवास के समय नाइका पियतम के निरीक्षण में व्याकुलपूर्ण जीवन बिताती है। विरह व्यथिता नाइका को कभी-कभी नायक से पत्र मिलता है तब नाइका उस पत्र को झूम झूम कर तथा चूम चूम कर हृदय पर लगा लेती है।

"कर लै चूमि चढ़ाइ सिर, उर लगाइ, भुज, भेंटि।

लहि पाती पिय की लखति बाँचति धरति समेटि॥"

बिहारी की नाइका प्रियतम को पत्र लिखना चाहती है, लेकिन कागज पर अक्षर लिख न पाती वह जिस कागज का स्पर्श करती है उस की विरहाग्नि के कारण वह पत्र जल जाता है। इसलिए वह पत्र लिख न पाती। कभी-कभी व्यक्ति के द्वारा सन्देश भेजना चाहती हो (होगी) संस्कार के कारण वह शर्माती है। इसी लिए वह कह देती है कि मेरे हृदय की बात उसका (नायक का) हृदय जानता है।

कागद पर लिखत न बनत, कहत संदेसु लजात।

कहिंहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥

10. उपसंहार :

श्रृंगार रस संसार में हर जीव के लिए अनुभवगम्य है। इस में अतुलित आनन्द की प्राप्ति होती है। बिहारी लाल रीतिकालीन श्रृंगार रस के सम्राट हैं। लेकिन श्रृंगार रस पोषण शब्द चयन के साथ ही अधिक हुआ है। प्रधानतया वियोग श्रृंगार में वियोग जन्य भाव गंभीरता बिहारी जायसी और तुलसी के समकक्ष नहीं कर सके। विरहणी नाइका के अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन में कभी हँसी मजाक आ गया है। अधिक ऊहात्मकता के कारण वियोग वर्णन में कहीं-कहीं अस्वभाविकता आ गई है।

बिहारी की काव्य कला पर चर्चा कीजिए। | BIHARI LAL

बिहारी की काव्य कला पर चर्चा कीजिए।
(अथवा)
रीति कालीन मूर्धन्य कवि बिहारी के काव्य सौष्ठव का विवेचन कीजिए।
(अथवा)
गागर में सागर और बिन्दु में सिन्धु भरनेवाले रीति कालीन विशिष्ट कवि बिहारी लाल की काव्य कला पर झाँकी डालिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. युग की परिस्थितियाँ

3. श्रृंगारी भावना

क. संयोग पक्ष

ख. वियोग पक्ष

4. भक्ति भावना

5. प्रकृति चित्रण

6. सूक्ति तथा नीति

7. विद्वत्ता

8. अलंकारयोजना

9. भाषा – शैली

10. उपसंहार

1. प्रस्तावना

शृंगारी काव्य रचना परम्परा में बिन्दु में सिन्धु और गागर में सागर भरनेवाले रीतिकालीन गर्भन्य कवि बिहारीलाल का यपूर्ण स्थान है। बिहारी सतसई भावपक्ष तथा कलापक्ष दोनों में अत्यधिक लोक रंजक बन गई है। कहा जाता है कि वे चार्य केशवदास के पुत्र हैं। उनकी पत्नी भी एक कुशल कवयत्री थी। वे राजाओं के और सामन्तों के दरबारों में कुछ श्रृंगार क तथा अन्य दोहे सुनाकर पुरस्कार तथा दक्षिणा प्राप्त करते थे। एक बार जयपुर के राजा जयसिंह चौहान रानी से विवाह के उसी के साथ भोग-बिलास में डूबे हुये थे। बिहारी ने.....

"नहिं परग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।

अनी कली ही सौ बाँध्यो, आगे कौन हवाल॥"

राजा जयसिंह इस दोने का प्रतीकार्थ समझ गये। उन्होंने बिहारी का अपने दरबार में कवि के रूप में सम्मान किया। जीवन - बिहारी वहीं रहें और अपने रसिकतापूर्ण वैविध्य दोहों से दरबार को रंजित करते रहे।

2. युग की परिस्थितियाँ :

बिहारी का युग बिलकुल बिलासपूर्ण था। मुसलमानी शासन का बोलबाला था। मुसलमानों की संस्कृति के सामने हिन्दू संस्कृति कुछ झुकी हुई थी। बादशाह, राजा, अमीर आदि विलासिता में डूबे हुए थे। धार्मिक संप्रदाय भी चलते थे। लेकिन सारा वातावरण श्रृंगारी रस व्यंजना में अधिक डूबा हुआ था। संस्कृत साहित्य को आधार बनाकर व्यावहारिक ज्ञान से काव्य का निर्माण होता था।

बिहारी के व्यापक परिवेश में नारी भावना केन्द्रित थी। नारी की चमक, दमक, हाँसी, दीरघनयन, भौहें, नख - शिख वर्णन, वयः सान्धि, नारी के विविध अनुभाव आदि आदि का बिहारी ने रसमय वर्णन किया।

3. श्रृंगारी भावना :

बिहारी लाल हिन्दी साहित्य के श्रेष्टतम श्रृंगारी कवि हैं। लौकिक भाषा में प्रेम को श्रृंगार कहते हैं। लेकिन वास्तव में श्रृंगार प्रेम की व्यापक भावना है।

'श्रृंग' का अर्थ है - कमोद्रेक

'आर' का अर्थ है - लानेवाला

नर- नारी के परस्पर झुकाब को 'रति' कहते हैं। इस में बाह्य सौन्दर्य की मात्रा अधिक होती है। विभाव और भाव, रति का मानसिक पक्ष है और अनुभाव शारीरक पक्ष है।

बिहारी ने श्रृंगार के सारे पक्षों का विवरण दिया है।

क संयोग पक्ष : बिहारी नाइका के पूर्वराग की झलक बताते है।

"डर न टरै नींद न परै हरै न काल बिपाकु!'

इसी प्रकार नायक और नाइका के बीच होनेवाले अनुभाव पूर्ण चमत्कार को बिहारी इस प्रकार प्रस्तुत करते है -

"चमक, तमक, हाँसी, ससक, मसक, झपट, लपटानि।

ए जिहि रति, सो रति मुकति और मुकति अति हानि॥"

नाइका के उभरे यैवन का बिहारी चित्रांकन करते हैं।

दुरत न कुचबिच कंचुकी चुपरि

नाइका की सौंदर्य विशेषता बिहारी अतिशियोक्ति के साथ प्रस्तुत करते हैं।

लिखन बैठि जाकी सबी गहि- गहि गरब गरूर।

भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर ॥

विभाव पक्ष में कभी आलम्न की चेष्टाएँ उद्दीपन का काम करती है। नाइका नायक पर गुलाल की मूठ चलाती है।

पीठि दिये ही, नैक मुंरि, कर घूँघट - पटु टारि ।

भरि गुलाल की मूठि सौं, गई मूठि सी मारि ॥

ख. वियोग पक्ष :- वास्तव में श्रृंगार को रसराज कहते हैं। संयोग में तो प्रेम एकन्त रूप में और सीमित रहता है। वियोग में आत्मा का प्रसार अधिक होता है। नदी, पहाड, लता, वृक्ष आदि वियोग में उद्दीपन का काम करते हैं। प्रकृति में प्रियतम की झलक दिखाई देती है। हृदय की वीणा जितनी विप्रलम्भ श्रृंगार में झंकृत होती है, उतनी संयोग श्रृंगार में नहीं। विप्रलम्भ में हृदय की मर्म वेदना का झंकार होता है। कालिदास का मेघदूत वियोग श्रृंगार का सुन्दर काव्य है। बिहारी ने वियोग पक्ष का भी सुन्दर चित्रण किया है। अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुणगान, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि और मरण- वियोग की सारी दशाओं पर बिहारी ने अपनी तूलिका फेरी।

वास्तव में वियोग विरह में मनुष्य सूखकर काँटा हो जाता है। विरहाज्ञी के कारण नाइका के ऊपर गिरनेवाला गुलाब जल भी भाप बन जाता है। नाईका का शरीर क्षण-क्षण क्षीण हो जाता है।

“करी बिरह ऐसी तऊ गैल न छाड़तु नीचु।

दीनै हूँ चसमा चखनु, चाहे लहै न मीचु॥”

वियोग श्रृगार पूर्वराग, मान, प्रवास और करुणा - सारे रूपों पर बिहारी ने बल दिया है। अधिक विषय गमन - प्रवास में रहने वाले प्रियतम का पत्र मिलने पर नाइका प्रेमाभिव्यंजना व्यक्त करती है - वह पत्र को बार बार चूम लेती है और सिर पर उसे रख लेती है। फिर हृदय पर लगा लेती है। -

"कर लै, चूमि, चढ़ाइ सिर, उर लगाइ, भुज भेंटि।

लहि पाती पिय की लखति, बाँचति धरति समेटि॥”

प्रिय को वह सन्देश भेजना चाहती है। लोकिन कागज पर लिखा न बनता।

"कागद पर लिखत न बनत, कहत संदेसु लजात।

कहि है सबु तेरों हियौं, मेरे हिय की बात॥”

संयोग का वर्णन अधिक स्वभाविक होता है और वियोग में कहीं नाइका का शरीर जलता है। गुलाब का जल एक बूँद भी उसके शरीर पर नहीं गिरता। साँस लेते विरहिणी नाइका दुर्बलता के कारण आगे-पीछे होती रहती है।

"औंधाई सीसी सुलखि बिरह - बरनि बिललात।

बिच हीं सूखि गुलाबु गौ, छींटौ छुई न गात ॥”

“इति आवति चलि जाति उत चली छसातक हाथ।

चढ़ी हिंडौरै सैं रहै, लगी उसासनु साथ ॥"

4. भक्ति भावना :

विहारी लाल वस्तुत: श्रृंगारी कवि है। साथ ही उन में माधुर्य, सख्य, हास्य आदि सभी प्रकार की भक्ति के तत्त्वं समन्वित हुये हैं। वे वाह्याडम्बरों का निराकरण करके मन की पवित्रता की आवश्यकता बताते हैं।

"जपमाला छापै तिलक सरै न एकौ कामु ।

मन - काँचै नाचै वृथा साँचै राँचै रामु॥”

सांसारिक विषय वासनों में न गिरकर भगवान का दिया हुआ स्वीकार करने की वे सलाह देते हैं।

दीरघ साँस न लेहि दुख, सुख साईहिं न भूलि।

दई दई क्यों करतु है, दई दई सु कबूलि।।.

5. प्रकृति चित्रण :

प्रकृति सदा मानव की सहचर रही है। प्रकृति के बिना कोई जीव-जन्तु पनप नहीं सकता। अत. सौदयांनुभूति तथा ललिंत अभिव्यक्ति के लिए प्रकृति अत्यन्त आवश्यक है। अतः हम यह कह सकते हैं कि प्रकृति चित्रण के बिना कविता ही नहीं। बिहारी प्रकृति चित्रण में मानवीयता की ओर अधिक झुकते हैं। उद्दीपन और अलंकारों की अद्भुत समन्वयता के लिए प्रकृति को ले लेते हैं। वे कहीं-कहीं प्रकृति के मानवीकरण की सूक्ष्मता तक जाते हैं।

बैठि रही अति सघन वन, पैठि सदन तन माँह।

देखि दुपहरी जैठ की, छाँहीँ चाहति छाँह।।

संयोग और वियोग पक्ष दोनों में प्रकृति चित्रण का महत्वपूर्ण स्थान होता है जिसे बिहारी लाल ने सफलता के साथ निभाया है।

6. सूक्ति तथा नीति

बिहारी लाल दरबारी कवि होने पर सूक्ति तथा नीति परक दोहों की रचना भी उन्होंने की। समाज द्वन्द्वात्मक होता है। इसलिए समाज में जो सत तथा असत होते हैं। उनका सूक्ष्म अनुशीलन करके बिहारी दरबार के सामने प्रस्तुत करते हैं।

उदा -

यमक तथा काव्य लिंग अलंकारों से समन्वित यह दोहा देखिए -

"कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।

यह खाये बौराय जग, ये पाये बौराय॥”

इसी प्रकार संसार में कोई भी सुन्दर नहीं और ओई भी असुन्दर नहीं। समय के अनुसार और देखने वालों के अनुसार कोई चीज सुन्दर दिखाई देती है और कभी कोई वस्तु असुन्दर दिखाई देती है। मानवों में भी सुन्दरता के बारे में यही विषय बताया है गया है।

"समै समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न कोई।

मन की रुचि जेती जितै तित तेती रुचि होइ!!

अनेक स्थानों पर बिहारी नर की उन्नति का रहस्य नल के पानी की तुलना से करते है।

7. विद्वत्ता :

कवि अक्षर तपस्वी तथा सुवर्णयोगी होता है। इसलिए विविध विषयों का ज्ञान आवश्यक है। गणित, ज्योतिष, इतिहास, नीति, आयुर्वेद, विज्ञान आदि विषयों का ज्ञान बिहारी रखते हैं। इनका ज्ञान भण्डार बहु व्यापक है। ज्योतिष तथा विज्ञान संम्बन्धी यह दोहा देखिए –

“पत्रा ही तिथि पाइयै वा घर कै चहुँ पास।

नित प्रति पून्यौई रहै, आनन- औप- उजास॥"

8. अलंकारयोजना :

बिहारी की 'सतसई' बिन्दु में सिन्धु भरने वाली तथा गागर में सागर भरने वाली अलंकारों से समन्वित अनमोल कविता की भरमार है। उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा अलंकारों का अधिक प्रयोग बिहारी ने किया है।

“जदपि सुजाति सुलच्छनि सुवरन सरस सुवृत्त।

भुषण बिनु न विरजहि कविता वनिता मित्त॥”

उपर्युक्त केशवदास जी का दोहा, बिहारी कविता माधुरी अतिशयोक्ति का यह दोहा, बिहारी लाल की भाव पटिमा, मनोहर सौकुमार्य का वर्णन तथा नाइका की शोभा का वर्णन चित्रित करता है। बिहारी की अलंकार योजना व्यापक है। कोमलांगी नाइका तन पर भूषणों का भार कैसे सभ्भाल सकती है। उसके पाँव तो पहले ही शोभा के भार से डगमगा रहें हैं। इस प्रकार की भावना कुशल कवि ही कर सकता है।

"भूषन-भार संभारिहै, क्यों इहि तन सुकुमार।

सूधे पाइ न घर परै सोभा ही कैं भार॥”

उपमान के सहारे अनूठी-अनूठी चित्रात्मक अप्रस्तुत योजना का सौन्दर्य उत्प्रेक्षा के द्वारा अंकित हुआ है।

“चमचमात चंचल नयन, बिच घूँघट पर झीन।

मनहु सुर सरिता - बिमल जल उछरत जुग मुनि॥"

विरोधाभास के चमात्कार में कविवर बिहारी तंत्रीनाद कविता की मांधुरी रस युक्त संगीत और रति के श्रृंगार में डूबने वालों का जीवन धन्य बताते हैं।

"तंत्री - नाद कवित- रस सरस राग, रति रंग।

अनचूड़े बूडे तरे जे बूड़े सब अङ्ग॥"

9. भाषा - शैली : :

बिहारी की भाषा व्रज है। अन्य भाषाओं के शब्द प्रयोग भी बिहारी ने किया है। बिहारी ने तत्कालीन प्रचलित साहित्य ब्रज का प्रयोग किया है। भाषा को कहीं-कहीं उन्होंने तोड- मरोड़कर दोहों में जमाया है। संस्कृत शब्दों का समाहार भी बिहारी 7 में प्राप्त होता है। अरबी और फारसी शब्दों का प्रयोग भी बिहारी ने किया है।

बिहारी की भाषा शैली माधुर्य गुण प्रधान है। शब्द चधन तथा मुहावरों लोकोक्तियों के प्रयोग ने भाषा-1 शैली को सुसज्जित किया है। कभी कहीं व्याकरण संबन्ध कुछ इने गिने दोष भी कुछ पण्डित बिहारी में ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं। - बिहारी की भाषा सशक्त, चुस्त प्रवाहपूर्ण साहित्यिक ब्रज है। उनकी वाक्य रचना व्यवस्थित और शब्द चयन अनूठा है। समास शक्ति वाग्विदग्ध अलंकारों का समावेश बिहारी की भाषा शैली के परिपोषक हैं।

10. उपसंहार :

रीति कालीन कविरत्न बिहारी लाल अपनी सतसई के कारण विख्यात हुए। किसी भी कबि की मान्यता उनकी रचनाओं की गणना से न होकर उनके गुण विशेष से होती है। बिहारी की सतसई मुक्तक बना बनाया दोहों का गुलदस्ता है। अनुभावों तथा भावों की योजना में रीति कालीन कवियों में बिहारी ताल बेजोड़ हैं। शोभा, सुकुमारता, बिरह ताप, बिरह की क्षीणता आदि के वर्णन में बिहारी ने कहीं-कहीं अतिशयोक्ति का आश्रय लिया है। उनके बहुत से दोहे आर्या सप्तशती तथा गाथा सप्तशती की छाया लेकर बने हुए है। बिहारी की कविता में श्रृंगार रस की अधिकता होने पर भी अनुभूति की गहनता नहीं।

अनुभावों का बिहारी ने विशद वर्णन किया और भाव संकेतों का कलात्मक नियोजन भी किया। प्रतिभा, निपुणता और अभ्यास तीनों का बिहारी की कला में योगदान है। कहने की आवश्यकता नहीं कि बिहारी रीति कालीन मूर्धन्य कवि हैं। उनका हर शब्द रस व्यंजित है। गागर में सागर भरने वाला, बिन्दु में सन्धु भरने वाला तथा रीतिकालीन श्रृंगार का उत्कृष्ट कवि है, बिहारीलाल।

महाकवि तुलसीदास की समन्वय साधना का विश्लेषण कीजिए। | TULASIDAS

महाकवि तुलसीदास की समन्वय साधना का विश्लेषण कीजिए।
(अथवा)
तुलसीदास लोकनायक कहलाते हैं - किसलिए?
(अथवा)
गोस्वामी तुलसीदास के लोकनायकत्व पर विचार कीजिए।
(अथवा)
'लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके', इस उक्ति की पृष्टि पर विचार कीजिए।

रूपरेखा ::

1. प्रस्तावना

2. तुलसी का युग

3. तुलसी की समन्वय वचारधारा

4. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

हिन्दी साहित्याकाश में महाकवि तुलसीदास सतत प्रसन्न चन्द्रमा है। किसी ने सही ही कहा सूर 'सूर तुलसी ससि' गोरखामी तुलसी दास के बारे में बताना सारे आकाश की चित्रकारी करने के समान है अथवा सारे समुद्र के पानी को उलींचने के समान है। तुलसीदास को नाभादास ने कलियुग वाल्मीकि का अवतार कहा है। वेदों में पुराणों में, शास्त्रों में तथा काव्यों में बताये गये, रामतत्त्व को उन्होंने अपने महान काव्य रामचरित मानस में ढालकर जन मानस में रामभक्ति का संचार कराया। भारतीय संस्कृति, चरित्र चित्रण, रसपरिपाक आदि में रामचरितमानस का संमतुल्य करनेवाला काव्य हिन्दी साहित्य जगत में कोई अन्य नहीं। बाल्मीकि रामयण में बताये गये राम के धर्म स्वरूप (रामो विग्रहवान धर्मः) को लेकर उन्होंने मर्यादा पुरोषत्तम के रूप में प्रस्तुत किया।

2. तुलसी का युग -

तुलसीदास का जन्म अनेक विश्रृंखलताओं के युग में हुआ - देश के धार्मिक भेद में नाना प्रकार के संप्रदाय प्रचलित थे। एक ओर अलख जगाने वाले नाथ-पंथि योगियों का प्रशिक्षित वर्ग पर प्रभाव पड रहा था, तो दूसरी ओर जात-पांत के विरोधी कबीरदास अलखोपासना का संदेश सुना रहे थे। शाक्त संप्रदाय में वामपक्ष तथा दक्षिण पक्ष प्रबल हो रहे थे। वामपक्ष में मद्य, माँस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन पंचमकारों की वासनामय उपासना होने लगी! शैदों और वैष्णवों के बीच भेद उत्पन्न हुए। फिर वैष्णवों में भी राम भक्ति शाखा तथा कृष्ण भक्ति शाखा के बीच मतभेद होने लगे। अदद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद और दद्वैतवाद में परस्पर संघर्ष होने लगा। राजनीतिक दृष्टि से विदेगीजाति ने भारतीय जनता को अपने शासन के अधीन कर लिया। वह सच्चा कलियुग (पाप का युग) था।

“गोड गँवार नृपाल महि, यमन महा महिपाल।

साम न दान न भेद, कलि केवल दण्ड कराल॥"

तत्कालीन समाज आर्थिक रूप से भी विपिन्न था। दंपति सुख भोगों में मग्न होकर पारिवारिक कर्तव्यों की उपेक्षा करते थे। नव यौवना पत्नी के सौन्दर्य के लोभ में अनेक युवक अपने माता- पिता की उपेक्षा कर रहे थे। युवक अति विलासिता में भंग होने के कारण सामाजिक जीवन में शिथिलता आने लगी। वेद और धर्म दूर हो चुके थे। धार्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक तथा आर्थिक दृष्टि से तुलसी के समय समाज ह्रासोन्मुख था।

तुलसीदास ने तत्कालीन समाज को परखा। लोकमंगल की भावना उनके हृदय में जागरित हुई। समाज में धार्मिक सांस्कृतिक, तथा आर्थिक करने की हुई, गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस द्वारा समाज को रक्षक मर्यादा पुरुषोत्तम राम के दर्शन कराये। उनकी रामायण श्रुति सम्मत है। उनके राम शील, शक्ति तथा सौन्दर्य के प्रतिरूप है।

3. तुलसीदास की समान्वय विचारधारा -

(क) साहित्यिक समन्वय :- तुलसीदास में साहित्यिक समान्वय भावना गोचर होती है। आप की कृतियाँ तीस से अधिक बताई जाती हैं, लेकिन उन में बारह ही आज प्राप्त हैं।

1. रामचरिमानस उनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है, जो प्रबन्ध काव्य है। इस में संपूर्ण रामकथा का विवरण है।

2. विनयपत्रिका भक्ति समन्वित पदों की रचना है। इस काव्य में तुलसी की भक्ति विशेषता का चरमोत्कर्ष प्रकट होता है।

3. कवितावली - कवितावली में कवित्त, सवैया, छप्पय आदि छन्दों का समाहार है।

4. गीतावली - रामकथा की गीतरचना है।

5. दोहावली - इस में नीति, भक्ति, नाम महिमा आदि का उल्लेख तथा बिवरण हुआ है।

6.कृष्ण गीतावली - कृष्ण गीतावली में कृष्ण की महमा की कथा है।

7. पार्वती मंगल - यह शैव संप्रादाय की पुष्टि में लिखा हुआ काव्य है। इस प्रकार तुलसी ने तत्कालीन सारी काव्य शैलियों में कृतियों की रचना की।

(ख) धार्मिक समन्वय :- महाकवि तुलसीदास ने धार्मिक क्षेत्र में समन्वय लाने का प्रयत्न किया। शिव, राम की स्तुति करते हैं और राम शिव का स्मरण करते हैं। राम स्वयं कहते हैं -

शिब द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहु मोहि न पावा।

संकर विमुख भगति चहु मोरी। सो नर की मूढ़ मति थोरी॥

रामचरित को शिव अपने हृदय में रख लेते हैं। इसलिए इस काव्य का नाम रामचरितमानस रखा गया है। निर्गुण और सगुण में समन्वय लाते हुए उन्होंने कहा है -

अगुनहिं सगुनहि नहिं कछु भेदा।

भक्ति और ज्ञान में समन्वय लाते हुए तुलसी ने बताया –

“भगतिहि म्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहि भव संभव खेदा॥"

(ग) राजनीतिक समन्वय :- गोस्वामी तुलसीदास एक ओर तत्कालीन विश्रृंखल शासन का तिरस्कार करते हुए रामराज्य की स्थापना भारत से चाहते हैं।

"दैहिक, दैविक, भौतिक, तापा। रामराज्य काहु हि नहि व्यापा॥"

(घ) सामाजिक समन्वय :- रामचरितमानस में वर्णाश्रम धर्म का विवरण हुआ है। जिस में राजा - प्रजा का संबन्ध, माता पिता का संबन्ध, पिता पुत्र का संबन्ध, भाई- भाई का संबन्ध, सास बहू का संबन्ध - स्वामी सेवक का सबन्ध आदि का चित्रण मर्यादा पूर्वक हुआ है। इस से तुलसीदास सामाजिक क्षेत्र में समन्वय भावना की इच्छा रखते हैं। सीता और राम भगवान के स्वरूप होते हुए भी साधारण प्रजा से और बन में विचरने वाले कोल किरातों से हृदयाविष्कार के साथ व्यवहार करते हैं। इसीलिए राम शील, शक्ति तथा सौन्दर्य के समन्वय रूप माने जाते हैं। सीता और राम के अवतार स्वरूप मे सारे विश्व में प्रतिबिंबित होते हुए तुलसीने बताया।

सीय राम मय सब जग जानि। करउ प्रणाम जोरि जुग पानि॥

रामराज्य में सब लोग दान देनेवाले ही थे। लेनेवाला कोई भी नहीं था। यहाँ तुलसीदास आर्थिक तथा नैतिक समन्व्य करते हैं।

(ङ) दार्शनिक समन्वय :- तुलसीदास की विचार धारा में कोई नई बात नहीं थी। जो कुछ भी उन्होंने कहा है श्रृति सम्मत कहा है। उपयुक्त विषय के संग्रह में और अनुपयुक्त विषय को त्यागने में वे अत्यन्त सफल थे। फिर वे अपने सिद्धान्तों को रामचरितमानस के द्वारा जन मानस में व्याप्त करते गये। उन सिद्धान्तों का सार ही तुलसी मत है। उनका मानस नाना पुराण निगमागम सम्मत होने के कारण उनका रामकाव्य महान समन्वय काव्य बन गया है। गोस्वामी जी की भक्ति श्रुति सम्मत है।

तुलसी ने तत्कालीन सारे दार्शनिक विचारों को परखा और सब का समन्वय किया। उपनिषदों का ब्रह्मवाद, गीता का अनासक्ति योग, वौद्धों और जैनों का अहिंसा वाद, वैष्णवों और शैवों का अनुराग - विराग, शक्तों का जप, शंकर का अद्वैतवाद, रामानुज की भक्ति भावना, निंबार्क का द्वैताद्वैत, मध्व की रामोपासना, बल्लभ का बालरूप आराध्य, चैतन्य का प्रेम, कबीर आदि सतों का नाम जप आदि - आदि तुलसी के रामचरितमानस में दर्शित होते हैं।

उपसंहार

धर्म ग्लानि होने पर, समय समय पर लोकनायक अवतरित होते हैं और लोक रक्षा अपने-अपने बिधान से करते हैं। -

उदा - यदा... यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।

धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥ .

जिस प्रकार महाभारत काल में योगिराज कृष्ण ने ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय करके समाज का पथप्रदर्शन किया, उसी प्रकार महाकवि तुलसीदास ने भारतीय समाज में दर्शनिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक, पारिवारिक तथा साहित्यिक समन्वय करके समाज को प्रशारत किया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है. "भारत वर्ष का - लोक नायक वही है जो समन्वय कर सके। तुलसी ही समन्वयकारी थे। रामचरितमानस आद्यन्त समन्वय काव्य है।"

तुलसीदास ने तत्कालीन समाज को परखा। उन में लोक मंगल की भावना जागरित हुई। श्रुति सम्मत आदर्श राम कथा रची। उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र संसार को दिया। जड चेतन गुण दोषमय संसार को पार करने के लिए तुलसी ने समाज को रामरस का पान कराया। शील, शक्ति तथा सौन्दर्य का समन्वय ही रामचरितमानस है। तुलसी का मानस आत्म सुख प्रदान करनेवाला महान काव्य है। तुलसी की समन्वय भावना अतुलित है। इसीलिए वे लोक नायक कहलाते हैं।

“कविता करके तुलसी न लसे। लसी कविता पा तुलसी की कला॥“ – हरिऔध