गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

घनानन्द की काव्य-कला की समीक्षा कीजिए। | GANNANAD

घनानन्द की काव्य-कला की समीक्षा कीजिए।
(अथवा)
घनानन्द की प्रेमाभिव्यंजना
(अथवा)
घनानन्द की काव्य - साधना पर प्रकाश डालिए।

१ रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. कृतियाँ

3. रीति मुक्त धारा (या) कवि

4. घनानन्द की विशेषताएँ

5. एकनिष्ठता

6. विरह - मिलन का आदर्श

7. प्रकृति से सम्बन्ध

8. अनुभूति तथा अभिव्यक्ति का सामंजस्य

9. भाषा - शैली

10. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

रीतिमुक्त कवि, ब्रजभाषा प्रवीण, विरह विदग्ध वियोगी कवि घनानन्द का नाम रीति काल में ही नहीं, बल्कि समूचे हिन्दी साहित्य में अप्रमेय है।

घनानन्द दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के मीर मुंशी थे और दरबार की एक वेश्या सुजान पर अनुरकत थे । बादशाह के कहने पर एक बार इन्होंने गाने से मना कर दिया पर सुजान के कहने पर ये बादशाह की ओर पीठ करके अपनी प्रिया के सम्मुख हो गाने लगे। घनानन्द ने ऐसा गाना गाया कि सब लोग तन्मय हो गए। बादशाह इन के गाने पर जितना ही खुश हुआ उतना ही बे अदबी पर नाराज हो इन्हें शहर से निकाल दिया। जब वे चलने लगे तब सुजान को भी साथ चलने के लिए कहा। पर वह न गयी। इस पर घनानन्द हृदयव्यथित हो गये और बे वृंदावन जा कर विरक्त भाव से रहने लगे। इन्होंने अपने काव्य में परमात्मा के स्थान पर स्वत्र सुजान शब्द का प्रयोग किया है।

2. कृतियाँ : -

घनानन्द की कृतियाँ इक्तालीस बताई जाती हैं। लेकिन उन में आज सत्रह (17) कृतियाँ मात्र प्राप्त हैं। उन में घनानन्द - कवित्त, आनन्दघन के कवित्त, कवित्त सुजान हित, वियोग बेलि जमुना जस, सुजान विनोद आदि प्रधान काव्य हैं।

3. रीतिमुक्त धारा कवि :

रीतिकाल श्रृंगार काल भी कहलाता है। इस में प्रधानतः दो धाराएँ प्राप्त होती हैं -

1. रीतिबद्ध काव्य धारा और

2. रीतिमुक्त काव्य धारा

रीतिमुक्त काव्य धारा में शुद्ध प्रेम काव्य होते हैं। घनानन्द, बोधा, आलम और ठाकुर इस धारा के अन्तर्गत आते हैं। रीतिबद्ध कवि नाइका भेद, नख - शिख वर्णन, ऋतु वर्णन आदि विषयों को लक्ष्य बनाकर काव्य का सृजन करते हैं। जूठी उक्तियाँ, कल्पनायें, भ्रष्टप्रेम आदि रीतिबद्ध कवियों में होते हैं।

अन्तर्मथन, आत्मपीडा, स्वानुभूति, आत्म निवेदन, उन्मुक्त प्रेम, वेदना की कसक आदि रीतिमुक्त कवियों की रसधारा है । वे भावविभोर होकर स्वच्छन्द रूप में कविता की लहरों में पल्लवित होते रहते हैं। उन कवियों का हर एक शब्द उनके हृदय की निचोड है। घनानन्द का नाम स्वच्छन्द धारा के कवियों में सर्वोत्तम (सब से ऊँचा) है। वे वियोग रीति के कोविद तथा व्रज भाषा प्रवीण माने जाते है।

"नेही महा ब्रज भाषा प्रवीण और सुन्दरतानि के भेद को जानै।

जोग-वियोग की रीति में कोविद भावना भेद- स्वरूप को ठानै॥"

4. घनानन्द की विशेषताएँ :

घानान्द का प्रेम हृदयगत है। अतः उनकी कविता का सार 'प्रेम की पीर है"। यहाँ पीर का अर्थ पीडा और भगवान दोनों हैं। प्रेम की यह पीडा स्वानुभूति है और उसका उद्गाम हृदय से है। वें हृदय रूपी आँखों से देखते हैं हिय - आँखिन । घनानन्द संयोग तथा वियोग का विधान समझनेवाले सुकवि हैं। उनका प्रेम भावपक्ष अधिक होने के कारण उनका काव्य जग की कविताई बन गया है। कोई भी कवि विद्वात्ता के साथ - साथ विविध भाषाओं का ज्ञान तथा विलक्षण काव्य पा का ज्ञान रखता है। घनानन्द को अनेक भाषाओं का ज्ञान था।

5. एकनिष्ठता :

घनानन्द ने संयोग वर्णन और वियोग वर्णन दोनों पर लिखा है। लेकिन प्रधानतः वे वियोग के कवि हैं। चातक के प्रेम की एकनिष्ठता घनानन्द में भी व्यक्त होती है।

"चितव कि चातक मेघ तजि कबहु दूसरी ओर।”

चातक के मेघ के प्रति प्रेम की भाँति ही घनानन्द का प्रेम सुजान के प्रति सच्चा है। अनुभूतियाँ, आकांक्षाएँ, मनोवृत्तियाँ और करुणा धनीभूत होकर उनकी कविता में संगीत के रूप में स्वाभावकिता के साथ बरसती हैं। व्यथा की नीली लहरें उनके रस हृदय को कल्लोलित करती हैं।

6. विरह मिलन का आदर्श :

वियोग वर्णन तो हर कवि करता ही रहता है। लेकिन वियोग पीडा में जीव का मरना ही अधिक कवियों ने बताया है। घनानंद सुजान की बिरह के कारण मरते नहीं बल्कि वे सुजान की बिरह वेदना में क्षण क्षण जीते हैं। मछली के बिछुडन और पतंग के मिलने की दशा से घनानन्द के बिरह की दशा में बहुत अन्तर है। वे स्वयम कहते हैं

"बिछुरै मिलै मीन पतंग दसा कहा मो जियकी गति को परसे"

वे अपने प्रिया क्रूर, अत्याचारी, निठुर, निर्मम, निर्दयी आदि उपाधियों से कोसते हैं, अपने भाग्य पर क्षण -प्रति क्षण व्यथित होते रहते हैं। वियोगी के मन की दशाओं का मार्मिक तथा व्यापक उद्घाटन जैसा विरह व्यथित भावनाप्रद कविवर घनानन्द ने किया है वैसा कम ही कवि कर सक्ते।

7. प्रकृति से सम्बन्ध :

मनुष्य का प्रकृति से परंपरागत सम्बन्ध है। प्रकृति मानव के सुख-दुख में सहचरी है। मानव जीवन में प्रकृति आदयन्त माँ अथवा सहचरी के रूप में रहती है। हर कवि अपने काव्य में हर दशा में प्रकृति का वर्णन करता जाता है। अतः संयोग और बियोग में कवि प्रकृति के उद्दीपन रूप को ले लेते हैं। घनानन्द ने रसपुष्ट (रसनिष्ठ) कवि होने के कारण बाह्य प्रकृति के साथ अन्तः प्रकृति का वर्णन किया है। कभी रात्री उनको भयंकर तथा विषपूर्ण नागिन सी लगती है। चान्दिनी अग्नि के समान उनको दहती है और वर्षा की बून्हें उनको जलाती है।

"सुधा ते स्रवत विष, फूल में जमत-सूल।

तम उगलित चन्द भई नई रीति॥”

कोयल की कूक, चातक की पुकार और मयूर का नृत्य घनानन्द के विरह व्यथितय को और भी आघात पहुँचाते हैं।

"कारी कूर कोकिला कहाँ को बैर काढ़ति री,

कूकि कूकि अब ही करे जो किन कोरि लै।

पैडे परे पापी ये कलापी निस घास ज्यौं ही

चातक! धातक त्यौं ही तू हू कान फोरि लै ॥”

आखिर घनानन्द मेघों से बरसने वाली वर्षा को अपने विरह हृदय के आँसू बताते हैं।

"बूँदै न परति मेरे जान जान प्यारी तेरे।

बिरही कौं हरि मेघ आँसुनि झरयो करै॥”

दामिनी भी उनके लिए उद्दीपन का काम करती है।

"दामिन हूँ लहकि बहकि यौं जरयो करै।"

8. अनुभूति तथा अभिव्यक्ति का सामंजस्य :

घनानन्द प्रधानतया अनुभूति परक कवि हैं। उनकी हृदयानुभूति ललित अभिव्यक्ति में प्रकट हुई है। हृदय की सूक्ष्म भावनाऐं, रमणीय अभिव्यक्ति हृदय की अंन्तर्दशाओं का चित्रण आदि घनानन्द में मूर्तिमत्ता के साथ प्रकट होते हैं। घनानन्द का अभिव्यंजना कौशल निरुपम है।

9. भाषा - शैली :

घनानन्द की भाषा साहित्यिक, व्याकरण सम्मत, मुहावरेदार, लाक्षणिक युक्त और व्यंजना (हृदय ग्राह्य) प्रधान है। रीतिबद्ध कवियों में बहुत कम कवि घनानन्द्र के समकक्ष ठहर सकते हैं। घनानन्द की भाषा पद- ध्वनि तथा वाक्य- ध्वनि के साथ हृदय नाद करती है और पाठकों (या) (पाठक गणों) से हृदय नाद कराती है। भावना के वेग में उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, व्यतिरेक, रूपक, उपमा, विरोध आदि अलंकारों का समावेश हुआ है।

10. उपसंहार : 

घनानन्द व्रज भाषा प्रवीण हैं । वे रीतिमुक्त स्वच्छन्द मनोवृत्ति बाले कवि हैं। विरह की अन्तर्दशाओं और अन्तर्वृत्तियों के वर्णन में वे अप्रमेय हैं । उनके एक - एक शब्द में विरह - विह्वल हृदय बोलता है। अनुभूति की तीव्रता तथा वेदना की गहराई और व्यथा की कसक उनके काव्य के 'काव्य की आत्मा' है। साहित्यिक प्रांजल व्रज भाषा में लाक्षणिकता तथा पूर्ण व्यंजकता के वैभव में घनानन्द की कविता मनोहरता के साथ ढ़लती है। उनकी भाषा व्याकरण संपन्न तथा अर्थ समन्वित है। भाव, भाषा और काव्य की रसपुष्टि में घनानन्द का रस हृदय छलकता रहता है।