गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

घनानन्द की काव्य-कला की समीक्षा कीजिए। | GANNANAD

घनानन्द की काव्य-कला की समीक्षा कीजिए।
(अथवा)
घनानन्द की प्रेमाभिव्यंजना
(अथवा)
घनानन्द की काव्य - साधना पर प्रकाश डालिए।

१ रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. कृतियाँ

3. रीति मुक्त धारा (या) कवि

4. घनानन्द की विशेषताएँ

5. एकनिष्ठता

6. विरह - मिलन का आदर्श

7. प्रकृति से सम्बन्ध

8. अनुभूति तथा अभिव्यक्ति का सामंजस्य

9. भाषा - शैली

10. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

रीतिमुक्त कवि, ब्रजभाषा प्रवीण, विरह विदग्ध वियोगी कवि घनानन्द का नाम रीति काल में ही नहीं, बल्कि समूचे हिन्दी साहित्य में अप्रमेय है।

घनानन्द दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के मीर मुंशी थे और दरबार की एक वेश्या सुजान पर अनुरकत थे । बादशाह के कहने पर एक बार इन्होंने गाने से मना कर दिया पर सुजान के कहने पर ये बादशाह की ओर पीठ करके अपनी प्रिया के सम्मुख हो गाने लगे। घनानन्द ने ऐसा गाना गाया कि सब लोग तन्मय हो गए। बादशाह इन के गाने पर जितना ही खुश हुआ उतना ही बे अदबी पर नाराज हो इन्हें शहर से निकाल दिया। जब वे चलने लगे तब सुजान को भी साथ चलने के लिए कहा। पर वह न गयी। इस पर घनानन्द हृदयव्यथित हो गये और बे वृंदावन जा कर विरक्त भाव से रहने लगे। इन्होंने अपने काव्य में परमात्मा के स्थान पर स्वत्र सुजान शब्द का प्रयोग किया है।

2. कृतियाँ : -

घनानन्द की कृतियाँ इक्तालीस बताई जाती हैं। लेकिन उन में आज सत्रह (17) कृतियाँ मात्र प्राप्त हैं। उन में घनानन्द - कवित्त, आनन्दघन के कवित्त, कवित्त सुजान हित, वियोग बेलि जमुना जस, सुजान विनोद आदि प्रधान काव्य हैं।

3. रीतिमुक्त धारा कवि :

रीतिकाल श्रृंगार काल भी कहलाता है। इस में प्रधानतः दो धाराएँ प्राप्त होती हैं -

1. रीतिबद्ध काव्य धारा और

2. रीतिमुक्त काव्य धारा

रीतिमुक्त काव्य धारा में शुद्ध प्रेम काव्य होते हैं। घनानन्द, बोधा, आलम और ठाकुर इस धारा के अन्तर्गत आते हैं। रीतिबद्ध कवि नाइका भेद, नख - शिख वर्णन, ऋतु वर्णन आदि विषयों को लक्ष्य बनाकर काव्य का सृजन करते हैं। जूठी उक्तियाँ, कल्पनायें, भ्रष्टप्रेम आदि रीतिबद्ध कवियों में होते हैं।

अन्तर्मथन, आत्मपीडा, स्वानुभूति, आत्म निवेदन, उन्मुक्त प्रेम, वेदना की कसक आदि रीतिमुक्त कवियों की रसधारा है । वे भावविभोर होकर स्वच्छन्द रूप में कविता की लहरों में पल्लवित होते रहते हैं। उन कवियों का हर एक शब्द उनके हृदय की निचोड है। घनानन्द का नाम स्वच्छन्द धारा के कवियों में सर्वोत्तम (सब से ऊँचा) है। वे वियोग रीति के कोविद तथा व्रज भाषा प्रवीण माने जाते है।

"नेही महा ब्रज भाषा प्रवीण और सुन्दरतानि के भेद को जानै।

जोग-वियोग की रीति में कोविद भावना भेद- स्वरूप को ठानै॥"

4. घनानन्द की विशेषताएँ :

घानान्द का प्रेम हृदयगत है। अतः उनकी कविता का सार 'प्रेम की पीर है"। यहाँ पीर का अर्थ पीडा और भगवान दोनों हैं। प्रेम की यह पीडा स्वानुभूति है और उसका उद्गाम हृदय से है। वें हृदय रूपी आँखों से देखते हैं हिय - आँखिन । घनानन्द संयोग तथा वियोग का विधान समझनेवाले सुकवि हैं। उनका प्रेम भावपक्ष अधिक होने के कारण उनका काव्य जग की कविताई बन गया है। कोई भी कवि विद्वात्ता के साथ - साथ विविध भाषाओं का ज्ञान तथा विलक्षण काव्य पा का ज्ञान रखता है। घनानन्द को अनेक भाषाओं का ज्ञान था।

5. एकनिष्ठता :

घनानन्द ने संयोग वर्णन और वियोग वर्णन दोनों पर लिखा है। लेकिन प्रधानतः वे वियोग के कवि हैं। चातक के प्रेम की एकनिष्ठता घनानन्द में भी व्यक्त होती है।

"चितव कि चातक मेघ तजि कबहु दूसरी ओर।”

चातक के मेघ के प्रति प्रेम की भाँति ही घनानन्द का प्रेम सुजान के प्रति सच्चा है। अनुभूतियाँ, आकांक्षाएँ, मनोवृत्तियाँ और करुणा धनीभूत होकर उनकी कविता में संगीत के रूप में स्वाभावकिता के साथ बरसती हैं। व्यथा की नीली लहरें उनके रस हृदय को कल्लोलित करती हैं।

6. विरह मिलन का आदर्श :

वियोग वर्णन तो हर कवि करता ही रहता है। लेकिन वियोग पीडा में जीव का मरना ही अधिक कवियों ने बताया है। घनानंद सुजान की बिरह के कारण मरते नहीं बल्कि वे सुजान की बिरह वेदना में क्षण क्षण जीते हैं। मछली के बिछुडन और पतंग के मिलने की दशा से घनानन्द के बिरह की दशा में बहुत अन्तर है। वे स्वयम कहते हैं

"बिछुरै मिलै मीन पतंग दसा कहा मो जियकी गति को परसे"

वे अपने प्रिया क्रूर, अत्याचारी, निठुर, निर्मम, निर्दयी आदि उपाधियों से कोसते हैं, अपने भाग्य पर क्षण -प्रति क्षण व्यथित होते रहते हैं। वियोगी के मन की दशाओं का मार्मिक तथा व्यापक उद्घाटन जैसा विरह व्यथित भावनाप्रद कविवर घनानन्द ने किया है वैसा कम ही कवि कर सक्ते।

7. प्रकृति से सम्बन्ध :

मनुष्य का प्रकृति से परंपरागत सम्बन्ध है। प्रकृति मानव के सुख-दुख में सहचरी है। मानव जीवन में प्रकृति आदयन्त माँ अथवा सहचरी के रूप में रहती है। हर कवि अपने काव्य में हर दशा में प्रकृति का वर्णन करता जाता है। अतः संयोग और बियोग में कवि प्रकृति के उद्दीपन रूप को ले लेते हैं। घनानन्द ने रसपुष्ट (रसनिष्ठ) कवि होने के कारण बाह्य प्रकृति के साथ अन्तः प्रकृति का वर्णन किया है। कभी रात्री उनको भयंकर तथा विषपूर्ण नागिन सी लगती है। चान्दिनी अग्नि के समान उनको दहती है और वर्षा की बून्हें उनको जलाती है।

"सुधा ते स्रवत विष, फूल में जमत-सूल।

तम उगलित चन्द भई नई रीति॥”

कोयल की कूक, चातक की पुकार और मयूर का नृत्य घनानन्द के विरह व्यथितय को और भी आघात पहुँचाते हैं।

"कारी कूर कोकिला कहाँ को बैर काढ़ति री,

कूकि कूकि अब ही करे जो किन कोरि लै।

पैडे परे पापी ये कलापी निस घास ज्यौं ही

चातक! धातक त्यौं ही तू हू कान फोरि लै ॥”

आखिर घनानन्द मेघों से बरसने वाली वर्षा को अपने विरह हृदय के आँसू बताते हैं।

"बूँदै न परति मेरे जान जान प्यारी तेरे।

बिरही कौं हरि मेघ आँसुनि झरयो करै॥”

दामिनी भी उनके लिए उद्दीपन का काम करती है।

"दामिन हूँ लहकि बहकि यौं जरयो करै।"

8. अनुभूति तथा अभिव्यक्ति का सामंजस्य :

घनानन्द प्रधानतया अनुभूति परक कवि हैं। उनकी हृदयानुभूति ललित अभिव्यक्ति में प्रकट हुई है। हृदय की सूक्ष्म भावनाऐं, रमणीय अभिव्यक्ति हृदय की अंन्तर्दशाओं का चित्रण आदि घनानन्द में मूर्तिमत्ता के साथ प्रकट होते हैं। घनानन्द का अभिव्यंजना कौशल निरुपम है।

9. भाषा - शैली :

घनानन्द की भाषा साहित्यिक, व्याकरण सम्मत, मुहावरेदार, लाक्षणिक युक्त और व्यंजना (हृदय ग्राह्य) प्रधान है। रीतिबद्ध कवियों में बहुत कम कवि घनानन्द्र के समकक्ष ठहर सकते हैं। घनानन्द की भाषा पद- ध्वनि तथा वाक्य- ध्वनि के साथ हृदय नाद करती है और पाठकों (या) (पाठक गणों) से हृदय नाद कराती है। भावना के वेग में उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, व्यतिरेक, रूपक, उपमा, विरोध आदि अलंकारों का समावेश हुआ है।

10. उपसंहार : 

घनानन्द व्रज भाषा प्रवीण हैं । वे रीतिमुक्त स्वच्छन्द मनोवृत्ति बाले कवि हैं। विरह की अन्तर्दशाओं और अन्तर्वृत्तियों के वर्णन में वे अप्रमेय हैं । उनके एक - एक शब्द में विरह - विह्वल हृदय बोलता है। अनुभूति की तीव्रता तथा वेदना की गहराई और व्यथा की कसक उनके काव्य के 'काव्य की आत्मा' है। साहित्यिक प्रांजल व्रज भाषा में लाक्षणिकता तथा पूर्ण व्यंजकता के वैभव में घनानन्द की कविता मनोहरता के साथ ढ़लती है। उनकी भाषा व्याकरण संपन्न तथा अर्थ समन्वित है। भाव, भाषा और काव्य की रसपुष्टि में घनानन्द का रस हृदय छलकता रहता है।

बिहारी की श्रृंगारी भावना (या) कला पर लेख लिखिए। | BIHARI

बिहारी की श्रृंगारी भावना (या) कला पर लेख लिखिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. रीति काव्य के लक्षण

3. श्रृंगार का शास्त्रीय स्वरूप

4. श्रृंगार की व्यापकता

5. संयोग पक्ष

6. नख शिख वर्णन

7. सौन्दर्य

8. उद्दीपन

9. वियोग पक्ष

10. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

श्रृंगारी काव्य रचना परम्परा में बिन्दु में सिन्धु और गागर में सागर भरनेवाले रीतिकालीन मूर्धन्य कवि बिहारीलाल का महत्वपूर्ण स्थान है। बिहारी सतसई भावपक्ष तथा कलापक्ष दोनों में अत्यधिक लोक रंजक बन गई है। कहा जाता है कि - वे आचार्य केशवदास के पुत्र हैं। उनकी पत्नी भी एक कुशल कवयत्री थी। वे राजाओं के और सामन्तों के दरबारों में कुछ श्रृंगार परक तथा अन्य दोहे सुनकर पुरस्कार तथा दक्षिणा प्राप्त करते थे। एक बार जयपूर के राजा जयसिंह नई चौहान रानी से विवाह करके उसी के साथ भोग - विलास में डूबै हुए थे। बिहारी ने -

“नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।

अली कली ही सो बाँध्यों, आगे कौन हवाल॥”

राजा जयसिंह इस दोहे का प्रतीका समझ गये। उन्होंने बिहारी का अपने दरबार में कवि के रूप में सम्मान किया। जीवन पर्यान्त बिहारी वहीं रहें और अपने रसिकतापूर्ण वैविध्य दोहों से दरबार को रंजित करते रहे।

2. रीतिकाव्य के लक्ष्ण :

रीति शब्द संस्कृत, साहत्यि शास्त्र में एक विशिष्ट स्थान रखता है। रीति संप्रदाय के नाम पर यह सिद्धान्त आचार्य वामन के द्वारा प्रयुक्त हुआ। संस्कृत के काव्यों का मार्ग ही रीति शब्द का अर्थ बताया गया - तत्र तस्मिन् काव्ये मार्गा। मतिराम, देव, सुरति मिश्र, सोमनाथ आदि ने रीति शब्द का प्रयोग किया है। डॉ. भगीरथमिश्र के अनुसार रीति शास्त्र का तात्पर्य अलंकार, रस, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि के स्वरूप भेद आदि से समन्वित ग्रन्थ है। रीतिकाल का नामकरण कुछ विद्वानों के अनुसार श्रृंगार और अलंकार से सम्बन्धित है। बिहारी सतसई श्रृंगाररस प्रधान काव्य है। यह मुक्तक काव्य है। भाषा, अलंकार, शब्द योजना तथा समास शक्ति के आधार पर भाव आम्भीर्याथ विम्बयोजना के कारण एक उक्ति प्रचार में है।

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगें घाव करें गम्भीर||"

3. श्रृंगार का शस्त्रीय स्वरूप :

श्रृंगार 'रसराज' कहलाता है। लौकिक भाषा में प्रेमही श्रृंगार है। प्रेम की व्यापक भावना श्रृंगार रस है।

'श्रृंग' का अर्थ है - कामोद्रेक और 'आर' का अर्थ है - लानेवाला । अतः कामोद्रेक लानेवाला श्रृंगार कहलाता है। इस में स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव उपकरण हैं। स्थायी भाव ही रति है। यह नर नारी के अनुराग को प्रकट करता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विभाव और संचारी भाव मानसिक पक्ष कहलाते है और अनुभाव शारीरिक पंक्ष।

4. श्रृंगार की व्यापकता :

गाथा सप्तशती, अमरुक शतक, आर्या सप्तशती आदि ग्रन्थों से बिहारी को भावप्रेरणा प्राप्त हुई। विलक्षण कल्पना, सूक्ष्म निरीक्ष्ण तथा अनुपम प्रतिभा की तूलिका से बिहारी ने सतसई में श्रृंगारी भावना को परिपुष्ट किया। बिहारी लाल संस्कृत के भी विद्वान होने के कारण अग्नि पुराण आदि ग्रन्थों का प्रभाव भी उन पर पडा। परखने पर पता चलता है कि विहारी पर कालिदास की भी छाप है। प्रेम पयोधि में पहाड़ों से भी ऊँचे रसिकों के मन डूब जाते हैं।

"गिरि तैं ऊँचे रसिक मन, बूडे जहाँ हजारू।

वहै सदा पशु नरनु कौं प्रेम - पयोधि पगारू॥”

इस के विपरीत नर रूपी पशु प्रेम रूपी सागर को कोई गढ़ा समझते हैं। तंत्रीनाद, कविता - रस, सरस राग और रति रंग में डूबने वालों का जीवन सफल बताया गया है।

"तंत्री - नाद कवित्त - रस सरस राग रति-रंग।

अन बूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अङ्ग॥”

सत्य और काव्य दोनों एक ही वस्तु हैं। काव्य की जीवन धारा सत्य है। कवि सच्चा शिक्षक है।

“अली कली ही सो बाँयों आगे कौन हवाल।"

उक्ति के द्वारा बिहारी ने श्रृंगार का अनौचित्य रूप प्रस्तुत करके राजा जयसिंह के नेत्र खोल दिये और राजा को कार्योन्मुख किया।

5. संयोग पक्ष : :

संयोग पक्ष में आलम्बन, आश्रय आदि होते हैं। हास्य तथा विनोद के साथ प्रेमियों के नाना प्रकार की क्रीडाएँ होती हैं। साहित्य शास्त्र में संयोग की पृष्टभूमि पूर्वराग है। सौन्दर्य छवि से उन्मन्त नाइका का पूर्वराग देखिए -

"डर न टरै, नींद न परै हरै न काल बिपाकु।"

इसी प्रकार बिहारी सद्यः स्नाता का मनोहर रूप हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं।

"छुटी न सिसुता की झलक, झलकौ जोवन अंग।"

यौवन का उभार कविवर बिहारी विम्बात्मकता के साथ प्रस्तुत करते है।

"दुरत न कुच बिच कंचुकी चुपरीः सारी सेत।"

6. नख शिख वर्णन : :

नख - शिख वर्णन काव्य का एक प्रधान अंग है। चाहे महाकाव्य हो या खण्ड काव्य हो नाइका का नख - शिख वर्णन किसी किसी रूप में प्रस्तुत होता ही रहता है। बिहारी वस्तुतः श्रृंगारी कवि होने के कारण नाइका के सौन्दर्य वर्णन - न - में अत्यन्त प्रमुख तथा सफल हुए हैं। उदाहरण के लिए नाइका का मुख वे 'आनन ओप उजास' कहते हैं। नाइका की दृष्टि पर वे कलम चलाते हैं।

"भौंह उँचै आँचरु उलटि मौरि मोरि मुँहु मोरि ।

नीठि नीठि भीतर गई, दीठि दीठि सौं जोरि ॥”

7. सौन्दर्य :

नख शिख वर्णन करना एक प्रकार से कवि परंपरा (Treadition) है। लेकिन नाइका के सौन्दर्य जगत को पाठक के सामने मनोहर रूप में चित्रांकित करना सच्चा कवि कर्म है।

कवि की प्रतिभा में विद्वत्ता के साथ-साथ भावना तथा काल्पनिक वैविध्य होना चाहिए। क्षण क्षण बदलते हुए नाइका का सौन्दर्य विशेष बिहारी अनुपम ढंग से प्रस्तुत करते हैं।

"लिखन बैठि जाकी सबी, गहि गहि गरब गरुर।

भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर।"

बिहारी लाल के इस सौन्दर्य वर्णन पर महाकवि माघ कृत.-

‘क्षणे - क्षणे यन्नवतामुपैति, तदेक रूप रमणीयतायाः' का प्रभाव है। संयोग के अन्तर्गत बिहारी ने जलक्रीडा, आँख मिचौनी, झूला झूलना, फाग खेलना आदि सभी प्रकार की विलास केलियों का वर्णन किया है।

8. उद्दीपन :

उद्दीपन का श्रृंगार रस में महत्त्वपूर्ण स्थान है। आलम्बन की चेष्टाएँ उद्दीपन मानी जाती हैं। ऋतु वर्णन में भिन्न - भिन्न ऋतुओं से संबन्धित त्योहारों का भी वर्णन किया जाता है। निम्न लिखित वसन्त चित्र में उद्दीपन की मात्रा देखिए।

“छकि रसाल - सौरभ सने मधुर माधुरी गंध।

ठौर-ठौर झौंहत झपत भौर झौर मधु अंध॥"

विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से बिहारी की 'सतसई' सचमुच श्रृंगार रस का 'सदन' बन गयी है। संयोग श्रृंगार का एक दोहा अवलोक करें

"चमक तमक हाँसो ससक मसक झपट लमटानि।

ए जिहि रति सो रति मुक्ति और मुकति अति हानि॥"

9. वियोग पक्ष :

संयोग में कवि नायक तथा नाइका के बाह्य पक्ष तक ही सीमित रहता है। वियोग पक्ष में अधिकांश कवियों की मर्म वेदना प्रकट होती है। नायक और नाइका को आलम्बन बनाकर कवि अपनी अन्तर्वेदना प्रकट करता है। वियोग श्रृंगार में आत्म प्रसार होता है। अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुण, कंपन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जडता और मरण वियोग के फल माने जाते हैं। सतसई के दोहों का शब्द - शब्द और अक्षर - प्रत्यक्षर वियोग श्रृंगार के लिए भरमार है। नाइका का हृदय पसीज - पसीज कर नेत्रों में आँसू के द्वारा बहता है।

"हियौ पसीजि पसीजि हाय, दृग द्वार बहत है"

वियोग पक्ष में बिहारी लाल अधिकांश अतिशयोक्ति को आधार बनाते हैं। विरहणी नाइका पर डाला जाने वाला गुलाब जल बीच में ही भाप बनकर जाता है। उसी प्रकार वियोग व्यथा से व्याकुल तथा कृशित नाइका साँस के साथ आगे और पीछे चली।

"औंधाई सीसी सुलखि बिरह बरनि बितलात।

नहीं सूखि गुलाबु गौ छींटौ छई न गात॥”

"इति आवति चलि जाति उत, चली छसांतक हाथ । चढ़ी हिंडोरै सै रहै लगी उसासनु साथ॥"

वियोग में पूर्वराग, मान, प्रवास तथा करुणा के स्तर होते हैं। प्रवास के समय नाइका पियतम के निरीक्षण में व्याकुलपूर्ण जीवन बिताती है। विरह व्यथिता नाइका को कभी-कभी नायक से पत्र मिलता है तब नाइका उस पत्र को झूम झूम कर तथा चूम चूम कर हृदय पर लगा लेती है।

"कर लै चूमि चढ़ाइ सिर, उर लगाइ, भुज, भेंटि।

लहि पाती पिय की लखति बाँचति धरति समेटि॥"

बिहारी की नाइका प्रियतम को पत्र लिखना चाहती है, लेकिन कागज पर अक्षर लिख न पाती वह जिस कागज का स्पर्श करती है उस की विरहाग्नि के कारण वह पत्र जल जाता है। इसलिए वह पत्र लिख न पाती। कभी-कभी व्यक्ति के द्वारा सन्देश भेजना चाहती हो (होगी) संस्कार के कारण वह शर्माती है। इसी लिए वह कह देती है कि मेरे हृदय की बात उसका (नायक का) हृदय जानता है।

कागद पर लिखत न बनत, कहत संदेसु लजात।

कहिंहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥

10. उपसंहार :

श्रृंगार रस संसार में हर जीव के लिए अनुभवगम्य है। इस में अतुलित आनन्द की प्राप्ति होती है। बिहारी लाल रीतिकालीन श्रृंगार रस के सम्राट हैं। लेकिन श्रृंगार रस पोषण शब्द चयन के साथ ही अधिक हुआ है। प्रधानतया वियोग श्रृंगार में वियोग जन्य भाव गंभीरता बिहारी जायसी और तुलसी के समकक्ष नहीं कर सके। विरहणी नाइका के अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन में कभी हँसी मजाक आ गया है। अधिक ऊहात्मकता के कारण वियोग वर्णन में कहीं-कहीं अस्वभाविकता आ गई है।

बिहारी की काव्य कला पर चर्चा कीजिए। | BIHARI LAL

बिहारी की काव्य कला पर चर्चा कीजिए।
(अथवा)
रीति कालीन मूर्धन्य कवि बिहारी के काव्य सौष्ठव का विवेचन कीजिए।
(अथवा)
गागर में सागर और बिन्दु में सिन्धु भरनेवाले रीति कालीन विशिष्ट कवि बिहारी लाल की काव्य कला पर झाँकी डालिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. युग की परिस्थितियाँ

3. श्रृंगारी भावना

क. संयोग पक्ष

ख. वियोग पक्ष

4. भक्ति भावना

5. प्रकृति चित्रण

6. सूक्ति तथा नीति

7. विद्वत्ता

8. अलंकारयोजना

9. भाषा – शैली

10. उपसंहार

1. प्रस्तावना

शृंगारी काव्य रचना परम्परा में बिन्दु में सिन्धु और गागर में सागर भरनेवाले रीतिकालीन गर्भन्य कवि बिहारीलाल का यपूर्ण स्थान है। बिहारी सतसई भावपक्ष तथा कलापक्ष दोनों में अत्यधिक लोक रंजक बन गई है। कहा जाता है कि वे चार्य केशवदास के पुत्र हैं। उनकी पत्नी भी एक कुशल कवयत्री थी। वे राजाओं के और सामन्तों के दरबारों में कुछ श्रृंगार क तथा अन्य दोहे सुनाकर पुरस्कार तथा दक्षिणा प्राप्त करते थे। एक बार जयपुर के राजा जयसिंह चौहान रानी से विवाह के उसी के साथ भोग-बिलास में डूबे हुये थे। बिहारी ने.....

"नहिं परग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।

अनी कली ही सौ बाँध्यो, आगे कौन हवाल॥"

राजा जयसिंह इस दोने का प्रतीकार्थ समझ गये। उन्होंने बिहारी का अपने दरबार में कवि के रूप में सम्मान किया। जीवन - बिहारी वहीं रहें और अपने रसिकतापूर्ण वैविध्य दोहों से दरबार को रंजित करते रहे।

2. युग की परिस्थितियाँ :

बिहारी का युग बिलकुल बिलासपूर्ण था। मुसलमानी शासन का बोलबाला था। मुसलमानों की संस्कृति के सामने हिन्दू संस्कृति कुछ झुकी हुई थी। बादशाह, राजा, अमीर आदि विलासिता में डूबे हुए थे। धार्मिक संप्रदाय भी चलते थे। लेकिन सारा वातावरण श्रृंगारी रस व्यंजना में अधिक डूबा हुआ था। संस्कृत साहित्य को आधार बनाकर व्यावहारिक ज्ञान से काव्य का निर्माण होता था।

बिहारी के व्यापक परिवेश में नारी भावना केन्द्रित थी। नारी की चमक, दमक, हाँसी, दीरघनयन, भौहें, नख - शिख वर्णन, वयः सान्धि, नारी के विविध अनुभाव आदि आदि का बिहारी ने रसमय वर्णन किया।

3. श्रृंगारी भावना :

बिहारी लाल हिन्दी साहित्य के श्रेष्टतम श्रृंगारी कवि हैं। लौकिक भाषा में प्रेम को श्रृंगार कहते हैं। लेकिन वास्तव में श्रृंगार प्रेम की व्यापक भावना है।

'श्रृंग' का अर्थ है - कमोद्रेक

'आर' का अर्थ है - लानेवाला

नर- नारी के परस्पर झुकाब को 'रति' कहते हैं। इस में बाह्य सौन्दर्य की मात्रा अधिक होती है। विभाव और भाव, रति का मानसिक पक्ष है और अनुभाव शारीरक पक्ष है।

बिहारी ने श्रृंगार के सारे पक्षों का विवरण दिया है।

क संयोग पक्ष : बिहारी नाइका के पूर्वराग की झलक बताते है।

"डर न टरै नींद न परै हरै न काल बिपाकु!'

इसी प्रकार नायक और नाइका के बीच होनेवाले अनुभाव पूर्ण चमत्कार को बिहारी इस प्रकार प्रस्तुत करते है -

"चमक, तमक, हाँसी, ससक, मसक, झपट, लपटानि।

ए जिहि रति, सो रति मुकति और मुकति अति हानि॥"

नाइका के उभरे यैवन का बिहारी चित्रांकन करते हैं।

दुरत न कुचबिच कंचुकी चुपरि

नाइका की सौंदर्य विशेषता बिहारी अतिशियोक्ति के साथ प्रस्तुत करते हैं।

लिखन बैठि जाकी सबी गहि- गहि गरब गरूर।

भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर ॥

विभाव पक्ष में कभी आलम्न की चेष्टाएँ उद्दीपन का काम करती है। नाइका नायक पर गुलाल की मूठ चलाती है।

पीठि दिये ही, नैक मुंरि, कर घूँघट - पटु टारि ।

भरि गुलाल की मूठि सौं, गई मूठि सी मारि ॥

ख. वियोग पक्ष :- वास्तव में श्रृंगार को रसराज कहते हैं। संयोग में तो प्रेम एकन्त रूप में और सीमित रहता है। वियोग में आत्मा का प्रसार अधिक होता है। नदी, पहाड, लता, वृक्ष आदि वियोग में उद्दीपन का काम करते हैं। प्रकृति में प्रियतम की झलक दिखाई देती है। हृदय की वीणा जितनी विप्रलम्भ श्रृंगार में झंकृत होती है, उतनी संयोग श्रृंगार में नहीं। विप्रलम्भ में हृदय की मर्म वेदना का झंकार होता है। कालिदास का मेघदूत वियोग श्रृंगार का सुन्दर काव्य है। बिहारी ने वियोग पक्ष का भी सुन्दर चित्रण किया है। अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुणगान, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि और मरण- वियोग की सारी दशाओं पर बिहारी ने अपनी तूलिका फेरी।

वास्तव में वियोग विरह में मनुष्य सूखकर काँटा हो जाता है। विरहाज्ञी के कारण नाइका के ऊपर गिरनेवाला गुलाब जल भी भाप बन जाता है। नाईका का शरीर क्षण-क्षण क्षीण हो जाता है।

“करी बिरह ऐसी तऊ गैल न छाड़तु नीचु।

दीनै हूँ चसमा चखनु, चाहे लहै न मीचु॥”

वियोग श्रृगार पूर्वराग, मान, प्रवास और करुणा - सारे रूपों पर बिहारी ने बल दिया है। अधिक विषय गमन - प्रवास में रहने वाले प्रियतम का पत्र मिलने पर नाइका प्रेमाभिव्यंजना व्यक्त करती है - वह पत्र को बार बार चूम लेती है और सिर पर उसे रख लेती है। फिर हृदय पर लगा लेती है। -

"कर लै, चूमि, चढ़ाइ सिर, उर लगाइ, भुज भेंटि।

लहि पाती पिय की लखति, बाँचति धरति समेटि॥”

प्रिय को वह सन्देश भेजना चाहती है। लोकिन कागज पर लिखा न बनता।

"कागद पर लिखत न बनत, कहत संदेसु लजात।

कहि है सबु तेरों हियौं, मेरे हिय की बात॥”

संयोग का वर्णन अधिक स्वभाविक होता है और वियोग में कहीं नाइका का शरीर जलता है। गुलाब का जल एक बूँद भी उसके शरीर पर नहीं गिरता। साँस लेते विरहिणी नाइका दुर्बलता के कारण आगे-पीछे होती रहती है।

"औंधाई सीसी सुलखि बिरह - बरनि बिललात।

बिच हीं सूखि गुलाबु गौ, छींटौ छुई न गात ॥”

“इति आवति चलि जाति उत चली छसातक हाथ।

चढ़ी हिंडौरै सैं रहै, लगी उसासनु साथ ॥"

4. भक्ति भावना :

विहारी लाल वस्तुत: श्रृंगारी कवि है। साथ ही उन में माधुर्य, सख्य, हास्य आदि सभी प्रकार की भक्ति के तत्त्वं समन्वित हुये हैं। वे वाह्याडम्बरों का निराकरण करके मन की पवित्रता की आवश्यकता बताते हैं।

"जपमाला छापै तिलक सरै न एकौ कामु ।

मन - काँचै नाचै वृथा साँचै राँचै रामु॥”

सांसारिक विषय वासनों में न गिरकर भगवान का दिया हुआ स्वीकार करने की वे सलाह देते हैं।

दीरघ साँस न लेहि दुख, सुख साईहिं न भूलि।

दई दई क्यों करतु है, दई दई सु कबूलि।।.

5. प्रकृति चित्रण :

प्रकृति सदा मानव की सहचर रही है। प्रकृति के बिना कोई जीव-जन्तु पनप नहीं सकता। अत. सौदयांनुभूति तथा ललिंत अभिव्यक्ति के लिए प्रकृति अत्यन्त आवश्यक है। अतः हम यह कह सकते हैं कि प्रकृति चित्रण के बिना कविता ही नहीं। बिहारी प्रकृति चित्रण में मानवीयता की ओर अधिक झुकते हैं। उद्दीपन और अलंकारों की अद्भुत समन्वयता के लिए प्रकृति को ले लेते हैं। वे कहीं-कहीं प्रकृति के मानवीकरण की सूक्ष्मता तक जाते हैं।

बैठि रही अति सघन वन, पैठि सदन तन माँह।

देखि दुपहरी जैठ की, छाँहीँ चाहति छाँह।।

संयोग और वियोग पक्ष दोनों में प्रकृति चित्रण का महत्वपूर्ण स्थान होता है जिसे बिहारी लाल ने सफलता के साथ निभाया है।

6. सूक्ति तथा नीति

बिहारी लाल दरबारी कवि होने पर सूक्ति तथा नीति परक दोहों की रचना भी उन्होंने की। समाज द्वन्द्वात्मक होता है। इसलिए समाज में जो सत तथा असत होते हैं। उनका सूक्ष्म अनुशीलन करके बिहारी दरबार के सामने प्रस्तुत करते हैं।

उदा -

यमक तथा काव्य लिंग अलंकारों से समन्वित यह दोहा देखिए -

"कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।

यह खाये बौराय जग, ये पाये बौराय॥”

इसी प्रकार संसार में कोई भी सुन्दर नहीं और ओई भी असुन्दर नहीं। समय के अनुसार और देखने वालों के अनुसार कोई चीज सुन्दर दिखाई देती है और कभी कोई वस्तु असुन्दर दिखाई देती है। मानवों में भी सुन्दरता के बारे में यही विषय बताया है गया है।

"समै समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न कोई।

मन की रुचि जेती जितै तित तेती रुचि होइ!!

अनेक स्थानों पर बिहारी नर की उन्नति का रहस्य नल के पानी की तुलना से करते है।

7. विद्वत्ता :

कवि अक्षर तपस्वी तथा सुवर्णयोगी होता है। इसलिए विविध विषयों का ज्ञान आवश्यक है। गणित, ज्योतिष, इतिहास, नीति, आयुर्वेद, विज्ञान आदि विषयों का ज्ञान बिहारी रखते हैं। इनका ज्ञान भण्डार बहु व्यापक है। ज्योतिष तथा विज्ञान संम्बन्धी यह दोहा देखिए –

“पत्रा ही तिथि पाइयै वा घर कै चहुँ पास।

नित प्रति पून्यौई रहै, आनन- औप- उजास॥"

8. अलंकारयोजना :

बिहारी की 'सतसई' बिन्दु में सिन्धु भरने वाली तथा गागर में सागर भरने वाली अलंकारों से समन्वित अनमोल कविता की भरमार है। उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा अलंकारों का अधिक प्रयोग बिहारी ने किया है।

“जदपि सुजाति सुलच्छनि सुवरन सरस सुवृत्त।

भुषण बिनु न विरजहि कविता वनिता मित्त॥”

उपर्युक्त केशवदास जी का दोहा, बिहारी कविता माधुरी अतिशयोक्ति का यह दोहा, बिहारी लाल की भाव पटिमा, मनोहर सौकुमार्य का वर्णन तथा नाइका की शोभा का वर्णन चित्रित करता है। बिहारी की अलंकार योजना व्यापक है। कोमलांगी नाइका तन पर भूषणों का भार कैसे सभ्भाल सकती है। उसके पाँव तो पहले ही शोभा के भार से डगमगा रहें हैं। इस प्रकार की भावना कुशल कवि ही कर सकता है।

"भूषन-भार संभारिहै, क्यों इहि तन सुकुमार।

सूधे पाइ न घर परै सोभा ही कैं भार॥”

उपमान के सहारे अनूठी-अनूठी चित्रात्मक अप्रस्तुत योजना का सौन्दर्य उत्प्रेक्षा के द्वारा अंकित हुआ है।

“चमचमात चंचल नयन, बिच घूँघट पर झीन।

मनहु सुर सरिता - बिमल जल उछरत जुग मुनि॥"

विरोधाभास के चमात्कार में कविवर बिहारी तंत्रीनाद कविता की मांधुरी रस युक्त संगीत और रति के श्रृंगार में डूबने वालों का जीवन धन्य बताते हैं।

"तंत्री - नाद कवित- रस सरस राग, रति रंग।

अनचूड़े बूडे तरे जे बूड़े सब अङ्ग॥"

9. भाषा - शैली : :

बिहारी की भाषा व्रज है। अन्य भाषाओं के शब्द प्रयोग भी बिहारी ने किया है। बिहारी ने तत्कालीन प्रचलित साहित्य ब्रज का प्रयोग किया है। भाषा को कहीं-कहीं उन्होंने तोड- मरोड़कर दोहों में जमाया है। संस्कृत शब्दों का समाहार भी बिहारी 7 में प्राप्त होता है। अरबी और फारसी शब्दों का प्रयोग भी बिहारी ने किया है।

बिहारी की भाषा शैली माधुर्य गुण प्रधान है। शब्द चधन तथा मुहावरों लोकोक्तियों के प्रयोग ने भाषा-1 शैली को सुसज्जित किया है। कभी कहीं व्याकरण संबन्ध कुछ इने गिने दोष भी कुछ पण्डित बिहारी में ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं। - बिहारी की भाषा सशक्त, चुस्त प्रवाहपूर्ण साहित्यिक ब्रज है। उनकी वाक्य रचना व्यवस्थित और शब्द चयन अनूठा है। समास शक्ति वाग्विदग्ध अलंकारों का समावेश बिहारी की भाषा शैली के परिपोषक हैं।

10. उपसंहार :

रीति कालीन कविरत्न बिहारी लाल अपनी सतसई के कारण विख्यात हुए। किसी भी कबि की मान्यता उनकी रचनाओं की गणना से न होकर उनके गुण विशेष से होती है। बिहारी की सतसई मुक्तक बना बनाया दोहों का गुलदस्ता है। अनुभावों तथा भावों की योजना में रीति कालीन कवियों में बिहारी ताल बेजोड़ हैं। शोभा, सुकुमारता, बिरह ताप, बिरह की क्षीणता आदि के वर्णन में बिहारी ने कहीं-कहीं अतिशयोक्ति का आश्रय लिया है। उनके बहुत से दोहे आर्या सप्तशती तथा गाथा सप्तशती की छाया लेकर बने हुए है। बिहारी की कविता में श्रृंगार रस की अधिकता होने पर भी अनुभूति की गहनता नहीं।

अनुभावों का बिहारी ने विशद वर्णन किया और भाव संकेतों का कलात्मक नियोजन भी किया। प्रतिभा, निपुणता और अभ्यास तीनों का बिहारी की कला में योगदान है। कहने की आवश्यकता नहीं कि बिहारी रीति कालीन मूर्धन्य कवि हैं। उनका हर शब्द रस व्यंजित है। गागर में सागर भरने वाला, बिन्दु में सन्धु भरने वाला तथा रीतिकालीन श्रृंगार का उत्कृष्ट कवि है, बिहारीलाल।

महाकवि तुलसीदास की समन्वय साधना का विश्लेषण कीजिए। | TULASIDAS

महाकवि तुलसीदास की समन्वय साधना का विश्लेषण कीजिए।
(अथवा)
तुलसीदास लोकनायक कहलाते हैं - किसलिए?
(अथवा)
गोस्वामी तुलसीदास के लोकनायकत्व पर विचार कीजिए।
(अथवा)
'लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके', इस उक्ति की पृष्टि पर विचार कीजिए।

रूपरेखा ::

1. प्रस्तावना

2. तुलसी का युग

3. तुलसी की समन्वय वचारधारा

4. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

हिन्दी साहित्याकाश में महाकवि तुलसीदास सतत प्रसन्न चन्द्रमा है। किसी ने सही ही कहा सूर 'सूर तुलसी ससि' गोरखामी तुलसी दास के बारे में बताना सारे आकाश की चित्रकारी करने के समान है अथवा सारे समुद्र के पानी को उलींचने के समान है। तुलसीदास को नाभादास ने कलियुग वाल्मीकि का अवतार कहा है। वेदों में पुराणों में, शास्त्रों में तथा काव्यों में बताये गये, रामतत्त्व को उन्होंने अपने महान काव्य रामचरित मानस में ढालकर जन मानस में रामभक्ति का संचार कराया। भारतीय संस्कृति, चरित्र चित्रण, रसपरिपाक आदि में रामचरितमानस का संमतुल्य करनेवाला काव्य हिन्दी साहित्य जगत में कोई अन्य नहीं। बाल्मीकि रामयण में बताये गये राम के धर्म स्वरूप (रामो विग्रहवान धर्मः) को लेकर उन्होंने मर्यादा पुरोषत्तम के रूप में प्रस्तुत किया।

2. तुलसी का युग -

तुलसीदास का जन्म अनेक विश्रृंखलताओं के युग में हुआ - देश के धार्मिक भेद में नाना प्रकार के संप्रदाय प्रचलित थे। एक ओर अलख जगाने वाले नाथ-पंथि योगियों का प्रशिक्षित वर्ग पर प्रभाव पड रहा था, तो दूसरी ओर जात-पांत के विरोधी कबीरदास अलखोपासना का संदेश सुना रहे थे। शाक्त संप्रदाय में वामपक्ष तथा दक्षिण पक्ष प्रबल हो रहे थे। वामपक्ष में मद्य, माँस, मत्स्य, मुद्रा तथा मैथुन पंचमकारों की वासनामय उपासना होने लगी! शैदों और वैष्णवों के बीच भेद उत्पन्न हुए। फिर वैष्णवों में भी राम भक्ति शाखा तथा कृष्ण भक्ति शाखा के बीच मतभेद होने लगे। अदद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद और दद्वैतवाद में परस्पर संघर्ष होने लगा। राजनीतिक दृष्टि से विदेगीजाति ने भारतीय जनता को अपने शासन के अधीन कर लिया। वह सच्चा कलियुग (पाप का युग) था।

“गोड गँवार नृपाल महि, यमन महा महिपाल।

साम न दान न भेद, कलि केवल दण्ड कराल॥"

तत्कालीन समाज आर्थिक रूप से भी विपिन्न था। दंपति सुख भोगों में मग्न होकर पारिवारिक कर्तव्यों की उपेक्षा करते थे। नव यौवना पत्नी के सौन्दर्य के लोभ में अनेक युवक अपने माता- पिता की उपेक्षा कर रहे थे। युवक अति विलासिता में भंग होने के कारण सामाजिक जीवन में शिथिलता आने लगी। वेद और धर्म दूर हो चुके थे। धार्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक तथा आर्थिक दृष्टि से तुलसी के समय समाज ह्रासोन्मुख था।

तुलसीदास ने तत्कालीन समाज को परखा। लोकमंगल की भावना उनके हृदय में जागरित हुई। समाज में धार्मिक सांस्कृतिक, तथा आर्थिक करने की हुई, गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस द्वारा समाज को रक्षक मर्यादा पुरुषोत्तम राम के दर्शन कराये। उनकी रामायण श्रुति सम्मत है। उनके राम शील, शक्ति तथा सौन्दर्य के प्रतिरूप है।

3. तुलसीदास की समान्वय विचारधारा -

(क) साहित्यिक समन्वय :- तुलसीदास में साहित्यिक समान्वय भावना गोचर होती है। आप की कृतियाँ तीस से अधिक बताई जाती हैं, लेकिन उन में बारह ही आज प्राप्त हैं।

1. रामचरिमानस उनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है, जो प्रबन्ध काव्य है। इस में संपूर्ण रामकथा का विवरण है।

2. विनयपत्रिका भक्ति समन्वित पदों की रचना है। इस काव्य में तुलसी की भक्ति विशेषता का चरमोत्कर्ष प्रकट होता है।

3. कवितावली - कवितावली में कवित्त, सवैया, छप्पय आदि छन्दों का समाहार है।

4. गीतावली - रामकथा की गीतरचना है।

5. दोहावली - इस में नीति, भक्ति, नाम महिमा आदि का उल्लेख तथा बिवरण हुआ है।

6.कृष्ण गीतावली - कृष्ण गीतावली में कृष्ण की महमा की कथा है।

7. पार्वती मंगल - यह शैव संप्रादाय की पुष्टि में लिखा हुआ काव्य है। इस प्रकार तुलसी ने तत्कालीन सारी काव्य शैलियों में कृतियों की रचना की।

(ख) धार्मिक समन्वय :- महाकवि तुलसीदास ने धार्मिक क्षेत्र में समन्वय लाने का प्रयत्न किया। शिव, राम की स्तुति करते हैं और राम शिव का स्मरण करते हैं। राम स्वयं कहते हैं -

शिब द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहु मोहि न पावा।

संकर विमुख भगति चहु मोरी। सो नर की मूढ़ मति थोरी॥

रामचरित को शिव अपने हृदय में रख लेते हैं। इसलिए इस काव्य का नाम रामचरितमानस रखा गया है। निर्गुण और सगुण में समन्वय लाते हुए उन्होंने कहा है -

अगुनहिं सगुनहि नहिं कछु भेदा।

भक्ति और ज्ञान में समन्वय लाते हुए तुलसी ने बताया –

“भगतिहि म्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहि भव संभव खेदा॥"

(ग) राजनीतिक समन्वय :- गोस्वामी तुलसीदास एक ओर तत्कालीन विश्रृंखल शासन का तिरस्कार करते हुए रामराज्य की स्थापना भारत से चाहते हैं।

"दैहिक, दैविक, भौतिक, तापा। रामराज्य काहु हि नहि व्यापा॥"

(घ) सामाजिक समन्वय :- रामचरितमानस में वर्णाश्रम धर्म का विवरण हुआ है। जिस में राजा - प्रजा का संबन्ध, माता पिता का संबन्ध, पिता पुत्र का संबन्ध, भाई- भाई का संबन्ध, सास बहू का संबन्ध - स्वामी सेवक का सबन्ध आदि का चित्रण मर्यादा पूर्वक हुआ है। इस से तुलसीदास सामाजिक क्षेत्र में समन्वय भावना की इच्छा रखते हैं। सीता और राम भगवान के स्वरूप होते हुए भी साधारण प्रजा से और बन में विचरने वाले कोल किरातों से हृदयाविष्कार के साथ व्यवहार करते हैं। इसीलिए राम शील, शक्ति तथा सौन्दर्य के समन्वय रूप माने जाते हैं। सीता और राम के अवतार स्वरूप मे सारे विश्व में प्रतिबिंबित होते हुए तुलसीने बताया।

सीय राम मय सब जग जानि। करउ प्रणाम जोरि जुग पानि॥

रामराज्य में सब लोग दान देनेवाले ही थे। लेनेवाला कोई भी नहीं था। यहाँ तुलसीदास आर्थिक तथा नैतिक समन्व्य करते हैं।

(ङ) दार्शनिक समन्वय :- तुलसीदास की विचार धारा में कोई नई बात नहीं थी। जो कुछ भी उन्होंने कहा है श्रृति सम्मत कहा है। उपयुक्त विषय के संग्रह में और अनुपयुक्त विषय को त्यागने में वे अत्यन्त सफल थे। फिर वे अपने सिद्धान्तों को रामचरितमानस के द्वारा जन मानस में व्याप्त करते गये। उन सिद्धान्तों का सार ही तुलसी मत है। उनका मानस नाना पुराण निगमागम सम्मत होने के कारण उनका रामकाव्य महान समन्वय काव्य बन गया है। गोस्वामी जी की भक्ति श्रुति सम्मत है।

तुलसी ने तत्कालीन सारे दार्शनिक विचारों को परखा और सब का समन्वय किया। उपनिषदों का ब्रह्मवाद, गीता का अनासक्ति योग, वौद्धों और जैनों का अहिंसा वाद, वैष्णवों और शैवों का अनुराग - विराग, शक्तों का जप, शंकर का अद्वैतवाद, रामानुज की भक्ति भावना, निंबार्क का द्वैताद्वैत, मध्व की रामोपासना, बल्लभ का बालरूप आराध्य, चैतन्य का प्रेम, कबीर आदि सतों का नाम जप आदि - आदि तुलसी के रामचरितमानस में दर्शित होते हैं।

उपसंहार

धर्म ग्लानि होने पर, समय समय पर लोकनायक अवतरित होते हैं और लोक रक्षा अपने-अपने बिधान से करते हैं। -

उदा - यदा... यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।

धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥ .

जिस प्रकार महाभारत काल में योगिराज कृष्ण ने ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय करके समाज का पथप्रदर्शन किया, उसी प्रकार महाकवि तुलसीदास ने भारतीय समाज में दर्शनिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक, पारिवारिक तथा साहित्यिक समन्वय करके समाज को प्रशारत किया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है. "भारत वर्ष का - लोक नायक वही है जो समन्वय कर सके। तुलसी ही समन्वयकारी थे। रामचरितमानस आद्यन्त समन्वय काव्य है।"

तुलसीदास ने तत्कालीन समाज को परखा। उन में लोक मंगल की भावना जागरित हुई। श्रुति सम्मत आदर्श राम कथा रची। उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र संसार को दिया। जड चेतन गुण दोषमय संसार को पार करने के लिए तुलसी ने समाज को रामरस का पान कराया। शील, शक्ति तथा सौन्दर्य का समन्वय ही रामचरितमानस है। तुलसी का मानस आत्म सुख प्रदान करनेवाला महान काव्य है। तुलसी की समन्वय भावना अतुलित है। इसीलिए वे लोक नायक कहलाते हैं।

“कविता करके तुलसी न लसे। लसी कविता पा तुलसी की कला॥“ – हरिऔध

रामभक्ति शाखा के प्रवर्तक तुलसीदास के बारे में चर्चा कीजिए। | TULASIDAS |

रामभक्ति शाखा के प्रवर्तक तुलसीदास के बारे में चर्चा कीजिए।
(अथवा)
हिन्दी साहित्य के महान कवि तुलसी के बारे में आप क्या जानते है।
(अथवा)
गोखामी तुलसीदास की भक्ति भावना पर चर्चा कीजिए।
(अथवा)
तुलसी की काव्य पद्धति पर चर्चा कीजिए।

रुपरेखा -

1. प्रस्तावना

2. जीवनी

3.रचनाएँ

4. तुलसी की रामभक्ति

5. अवतार के हेतु

6. राम के विविध रूप

7. शील, शक्ति तथा सौन्दर्य

8. आत्म - धर्म

9. राम नाम की महत्ता

10. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

हिन्दी साहित्याकाश में महाकवि तुलसीदास सतत प्रसन्न चन्द्रमा हैं। किसी ने सही ही कहा - 'सूर सूर तुलसी ससि' गोस्वामी तुलस दास के बारे में बताना सारे आकाश की चित्रकारी करने के समान है।' अथवा सारे समुद्र के पानी को उलीचने के समान है। तुलसीदास को नाभादास ने कलियुग वाल्मीकि का अवतार कहा है। वेदों में पुराणों में, शास्त्रों में, तथा काव्यों में बताये गये, रामतत्त्व को उन्होंने अपने महान काव्य रामचरितमानस में ढालकर जन-मानस में रामभक्ति का संचार कराया। भारतीय संस्कृति, चरित्र चित्रण, रसपरिपाक आदि में रामचरितमानस का समतुल्य करनेवाला काव्य हिन्दी साहित्य जगत में कोई अन्य नहीं। वाल्मीकि रामयण में बताये गये राम के धर्म स्वरूप ( वेग्रहवान धर्मः) को लेकर उन्होंने मर्यादा पुरोषत्तम के रूप में प्रस्तुत किया।

2. जीवनी -

अन्तः तथा बाह्य साक्ष्यों के आधार पर तुलसीदास सरयू पारीण बाह्मण माने जाते हैं। माता का नाम हुलसी और पिता का नाम आत्मारामदुबे था। मूला नक्षत्र में जन्म लेने के कारण और जन्मते ही माना का स्वर्गवास होने के कारण पिता ने तुलसी को त्याग दिया। तुलसीदास जन्म लेते ही राम नाम का स्मपण करने लगे तो उनका नाम रामबोला रखा गया। पिता से परित्यक्त रामबोला (तुलसी) का पालन पोषण मुनिया नामक दासी से हुआ। पाँच वर्ष के बाद मुनिया का स्वर्गवास हो गया, तो तुलसी दास घर- घर भीख माँगते फिरे। तुलसी ने सूकर क्षेत्र में बाबा नरहरिदास से राम की कथा सुनी। शेष सनातन के पास रहकर काशी में उन्होंने वेद, उपनिषत्, शास्त्र, विविध पुराण आदि का अध्ययन किया।

कहा जाता है तुलसी अपनी पत्नी रत्नावली पर अधिक मोहित थे। इस पर एक बार उनको रत्नावली से मीठी भर्त्सना (मजाक से तिरस्कार करना) खानी पड़ी।

लाज न लागत आप को दौरे आयउ नाथ।

अस्तिचर्म मय देह मम ता में जैसी प्रीति॥

पत्नी की भर्त्सना तुलसीदास के लिए उपदेश बन गई। वे बदरीनाथ, काशी, द्वारका, पुरी, चित्रकूट, अयोध्या आदि तीर्थ स्थानों में घूमते रहे। भगवान राम उनके हृदय का केन्द्र बिन्दु बन गये।

3. रचनाएँ : :

तुलसीदास ने राम को केन्द्र बिन्दु बनाकर अनेक काव्यों की रचना की। उन में आज बारह (12) मात्र उपलब्ध हैं -

1. रामचरितमानस, 2. विनय पत्रिका, 3. कवितावली, 4. दोहावली, 5. गीतावली, 6. बरवै रामायण, 7. जानकी मंगल, 8. रामाज्ञा प्रश्न, 9. वैराग्य संदीपनी, 10. रामलला नहछू और समन्वयवादी होने के कारण तुलसीदास ने कृष्णभक्ति से संबन्धित कृष्णगीतावली और शैव भक्ति से संबन्धत पार्वती मंगल काव्य की रचना की है।

4. तुलसी की राम भक्ति

गोस्वामी तुलसीदास क्रमशः निर्गुण, सगुण अवतारबाद को लेकर चलते हैं। उनकी भक्ति श्रुतिसम्मत है। (वेद सम्मत) वे राम परब्रह्मत्व को शिव, ब्रह्मा और विष्णु भी महान मानते हैं जो रूप, नाम और रहित है।

"एक अनीह अरूप अनामा सच्चिदानन्द परधामा।।

व्यापक विश्वरूप भगवाना। तेहि धरि देहचरित कृत नाना॥

राम निर्गुण होते हुए भी सगुण हैं। व्यापक निर्गुण ब्रहम सगुण ब्रह्म के रूप अवतरित हुए थे जिन्हें वेद भी नेति नेति कहते हैं। तुलसी कहते हैं –

सगुन अगुनहि नहि भेदा उभय हरड़ भव संभव खेदा। निर्गुण परब्रह्म भक्तों के प्रेम बस सगुण बन जाता है।

5. राम अवतार हेतु -

राम अवतार हेतु (कारण) अनेक बताये गये हैं। प्रत्येक कल्प में दीन तथा भक्तों की रक्षा के हेतु राम अवतरित होने रहते हैं।

नाना भाँति राम अवतारा। हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता।

जब जब धर्म की हानि होती है,

तब तब प्रभु धरि विविध सरीरा।

इसका आधार भगवतगीता का श्लोक.....।

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानि.........."|

तुलसी के राम दशरथनन्दन अयोध्या से हैं। महाकवि तुलसीदास बार-बार वक्ता-श्रोता के द्वारा यह विषय याद दिलाते चलते हैं।

“एक राम अवधेस कुमारा तिन्ह कर चरित विदित संसारा॥”

भक्त, भूमि, ब्रह्मण और देवताओं के हित के लिए राम अवतरित हुए हैं। शिवजी पार्वती को राम की महिमा बताते हैं।

“गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुरहित दनुज विमोहन लीला॥”.............................

“जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धाम्॥”

6. राम के विविध रूप : -

राम स्वयम् ‘विष्णु' के रूप में प्रसिद्ध हैं। कभी 'चतुर्भुज' प्रकट करते हैं। त्रिमूर्तियों को वे नचानेवाले हैं। भक्त तुलसी सारे विश्व को राम में देखते हैं।"

“यन्मायावशवर्ति विश्वमखिंल ब्रह्मादिदेवासुरा।"

तुलसी सारे जगत को सीताराममय मानते हैं।

सीय राम मय सब जग जानि। करउ प्रनाम जोरि जुग पानि॥

तुलसी के राम परम कृपालु हैं, प्रनत अनुरागी हैं, और विधि हरि शंभु के नचावनहारे हैं। वे शांत, सनातन, अप्रमेय, निष्काम, मोक्षरूप, शाँति प्रदाता हैं। वेदान्त वेदय, माया मनुष्य, पापहारि, करुणाकर, रघुकुल श्रेष्ठ और जगदीश्वर हैं। तुलसीदास रामचरितमानस के प्रधान पात्रों के द्वारा राम के परब्रह्मत्व को प्रकट करते हैं। देवगण, महर्षिगण, क्षत्रियवर्ग, भकतगण, वानर तथा राक्षसवर्ग भी राम के परब्रह्मत्व को प्रकट करते हैं।

खरदूष्ण मम सम बलवन्ता। को नहिं मारहि बिनु भगवन्ता॥ (रावण)

तुलसी दास स्वयम राम को संबोधित कर कहते हैं- जाउ कहाँ तजि चरण तुम्हारे।

7. शील, शक्ति तथा सौन्दर्य -

रामचरितमानस अधर्म पर धर्म की, असत्य पर सत्य की, नास्तिकता पर आस्तिकता की, तमस (अंधकार) पर सत्त्व की और आन्ततोगत्वा रावणत्व पर रामत्व की विजय स्थापित करता है। इसका कारण तुलसी की रामभक्ति है। तुलसी के रामत्य पर वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, भागवत आदि ग्रन्थों का प्रभाव है। इन सब के समन्वय के रूप में तुलसी के राम शील, शक्ति तथा सौन्दर्य से समन्वित होकर हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं।

8. आत्म - धर्म :

जीवन दो प्रकार का होता है।

1. शारीरिक धर्म और

2. आत्म धर्म

रामायण आत्म धर्म प्रधान काव्य है। राम की कथा ऋग्वेद संहिता में, अथर्व वेद में, शतपथ ब्राह्मण में और उपनिषदों में वर्णित है। इसलिए तुलसी रामचरितमानस को श्रुति सम्मत कहते हैं। रामायण मोक्ष विद्या और दीर्घ शरणागति काव्य है। राम को जन्म देनेवाले कौसल्या तथा दशरथ और महान् ज्ञानी राजा जनक भी राम के चरणों की वंदना करते हैं। राम भक्ति के सामने सारा जगत और बन्धुजन नगण्य हैं। उदाहरण के लिए प्रहलाद ने पिता को, विभीषण ने भाई को, भरत ने माँ को, बलि ने गुरु को और गोपियों ने पतियों को त्याग दिया था। वे सब राम की कृपा के कारण महान श्रेय के भागी रहे।

"तज्यो पिता प्रह्लाद, विभीषण बन्धु, भरत महतारी।

तज्यो कन्त ब्रज बनितनि भये मुद मंगल कारी॥”

जिस प्रकार राम ब्रह्म है उसी प्रकार सीता प्रकृति तत्व है। तुलसी सीता को आदिशक्ति, छविनिधि (सौन्दर्य निधि) और जगमूला के रूप में बताते हैं। उद्भव स्थिति संहारकारिणी तथा क्लेशहारिणी के रूप में सीता की स्तुति करते है। तुलसी लिए सारा जग सीताराममय है। लक्ष्मण को तुलसी जगत के आधार शेष जी के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

"सैष सहस्र सीस जग कारन।"

आचर्य की बात है कि - खलनायक रावण भी सीता और राम के प्रति भक्ति प्रकट करता है। वह सीता चरणों की वंदना करता है।

"मन चरन बंदि सुख माना।"

रामायण सारे अन्य पात्र जीव कोटि के अन्तर्गत आते हैं। राम की भक्ति रखने से कोई जीव माया चंगुल में कि मायाधीस राम भक्तों की रक्षा करते हैं।

9. राम नाम की महत्ता

रामायण बेद संज्ञा है। रामायण कथा जितनी व्यंपक है, राम नाम की महिमा उतनी महान है। श्री मद्भागवत नवविध भक्ति विवरण दिया गया है।

"श्रवणं कीर्थनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनं।

अर्चनं वदनं दास्यं सख्यं आत्मनिवेदनं॥"

सूरदास की भक्ति सख्य है और तुलसी की दास्यभक्ति है। जैसे गीता में बताया गया है, 'यज्ञानां जपयज्ञोस्मि', के • आधार पर वे राम नाम का स्मरण करते हैं। शास्त्र का कथन है - "कलौ स्मरणान मुक्तिः।" बीज मंत्रों की दृष्टि से कर्म का नाश करने वाले अग्नि बीज 'र', ज्ञान को जगाने वाले आदित्यबीज (विष्णु) 'आ' और भक्ति का शीतल और शान्ति चंन्द्र बीज 'म' से राम मंत्र बना हुआ है। 'र' वैराग्य का 'आ' ज्ञान का और 'म' भक्ति का प्रतीक है। ये ही बीजाक्षर क्रमशः शिव, विष्णु तथा ब्रह्मा के प्रतीक हैं । निर्गुण तथा सगुण रूप राम मंत्र वेदों के प्राण हैं। तुलसीदास ने राम मंत्र की महत्ता को विविध रूपों में बताया। राम नाम रूपी मणिदीपक को मुख रूपी द्वार पर रखने से जीव को आंतरिक तथा बाह्य प्रकाश प्राप्त होता है। 'र' कहने मात्र से पहाड जैसा पाप बाहर जाता है। 'म' कार के उच्चारण से फिर वह पाप जीव के अन्दर नहीं आ सकता।

"राम नाम मणि दीप धरु जीह देहरी द्वार।

तुलसी भीतर बाहिरौ जो चाहसि उजियार।।”..............

"तुलसी 'रा' कहते ही बाहर जात पाप पहार।

फिरि भीतर आवत नहिं देत 'म' कार कवाट।"

इसीलिए तुलसी सदा राम नाम का स्मरण करने के लिए कहते हैं।

'राम कहत चलु। राम कहत चलु॥ राम कहत चलु भाई रे॥

10. उपसंहार :

रामकथा 'भारतीय' संस्कृति का उज्ज्वलतम प्रतीक है। शुक्ल जी के अनुसार भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति है। तुलसी की रामभक्ति रामचरितमानस में प्रतिबिंबित होती है। अनेक विद्वानों के अनुसार रामचरितमानस भक्ति या धार्मिक काव्य है। महेश जी ने प्रथमतः इस की रचना की और पार्वती को रामकथा बताकर उन्होंने उसे अपने मानस में रखा। इसी कारण गोस्वामी तुलसीदास ने इस काव्य का नामकरण रामचरितमानस रखा। शील, शक्ति तथा सौन्दर्यमय राम चरित्र की रचना के पीछे दो कारण बताते हैं ।

1. अपनी वाणी को पवित्र करना और

2. आत्म सुख की प्रप्ति के लिए

“निजगिरा पावनि करन राम जसु तुलसी कहयो।"

'स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथाभाषानिबंध मतिमंजुलमातनोति।'

रायणत्व पर रामत्व का स्थापित करना राम काव्य की रचना का मूल उद्देश्य है। इस में धार्मिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक तथा नैतिक विषयों का समन्वय हुआ है जिस से समाज का पथ प्रदर्शन हुआ। तुलसीदास संत समाज को तीर्थराज बताते हैं और राम भक्ति को सुरसरिधारा बताते हैं, जिसे सुनने से (स्नान करने से) जीवन की सफलता मिलिती है। तुलसीदास भक्ति के साथ - साथ मानस में ज्ञान तथा कर्म के विषय भी चर्चा करते हैं। तुलसीदास की भक्ति के बारे में और उनकी कविता के बारे में जो भी, जितना भी बताये वह कम ही है। तुलसीदास कविता करके शोभित नहीं हुए लेकिन कविता उनकी कला पाकर शोभित है।

"कविता करके तुलसी न लसे। लसी कविता पा तुलसी की कला।"

प्रसिद्ध विद्वान मधुसूदन करस्वती ने तुलसी की कविता से प्रसन्न होकर कहा था काशी रूपी आनन्द वन में तुलसीदास चलता फिरता तुलसी का पौधा हैं। उनकी कविता रूपी मंजरी बड़ी सुन्दर है, जिस पर राम रूपी भ्रमर मण्डराता रहता है।

'आनन्द कानने हस्मि जंगम तुलसी तरुः।

कविता मञ्जरी भाति राम भ्रमर भूषिता।"

ऐसे रस सिद्ध कवि जन्म और मारण के भय से रहित रह कर शाश्वत यश की प्राति कर लेते हैं।

"जयन्ति ते सुकृतिनो ससिद्धाः कवीश्वराः।

नास्ति येषां यशः काये जरा मरणजं भयम्॥”

SURDAS | BRAMARAGEETH | 'भ्रमरगीत-सार' विप्रलंभ श्रृंगार की प्रधान रचना है - समीक्षा कीजिए। | 'श्रृंगार रस के क्षेत्र में सूरदास की पैठ अनोखी है।' - इस उक्ति पर अपना विचार प्रकट कीजिए। | 'भ्रमरगीत-सार' में व्यक्त विप्रलंभ श्रृंगार का विवेचन कीजिए।

'भ्रमरगीत-सार' विप्रलंभ श्रृंगार की प्रधान रचना है - समीक्षा कीजिए।
(अथवा)
'भ्रमरगीत-सार' में व्यक्त विप्रलंभ श्रृंगार का विवेचन कीजिए।
(अथवा)
'श्रृंगार रस के क्षेत्र में सूरदास की पैठ अनोखी है।' - इस उक्ति पर अपना विचार प्रकट कीजिए।

रूपरेखा : :

1. प्रस्तावना

2. उद्दीपन विभाव-विधान

3. हृदयग्राही विरह-वर्णन

4. शास्त्रीय नियमों का सफल पालन

5. संचारी भाव

6. आत्मोत्सर्ग की भावना

7. विरहाग्नि प्रेम की पुष्टि

8.धर्म का निर्वाह

9. वक्रतापूर्ण व्यंजना

10. सायुज्य मुक्ति

11. उपसंहार

1. प्रस्तावना

'भ्रमरगीत-सार' एक विप्रलम्भ श्रृंगार प्रधान रचना है। इस में विरह की समस्त दशाओं का सजीव उद्घाटन किया गया है। आचार्य शुक्ल का कथन है – न जाने कितने प्रकार की मानसिक दशाएँ ऐसी मिलेगी जिनके नामकरण तक नहीं हुए।"

2. उद्दीपन विभाव-विधान : -

कृष्ण के वियोग मे गोपियों की दशा चिन्तनीय हो जाती है। कृष्ण की उपस्थिति में जो वस्तुएँ प्रिय एव सुखदायक लगती थीं। कृष्ण के वियोग में वे सबा की सब वस्तुएँ दुःखदायी एव अप्रिय लगती हैं। वे उन्हें काटंखाने को बढ़ती - सी लगती हैं। विप्रलम्भ श्रृंगार का यह उद्दीपन विभाव विधान सूर के वियोग - श्रृंगार की अनुपम देन है।

बिनु गुपाल बैरिन भई कुजै।

तब ये लता लगति अति सीतल अब भई विषम ज्वाल की पुजै।।

3. हृदयग्राही विरह-वर्णन :

गोपियों की जाग्रदवस्था रोने में ही बीतती है। स्वप्न में भी कृष्ण का विरह उनके हृदय में कसकता रहता है। न उनको जागनें में चैन है या सोते हुए ही। वस्तुतः नींद आती ही नही। वे रात को सोती हैं अथवा बैठी हुई रोती रहती हैं।

हमको सपनेई में सोच।

जा दिन ते विछुरे नन्द - नन्दन ता दिन ते यह पोच।

मनु गुपाल आए मेरे गृह हँसि करि भुजा गही।

कहा करौ बैरनि भई निदिया निमिष न और रही।

कृष्ण जब से मथुरा गये हैं तब से गोपिकाओं के नेत्र बरसने लगे हैं। इनकी आँखें श्रावण - भादों के रुप में बरसती रहती हैं। क्षण भर के लिए भी उनके आँसू बन्द नहीं होते।

निस दिन बरसत नैन हमारे।

सदा रहति पावस रितु हम पै, जब तैं स्याम सिधारे।

दृग अंजन लागत नहिं कब हुँ, उर कपोल भए कारे।

कंचुकि पट सूखत नहिं कबहूँ उर बिच बहत पनारे।

4. शास्त्रीय नियमों का सफल पालन :

'भ्रमरगीत-सार' में कवि की भावुकता के साथ शास्त्रीय नियमों का भी पालन दिखाई देता है। साहित्य शास्त्र के अनुसार विरह की दस दशायें मानी जाती हैं। भ्रमरगीत में विरह की दसों दशाओं से सम्बन्धित वर्णन मिलते हैं।

(i) अभिलाषा :

निरखत अक स्याम सुन्दर के बार बार लावत छाती।

लोचन जल कागद मसि मिलिकै है गई स्याम-स्याम की पाती।।

(ii) चिन्ता :

मधुकर ये नैना पै हारे।

निरखि निरखि मग कमल नयन को प्रेम भगन भए भारे।

(III) स्मरण :

मेरे मन इतनी सूल रही।

वे बतियाँ कही छतियाँ बिखि राखीं, जे नन्दलाल कही।

एक दिवस मेरे गृह आए मैं दधि मथति रही।

देख तिन्हें हौं मौन कियौ, सो हरि गुसा गही।

(iv) उद्वेग : -

तिहारी प्रीति किथौ तरबारि।

दृष्टिधार करि भार साँवरे, घायल सब बज नारि।

(v) प्रलाप :

कैसे पनघट जाई सखीरी, डोवा जमुना तीर।

भरि-भरि जमुना उमडि चलति है, गन नैननि के नीरा।

इन नैननि के नीर सखीरी सेज भई घरनाउँ।

चाहति हौं तेहि ऊपर चदि कै स्याम मिलन को जाउँ।

(vi) उन्माद :

माधव यह बज को व्यौहार

मेरो कयो पवन को भुन भयौ गावत नन्द कुमार

(vii) व्याधि :

ऊधो जू तिहारे चरन, लागौं, बारक या ब्रज करउ भाँवरी।

निसि न नींद आवै, दिन न भोजन भावै मग जोवत भाई दृष्टि झाँवरी।

(viii) जडता :

बालक सग लिए दधि चोरत, कात खवाबत डोलत।

सूर सीस सुनि चैंकति नामहि अब काहे न मुख बोलत।

(ix) मूर्च्छा :

सोचति अति पछताति राधिका मूर्छित धरनि ढही।

सूरदास प्रभु के बिछुरै सैं बिथा न जाति सही।

(X) मरण :

जब हरि गवन कियौ पूरब लौ लिखि जोग पठायो।

यह तन जरि कै भसम है निवरयो बहुरि मसान जगायो।

मेरे मोहन आन मिलपओ कै लै चलु हम साथै।

सूरदास अब भरत बन्यौ है पाप तिहारे माथै।

5. संचारी भाव :

गोपियों में प्रिय के क्षमाभाव आदि विविध संचारी भावो का मिलन भ्रमरगीत सार में हुआ है।

ब्रज बसहु, गोकुलनाथ।

बहुरि तुमहि न पठवी गोर्धनन के साथ।

बरजौ न माखन खात कब हूँ देहुँ देन लुटाय।

गोपियों का प्रेम स्वार्थ रहित होकर वे केवल कृष्ण के दर्शन की लालसा मात्र रखती हैं। उनके प्रेम में भोगेच्छा नहीं, बल्कि केवल प्रिय - दर्शन की इच्छा है।

एक बार जो देहु दरसन प्रीतिपथबसाय।

करौ चौर चढ़ाय आसन नैन अंग अंग लाय||

6. आत्मोत्सर्ग की भावना :

गोपियों की दर्दभरी भोली-भाली बातों में अनुपात, अधीनता, और त्याग के उदगार हैं। उनका कृष्ण के प्रति प्रेम शान्त आराधना के रूप में परिणत होता है। सुख - क्रीडा के बदले भ्रमरगीत में भक्तिमार्ग के शान्तरस का स्वरूप दिखाया गया है।

सच्चे प्रेम में आत्मोत्सर्ग की भावना बढ़ती रहती है। अंत में निराश हो कर प्रेमी प्रिय- दर्शन का आग्रह भी छाड देता है। आत्मोत्सर्ग की यह पराकाष्ठा प्रेमी का प्रेम एक अकंचन कामना के रूप में दिखाई देती है। गोपिकाएँ अपने सुख की कामना नहीं करती। वे केवल प्रिय, कृष्ण के सुख की कामना ही सर्वस्व समझती हैं। गोपियों के प्रेम की चरमावस्था देखिए -

जहँ जहँ रहौ राज करौ तहँ तहँ, लेहु कोटि सिर भार।

यह असीस सम देति सूर सुन न्हात खसै जानि बार।

विरहताप के कारण गोपियों को गाय-बछड़े, भेडिये और बाध दिखाई देते हैं। गोपियाँ चाहती हैं कि जब तक गोकुल में कष्ट दूर न हों, कृष्ण वहाँ न आयें। वे नहीं चाहती हैं कि जब तक गोकुल में कष्ट दूर न हों, कृष्ण वहाँ न आवें । वे नहीं चाहती कि कृष्ण कोई कष्ट भोगें। अतः वे उद्धव से कहती है । "जब तक व्रज निरापद न हो जाय, तब कृष्ण गोकुल से दूर ही रहें!" गोपियों का विचार है -

प्रीति करि काहू सुख न लयो।

7. विरहाग्नि प्रेम की पुष्टि : -

विरहाग्नि में प्रेम की निकाई निखरती है। प्रेम रूपी स्वर्ण की परीक्षा विरह रुपी अग्नि में ही होती है।

विरह अग्नि जरि कुन्दन होई। निरमल तन पावै कोई कोई

विरह से प्रेम की पुष्टि होती है। विरह के लेप द्वारा ही प्रेम पक्का होता है। अतः गोपियाँ उद्धव से कहती हैं -

ऊधो। विरहौ प्रेम करै।

ज्यों बिनु पुट पट गहै न रगहि पुट गहे रसहि परै।

जौ आवो घट दहत अनल तनु तौ पुनि अमिय भरै।

बिरहाग्नि चित्त को सर्वथा निर्मल बाना देती है। धृति की व्यंजना करती हुई गोपियाँ कहती हैं -

अब हमरे जिय बैट्यो यह पद होनी होउ सों सोऊ।

मिटि गयो मान परेखो ऊघो, बिरदय दतो तो होऊ।

गोपियों की इच्छा प्रभु पद प्राप्ति मात्र है। अगर प्रभु पद न भी मिले तब भी उनके हृदय में उनका यश गान ही होता रहता है -

हम तो दुहूँ भाँति फल पायो।

जो व्रजनाथ मिलै तो नी को, नातरु जग जैसे गायो।

8. धर्म का निर्वाह : गोपियों का कृष्ण प्रेम उनके लिए धर्म का निर्वाह है। भक्ति अथवा मुक्ति की कामना के लिए किया जानेवाला कोई अनुष्ठान नहीं, उन्हें कृष्ण प्रिय हैं। इस लिए गोपियाँ कृष्ण से प्रेम करती हैं।

कृष्ण और गोपियों का सम्बन्ध परमात्मा और आत्मा का है। कृष्ण भी गोपियों के लिए व्याकुल होते हैं। वे उद्धव के समक्ष अपने प्रेम की चर्चा करते हुए कहते हैं -

उधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।

हंस सुता की सुन्दर कगरी रु कुजन की छाहीं।

वै सुरभी वै बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जागही।

श्रृंगार तथा वात्सल्य के क्षेत्र में कवि सूरदास की जैसी अन्तर्दृष्टि कदाचित् ही किसी अन्य कवि को प्राप्त हो। 'भ्रमरगीत-सार' में श्रृंगार रस के प्रायः समस्त सचारी भावों का अत्यन्त स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटन दिखाई दैत है।

गोपियाँ उद्धव से वार्तालाप करते समय प्रेम की प्रच्छन्न धारा प्रवाहित होती हैं।

रहु रे मधुकर मधु-मतवारे

कहा करौ निर्गुन लैके हौ ? जीत्रहु कान्ह हमारे।

ऊधो? हम हैं तुम्हारी दासी।

काहे को कटु वचन कहत करत आपनी हाँसी।

9. वक्रतापूर्ण व्यंजना :

'भ्रमरगीत' में कुब्जा के नाम के साथ 'असूया' की बडी ही वक्रतापूर्ण व्यंजना मिलती हैं। गोपियाँ कहती हैं कि यह सन्देश कृष्ण का हो ही नहीं सकता। कुब्जा ने ही आपको सिखा पढ़ा कर हमें दुःख देने को भेजा है -

मधुकर। कान्ह कही नहिं होही।

रचि राखी कूबरी पीठ पै ये बातें चकचौं ही।

आजकल उस कुबडी की चाँदी है और उसी का जीवन सार्थक है।

जीवन मुहचाही को नीको।

दरस परस दिन रात करति है कान्ह पियारे पी कौ।

10. सायुज्य मुक्ति

श्रृंगार में भक्ति विषयक पक्ष भी आ जाता है। वैष्णव सम्प्रदाय में मुक्ति की सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य तथा सायुज्य दशायें बतायी गयी हैं। सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य हैं। 'भ्रमरगीत- सार' में गोपियों द्वारा 'सायुज्य मुक्ति' का प्रतिपादन हुआ है।

सीत उष्ण सुख दुःख नहिं मानै, हानि भये कछु सोचन राँचै।

जाय समाय सूर वा निधि में, बहुरि न उलटि जगत में नौचै॥

प्रेम-भाव की चरमसीमा आश्रय और आलम्बन की एकता है। अतः भगवद्भक्ति की साधना के लिए कवि इली प्रेमतत्व लेकर चलते हैं। रतिभाव के तीनों प्रबल और प्रधान रुप भगवद्विषयक रति, वात्सल्य और दाम्पत्य रति भ्रमर्ग सार में अपूर्वता के साथ निभाये गये हैं।

11. उपसंहार - :

इस प्रकार यह सर्वधा स्पष्ट हो जाता है कि श्रृंगर रस के क्षेत्र में सूरदास की पैठ अनोखी है। उसकी कोई बात उनसे छिपी नहीं रही। सूरदास ने प्रेम क्षेत्र को चारों ओर से लोट-पोट कर देखा भी है और दिखाया भी है। इस क्षेत्र में अन्य कवियों की उक्तियाँ जूठन सी लगती हैं। सूर की रचना गीतकाव्य परम्परा के अन्तर्गत आती है। यह परम्परा उनको जयदेव और विद्यापति से प्राप्त हुई। यह परम्परा श्रृंगार रस के अन्तर्गत ही आती है।

गीतकाव्य की सफलता के लिए सगीत, भावनाओं की गहनता, आत्माभिव्यक्ति तथा संक्षिप्तता आवश्यक है! 'भ्रमरगीत सार' की रचना इस कसौटी पर खरी उतरी है। काव्य का प्रत्येक पद चुन कर सजाया गया गुलदस्ता है। अमगीतसार के पद सगीतज्ञों के कण्ठहार हैं। आज भी सूर के पद के गायन के बिना कोई भी संगीत सम्मेलन पूर्ण नहीं समझा जाता है।

'भ्रमरगीत' के उद्भव और विकास पर समीक्षा कीजिए। | SURDAS | BRAMARAGEETH | भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास का स्थान निर्धारित कीजिए। | हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा पर प्रकाश डालिए।

'भ्रमरगीत' के उद्भव और विकास पर समीक्षा कीजिए।
(अथवा)
भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास का स्थान निर्धारित कीजिए।
(अथवा)
हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा पर प्रकाश डालिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. भ्रमर का सांकेतिक अर्थ

3. भ्रमरगीत परम्परा का उद्भव-स्रोत

4. हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा का विकास

5. कुछ प्रमुख भ्रमरगीत

6. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

भ्रमरगीत का शाब्दिक अर्थ है- 'भौरे का गीत' या 'भौरे से सम्बन्धित गीत'। भारतीय काव्य में 'भ्रमरगीत' एक विशेष प्रसंग से सम्बद्ध है। कृष्ण मथुरा चल कर राज-काज से व्यस्त हो, उद्धव के द्वारा ब्रजवासियों को सन्देश भेजते हैं। गोकुल आने पर गोपियाँ उद्धव के सम्मुख भ्रमर को सम्बोधित करके कुछ उपालम्भ देती हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण को ही दिये जाते हैं। यही प्रसंग 'भ्रमरगीत' के नाम से प्रख्यात हुआ है। इस प्रकार ‘भ्रमरगीत' गोपी- उद्धव सवाद का सूचक है।

2. 'भ्रमर' का सांकेतिक अर्थ : -

गोपियाँ अपने उपालम्भ केलिए भ्रमर को ही क्यों चुनती है? बात यह है कि भारतीय श्रृंगार काव्य में भ्रमर सदा से ही रसिक वृत्ति का प्रतीक माना जाता है। खिले हुए पुष्पों का रस चूस कर विमुख हो जाना भ्रमंर के स्वभाव की बडी विशेषता है। कृष्ण और गोपियों का सम्बन्ध भी भ्रमर और कलिकाओं सा है। कृष्ण की अन्य विशेषताएँ भी भ्रमर में मिल जाती हैं। भौरा गुंजार करता है तो कृष्ण अपनी बाँसुरी के मधुर स्वर से गोपियों को आकर्षित करते हैं। भ्रमर और कृष्ण दोनों श्यामवर्ण के हैं। उद्धव भी भ्रमर का साम्य रखते हैं। इसी कारण भ्रमर के प्रतीकार्थ में उद्धव को भी लिया जाता है।

3.भ्रमरगीत परम्परा का उद्भव-स्रोत :

भ्रमरगीत परम्परा का मूल उद्भव - स्रोत श्रीमद्भागवत है। गोपियाँ व्यंग्य करती हैं। उनकी प्रत्येक उक्ति में विरह - वेदना, आत्म दैन्य, उपालंभ, प्रेमासक्ति और हास- परिहास का माधुर्य प्रस्फुटित होते हैं।

विसृज शिरसि पाद वेदम्यह चाटुकारै -

रनुनयविदुवस्ते ऽ भ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात।

स्वकृत इह विसृष्टापत्यन्यलोक।

व्यमृजद कृतचेता कि नु सन्थेयमस्मिन्?

प्रेम के क्षेत्र में भ्रमर का उल्लेख कालिदास कृत 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' मे प्राप्त होता है। भ्रमर आकर शकुन्तला के शरीर पर बैठ जाता है तो दुष्यंन्त ईर्ष्या पूर्वक कहता है -

चलापांगं दृष्टि स्पृशसि बहुधा वेपयुमती

रहस्यारुथीव स्वनसि मृदुकर्णन्तिकचरः

कर व्याधुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधुर

वय तत्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती॥

4. हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा का विकास :

कटक माझ कुसुम परगास, भ्रमर विकल नहिं पाबए पास।

भ्रमरा मेल घुरए सब ठाम तो हे बिनु मालती नहि बिसराम।

उद्धव- गोरी संबाद का इस छन्द में कोई उल्लेख नहीं है। फिर भी इस में भ्रमर सम्बन्धी धारण का प्रभाव अवश्य परिलक्षित होता है।

हिन्दीं में भ्रमरगीत परम्परा के प्रवर्तक का श्रेय महाकवि सूरदास को दिया जाता है। उनके प्रभाव से प्रायः अन्य सभी कृष्ण - भक्त कवियों ने इस प्रसंग पर थोडे बहुत पद लिखे हैं जिन में ये नाम उल्लेखनीय हैं - नन्ददास, परमानन्ददास, हित बृन्दावनदास, हरिराय, रसखान, मुकुन्ददास, घासीराम आदि। आगे चलकर रीतिकालीन कवियों में देव, पदमाकर ग्वाल कवि, महाराज रघुराज सिंह आदि अनेक कवियों ने कुछ फुटकर छन्दों में भ्रमरगीत प्रसंग की चर्चा की है।

आधुनिक युग में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बदरीनारायण 'प्रेमधन', सत्यनारायण 'कविरत्न', जगन्नाथदास रत्नाकर, मैथिलीशरणगुप्त, हरिऔध, रामशंकर 'रसाल', द्वारिकाप्रसाद मिश्र, हरदेव प्रसाद, जगन्नाथ सहाय आदि कवियों ने उद्धव-गोपी-सवाद का वर्णन किसी न किसी रूप में किया है।

5. कुछ प्रमुख भ्रमरगीत

वैसे तो हिन्दी में प्रायः सभी भक्त एवं श्रृंगारी कवियों ने 'भ्रमरगीत' लिखे हैं। किन्तु विस्तृत रूप से इसी प्रसंग को लेकर काव्य रचना करनेवाले कुछ कवियों की चर्चा करें -

(क) सूरदास का भ्रमरगीत - सूरदास द्वारा रचित 'सूरसागर' में तीन 'भ्रमरगीत' उपलब्ध होते हैं। उनमें दो अत्यन्त संक्षिप्त हैं, किन्तु अन्तिम अत्यन्त विस्तृत है। प्रथम 'भ्रमरगीत' भागवत् से अनुवादित - सा है तथा यह चौपाई छन्द में रचितं है। दूसरा भ्रमरगीत पदशैली में है। तृतीय 'भ्रमरगीत' में लगभग चार सौ पद हैं। रामचन्द्र शुक्ल ने 'भ्रमरगीत' को अलग 'भ्रमरगीत - सार' के नाम से संकलित किया है।

सरदास को भ्रमरगीत रचनां की प्रेरणा स्पष्ट ही भागवत पुराण से मिली होगी। भागवतकार का उद्देश्य केवल धर्मसाधना तथा कृष्ण की व्यापकता, सार्वकालिकता का रूप प्रतिपादन करना है। किन्तु सूरदास इसी से संतुष्ट नहीं होते। वे गोपियों के मुँह से ज्ञान की निन्दा, उसका उपहास और तिरस्कार भी करवाते हैं। यही मानों निर्गुण के ऊपर सगुण की, ज्ञान के ऊपर भक्ति की श्रेष्ठता और सरलता की प्रतिष्ठा है। वे स्पष्ट रूप से ज्ञान को प्रेम की अपेक्षा हेय एवं त्याज्य सिद्ध करते हुए लिखते है।

आयो घोष बडो व्यापारी।

लादि खेप, गुन ज्ञान जोग की ब्रज में आय उतारी।

फाटक देकर हाटक माँगत भोरे निपट सु थारी।

इनके कहे कौन उहकावे ऐसी कौन अजानी।

अपनो दूध छौंडि को पीवै खार कूप को पानी॥

सूर भक्ति विरोधी 'निर्गुण' का गोपियों द्वारा उपहास भी करवाते हैं -

निर्गुन कौन देस को बासी ?

मधुकर! हँसि समुझाय सौह दै बूझति सौचत हाँसी।

को है जनक, जननि को कहयित, कौन नारि को दासी॥

काव्य की दृष्टि से भागवत की तुलना में सूरदास के भ्रमरगीत में अधिक स्वाभाविकता, रोचकता एव मार्मिकता है। चुटकीले व्यग्यों, मीठे उपहासों, भोली मनुहारों, क्रोधपूर्ण तिरस्कारों एव शोकपूर्ण अश्रुओं की अभिव्यक्ति के कारण 'भ्रमरगीत' काव्य के भावपद में विविधता आ गई है। भागवत पुरण में भ्रमरगीत के रूप में जो रस की एक बूँद. थी, वह सूरदास के ग्रमरगीत में आकर अथाह लहरों के रूप में उद्वेलित दिखाई पड़ती है।

(ख) नन्ददास का भ्रमरगीत - सूर के पश्चात नंददास का भ्रमरगीत महत्त्वपूर्ण है। यह नाटकीय प्रश्नोत्तरी शैली में रचा गया है। उद्धव गोपियों को ज्ञान का उपदेश देते हैं। गोपियाँ उसका तर्कबद्ध खण्डन करती हैं। गोपियों के तर्क से पराजित हो कर उद्धव अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं। गोपियों का तर्कबद्ध कथन देखिए -

जो भुख नाहि न हतो, कहाँ किन माखन खायो।

पाँयन बिन मो संग कहाँ वन को धायो।।

सूर की अपेक्षा नन्ददास के भ्रमरगीत में दार्शनिकता की प्रधानता है। सूर के भ्रमरगीत में कुब्जा और राधा दोनों का नाम आया है। परन्तु नन्ददास के भ्रमरगीत में राधा का नाम नहीं है। नन्ददास की गोपियों में सूर की गोपियो के व्यंग्य की अपेक्षा अधिक तीखापन है।

नास्तिक है जे लोग कहा जाने निज रूपै।

प्रगट भानु को छोडि गहत परछाई धूपैं।।

नन्ददास का ‘भ्रमरगीत' अपनी मौलिकता में महत्त्वपूर्ण है। उस में तर्क निपुणता और दार्शनिकता के साथ - साथ सरलता और भाव - व्यंजना भी है। दार्शनिक वाद - विवाद कराकर अन्त में सगुण भक्ति की प्रतिष्ठा की है। 'भ्रमरगीत' छन्द का आविष्कार सर्व प्रथम नन्ददास के ही 'भ्रमरगीत' में मिलता है।

(ग) तुलसीदास - गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीकृष्ण गीतावली और कवितावली में 'भ्रमरगीत' प्रसंग का वर्णन किया है। कवितावली में गोपियों की मार्मिक व्यथा व्यक्त हुई है -

जोग कथा पठई ब्रज को सब सो।

तुलसी सो सुहागिनि नन्दलाल की।

'श्रीकृण गीतावली' में तुलसी ने 'भ्रमरगीत' के प्रसंग को बहुत विस्तार किया है। उनके 'भ्रमरगीत' में भ्रमर का प्रवेश नहीं होता। मर्यादा स्थापन की प्रकृति तुलसी की भ्रमरगीत की समस्त विशेषताएँ पाई जाती हैं। उनकी गोपियाँ सूर और नन्ददास की गोपियों की तरह उद्दण्ड और चंचल नही हैं। वे बडी ही विनम्रता से उद्धव से वार्तालाप करती हैं।

भक्तिकाल मे कृष्णदास, हरिराय, मलूकदास, मुकुन्ददास, घासीराम, रहीम, रसखान आदि ने भी भ्रमरगीत प्रसंग पर स्फुट छन्द लिखे।

(घ) रीतिकाल में भ्रमरगीत-काव्य :- रीतिकाल के कुछ कवियों ने भी भ्रमरगीत प्रसंग पर फुटकल रचनायें की हैं। इनकी रचनाओं में 'मधुकर', 'मधुप', 'भ्रमर' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। मतिराम, देव, भिखारी दास, धनानन्द, पद्माकर, सेनापति आदि कवियों ने भ्रमरगीत प्रसंग पर स्फुट छन्द लिखे हैं।

(ङ) सत्यनारायण 'कविरत्न' का भ्रमरदूत - आधुनिक युग के कवि श्री सत्यनारायण 'कविरत्न' के 'भ्रमरदूत' में मौलिक प्रसंगो का समावेश हुआ है। इस काव्य में न उद्धव है, न गोपियाँ, न ज्ञान योग, न भक्ति का वाद विवाद, न - निर्गुण - सगुण का खण्डन - मण्डन । यशोदा माता ही भ्रमरदूत बना कर कृष्ण के पास भेजती हैं। देश की सामाजिक और राजनीतिक अधोगति का चित्रण ही इसका मुख्य उद्देश्य है। कवि ने पुरानी परम्परा को छोड़ कर यशोदा को भारतमाता के रूप में प्रस्तुत किया है।

विलपति अति कलपति जबे लखी जननि बिज स्याम।

(च) रत्नाकरजी का उद्भव शतक - रत्नाकरजी ने अपने उद्धव शतक में पूर्ववर्ती सभी भ्रमर गीत काव्यों की - विशेषताओं का समन्वय करने का प्रयत्न किया है। यही कारण है कि इसमें सूरदासजी की भावत्मकता, नन्ददास की- सी तार्किकता और रीतिकालीन कवियों का चमत्कार आदि सब गुण मिलते हैं। रत्नाकरजी के भ्रमर गीत की - विशेषता यह है कि इस में कृष्ण और गोपियों में तुल्यानुराग की प्रतिष्ठा की गई है। गोपियों के प्रेम में कृष्ण की व्याकुलता देखिए -विरह-विया की कथा अथाह महा, कहत बने न जो प्रवीन सुकवीनि सौ।

नैकु कही बैननि अनेक कही नैननि सौ, रही-रही सोऊ कहि दीनी हिचकानि सौ॥

रत्नाकर की गोपियो में भवावेश धिक मात्रा में है। उन में सूर की गोपियो का हृदय नन्ददास की गोपियों की बुद्धि और आधुनिक नारी के चतुर्य का मिश्रण है। भाषा में नवीन नवीन प्रयोग भी पाये जाते हैं।

(छ) हरिऔध का प्रियप्रवास - प्रियप्रवास में श्रृगार का चित्रण आधुनिक सुधारवादी दृष्टिकोण से किया गया है। नायिका वासना और प्रेम की सीमाओं से ऊपर उठ कर अपने विश्वप्रेम एवं लोकहित के भाव का परिचय देती है। प्रेम, स्नेह, वात्सल्य, मैत्री आदि भावों की व्यजना भी सफलतापूर्वक हुई है। 'प्रियप्रवास' में गोपियाँ उद्धव को उपालम्भ देने के स्थान पर अपनी हृदयस्थ प्रणय-भावना एव विरह वेदना की ही व्यजना करती हैं।

श्यामा बातें श्रवण करके बालिका एक रोई।

रोते-रोते अरुण उसके हो गये नेत्र दोनों।

ज्यों-ज्यों लज्जा-विवश वह थी रोकती वारिधारा।

त्यों-त्यों आँसू धिकतर थे लोचनों मध्य आते।

गोपियाँ अपनी अज्ञता स्वीकार करती हैं -

भोली भाली ब्रज अवनि क्या योग की रीति जाने।

कैसे बूझे अबुध अबला ज्ञान-विज्ञान की बात।।

हरिऔध की गोपियाँ अन्त में विश्वहित के लिए अपने सुख का बलिदान करना स्वीकार कर लेती हैं। व्यक्तिगत प्रेम की परिणति विश्वप्रेम में होती है।

मेरे जी में हृदय बिजयी विश्व का प्रेम जाग।

मैने देख परम प्रभु को स्वीय प्राणेश ही में।।

6. उपसंहार

इस प्रकार हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत की दीर्घ परम्परा रही है। इस प्रसंग को हिन्दी में प्रचलित करने का श्रेय एकमात्र सूरदास को ही है। उनके भ्रमरगीत की मार्मिकता से ही परवर्ती कवि प्रभावित तथा प्रेरित हुए। भ्रमर की आड में सूरदास की गोपियों ने विरह वेदना, बिवशता, रोष, उपालम्भ, व्यंग्य, उपहास, आत्मदैन्य आदि विभिन्न भावों से युक्त जो युक्तियाँ कही हैं वे युग-युगों तक अमर रहनेवाली हैं।

सूर की गोपियाँ उद्धव से कहती हैं -

ऊधो मन नाही दस बीस

एक हुतो सो गयौ स्याम संग

इस में बढ़ कर प्रेम माधुरी की उक्ति और क्या हो सकती है!