मंगलवार, 23 नवंबर 2021

आचार्य विनोबा भावे | VINOBA BHAVE | विनायक नरहरी भावे | VINAYAK NARAHARI VINOBA BHAVE

आचार्य विनोबा भावे (विनायक नरहरी भावे)

समय-समय पर इस देश में ऐसे व्यक्ति जन्म लेते रहे हैं जिन्होंने अपनी विशिष्ट क्षमताओं से देश तथा समाज को एक नई दिशा दी है। ऐसे ही व्यक्ति थे आचार्य विनोबा भावे। उनके व्यक्तित्व में सन्त, आचार्य (शिक्षक) और साधक तीनों का समन्वय था।

विनोबा जी का जन्म 11 सितम्बर 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गागोदा ग्राम में हुआ था। बचपन में विनोबा जी को घूमने का विशेष शौक था। वे अपने गाँव के आसपास की पहाडियों, खेतों, नदियों एवं अन्य ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण किया करते थे। वे पढ़ाई के दिनों में पाठ्यपुस्तकों के साथ-साथ आध्यात्मिक पुस्तकें भी पढ़ा करते थे। छोटी उम्र में ही उन्होंने तुकाराम गाथा, दासबोध ब्रह्मस्त्र, शंकर भाष्य और गीता का अनेक बार अध्ययन किया।

विनोबा जी को अनेक भाषाओं का ज्ञान था। वे उच्चकोटि के रचनाकार भी थे। उनकी प्रारम्भिक रचनाएं मराठी भाषा में हैं। बाद में उन्होंने हिन्दी, तमिल, संस्कृत और बंगला में अनेक पुस्तकों की रचना की।

कर्त्तव्यनिष्ठ विनोबा -

महात्मा गाँधी के आग्रह पर विनोबा साबरमती आश्रम चले आये। आश्रम में आकर वे खेती का काम करने लगे। वहाँ वे कई महीनों तक मौन रहकर कार्य करते रहे। इनके कार्यों से प्रभावित होकर गाँधीजी ने इन्हें प्रथम सत्याग्रही की संज्ञा दे डाली। लोगों ने सोचा कि वे गँगे हैं, पर थोड़े ही दिनों बाद वे उपनिषदों का नियमित वाचन करने लगे तथा खाली समय में संस्कृत पढ़ाने का काम भी देखने लगे। विनोबा जी के पास कक्षा-5 से लेकर ऊँची कक्षाओं तक के बच्चे पढ़ने आया करते थे। उनकी रोचक और प्रभावशाली शैली से बच्चे और शिक्षक दोनों ही प्रभावित थे। लोगों ने उनके गुणों से प्रभावित होकर उन्हें आचार्य कहना प्रारम्भ कर दिया। विनोबा जी में आलस्य लेशमात्र भी नहीं था। वे दृढ़संकल्पी और सच्चे कर्मयोगी थे।

विनोबा जी किसी पुस्तक का अध्ययन कर रहे थे तभी एक बिच्छु ने उनके पैर में डंक मार दिया। दर्द असह्य था। बिच्छु के जहर से उनका पैर काला पड़ गया। पीड़ा बढ़ने पर उन्होंने चरखा मँगाया और एकाग्र होकर सूत कातने लगे। इस कार्य में वे इतने तन्मय हो गये कि उन्हें न तो बिच्छू के डंक मारने का ध्यान रहा और न ही पीड़ा का।

विनोबा जी के जीवन पर गीता के उपदेशों का गहरा प्रभाव था। सन् 1932 में धलिया जेल में रहकर उन्होंने गीता पर 18 प्रवचन दिये जो आज 'गीता प्रवचन' के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे हर समय चिन्तन-मनन में लीन रहते थे। लोगों की सेवा करना उनका धर्म बन गया था।

गाँधी जी के निधन के बाद विनोवा लगभग चौदह वर्ष तक देश के अनेक हिस्सों में घूमते रहे और भदान आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करते रहे। जगह जगह प्रार्थना सभाएं रहे और भूदान आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार करते रहे। जगह-जगह प्रार्थना सभाएं आयोजित कर इस सम्बन्ध में व्यक्तिगत और सामाजिक उत्थान के बारे में अपने विचार व्यक्त करते रहे। उनकी बात बहुत संक्षिप्त, संयत और सटीक होती थी। विनोबा जी कहने की अपेक्षा करने में अधिक विश्वास करते थे। वे पुरानी बातों को नये तालमेल के साथ इस तरह प्रस्तुत करते थे कि लोगों को स्वाभाविक रूप से जीवन की एक नई दिशा मिलती थी। विनोबा जी गाँधी, तिलक, तुकाराम, तुलसीदास, मीरा, रामकृष्ण और बुद्ध के जीवन से बहुत प्रभावित थे।

विनोबा के विचार

**समता का अर्थ है बराबरी, ऐसी बराबरी जिसमें योग्यता के अनुसार सभी का आँकलन हो।

**भक्ति ढोंग नहीं है दिन भर पाप करके झूठ बोलकर प्रार्थना नहीं होती।

** जिस घर में उद्योग की शिक्षा नहीं है उस घर के बच्चे जल्दी घर का नाश कर देंगे।

**स्वावलम्बन का अर्थ है अपने आप पर निर्भर होना। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरे का मुँह न ताकना। अर्थात “जितना कमाओ, उतना खाओ।

भूदान

विनोबा जी देश के कोने-कोने में स्थित सुदूर गाँवों तक जाते थे और वहाँ ज्यादा भूमि वाले किसानों से मिलकर उनकी भूमि का कुछ हिस्सा भूमिहीनों के लिए माँगते थे। इस तरह भूदान यज्ञ के जरिये देश के अनेक भूमिहीन लोगों को विनोबा जी ने जमीन दिलायी।

सर्वोदय सिद्धान्त :-

विनोबा जी के सर्वोदय सिद्धान्त के तीन तत्व हैं - सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह (त्याग) | उनका कहना था कि आध्यात्मिक विकास का आधार सत्य है। सामाजिक विकास का आधार अहिंसा और आर्थिक विकास का आधार अपरिग्रह है। वे सर्वोदय का उद्देश्य स्वशासन और स्वावलम्बन मानते थे।

उन दिनों चम्बल की घाटी में डाकुओं का बहुत आतंक था। विनोबा जी चम्बल घाटी के कनेरा गांव गये। वहाँ उन्होंने लोगों को सम्बोधित किया। उनके विचारों से प्रभावित होकर चम्बल घाटी के उन्नीस डाकुओं ने एक साथ आत्मसमर्पण किया।

आचार्य ने जो कहा

आचार्य विनोबा भावे ने जीवन के कई पहलुओं पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। वे जहाँ तहाँ आयोजित प्रार्थना सभाओं, गोष्ठियों में प्रवचन दिया करते थे। यहाँ महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर उनके विचार संक्षेप में दिये जा रहे हैं : -

समता

"समता का मतलब क्या है? बराबरी, कैसी बराबरी? घर में चार रोटियाँ हैं और दो खाने वाले, हर एक को कितनी रोटियाँ दी जाएँ - दो-दो। ऐसी समता अगर माताएँ सीख लें तो अनर्थ हो जायेगा। गणित की समता दैनिक व्यवहार के किसी काम की नहीं। यदि इनमें से एक खाने वाला 2 साल का और दूसरा 25 साल, तो एक अतिसार से मरेगा ओर दूसरा भूख से। समता का अर्थ है योग्यता के अनुसार कीमत आँकना।”

उद्योग

अपने देश में आलस्य का भारी वातावरण है। यह आलस्य बेकारी के कारण आया है। शिक्षितों का तो उद्योग से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता। जो खाता है उसे उद्योग तो करना ही चाहिए चाहे वह जिस तरह का हो। घरों में उद्योग का वातावरण होना चाहिए। आलस्य की वजह से ही हम दरिद्र हो गये हैं, परतंत्र हो गए हैं।

भक्ति

“भक्ति के माने ढोंग नहीं है। हमें उद्योग छोड़कर झूठी भक्ति नहीं करनी है। खाली समय में भगवान का स्मरण कर लो। दिन भर पाप करके, झूठ बोलकर, प्रार्थना नहीं होती।“

सीखना-सिखाना

'जिसे जो आता है वह उसे दूसरे को सिखाये और जो सीख सके, उसे खुद सीखे। केवल पाठशाला की शिक्षा पर निर्भर नहीं रहा जा सकता।'

तालमेल

“कहा जाता है कि वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में गाय और बाघ एक झरने पर पानी पीते थे। इसका अर्थ क्या हुआ ? बाघ की न केवल कुरूरता नष्ट होती थी बल्कि गाय की भीरुता भी नष्ट हो जाती थी। मतलब गाय-भय शेर क्रूरता" इस तरह मेल बैठता है। नहीं तो शेर को गाय बनाने का सामर्थ्य तो सर्कस वालों में भी है।"

एक आदर्श व्यक्तित्व -

विनोबा जी ने अपना सारा जीवन एक साधक की तरह बिताया। वे ऋषि, गुरु तथा क्रांतिदूत सभी कुछ थे। उनका व्यक्तित्व कुछ ऐसा तेजस्वी एवं प्रभावशाली था कि कोई भी व्यक्ति उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। अदभुत व्यक्तित्व के प्रकाश-पुरुष आचार्य विनोबा का निधन 15 नवम्बर 1982 को हो गया लेकिन अपने विचारों के साथ वे सदैव हमारे बीच हैं, रहेंगे। वर्ष 1983 में इन्हें भारत सरकार के द्वारा मरणोपरान्त 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया।

डॉ० भीमराव अम्बेडकर | B. R. AMBEDKAR | भीमा | जय भीम

डॉ० भीमराव अम्बेडकर

"जब तक हम अपना तीन तरह से शुद्धिकरण नहीं करते, तब तक हमारी स्थायी प्रगति नहीं हो सकती। हमें अपना आचरण सुधारना होगा, अपने बोलचाल का तरीका बदलना होगा और विचारों में दृढ़ता लानी होगी।” ये उद्गार हैं डॉ० भीमराव अम्बेडकर के। डॉ० भीमराव अम्बेडकर को दलितों का मसीहा, समाज सेवी एवं विद्दिवेत्ता के रूप में जाना जाता है इन्होंने देश की स्वतंतरता के पश्चात 4 नवम्बर 1948 को भारतीय संविधान का प्रारूप संविधान सभा में प्रस्तुत किया। डॉ० अम्बेडकर इस प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। इस प्रारूप में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियाँ थीं। संविधान सभा में कई बार पढ़े जाने के बाद अन्तत: 26 नवम्बर 1949 को इस प्रारूप को स्वीकार कर लिया गया।

जन्म: 14 अप्रैल 1891

जन्मस्थान: महू, इन्दौर, मध्य प्रदेश

मृत्यु: माता: भीमा बाई सकपाल

पिता: रामजी

भीमराव अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। बचपन में माँ इन्हें प्यार से “भीमा” कहकर पुकारती थीं। इनके पिता अंग्रेजी सेना में सूबेदार थे। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने 14 साल तक मिलिट्री स्कूल में हेड मास्टर के रूप में कार्य किया। अम्बेडकर के घर में शिक्षा का माहौल था। पिता बच्चों को रामायण तथा महाभारत की कहानियों के साथ संत नामदेव, तुकाराम, मोरोपंत तथा मुक्तेश्वर की कविताएँ सुनाते थे तथा स्वयं उनसे सुनते थे। इन्हीं दिनों ज्योतिबा फुले दलितों में शिक्षा का प्रसार एवं उन्हें सामाजिक स्वीकृति दिलाने की दिशा में कार्य कर रहे थे। भीमराव के पिता रामजी इनके अच्छे मित्र और प्रशंसक थे। ज्योतिबा के व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव बालक भीमराव पर भी पड़ा।

भीमराव पाँच वर्ष की उम्र में स्कूल जाने लगे परन्तु उनका मन पढ़ने से ज्यादा बागवानी में लगता था। पिता उनकी पढ़ाई के बारे में काफी चिन्तित रहते थे। धीरे-धीरे बालक भीम की रुचि पुस्तकों में बढ़ती गयी। अब वे पाठ्यपस्तकों के अलावा अन्य पुस्तकें भी पढ़ने लगे। उन्हें पुस्तकों से गहरा लगाव हो गया। 1907 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने एलफिस्टन कालेज से इण्टर की पढ़ाई पूरी की। 17 वर्ष की उम्र में ही इनका विवाह रमाबाई से कर दिया गया। पिता का स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ने लगा था। अब भीमराव के आगे की पढ़ाई का खर्च भी उठाना मुश्किल हो रहा था।

भीमराव की प्रतिभा को पहचानकर बड़ौदा नरेश सयाजी राव ने उनकी पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की इसके सहारे उन्होंने 1912 में बी0ए0 (स्नातक) की परीक्षा उत्तीर्ण की। सयाजी राव ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भेजा। न्यूयार्क विश्वविद्यालय से उन्होंने 1915 में एम० ए० की डिग्री हासिल की। इसी दौरान भीमराव ने एक शोध प्रबन्ध भी लिखा। इस शोध प्रबन्ध का शीर्षक था - "भारत के लिए राष्ट्रीय लाभांश ऐतिहासिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन”। इस शोध प्रबन्धं पर कोलम्बिया विश्वविद्यालय ने उन्हें "डॉक्टर ऑफ फिलासफी” की उपाधि प्रदान की। अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र के अध्ययन के लिए भीमराव लंदन चले गये। इसी बीच सयाजी राव ने इनकी छात्रवृत्ति समाप्त कर दी। भीमराव को विवश होकर स्वदेश लौटना पड़ा, परन्तु उन्होंने मन ही मन संकल्प कर लिया कि पढ़ाई के लिए एक बार वे पुन: लंदन जायेंगे। पढ़ाई के दौरान उन्होंने अपने दैनिक खर्चों में कटौती करके अब तक लगभग 2000 पुस्तकें खरीद ली थीं।

उल्लेखनीय

** जुलाई 1924 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना। इसका उद्देश्य छुआछूत दूर करना था।

**ब्रिटिश सरकार द्वारा दलितों को सेना में भर्ती पर रोक को लेकर 19-20 मार्च 1927 को महाड़ में दलितों का सम्मेलन बुलाना।

**सरकार ने दलित हितों का प्रतिनिधित्व करने हेतु मुम्बई लेजिस्लेटिव कौंसिल के लिए 1929 में मनोनीत किया। डॉ0 अम्बेडकर ने शिक्षा, मद्य-निषेध, कर व्यवस्था, महिला एवं बाल कल्याण जैसे विषयों पर कड़ा रुख अपनाया।

**प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय गोलमेज सम्मेलन में दलितों के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेना

**महात्मा गांधी के साथ दलितों के उत्थान के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर। यह समझौता ‘पूना समझौता’ कहलाता है।

**प्रमुख रचनाएँ - दी बुद्ध एण्ड हिज गास्पेल, थॉट्स आन पाकिस्तान, रेवोल्यूशंस एण्ड काउन्टर रेवोल्यूशंस इन इण्डिया।

महाराष्ट्र में रहकर उन्होंने शाहूजी महाराज की सहायता से 31 जनवरी 1920 से “मूकनायक” नामक अखबार निकालने की शुरुआत की। इस अखबार का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज में व्याप्त जाति प्रथा को समाप्त करना तथा अस्पृश्यता का निवारण करना था। 21 मार्च 1920 को भीमराव ने कोल्हापुर में दलितों के सम्मेलन की अध्यक्षता की। सम्मेलन में कोल्हापुर नरेश शाहूजी महाराज ने लोगों से कहा –

“तुम्हें अम्बेडकर के रूप में अपना उद्धारक मिल गया है”

भीमराव अम्बेडकर पैसों का प्रबन्ध करके पुनः 1920 में लंदन गये। वहाँ वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत लौट आये। अब वे बैरिस्टर बन चुके थे।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर आजीवन विभिन्न प्रकार के सामाजिक कार्यों से जुड़े रहे। लगातार काम करने से उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। इसी बीच 27 मई 1935 को इनकी पत्नी रमाबाई का निधन हो गया।

1936 में डॉ० अम्बेडकर ने "इंडिपेंडट लेबर पार्टी” नाम से एक राजनैतिक दल का गठन किया। 1937 में हुए प्रांतीय चुनाव में डॉ0 अम्बेडकर और उनके कई साथी भारी बहुमत से विजयी हुए जबकि इस चुनाव में इंडियन नेशनल कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा ‘हिन्दू महासभा जैसे राजनीतिक दल चुनाव में भाग ले रहे थे। डॉ० भीमराव अम्बेडकर को जुलाई 1941 में गणित रक्षा सलाहकार समिति का सदस्य नियुक्त किया गया। 1945 में उन्होंने पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की। इस सोसाइटी ने अपना पहला शिक्षण संस्थान 1946 में सिद्धार्थ कॉलेज के नाम से खोला। 1952 में डॉ. अम्बेडकर लोक सभा के उम्मीदवार थे लेकिन चुनाव हार गये। उनको मार्च 1952 में राज्य सभा के लिए चुन लिया गया और वे भारत सरकार के कानून मन्त्री बने। 14 अक्टूबर 1956 को डॉ० अम्बेडकर ने अपने तीन लाख समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया।

6 दिसम्बर 1956 को भारतीय क्षितिज का यह सितारा सोया तो फिर नहीं उठा। उनके योगदानों के लिए भारत सरकार ने सन् 1990 में उन्हें मरणोपरान्त 'भारत रत्न' से सम्मानित किया। भले ही आज डॉ0 अम्बेडकर हमारे बीच नहीं हैं फिर भी अपने सामाजिक और वैचारिक योगदानों के लिए यह देश उन्हें युगों-युगों तक याद करता रहेगा।

स्मरणीय :-

**डॉ0 अम्बेडकर 1941 में गणित रक्षा सलाहकार समिति के सदस्य बने।

**1945 में पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना।

**1946 में सिद्धार्थ कॉलेज खोलना ।

**1952 में राज्य सभा के लिए निर्वाचित

**14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म ग्रहण करना।

**1990 में मरणोपरान्त 'भारत 'रत्न' से सम्मानित।

सोमवार, 22 नवंबर 2021

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद | ABUL KALAM AZAD

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद 

ABUL KALAM AZAD


आज से लगभग एक शताब्दी पहले की बात है बारह वर्ष की आयु पूरी होने से पहले ही एक बालक ने पुस्तकालय, वाचनालय और वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित करने की संस्था चलायी। जब वह पन्द्रह वर्ष का हुआ तो अपने से दुगुनी आयु के विद्यार्थियों की एक कक्षा को पढ़ाया। तेरह से अठारह साल की आयु के बीच बहुत सी पत्रिकाओं का सम्पादन किया। सोलह वर्ष के इस दुबले-पतले लड़के ने एक बड़े विद्वान के रूप में भाषा विशेष की राष्ट्रीय कान्फ्रेन्स से मुख्य वक्ता के रूप में भाषण दिया। इस बालक का नाम था - अबुल कलाम जो आगे चलकर स्वतन्त्रता प्राप्ति के संघर्ष का एक महान नायक कहलाया।

मौलाना अबुल कलाम का जन्म 11 नवम्बर सन् 1888 ई. को मक्का नगर में हुआ था। इनके पिता मौलाना खैरुद्दीन अरबी भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनकी माँ पवित्र नगर मदीना के मुफ्ती की पुत्री थी। इनका बचपन मक्का मदीना में बीता। इनके मकान पर शिक्षा प्रेमियों की हर समय अपार भीड़ लगी रहती थी। परिवार 1907 में भारत लौट आया और कोलकाता में बस गया।

मौलाना आजाद का प्रारम्भिक जीवन सामान्य बालकों से कुछ भिन्न था। खेलना तो उन्हें भी पसन्द था, पर उनके खेल दूसरे बच्चों के खेलों से कुछ अलग होते थे। उदाहरणार्थ- कभी वे घर के सभी बक्सों को एक लाइन में रखकर अपनी बहनों से कहते “देखो! यह रेलगाड़ी है, मैं इस रेलगाड़ी में से उतर रहा हूँ। तुम लोग चिल्ला-चिल्लाकर कहो हटो-हटो रास्ता दो, दिल्ली के मौलाना आ रहे हैं।” फिर वे अपने पिता की पगड़ी सिर पर बाँधकर बड़ी गम्भीर मुद्रा में धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए बक्सों की रेलगाड़ी से इस प्रकार नीचे उतरते जैसे कि बड़ी उम्र का कोई सम्मानित व्यक्ति उतर रहा हो।

मौलाना आजाद को बचपन से ही पुस्तकें पढ़ने का बड़ा चाव था। वे जब किसी विषय के अध्ययन में लगते तो उसमें ऐसा डूबते कि उन्हें अपने आस-पास का भी होश न रहता। अबुल कलाम बड़ी कुशाग्र बुद्धि के थे। एक बार जो कुछ पढ़ लेते, वह हमेशा के लिए उन्हें याद हो जाता। उन्होंने साहित्य दर्शन और गणित आदि विषयों का गहन अध्ययन किया था। शायरी और गद्य लेखन का शौक बचपन से ही था। अपनी इसी रुचि के कारण उन्होंने समय-समय पर कई पत्र-पत्रिकाएं निकाली और स्वयं उनका सम्पादन किया। उनकी पहली पत्रिका 'नैरंगे आलम' है। जिस समय यह पत्रिका निकली, मौलाना आजाद की आयु मात्र 12 वर्ष थी।

अबुल कलाम आजाद की योग्यता और विद्वता से लोगों का परिचय तब हुआ जब उन्होंने 'लिसानुल सिदक' नाम का एक दूसरा पत्र प्रकाशित किया। इसके माध्यम से उनका उद्देश्य तत्कालीन मुस्लिम समाज में फैले अन्ध-विश्वासों को समाप्त कर उनमें सुधार लाना था। अंजुमन हिदायतुल इस्लाम के लाहौर अधिवेशन में तत्कालीन जाने-माने लेखका एवं कवियों के सामने 15-16 वर्ष का एक दुबला-पतला, बिना दादा मुछ का नवयुवक बोलने के लिये आगे बढ़ा तो लोगों की आँख आश्चर्य से खुली की खुली रह गयीं। इस युवक ने अपनी सधी और संयत भाषा में विचार व्यक्त करने शुरू किये तो सभा में सन्नाटा छा गया। उस लड़के ने करीब ढाई घंटे तक बिना लिखित रूप के सीधे अपना भाषण दिया। इस घटना के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में अबुल कलाम आजाद की बाऊ जम गयी। उन्होंने आगे चलकर 'अलनदवा' और 'वकील' सहित कई पत्र-पत्रिकाओ का सम्पादन किया।

सन् 1912 ई. में उन्होंने अपना प्रसिद्ध साप्ताहिक अखवार 'अलहिलाल’ आरम्भ किया। यह अखबार भारत में और विदेशों में जल्दी प्रसिद्ध हो गया। लोग इकट्ठे होकर उस अखवार के हर शब्द ऐसे पढ़ते या सुनते जैसे वह स्कूल में पढ़ाया जाने वाला कोई पाठ हो। उस अखबार ने लोगों में जागृति की एक लहर उत्पन्न कर दी। आखिर सरकार ने ‘अल-हिलाल’ की 2000 रुपये और 10000 रुपये की जमानतें जब्त कर लीं। मौलाना आजाद को सरकार के खिलाफ़ लिखने के जुर्म में बंगाल से बाहर भेज दिया गया। वे चार वर्ष से भी अधिक समय तक राँची (झारखंड) में कैद रहे।

इसी सम्बन्ध में गांधीजी ने कहा “मुझे खुशी है कि सन् 1920 से मुझे मौलाना के साथ काम करने का मौका मिला है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे महान नेताओं में से वे एक हैं।

राष्ट्रीय गतिविधियों में सक्रिय रहने के कारण मौलाना आजाद को कई बार जेल जाना पड़ा। महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन को उन्होंने अपना पूरा समर्थन दिया। राष्ट्रीयता की भावना का विस्तार तथा 'हिन्दू-मुस्लिम एकता’ उनके मिशन के अंग थे। इससे उन्हें राष्ट्रीय नेताओं का भरपूर विश्वास और असीमित प्यार मिला। एक बार अपनी गिरफ्तारी के समय उन्होंने कहा था - 'हमारी सफलताएं चार सच्चाइयों पर निर्भर करती हैं और मैं इस समय भी सारे देशवासियों को इन्हीं के लिए आमन्त्रित करता है।

हिन्दू मुस्लिम एकता, शान्ति, अनुशासन और बलिदान -

1923 ई. में इन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विशेष अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया। उस समय उनकी आयु केवल 35 वर्ष थी। मौलना आजाद सच्चे राष्ट्रवादी और हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे।

मौलाना आजाद हिन्दू-मुस्लिम एकता के अनन्य दूत थे। उन्होंने एकता के सिद्धान्त से एक इंच भी हटना सहन नहीं किया। आलोचनाओं के बीच वे चट्टान की भाँति दृढ़ रहे। वे 1940 में कांग्रेस अध्यक्ष बने और स्वतन्तरता प्राप्ति के आन्दोलन के समय (1940 1947) अंग्रेजों से हुई विभिन्न वार्ताओं में शामिल रहे।

अगस्त 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ और जवाहर लाल नेहरू ने प्रधान मन्त्री का पद सँभाला। मन्त्रिमण्डल में मौलाना आजाद को शिक्षामंत्री का पद दिया गया। मौलाना ने शिक्षा, कला, संगीत और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये। शिक्षामन्त्री के रूप में मौलाना आजाद के सम्मुख दो लक्ष्य थे राष्ट्रीय एकता की स्थापना और भारत के कल्याण के लिए शिक्षा की नवीन व्यवस्था।

मौलाना आजाद लंगभग दस वर्ष तक भारत के शिक्षामंत्री रहे। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में देश का नेतृत्व किया। यह उनकी सूझबूझ और दूर दृष्टि का ही परिणाम था कि देश में शिक्षा के समुचित विकास का कार्यक्रम दूरत गति और व्यवस्थित ढंग से चलाया जा सका। उन्होंने प्रौढ़ तथा महिला शिक्षा पर भी अत्यधिक बल दिया।

राष्ट्रीय एकता, धार्मिक सहिष्णुता तथा देश-प्रेम का अनूठा आदर्श प्रस्तुत करने वाला एक यशस्वी एवं साहसी साहित्यकार, पत्रकार तथा उच्चकोटि का राजनेता 22 फरवरी सन् 1958 ई. को हमारे बीच से सदा-सदा के लिये विदा हो गया।

लाला लाजपत राय | LALA LAJPAT RAI

लाला लाजपत राय 

LALA LAJPAT RAI


“प्रिय मित्रों, मै आपको कैसे बताऊँ कि इस समय मैं पंजाब की स्थिति के बारे में क्या महसूस कर रहा हूँ। मेरा हृदय दुःख से भरा हुआ है। यद्यपि मेरी जबान मूक है। मैंने बहुत कोशिश की कि इस कष्ट के समय में मैं आप सब के साथ रहूँ और आपका दुःख बाट परन्तु मैं अपने प्रयास में असफल रहा हूँ। मैं शहीद नहीं कहलाना चाहता पर आप सब के संकट की घड़ी में आपके काम आना चाहता हूँ। मेरे हृदय में दुःख है और आत्मा घायल। मुझे नौकरशाहों की करतूतों पर बहुत क्रोध आ रहा है उससे भी ज्यादा गुस्सा आ रहा है अपने देश के लोगों के व्यवहार पर।”

इस संदेश को लाला लाजपत राय ने भेजा था, जब जलियाँवाला बाग का हत्याकाण्ड हुआ और वे उस समय भारत में नहीं थे। लाला लाजपत राय का जन्म फिरोजपुर जिले के ढोडिके नामक स्थान में 28 जनवरी 1865 में हुआ था। उनके पिता राधा किशन आजाद स्कूल के अध्यापक थे और माता थीं गुलाबी देवी। लाजपत राय ने अपने पिता को अपना गुरु स्वीकार किया और कहा “मुझे भारत में उनसे अच्छा अध्यापक नहीं मिला। वे पढ़ाते नहीं थे बल्कि छात्रों को स्वयं सीखने में सहायता करते थे।"

लाला लाजपत राय ने अपने पिता से ही पढ़ने और सीखने का उत्साह पाया, साथ में पाया स्वतन्त्रता के प्रति अथाह प्यार और भारत के लोगों से लगाव। लाजपत राय की माता ने उन्हें धर्म की शिक्षा दी। सन् 1882 में जब वे लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज के छात्र थे उस समय पंजाब और उत्तर भारत के अन्य भागों में आर्य समाज का प्रभाव एक तूफान के समान झकझोर रहा था। लाजपत राय स्वामी दयानन्द और आर्य समाज से प्रभावित हुए तथा आर्य समाज में सम्मिलित हो गये। इससे उनके जीवन को नयी दिशा मिली। लाला लाजपत राय एक संवेदनशील व्यक्ति थे जो कुछ वे सीखते थे उसे आत्मसात कर लेते थे। संवेदनशीलता और स्वतन्त्र विचार की आदत के कारण वे भारतीय देशभक्तों की जीवन कथाओं में रुचि रखने लगे।

सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई स्थापना के तीन वर्ष बाद लाजपत राय इसमें सम्मिलित हुए। उस समय उनकी अवस्था 23 वर्ष की थी। भारतीयों को अपने विचार प्रगट करने का वह एक अच्छा मंच था। लाला लाजपत राय ने कांग्रेस का ध्यान जनता की मूल समस्याओं गरीबी और निरक्षरता की ओर आकर्षित किया।

“लाला लाजपत राय के आस्था एवं विश्वास के कारण उन्हें पंजाब केसरी तथा शेरे पंजाब की उपाधि दी गयी।”

जिस समय ब्रिटिश सरकार की शक्ति अपनी चरम सीमा पर थी उस समय लाला लाजपत राय द्वारा सरकार का खुला विरोध करना बहुत साहस की बात थी। लाजपत राय की राष्ट्रीयता की भावना दिनों-दिन प्रचण्ड होती जा रही थी। इसी समय वह बाल गंगाधर तिलक के सम्पर्क में आये तिलक ने घोषणा की "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहँगा।” लाजपत राय तिलक की इस बात से पूर्णत: सहमत था।

लाला लाजपत राय स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन का प्रचार पूरे देश में करना चाहते थे जिससे ब्रिटिश आर्थिक व्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़े। इस तरह ब्रिटिश सरकार को जबरदस्ती हमारी स्वतन्त्रता की माँग को सुनना पड़ेगा। ब्रिटिश सरकार की अपनी निर्भय आलोचना, अपने दृढ़ विश्वास और जनता पर काबू होने के कारण लाला लाजपत राय पर कई बार राजद्रोह का आरोप लगाया गया। ब्रिटिश सरकार ने इन्हें कई बार अपने रास्ते से हटाने की कोशिश भी की तथा मई 1907 में लाला जी को गिरफ्तार करके कैद में डाल दिया।

राजनैतिक क्षेत्र उन्हें कट्टर देशभक्त कांग्रेस का सबसे योग्य प्रवक्ता मानता था। उन्होंने कई बार भारत का नेतृत्व विदेशों में भी किया। भारत के लिए समर्थन पाने की आशा में उन्होंने इंग्लैण्ड और यूरोप का कई बार दौरा भी किया।

8 नवम्बर 1927 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने भारत के भविष्य पर रिपोर्ट देने के लिए एक आयोग नियुक्त किया। इसमें सात ब्रिटिश सदस्य थे जिसका अध्यक्ष सरजॉन साइमन था लेकिन इस आयोग में भारतीय प्रतिनिधि नहीं थे। यह बात भारतीय राजनीतिज्ञों को बहुत बुरी लगी। जब ये सदस्य भारत आये तब लोगों ने इसका विरोध किया और काले झण्डे दिखाए। “साइमन कमीशन" के सदस्य भारत में जहाँ कहीं भी गए सभी जगह उनका व्यापक विरोध हो गया। लोगों ने 'साइमन वापस जाओ' के नारे लगाये।

आयोग के सदस्य 30 अक्टूबर 1928 को जब लाहौर पहुँचने वाले थे, वहाँ इनका विरोध कर रहे लोगों का नेतृत्व शान्तिपूर्ण ढंग से लाला लाजपत राय कर रहे थे। जैसे ही आयोग रेलवे स्टेशन पर पहँचा, शान्तिपूर्ण जुलूस पर क़रूरता से लाठियाँ बरसायी गयीं। लाजपत राय उनके विशेष निशाने पर थे। उन पर भी लाठियों की खूब बौछारें हुई।

लाठियाँ खाते हुए भी लाला लाजपत राय ने अपने वक्तव्य द्वारा लोगों को नियंत्रित रखा। जब आक्रमण समाप्त हुआ तब वे निर्भीकता से जूलूस का नेतृत्व करते हुए वापस आये। सायंकाल की एक सभा में शेरे पंजाब फिर गरजा -
“प्रत्येक प्रहार जो उन्होंने हम पर किये हैं वह उनके साम्राज्य के पतन के ताबूत में एक और कील है” घायल होने के बावजूद भी पंजाब के शेर के पास भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने की असीम शक्ति थी। लाठी चार्ज में आयी गम्भीर चोटों वे बीमार रहने लगे।

16 नवम्बर सन् 1929 को रात में उनका स्वास्थ्य अत्यधिक बिगड़ गया। अनेक प्रयत्न के बावजूद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका और प्रातः काल उनका निधन हो गया। लाला लाजपत राय राजनैतिक मंच के अलावा सामाजिक गतिविधियों में सतत प्रयत्नशील रहे सामाजिक सुधार के कार्यक्रमों एवं शिक्षा का प्रचार करने के लिये उन्होंने दूर-दूर तक भ्रमण किया। लाला लाजपत राय ने अति वंचित एवं पिछड़े लोगों के लिए, जिन्हें शिक्षा का लाभ नहीं मिल पाता था, एक शिक्षण संस्था की स्थापना की इसके पश्चात् इस तरह की कई संस्थायें खोली गयीं और उनका अस्तित्व बनाये रखने के लिए उन्होंने अपनी बचत से 40,000 रुपया दान दिया। लाला लाजपत राय हृदय से शिक्षाशास्त्री थे। उनका विश्वास था कि जनता के उत्थान के लिए शिक्षा अनिवार्य है। वे बच्चों के शारीरिक विकास पर बहुत जोर देते थे, इसमें बच्चों के लिए पौष्टिक आहार भी शामिल था। उनकी इच्छा थी किं स्कूल के बच्चों को राष्ट्रीयता और देश भक्ति भी अन्य विषयों की तरह पढ़ाया जाय जिससे बच्चे अपने देश पर गर्व करना सीखें। उनकी पत्रिका 'यंग इण्डिया' के अनुसार लाला लाजपत राय का महिलाओं की समस्याओं को देखने का दृष्टिकोण अपने समय से बहुत आगे एवं प्रगतिशील था। वे चाहते थे कि भारतीय महिला अपनी सलज्जता, मर्यादा और परिवार के प्रति अपने कर्तव्य की भावना कायम रखें। वे यह भी चाहते थे कि महिलायें अपने अधिकारों को मानसिक माँगना सीखें। उनका सुझाव था कि बालिकाओं को भी उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास का अवसर दिया जाय।

सन् 1896 में जब उत्तर भारत में भीषण अकाल था, लोग भूख से मर रहे थे, तब ब्रिटिश सरकार के राहत कार्य पर्याप्त नहीं महसूस कर भारतीय नेताओं ने राहत कार्य अपने हाथ में ले लिया जिसमें लाला लाजपत राय सबसे आगे थे।

इसी प्रकार पंजाब में भूकम्प पीडितों को राहत पहँचाने और उनकी सहायता करने में आप अग्रणी रहे। लाला लाजपत राय ने अपने राहत कार्य के दौरान 'सर्वेन्टस ऑफ पीपुल सोसाइटी' की स्थापना भी की थी। इसके सदस्य भारतीय देश भक्त थे जिनका ध्येय ज्यादा से ज्यादा समय राष्ट्र की सेवा में व्यतीत करना था।

लाला लाजपत राय ने कई पुस्तकें भी लिखीं हैं :- जैसे ‘ए हिस्टरी ऑफ इण्डिया', 'महाराज अशोक', 'वैदिक टैक्ट' 'अनहैप्पी इण्डिया'। उन्हों ने कई पत्रिकाओं की स्थापना और सम्पादन भी किया जैसे ‘यंगइण्डिया’, ‘दी पीपुल' और 'दैनिक वन्दे मातरम्' ये उनके काम के हिस्से थे। मुहम्मद अली जिन्ना ने लाला लाजपत राय के लिए कहा था, '

‘वह भारत माता के महान पुत्रों में से एक है' लाला लाजपत राय के योगदानों को यह देश कभी भी भुला नहीं सकता। उनका त्याग और बलिदान देशवासियों के लिए चिरस्मरणीय रहेगा।

स्वामी विवेकानन्द | SWAMI VIVEKANANDA

स्वामी विवेकानन्द 

SWAMI VIVEKANANDA


“यदि कोई व्यक्ति यह समझता है कि वह दूसरे धर्मों का विनाश कर अपने धर्म की विजय कर लेगा, तो बन्धुओं! उसकी यह आशा कभी भी पूरी नहीं होने वाली। सभी धर्म हमारे अपने हैं, इस भाव से उन्हें अपनाकर ही हम अपना और सम्पूर्ण मानवजाति का विकास कर पायेंगे। यदि भविष्य में कोई ऐसा धर्म उत्पन्न हुआ जिसे सम्पूर्ण विश्व का धर्म कहा जाएगा तो वे अनन्त और निर्बाध होगा। वह धर्म न तो हिन्दू होगा, न मुसलमान, न बौद्ध, न ईसाई अपितु वह इन सबके मिलन और सामंजस्य से पैदा होगा।"

ये ही वो शब्द हैं, जिन्होंने विश्वमंच पर भारत की सिरमौर छवि को प्रस्तुत किया और संसार को यह मानने को विवश कर दिया कि भारत वास्तव में विश्वगुरु है। क्या आप जानते हैं, ये शब्द किसने कहे थे? ये शब्द 11 सितम्बर सन् 1893 को शिकागो (अमेरिका) में आयोजित विश्वधर्मसभा के मंच पर स्वामी विवेकानन्द ने कहे थे स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी को कोलकाता में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त तथा माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। इनके बचपन का नाम नरेन्द्र था।

घर का वातावरण अत्यन्त धार्मिक था। दोपहर में सारे परिवार की स्त्रियाँ इकट्ठा होतीं और कथा-वार्ता कहतीं। नरेन्द्र शांत होकर बड़े चाव से इन कथाओं को सुनता। बचपन में ही नरेन्द्र ने रामायण तथा महाभारत के अनेक प्रसंग तथा भजन कीर्तन कण्ठस्थ कर लिये थे।

नरेन्द्र की प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई। इसके उपरान्त वे विभिन्न स्थानों पर शिक्षा प्राप्त करने गए। कुश्ती, बॉक्सिंग, दौड़, घुड़दौड़, तैराकी, व्यायाम उनके शौक थे। उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व के कारण लोग उन्हें मन्त-मुग्ध होकर देखते रह जाते। घर पर पिता की विचारशील पुरुषों से चर्चा होती। नरेन्द्र उस चर्चा में भाग लेते और अपने विचारों से विद्वत्मण्डली को आश्चर्य चकित कर देते। उन्होंने बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त की। इस समय तक उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति का विस्तृत अध्ययन कर लिया था। दार्शनिक विचारों के अध्ययन से उनके मन में सत्य को जानने की इच्छा जागने लगी।

कुछ समय पश्चात् नरेन्द्र ने अनुभव किया कि उन्हें बिना योग्य गुरु के सही मार्गदर्शन नहीं मिल सकता है क्योंकि जहाँ एक ओर उनमें आध्यात्मिकता के प्रति जन्मजात रुझान था वहीं उतना ही प्रखर बुद्धियुक्त तार्किक स्वभाव था। ऐसी परिस्थिति में वे ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित हुए। नरेन्द्र नाथ का प्रश्न था "क्या ईश्वर का अस्तित्व है?” इस प्रश्न के समाधान के लिए वे अनेक व्यक्तियों से मिले किन्तु समाधान न पा सके। इसी बीच उन्हें ज्ञात हुआ कि कोलकाता के समीप दक्षिणेश्वर में एक तेजस्वी साधु निवास करते है।

अपने चचेरे भाई से भी नरेन्द्र ने इन साधु के बारे में सुना। वे मिलने चल दिए। वे साधु थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस नरेन्द्र ने उनसे पूछा - "महानुभाव, क्या आपने ईश्वर को देखा है?” उत्तर मिला "हाँ मैंने देखा है, ठीक ऐसे ही जैसे तुम्हें देख रहा हूँ, बल्कि तुमसे भी अधिक स्पष्ट और प्रगाढ़ रूप में।" नरेन्द्र इस उत्तर पर मौन रह गये। उन्होंने मन ही मन सोचा चलो कोई तो ऐसा मिला जो अपनी अनुभूति के आधार पर यह कह सकता है कि ईश्वर का अस्तित्व है। नरेन्द्र नाथ का संशय दूर हो गया। शिष्य की आध्यात्मिक शिक्षा का श्री गणेश यहीं से हुआ।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने इस उद्विग्न, चंचल और हठी युवक में भावी युगप्रवर्तक और अपने सन्देशवाहक को पहचान लिया था। उन्हां ने टिप्पणी की -

“नरेन (नरेन्द्रर) एक दिन संसार को आमूल झकझोर डालेगा।"

गुरु रामकृष्ण ने अपने असीम धैर्य द्वारा इस नवयुवक भक्त की क्रान्तिकारी भावना का शमन कर दिया। उनके प्यार ने नरेन्द्र को जीत लिया और नरेन्द्र ने भी गुरु को उसी प्रकार भरपूर प्यार और श्रद्धा दी।

अपनी महासमाधि से तीन-चार दिन पूर्व श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपनी सारी शक्तियाँ नरेन्द्र को दे डाली और कहा - “मेरी इस शक्ति से, जो तुममें संचारित कर दी है, तुम्हारे द्वारा बड़े-बड़े कार्य होंगे और उसके बाद तुम वहाँ चले जाओगे जहाँ से आये हो'।

रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात् नरेन्द्र परिव्राजक के वेश में मठ छोड़कर निकल पड़े। उन्होंने सम्पूर्ण भारत में घूम-घूम कर रामकृष्ण के विचारों को फैलाना प्रारम्भ कर दिया। वे भारतीय जनता से मिलते। उनके सुख दुःख बाँटते। दलितों शोषितों के प्रति उनके मन में विशेष करुणा का भाव था। यह समाचार पढ़कर कि कोलकाता में एक आदमी भूख से मर गया, द्रवित स्वर में वे पुकार उठे “मेरा देश, मेरा देश! छाती पीटते हुए उन्होंने स्वयं से प्रश्न किया - “धर्मात्मा कहे जाने वाले हम संन्यासियों ने जनता के लिए क्या किया है?” इसी समय उन्होंने अपना पहला कर्तव्य तय किया - “दरिद्रजन की सेवा, उनका उद्धार” उनके द्रवित कण्ठ से यह स्वर फूटा “यदि दरिद्र पीडित मनुष्य की सेवा के लिए मुझे बार-बार जन्म लेकर हजारों यातनाएँ भी भोगनी पड़ीं, तो मैं भोगूँगा।”

स्वामी जी ने अपने जीवन के कुछ उद्देश्य निर्धारित किये। सबसे बड़ा कार्य धर्म की पुनस्थापना का था। उस समय भारत ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में बुद्धिवादियों की धर्म से श्रद्धा उठती जा रही थी। अतः आवश्यक था धर्म की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत करना जो मानव जीवन को सुखमय बना सके। दूसरा कार्य था हिन्दू धर्म और संस्कृति पर हिन्दुओं की शुद्धा जमाए रखना जो उस समय यूरोप के प्रभाव में आते जा रहे थे।

तीसरा कार्य था भारतीयों को उनकी संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिक परम्पराओं का योग्य उत्तराद्दिकारी बनाना। स्वामी जी की वाणी और विचारों से भारतीयों में यह विश्वास जाग्रत हुआ कि उन्हें किसी के सामने मस्तक झुकाने अथवा लज्जित होने की आवश्यकता नहीं।

लगभग तीन वर्ष तक स्वामी जी ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर प्रत्यक्षतः ज्ञान प्राप्त किया। इस अवधि में अद्दिकांशतः वे पैदल ही चले। उन्होंने देश की अवनति के कारणों पर मनन किया और उन साधनों पर विचार किया जिनसे कि देश का पुन: उत्थान हो सके। भारत की दरिद्रता के निवारण हेतु सहायता प्राप्ति के उद्देश्य से उन्होंने पाश्चात्य देशों की यात्रा का निर्णय लिया।

सन् 1893 ई. में शिकागो (अमेरिका) में सम्पूर्ण विश्व के धर्माचार्यां का सम्मेलन होना निश्चित हुआ। स्वामी जी के हृदय में यह भाव जाग्रत हुआ कि वे भी इस सम्मेलन में जाएँ। खेतरी नरेश, जो कि उनके शिष्य थे, वे स्वामी जी की इस भावना की पूर्ति में सहयोग किया। खेतरी नरेश के प्रस्ताव पर उन्होंने अपना नाम विवेकानन्द धारण किया और अनेक प्रचण्ड बाधाओं को पारकर इस सम्मेलन में सम्मिलित हुए। निश्चित समय पर धर्म सभा का कार्य प्रारम्भ हुआ। विशाल भवन में हजारों नर-नारी शोता उपस्थित थे। सभी वक्ता अपना भाषण लिखकर लाए थे जबकि स्वामी जी ने ऐसी कोई तैयारी न की थी। धर्म सभा में स्वामी जी को सबसे अन्त में बोलने का अवसर दिया गया क्योंकि वहाँ न कोई उनका समर्थक था, न उन्हें कोई पहचानता था। स्वामी जी ने ज्यों ही श्रोताओं को सम्बोधित किया “अमेरिका वासी बहनों और भाइयों! त्यों ही सारा सभा भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। बहुत देर तक तालियाँ बजती रहीं। पूर्व के सभी वक्ताओं ने सम्बोधन में कहा था 'अमेरिका वासी महिलाओं एवं पुरुषों। स्वामी जी के अपनत्व भरे सम्बोधन ने सभी श्रोताओं का हृदय जीत लिया। तालियाँ थमने पर स्वामी जी ने व्याख्यान प्रारम्भ किया। अन्य सभी वक्ताओं ने जहाँ अपने-अपने धर्म और ईश्वर की श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की, वह स्वामी विवेकानन्द ने सभी धर्मों को एकाकार करते हुए घोषणा की "लड़ो नहीं साथ चलो। खण्डन नहीं, मिलो। विग्रह नहीं, समन्वय और शांति के पथ पर बढ़ो।' इस भाषण से उनकी ख्याति सम्पूर्ण विश्व में फैल गयी। अमेरिका के अग्रणी पत्र दैनिक हेराल्ड ने लिखा “शिकागो धर्म सभा में विवेकानन्द ही सर्वश्रेष्ठ व्याख्याता हैं।” प्रेस ऑफ अमेरिका ने लिखा “उनकी वाणी में जादू है, उनके शब्द हृदय पर गम्भीरता से अंकित हो जाते हैं।"

स्वामी जी की विदेश यात्रा के कई उद्देश्य थे। एक तो वे भारतवासियों के इस अन्धविश्वास को तोड़ना चाहते थे कि समुद्र यात्रा पाप है, तथा विदेशियों के हाथ का अन्न-जल ग्रहण करने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है। दूसरा यह कि भारत में अंग्रेजी प्रभाव वाले लोगों को वे यह भी दिखाना चाहते थे कि भारतवासी भले ही अपनी संस्कृति का आदर करें या न करें, पश्चिम के लोग जरूर उससे प्रभावित हो सकते हैं। शिकागो सम्मेलन के बाद जनता के विशेष अनुरोध पर स्वामी जी तीन वर्ष अमेरिका और इंग्लैण्ड में रहे। इस अवधि में भाषणों, वक्तव्यों, लेखों, वाद-विवादों के द्वारा उन्होंने भारतीय विचारधारा को पूरे यूरोप में फैला दिया।

विदेश यात्रा में उन्हें सबसे मधुर मित्र के रूप में जे.जे. गुडविन, सेवियर दम्पति और मार्गरेट नोब्ल मिले जिन्हों ने उनके कार्य एवं विचारों को सर्वत्र फैलाया। मार्गरेट नोब्ल ही 'भगिनी निवेदिता' कहलायी। भगिनी निवेदिता भारतीय तपस्वी समाज में प्रवेश करने वाली प्रथम पाश्चात्य महिला थीं। इन्होंने पश्चिम में विवेकानन्द की विचारधारा के प्रचार-प्रसार हेतु जितना कार्य किया उतना किसी और ने नहीं किया। विदेश यात्रा के दौरान ही उनकी भेंट प्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर से हुई। विवेकानन्द ने उन्हें भारत आने का निमंत्रण दिया। मैक्समूलर स्वामी जी के ज्ञान एवं व्यवहार से अभिभूत हो गये।

स्वामी जी ने यूरोप और अमेरिकावासियों को भोग के स्थान पर संयम और त्याग का महत्त्व समझाया, जबकि भारतीयों का ध्यान समाज की आर्थिक दुरावस्था की ओर आकृष्ट किया। उन्होंने कहा - “जो भूख से तड़प रहा हो उसके आगे दर्शन और धर्मग्रन्थ परोसना उसका मजाक उड़ाना है" उन्होंने कहा -“भारत का कल्याण शक्ति साधना में है यहाँ के जन-जन में जो साहस और विवेक छिपा है उसे बाहर लाना है। मैं भारत में लोहे की माँसपेशियाँ और फौलाद की नाडियाँ देखना चाहता हूँ।" मानव मात्र के प्रति प्रेम और सहानुभूति उनका स्वभाव था। वे कहा करते - "जब पड़ोसी भूखा मरता हो तब मन्दिर में भोग लगाना पुण्य नहीं पाप है। वास्तविक पूजा निर्दन और दरिद्र की पूजा है, रोगी और कमजोर की पूजा है।"

इंग्लैण्ड और अमेरिका में पर्याप्त प्रचार कार्य की व्यवस्था कर स्वामी जी भारत आये। यहाँ पहुँचकर अपने कार्य को दृढ़ आधार देने तथा मानव मात्र की सेवा के उद्देश्य से 1897 ई. में 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की। मिशन का लक्ष्य सर्वधर्म समभाव था। नये मठों का निर्माण, देश-विदेश में परचार कार्य की व्यवस्था, इस सबके कारण स्वामी जी को विश्राम नहीं मिल पाता था। इसका प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ने लगा। चिकित्सकों के सुझाव पर स्थान परिवर्तन कर दार्जिलिंग चले गये, पर तभी कोलकाता में प्लेग फैल गया। उन्हें यह समाचार मिला तो वे महामारी से ग्रस्त लोगों की सेवा के लिए विकल हो उठे। उन्होंने कोलकाता लौटकर प्लेग ग्रस्त लोगों की सेवा का कार्य शुरू कर दिया। स्वामी जी के हृदय में नारियों के प्रति असीम उदारता का भाव था। वे कहते थे जो जाति नारी का सम्मान करना नहीं जानती वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी, न आगे कर सकेगी।

4 जुलाई सन् 1902 ई. को वे प्रातः काल से ही अत्यन्त प्रफुल्ल दिख रहे थे। ब्रह्म मुहूर्त में उठे। पूजा की। शिष्यों के बीच बैठकर रुचिपूर्वक भोजन किया। छात्रों को संस्कृत पढ़ाई। फिर एक शिष्य के साथ बेलूर मार्ग पर लगभग दो मील चले और भविष्य की योजना समझाई। शाम हुई। संन्यासी बन्धुओं से स्नेहमय वार्तालाप किया। राष्ट्रों के अभ्युदय और पतन का प्रसंग उठाते हुए कहा “यदि भारत समाज संघर्ष में पड़ा तो नष्ट हो जाएगा”। सात बजे मठ में आरती के लिए घंटी बजी। वे अपने कमरे में चले गये और गंगा की ओर देखने लगे। जो शिष्य साथ था उसे बाहर भेजते हुए कहा - मेरे ध्यान में विघ्न नहीं होना चाहिए। पैंतालीस मिनट बाद शिष्य को बुलाया सब खिड़कियाँ खुलवा दीं। भूमि पर बायीं करवट चुपचाप लेटे रहे। ध्यान मग्न प्रतीत होते थे। घण्टे पहर बाद एक गहरा निःश्वास छोड़ा और फिर चिर मौन छा गया। एक गुरुभाई ने कहा - "उनके नथुनों, मुँह और आँखों में थोड़ा रक्त आ गया है।” दिखता था कि वे समाधि में थे। इस समय उनकी अवस्था उन्तालीस वर्ष की थी। अगले दिन संघर्ष, त्याग और तपस्या का प्रतीक वह महापुरुष संन्यासी गुरु भाई और शिष्यों के कंधां पर जय-जयकार की ध्वनि के साथ चिता की ओर जा रहा था। वातावरण में जैसे ये शब्द अब भी गूँज रहे थे - “शरीर तो एक दिन जाना ही है, फिर आलंसियों की भाँति क्यों जिया जाए। जंग लगकर मरने की अपेक्षा कुछ करके मरना अच्छा है। उठो जागो और अपने अन्तिम लक्ष्य की पूर्ति हेतु कर्म में लग जाओ।

शनिवार, 20 नवंबर 2021

टीपू सुल्तान TIPU SULTAN | MYSORE

टीपू सुल्तान 

TIPU SULTAN


टीपू सुल्तान हैदरअली का पुत्र था और इसका जन्म सन् 1753 ई. में हुआ था। इसके पिता मैसूर के शासक थे। कुछ लोग समझते हैं कि हैदरअली मैसूर का राजा था। यह बात नहीं है। हैदरअली ने अपने को कभी राजा नहीं बनाया। मैसूर के राजा की मृत्यु के बाद उसने उनके छोटे पुत्र को जिसकी अवस्था तीन-चार वर्ष की थी, राजा घोषित कर दिया और उन्हीं के नाम पर सब काम-काज करता रहा। उसने धीरे-धीरे मैसूर राज्य की सीमा बढ़ा ली थी। कुछ पढ़ा-लिखा न होने पर भी उसको सेना सम्बन्धी अच्छा ज्ञान था। उसका सहायक खांडेराव एक महाराष्ट्री था।

टीपू जब तीस साल का हुआ, हैदरअली की मृत्यु हुई। युद्ध तथा शासन का तब तक उसे बहुत अच्छा ज्ञान हो गया था। उस समय भारत में इंग्लैण्ड की ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपना राज्य फैला रही थी। हैदर अली कई बार कम्पनी से लड़ा था जिसके कारण टीपू को अंग्रेजों से लड़ने के रंग-ढंग की जानकारी हो गयी थी। इस युद्ध में टीपू ने नये ढंग के आक्रमण का तरीका निकाला था। वह एकाएक बहुत जोरों से बिजली की भाँति आक्रमण करता था और शत्रु के पैर उखड़ जाते थे। हैदरअली स्वयं पढ़ा-लिखा नहीं था परन्तु टीपू की शिक्षा की उसने अच्छी व्यवस्था कर दी थी। अत: टीपू शिक्षित भी था और घुड़सवारी में भी निपुण था।

जिस समय टीपू को पिता की मृत्यु का समाचार मिला वह भारत के पश्चिम मालाबार में अंग्रेजों से लड़ रहा था। उसने लड़ाई छोड़ना ही उचित समझा। वहाँ सभी दरबारियों तथा मन्त्रियों ने इनको ही सहायता दी और टीपू मैसूर की बड़ी सेना का सेनापति बनाया गया।

इसके बाद उसे अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने का प्रबन्ध करना था। अंग्रेजों ने मराठों से सन्धि कर ली और टीपू पर आक्रमण किया। इस लड़ाई में टीप और अंग्रेजों को पराजित किया। टीप ने अपनी सहायता के लिए कुछ फ्रेंच सिपाही भी रखे थे जो उन दिनों भारत में थे। अंग्रेजों ने टीप से सन्धि की प्रार्थना की। इस सन्धि की बातें करने के लिए अंग्रेजों की ओर से एक दल आया और टीप से अंग्रेजों की सन्धि हो गयी किन्तु अंग्रेजों ने ये सन्धि इसलिए की थी कि हमें समय मिल जाय जिसमें हम और तैयारी को चूर कर ले और टीपू की सारी शक्ति को चूर कर डाले। टीपू को इसका ध्यान न रहा। वह समझता था कि मैंने अंग्रेजों को हरा दिया है, मेरी शक्ति उनके बराबर तो है ही। यहीं उसने धोखा खाया। उसने शत्रु की शक्ति का अनुमान ठीक नहीं लगाया। फ्रेंच सैनिकों ने भी टीप के इस विचार का समर्थन किया। इतना ही नहीं, उन लोगां ने उसे भड़काया भी था।

उन लोगों का विचार था कि यदि अवसर मिले तो टीपू की सहायता से अंग्रेजों को भारत के दक्षिण से निकालकर स्वयं वहाँ राज्य करें। इन बातों से टीपू का उत्साह बढ़ गया। टीपू ने फ्रांस से कुछ सहायता पाने की आशा की, कुछ जगह पत्र भी लिखा। उसका यही अभिप्राय था कि अंग्रेजों को भारतवर्ष से निकाल दिया जाये। अंग्रेजों को इस बात का पता लग गया और उन्होंने टीपू को समय देना उचित न समझा। उन्होंने टीपू के विरुद्ध सेना भेज दी। इस बार अंग्रेजों और टीपू के बीच कई बार घमासान लड़ाइयाँ हुईं और अन्त में टीपू घिर गया। कुछ दिनों के बाद टीपू लड़ते हुए मारा गया।

टीपू को विजय प्राप्त नहीं हुई, यह उसका दुर्भाग्य था। किन्तु यदि उसे सचमुच सहायता मिली होती तो अंग्रेजों का राज्य भारतवर्ष में शायद दृढ़ न हो पाता और हमारे देश का इतिहास बदल गया होता। यदि वह अंग्रेजों से ले देकर सन्धि कर लेता तो उसे कोई कठिनाई न होती किन्तु उसने ऐसा नहीं किया और इसी कारण अंग्रेज भी उसका नाश करने पर तुले हुए थे।

टीपू ने अपने राज्य में अनेक सुधार किये थे। उस समय वहाँ ऐसी प्रथा थी कि एक स्त्री कई पुरुषों से विवाह कर सकती थी। यह प्रथा उसने बन्द कर दी और नियम बनाया कि जो ऐसा करेगा उसे कठोर दण्ड दिया जायेगा। वह स्वयं शराब नहीं पीता था और उसके राज्य में शराब पीना अपराध था। उसकी पढ़ने-लिखने में रुचि थी और उसका निजी पुस्तकालय था। उन दिनों पुस्तकालय बनाना कठिन था क्योंकि छापाखाना नहीं था और हाथ से लिखी पुस्तकें ही मिलती थीं। उन पुस्तकों से पता चलता है कि साहित्य के साथ साथ टीपू की कविता, गणित, ज्योतिष, विज्ञान तथा कला में भी रुचि थी। टीपू का जीवन आमोद-प्रमोद में नहीं बीतता था। सबेरे से सन्ध्या तक वह परिश्रम करता था और चाहता था कि दूसरे भी इसी प्रकार राज्य का काम-काज करें। उसने तिथियाँ सूर्य-वर्षों के अनुसार चलायी थीं। युद्ध-कला पर उसने एक पुस्तक भी लिखी। उसकी स्पष्ट आज्ञा थी युद्ध के पश्चात् लूटपाट में स्त्रियों को कोई न छुए। अपनी माता का वह बहुत सम्मान करता था और सदा उनकी आज्ञा का पालन करता था।

टीपू ने अपने पिता के सम्मुख युवावस्था में लिख कर प्रतिज्ञा की थी कि मैं झूठ कभी नहीं बोलूँगा, धोखा किसी को नहीं दूँगा, चोरी नहीं करूँगा और जीवन के अन्त तक उसने इस परतिज्ञा का पालन किया।

टीपू हिन्दू-मुस्लिम मेल-जोल का पक्षपाती था। उसकी सेना में तथा मन्त्रि मण्डल में सभी धर्मों के अनुयायी थे। हाँ, धोखा देने वालों के साथ उसका व्यवहार कठोर होता था और उन्हें वह दण्ड देता था।

टीप, वह वीर था जिसने अपने देश को विदेशियों के चंगुल से छुड़ाने का कठिन प्रयत्न किया। उसे सफलता नहीं मिली, किन्तु उसके महान होने में कोई सन्देह नहीं है।

गोस्वामी तुलसीदास | TULSIDAS | भक्तिकाल | रामभक्तिशाखा

गोस्वामी तुलसीदास 

लगभग चार सौ वर्ष पहले तीर्थ शूकरखेत (आज सोरां, जिला-एटा, उ0प्र0) में संत नरहरिदास का आश्रम था। वे विद्वान उदार और परम भक्त थे। वे अपने आश्रम में लोगों को बड़े भक्ति-भाव से रामकथा सुनाया करते थे। एक दिन जब नरहरिदास कथा सुना रहे थे, उन्होंने देखा भक्तों की भीड़ में एक बालक तन्मयता से कथा सुन रहा है। बालक की ध्यान मुद्रा और तेजस्विता देख उन्हें उसके महान आत्मा होने की अनुभूति हुई। उनकी यह अनुभूति बाद में सत्य सिद्ध भी हुई। यह बालक कोई और नहीं तुलसीदास थे। जिन्होंने अप्रतिम महाकाव्य 'रामचरित मानस' की रचना की।

तुलसीदास का जन्म यमुना तट पर स्थित राजापुर (चित्रकूट) में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्मा राम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद है। जन्म के कुछ ही समय बाद इनके सिर से माँ बाप का साया उठ गया। सन्त नरहरिदास ने अपने आश्रम में इन्हें आश्रय दिया। वहीं इन्होंने रामकथा सुनी। पन्द्रह वर्षों तक अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने के पश्चात् तुलसीदास अपने जन्म स्थान राजापुर चले आए। यहीं पर उनका विवाह रत्नावली के साथ हुआ। एक दिन जब तुलसी कहीं बाहर गये हुए थे, रत्नावली अपने भाई के साथ मायके (पिता के घर) चली गयीं। घर लौटने पर तुलसी को जब पता चला, वे उल्टे पाँव ससुराल पहुँच गए। तुलसी को देखकर उनके ससुराली जन स्तब्ध रह गए। रत्नावली भी लज्जा और आवेश से भर उठी। उसने धिक्कारते हुए कहा 'तुम्हें लाज नहीं आती, हाड़- माँस के शरीर से इतना लगाव रखते हो। इतना प्रेम ईश्वर से करते तो अब तक न जाने क्या हो जाते।' पत्नी की तीखी बातें तुलसी को चुभ गयीं। वे तुरन्त वहाँ से लौट पड़े। घर-द्वार छोड़कर अनेक जगहों में घूमते रहे फिर साधु वेश धारण कर स्वयं को श्रीराम की भक्ति में समर्पित कर दिया।

काशी में श्री राम की भक्ति में लीन तुलसी को हनुमान के दर्शन हुए। कहा जाता है कि उन्होंने हनुमान से श्रीराम के दर्शन कराने को कहा। हनुमान ने कहा राम के दर्शन चित्रकूट में होंगे। तुलसी ने चित्रकूट में राम के दर्शन किए। चित्रकूट से तुलसी अयोध्या आये। यहीं सम्वत् 1631 में उन्होंने 'रामचरित मानस की रचना प्रारम्भ की। उनकी यह रचना काशी के अस्सी घाट में दो वर्ष सात माह छब्बीस दिनों में सम्वत् 1633 में पूरी हुई। जनभाषा में लिखा यह ग्रन्थ रामचरित मानस, न केवल भारतीय साहित्य का बल्कि विश्व साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है। इसका अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं के साथ विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है। रामचरित मानस में श्रीराम के चरित्र को वर्णित किया गया है। इसमें जीवन के लगभग सभी पहलुओं का नीतिगत वर्णन है। भाई का भाई से, पत्नी का पति से, पति का पत्नी से, गुरु का शिष्य से, शिष्य का गुरु से, राजा का प्रजा से कैसा व्यवहार होना चाहिए, इसका अति सजीव चित्रण है। राम की रावण पर विजय इस बात का प्रतीक है कि सदैव बुराई पर अच्छाई, असत्य पर सत्य की विजय होती है।

तुलसी ने जीवन में सुख और शान्ति का विस्तार करने के लिए जहाँ न्याय, सत्य और प्राणिमात्र से प्रेम को अनिवार्य माना है वहीं दूसरों की भलाई की प्रवृत्ति को मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म कहा है। उनकी दृष्टि में दूसरों को पीड़ा पहँचाने से बड़ा कोई पाप नहीं है। उन्होंने लिखा है कि

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।“

रामचरित मानस के माध्यम से तुलसीदास ने जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। इसी कारण रामचरित मानस केवल धार्मिक ग्रन्थ न होकर पारिवारिक, सामाजिक एवं नीतिसम्बन्धी व्यवस्थाओं का पोषक ग्रन्थ भी है। तुलसी ने रामचरित मानस के अलावा और भी ग्रन्थों की रचना की है जिनमें विनय पतिका, कवितावली, दोहावली, गीतावली आदि प्रमुख हैं।

तुलसीदास समन्वयवादी थे। उन्हें अन्य धर्मा मत-मतान्तरों में कोई विरोध नहीं दिखायी पड़ता था। तुलसीदास जिस समय हुए उस समय मुगल सम्राट अकबर का शासन काल था। अकबर के अनेक दरबारियों से उनका परिचय था। अब्दुर्रहीम खानखाना से जो स्वयं बहुत बड़े विद्वान तथा कवि थे, तुलसीदास की मित्रता थी। उन्होंने तुलसीदास की प्रशंसा में यह दोहा कहा -

सुरतिय, नरतिय, नागतिय, यह चाहत सब कोय।

गोद लिए हलसी फिरे, तुलसी सो सुत होय।।

तुलसीदास अपने अंतिम समय में काशी में गंगा किनारे अस्सीघाट में रहते थे। वहीं इनका देहावसान सम्वत् 1680 में हुआ। इनकी मृत्यु को लेकर एक दोहा प्रसिद्ध है -

“संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।

श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।“

भक्त, साहित्यकार के रूप में तुलसीदास हिन्दी भाषा के अमूल्य रत्न हैं।

दानवीर राजा हर्षवर्धन | RAJA HARSHA | रत्नावली | नागानन्द | प्रियदर्शिका

दानवीर राजा हर्षवर्धन 

ईसा की सातवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध की बात है। प्रयाग में बहुत बड़े दान-समारोह का आयोजन किया गया था। सम्पूर्ण भारत से लोग दान-दक्षिणा पाने के लिए एकत्र थे। राजा दान-दक्षिणा की सभी वस्तुओं को यहाँ तक कि राजकोष की सम्पूर्ण सम्पत्ति और अपने शरीर के समस्त आभूषणों को जब दान दे चुका तो एक व्यक्ति ऐसा रह गया जिसे देने के लिए उसके पास कुछ शेष नहीं था। दानार्थी बोला- राजन्! आपके पास मुझे देने के लिए कुछ नहीं बचा है। मैं वापस जाता हूँ। राजा ने कहा- ठहरो, अभी मेरे वस्त्र शेष हैं जिन्हें मैंने दान नहीं दिया है और पास खड़ी बहन से अपना तन ढकने के लिए दूसरा वस्तर मांग कर उसने अपना उत्तरीय उतार कर उस याचक को दे दिया। गद्गद् स्वर से जनसमूह ने हर्ष ध्वनि की…. राजा चिरंजीव हों उनका यश अमर रहे आदि नारे लगाए।

जन-जन को अपनी दानशीलता से मुग्ध करने वाला यह राजा और कोई नहीं, दानवीर हर्षवर्धन था।

590 ई. के ज्येष्ठ माह में रानी यशोमती के गर्भ से हर्ष का जन्म हुआ था। उनके पिता प्रभाकर वर्धन थानेश्वर के योग्य एवं प्रतापी शासक थे, जिन्होंने भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों का बड़ी कुशलता से दमन किया था। पिता की मृत्यु के बाद हर्षवर्धन के बड़े भाई, राज्यवर्धन गद्दी पर बैठे। इसी बीच मालवा के राजा देवगुप्त ने हर्ष की छोटी बहन राज्यश्री के पति ग्रहवर्मा की हत्या कर दी। गहवर्मा कन्नौज का राजा था। राज्यश्री को कैद करके कारागार में डाल दिया गया था। इस अपमान का बदला लेने के लिए राजवर्धन ने मालवा पर चढ़ाई कर दी और युद्ध में विजयी हुआ किन्तु लौटते समय बंगाल के राजा शशांक द्वारा मार डाला गया। हर्ष अभी सोलह वर्ष का नहीं हुआ था। भाई राज्यवर्धन की मृत्यु पर अत्यधिक दुःखी हुआ और राजपाट छोड़ने को तैयार हो गया। इस पर मन्त्रियों ने उसे बहुत समझाया और राजा बनने की सविनय प्रार्थना की, तब शीलादित्य उपनाम ग्रहण करके वर्ष 606 ई. में वह कन्नौज के सिंहासन पर बैठा। अब तरुण हर्ष के सामने दो काम थे। एक तो अपनी बहन को ढूँढ़कर लाना, दूसरे अपने भाई के हत्यारों को दण्ड देना। इसके लिए उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वह इस दोहरी स्थिति से अत्यधिक उद्विग्न हो गया था। इसी बीच हर्ष के कर्मचारियों ने उसे दिग्विजय के लिए प्रेरित किया। हर्ष ने पहले शशांक को परास्त किया, उसके बाद बहन राज्यश्री का पता लगाया, जो पति की मृत्यु से दुखी होकर जंगल में चिता में जलने जा रही थी। अपनी बहन को वह ले आया और उसे जीवन पर्यन्त अपने पास रखा।

इसके बाद हर्ष ने उत्तरी भारत के विभिन्न राज्यों को जीत कर अपने अधिकार में कर लिया और अपने राज्य में पूर्ण शान्ति स्थापित की। दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त करने में वह असफल रहा। चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय नामक राजा ने उसे नर्मदा नदी से आगे नहीं बढ़ने दिया। हर्ष एक कुशल सेनापति एवं शूरवीर योद्धा था। नेतृत्व करने की उसमें अपूर्व क्षमता थी। जिसके बल पर उसने 30 वर्ष से अधिक समय तक शान्तिपूर्वक राज्य किया।

हर्ष एक प्रजावत्सल राजा था। प्रजा के हित के लिए उसने अनेक महान कार्य किये। हर्ष के कार्य-कलापों के विषय में विशेष वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग के लेखों में मिलता है जो 630 ई. में भारत में बौद्ध धर्म के पवित्र स्थानों को देखने तथा बौद्ध धर्म के पवित्र ग्रन्थों को लेने आया था।

हर्ष के समय में भारत को अपने इतिहास के एक अत्यन्त भव्य युग को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हर्ष धार्मिक विषयों में उदार और विद्या प्रेमी था। प्रयाग की सभा में वह सभी वर्णां, जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोगों को निष्पक्ष होकर दान देता था। बुद्ध की मूर्ति के साथ-साथ सूर्य और शिव की मूर्तियों का भी सम्मान करता था। वह इतना बड़ा दानी था कि युद्ध सामग्री के अतिरिक्त सब कुछ दान देता था। उसने नगरों तथा गाँवों के राजमार्गों पर धर्मशालाएं बनवायीं जिनमें भोजन और चिकित्सा का प्रबन्ध था।

हर्ष स्वयं विद्वान होने के साथ-साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था। बाणभट्ट हर्ष के दरबारी कवि थे। बाणभट्ट ने हर्ष के काव्य कौशल, ज्ञान और उनकी मौलिकता की भूरि भूरि प्रशंसा की है। हर्ष ने संस्कृत भाषा में “रत्नावली”, “नागानन्द", और “प्रियदर्शिका” नामक नाटक लिखे। साथ ही एक व्याकरण ग्रंथ की भी रचना की। प्राचीन भारत की साहित्यिक समालोचना में हर्ष को उच्च श्रेणी का कवि माना जाता।

उक्त रचनाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य निबन्ध हैं जिनकी रचना का श्रेय हर्ष को ही दिया जाता है। हर्ष सरकारी जमीन की आय का एक चतुर्थांश विद्वानों को पुरस्कृत करने में और दूसरा चतुर्थांश विभिन्न सम्प्रदायों को दान देने में खर्च करता था। विद्वान कवियों के अतिरिक्त अच्छे धर्म प्रचारक भी उसकी राजसभा की शोभा बढ़ाते थे। इनमें सागरमति, प्रज्ञारश्मि, सिंहरश्मि और ह्वेनसांग आदि प्रमुख हैं।

हर्ष की नीति अहिंसावादी थी। उसने अपने राज्य में सर्वत्र माँसाहार का निषेध कर दिया था। उसने जीव हिंसा पर रोक लगा दी थी तथा कठोर दण्ड का प्रावधान कर दिया था। हर्ष के समय में वास्तुकला, शिल्प, गृहनिर्माण के अतिरिक्त विविध कलाओं में भी भारत बहुत उन्नत था। ह्वेनसांग ने उस काल के नाना प्रकार के वस्त्रों का विशेष उल्लेख किया है। नगरों में कन्नौज, प्रयाग, मथुरा, थानेश्वर, हरिद्वार, रामपुर, पीलीभीत, अयोध्या, कौशाम्बी, वाराणसी, रंगपुर आदि विशेष रूप से समृद्ध एवं विकसित थे। ये नगर स्तूपों, विहारों, मन्दिरों, अतिथि भवनों, धर्मशालाओं एवं सब प्रकार की सुख सुविधाओं से पूर्ण थे।

हर्ष के शासनकाल में भारत का आन्तरिक शासन-सुव्यवस्थित हो गया था जिसके फलस्वरूप विद्या, व्यापार, संस्कृति, कला आदि क्षेत्रों में बहुमुखी विकास हुआ और पड़ोसी देशों में भी इसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह लोग भारत को विवेक और संस्कृति का केन्द्र मानकर अपनी ज्ञान पिपासा को तृप्त करने के लिए इस पुण्यभूमि की शरण में आए।

हर्ष बहुमुखी प्रतिभा और विलक्षण चरित्र के कारण एक साथ ही राजा, कवि, योद्धा, विद्वान राजसी और साधु स्वभाव के थे। बौद्ध धर्म का अध्ययन पूरा कर चीन लौटते समय ह्वेनसांग ने कहा था।

“मैं अनेक राजाओं के सम्पर्क में आया किन्तु हर्ष जैसा कोई नहीं। मैंने अनेक देशों में भ्रमण किया है किन्तु भारत जैसा कोई देश नहीं। भारत वास्तव में महान देश है और उसकी महत्ता का मूल है उसकी जनता तथा हर्ष जैसे उसके शासक।"

आचार्य चाणक्य | ACHARYA CHANAKYA | विष्णु गुप्त | कौटिल्य | अर्थशास्त्र'

आचार्य चाणक्य 
ACHARYA CHANAKYA 


मित्र इस कुश को खोदकर उसमें मट्ठा क्यां डाल रहे हो? 'इसका काँटा मेरे पैर में घुस गया। मैंने काँटा तो निकाल लिया, किन्तु यह फिर किसी के पैर में न चुभे इसलिए इसे जड़ से नष्ट करना चाहिए।' - यह वार्तालाप चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य के बीच का है। भारतीय इतिहास और राजनीति में चाणक्य का विशिष्ट स्थान है। शासन के विविध पहलुओं का जैसा सारगर्भित विवेचन उनके ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र' में है वैसा सम्भवतः विश्व के पराचीन और आधुनिक किसी भी राजनीतिशास्त्र के विचारक ने नहीं किया है। अतः चाणक्य की गिनती विश्व के राजनीतिशास्त्र के महानतम चिन्तकों में की जाती है

चन्द्रगुप्त के मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ चाणक्य का नाम जुड़ा है। चाणक्य की सहायता, परामर्श एवं राजनीतिक कूटनीति से चन्द्रगुप्त अपने साम्राज्य का विस्तार करने में सफल हुआ। चाणक्य का पूरा नाम 'विष्णु गुप्त चाणक्य’ था। उन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है। चाणक्य तक्षशिला के एक ब्राह्मण के पुत्र थे। बाल्यकाल में ही पिता की मृत्यु हो जाने पर चाणक्य का पालन-पोषण उनकी माता ने किया। तक्षशिला में रहकर उन्हों ने ज्ञानार्जन के साथ-साथ दर्शन का भी अध्ययन किया। चाणक्य परम विद्वान थे परन्तु बहुत क्रोधी एवं उग्र स्वभाव के थे।

युवा होने पर चाणक्य जीविकोपार्जन के लिये मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र पहुँचे। वहाँ मगध के नन्दवंशीय शासक घनानन्द से उनकी भेंट हुई। सम्राट ने चाणक्य को पाटलिपुत्र की दानशाला का प्रबन्धक नियुक्त किया। कटु और उग्र स्वभाव होने के कारण चाणक्य को वहाँ से पदच्युत कर दिया गया। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और सम्राट घनानन्द तथा नन्द वंश के विनाश करने की प्रतिज्ञा ली। वह सदैव इस खोज में रहते कि प्रतिज्ञा कैसे पूरी करें। उसी समय उनकी भेंट चन्द्रगुप्त से हुई। चन्द्रगुप्त मगध राज्य में राज्याधिकारी और सेनानायक था। वह बहुत महत्वाकांक्षी था। वह मगद्द साम्राज्य पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। चन्द्रगुप्त और चाणक्य की भेंट रास्ते में हुई। कुश में मट्ठा डाल रहे चाणक्य को देखकर चन्द्रगुप्त उनके निश्चय से प्रभावित हुए और उन्होंने चाणक्य को अपना सहयोगी बना लिया। इस मित्रता ने भारतीय इतिहास को एक नवीन दिशा की ओर मोड़ दिया। चन्द्रगुप्त में बल था और चाणक्य में वृद्धि बल और बुद्धि का यह संयोग भारतीय इतिहास में युग परिवर्तन की घटना सिद्ध हुआ।

चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने मिलकर पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया। घनानन्द की प्रबल सैन्य शक्ति के कारण वे पराजित हुए। साम्राज्य की शक्ति सदैव केन्द्र में स्थित रहती है और सीमान्त क्षेत्र में क्षीण। चन्द्ररगुप्त और चाणक्य ने अपनी रणनीति में परिवर्तन करके यह निर्णय लिया कि पहले मगध राज्य के सीमान्त क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की जाय तत्पश्चात मगध राज्य पर आक्रमण करना उचित होगा।

इस नवीन योजना के अनुसार चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने पंजाब पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की। इसके पश्चात चन्द्रगुप्त एक विशाल सेना लेकर पाटलिपुत्र पहुँचा। इस युद्ध में घनानन्द मारा गया। चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से मगध पर अधिकार प्राप्त कर लिया। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का विधिवत राज्याभिषेक कर 321 ई.पू. में उसे मगध का सम्राट घोषित कर दिया। चाणक्य की बुद्धिमत्ता और कूटनीति के कारण चन्द्रगुप्त ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री और प्रमुख परामर्शदाता नियुक्त कर लिया। चाणक्य ने जीवन के अन्तिम समय तक मौर्य सामराज्य की सेवा की।

चाणक्य ने राजतंत्र को एक सर्वाधिक उपयोगी संस्था माना है। उनके अनुसार राजा को धर्मनिष्ठ, सत्यवादी, कृतंज्ञ, बलशाली, वृद्धों का सम्मान करने वाला, उत्साही, विनयशील, विवेकी, निर्भीक, न्यायप्रिय, मृदुभाषी तथा कार्य निपुण होना चाहिए। उसे काम-क्रोध, मद-मोह, अहंकार ईर्ष्या-द्वेष आदि दुर्गुणों से दूर रहना चाहिए। इस प्रकार राजा में न केवल राजा के ही गुण वरन् श्रेष्ठ व्यक्तियों के सभी गुण होने चाहिए।

चाणक्य के अनुसार राज्य का यह कर्तव्य है कि आकस्मिक और प्राकृतिक आपदाओं से नागरिक की रक्षा करे। राज्य को अपंग, शक्तिहीन, वृद्ध, रोगी और दीन-दुखियों का पालन-पोषण करना चाहिए। राज्य को शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। राज्य का यह कार्य है कि साहूकार, व्यापारी, जादूगर, शिल्पी, नट, शासकीय अधिकारी और कर्मचारी आदि के शोषण-उत्पीड़न से प्रजा की भली-भाँति रक्षा करे। व्यापारी अनुपयुक्त दर से क्रय-विक्रय न कर सकें, इसके लिये राज्य को चाहिये कि वे नियम निर्धारित करे।

राज्य के इन कार्यों से विदित होता है, कि चाणक्य ने आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना कर ली थी। उन्होंने प्रजाहित को राज्य का लक्ष्य मान लिया था। वे स्वयं वर्षा न होने के कारण अकाल के समय सैकड़ों साधुओं को नित्य भोजन कराते थे। चाणक्य एक व्यवहार कुशल राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने नीति पर भी एक पुस्तक लिखी है। उसमें उनकें ऐसे विचार हैं, जिनसे पता चलता है कि मौर्य साम्राज्य के निर्माता के रूप में वे सफल रहे। उन्होंने राजतंत्र के समर्थक होते हुए भी, निरंकुश स्वेच्छाचारी शासन का विरोध किया।

चाणक्य आज भी आधुनिक राजनीतिज्ञ, विचारकों, चिन्तकों में अग्रणी माने जाते हैं।

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

महर्षि अरविन्द | SRI AUROBINDO | दिव्य जीवन | THE LIFE DIVINE

महर्षि अरविन्द (SRI AUROBINDO) 

बहुत समय पहले एक अहंकारी और आडम्बरी राजा ने एक सभा बुलवाई। सभा में उस राजा ने प्रश्न किया“ कौन महान है, ईश्वर या मैं?”

प्रश्न अद्भुत था, लम्बे और उलझन भरे मौन के बाद विद्वानों में एक वृद्ध ने सिर झुकाकर आदर सहित कहा, “महाराज आप सबसे महान हैं।" इस बात पर सभा में असहमति के हल्के स्वर उठने लगे। इस पर विद्वान ने स्पष्ट किया, “आप हमें अपने राज्य से निकाल सकते हैं, पर ईश्वर नहीं क्योंकि उसका तो सम्पूर्ण पृथ्वी पर राज्य है। उससे अलग कोई कहाँ जा सकता है। सब कुछ वही है।"

श्री अरविन्द द्वारा कहे गए 'ईश्वर ही सब कुछ है' इस ज्ञान ने राजा के जीवन की दिशा बदल दी। वे अरविन्द के अनुयायी हो गए।

अरविन्द का जन्म 15 अगस्त सन् 1872 ई. में कोलकाता में हुआ। इनके पिता डॉक्टर कृष्णधन घोष और माता स्वर्णलता देवी थीं। पिता कृष्णधन घोष पूरी तरह पाश्चात्य विचारधारा में रंगे हुए थे जिसके कारण उन्होंने निश्चय किया कि वे अरविन्द को भी अंग्रेजी शिक्षा दिलाएंगे और किसी भी प्रकार के भारतीय प्रभाव से मुक्त रखेंगे।

पिता ने ‘अंग्रेज बनों' की विचारधारा के साथ पाँच वर्ष की उम्र में ही अरविन्द को पढ़ाई के लिए दार्जिलिंग भेज दिया। दो वर्ष बाद उन्हें शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया। अरविन्द के माता-पिता अध्यापकों को यह निर्देश देते हुए भारत लौट आए कि किसी भी दशा में अरविन्द को भारतीयों से न मिलने दिया जाय। इतने प्रतिबन्धों के बावजूद यह व्यक्ति आगे चलकर एक क्रांतिकारी, एक स्वतंत्रता सेनानी, एक महान भारतीय राजनैतिक, दार्शनिक तथा वैदिक पुस्तकों का व्याख्याता बना।

इंग्लैण्ड में अरविन्द ने उच्च शिक्षा प्राप्त की। वहाँ रहते हुए उनके दिमाग में अपने देश की स्वतंत्रता का विचार उथल-पुथल मचाने लगा। बचपन से ही देश से बाहर रहने के कारण वे भारतीयों के बारे में जानने को उत्सुक होने लगे। उन्होंने भारत लौटने का निश्चय किया।

यह वर्ष 1893 की घटना है जब अरविन्द ने भारत लौटने का निश्चय किया। यह वर्ष भारत में नव जागरण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था।

इसी वर्ष (1893) में..........

स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन के मंच से भारतीय संस्कृति के गौरव का उद्घोष किया।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने के लिए गणपति उत्सव का शुभारम्भ किया।

एनी बेसेण्ट भारत आयीं और उन्होंने भारतवासियों में अपने प्राचीन धर्म के प्रति स्वाभिमान जगाने का प्रयास प्रारम्भ किया।

गाँधी जी रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका पहुँचे।

यह अद्भुत संयोग था कि इसी वर्ष श्री अरविन्द घोष भारत वापस लौटे। इस समय उनकी आयु इक्कीस वर्ष थी। उन्हें न तो पश्चिमी देशों की सभ्यता और न ही धन-धान्य की लालसा सम्मोहित कर पाई। उनके अन्दर एक ओर अपने देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने की आकुलता थी, दूसरी ओर भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने की तीवर लालसा।

भारत लौटने पर नवयुवक अरविन्द बड़ौदा (बड़ोदरा) महाराज के आग्रह पर वहाँ के एक कालेज में प्रधानाचार्य के पद पर कार्य करने लगे। जिस समय वे शिक्षा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त कर रहे थे उस समय तक भारतीय राजनीति में भी उनका हस्तक्षेप शुरू हो गया था। वे लेखन द्वारा अपने विचारों को प्रकट करने लगे। इसके लिए उन्होंने कई भारतीय भाषाएँ सीखीं।

सन् 1901 में उनका विवाह मृणालिनी से हुआ। मृणालिनी को लिखे पत्रों में अरविन्द के विचारों की झलक मिलती है। उन्होंने लिखा था “दूसरे लोग भारत को देश के बजाय एक जड़ पदार्थ, खेत-खलिहान, मैदान, जंगल और नदी के अतिरिक्त कुछ नहीं देखते, पर मुझे तो वे अपनी माँ के रूप में दिखाई देता है।” वास्तव में अरविन्द के लिए मातृभूमि ही सब कुछ थी। उन्हें यह बिल्कुल सहन नहीं होता था कि मातृभूमि गुलामी के बंधनों में जकड़ी यातना सह रही हो। वे जानते थे कि लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग अत्यन्त टेढ़ा-मेढ़ा, कँटीला और खतरों से भरा है? फिर भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे अपने जीवन को भी न्योछावर करने को तैयार थे।

लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अरविन्द का पहला कदम था लेखन के द्वारा जनमत तैयार करना। उन्होंने विभिन्न पत्रों के लिए लिखना प्रारम्भ कर दिया। बाद में उन्होंने 'वन्दे मातरम्' नामक पत्र का संपादन भी किया। वे चाहते थे कि भारत के युवा उस समय सिर्फ भारत माँ के बारे में ही सोचे बाकी सब कुछ भुला दें। उन्होंने लिखा, "हमारी मातृभूमि के लिए ऐसा समय आ गया है अब उसकी सेवा से अधिक प्रिय कुछ नहीं। अगर तुम अध्ययन करो तो मातृभूमि के लिए करो। अपने शरीर मन और आत्मा को उसकी सेवा के लिए प्रशिक्षित करो ताकि वे समृद्ध हो, कष्ट सहो ताकि वे प्रसन्न रह सके।"

उन्होंने युवाओं को काम करना सीखने के लिए अवसर का लाभ उठाने का आह्वान किया। उन्होंने उनसे कार्य, ईमानदारी, अनुशासन, एकता, धैर्य और सहिष्णुता द्वारा निष्ठा विकसित करने को कहा।

1903 में उन्होंने बंगाल के क्रान्तिकारियों से सम्पर्क किया और सक्रिय रूप से क्रान्तिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए। अरविन्द की क्रान्तिकारी गतिविधियों से भयभीत होकर अंग्रेजों ने 1908 में उन्हें और उनके भाई वारीन घोष को 'अलीपुर बम केस' के मामले में गिरफ्तार कर लिया। अलीपुर जेल में उन्हें 'दिव्य अनुभूति' हुई जिसे उन्होंने ‘काशकाहिनी’ नामक रचना में व्यक्त किया। जेल में रहते हुए उन्होंने अपने क्रान्तिकारी विचारों को कविताओं में स्पष्ट किया। जेल से छूटकर अरविंन्द ने अंग्रेजी भाषा में 'कर्मयोगी' तथा बंगला भाषा में 'धर्म' नामक पत्रिकाओं का संपादन किया।

1912 तक श्री अरविन्द ने देश की सक्रिय राजनीति में भाग लिया। चालीस वर्ष की आयु के बाद उनकी रुचि पूर्णतया गीता, उपनिषद तथा वेदों की ओर हो गयी। उन्होंने पूर्व तथा पश्चिम के दर्शनशास्त्रों का अध्ययन कर अनेक पुस्तकें लिखी। भारतीय संस्कृति उनका प्रिय विषय था। भारतीय संस्कृति के बारे में उन्होंने 'फाउण्डेशन आफ इण्डियन कल्चर' तथा 'एक डिफेन्स आफ इण्डियन कल्चर' नामक प्रसिद्ध रचनाएँ प्रस्तुत की। उनके द्वारा रचा गया काव्य 'सावित्री' साहित्य जगत की अनमोल धरोहर है।

1926 से लेकर अपने निर्वाण (1950) तक श्री अरविन्द साधना और तपस्या में लगे रहे। सार्वजनिक सभाओं तथा भाषणों से दूर वे पॉण्डिचेरी में अपने आश्रम में मानव कल्याण के लिए निरन्तर चिन्तन शील रहे। वर्षों की तपस्या के बाद उनकी अनूठी कृति 'लाइफ डिवाइन (दिव्य जीवन)' प्रकाशित हुई। इस पुस्तक की गणना विश्व की महान कृतियों में की जाती है।

श्री अरविन्द अपने देश और संस्कृति के उत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। पॉण्डिचेरी स्थित आश्रम उनकी तपोभूमि थी। यहीं पर उनकी समाधि बनाई गई। यह आश्रम आज भी अध्यात्मज्ञान का तीर्थस्थल माना जाता है जहाँ भारत ही नहीं वरन विश्व के अनेक देशों के लोग अपनी ज्ञान-पिपासा शान्त करने के लिए आते हैं।