रविवार, 25 सितंबर 2022

बचपन - कृष्णा सोबती | BACHPAN | HINDI | CBSE | CLASS 6 | CHAPTER 2 | बसंत | NCERT

बचपन - कृष्णा सोबती


मैं तुम्हें अपने बचपन की ओर ले जाऊँगी।

मैं तुमसे कुछ इतनी बड़ी हूँ कि तुम्हारी दादी भी हो सकती हूँ, तुम्हारी नानी भी। बड़ी बुआ भी-बड़ी मौसी भी। परिवार में मुझे सभी लोग जीजी कहकर ही पुकारते हैं।

हाँ, मैं इन दिनों कुछ बड़ा बड़ा यानी उम्र में सयाना महसूस करने लगी हूँ। शायद इसलिए कि पिछली शताब्दी में पैदा हुई थी। मेरे पहनने - ओढ़ने में भी काफ़ी बदलाव आए हैं। पहले मैं रंग-बिरंगे कपड़े पहनती रही हूँ। नीला जामुनी-ग्रे-काला-चॉकलेटी। अब मन कुछ ऐसा करता है कि सफ़ेद पहनो। गहरे नहीं, हलके रंग। मैंने पिछले दशकों में तरह-तरह की पोशाकें पहनी हैं। पहले फ्रॉक, फिर निकर-वॉकर, स्कर्ट, लहँगे, गरारे और अब चूड़ीदार और घेरदार कुर्ते।

बचपन के कुछ फ्रॉक तो मुझे अब तक याद हैं।

हलकी नीली और पीली धारीवाला फ्रॉक। गोल कॉलर और बाज़ू पर भी गोल कफ़। एक हलके गुलाबी रंग का बारीक चुन्नटोंवाला घेरदार फ्रॉक। नीचे गुलाबी रंग की फ्रिल।

उन दिनों फ्रॉक के ऊपर की जेब में रूमाल और बालों में इतराते रंग-बिरंगे रिबन का चलन था।

लेमन कलर का बड़े प्लेटोंवाला गर्म फ्रॉक जिसके नीचे फ़र टँकी थी।

दो ट्यूनिक भी याद हैं। एक चॉकलेट रंग का और अंदर की कोटी प्याज़ी। दूसरा ग्रे और उसके साथ सफ़ेद कोटी।

मुझे अपने मोज़े और स्टॉकिंग भी याद हैं!

बचपन में हमें अपने मोज़े खुद धोने पड़ते थे। वह नौकर या नौकरानी को नहीं दिए जा सकते थे। इसकी सख्त मनाही थी।

हम बच्चे इतवार की सुबह इसी में लगाते। धो लेने के बाद अपने-अपने जूते पॉलिश करके चमकाते। जब जूते कपड़े या ब्रश से रगड़ते तो पॉलिश की चमक उभरने लगती।

सरवर, मुझे आज भी बूट पॉलिश करना अच्छा लगता है। हालांकि अब नयी-नयी किस्म के शू आ चुके हैं। कहना होगा कि ये पहले से कहीं ज्यादा आरामदेह हैं। हमें जब नए जूते मिलते, उसके साथ ही छालों का इलाज शुरू हो जाता।

जब कभी लंबी सैर पर निकलते, अपने पास रुई जरूर रखते। जूता लगा तो रुई मोजे के अंदर हाँ, हमारे - तुम्हारे बचपन में तो बहुत फर्क हो चुका है।

हर शनीचर को हमें ऑलिव ऑयल या कैस्टर ऑयल पीना पड़ता। यह एक मुश्किल काम था। शनीचर को सुबह ही नाक में इसकी गंध आने लगती।

छोटे शीशे के गिलास, जिन पर ठीक खुराक के लिए निशान पड़े रहते, उन्हें देखते ही मितली होने लगती।

मुझे आज भी लगता है कि अगर हम न भी पीते वह शनिवारी दवा तो कुछ ज्यादा बिगड़ने वाला नहीं था। सेहत ठीक ही रहती।

तुम्हें बताऊँगी कि हमारे समय और तुम्हारे समय में कितनी दूरी हो चुकी है। यहाँ तक कि बचपन की दिलचस्पियाँ भी बदल गई हैं।

याद रहे, उन दिनों कुछ घरों में ग्रामोफ़ोन थे, रेडियो और टेलीविजन नहीं थे।

हमारे बचपन की कुलफ़ी आइसक्रीम हो गई है। कचौड़ी समोसा, पैटीज में बदल गया है। शहतूत और फ़ाल्से और खसखस के शरबत कोक-पेप्सी में।

उन दिनों कोक नहीं, लेमनेड, विमटो मिलती थी।

शिमला और नयी दिल्ली में बड़े हुए बच्चों को वेंगर्स और डेविको रेस्तरों की चॉकलेट और पेस्ट्री मजा देनेवाली होती। हम भाई-बहनों की ड्यूटी लगती शिमला माल से ब्राउन ब्रेड लाने की।

हमारा घर माल से ज्यादा दूर नहीं था। एक छोटी-सी चढ़ाई और गिरजा मैदान पहुँच जाते। वहाँ से एक उतराई उतरते और माल पर। कन्फेक्शनरी काउंटर पर तरह-तरह की पेस्ट्री और चॉकलेट की खुशबू मनभावनी!

हमें हफ्ते में एक बार चॉकलेट खरीदने की छूट थी। सबसे ज्यादा मेरे पास ही चॉकलेट-टॉफ़ी का स्टॉक रहता। मैं चॉकलेट लेकर खड़े खड़े कभी न खाती घर लौटकर साइडबोर्ड पर रख देती और रात के खाने के बाद बिस्तर में लेटकर मजा ले ले खाती।

शिमला के काफल भी बहुत याद आते हैं। खट्टे-मीठे कुछ एकदम लाल, कुछ गुलाबी, रसभरी, कसमल सोचकर ही मुँह में पानी भर आए। चेस्टनट एक और गजब की चीज। आग पर भूने जाते और फिर छिलके उतारकर मुँह में।

चने जोर गरम और अनारदाने का चूर्ण। हाँ, चने जोर गरम की पुड़िया जो तब थी. वह अब भी नज़र आती है। पुराने कागजों से बनाई हुई इस पुड़िया में निरा हाथ का कमाल है। नीचे से तिरछी लपेटते हुए ऊपर से इतनी चौड़ी कि चने आसानी से हथेली पर पहुँच जाएँ। एक वक्त था जब फ़िल्म का गाना - चना जोर गरम बाबू मैं लाया मजेदार, चना जोर गरम - उन दिनों स्कूल के हर बच्चे को आता था।

कुछ बच्चे पुड़िया पर तेज़ मसाला बुरकवाते। पूरा गिरजा मैदान घूमने तक यह पुड़िया चलती। एक-एक चना-पापड़ी मुँह में डालने और कदम उठाने में एक खास ही लय-रफ़्तार थी।

छुटपन में हमने शिमला रिज पर बहुत मज़े किए हैं। घोड़ों की सवारी की है। शिमला के हर बच्चे को कभी-न-कभी यह मौका मिल ही जाता था।

हम जाने क्यों घोड़ों को कुछ कमतर करके समझते। उन पर हँसते थे। ननिहाल के घोड़े खूब हृष्ट-पुष्ट और खूबसूरत। उनकी बात फिर कभी।

शाम को रंग-बिरंगे गुब्बारे। सामने जाखू का पहाड़। ऊँचा चर्च। चर्च की घंटियाँ बजतीं तो दूर-दूर तक उनकी गूँज फैल जाती। लगता, इसके संगीत से प्रभु ईशू स्वयं कुछ कह रहे हैं।

सामने आकाश पर सूर्यास्त हो रहा है। गुलाबी सुनहरी धारियाँ नीले आसमान पर फैल रही हैं। दूर-दूर फैले पहाड़ों के मुखड़े गहराने लगे और देखते-देखते बत्तियाँ टिमटिमाने लगीं। रिज पर की रौनक और माल की दुकानों की चमक के भी क्या कहने! स्कैंडल पॉइंट की भीड़ से उभरता कोलाहल ।

सरवर, स्कैंडल पॉइंट के ठीक सामने उन दिनों एक दुकान हुआ करती थी, जिसके शोरूम में शिमला-कालका ट्रेन का मॉडल बना हुआ था। इसकी पटरियाँ-उस पर खड़ी छोटे-छोटे डिब्बों वाली ट्रेन। एक ओर लाल टीन की छतवाला स्टेशन और सामने सिग्नल देता खंबा-थोड़ी-थोड़ी दूर पर बनीं सुरंगें!

पिछली सदी में तेज़ रफ़्तारवाली गाड़ी वही थी। कभी-कभी हवाई जहाज़ भी देखने को मिलते! दिल्ली में जब भी उनकी आवाज़ आती, बच्चे उन्हें देखने बाहर दौड़ते। दीखता एक भारी-भरकम पक्षी उड़ा जा रहा है पंख फैलाकर। यह देखो और वह गायब ! उसकी स्पीड ही इतनी तेज़ लगती। हाँ, गाड़ी के मॉडलवाली दुकान के साथ एक और ऐसी दुकान थी जो मुझे कभी नहीं भूलती। यह वह दुकान थी जहाँ मेरा पहला चश्मा बना था। वहाँ आँखों के डॉक्टर अंग्रेज़ थे।

शुरू-शुरू में चश्मा लगाना बड़ा अटपटा लगा। छोटे-बड़े मेरे चेहरे की ओर देखते और कहते-आँखों में कुछ तकलीफ़ है! इस उम्र में ऐनक ! दूध पिया करो। मैं डॉक्टर साहिब का कहा दोहरा देती-कुछ देर पहनोगी तो ऐनक उतर जाएगी।

वैसे डॉक्टर साहिब ने पूरा आश्वासन दिया था, लेकिन चश्मा तो अब तक नहीं उतरा। नंबर बस कम ही होता रहा! मैं अपने-आप इसकी ज़िम्मेवार हूँ। जब आप दिन की रोशनी को छोड़कर रात में टेबल लैंप के सामने काम करेंगी तो इसके अलावा और क्या होगा! हाँ, जब पहली बार मैंने चश्मा लगाया तो मेरे एक चचेरे भाई ने मुझे छेड़ा-देखो, देखो, कैसी लग रही है!

आँख पर चश्मा लगाया ताकि सूझे दूर की

यह नहीं लड़की को मालूम

सूरत बनी लंगूर की !

मैं खीझी कि मुझ पर यह क्यों दोहराया जा रहा है। पर शेर बुरा न लगा ।

जब वह चाय पीकर चले गए तो मैं अपने कमरे में जाकर आईने के सामने खड़ी हो गई। कई बार अपने को देखा। ऐनक उतारी। फिर पहनी। फिर उतारी। देखती रही-देखती रही।

सूरत बनी लंगूर की -

नहीं-नहीं-नहीं

हाँ-हाँ-हाँ

मैंने अपने छोटे भाई का टोपा उठाकर सिर पर रखा। कुछ अजीब लगा ।

अच्छा भी और मजाकिया भी।

तब की बात थी. अब तो चेहरे के साथ घुल-मिल गया है चश्मा। जब कभी उतरा हुआ होता है तो चेहरा खाली-खाली लगने लगता है।

याद आ गया वह टोपा, काली फ्रेम का चश्मा और लंगूर की सूरत ! हाँ, इन दिनों शिमला में मैं सिर पर टोपी लगाना पसंद करती हूँ। मैंने कई रंगों की जमा कर ली हैं। कहाँ दुपट्टों का ओढ़ना और कहाँ सहज सहल सुभीते वाली हिमाचली टोपियाँ!

कृष्णा सोबती

बुधवार, 6 अप्रैल 2022

सबसे सुंदर ल़ड़की – विष्णु प्रभाकर | SABSE SUNDAR LADAKI – VISHNU PRABHAKAR | HINDI STORY

 


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सबसे सुंदर ल़ड़की – विष्णु प्रभाकर


समुद्र के किनारे एक गाँव था। उसमें एक कलाकार रहता था। वह दिनभर समुद्र की लहरों से खेलता रहता, जाल डालता और सीपियाँ बटोरता। रंग-बिरंगी कौड़ियाँ, नाना रूप के सुंदर-सुंदर शंख, चित्र-विचित्र पत्थर, न जाने क्या-क्या समुद्र-जाल में भर देता। उनसे वह तरह-तरह के खिलौने, तरह-तरह की मालाएँ तैयार करता और पास के बड़े नगर में बेच आता।

उसका एक बेटा था, नाम था उसका हर्ष। उम्र अभी ग्यारह की भी नहीं थी, समुद्र की लहरों में ऐसे घुस जाता, जैसे तालाब में बत्तख। एक बार ऐसा हुआ कि कलाकार के एक रिश्तेदार का मित्र कुछ दिन के लिए वहाँ छुट्टी मनाने आया। उसके साथ उसकी बेटी मंजरी भी थी। होगी कोई नौ-दस वर्ष पर की, पर थी बहुत सुंदर, बिलकुल गुड़िया जैसी।

हर्ष बड़े गर्व के साथ उसका हाथ पकड़कर उसे लहरों के पास ले जाता। एक दिन मंजरी ने चिल्लाकर कहा, “तुम्हें डर नहीं लगता?"

मंजरी डरती थी, पर मन ही मन यह भी चाहती थी कि वह भी समुद्र की लहरों पर तैर सके। उसे यह तब और भी ज़रूरी लगता था, जब वह वहाँ की दूसरी लड़कियों को ऐसा करते देखती-विशेषकर कनक को, जो हर्ष के हाथ में हाथ डालकर तूफ़ानी लहरों पर दूर निकल जाती।

हर्ष ने जवाब दिया, "डर क्यों लगेगा, लहरें तो हमारे साथ खेलने आती हैं। " और तभी एक बहुत बड़ी लहर दौड़ती हुई हर्ष की ओर आई, जैसे उसे निगल जाएगी। मंजरी चीख उठी, पर हर्ष तो उछलकर लहर पर सवार हो गया और किनारे पर आ गया।

वह बेचारी थी बड़ी गरीब। पिता एक दिन नाव लेकर गए, तो लौटे ही नहीं। माँ मछलियाँ पकड़कर किसी तरह दो बच्चों को पालती थी। कनक छोटे-छोटे शंखों की मालाएँ बनाकर बेचती। मंजरी को वह लड़की जरा भी नहीं भाती। हर्ष के साथ उसकी दोस्ती तो उसे कतई पसंद नहीं थी।

एक दिन हर्ष ने देखा कि कई दिन से उसके पिता एक सुंदर-सा खिलौना बनाने में लगे हैं। वह एक पक्षी था, जो रंग-बिरंगी सीपियों से बना था। वह देर तक देखता रहा, फिर पूछा, "बाबा, यह किसके लिए बनाया है?"

कलाकार ने उत्तर दिया, “यह सबसे सुंदर लड़की के लिए है। मंजरी सुंदर है। न? दो दिन बाद उसका जन्मदिन है। उस दिन तुम इस पक्षी को उसे भेंट में देना। "

हर्ष की खुशी का पार नहीं था। बोला, "हाँ-हाँ बाबा, मैं यह पक्षी मंजरी को दूँगा।" और वह दौड़कर मंजरी के पास गया, उसे समुद्र किनारे ले गया और बातें करने लगा। फिर बोला," दो दिन बाद तुम्हारा जन्मदिन है" "हाँ, पर तुम्हें किसने बताया?"

"बाबा ने। हाँ, उस दिन तुम क्या करोगी?"

“सबेरे उठकर नहा-धोकर सबको प्रणाम करूँगी। घर पर तो सहेलियों को दावत देती हूँ। वे नाचती-गाती हैं। " और इसी तरह बातें करते-करते वे न जाने कब उठे और दूर तक समुद्र चले गए। सामने एक छोटी-सी चट्टान थी। हर्ष ने कहा, "आओ, छोटी चट्टान तक चलें।" मंजरी काफी निडर हो चली थी। बोली, "चलो।" तभी हर्ष ने देखा-कनक बड़ी चट्टान पर बैठी है। कनक ने चिल्लाकर कहा, "हर्ष, "यहाँ आ जाओ।"

हर्ष ने जवाब दिया, “मंजरी "वहाँ नहीं आ सकती, तुम्हीं इधर आ जाओ।"

अब मंजरी ने भी कनक को देखा। उसे ईर्ष्या हुई। वह वहाँ क्यों नहीं जा सकती? वह क्या उससे कमजोर है...

वह यह सोच ही रही थी कि उसे एक बहुत सुंदर शंख दिखाई दिया। मंजरी अनजाने ही उस ओर बढ़ी। तभी एक बड़ी लहर ने उसके पैर उखाड़ दिए और वह बड़ी चट्टान की दिशा में लुढ़क गई। उसके मुँह में खारा पानी भर गया। उसे होश नहीं रहा।

यह सब आनन-फानन में हो गया। हर्ष ने देखा और चिल्लाता हुआ वह उधर बढ़ा पर तभी एक और लहर आई और उसने उसे मंजरी से दूर कर दिया। अब निश्चित था कि मंजरी बड़ी चट्टान से टकरा जाएगी, परंतु उसी क्षण कनक उस क्रुद्ध लहर और मंजरी के बीच कूद पड़ी और उसे हाथों में थाम लिया।

दूसरे ही क्षण तीनों छोटी चट्टान पर थे। कुछ देर हर्ष और कनक ने मिलकर मंजरी को लिटाया, छाती मली, पानी बाहर निकल गया। उसने आँखें खोलकर देखा, उसे ज़रा भी चोट नहीं लगी थी पर वह बार-बार कनक को देख रही थी।

अपने जन्मदिन की पार्टी के अवसर पर वह बिलकुल ठीक थी। उसने सब बच्चों को दावत पर बुलाया। सभी उसके लिए कुछ न कुछ लेकर आए थे। सबसे अंत में कलाकार की बारी आई। उसने कहा, "मैंने सबसे सुंदर लड़की के लिए सबसे सुंदर खिलौना बनाया है। आप जानते हैं, वह लड़की कौन है? वह है मंजरी।”

सबने खुशी से तालियाँ बजाईं। हर्ष अपनी जगह से उठा और बड़े प्यार से वह सुंदर खिलौना उसने मंजरी के हाथों में थमा दिया। मंजरी बार-बार उस खिलौने को देखती और खुश होती।

तभी क्या हुआ, मंजरी अपनी जगह से उठी। उसके हाथ में वही सुंदर पक्षी था। वह धीरे-धीरे वहाँ आई जहाँ कनक बैठी थी। उसने बड़े स्नेह-भरे स्वर में उससे कहा, “यह पक्षी तुम्हारा है। सबसे सुंदर लड़की तुम्हीं हो।" और एक क्षण तक सभी अचरज से दोनों को देखते रहे। फिर जब समझे, तो सभी ने मंजरी की खूब प्रशंसा की। कनक अपनी प्यारी-प्यारी आँखों से बस मंजरी को देखे जा रही था... और दूर समुद्र में लहरें चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें बधाई दे रही थीं।

गुब्बारे पर चीता – प्रेमचंद | GUBBARE PAR CHITA - PREMCHAND | HIINDI STORY

 


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गुब्बारे पर चीता – प्रेमचंद


"मैं तो जरूर जाऊँगा, चाहे कोई छुट्टी दे या न दे।" बलदेव सब लड़कों को सरकस देखने चलने की सलाह दे रहा है।

बात यह थी कि स्कूल के पास एक मैदान में सरकस पार्टी आई हुई थी। सारे शहर की दीवारों पर उसके विज्ञापन चिपका दिए गए थे। विज्ञापन में तरह-तरह के जंगली जानवर अजीब-अजीब काम करते दिखाए गए थे। लड़के तमाशा देखने के लिए ललचा रहे थे। पहला तमाशा रात को शुरू होने वाला था मगर हेडमास्टर साहब ने लड़कों को वहाँ जाने की मनाही कर दी थी। इश्तिहार बड़ा आकर्षक था -

'आ गया है! आ गया है!'

'जिस तमाशे की आप लोग भूख-प्यास छोड़कर इंतज़ार कर रहे थे, वही बंबई सरकस आ गया है।'

‘आइए और तमाशे का आनंद उठाइए। बड़े-बड़े खेलों के सिवा एक खेल और भी दिखाया जाएगा, जो न किसी ने देखा होगा और न सुना होगा।'

लड़कों का मन तो सरकस में लगा हुआ था। सामने किताबें खोले जानवरों की चर्चा कर रहे थे। क्योंकर शेर और बकरी एक बर्तन में पानी पिएँगे! और इतना बड़ा हाथी पैरगाड़ी पर कैसे बैठेगा? पैरगाड़ी के पहिए बहुत बड़े-बड़े होंगे! तोता बंदूक छोड़ेगा! और बनमानुष बाबू बनकर मेज़ पर बैठेगा!

बलदेव सबसे पीछे बैठा हुआ अपनी हिसाब की कॉपी पर शेर की तस्वीर खींच रहा था और सोच रहा था कि कल शनीचर नहीं, इतवार होता तो कैसा मजा आता। बलदेव ने बड़ी मुश्किल से कुछ पैसे जमा किए थे। मना रहा था कि कब छुट्टी हो और कब भागूँ। हेडमास्टर साहब का हुक्म सुनकर वह जाने से बाहर हो गया। छुट्टी होते ही वह बाहर मैदान में निकल आया और लड़कों से बोला, "मैं तो जाऊँगा, ज़रूर जाऊँगा चाहे कोई छुट्टी दे या न दे।" मगर और लड़के इतने साहसी न थे। कोई उसके साथ जाने पर राज़ी न हुआ। बलदेव अब अकेला पड़ गया। मगर वह बड़ा जिद्दी था, दिल में जो बात बैठ जाती, उसे पूरा करके ही छोड़ता था। शनीचर को और लड़के तो मास्टर के साथ गेंद खेलने चले गए, बलदेव चुपके से खिसककर सरकस की ओर चला। वहाँ पहुँचते ही उसने जानवरों को देखने के लिए एक आने का टिकट खरीदा और जानवरों को देखने लगा। इन जानवरों को देखकर बलदेव मन में बहुत झुंझलाया वह शेर है! मालूम होता है महीनों से इसे मलेरिया बुखार आ रहा हो। वह भला क्या बीस हाथ ऊँचा उछलेगा! और यह सुंदर-वन का बाघ है? जैसे किसी ने इसका खून चूस लिया हो। मुर्दे की तरह पड़ा है। वाह रे भालू! यह भालू है या सूअर, और वह भी काना, जैसे मौत के चंगुल से निकल भागा हो। अलबत्ता चीता कुछ जानदार है और एक तीन टाँग का कुत्ता भी। यह कहकर बड़े ज़ोर से हँसा। उसकी एक टाँग किसने काट ली? दुमकटे कुत्ते तो देखे थे, पैरकटा कुत्ता आज ही देखा! और यह दौड़ेगा कैसे? उसे अफ़सोस हुआ कि गेंद छोड़कर यहाँ नाहक आया। एक आने पैसे भी गए। इतने में एक बड़ा भारी गुब्बारा दिखाई दिया। उसके पास एक आदमी खड़ा चिल्ला रहा था- 'आओ चले आओ. चार आने में आसमान की सैर करो।'

अभी वह उसी तरफ देख रहा था कि अचानक शोर सुनकर वह चौंक पड़ा। पीछे फिरकर देखा तो मारे डर के उसका दिल काँप उठा। वही चीता न जाने किस तरह पिंजरे से निकलकर उसी की तरफ दौड़ा चला आ रहा था। बलदेव जान लेकर भागा।

इतने में एक और तमाशा हुआ। इधर से चीता गुब्बारे की तरफ जो आदमी गुब्बारे की रस्सी पकड़े हुए था, वह चीते को अपनी तरफ आता खकर बेतहाशा भागा। बलदेव को और कुछ न सूझा तो वह झट से गुब्बारे पर चढ़ गया। चीता भी शायद उसे पकड़ने के लिए कूदकर गुब्बारे पर जा पहुँचा। गुब्बारे की रस्सी छोड़कर तो वह आदमी पहले ही भाग गया था। वह गुब्बारा उड़ने के लिए बिलकुल तैयार था। रस्सी छूटते ही वह ऊपर उठा। बलदेव और चीता दोनों ऊपर उठ गए। बात की बात में गुब्बारा ताड़ के बराबर जा पहुँचा। बलदेव ने एक बार नीचे देखा तो लोग चिल्ला-चिल्लाकर उसे बचने के उपाय बतलाने लगे। मगर बलदेव के तो होश उड़े हुए थे। उसकी समझ में कोई बात न आई। ज्यों-ज्यों गुब्बारा ऊपर उठता जाता था चीते की जान निकली जाती थी। उसकी समझ में न आता था कि कौन मुझे आसमान की ओर लिए जाता है। वह चाहता तो बड़ी आसानी से बलदेव को चट कर जाता, मगर उसे अपनी ही जान की फ़िक़ पड़ी हुई थी। सारा चीतापन भूल गया था। आखिर वह इतना डरा कि उसके हाथ-पाँव फूल गए और वह फिसलकर नीचे गिरा। ज़मीन पर गिरते ही उसकी हड्डी-पसली चूर-चूर हो गई।

अब तक तो बलदेव को चीते का डर था। अब यह फ़िक्र हुई कि गुब्बारा मुझे कहाँ लिए जाता है। वह एक बार घंटाघर की मीनार पर चढ़ा था। ऊपर से उसे नीचे के आदमी खिलौनों से और घर घरौदों से लगते थे। मगर इस वक्त वह उससे कई गुना ऊँचा था।

एकाएक उसे एक बात याद आ गई। उसने किसी किताब में पढ़ा था कि गुब्बारे का मुँह खोल देने से गैस निकल जाती है और गुब्बारा नीचे उतर आता है। मगर उसे यह न मालूम था कि मुँह बहुत धीरे-धीरे खोलना चाहिए। उसने एकदम उसका मुँह खोल दिया और गुब्बारा बड़े ज़ोर से गिरने लगा। जब वह ज़मीन से थोड़ी ऊँचाई पर आ गया तो उसने नीचे की तरफ देखा, दरिया बह रहा था। फिर तो वह रस्सी छोड़कर दरिया में कूद पड़ा और तैरकर निकल आया। I

मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

काबुलीवाला - रवींद्रनाथ टैगोर | KABULIWALA - RABINDRANATH TAGORE | HINDI STORY

काबुलीवाला - रवींद्रनाथ टैगोर

सहसा मेरी पाँच वर्ष की लाड़ली बेटी मिनी 'अगड़म बगड़म' का खेल छोड़कर खिड़की की तरफ भागी और जोर-जोर से पुकारने लगी. "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!"

मैं इस समय उपन्यास लिख रहा था। नायक, नायिका को लेकर अँधेरी जेल की ऊँची खिड़की से नीचे बहती नदी के जल में कूद रहा था। घटना वहीं रुक गई।

सोचने लगा-'मेरी बेटी कितनी चंचल और बातूनी है। अभी कुछ पल पहले वह मेरे पैरों के पास बैठी खेल रही थी कि अचानक उसे यह क्या सूझी। मिनी के इस काम से मुझे अचरज तो नहीं हुआ पर परेशानी जरूर महसूस हुई। मैंने सोचा, “बस अब पीठ पर झोली लिए काबुलीवाला आ खड़ा होगा, मेरा सत्रहवाँ अध्याय अब पूरा नहीं हो सकता।"

ज्यों ही काबुलीवाले ने हँस कर मुँह फेरा और मेरे घर की ओर आने लगा त्यों ही वह घर के अंदर भाग आई। उसके मन में एक झूठा विश्वास था कि काबुलीवाला अपनी झोली में उसी की तरह के दो-चार चुराए गए। बच्चे छिपाए रहता है। इधर काबुलीवाला आकर मुसकुराता हुआ मुझे सलाम करके खड़ा हो गया। आदमी को घर पर बुलाकर कुछ न खरीदना अच्छा नहीं लगता, इसलिए उससे कुछ खरीदा। दो-चार बातें हुई। पता चला, उसका नाम रहमत था।

अंत में उठकर चलते समय उसने पूछा, “बाबू, तुम्हारी लड़की कहाँ गई?" मैंने मिनी के डर को पूरी तरह खत्म करने के लिए उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे सट कर काबुलीवाले के चेहरे और झोली की ओर शक भरी नज़र से देखती हुई खड़ी रही। काबुली उसे झोली के अंदर से कुछ सूखे मेवे निकालकर देने लगा पर वह लेने को किसी तरह राज़ी नहीं हुई। दुगने डर से मेरे घुटने से सटकर रह गई। कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे किसी काम से घर से बाहर जाते समय देखा कि मेरी नन्हीं बेटी दरवाज़े के पास बेंच के ऊपर बैठी अपनी बे-सिर-पैर की बातें कर रही है। काबुलीवाला उसके पैरों के पास बैठा मुसकुराता हुआ सुन रहा है। वह बीच-बीच में मिनी की बातों पर अपनी राय भी बताता जाता है। मिनी को अपने पाँच साल के जीवन में पिता के अलावा ऐसा धीरज रखकर उसकी बातों को सुननेवाला कभी नहीं मिला था। मैंने यह भी देखा कि उसका छोटा आँचल बादाम-किशमिश से भरा था। मैंने काबुलीवाले से कहा, "उसे यह सब क्यों दिया? अब फिर मत देना। " मैंने जेब से एक अठन्नी निकाल कर उसको दे दी। काबुलीवाले ने अठन्नी मुझसे लेकर अपने झोले में रख ली।

घर लौटकर आया तो देखा कि उस अठन्नी को लेकर पूरा झगड़ा मचा हुआ है। मिनी की माँ उससे पूछ रही थी, “तुझे यह अठन्नी कहाँ मिली?"

मिनी कह रही थी, "काबुलीवाले ने दी। मैंने माँगी नहीं थी। उसने खुद दे दी।” मैंने मिनी की माँ को समझाया और मिनी को बाहर ले गया। पता चला कि इस दौरान काबुलीवाले ने लगभग रोज़ आकर मिनी को ने पिस्ता-बादाम देकर उसके नन्हें दिल का विश्वास पा लिया है। वे आपस में दोस्त बन गए हैं। दोनों में कुछ बँधी हुई बातें और हँसी-मज़ाक चलते। काबुली रहमत को देखते ही मेरी बेटी हँसते हुए पूछती, “काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?"

रहमत हँसते हुए उत्तर देता, “हाथी।” मतलब उसकी झोली में हाथी है। इस बात से दोनों खूब हँसते। उनमें एक और हँसी भरी बात चलती थी। रहमत मिनी से कहता, “मिनी तुम क्या ससुराल कभी नहीं जाओगी?"

ससुराल का मतलब नहीं समझने के कारण मिनी उलट कर पूछती, “तुम ससुराल जाओगे?"

रहमत ससुर के लिए खूब मोटा घूसा तानकर कहता, 'मैं ससुर को मारूँगा।" सुनकर मिनी 'ससुर' नाम के किसी अनजाने जीव की पिटी-पिटाई हालत के बारे में सोच कर खूब हँसती।

मुझमें देश-विदेश घूमने की इच्छा है लेकिन अपने कमरे से बाहर निकलते ही घबराहट होने लगती है। इसलिए सुबह अपने कमरे में मेज़ के सामने बैठकर इस काबुली के साथ बातचीत करने से बाहर घूमने का काफ़ी काम हो जाता है। वह टूटी-फूटी बंगला में अपने देश की बातें कहता है और उसकी तस्वीरें मेरी आँखों के सामने आ जाती हैं। लेकिन मिनी की माँ बहुत शक्की स्वभाव की महिला थी। रहमत काबुलीवाले पर उन्हें भरोसा नहीं था। उन्होंने मुझसे बार-बार उस पर खास तौर से नज़र रखने के लिए प्रार्थना की। उनके शक को हँस कर उड़ा देने पर उन्होंने कई सवाल किए–'क्या कभी किसी के बच्चे चोरी नहीं जाते? एक लंबे-चौड़े काबुली के लिए एक छोटे से बच्चे को चुरा ले जाना क्या बिलकुल नामुमकिन है?' मुझे मानना पड़ा कि ये बातें नामुमकिन नहीं हैं लेकिन मैं इस कारण भलेमानस रहमत को घर आने से मना नहीं कर सकता था।

हर वर्ष माघ के महीने के बीचों-बीच रहमत अपने देश चला जाता। इस समय वह अपना सारा उधार रुपया वसूल करने में जुटा रहता। लेकिन फिर भी एक बार वह मिनी से ज़रूर मिल जाता। जिस दिन सुबह समय नहीं मिलता तो शाम को आ पहुँचता। कभी-कभी अँधेरे कमरे में उसे बैठा देख कर सचमुच भय-सा लगता। लेकिन जब उन दोनों की भोली-भाली बातें सुनता तो हृदय प्रसन्नता से भर उठता।

एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा पढ़ रहा था। तभी सड़क पर बड़े ज़ोर का हल्ला सुनाई पड़ा। आँख उठाई तो देखा, दो पहरेवाले अपने रहमत को बाँधे लिए आ रहे हैं- उसके पीछे तमाशबीन लड़कों की टोली चली आ रही है। रहमत के शरीर और कपड़ों पर खून के दाग हैं। एक पहरेवाले के हाथ में खून से सना छुरा है। मैंने बाहर आकर पहरेवालों को रोककर पूछा, 'मामला क्या है?'

मालूम हुआ कि हमारे एक पड़ोसी ने रामपुरी चादर के लिए रहमत से कुछ रुपया उधार लिया था। उसने झूठ बोलकर रुपया उधार लिया था तथा रुपया देने से इंकार कर दिया और इसी बात को लेकर कहा-सुनी करते-करते रहमत ने उसके छुरा भोंक दिया। रहमत उस झूठे आदमी को तरह-तरह की गालियाँ दे रहा था। तभी 'काबुलीवाले! ओ काबुलीवाले!' पुकारती हुई मिनी घर से बाहर निकल आई।

पलक मारते रहमत का चेहरा आनंद से खिल उठा। उसके कंधे पर आज झोली नहीं थी, इसलिए उसके बारे में कुछ पूछा नहीं जा सकता था। मिनी ने छूटते ही उससे पूछा, “तुम ससुराल जाओगे?"

रहमत ने हँस कर कहा, "वहीं जा रहा हूँ।"

मिनी को उसका जवाब हँसी भरा नहीं लग वह हाथ दिखाकर बोला, “ससुर को मारता, पर क्या करूँ हाथ बँधे हैं।

छुरा मारने के अपराध में रहमत को कई वर्ष की जेल हो गई। मैं उसकी बात करीब-करीब भूल गया। मिनी भी उसे जल्दी भूल गई। धीरे-धीरे उसके नए मित्र बनते गए। उम्र बढ़ने के साथ एक-एक करके सखियाँ जुटने लगीं। मेरे साथ भी अब वह पहले जैसी बातचीत नहीं करती। मैंने तो उसके साथ एक प्रकार की कुट्टी कर ली थी।

बहुत सुहावनी सुबह थी। आज मेरे घर में शहनाई बज उठी थी। उसके स्वर मेरे हृदय को अंदर से रुला रहे थे।

मेरी लाड़ली बेटी मुझसे विदा होने जा रही थी। आज मेरी मिनी का विवाह था।

सवेरे से ही विवाह की तैयारियाँ हो रही थीं। मैं बाहर के कमरे में बैठा हिसाब देख रहा था, तभी रहमत आकर सलाम करके खड़ा गया।

मैं पहले उसे पहचान नहीं सका। उसके पास न वह झोली थी, न उसके वे लंबे बाल। शरीर भी कमज़ोर हो गया था। आखिर उसकी हँसी देखकर उसे पहचाना। मैंने कहा, "क्यों रहमत, कब छूटा?" She

उसने कहा, “कल शाम को जेल से छूटा हूँ।"

बात सुनकर कानों में जैसे खटका हुआ। आज के शुभ दिन यह आदमी यहाँ से चला जाता तो अच्छा होता। मैंने उससे कहा, “आज हमारे घर में एक काम है, मुझे बहुत से काम करने हैं, आज तुम जाओ।"

बात सुनते ही वह चल दिया और दरवाज़े के पास पहुँचकर बोला, “क्या एक बार मुन्नी को नहीं देख सकूँगा"।

शायद उसे विश्वास था मिनी अब भी वैसी ही होगी। नन्हीं-सी बच्ची जो पहले की तरह ही 'काबुलीवाले' कहती हुई दौड़ी आएगी, बच्चों जैसी हँसी भरी बातें करेगी। वह पहले की तरह उसके लिए किसी से माँग-चाँग कर एक डिब्बा अँगूर और किशमिश-बादाम लाया था।

वह दुखी मन से 'सलाम बाबू' कहकर दरवाज़े के बाहर चला गया।

मुझे अपने मन में न जाने कैसा एक दर्द महसूस हुआ। सोचा, उसे वापस बुलवा लूँ, तभी देखा वह खुद लौटा आ रहा है।

पास आकर बोला, 'ये अँगूर और थोड़े से किशमिश बादाम मुन्नी के लिए लाया था, दे दीजिएगा।'

उन्हें लेकर जब मैं दाम देने लगा तो वह मेरा हाथ पकड़ कर बोला, "मुझे पैसा मत दीजिए बाबू, जिस तरह तुम्हारी एक लड़की है, उसी तरह देश में मेरी भी एक लड़की है। मैं उसी का चेहरा याद करके तुम्हारी मुन्नी के लिए थोड़ी मेवा लेकर आया हूँ, सौदा करने नहीं।"

यह कहते हुए उसने अपने कुर्ते में कहीं छाती के पास से मैले कागज़ का एक टुकड़ा निकाला और बहुत सावधानी से उसकी तह खोलकर मेरी टेबिल पर बिछा दिया।

देखा, कागज़ पर किसी नन्हे हाथ की छाप थी। फोटो नहीं, रंगों से बना चित्र नहीं, प्यारी बिटिया के हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर कागज़ के ऊपर उसकी छाप ले ली गई थी। अपनी प्यारी बिटिया के हाथ की इसी यादगार को सीने से लगाए रहमत कलकत्ते की सड़कों पर मेवा बेचने आता, मानो उस सुंदर, कोमल नन्हीं बच्ची के हाथ की छुअन भर उसके हृदय में अमृत की धारा बहाती रहती।

देखकर मेरी आँखें छलछला आई। उस समय मैंने समझा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी पिता है, मैं भी पिता हूँ। मैंने उसी समय मिनी को भीतर से बुलवाया। शादी की लाल साड़ी पहने, माथे पर चंदन लगाए बहू वेश में मिनी लज्जा से मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उसको देखकर काबुलीवाला सकपका गया। अपनी पुरानी बातचीत नहीं जमा पाया। अंत में हँस कर बोला, "मुन्नी, तू ससुराल जाएगी?"

रहमत का प्रश्न सुनकर लज्जा से लाल होकर मिनी मुँह फेरकर खड़ी हो गई। मुझे काबुलीवाले और मिनी की पहली भेंट याद हो आई और मैं कुछ दुखी हो उठा। मिनी के चले जाने पर गहरी साँस लेकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। अचानक उसकी समझ में साफ़ आ गया, इस बीच उसकी बेटी भी इसी तरह बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उस पर क्या बीती होगी, यह भी भला कोई जानता है। उसका चेहरा दुख और चिंता से भर उठा।

मैंने एक नोट निकालकर उसे देते हुए कहा, 'रहमत, तुम अपनी लड़की के पास अपने देश लौट जाओ। तुम्हारा मिलन-सुख मेरी मिनी का कल्याण करे।'

रविवार, 3 अप्रैल 2022

नज़ीर अकबराबादी | NAZEER AKBARABADI | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

नज़ीर अकबराबादी

(1735 - 1830)

नज़ीर अकबराबादी का जन्म दिल्ली शहर में सन् 1735 में हुआ। बाद में इनका परिवार आगरा जाकर बस गया और वहीं इन्होंने आगरा के अरबी-फारसी के मशहूर अदीबों से तालीम हासिल की। नज़ीर हिंदू त्योहारों में बहुत दिलचस्पी लेते थे और उनमें शामिल होकर दिलोजान से लुत्फ़ उठाते थे। मियाँ नज़ीर राह चलते नज़्में कहने के लिए मशहूर थे। अपने टट्टू पर सवार नजीर को कहीं से कहीं आते-जाते समय राह में कोई भी रोककर फ़रियाद करता था कि उसके हुनर या पेशे से ताल्लुक रखनेवाली कोई नज्म कह दीजिए। नज़ीर आनन-फानन में एक नज़्म रच देते थे। यही वजह है कि भिश्ती, ककड़ी बेचनेवाला, बिसाती तक नज़ीर की रची नज़्में गा-गाकर अपना सौदा बेचते थे, तो वहीं गीत गाकर गुज़र करनेवालियों के कंठ से भी नजीर की नज़्में ही फूटती थीं।

नजीर दुनिया के रंग में रंगे हुए एक महाकवि थे। इनकी कविताओं में दुनिया हँसती-बोलती, जीती-जागती, चलती-फिरती और जीवन का त्योहार मनाती नजर आती है। नजीर ऐसे कवि हैं, जिन्हें हिंदी और उर्दू, दोनों भाषाओं के आम जन ने अपनाया। नज़ीर की कविताएँ हमारी राष्ट्रीय एकता की मिसाल हैं, जिनमें कई जातियाँ, कई प्रदेश, कई भाषाएँ और कई परंपराएँ होते हुए भी सबमें एका है।

नज़ीर अपनी रचनाओं में मनोविनोद करते हैं। हँसी-ठिठोली करते हैं। ज्ञानी की तरह नहीं, मित्र की तरह सलाह-मशविरा देते हैं, जीवन की समालोचना करते हैं। 'सब ठाठ पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा' जैसी नसीहत देनेवाला यह कवि अपनी रचनाओं में जीवन का उल्लास और जीवन की सच्चाई उजागर करता है।

सियारामशरण गुप्त | SIYARAMSHARAN GUPT | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

सियारामशरण गुप्त

(1895 - 1963)

सियारामशरण गुप्त का जन्म झाँसी के निकट चिरगाँव में सन् 1895 में हुआ था। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त इनके बड़े भाई थे। गुप्त जी के पिता भी कविताएँ लिखते थे। इस कारण परिवार में ही इन्हें कविता के संस्कार स्वतः प्राप्त हुए। गुप्त जी महात्मा गांधी और विनोबा भावे के विचारों के अनुयायी थे। इसका संकेत इनकी रचनाओं में भी मिलता है। गुप्त जी की रचनाओं का प्रमुख गुण है कथात्मकता। इन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर करारी चोट की है। देश की ज्वलंत घटनाओं और समस्याओं का जीवंत चित्र इन्होंने प्रस्तुत किया है। इनके काव्य की पृष्ठभूमि अतीत हो या वर्तमान, उनमें आधुनिक मानवता की करुणा, यातना और द्वंद्व समन्वित रूप में उभरा है।

सियारामशरण गुप्त की प्रमुख कृतियाँ हैं : मौर्य विजय, आर्द्रा, पाथेय, मृण्मयी, उन्मुक्त, आत्मोत्सर्ग, दूर्वादल और नकुल।