गुरुवार, 11 नवंबर 2021

महर्षि दयानन्द सरस्वती | DAYANANDA SARASWATI |(सत्यार्थप्रकाश)

महर्षि दयानन्द सरस्वती 

जन्म- 1824 ई.

जन्म स्थान : गुजरात का टंकारा गांव

देहान्त : 1883 ई

शिवरात्रि का पर्व है। गाँव की सीमा पर स्थित शिवालय में आज भक्तों की बहुत भीड़ है। दीपकों के प्रकाश से सारा देवालय जगमगा रहा है। भक्तां की मण्डली भाव विभोर होकर भजन-कीर्तन में निमग्न है। लोगों का विश्वास है कि आज दिन भर निराहार रहकर रात्रि जागरण करने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।

कुछ समय तक भजन-कीर्तन का क्रम चलता रहा परन्तु जैसे-जैसे रात्रि बीतने लगी लोगों का उत्साह ठंडा पड़ने लगा। कुछ उठकर अपने घरों को चले गए, जो रह गए वे भी अपने आपको सँभाल न सके। आधी रात होते-होते वहीं सो गए। ढोल-मंजीरे शान्त हो गए। निस्तब्ध सन्नाटे में एक बालक अभी भी जाग रहा था। उसकी आँखों में नींद कहाँ अपलक दृष्टि से वह अब भी शिव-प्रतिमा को निहार रहा था। तभी उसकी दृष्टि एक चूहे पर पड़ी जो बड़ी सतर्कतापूर्वक इधर-उधर देखते हुए शिवलिंग की ओर बढ़ रहा था। शिवलिंग के पास पहुँचकर पहले तो वह उस पर चढ़ायी गयी भोग की वस्तुओं को खाता रहा, फिर सहसा मूर्ति के ऊपर चढ़कर आनन्दपूर्वक घूमने लगा जैसे हिमालय की चोटी पर पहुँच जाने का गौरव प्राप्त हो गया हो।

पहले तो बालक का मन हुआ कि वह चूहे को डराकर दूर भगा दे परन्तु दूसरे ही क्षण उनके अन्तर्मन को एक झटका सा लगा, श्रद्धा और विश्वास के सारे तार झनझनाकर जैसे एक साथ टूट गए। इस विचार ने बालक के जीवन दर्शन को ही बदल डाला। उसने ईश्वर की खोज का संकल्प लिया। यह बालक था मूलशंकर आगे चलकर यही बालक महर्षि दयानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

मूलशंकर के पिता का नाम कर्षन जी त्रिवेदी और माता का नाम शोभाबाई था। उनके पिता की इच्छा थी कि उनका पुत्र पढ़-लिखकर सद्गृहस्थ बने और जमींदारी तथा लेन देन में उनकी मदद करे। परन्तु मूलशंकर का मन अध्ययन और एकान्त चिन्तन में लगता था। मूलशंकर की प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत में हुई। कुशाग्र बुद्धि तथा विलक्षण स्मरण शक्ति के कारण थोड़े ही दिनों में उन्हें संस्कृत के बहुत से स्तोत्र-मन्त्र और श्लोक याद हो गए।

जब वे सोलह वर्ष के थे तभी उनके जीवन में दो ऐसी घटनाएँ घटीं जिसने मूलशंकर के मन में वैराग्य-भावना को दृढ़ बना दिया। उनकी छोटी बहन की हैजा से मृत्यु हो गई। मूलशंकर डबडबायी आँखों से अपनी प्यारी बहन को मृत्यु के मुँह में जाते असहाय देखते रहे। उन्हें लगा कि जीवन कितना निरुपाय है! संसार कितना मिथ्या!

तीन वर्ष पश्चात् सन् 1843 में मूलशंकर के चाचा की मृत्यु हो गई। मूलशंकर को चाचा से अपार स्नेह था परन्तु मृत्यु ने आज उनके इस स्नेह-बन्धन को भी तोड़ दिया। संसार की निस्सारता ने एक बार फिर उन्हें झकझोर दिया। वैराग्य का नन्हा पौधा बढ़कर एक विशाल वृक्ष बन गया।

उन्होंने उसी समय दृढ़ संकल्प किया कि मैं घर-गृहस्थी के बन्धन में नहीं पड़ेगा और एक दिन मूलशंकर घर के सभी लोगों की दृष्टि बचाकर चुपचाप घर से निकल पड़े। इस समय उनकी अवस्था मात्र 21 वर्ष की थी। चलते-चलते कई दिनों के बाद वे सायले (अहमदाबाद) गाँव में पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक ब्रह्मचारी जी से दीक्षा ग्रहण की और अब वे मूलशंकर से शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी बन गये। कुछ दिन यहाँ रह कर वे साधुओं से योग क्रियाएँ सीखते रहे किन्तु अनन्त सत्य की खोज में निकले शुद्ध चैतन्य का मन सायले गाम में बंधकर न रह सका। युवा संन्यासी की ज्ञान पिपासा उन्हें नर्मदा के किनारे-किनारे दूर तक ले गयी। एक दिन उनकी भेंट दण्डी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से हुई। वे बहुत विद्वान एवं उच्च कोटि के संन्यासी थे। शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी उनके पास पहुँच गये और उनसे संन्यास की दीक्षा देने का अनुरोध किया। पहले तो गुरु ने अपने शिष्य की युवावस्था को देखते हुए संन्यास की दीक्षा देने से इनकार किया किन्तु दूसरे ही क्षण उन्होंने शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी की आँखों में झाँककर उनकी वैराग्य भावना को पहचान लिया। उन्होंने विधिवत् उन्हें संन्यास की दीक्षा दी। अब मूलशंकर शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी से संन्यासी बनकर दयानन्द सरस्वती हो गये।

दीक्षा के उपरान्त स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपना सारा समय विद्याध्ययन और योगाभ्यास में लगाया। अहंकार को त्यागकर शिष्य भाव से उन्हें जिससे जो कुछ भी प्राप्त हुआ उसे बड़ी कृतज्ञता से ग्रहण किया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने द्वारिका के स्वामी महात्मा शिवानन्द से योग विद्या का ज्ञान प्राप्त किया। मथुरा के स्वामी विरजानन्द के विमल यश और पाण्डित्य की चर्चा सुनकर वे मथुरा जा पहुंचे। स्वामी विरजानन्द के चरणों में बैठकर दयानन्द ने 'अष्टाध्यायी महाभाष्य' ‘वेदान्त सूत्र' आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया। जब वे पढ़ने बैठते तो तर्कयुक्त प्रश्नों की झड़ी लगा देते थे। उनकी लगन और निष्ठा से प्रभावित होकर गुरु विरजानन्द ने कहा -

दयानन्द! आज तक मैंने सैकड़ों विद्यार्थियों को पढ़ाया पर जैसा आनन्द और जो उत्साह मुझे तुम्हें पढ़ाने में मिलता है वह कभी नहीं मिला। तुम्हारी तर्कशक्ति, अप्रतिम और स्मरणशक्ति अलौकिक है। तुम्हारी योग्यता, तुम्हारी प्रतिभा का लाभ देश के जन को मिले यही मेरी आकांक्षा और शुभकामना है।

स्वामी दयानन्द ने गुरु की इस आकांक्षा को जीवन भर गाँठ बाँधकर रखा। उन्हें गुरु के वे आदेश वाक्य भी प्रतिक्षण सुनायी देते रहे जो उन्होंने विद्याध्ययन की समाप्ति पर उन्हें अपने आश्रम से विदा करते समय कहे थे। उनका आदेश था - वत्स दयानन्द! संसार से भागकर जंगलों में जाकर एकान्त साधना करने में संन्यास की पूर्णता नहीं है। संसार के बीच रह कर दीन-दुखियों की सेवा करना, अशान्त जीवन में शान्ति का विस्तार करते हुए दोष मुक्त जीवन को बिताना ही सच्ची साधु प्रवृत्ति है। जाओ, समाज के बीच रहकर अनेक कुसंस्कारों और अंधविश्वासों से खण्ड-खण्ड हो रहे। समाज का उद्धार करो, उसे नयी चेतना दो, नया जीवन दो।

स्वामी दयानन्द ने आडम्बरों का जीवन भर विरोध किया। इस संदर्भ में उन्होंने एक महान धर्मग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' लिखा। जिसमें धर्म, समाज, राजनीति, नैतिकता एवं शिक्षा पर उनके संक्षिप्त विचार दिये गये हैं। स्वामी दयानन्द के दृष्टिकोण एवं जीवन दर्शन को संक्षेप में इस उद्धरण से समझा जा सकता है।

कोई भी सद्गुण सत्य से बड़ा नहीं है। कोई भी पाप झूठ से अधम नहीं है। कोई ज्ञान भी सत्य से बड़ा नहीं है इसलिए मनुष्य को सदा सत्य का पालन करना चाहिए।

धर्म के नाम पर मानव समाज का भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में बँटा होना उन्हें ईश्वरीय नियम के प्रतिकूल लगता था। लोगों को उपदेश देते हुए प्राय: कहा करते थे, परमात्मा के रचे पदार्थ सब प्राणी के लिए एक से हैं। सूर्य और चन्द्रमा सब के लिए समान प्रकाश देते हैं। वायु और जल आदि वस्तुएँ सबको एक सी ही दी गयी हैं। जैसे ये पदार्थ ईश्वर की ओर से सब प्राणियों के लिए एक से हैं और समान रूप से लाभ पहुँचाते हैं वैसे ही परमेश्वर प्रदत्त धर्म भी सब मनुष्यों के लिए एक ही होना चाहिए।

भारतीय समाज को वेद के आदर्शों के अनुरूप लाने एवं भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने हेतु उन्होंने 1875 में आर्य समाज की मुम्बई में स्थापना की। आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य सभी मनुष्यों के शारीरिक, आध्यात्मिक और सामाजिक स्तर को ऊपर उठाना था।

स्वामी दयानन्द ने प्राचीन संस्कृति और सभ्यता की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने वेदों और संस्कृत साहित्य के अध्ययन पर बल दिया। तत्कालीन समाज में महिलाओं की गिरती हुई स्थिति का कारण उन्हें उनका अशिक्षित होना लगा। फलत: उन्होंने नारी शिक्षा पर विशेष बल दिया।

स्वामी दयानन्द ने पर्दा प्रथा तथा बाल विवाह जैसी कुरीतियों का घोर विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह और पुनर्विवाह की प्रथा का समर्थन किया। समाज में व्याप्त वर्ण भेद, असमानता और छुआ-छूत की भावना का भी खुलकर विरोध करते हुए कहा. -

“जन्म से मनुष्य किसी जाति विशेष का नहीं होता बल्कि कर्म के आधार पर होता है।”

स्वामी दयानन्द ने हिन्दी भाषा को राज भाषा के रूप में मान्यता दिलाने का पूरा प्रयास किया। यद्यपि वे संस्कृत के विद्वान थे किन्तु उन्होंने हिन्दी में पुस्तकें लिखीं। संस्कृत भाषा और धर्म को ऊँचा स्थान दिलाने के लिए उन्होंने हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठित किया। कोई चाहे कुछ भी करे, देशी राज्य ही सर्वश्रेष्ठ है। विदेशी सरकार सम्पूर्ण रूप से लाभकारी नहीं हो सकती, फिर चाहे वे धार्मिक पूर्वाग्रह और जातीय पक्षपात से मुक्त तथा पैतृक न्याय और दया से अनुप्राणित ही क्यों न हो।

- दयानन्द सरस्वती (सत्यार्थप्रकाश)

स्वामी दयानन्द समाज सुधारक और आर्य संस्कृति के रक्षक थे। मनुष्य मात्र के कल्याण की कामना करने वाले महर्षि दयानन्द का जीवनदीप सन् 1883 की कार्तिक अमावस्या को सहसा बुझ गया किन्तु उस दीपक का प्रकाश उनके कार्यों और विचारों के रूप में आज भी फैला है।

स्वामी दयानन्द के विषय में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था -

स्वामी दयानन्द 19वीं शताब्दी में भारत के पुनर्जागरण के प्रेरक व्यक्ति थे। उन्होंने भारतीय समाज के लिए एक ऐसा मार्ग प्रशस्त किया जिस पर चलकर भारतीय समाज समुन्नत किया जा सकता है।

राजा राममोहन राय | RAJA RAM MOHAN ROY

राजा राममोहन राय 
RAJA RAM MOHAN ROY


श्मशान घाट पर चिता सजाई जा चुकी थी। एक स्त्री, जिसके पति का निधन हो गया था, उस चिता पर जीवित जलने के लिए तैयार की जा रही थी। उस स्त्री के देवर ने उपस्थित लोगों का विरोध किया कि यह गलत हो रहा है। उसने कहा यह कहाँ की समझदारी है कि पति के मरने पर उसकी पत्नी जीवित चिता में जल जाये या आप लोगों द्वारा जलने के लिए मजबूर कर दी जाये। यह कुरीति है.... अन्याय है और सरासर अत्याचार है।"

पर उस युवक की किसी ने नहीं सुनी। अन्ततः वही हुआ जो समाज चाहता था। स्त्री चिता पर कूद पड़ी और जीवित जल मरी। इस घटना ने युवक के हृदय को पीड़ा से झकझोर दिया। यहीं से इस युवक ने इस कुरीति को समाप्त करने का बीड़ा उठा लिया। यह दृढ़ निश्चयी, साहसी और समाज सुधारक युवक राममोहन राय था।

जन्म:- 22 मई 1772 ई. को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के गांव राधानगर

पिता:- रामकान्त राय

माता:- तारिणी देवी

मृत्युः- 27 सितम्बर 1833 ई. इंग्लैण्ड के बिरस्टल नगर

राम मोहन राय के समाज सुधार सम्बन्धी कार्य।

सती प्रथा का विरोध, अन्धविश्वासों का विरोध. बहुविवाह विरोध, बाल विवाह विरोध, जाति प्रथा का विरोध, विधवाओं का पुनर्विवाह पुत्रियों को पिता की सम्पत्ति का भाग दिलवाना, धार्मिक सुधार ईश्वर एक है, स्त्री पुरुष को बराबरी के अधिकार।

राममोहन की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही बंगला भाषा में हुई। बाद में एक साहब द्वारा भी उन्हें शिक्षा दी गई। इनकी माँ संस्कृत की विदुषी थीं। मौलवी राममोहन राय ने पटना में अरबी तथा फारसी की उच्च शिक्षा पराप्त की। काशी में इन्हीं ने संस्कृत का भी अध्ययन किया, इन्होंने अंग्रेजी भाषा को भी मन लगाकर पढ़ा। इन पर एक तरफ तो सूफी मत का प्रभाव था, तो दूसरी तरफ वेदान्त और उपनिषदों के प्रभाव से इनका व्यक्तित्व उदारवादी विचारों से ओत-परोत हो गया।

बीच में कुछ समय के लिए राम मोहन राय तिब्बत भी गये। वहीं उन्होंने बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। इन्होंने जैन धर्म और उसके कल्प स्तर का भी अध्ययन किया।

पिता के बुलावे पर ये तिब्बत से वापस आये थोड़े दिन बाद इनका विवाह कर दिया गया। पारिवारिक जीवन के निर्वाह के लिए इन्हीं ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन क्लर्क के पद पर नौकरी कर ली। अपनी मेहनत एवं ईमानदारी के बल पर ये दीवान जैसे उच्च पद पर पहुँच गये। नौकरी में रहते हुए ही इन्होंने अंग्रेजी, लेटिन व ग्रीक आदि भाषाओं को अच्छी तरह सीख लिया।

राम मोहन राय की आयु अभी 40 वर्ष की थी, इन्होंने नौकरी छोड़ दी। इन्होंने कोलकाता में एक कोठी खरीदी और वहीं से समाज सेवा के कार्य करते रहे।

राममोहन राय ने उदारवादी विचार धारा के लोगों को लेकर 'आत्मीय सभा' बनाई। इसका प्रमुख उद्देश्य इस बात का प्रचार करना था 'ईश्वर एक है।' पर उनके इस कथन से कट्टरपन्थी लोग नाराज हो गये। वे उनके विरुद्ध तर्क-वितर्क करते थे। राम मोहन राय उनकी शंकाओं के समाधान के लिए लेख लिखते और उदारवादी दृष्टिकोण के प्रति उन्हें सहमत करते। राममोहन राय ने 'ईश्वर एक है' की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए ब्रह्मसभा की स्थापना की। इसका नाम बाद में बदलकर 'ब्रह्म समाज' कर दिया गया। इसमें भी धर्मों की अच्छी व उदार बातों का समावेश किया गया था।

राममोहन राय ने अपने विचारों को फैलाने के लिए सन् 1821 में 'संवाद कौमुदी' बंगला साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने 1882 ई. में फारसी में मिरा ए-तुल अखबार भी प्रकाशित किया। वे अंग्रेजी शिक्षा के पक्षधर थे। उनका मानना था कि पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान भी भारतीयों के लिए लाभकारी है। उन्होंने 1825 ई. में वेदान्त कालेज की स्थापना की, जिसमें भारतीय विद्या के अलावा सामाजिक एवं भौतिक विज्ञान की भी पढ़ाई होती थी।

भारतीय नव जागरण के अग्रदूत के रूप में राजा राममोहन राय की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। इन्होंने भारतीय धर्म और सभ्यता को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने का प्रयास किया। उनका कहना था -

मैं केवल अन्धविश्वासों की आलोचना करता हूँ न कि धर्म की।

राजा की उपाधि कैसे मिली?

राममोहन राय के समय मुगल शासक कम्पनी से मिलने वाले धन से सन्तुष्ट नहीं था। उसने राम मोहन राय को अपना प्रतिनिधि बनाकर इंग्लैण्ड के शासक के पास भेजा।

इसी अवसर पर मुगल सम्राट ने उनको 'राजा' की उपाधि दी।

स्वातन्त्र्य प्रेमी राजा राममोहन राय की राजनीति का आधारभूत सिद्धान्त उनका यह विश्वास था कि शासन की क्षमता भारतीयों में किसी से कम नहीं है। उन्होंने प्रशासन में सुधार के लिए आन्दोलन किए। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध शिकायत लेकर राममोहन राय 8 अप्रैल 1831 ई. को इंग्लैण्ड पहुँचे। वहीं से वे फ्रांस की राजधानी पेरिस गये। वे फिर इंग्लैण्ड वापस आये। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य खराब होता गया। इंग्लैण्ड के ब्रिस्टल नगर में 62 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। ब्रिस्टल नगर में आज भी उनका स्मारक बना हुआ है।

बुधवार, 10 नवंबर 2021

छत्रपति शिवाजी | CHATRAPATI SHIVAJI

छत्रपति शिवाजी 
CHATRAPATI SHIVAJI


भारतीय इतिहास के महापुरुषों में शिवाजी का नाम प्रमुख है। वे जीवन भर अपने समकालीन शासकों के अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करते रहे।

शिवाजी का जन्म 4 मार्च सन् 1627 ई. को महाराष्ट्र के शिवनेर के किले में हुआ था। इनके पिता का नाम शाहजी और माता का नाम जीजाबाई था। शाहजी पहले अहमदनगर की सेना में सैनिक थे। वहाँ रहकर शाहजी ने बड़ी उन्नति की और वे प्रमुख सेनापति बन गये। कुछ समय बाद शाहजी ने बीजापुर के सुल्तान के यहाँ नौकरी कर ली। जब शिवाजी लगभग दस वर्ष के हुए तब उनके पिता शाहजी ने अपना दूसरा विवाह कर लिया। अब शिवाजी अपनी माता के साथ दादाजी कोणदेव के संरक्षण में पूना में रहने लगे।

माँ जीजाबाई धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। उन्होंने बड़ी कुशलता से शिवाजी की शिक्षा दीक्षा का प्रबन्ध किया। दादाजी कोणदेव की देख-रेख में शिवाजी को सैनिक शिक्षा मिली और वे घुड़सवारी, अस्त्रों-शस्त्रों के प्रयोग तथा अन्य सैनिक कार्यों में शीघ्र ही निपुण हो गये। वे पढ़ना, लिखना तो अधिक नहीं सीख सके, परन्तु अपनी माता से रामायण, महाभारत तथा पुराणों की कहानियाँ सुनकर उन्होंने हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। माता ने शिवाजी के मन में देश-प्रेम की भावना जाग्रत की। वे शिवाजी को वीरों की साहसिक कहानियाँ सुनाती थीं। बचपन से ही शिवाजी के निडर व्यक्तित्व का निर्माण आरम्भ हो गया था।

शिवाजी सभी धर्मों के संतों के प्रवचन बड़ी श्रद्धा के साथ सुनते थे। सन्त रामदास को उन्होंने अपना गुरु बनाया। गुरु पर उनका पूरा विश्वास था और राजनीतिक समस्याओं के समाधान में भी वे अपने गुरु की राय लिया करते थे। दादाजी कोणदेव से शिवाजी ने शासन सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त कर लिया था पर जब शिवाजी बीस वर्ष के थे तभी उनके दादा की मृत्यु हो गयी। अब शिवाजी को अपना मार्ग स्वयं बनाना था। भावल प्रदेश के साहसी नवयुवकों की सहायता से शिवाजी ने आस-पास के किलों पर अधिकार करना आरम्भ कर दिया। बीजापुर के सुल्तान से उनका संघर्ष हुआ। शिवाजी ने अनेक किलों को जीत लिया और रायगढ़ को अपनी राजधानी बनाया। बीजापुर का सुल्तान शिवाजी को नीचा दिखाना चाहता था। उसने अपने कुशल सेनापति अफजल खाँ को पूरी तैयारी के साथ शिवाजी को पराजित करने के लिए भेजा। अफजल खाँ जानता था कि युद्ध भूमि में शिवाजी के सामने उसकी दाल नहीं गलेगी इसलिए कूटनीति से उसने शिवाजी को अपने जाल में फँसाना चाहा। उसने दूत के द्वारा शिवाजी के पास संधि प्रस्ताव भेजा। उन्हें दूत की बातों से अफजल खाँ के कपटपूर्ण व्यवहार का आभास मिल गया था। अतः वे सतर्क होकर अफजल खाँ से मिलने गये। उन्होंने साहसपूर्वक स्थिति का सामना किया और हाथ में पहने हुए बघनख से अफजल खाँ का वध कर दिया।

शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से मुगल बादशाह औरंगज़ेब को चिन्ता हुई। उसने अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेजा और उससे शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति को नष्ट करने को कहा। शाइस्ता खाँ पूना के एक महल में ठहरा था। रात के समय शिवाजी ने अपने सैनिकों के साथ शाइस्ता खाँ पर आंक्रमण कर दिया। लेकिन वे अँधेरे में कमरे से भाग निकला। इस पराजय से मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा को बड़ी क्षति पहुँची।

अब शिवाजी का दमन करने के लिए औरंगज़ेब ने आमेर के राजा जयसिंह को भेजा जयसिंह नीतिकुशल, दूरदर्शी, योग्य और साहसी सेनानायक था। इन दोनों के मध्य दो महीने तक घमासान युद्ध हुआ। अन्त में शिवाजी संधि करने के लिए विवश हो गये और उनको जयसिंह की सभी शर्तें स्वीकार करनी पड़ी।

जब जयसिंह के साथ शिवाजी आगरा पहुँचे तब नगर के बाहर उनका स्वागत नहीं किया गया। मुगल दरबार में भी उनको यथोचित सम्मान नहीं मिला। स्वाभिमानी शिवाजी यह अपमान सहन न कर सके, वे मुगल सम्राट की अवहेलना करके दरबार से चले आये। औरंगज़ेब ने उनके महल के चारों ओर पहरा बैठाकर उनको कैद कर लिया। वे शिवाजी का वध करने की योजना बना रहा था। इसी समय शिवाजी ने बीमार हो जाने की घोषणा कर दी। वे ब्राह्मणों और साधु सन्तों को मिठाइयों की टोकरियाँ भिजवाने लगे। बँहगी में रखी एक ओर की टोकरी में स्वयं बैठकर वे आगरा नगर से बाहर निकल गये और कुछ समय बाद अपनी राजधानी रायगढ़ पहुँच गये। शिवाजी के भाग निकलने का औरंगज़ेब को जीवन-भर पछतावा रहा।

शिवाजी को अपनी सैन्य शक्ति का पुन: गठन करने के लिए समय की आवश्यकता थी। अत: उन्होंने मुगलों से सन्धि करने में हित समझा। दक्षिण के सूबेदार राजा जयसिंह की मृत्यु हो चुकी थी और उनके स्थान पर शाहजादा मुअज्जम दक्षिण का सूबेदार था। उसकी सिफारिश पर औरंगज़ेब ने सन्धि स्वीकार कर ली और शिवाजी की राजा की उपाधि को भी मान्यता दे दी। अब शिवाजी अपने राज्य की शासन व्यवस्था को सुदृढ़ करने में लग गये।

शिवाजी बहुत प्रतिभावान और सजग राजनीतिज्ञ थे। उन्हें अपने सैनिकों की क्षमता और देश की भौगोलिक स्थिति का पूर्ण ज्ञान था। इसलिए उन्होंने दुर्गों के निर्माण और छापामार युद्ध में मुगल सेनाओं की सहायता करके उनको अपना मित्र भी बनाये रखा।

उनकी यह नीति उनके युग के लिए नयी थी। यद्यपि उनका जीवन एक तूफानी दौर के बीच से गुजर रहा था पर वे अपने राज्य की शासन व्यवस्था के लिए समय निकाल लेते थे। शिवाजी की ओर से औरंगज़ेब का मन साफ नहीं था इसलिए सन्धि के दो वर्ष बाद ही फिर संघर्ष आरम्भ हो गया। शिवाजी ने अपने वे सब किलें फिर जीत लिये जिनको जयसिंह ने उनसे छीन लिया था। उनकी सेना फिर मुगल राज्य में छापा मारने लगी। उन्होंने कोडाना के किले पर आक्रमण करके अधिकार प्राप्त कर लिया और उसका नाम सिंहगढ़ रख दिया। अनेक अन्य किलों पर अधिकार कर लेने के बाद शिवाजी ने सूरत पर छापा मारा और बहुत सी सम्पत्ति प्राप्त की। इस प्रकार प्राप्त सम्पत्ति का कुछ भाग तो वे उदारता से अपने सैनिकों में बाँट देते थे और शेष सेना के संगठन तथा प्रजा के हित के कार्यों में खर्च करते थे। शिवाजी परिस्थिति को देखकर अपनी रणनीति बनाते थे, इसीलिए उनकी विजय होती थी।

अब शिवाजी महाराष्ट्र के विस्तृत क्षेत्र के स्वतन्त्र शासक बन गए और सन् 1674 ई. में बड़ी धूमधाम से उनका राज्याभिषेक हुआ। उसी समय उन्होंने छतरपति की पदवी धारण की। इस अवसर पर उन्होंने बड़ी उदारता से दीन दुःखियों को दान दिया।

राज्याभिषेक के बाद भी शिवाजी ने अपना विजय अभियान जारी रखा। बीजापुर और कर्नाटक पर आक्रमण करके समुद्रतट के सारे प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया। शिवाजी ने ही सबसे सुव्यवस्थित ढंग से पहले नौसेना का संगठन किया। शिवाजी महान दूरदर्शी थे और वे यह जानते थे कि भविष्य में देश को नौसेना की भी आवश्यकता होगी। शिवाजी सभी धर्मों का समान आदर करते थे। राज्य के पदों के वितरण में भी कोई भेद भाव नहीं रखते थे। उनके राज्य में स्तियों का बड़ा सम्मान किया जाता था। युद्ध में यदि शतरू पक्ष की कोई महिला उनके अधिकार में आ जाती तो वे उसका सम्मान करते थे और उसे उसके पति अथवा माता-पिता के पास पहुंचा देते थे। उनका राज्य धर्मनिरपेक्ष राज्य था। उनके राज्य में हर एक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता थी। अत्याचार के दमन को वे अपना कर्त्तव्य समझते थे, इसीलिए सेना संगठन को विशेष महत्व देते थे। सैनिकों की सुख-सुविधा का वे विशेष ध्यान रखते थे। शिवाजी के राज्य में अपराधी को दण्ड अवश्य मिलता था। जब उनका पुत्र शम्भाजी अमर्यादित व्यवहार करने लगा तो उसे भी शिवाजी के आदेश से बन्दी बना लिया गया था।

शिवाजी ने एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना का महान संकल्प लिया था और इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहे। सच्चे अर्थों में शिवाजी एक महान राष्ट्रनिर्माता थे। उन्हीं के पदचिह्नों पर चलकर पेशवाओं ने भारत में मराठा शक्ति और प्रभाव का विस्तार कर शिवाजी के स्वप्न को साकार किया।

अबुल फजल | ABU'L-FAZL IBN MUBARAK | अकबर के नवरत्न | अकबरनामा | आइने अकबरी | ABUL FAZL

अबुल फजल 
ABU'L-FAZL IBN MUBARAK 

अबुल फजल के पूर्वज कई पीढ़ी पहले भारत में आकर बस गये । इनके पिता मुबारक आगरा के पास रहते थे। उनके दो पुत्र थे फैजी और अबुल फजल मुबारक बड़े स्वतंत्र विचार के थे। जो बातें उन्हें ठीक नहीं जँचती थी उन्हें वे नहीं मानते थे। मुबारक का प्रभाव दोनों भाइयों पर पड़ा। दोनों भाई धार्मिक बातों में अति उदार और विवेकशील थे। दोनों बहुत विद्वान और अनेक विषयों के कुशल ज्ञाता थे।

अबुल फजल का जन्म 14 जनवरी सन् 1551 ई. को आगरा के पास ही हुआ था। फैजी इनसे चार साल बड़े थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा इनके पिता द्वारा ही हुई। जब अबुल फजल छोटे थे तभी राजधानी के निकट उपद्रव हो गया था। मुबारक उपद्रवियों के साथ रहे, इसलिए अकबर के कोप के भाजन हो गये। किन्तु कुछ ही दिनों में कुछ लोगां के प्रयत्न से अंकबर ने उन्हें क्षमा कर दिया। फैजी अकबर के दरबार में गये। उन्होंने कविता पढ़ी। उनकी मधुर कविता पर अकबर मुग्ध हो गये और वे उसी दिन से दरबार में आने जाने लगे।

अबुल फजल उस समय पन्द्रह वर्ष के थे। दिन-रात अध्ययन में लगे रहते थे। इनके ज्ञान को देखकर लोगों को आश्चर्य होता था। उसी समय की एक घटना कही जाती है। अबुल फजल को एक फारसी पुस्तक मिली। पुस्तक अच्छी थी, किन्तु आधी जल गयी थी। अबुल फजल ने जला अंश कैंची से काट डाला, वहाँ सादा कागज जोड़ा और ऊपर से पढ़कर अपने मन से सब पृष्ठों में शेष अंश लिख डाला। कुछ दिनों के बाद कहीं से उस पुस्तक की दूसरी प्रतिलिपि कोई लाया। अबुल फजल ने अपनी प्रति उससे मिलायी। उन्होंने जो लिखा था उसमें कहीं नये शब्द तथा नये ढंग के वाक्य आ गये थे, किन्तु बात जो अबुल फजल ने लिखी थी वह पूरी पुस्तक में थी।

ये चौबीस वर्ष के थे जब अकबर से इनकी भेंट हुई। फैजी ने अपने छोटे भाई का परिचय सम्राट से कराया। पहले ही दिन अकबर पर इनकी विद्वता का प्रभाव पड़ा। अकबर बंगाल पर आक्रमण करने जा रहे थे। सब लोग साथ गये। अबुल फजल नहीं गये। अकबर ने अनेक बार इन्हें स्मरण किया। जब बंगाल पर विजय प्राप्त कर अकबर फतेहपुर सीकरी लौटे तब अबुल फजल ने उन्हें कुरान की एक टीका भेंट की जो उन्होंने स्वयं अपने ढंग से तैयार की थी।

अबुल फजल ने राजकुमारों को कुछ दिन पढ़ाया भी था। दरबार में उनका मान प्रतिदिन बढ़ता गया। अनेक राजकीय पदों पर उन्होंने काम किया। अबुल फजल विद्वान तो थे ही, सैनिक भी थे और कई युद्धों में सम्राट की ओर से गये थे। युद्धों का संचालन भी किया था।

एक बार अकबर के पुत्र जहाँगीर अकबर से विद्रोह कर बैठे। उस समय बहुत से सैन्य अधिकारी गुप्त रूप से जहाँगीर का साथ दे रहे थे। अबुल फजल ने सब प्रकार से सम्राट की सहायता की और उसके परिणामस्वरूप जहाँगीर अपने कार्य में सफल न हो सका। जहाँगीर ने समझा अबुल फजल ही राह का काँटा है, उसे ही हटाना चाहिए। अबुल फजल उन दिनों दक्षिण में थे। उन्हें अकबर ने बुलाने के लिए आदमी भेजे। जहाँगीर को इसका पता लग गया। उसने उनकी हत्या की गुप्त योजना की। अबुल फजल जब दक्षिण से लौट रहे थे, राह में लड़ाई में वे मारे गये। अकबर उनकी बाट देख रहे थे। दिन पर दिन गिने जाने लगे। किसी का साहस नहीं होता था कि यह समाचार अकबर के सम्मुख ले जाये। अन्त में यह समाचार अकबर के सम्मुख लोग ले गये। जब उन्हें पता लगा कि जहाँगीर ही अबुल फजल के वध के कारण थे, उनके शोक की सीमा न रही। कई दिन तक उन्होंने भोजन नहीं किया। उन्होंने कहा- “यदि सलीम (जहाँगीर का असली नाम) राज्य ही चाहता था तो मुझे क्यों नहीं मार डाला? अबुल फजल के जीते रहने से मैं कितना सुखी होता।"

अबुल फजल शत्रु से भी कठोर वचन नहीं बोलते थे। सत्य को ही वे सबसे बड़ा धर्म मानते थे। इसी से इनका किसी धर्म से विरोध नहीं रहा। घर के नौकर-चाकर भी इन्हें अपने घर का ही समझते थे। यदि किसी कर्मचारी में त्रुटि पाते थे तो समझा-बुझाकर उसे ठीक राह पर लाते थे।

अकबर ने अबुल फजल की अनेक संस्कृत पुस्तकों का फारसी में अनुवाद करने के लिए कहा था। महाभारत, भागवत आदि कुछ संस्कृत गुरन्थों का उन्हां ने फारसी में अनुवाद किया था जो अब तक मिलते हैं। फारसी में उन्होंने 'अकबरनामा' नामक विशाल ग्रन्थ लिखा जिसमें अकबर के राज्य का वर्णन है। ‘आइने अकबरी' भी इन्हीं का लिखा ग्रन्थ है। उसमे भी अकबर के शासन की बहुत-सी महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं। दोनों ग्रन्थ इतिहास की दृष्टि से श्रेष्ठ माने जाते हैं।

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

मधुर मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा | MADUR MADUR MERE DEPAK JAL - MAHADEVI VARMA | CBSE | CLASS X | HINDI

मधुर मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा


मधुर मधुर मेरे दीपक जल!

युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,

प्रियतम का पथ आलोकित कर।



सौरभ फैला विपुल धूप बन,

मृदुल मोम सा घुल रे मृदु तन;

दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,

तेरे जीवन का अणु गल गल!

पुलक पुलक मेरे दीपक जल!



सारे शीतल कोमल नूतन,

माँग रहे तुझसे ज्वाला-कण

विश्व-शलभ सिर धुन कहता 'मैं

हाय न जल पाया तुझ में मिल'!

सिहर सिहर मेरे दीपक जल!



जलते नभ में देख असंख्यक,

स्नेहहीन नित कितने दीपक;

जलमय सागर का उर जलता,

विद्युत ले घिरता है बादल! 

विहँस विहँस मेरे दीपक जल!

आदिगुरु शंकराचार्य | ADI SHANKARA CHARYA

आदिगुरु शंकराचार्य 

नदी की वेगवती धारा में माँ-बेटे घिर गए थे। बेटे ने माँ से कहा - "यदि आप मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दें तो मैं बचने की चेष्टा करूँ, अन्यथा यहीं डूब जाऊँगा। उसने अपने हाथ-पैर ढीले छोड़ दिए। पुत्र को डूबता देखकर उसकी माँ ने स्वीकृति दे दी। पुत्र ने स्वयं तथा माँ दोनों को बचा लिया।' 
- यह बालक शंकराचार्य थे।

शंकराचार्य के मन में बचपन से ही संन्यासी बनने की प्रबल इच्छा जाग उठी थी। माँ की अनुमति मिलने पर वे संन्यासी बन गए।

शंकराचार्य के बचपन का नाम शंकर था। इनका जन्म दक्षिण भारत के केरल प्रदेश में पूर्णा नदी के तट पर स्थित कालडी ग्राम में आज से लगभग बारह सौ वर्ष पहले हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम आर्यम्बा था। इनके पिता बड़े विद्वान थे तथा इनके पितामह भी वेद-शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनका परिवार अपने पांडित्य के लिये विख्यात था।

इनके बारे में ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी - 'आपका पुत्र महान विद्वान, यशस्वी तथा भाग्यशाली होगा' इसका यश पूरे विश्व में फैलेगा और इसका नाम अनन्त काल तक अमर रहेगा'। पिता शिवगुरु यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने पुत्र का नाम शंकर रखा। ये अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान थे। शंकर तीन ही वर्ष के थे कि इनके पिता का देहान्त हो गया। पिता की मृत्यु के बाद माँ आर्यम्बा शंकर को घर पर ही पढ़ाती रही। पाँचवे वर्ष उपनयन संस्कार हो जाने पर माँ ने इन्हें आगे अध्ययन के लिए गुरु के पास भेज दिया। शंकर कुशाग्र एवं अलौकिक बुद्धि के बालक थे। इनकी स्मरण शक्ति अद्भत थी। जो बात एक बार पढ़ लेते या सुन लेते उन्हें याद हो जाती थी। इनके गुरु भी इनकी प्रखर मेधा को देखकर आश्चर्यचकित थे। शंकर कुछ ही दिनों में वेदशास्त्रों एवं अन्य धर्मग्रन्थों में पारंगत हो गये। शीघ्र ही इनकी गणना प्रथम कोटि के विद्वानों में होने लगी।

शंकर गुरुकुल में सहपाठियों के साथ भिक्षा माँगने जाते थे। वे एक बार कहीं भिक्षा माँगने गये। अत्यन्त विपन्नता के कारण गृहस्वामिनी भिक्षा न दे सकी अतः रोने लगी।

शंकर के हृदय पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा।

विद्या अध्ययन समाप्त कर शंकर घर वापस लौटे। घर पर वे विद्यार्थियों को पढ़ाते तथा माँ की सेवा करते थे। इनका ज्ञान और यश चारों तरफ फैलने लगा। केरल के राजा ने इन्हें अपने दरबार का राजपुरोहित बनाना चाहा किन्तु इन्होंने बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। राजा स्वयं शंकर से मिलने आये। उन्होंने एक हजार अशर्फियाँ इन्हें भेंट की और इन्हें तीन स्वरचित नाटक दिखाये। शंकर ने नाटकों की प्रशंसा की किन्तु अशर्फियाँ लेना अस्वीकार कर दिया। शंकर के त्याग एवं गुणग्राहिता के कारण राजा इनके भक्त बन गए।

अपनी माँ से अनुमति लेकर शंकर ने संन्यास ग्रहण कर लिया। माँ ने अनुमति देते समय शंकर से वचन लिया कि वे उनका अन्तिम संस्कार अपने हाथों से ही करेंगे। यह जानते हुए भी कि संन्यासी यह कार्य नहीं कर सकता उन्होंने माँ को वचन दे दिया। माँ से आज्ञा लेकर शंकर नर्मदा तट पर तप में लीन संन्यासी गोविन्दनाथ के पास पहुँचे। शंकर जिस समय वहाँ पहुँचे गोविन्दनाथ एक गुफा में समाधि लगाये बैठे थे। समाधि टूटने पर शंकर ने उन्हें प्रणाम किया और बोले - 'मुझे संन्यास की दीक्षा तथा आत्मविद्या का उपदेश दीजिए।'

गोविन्दनाथ ने इनका परिचय पूछा तथा इनकी बातचीत से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने संन्यास की दीक्षा दी और इनका नाम शंकराचार्य रखा। वहाँ कुछ दिन अध्ययन करने के बाद वे गुरु की अनुमति लेकर सत्य की खोज के लिए निकल पड़े। गुरु ने उन्हें पहले काशी जाने का सुझाव दिया।

शंकराचार्य काशी में एक दिन गंगा स्नान के लिए जा रहे थे। मार्ग में एक चांडाल मिला। शंकराचार्य ने उसे मार्ग से हट जाने के लिए कहा। उस चांडाल ने विनम्र भाव से पूछा 'महाराज! आप चांडाल किसे कहते हैं? इस शरीर को या आत्मा को? यदि शरीर को तो वह नश्वर है और जैसा अन्न-जल का आपका शरीर वैसा ही मेरा भी। यदि शरीर के भीतर की आत्मा को, तो वह सबकी एक है, क्योंकि ब्रह्म एक है। शंकराचार्य को उसकी बातों से सत्य का ज्ञान हुआ और उन्होंने उसे धन्यवाद दिया।

काशी में शंकराचार्य का वहाँ के प्रकाण्ड विद्वान मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ हुआ। यह शास्त्रार्थ कई दिन तक चला। मंडन मिशर तथा उनकी पत्नी भारती को बारी-बारी से इनसे शास्त्रार्थ हुआ। पहले शंकराचार्य भारती से हार गए किन्तु पुनः शास्त्रार्थ होने पर वे जीते। मंडन मिश्र तथा उनकी पत्नी शंकराचार्य के शिष्य बन गये।

महान कर्मकाण्डी कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करने के लिए वे प्रयागधाम गए। भट्ट बड़े-बड़े विद्वानों को परास्त करने वाले दिग्विजयी विद्वान थे।

संन्यासी शंकराचार्य विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते रहे। वे श्रुंगेरी में थे तभी माता की बीमारी का समाचार मिला। वहु तुरन्त माँ के पास पहुँचे। वह इन्हें देखकर बड़ी प्रसन्न हुईं। कहते हैं कि इन्होंने माँ को भगवान विष्णु का दर्शन कराया और लोगों के विरोध करने पर भी माँ का दाह संस्कार किया।

शंकराचार्य ने धर्म की स्थापना के लिए सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। उन्होंने भग्न मंदिरों का जीणों द्धार कराया तथा नये मन्दिरों की स्थापना की। लोगों को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में पिरोने के लिए उन्होंने भारत के चारों कोनों पर चार धामों (मठों) की स्थापना की। इनके नाम हैं - श्री बदरीनाथ, द्वारिकापुरी, जगन्नाथपुरी तथा श्री रामेश्वरम्। ये चारों धाम आज भी विद्यमान हैं। इनकी शिक्षा का सार है –

“ब्रह्म सत्य है तथा जगत मिथ्या है” इसी मत का इन्होंने प्रचार किया।

शंकराचार्य बड़े ही उज्जवल चरित्र के व्यक्ति थे। वे सच्चे संन्यासी थे तथा उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन्होंने भाष्य, स्तोत्र तथा प्रकरण ग्रन्थ भी लिखे। इनका देहावसान मात्र 32 वर्ष की अवस्था में हो गया। उनका अन्तिम उपदेश था -

“हे मानव! तू स्वयं को पहचान, स्वयं को पहचानने के बाद, तू ईश्वर को पहचान जायेगा।“