शनिवार, 20 नवंबर 2021

टीपू सुल्तान TIPU SULTAN | MYSORE

टीपू सुल्तान 

TIPU SULTAN


टीपू सुल्तान हैदरअली का पुत्र था और इसका जन्म सन् 1753 ई. में हुआ था। इसके पिता मैसूर के शासक थे। कुछ लोग समझते हैं कि हैदरअली मैसूर का राजा था। यह बात नहीं है। हैदरअली ने अपने को कभी राजा नहीं बनाया। मैसूर के राजा की मृत्यु के बाद उसने उनके छोटे पुत्र को जिसकी अवस्था तीन-चार वर्ष की थी, राजा घोषित कर दिया और उन्हीं के नाम पर सब काम-काज करता रहा। उसने धीरे-धीरे मैसूर राज्य की सीमा बढ़ा ली थी। कुछ पढ़ा-लिखा न होने पर भी उसको सेना सम्बन्धी अच्छा ज्ञान था। उसका सहायक खांडेराव एक महाराष्ट्री था।

टीपू जब तीस साल का हुआ, हैदरअली की मृत्यु हुई। युद्ध तथा शासन का तब तक उसे बहुत अच्छा ज्ञान हो गया था। उस समय भारत में इंग्लैण्ड की ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपना राज्य फैला रही थी। हैदर अली कई बार कम्पनी से लड़ा था जिसके कारण टीपू को अंग्रेजों से लड़ने के रंग-ढंग की जानकारी हो गयी थी। इस युद्ध में टीपू ने नये ढंग के आक्रमण का तरीका निकाला था। वह एकाएक बहुत जोरों से बिजली की भाँति आक्रमण करता था और शत्रु के पैर उखड़ जाते थे। हैदरअली स्वयं पढ़ा-लिखा नहीं था परन्तु टीपू की शिक्षा की उसने अच्छी व्यवस्था कर दी थी। अत: टीपू शिक्षित भी था और घुड़सवारी में भी निपुण था।

जिस समय टीपू को पिता की मृत्यु का समाचार मिला वह भारत के पश्चिम मालाबार में अंग्रेजों से लड़ रहा था। उसने लड़ाई छोड़ना ही उचित समझा। वहाँ सभी दरबारियों तथा मन्त्रियों ने इनको ही सहायता दी और टीपू मैसूर की बड़ी सेना का सेनापति बनाया गया।

इसके बाद उसे अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने का प्रबन्ध करना था। अंग्रेजों ने मराठों से सन्धि कर ली और टीपू पर आक्रमण किया। इस लड़ाई में टीप और अंग्रेजों को पराजित किया। टीप ने अपनी सहायता के लिए कुछ फ्रेंच सिपाही भी रखे थे जो उन दिनों भारत में थे। अंग्रेजों ने टीप से सन्धि की प्रार्थना की। इस सन्धि की बातें करने के लिए अंग्रेजों की ओर से एक दल आया और टीप से अंग्रेजों की सन्धि हो गयी किन्तु अंग्रेजों ने ये सन्धि इसलिए की थी कि हमें समय मिल जाय जिसमें हम और तैयारी को चूर कर ले और टीपू की सारी शक्ति को चूर कर डाले। टीपू को इसका ध्यान न रहा। वह समझता था कि मैंने अंग्रेजों को हरा दिया है, मेरी शक्ति उनके बराबर तो है ही। यहीं उसने धोखा खाया। उसने शत्रु की शक्ति का अनुमान ठीक नहीं लगाया। फ्रेंच सैनिकों ने भी टीप के इस विचार का समर्थन किया। इतना ही नहीं, उन लोगां ने उसे भड़काया भी था।

उन लोगों का विचार था कि यदि अवसर मिले तो टीपू की सहायता से अंग्रेजों को भारत के दक्षिण से निकालकर स्वयं वहाँ राज्य करें। इन बातों से टीपू का उत्साह बढ़ गया। टीपू ने फ्रांस से कुछ सहायता पाने की आशा की, कुछ जगह पत्र भी लिखा। उसका यही अभिप्राय था कि अंग्रेजों को भारतवर्ष से निकाल दिया जाये। अंग्रेजों को इस बात का पता लग गया और उन्होंने टीपू को समय देना उचित न समझा। उन्होंने टीपू के विरुद्ध सेना भेज दी। इस बार अंग्रेजों और टीपू के बीच कई बार घमासान लड़ाइयाँ हुईं और अन्त में टीपू घिर गया। कुछ दिनों के बाद टीपू लड़ते हुए मारा गया।

टीपू को विजय प्राप्त नहीं हुई, यह उसका दुर्भाग्य था। किन्तु यदि उसे सचमुच सहायता मिली होती तो अंग्रेजों का राज्य भारतवर्ष में शायद दृढ़ न हो पाता और हमारे देश का इतिहास बदल गया होता। यदि वह अंग्रेजों से ले देकर सन्धि कर लेता तो उसे कोई कठिनाई न होती किन्तु उसने ऐसा नहीं किया और इसी कारण अंग्रेज भी उसका नाश करने पर तुले हुए थे।

टीपू ने अपने राज्य में अनेक सुधार किये थे। उस समय वहाँ ऐसी प्रथा थी कि एक स्त्री कई पुरुषों से विवाह कर सकती थी। यह प्रथा उसने बन्द कर दी और नियम बनाया कि जो ऐसा करेगा उसे कठोर दण्ड दिया जायेगा। वह स्वयं शराब नहीं पीता था और उसके राज्य में शराब पीना अपराध था। उसकी पढ़ने-लिखने में रुचि थी और उसका निजी पुस्तकालय था। उन दिनों पुस्तकालय बनाना कठिन था क्योंकि छापाखाना नहीं था और हाथ से लिखी पुस्तकें ही मिलती थीं। उन पुस्तकों से पता चलता है कि साहित्य के साथ साथ टीपू की कविता, गणित, ज्योतिष, विज्ञान तथा कला में भी रुचि थी। टीपू का जीवन आमोद-प्रमोद में नहीं बीतता था। सबेरे से सन्ध्या तक वह परिश्रम करता था और चाहता था कि दूसरे भी इसी प्रकार राज्य का काम-काज करें। उसने तिथियाँ सूर्य-वर्षों के अनुसार चलायी थीं। युद्ध-कला पर उसने एक पुस्तक भी लिखी। उसकी स्पष्ट आज्ञा थी युद्ध के पश्चात् लूटपाट में स्त्रियों को कोई न छुए। अपनी माता का वह बहुत सम्मान करता था और सदा उनकी आज्ञा का पालन करता था।

टीपू ने अपने पिता के सम्मुख युवावस्था में लिख कर प्रतिज्ञा की थी कि मैं झूठ कभी नहीं बोलूँगा, धोखा किसी को नहीं दूँगा, चोरी नहीं करूँगा और जीवन के अन्त तक उसने इस परतिज्ञा का पालन किया।

टीपू हिन्दू-मुस्लिम मेल-जोल का पक्षपाती था। उसकी सेना में तथा मन्त्रि मण्डल में सभी धर्मों के अनुयायी थे। हाँ, धोखा देने वालों के साथ उसका व्यवहार कठोर होता था और उन्हें वह दण्ड देता था।

टीप, वह वीर था जिसने अपने देश को विदेशियों के चंगुल से छुड़ाने का कठिन प्रयत्न किया। उसे सफलता नहीं मिली, किन्तु उसके महान होने में कोई सन्देह नहीं है।

गोस्वामी तुलसीदास | TULSIDAS | भक्तिकाल | रामभक्तिशाखा

गोस्वामी तुलसीदास 

लगभग चार सौ वर्ष पहले तीर्थ शूकरखेत (आज सोरां, जिला-एटा, उ0प्र0) में संत नरहरिदास का आश्रम था। वे विद्वान उदार और परम भक्त थे। वे अपने आश्रम में लोगों को बड़े भक्ति-भाव से रामकथा सुनाया करते थे। एक दिन जब नरहरिदास कथा सुना रहे थे, उन्होंने देखा भक्तों की भीड़ में एक बालक तन्मयता से कथा सुन रहा है। बालक की ध्यान मुद्रा और तेजस्विता देख उन्हें उसके महान आत्मा होने की अनुभूति हुई। उनकी यह अनुभूति बाद में सत्य सिद्ध भी हुई। यह बालक कोई और नहीं तुलसीदास थे। जिन्होंने अप्रतिम महाकाव्य 'रामचरित मानस' की रचना की।

तुलसीदास का जन्म यमुना तट पर स्थित राजापुर (चित्रकूट) में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्मा राम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद है। जन्म के कुछ ही समय बाद इनके सिर से माँ बाप का साया उठ गया। सन्त नरहरिदास ने अपने आश्रम में इन्हें आश्रय दिया। वहीं इन्होंने रामकथा सुनी। पन्द्रह वर्षों तक अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने के पश्चात् तुलसीदास अपने जन्म स्थान राजापुर चले आए। यहीं पर उनका विवाह रत्नावली के साथ हुआ। एक दिन जब तुलसी कहीं बाहर गये हुए थे, रत्नावली अपने भाई के साथ मायके (पिता के घर) चली गयीं। घर लौटने पर तुलसी को जब पता चला, वे उल्टे पाँव ससुराल पहुँच गए। तुलसी को देखकर उनके ससुराली जन स्तब्ध रह गए। रत्नावली भी लज्जा और आवेश से भर उठी। उसने धिक्कारते हुए कहा 'तुम्हें लाज नहीं आती, हाड़- माँस के शरीर से इतना लगाव रखते हो। इतना प्रेम ईश्वर से करते तो अब तक न जाने क्या हो जाते।' पत्नी की तीखी बातें तुलसी को चुभ गयीं। वे तुरन्त वहाँ से लौट पड़े। घर-द्वार छोड़कर अनेक जगहों में घूमते रहे फिर साधु वेश धारण कर स्वयं को श्रीराम की भक्ति में समर्पित कर दिया।

काशी में श्री राम की भक्ति में लीन तुलसी को हनुमान के दर्शन हुए। कहा जाता है कि उन्होंने हनुमान से श्रीराम के दर्शन कराने को कहा। हनुमान ने कहा राम के दर्शन चित्रकूट में होंगे। तुलसी ने चित्रकूट में राम के दर्शन किए। चित्रकूट से तुलसी अयोध्या आये। यहीं सम्वत् 1631 में उन्होंने 'रामचरित मानस की रचना प्रारम्भ की। उनकी यह रचना काशी के अस्सी घाट में दो वर्ष सात माह छब्बीस दिनों में सम्वत् 1633 में पूरी हुई। जनभाषा में लिखा यह ग्रन्थ रामचरित मानस, न केवल भारतीय साहित्य का बल्कि विश्व साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है। इसका अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं के साथ विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है। रामचरित मानस में श्रीराम के चरित्र को वर्णित किया गया है। इसमें जीवन के लगभग सभी पहलुओं का नीतिगत वर्णन है। भाई का भाई से, पत्नी का पति से, पति का पत्नी से, गुरु का शिष्य से, शिष्य का गुरु से, राजा का प्रजा से कैसा व्यवहार होना चाहिए, इसका अति सजीव चित्रण है। राम की रावण पर विजय इस बात का प्रतीक है कि सदैव बुराई पर अच्छाई, असत्य पर सत्य की विजय होती है।

तुलसी ने जीवन में सुख और शान्ति का विस्तार करने के लिए जहाँ न्याय, सत्य और प्राणिमात्र से प्रेम को अनिवार्य माना है वहीं दूसरों की भलाई की प्रवृत्ति को मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म कहा है। उनकी दृष्टि में दूसरों को पीड़ा पहँचाने से बड़ा कोई पाप नहीं है। उन्होंने लिखा है कि

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।“

रामचरित मानस के माध्यम से तुलसीदास ने जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। इसी कारण रामचरित मानस केवल धार्मिक ग्रन्थ न होकर पारिवारिक, सामाजिक एवं नीतिसम्बन्धी व्यवस्थाओं का पोषक ग्रन्थ भी है। तुलसी ने रामचरित मानस के अलावा और भी ग्रन्थों की रचना की है जिनमें विनय पतिका, कवितावली, दोहावली, गीतावली आदि प्रमुख हैं।

तुलसीदास समन्वयवादी थे। उन्हें अन्य धर्मा मत-मतान्तरों में कोई विरोध नहीं दिखायी पड़ता था। तुलसीदास जिस समय हुए उस समय मुगल सम्राट अकबर का शासन काल था। अकबर के अनेक दरबारियों से उनका परिचय था। अब्दुर्रहीम खानखाना से जो स्वयं बहुत बड़े विद्वान तथा कवि थे, तुलसीदास की मित्रता थी। उन्होंने तुलसीदास की प्रशंसा में यह दोहा कहा -

सुरतिय, नरतिय, नागतिय, यह चाहत सब कोय।

गोद लिए हलसी फिरे, तुलसी सो सुत होय।।

तुलसीदास अपने अंतिम समय में काशी में गंगा किनारे अस्सीघाट में रहते थे। वहीं इनका देहावसान सम्वत् 1680 में हुआ। इनकी मृत्यु को लेकर एक दोहा प्रसिद्ध है -

“संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।

श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।“

भक्त, साहित्यकार के रूप में तुलसीदास हिन्दी भाषा के अमूल्य रत्न हैं।

दानवीर राजा हर्षवर्धन | RAJA HARSHA | रत्नावली | नागानन्द | प्रियदर्शिका

दानवीर राजा हर्षवर्धन 

ईसा की सातवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध की बात है। प्रयाग में बहुत बड़े दान-समारोह का आयोजन किया गया था। सम्पूर्ण भारत से लोग दान-दक्षिणा पाने के लिए एकत्र थे। राजा दान-दक्षिणा की सभी वस्तुओं को यहाँ तक कि राजकोष की सम्पूर्ण सम्पत्ति और अपने शरीर के समस्त आभूषणों को जब दान दे चुका तो एक व्यक्ति ऐसा रह गया जिसे देने के लिए उसके पास कुछ शेष नहीं था। दानार्थी बोला- राजन्! आपके पास मुझे देने के लिए कुछ नहीं बचा है। मैं वापस जाता हूँ। राजा ने कहा- ठहरो, अभी मेरे वस्त्र शेष हैं जिन्हें मैंने दान नहीं दिया है और पास खड़ी बहन से अपना तन ढकने के लिए दूसरा वस्तर मांग कर उसने अपना उत्तरीय उतार कर उस याचक को दे दिया। गद्गद् स्वर से जनसमूह ने हर्ष ध्वनि की…. राजा चिरंजीव हों उनका यश अमर रहे आदि नारे लगाए।

जन-जन को अपनी दानशीलता से मुग्ध करने वाला यह राजा और कोई नहीं, दानवीर हर्षवर्धन था।

590 ई. के ज्येष्ठ माह में रानी यशोमती के गर्भ से हर्ष का जन्म हुआ था। उनके पिता प्रभाकर वर्धन थानेश्वर के योग्य एवं प्रतापी शासक थे, जिन्होंने भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों का बड़ी कुशलता से दमन किया था। पिता की मृत्यु के बाद हर्षवर्धन के बड़े भाई, राज्यवर्धन गद्दी पर बैठे। इसी बीच मालवा के राजा देवगुप्त ने हर्ष की छोटी बहन राज्यश्री के पति ग्रहवर्मा की हत्या कर दी। गहवर्मा कन्नौज का राजा था। राज्यश्री को कैद करके कारागार में डाल दिया गया था। इस अपमान का बदला लेने के लिए राजवर्धन ने मालवा पर चढ़ाई कर दी और युद्ध में विजयी हुआ किन्तु लौटते समय बंगाल के राजा शशांक द्वारा मार डाला गया। हर्ष अभी सोलह वर्ष का नहीं हुआ था। भाई राज्यवर्धन की मृत्यु पर अत्यधिक दुःखी हुआ और राजपाट छोड़ने को तैयार हो गया। इस पर मन्त्रियों ने उसे बहुत समझाया और राजा बनने की सविनय प्रार्थना की, तब शीलादित्य उपनाम ग्रहण करके वर्ष 606 ई. में वह कन्नौज के सिंहासन पर बैठा। अब तरुण हर्ष के सामने दो काम थे। एक तो अपनी बहन को ढूँढ़कर लाना, दूसरे अपने भाई के हत्यारों को दण्ड देना। इसके लिए उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वह इस दोहरी स्थिति से अत्यधिक उद्विग्न हो गया था। इसी बीच हर्ष के कर्मचारियों ने उसे दिग्विजय के लिए प्रेरित किया। हर्ष ने पहले शशांक को परास्त किया, उसके बाद बहन राज्यश्री का पता लगाया, जो पति की मृत्यु से दुखी होकर जंगल में चिता में जलने जा रही थी। अपनी बहन को वह ले आया और उसे जीवन पर्यन्त अपने पास रखा।

इसके बाद हर्ष ने उत्तरी भारत के विभिन्न राज्यों को जीत कर अपने अधिकार में कर लिया और अपने राज्य में पूर्ण शान्ति स्थापित की। दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त करने में वह असफल रहा। चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय नामक राजा ने उसे नर्मदा नदी से आगे नहीं बढ़ने दिया। हर्ष एक कुशल सेनापति एवं शूरवीर योद्धा था। नेतृत्व करने की उसमें अपूर्व क्षमता थी। जिसके बल पर उसने 30 वर्ष से अधिक समय तक शान्तिपूर्वक राज्य किया।

हर्ष एक प्रजावत्सल राजा था। प्रजा के हित के लिए उसने अनेक महान कार्य किये। हर्ष के कार्य-कलापों के विषय में विशेष वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग के लेखों में मिलता है जो 630 ई. में भारत में बौद्ध धर्म के पवित्र स्थानों को देखने तथा बौद्ध धर्म के पवित्र ग्रन्थों को लेने आया था।

हर्ष के समय में भारत को अपने इतिहास के एक अत्यन्त भव्य युग को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हर्ष धार्मिक विषयों में उदार और विद्या प्रेमी था। प्रयाग की सभा में वह सभी वर्णां, जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोगों को निष्पक्ष होकर दान देता था। बुद्ध की मूर्ति के साथ-साथ सूर्य और शिव की मूर्तियों का भी सम्मान करता था। वह इतना बड़ा दानी था कि युद्ध सामग्री के अतिरिक्त सब कुछ दान देता था। उसने नगरों तथा गाँवों के राजमार्गों पर धर्मशालाएं बनवायीं जिनमें भोजन और चिकित्सा का प्रबन्ध था।

हर्ष स्वयं विद्वान होने के साथ-साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था। बाणभट्ट हर्ष के दरबारी कवि थे। बाणभट्ट ने हर्ष के काव्य कौशल, ज्ञान और उनकी मौलिकता की भूरि भूरि प्रशंसा की है। हर्ष ने संस्कृत भाषा में “रत्नावली”, “नागानन्द", और “प्रियदर्शिका” नामक नाटक लिखे। साथ ही एक व्याकरण ग्रंथ की भी रचना की। प्राचीन भारत की साहित्यिक समालोचना में हर्ष को उच्च श्रेणी का कवि माना जाता।

उक्त रचनाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य निबन्ध हैं जिनकी रचना का श्रेय हर्ष को ही दिया जाता है। हर्ष सरकारी जमीन की आय का एक चतुर्थांश विद्वानों को पुरस्कृत करने में और दूसरा चतुर्थांश विभिन्न सम्प्रदायों को दान देने में खर्च करता था। विद्वान कवियों के अतिरिक्त अच्छे धर्म प्रचारक भी उसकी राजसभा की शोभा बढ़ाते थे। इनमें सागरमति, प्रज्ञारश्मि, सिंहरश्मि और ह्वेनसांग आदि प्रमुख हैं।

हर्ष की नीति अहिंसावादी थी। उसने अपने राज्य में सर्वत्र माँसाहार का निषेध कर दिया था। उसने जीव हिंसा पर रोक लगा दी थी तथा कठोर दण्ड का प्रावधान कर दिया था। हर्ष के समय में वास्तुकला, शिल्प, गृहनिर्माण के अतिरिक्त विविध कलाओं में भी भारत बहुत उन्नत था। ह्वेनसांग ने उस काल के नाना प्रकार के वस्त्रों का विशेष उल्लेख किया है। नगरों में कन्नौज, प्रयाग, मथुरा, थानेश्वर, हरिद्वार, रामपुर, पीलीभीत, अयोध्या, कौशाम्बी, वाराणसी, रंगपुर आदि विशेष रूप से समृद्ध एवं विकसित थे। ये नगर स्तूपों, विहारों, मन्दिरों, अतिथि भवनों, धर्मशालाओं एवं सब प्रकार की सुख सुविधाओं से पूर्ण थे।

हर्ष के शासनकाल में भारत का आन्तरिक शासन-सुव्यवस्थित हो गया था जिसके फलस्वरूप विद्या, व्यापार, संस्कृति, कला आदि क्षेत्रों में बहुमुखी विकास हुआ और पड़ोसी देशों में भी इसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह लोग भारत को विवेक और संस्कृति का केन्द्र मानकर अपनी ज्ञान पिपासा को तृप्त करने के लिए इस पुण्यभूमि की शरण में आए।

हर्ष बहुमुखी प्रतिभा और विलक्षण चरित्र के कारण एक साथ ही राजा, कवि, योद्धा, विद्वान राजसी और साधु स्वभाव के थे। बौद्ध धर्म का अध्ययन पूरा कर चीन लौटते समय ह्वेनसांग ने कहा था।

“मैं अनेक राजाओं के सम्पर्क में आया किन्तु हर्ष जैसा कोई नहीं। मैंने अनेक देशों में भ्रमण किया है किन्तु भारत जैसा कोई देश नहीं। भारत वास्तव में महान देश है और उसकी महत्ता का मूल है उसकी जनता तथा हर्ष जैसे उसके शासक।"

आचार्य चाणक्य | ACHARYA CHANAKYA | विष्णु गुप्त | कौटिल्य | अर्थशास्त्र'

आचार्य चाणक्य 
ACHARYA CHANAKYA 


मित्र इस कुश को खोदकर उसमें मट्ठा क्यां डाल रहे हो? 'इसका काँटा मेरे पैर में घुस गया। मैंने काँटा तो निकाल लिया, किन्तु यह फिर किसी के पैर में न चुभे इसलिए इसे जड़ से नष्ट करना चाहिए।' - यह वार्तालाप चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य के बीच का है। भारतीय इतिहास और राजनीति में चाणक्य का विशिष्ट स्थान है। शासन के विविध पहलुओं का जैसा सारगर्भित विवेचन उनके ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र' में है वैसा सम्भवतः विश्व के पराचीन और आधुनिक किसी भी राजनीतिशास्त्र के विचारक ने नहीं किया है। अतः चाणक्य की गिनती विश्व के राजनीतिशास्त्र के महानतम चिन्तकों में की जाती है

चन्द्रगुप्त के मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ चाणक्य का नाम जुड़ा है। चाणक्य की सहायता, परामर्श एवं राजनीतिक कूटनीति से चन्द्रगुप्त अपने साम्राज्य का विस्तार करने में सफल हुआ। चाणक्य का पूरा नाम 'विष्णु गुप्त चाणक्य’ था। उन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है। चाणक्य तक्षशिला के एक ब्राह्मण के पुत्र थे। बाल्यकाल में ही पिता की मृत्यु हो जाने पर चाणक्य का पालन-पोषण उनकी माता ने किया। तक्षशिला में रहकर उन्हों ने ज्ञानार्जन के साथ-साथ दर्शन का भी अध्ययन किया। चाणक्य परम विद्वान थे परन्तु बहुत क्रोधी एवं उग्र स्वभाव के थे।

युवा होने पर चाणक्य जीविकोपार्जन के लिये मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र पहुँचे। वहाँ मगध के नन्दवंशीय शासक घनानन्द से उनकी भेंट हुई। सम्राट ने चाणक्य को पाटलिपुत्र की दानशाला का प्रबन्धक नियुक्त किया। कटु और उग्र स्वभाव होने के कारण चाणक्य को वहाँ से पदच्युत कर दिया गया। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और सम्राट घनानन्द तथा नन्द वंश के विनाश करने की प्रतिज्ञा ली। वह सदैव इस खोज में रहते कि प्रतिज्ञा कैसे पूरी करें। उसी समय उनकी भेंट चन्द्रगुप्त से हुई। चन्द्रगुप्त मगध राज्य में राज्याधिकारी और सेनानायक था। वह बहुत महत्वाकांक्षी था। वह मगद्द साम्राज्य पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। चन्द्रगुप्त और चाणक्य की भेंट रास्ते में हुई। कुश में मट्ठा डाल रहे चाणक्य को देखकर चन्द्रगुप्त उनके निश्चय से प्रभावित हुए और उन्होंने चाणक्य को अपना सहयोगी बना लिया। इस मित्रता ने भारतीय इतिहास को एक नवीन दिशा की ओर मोड़ दिया। चन्द्रगुप्त में बल था और चाणक्य में वृद्धि बल और बुद्धि का यह संयोग भारतीय इतिहास में युग परिवर्तन की घटना सिद्ध हुआ।

चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने मिलकर पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया। घनानन्द की प्रबल सैन्य शक्ति के कारण वे पराजित हुए। साम्राज्य की शक्ति सदैव केन्द्र में स्थित रहती है और सीमान्त क्षेत्र में क्षीण। चन्द्ररगुप्त और चाणक्य ने अपनी रणनीति में परिवर्तन करके यह निर्णय लिया कि पहले मगध राज्य के सीमान्त क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की जाय तत्पश्चात मगध राज्य पर आक्रमण करना उचित होगा।

इस नवीन योजना के अनुसार चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने पंजाब पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की। इसके पश्चात चन्द्रगुप्त एक विशाल सेना लेकर पाटलिपुत्र पहुँचा। इस युद्ध में घनानन्द मारा गया। चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से मगध पर अधिकार प्राप्त कर लिया। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का विधिवत राज्याभिषेक कर 321 ई.पू. में उसे मगध का सम्राट घोषित कर दिया। चाणक्य की बुद्धिमत्ता और कूटनीति के कारण चन्द्रगुप्त ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री और प्रमुख परामर्शदाता नियुक्त कर लिया। चाणक्य ने जीवन के अन्तिम समय तक मौर्य सामराज्य की सेवा की।

चाणक्य ने राजतंत्र को एक सर्वाधिक उपयोगी संस्था माना है। उनके अनुसार राजा को धर्मनिष्ठ, सत्यवादी, कृतंज्ञ, बलशाली, वृद्धों का सम्मान करने वाला, उत्साही, विनयशील, विवेकी, निर्भीक, न्यायप्रिय, मृदुभाषी तथा कार्य निपुण होना चाहिए। उसे काम-क्रोध, मद-मोह, अहंकार ईर्ष्या-द्वेष आदि दुर्गुणों से दूर रहना चाहिए। इस प्रकार राजा में न केवल राजा के ही गुण वरन् श्रेष्ठ व्यक्तियों के सभी गुण होने चाहिए।

चाणक्य के अनुसार राज्य का यह कर्तव्य है कि आकस्मिक और प्राकृतिक आपदाओं से नागरिक की रक्षा करे। राज्य को अपंग, शक्तिहीन, वृद्ध, रोगी और दीन-दुखियों का पालन-पोषण करना चाहिए। राज्य को शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। राज्य का यह कार्य है कि साहूकार, व्यापारी, जादूगर, शिल्पी, नट, शासकीय अधिकारी और कर्मचारी आदि के शोषण-उत्पीड़न से प्रजा की भली-भाँति रक्षा करे। व्यापारी अनुपयुक्त दर से क्रय-विक्रय न कर सकें, इसके लिये राज्य को चाहिये कि वे नियम निर्धारित करे।

राज्य के इन कार्यों से विदित होता है, कि चाणक्य ने आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना कर ली थी। उन्होंने प्रजाहित को राज्य का लक्ष्य मान लिया था। वे स्वयं वर्षा न होने के कारण अकाल के समय सैकड़ों साधुओं को नित्य भोजन कराते थे। चाणक्य एक व्यवहार कुशल राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने नीति पर भी एक पुस्तक लिखी है। उसमें उनकें ऐसे विचार हैं, जिनसे पता चलता है कि मौर्य साम्राज्य के निर्माता के रूप में वे सफल रहे। उन्होंने राजतंत्र के समर्थक होते हुए भी, निरंकुश स्वेच्छाचारी शासन का विरोध किया।

चाणक्य आज भी आधुनिक राजनीतिज्ञ, विचारकों, चिन्तकों में अग्रणी माने जाते हैं।

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

महर्षि अरविन्द | SRI AUROBINDO | दिव्य जीवन | THE LIFE DIVINE

महर्षि अरविन्द (SRI AUROBINDO) 

बहुत समय पहले एक अहंकारी और आडम्बरी राजा ने एक सभा बुलवाई। सभा में उस राजा ने प्रश्न किया“ कौन महान है, ईश्वर या मैं?”

प्रश्न अद्भुत था, लम्बे और उलझन भरे मौन के बाद विद्वानों में एक वृद्ध ने सिर झुकाकर आदर सहित कहा, “महाराज आप सबसे महान हैं।" इस बात पर सभा में असहमति के हल्के स्वर उठने लगे। इस पर विद्वान ने स्पष्ट किया, “आप हमें अपने राज्य से निकाल सकते हैं, पर ईश्वर नहीं क्योंकि उसका तो सम्पूर्ण पृथ्वी पर राज्य है। उससे अलग कोई कहाँ जा सकता है। सब कुछ वही है।"

श्री अरविन्द द्वारा कहे गए 'ईश्वर ही सब कुछ है' इस ज्ञान ने राजा के जीवन की दिशा बदल दी। वे अरविन्द के अनुयायी हो गए।

अरविन्द का जन्म 15 अगस्त सन् 1872 ई. में कोलकाता में हुआ। इनके पिता डॉक्टर कृष्णधन घोष और माता स्वर्णलता देवी थीं। पिता कृष्णधन घोष पूरी तरह पाश्चात्य विचारधारा में रंगे हुए थे जिसके कारण उन्होंने निश्चय किया कि वे अरविन्द को भी अंग्रेजी शिक्षा दिलाएंगे और किसी भी प्रकार के भारतीय प्रभाव से मुक्त रखेंगे।

पिता ने ‘अंग्रेज बनों' की विचारधारा के साथ पाँच वर्ष की उम्र में ही अरविन्द को पढ़ाई के लिए दार्जिलिंग भेज दिया। दो वर्ष बाद उन्हें शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया। अरविन्द के माता-पिता अध्यापकों को यह निर्देश देते हुए भारत लौट आए कि किसी भी दशा में अरविन्द को भारतीयों से न मिलने दिया जाय। इतने प्रतिबन्धों के बावजूद यह व्यक्ति आगे चलकर एक क्रांतिकारी, एक स्वतंत्रता सेनानी, एक महान भारतीय राजनैतिक, दार्शनिक तथा वैदिक पुस्तकों का व्याख्याता बना।

इंग्लैण्ड में अरविन्द ने उच्च शिक्षा प्राप्त की। वहाँ रहते हुए उनके दिमाग में अपने देश की स्वतंत्रता का विचार उथल-पुथल मचाने लगा। बचपन से ही देश से बाहर रहने के कारण वे भारतीयों के बारे में जानने को उत्सुक होने लगे। उन्होंने भारत लौटने का निश्चय किया।

यह वर्ष 1893 की घटना है जब अरविन्द ने भारत लौटने का निश्चय किया। यह वर्ष भारत में नव जागरण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था।

इसी वर्ष (1893) में..........

स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन के मंच से भारतीय संस्कृति के गौरव का उद्घोष किया।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने के लिए गणपति उत्सव का शुभारम्भ किया।

एनी बेसेण्ट भारत आयीं और उन्होंने भारतवासियों में अपने प्राचीन धर्म के प्रति स्वाभिमान जगाने का प्रयास प्रारम्भ किया।

गाँधी जी रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका पहुँचे।

यह अद्भुत संयोग था कि इसी वर्ष श्री अरविन्द घोष भारत वापस लौटे। इस समय उनकी आयु इक्कीस वर्ष थी। उन्हें न तो पश्चिमी देशों की सभ्यता और न ही धन-धान्य की लालसा सम्मोहित कर पाई। उनके अन्दर एक ओर अपने देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने की आकुलता थी, दूसरी ओर भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने की तीवर लालसा।

भारत लौटने पर नवयुवक अरविन्द बड़ौदा (बड़ोदरा) महाराज के आग्रह पर वहाँ के एक कालेज में प्रधानाचार्य के पद पर कार्य करने लगे। जिस समय वे शिक्षा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त कर रहे थे उस समय तक भारतीय राजनीति में भी उनका हस्तक्षेप शुरू हो गया था। वे लेखन द्वारा अपने विचारों को प्रकट करने लगे। इसके लिए उन्होंने कई भारतीय भाषाएँ सीखीं।

सन् 1901 में उनका विवाह मृणालिनी से हुआ। मृणालिनी को लिखे पत्रों में अरविन्द के विचारों की झलक मिलती है। उन्होंने लिखा था “दूसरे लोग भारत को देश के बजाय एक जड़ पदार्थ, खेत-खलिहान, मैदान, जंगल और नदी के अतिरिक्त कुछ नहीं देखते, पर मुझे तो वे अपनी माँ के रूप में दिखाई देता है।” वास्तव में अरविन्द के लिए मातृभूमि ही सब कुछ थी। उन्हें यह बिल्कुल सहन नहीं होता था कि मातृभूमि गुलामी के बंधनों में जकड़ी यातना सह रही हो। वे जानते थे कि लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग अत्यन्त टेढ़ा-मेढ़ा, कँटीला और खतरों से भरा है? फिर भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे अपने जीवन को भी न्योछावर करने को तैयार थे।

लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अरविन्द का पहला कदम था लेखन के द्वारा जनमत तैयार करना। उन्होंने विभिन्न पत्रों के लिए लिखना प्रारम्भ कर दिया। बाद में उन्होंने 'वन्दे मातरम्' नामक पत्र का संपादन भी किया। वे चाहते थे कि भारत के युवा उस समय सिर्फ भारत माँ के बारे में ही सोचे बाकी सब कुछ भुला दें। उन्होंने लिखा, "हमारी मातृभूमि के लिए ऐसा समय आ गया है अब उसकी सेवा से अधिक प्रिय कुछ नहीं। अगर तुम अध्ययन करो तो मातृभूमि के लिए करो। अपने शरीर मन और आत्मा को उसकी सेवा के लिए प्रशिक्षित करो ताकि वे समृद्ध हो, कष्ट सहो ताकि वे प्रसन्न रह सके।"

उन्होंने युवाओं को काम करना सीखने के लिए अवसर का लाभ उठाने का आह्वान किया। उन्होंने उनसे कार्य, ईमानदारी, अनुशासन, एकता, धैर्य और सहिष्णुता द्वारा निष्ठा विकसित करने को कहा।

1903 में उन्होंने बंगाल के क्रान्तिकारियों से सम्पर्क किया और सक्रिय रूप से क्रान्तिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए। अरविन्द की क्रान्तिकारी गतिविधियों से भयभीत होकर अंग्रेजों ने 1908 में उन्हें और उनके भाई वारीन घोष को 'अलीपुर बम केस' के मामले में गिरफ्तार कर लिया। अलीपुर जेल में उन्हें 'दिव्य अनुभूति' हुई जिसे उन्होंने ‘काशकाहिनी’ नामक रचना में व्यक्त किया। जेल में रहते हुए उन्होंने अपने क्रान्तिकारी विचारों को कविताओं में स्पष्ट किया। जेल से छूटकर अरविंन्द ने अंग्रेजी भाषा में 'कर्मयोगी' तथा बंगला भाषा में 'धर्म' नामक पत्रिकाओं का संपादन किया।

1912 तक श्री अरविन्द ने देश की सक्रिय राजनीति में भाग लिया। चालीस वर्ष की आयु के बाद उनकी रुचि पूर्णतया गीता, उपनिषद तथा वेदों की ओर हो गयी। उन्होंने पूर्व तथा पश्चिम के दर्शनशास्त्रों का अध्ययन कर अनेक पुस्तकें लिखी। भारतीय संस्कृति उनका प्रिय विषय था। भारतीय संस्कृति के बारे में उन्होंने 'फाउण्डेशन आफ इण्डियन कल्चर' तथा 'एक डिफेन्स आफ इण्डियन कल्चर' नामक प्रसिद्ध रचनाएँ प्रस्तुत की। उनके द्वारा रचा गया काव्य 'सावित्री' साहित्य जगत की अनमोल धरोहर है।

1926 से लेकर अपने निर्वाण (1950) तक श्री अरविन्द साधना और तपस्या में लगे रहे। सार्वजनिक सभाओं तथा भाषणों से दूर वे पॉण्डिचेरी में अपने आश्रम में मानव कल्याण के लिए निरन्तर चिन्तन शील रहे। वर्षों की तपस्या के बाद उनकी अनूठी कृति 'लाइफ डिवाइन (दिव्य जीवन)' प्रकाशित हुई। इस पुस्तक की गणना विश्व की महान कृतियों में की जाती है।

श्री अरविन्द अपने देश और संस्कृति के उत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। पॉण्डिचेरी स्थित आश्रम उनकी तपोभूमि थी। यहीं पर उनकी समाधि बनाई गई। यह आश्रम आज भी अध्यात्मज्ञान का तीर्थस्थल माना जाता है जहाँ भारत ही नहीं वरन विश्व के अनेक देशों के लोग अपनी ज्ञान-पिपासा शान्त करने के लिए आते हैं।

सरोजिनी नायडू | SAROJINI NAIDU | द गोल्डेन थरेश होल्ड | द ब्रोकेन विंग | द सेप्टर्ड फ्लूट

सरोजिनी नायडू 

”माँ मैंने एक कविता लिखी है सुनोगी?“ माता ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा, “लेकिन तुम तो गणित का प्रश्न हल कर रही थी। हाँ कर रही थी पर वह समझ में नहीं आया। अभी तो एक कविता लिखी है।” बेटी के बार-बार कहने पर माँ उनकी कविता सुनने बैठ गयीं उसी समय सरोजिनी के पिता भी आ गए। ग्यारह वर्ष की बिटिया के मुख से इतनी सुन्दर, सुरीली कविता सुनकर माता-पिता गद्गद हो गए। बेटी को शाबाशी देते उन्होंने कहा, “अरे तू तो गाने वाली चिडिया जैसी है। माता-पिता की यह बात सच हुई। आगे चल कर सरोजिनी “भारत कोकिला” के नाम से प्रसिद्ध हुई।

सरोजिनी का जन्म 13 फरवरी 1879 ई. को हैदराबाद में हुआ था। पिता अघोर नाथ चट्टोपाध्याय तथा माता वरदासुन्दरी की कविता लेखन में विशेष रुचि थी। सरोजिनी को अपने माता-पिता से कविता सृजन की प्रेरणा मिली।

बारह साल की उम्र में सरोजिनी ने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उच्च शिक्षा के लिए उन्हें इंग्लैण्ड भेजा गया। इंग्लैण्ड में सरोजिनी का परिचय साहित्यकार एडमंड गॉस से हुआ। सरोजिनी की कविता लिखने में रुचि देखकर उन्होंने भारतीय समाज को ध्यान में रखकर लिखने का सुझाव दिया। इंग्लैण्ड में सरोजिनी के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए।

1. द गोल्डेन थरेश होल्ड

2. द ब्रोकेन विंग

3. द सेप्टर्ड फ्लूट

द गोल्डेन थ्रेश होल्ड की कुछ पंक्तियाँ “लिए बाँसुरी हाथों में हम घूमे गाते-गाते मनुष्य सब हैं बन्धु हमारे, जग सारा अपना है”

गोपाल कृष्ण गोखले तथा महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आने के बाद सरोजिनी नायडू राष्ट्रप्रेम तथा मातृभूमि को सम्बोधित कर कवितायें लिखने लगीं।

“श्रम करते हैं हम कि समृद्ध हो तुम्हारी जागृति का क्षण हो चुका जागरण अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल!"..

इंग्लैंड से वापस आने पर सरोजिनी का विवाह गोविन्दराजुल नायड़ के साथ हुआ। गोविन्दराजुल नायड़ हैदराबाद के रहने वाले थे और सेना में डॉक्टर थे।

सरोजिनी नायडू की भेंट गाँधी जी से हुई। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में स्वयं सेवक के रूप में काम किया।

गोपाल कृष्ण गोखले सरोजिनी नायडू के अच्छे मित्र थे। वे उस समय भारत को अंग्रेजी सरकार से मुक्त कराने का कार्य कर रहे थे। सरोजिनी नायडू गोपाल कृष्ण गोखले के कार्य से प्रभावित हुई। उन्हों ने कहा, “देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा देखकर कोई भी ईमानदार व्यक्ति बैठकर केवल गीत नहीं गुनगुना सकता। कवयित्री होने की सार्थकता इसी में है कि संकट की घड़ी में, निराशा और पराजय के क्षणों में आशा का सन्देश दे सकूँ।" सरोजिनी नायडू का ज्यादातर समय राजनीतिक कार्यों में व्यतीत होता था। वे कांग्रेस की प्रवक्ता बन गयीं। उन्होंने देश भर में घूम-घूम कर स्वाधीनता का सन्देश फैलाया।

सरोजिनी नायडू ने हिन्दू मुस्लिम एकता पर जोर दिया। उन्होंने अशिक्षा, अज्ञानता और अन्धविश्वास को दूर करने के लिए लोगों से निवेदन की। उनका कहना था कि “देश की उन्नति के लिए रूढ़ियों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों के बोझ को उतार फेंकना होगा।"

1925 ई. में जब वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं तो गाँधी जी ने उत्साह भरे शब्दों में उनका स्वागत किया और कहा “पहली बार एक भारतीय महिला को देश की सबसे बड़ी सौगात मिली है।"

हृदय रोग से पीड़ित होते हुए भी सरोजिनी नायड़ ने इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि देशों का दौरा किया।

“नमक कानून तोड़ो आन्दोलन" में गाँधी जी की डांडी यात्रा में उनके साथ रहीं।

सरोजिनी नायडू अद्भुत वक्ता थीं। वे बोलना शुरू करतीं तो लोग उनके धारा परवाह भाषण को मन्त्र-मुग्ध होकर सुनते थे। उनके भाषण स्वतंत्रता की चेतना जगाने में जादू का काम करते थे।

1942 में गाँधी जी के भारत छोड़ो आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया। आजादी की लड़ाई में उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। अन्ततः भारत को पूर्ण स्वतंत्रता मिली। सरोजिनी नायड़ उत्तर प्रदेश की राज्यपाल बनीं।

सरोजिनी नायडू जानती थीं कि नारी अपने परिवार, देश के लिए कितना महान कार्य कर सकती है। नारी विकास को ध्यान में रखकर वे अखिल भारतीय महिला परिषद् (आल इण्डिया वूमेन कांफ्रेस) की सदस्य बनीं। विजय लक्ष्मी पंडित, कमला देवी चट्टोपाध्याय, लक्ष्मी मेनन, हंसाबेन मेहता आदि महिलायें इस संस्था से जुड़ी थीं।

सरोजिनी नायडू का व्यवहार बहुत सामान्य था। वे राजनीतिक एवं सामाजिक जिम्मेदारियों के बावजूद भी गीत और चुटकलों में आनन्द लिया करती थीं। युवा वर्ग की सुविधाओं की ओर उनका विशेष ध्यान था। सरोजिनी नायडू का विश्वास था कि सुदृढ, सुयोग्य युवा पीढ़ी राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं। सरोजिनी बहुत ही स्नेहमयी थीं। प्रकृति मैं उन्हें विशेष प्रेम था।

30 जनवरी 1948 ई. को गाँधी जी की मृत्यु पर जब देश भर में उदासी छायी थी, सरोजिनी नायुड़ ने अपनी श्रद्धाजलि में कहा, मेरे गुरु, मेरे नेता, मेरे पिता की आत्मा शान्त होकर विश्राम न करे बल्कि उनकी राख गतिमान हो उठे। चन्द्रन की राख उनकी अस्थियाँ इस प्रकार जीवन्त हो जायें और उत्साह से परिपूर्ण हो जायें कि समस्त भारत उनकी मृत्यु के बाद वास्तविक स्वतंत्रता पाकर पुनर्जीवित हो उठे।"

“मेरे पिता विश्राम मत करो, न हमें विश्राम करने दो। हमें अपना वचन पूरा करने की क्षमता दो। हमें अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने की शक्ति दो। हम तुम्हारे उत्तराधिकारी हैं, सन्तान हैं, सेवक हैं तुम्हारे स्वप्न रक्षक हैं। भारत के भाग्य के निर्माता है, तुम्हारा जीवनकाल हम पर प्रभावी रहा है। अब तुम मृत्यु के बाद भी हम पर प्रभाव डालते रहो"।

मार्च 1949 को जब वे बीमार थी, तब उसकी सेवा कर रही नर्स से सरोजिनी नायड़ ने गीत सुनाने का आग्रह किया। नसे का मधुर गीत सुनते-सुनते वे चिरनिद्रा में सो गयीं। मार्च 1949 को भारत कोकिला सदा के लिए मौन हो गयीं।

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें श्रद्धा॰जलि देते समय कहा था “सरोजिनी नायडू ने अपनी जिन्दगी एक कवयित्री के रूप में शुरू की थी। कागज और कलम से उन्होंने कुछ कवितायें ही लिखी थीं लेकिन उनकी पूरी जिन्दगी एक कविता, एक गीत थी सुन्दर मधुर कल्याणमयी”।