बुधवार, 10 नवंबर 2021

अबुल फजल | ABU'L-FAZL IBN MUBARAK | अकबर के नवरत्न | अकबरनामा | आइने अकबरी | ABUL FAZL

अबुल फजल 
ABU'L-FAZL IBN MUBARAK 

अबुल फजल के पूर्वज कई पीढ़ी पहले भारत में आकर बस गये । इनके पिता मुबारक आगरा के पास रहते थे। उनके दो पुत्र थे फैजी और अबुल फजल मुबारक बड़े स्वतंत्र विचार के थे। जो बातें उन्हें ठीक नहीं जँचती थी उन्हें वे नहीं मानते थे। मुबारक का प्रभाव दोनों भाइयों पर पड़ा। दोनों भाई धार्मिक बातों में अति उदार और विवेकशील थे। दोनों बहुत विद्वान और अनेक विषयों के कुशल ज्ञाता थे।

अबुल फजल का जन्म 14 जनवरी सन् 1551 ई. को आगरा के पास ही हुआ था। फैजी इनसे चार साल बड़े थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा इनके पिता द्वारा ही हुई। जब अबुल फजल छोटे थे तभी राजधानी के निकट उपद्रव हो गया था। मुबारक उपद्रवियों के साथ रहे, इसलिए अकबर के कोप के भाजन हो गये। किन्तु कुछ ही दिनों में कुछ लोगां के प्रयत्न से अंकबर ने उन्हें क्षमा कर दिया। फैजी अकबर के दरबार में गये। उन्होंने कविता पढ़ी। उनकी मधुर कविता पर अकबर मुग्ध हो गये और वे उसी दिन से दरबार में आने जाने लगे।

अबुल फजल उस समय पन्द्रह वर्ष के थे। दिन-रात अध्ययन में लगे रहते थे। इनके ज्ञान को देखकर लोगों को आश्चर्य होता था। उसी समय की एक घटना कही जाती है। अबुल फजल को एक फारसी पुस्तक मिली। पुस्तक अच्छी थी, किन्तु आधी जल गयी थी। अबुल फजल ने जला अंश कैंची से काट डाला, वहाँ सादा कागज जोड़ा और ऊपर से पढ़कर अपने मन से सब पृष्ठों में शेष अंश लिख डाला। कुछ दिनों के बाद कहीं से उस पुस्तक की दूसरी प्रतिलिपि कोई लाया। अबुल फजल ने अपनी प्रति उससे मिलायी। उन्होंने जो लिखा था उसमें कहीं नये शब्द तथा नये ढंग के वाक्य आ गये थे, किन्तु बात जो अबुल फजल ने लिखी थी वह पूरी पुस्तक में थी।

ये चौबीस वर्ष के थे जब अकबर से इनकी भेंट हुई। फैजी ने अपने छोटे भाई का परिचय सम्राट से कराया। पहले ही दिन अकबर पर इनकी विद्वता का प्रभाव पड़ा। अकबर बंगाल पर आक्रमण करने जा रहे थे। सब लोग साथ गये। अबुल फजल नहीं गये। अकबर ने अनेक बार इन्हें स्मरण किया। जब बंगाल पर विजय प्राप्त कर अकबर फतेहपुर सीकरी लौटे तब अबुल फजल ने उन्हें कुरान की एक टीका भेंट की जो उन्होंने स्वयं अपने ढंग से तैयार की थी।

अबुल फजल ने राजकुमारों को कुछ दिन पढ़ाया भी था। दरबार में उनका मान प्रतिदिन बढ़ता गया। अनेक राजकीय पदों पर उन्होंने काम किया। अबुल फजल विद्वान तो थे ही, सैनिक भी थे और कई युद्धों में सम्राट की ओर से गये थे। युद्धों का संचालन भी किया था।

एक बार अकबर के पुत्र जहाँगीर अकबर से विद्रोह कर बैठे। उस समय बहुत से सैन्य अधिकारी गुप्त रूप से जहाँगीर का साथ दे रहे थे। अबुल फजल ने सब प्रकार से सम्राट की सहायता की और उसके परिणामस्वरूप जहाँगीर अपने कार्य में सफल न हो सका। जहाँगीर ने समझा अबुल फजल ही राह का काँटा है, उसे ही हटाना चाहिए। अबुल फजल उन दिनों दक्षिण में थे। उन्हें अकबर ने बुलाने के लिए आदमी भेजे। जहाँगीर को इसका पता लग गया। उसने उनकी हत्या की गुप्त योजना की। अबुल फजल जब दक्षिण से लौट रहे थे, राह में लड़ाई में वे मारे गये। अकबर उनकी बाट देख रहे थे। दिन पर दिन गिने जाने लगे। किसी का साहस नहीं होता था कि यह समाचार अकबर के सम्मुख ले जाये। अन्त में यह समाचार अकबर के सम्मुख लोग ले गये। जब उन्हें पता लगा कि जहाँगीर ही अबुल फजल के वध के कारण थे, उनके शोक की सीमा न रही। कई दिन तक उन्होंने भोजन नहीं किया। उन्होंने कहा- “यदि सलीम (जहाँगीर का असली नाम) राज्य ही चाहता था तो मुझे क्यों नहीं मार डाला? अबुल फजल के जीते रहने से मैं कितना सुखी होता।"

अबुल फजल शत्रु से भी कठोर वचन नहीं बोलते थे। सत्य को ही वे सबसे बड़ा धर्म मानते थे। इसी से इनका किसी धर्म से विरोध नहीं रहा। घर के नौकर-चाकर भी इन्हें अपने घर का ही समझते थे। यदि किसी कर्मचारी में त्रुटि पाते थे तो समझा-बुझाकर उसे ठीक राह पर लाते थे।

अकबर ने अबुल फजल की अनेक संस्कृत पुस्तकों का फारसी में अनुवाद करने के लिए कहा था। महाभारत, भागवत आदि कुछ संस्कृत गुरन्थों का उन्हां ने फारसी में अनुवाद किया था जो अब तक मिलते हैं। फारसी में उन्होंने 'अकबरनामा' नामक विशाल ग्रन्थ लिखा जिसमें अकबर के राज्य का वर्णन है। ‘आइने अकबरी' भी इन्हीं का लिखा ग्रन्थ है। उसमे भी अकबर के शासन की बहुत-सी महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं। दोनों ग्रन्थ इतिहास की दृष्टि से श्रेष्ठ माने जाते हैं।