शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

श्रम विभाजन और जाति प्रथा | बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर | BHIMRAO RAMJI AMBEDKAR |

श्रम विभाजन और जाति प्रथा
बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर

यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी 'जातिवाद' के पोषकों की कमी नहीं हैं। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज 'कार्य-कुशलता' के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही है कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का स्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

जाति-प्रथा को यदि श्रम मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह वश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दृषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उस में पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति-प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता। 'पूर्व लेख' ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना गा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह बहुत से लोग 'निर्धारित' कार्य को 'अरुचि' के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अत : यह निर्विवाद रूप से हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणारुचि व आत्म-शक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय बना देती है।

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

अन्याय के खिलाफ | अल्लूरी श्रीराम राजू | आंध्र प्रदेश के कोया आदिवासी | ALLURI SITARAMA RAJU | ANYAAY KE KHILAF | ADIVASI (TRIBAL) | CBSE | CALSS VIII | HINDI

अन्याय के खिलाफ

 आंध्र प्रदेश के कोया आदिवासी
अल्लूरी श्रीराम राजू 


बात 1922 की है। उन दिनों अंग्रेजों का शासन था। भारत देश अंग्रेजों का गुलाम था। अपने लोगों को तरह-तरह के अत्याचार सहने पड़ते थे। अंग्रेज शासन ने अपने स्वार्थ पूरे करने के लिए भारत के लोगों को बहुत डरा-धमका कर रखा था। पर उनकी धमकियों के खिलाफ़ लड़ने की हिम्मत रखने वाले भी लोग थे। ऐसे ही लोग थे आंध्र प्रदेश के कोया आदिवासी और उनके नेता का नाम था अल्लूरी श्रीराम राजू।

आंध्र के घने जंगलों के बीच रहने वाले कोया आदिवासी सीधी-सादी खेती के माध्यम से अपनी रोजी - रोटी जुटाया करते थे। पर जब से अंग्रेजों ने उनके बीच आकर अपना हक जमाया, उनका जीवन मुश्किल हो गया।

अंग्रेजों की योजना थी कि घने जंगलों और पहाड़ों को चीरती हुई एक सड़क बिछाई जाए। पर सड़क के निर्माण कार्य के लिए मजदूर कहाँ से आएँगे? यह सवाल जब तहसीलदार महोदय के सामने आया तो उनकी निगाह कोया आदिवासियों पर पड़ी। तहसीलदार का नाम था बेस्टीयन। बेस्टीयन को शासन द्वारा सड़क बनवाने का काम सौंपा गया था।

बेस्टीयन स्वभाव से बहुत अक्खड़ और क्रूर था। वह आदिवासियों के गाँवों में गया और बड़े घमंड के साथ खूब चिल्ला-चिल्लाकर बोला, "दो दिन में जंगल में सड़क बनाने का काम शुरू होगा। तुम सब लोगों को इस काम पर पहुंचना है। अगर नहीं पहुंचे तो ठीक नहीं होगा। अंग्रेज सरकार का हुक्म है, यह जान लो।" आदिवासी लोग चुप हो गए। वे उन घने जंगलों के बीच अकेले पड़े थे। वे कुछ पूछे तो किससे, कुछ करें तो क्या? किसी ने हिम्मत करके तहसीलदार से पूछना चाहा कि काम करेंगे तो बदले में क्या मिलेगा? तो बेस्टीयन का चेहरा तमतमा गया, "क्या मिलेगा? हुक्म बजाना नौकर का काम है। आगे से यह सवाल मत पूछना।"

आदिवासी सहम गए। काम पर जाने लगे। पर उनका मन नहीं मानता था। वे अपमान से अंदर ही अंदर घुट रहे थे और गुस्से से सुलग रहे थे।

उन्हीं दिनों एक साधु जंगलों में आकर रहने लगा था। उस साधु का नाम था, अल्लूरी श्रीराम राजू। श्रीराम राजू ने हाई स्कूल तक पढ़ाई की थी। उसके बाद अगली पढ़ाई छोड़कर वह 18 वर्ष की उम्र में ही साधु बन गया। जब वह उन जंगलों में रहने आया तो आदिवासी लोगों से अच्छी तरह हिल-मिल गया। लोग उसे अपने दुख- दर्द की कहानी सुनाते और पूछते कि कैसे अपने कष्टों से छुटकारा पाएँ।

श्रीराम राजू ने आदिवासियों से कहा, “अत्याचार के सामने दबना नहीं चाहिए। तुम लोगों को काम पर जाने से मना करना चाहिए।

"उसकी बात सुनकर आदिवासियों में हिम्मत आई। श्रीराम राजू ने उन्हें यह भी बताया कि देश में और लोग भी अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ लड़ रहे हैं। उनमें एक मशहूर नेता हैं, जिनका नाम गांधी जी है। गांधी जी का कहना है कि भारत के लोगों को अंग्रेजी सरकार का सहयोग नहीं करना चाहिए। अगर कोई अंग्रेज़ अन्याय करेगा तो हम अन्याय सहने से इंकार करेंगे।

यह सब सुनकर कोया आदिवासियों का दिल मजबूत हुआ। फिर क्या था, विद्रोह की ऐसी आग भड़की कि अंग्रेजों के होश उड़ गए। भोले-भाले आदिवासियों के मन में भरा सारा अपमान, दुख और क्रोध फूट के निकल पड़ा। भद्राचलम से परवथीपुरम तक पूरे इलाके के आदिवासी लोग अन्याय के खिलाफ़ लड़ने के लिए कूद पड़े। अंग्रेज सरकार के ऐसे छक्के छूटे कि आसपास के राज्यों से सेना बुलानी पड़ी, पर अंग्रेजों की इतनी भारी सेना भी दो साल तक विद्रोह को दबा न पाई।

जब सँकरी पगडंडियों से सेना की टुकड़ी गुजर रही होती तो जंगलों में छिपे आदिवासी भारतीय सिपाहियों को गुजर जाने देते और जैसे ही अंग्रेज़ सारजेंट या कमांडर नजर आते तो उन पर अचूक निशाना लगाते। आदिवासियों के विद्रोह से अंग्रेज़ सरकार इतना डरने लगी थी कि राजू के दल को आते देखकर थानों से पुलिस भाग जाती थी। श्रीराम राजू ने आदिवासियों से कह रखा था कि अंग्रेजों से लड़ो पर एक भी भारतीय सैनिक का बाल बाँका न होने पाए। अंग्रेजों की सेना में बहुत से भारतीय सिपाही भी थे। राजू के आदेश का सख्ती से पालन हुआ। जब वह पहाड़ों से कूच करता था, मानो उन्हें किसी का भय न हो। आदिवासी लोग पुलिस चौकियों या सेना पर हमला कर देते थे और उनके अस्त्र-शस्त्र लूटकर भाग जाते थे।

राजू ने एक कोने से दूसरे कोने तक गुप्त संदेश पहुँचाने के लिए गुप्तचरों का जाल फैला रखा था। अंग्रेजी सेना के आने जाने के संदेश ऐसे पहुँचाए जाते कि किसी को कानों कान खबर न हो। यह सब देखकर अंग्रेजों ने भी अपने दाँतों तले उँगली दबा ली।

जंगलों और पहाड़ों में राजू के लोग बड़ी फुर्ती से छिपते-फिरते। ऐसे इलाके में हथियारों से लदी अंग्रेजों की भारी-भरकम सेना अपने आपको कमजोर महसूस करने लगती थी। राजू के लोगों को गाँव-गाँव का सहारा था। गाँव के लोग विद्रोहियों को शरण देते और लाख कोशिश करने पर अंग्रेज़ उनकी खबर नहीं लगा पाते। फिर अंग्रेजों को एक तरकीब सूझी। उन्होंने सोचा कि आदिवासियों को लड़ाई में तो हरा नहीं पाएंगे, अब इन्हें भूखे रखकर मारना पड़ेगा। अंदर जंगल के गाँवों में राशन लाने वाले सारे रास्ते बंद कर दिए गए। किसी को भी सामान का एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना मुश्किल हो गया। लोगों की बंदूकों के कारतूस खत्म हो गए। इसके कारण अंग्रेजों के सिपाही गाँवों में घुसकर लोगों को मारने-पीटने लगे। यहाँ तक की ठगी हुई फसल को भी जलाया जाने लगा।

आदिवासियों की हिम्मत जवाब देने लगी। आखिर कब तक यह तकलीफ़ बर्दाश्त की जा सकती थी। कुछ साथी पुलिस की पकड़ में आ गए थे। एक बार राजू भी पुलिस की गिरफ्त में आकर बुरी तरह जख्मी हो गया था। लोग परेशान होकर राजू पास पहुँचते। राज भी परेशान था। उससे उनका दुख देखा नहीं गया। राजू ने सोचा कि अगर मैं अंग्रेजों के सामने आत्म-समर्पण कर दूँ तो अंग्रेज इन हजारों लोगों को रोज़ सताना बंद कर देंगे। उसने देखा कि दो वर्षों के इतने लंबे संघर्ष के बाद लोगों में कठिनाइयों का सामना करने की तैयारी नहीं रह पाई है और अंग्रेज सरकार तो उन्हें भूखा मारकर ही छोड़ेगी।

यह सोचकर श्रीराम राजू अपने आपको अंग्रेजों के हवाले सौंपने चला। सेना के मेजर गुडॉल, मम्पा गाँव में डेरा डाले हुए थे। राजू को गिरफ्तार करके उसके सामने पेश किया गया। गिरफ्तारी की खबर सुनकर आसपास के गाँवों के लोग बड़ी संख्या में वहाँ इकट्ठे होने लगे।

मेजर गुडॉल मन ही मन बहुत अधिक खुश हो रहा था। उसे कहाँ उम्मीद थी कि उनका शिकार खुद जाल में फँसने चला आएगा। राजू माँग कर रहा था कि उसे कचहरी में पेश किया जाए और कानून के हिसाब से उसके साथ बर्ताव हो। पर गुडॉल का कोई इरादा नहीं था कि कोर्ट-कचहरी के चक्कर में राजू को अपनी जान बचाने का ज़रा भी मौका मिले। बस, उसके इशारे पर एक सिपाही ने राजू पर गोली चलाई और उसका काम तमाम कर दिया गया।

इस तरह अल्लूरी श्रीराम राजू अपने लोगों खातिर शहीद हुआ। इसके बाद कोया आदिवासियों का आंदोलन टूट गया। पर अंग्रेज सरकार ने अच्छा-खासा पाठ पढ़ लिया था। वे समझ गए थे कि आदिवासियों के साथ मनमर्जी नहीं की जा सकती। तब से आदिवासियों के हितों की रक्षा करने के लिए विशेष कोशिश करने का फैसला हुआ अपने देश के इतिहास में कोया आदिवासियों ने अन्याय के खिलाफ लड़ने की मिसाल स्थापित की।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर | ISHWAR CHANDRA VIDYASAGAR | CBSE | CLASS VI | HINDI

ईश्वरचंद्र विद्यासागर


ईश्वरचंद्र विद्यासागर प्रसिद्ध विद्वान् और समाज सुधारक थे। वे बंगाल के निवासी थे। बंगाल में उनका बहुत सम्मान था। वे सादा जीवन उच्च विचार वाले महापुरुष थे।

एक दिन एक युवक उनसे मिलने उनके गाँव मिदनापुर आया। वह रेलगाड़ी से स्टेशन पर उतरा। उसके पास एक सूटकेस था। स्टेशन पर कुली नहीं था। उस युवक को बहुत गुस्सा आया। वह बोला, यह अजीब स्टेशन है। यहाँ एक भी कुली नहीं है।

उसी गाड़ी से एक और आदमी उतरा। वह बहुत सादी पोशाक में था। वह आधी बाँह का कुर्ता, धोती और चप्पल पहने था। वह आदमी उस युवक के पास आया और बोला, 'क्या बात है भाई?' युवक बहुत गुस्से में था। वह बोला, 'यह कैसा स्टेशन है? यहाँ एक भी कुली नहीं है। मेरे पास सामान है। 'तब वह आदमी बोला, 'लाइए मैं आपका सामान उठा लूँ। वह आदमी युवक का सूटकेस उठाकर स्टेशन से बाहर आया। जब उस युवक ने मजदूरी के पैसे देने चाहे तो वह व्यक्ति बोला, 'मुझे पैसे नहीं चाहिए।' वहाँ कुछ बैलगाड़ियाँ खड़ी थीं। युवक एक बैलगाड़ी में बैठ गया।

दूसरे दिन सवेरे वह युवक ईश्वरचंद्र के घर आया। घर के बाहर एक आदमी खड़ा था। यह वही आदमी था जिसने कल रात उसका सामान उठाया था। युवक बोला, 'क्या विद्यासागर जी यहीं रहते हैं।'

उस आदमी ने कहा, जी हाँ, आइए अंदर बैठिए।

युवक ने पूछा, 'विद्यासागर जी कहाँ हैं?'

उस आदमी ने कहा, 'मैं ही विद्यासागर हूँ।'

युवक को बहुत शर्म आई और उसने विद्यासागर जी से माफी माँगी। फिर बोला, 'कल मुझसे भूल हुई। अब मैं समझ गया कि कोई काम बड़ा या छोटा नहीं होता। अपना काम स्वयं करना चाहिए।

पोंगल/संक्रांति | विविधता में एकता भारत की विशेषता | PONGAL | SANKRANTH I CBSE | CLASS VII | HINDI | INDIA

पोंगल/संक्रांति 

विविधता में एकता भारत की विशेषता 

भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारतीय किसान का जीवन प्रकृति से जुड़ा रहता है। वह प्रकृति के साथ ही हँसता-रोता है, नाचता गाता है। बुआई, सिंचाई, निराई आदि खेती-बाड़ी के सारे काम वह मौसम के अनुसार करता है। जब चारों तरफ हरियाली छा जाती है, वृक्ष लताएँ फूलों से लद जाती हैं तब मानव भी गुनगुनाने लगता है। जब खेत-खलिहान अनाज से भर जाते हैं तब उसके पाँव थिरक उठते हैं, वह उत्सव मनाने के लिए मचल उठता है। त्योहारों का जन्म यहीं से होता है।

पोंगल नयी फसल का त्योहार है। यह संक्रांति के दिन मनाया जाता है। तमिलनाडु, आध्रप्रदेश और तेलंगाना का यह प्रमुख त्योहार है। यह जनवरी में मनाया जाता है। 'पोंगल' में खेतों से सुनहरे रंग का नया धान कटकर किसान के घर आता है। गन्ने के खेत की फसल तैयार होती है। बगीचे में हल्दी का पौधा लहलहा उठता है। इन्हें देखकर किसान का मन नाच उठता है। उसके जीवन में मिठास आ जाती है। संक्रांति के दिन नए चावल का मीठा भात बनाकर सूर्य को चढ़ाया जाता है। इसी मीठे भात को पोंगल कहते हैं। इसी से त्योहार का नाम पोंगल पड़ा है।

तमिलनाडु, आध्रप्रदेश और तेलंगाना में पोंगल त्योहार पौष मास में आरंभ के चार दिनों तक मनाया जाता है। पोंगल के पहले दिन लोग 'भोगी' का त्योहार मनाते हैं। पूरे घर की सफ़ाई की जाती है। इससे पर्यावरण स्वच्छ हो जाता है। भोगी के दिन शाम को बच्चे ढोल और बाजे बजाकर खुशियाँ मनाते हैं।

पोंगल के दिन घर आँगन को रंगोली से सजाते हैं। नहा-धोकर सभी लोग नए कपड़े पहनते हैं। उस दिन सब कुछ नया होता है। आँगन में अँगीठी जलाकर नए बर्तन में पोंगल पकाया जाता है। बर्तन में हल्दी का पौधा बाँध दिया जाता है। गन्ने के रस में नयी फसल का चावल पकाया जाता है। जब चावल उबलकर ऊपर उठता है तो उसमें दूध डाल देते हैं। दूध के साथ उफनता हुआ पोंगल बर्तन के ऊपर से उमड़ता है और चारों ओर रिसकर आँच में टपक पड़ता है। उस समय चारों ओर इकट्ठे लोग खुशी से नाच उठते हैं और जोश में चिल्लाते हैं- ' पोंगलो पोंगल! 'उन्हें प्रसन्नता होती है कि सूर्य और अग्नि ने पोंगल का भोग स्वीकार कर लिया है। लोग अपने पास-पड़ोस में पोंगल बाँटते हैं। उसके बाद मित्र और सगे-संबंधी सब मिलकर बढ़िया भोजन करते हैं। पोंगल के दिन हर तमिल भाषी, तेलुगु भाषी चाहे वह भारत के किसी कोने में रहता हो अपने घर पहुँचने की कोशिश करता है। विवाहित लड़कियाँ पोंगल मनाने अपने मायके आती हैं। तीसरे दिन 'माट्टु पोंगल' मनाया जाता है। तमिल भाषा में 'माडु' गाय-बैलों को कहते हैं। 'माडु' का अर्थ 'धन' भी है। पुराने समय में गाय-बैल ही हमारी संपत्ति थे।

'माट्टु पोंगल के दिन गाय बैलों को अच्छी तरह लाया जाता है। लोग उनके सींगों को रंगते हैं और उन्हें रंगीन कपड़ों से सजाते हैं। लोग उनके गले में फूल-मालाएँ पहनाते हैं तथा उन्हें गुड़ और अच्छी-अच्छी चीजें खिलाते हैं। शाम को मैदान में बैलों को दौड़ाया जाता है।

चौथे दिन 'काणुम पोंगल' होता है। खाना बाँधकर पूरा परिवार घर से बाहर निकल पड़ता है। जगह-जगह मेले लगते हैं। लोग मेलों में घूमते हैं या आसपास के स्थान देखने के लिए चल पड़ते हैं। इस तरह चारों दिन लोग अपने दैनंदिन कामों से छुट्टी लेकर इस त्योहार का आनंद लेते हैं।

खेती से संबंधित यह त्योहार पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। गुजरात से लेकर बंगाल तक लोग इसे संक्रांति के नाम से मनाते हैं। उत्तर भारत में संक्रांति पर स्नान का महत्त्व है। गंगा, यमुना, नर्मदा, क्षिप्रा आदि नदियों में लोग स्नान करते हैं। चावल और मूंग की दाल की खिचड़ी बनाकर खाते-खिलाते हैं।

महाराष्ट्र में यह तिल-गुड़ का त्योहार है। तिल स्नेह का प्रतीक है और गुड़ मिठास का। लोग एक दूसरे को तिल-गुड़ देकर कहते हैं- "तिल-गुड़-घ्या, गोड बोला' अर्थात - तिल और गुड़ खाओ और मीठा बोलो। पंजाब में संक्रांति से एक दिन पहले 'लोहड़ी' का त्योहार मनाते हैं। 'लोहड़ी' का अर्थ है - 'छोटी' या छोटी संक्रांति। लोग अपने घर से बाहर, आँगन में या चौराहे पर लकड़ियाँ जमा करते हैं। संध्या के बाद स्त्री-पुरुष और बच्चे वहाँ इकट्ठे होते हैं और लोहड़ी जलाते हैं। नयी फसल का मक्का आग में डाला जाता है। यह खील की तरह फूल उठता है। लोग मक्के की फूली (खील) और तिल की रेवड़ियाँ बाँटते हैं। आपस में प्रेम से मिलते हैं। अरुणाचल प्रदेश में 'पानुङ' का त्योहार भी इसी समय मनाया जाता है।

विविधता में एकता भारत की विशेषता है। एक ही त्योहार को लोग विविध रूपों में मनाकर भारत की सांस्कृतिक एकता को मज़बूत बनाते हैं।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

दक्षिण भारत का एक प्रमुख पर्व ‘उगादी’ | 'UGADI' CELEBRATION | SOUTH FESTIVAL 'UGADI'

दक्षिण भारत का एक प्रमुख पर्व ‘उगादी’

पेडों पर सजती है नए पत्तों की बहार,
हरियाली से महकता प्रकृति का व्यवहार,
ऐसा सजता है उगादी का त्योहार.
मौसम भी करता नव वर्ष का सत्कार.
आप सबको उगादि का खुशियों भरा त्योहार की शुभकामनाएँ।

उगादी दक्षिण भारत का एक प्रमुख पर्व है। दक्षिण भारत में चंद्र पंचाग को मानने वाले लोगो द्वारा नव वर्ष मनाया जाता है। यह पर्व चैत्र माह के पहले दिन मनाया जाता है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक इन क्षेत्रों में नववर्ष के रुप में मनाते है। दक्षिण भारत में इस पर्व को काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है क्योंकि वसंत आगमन के साथ ही किसानों के लिए यह पर्व नयी फसल के आगमन का भी अवसर होता है। मुख्यतः उगादि का यह त्योहार उस समय आता है जब भारत में वसंत ऋतु अपने चरम पर होती है और इस समय किसानों को नयी फसल भी मिलती है। दक्षिण भारत में उगादी अवसर पर ब्रम्हाजी की पूजा की जाती है। लोक मानते है कि इस दिन ब्रम्हा जी ब्रह्माण्ड की रचना की थी।

उगादी के दिन एक विशेष पेय बनाने की भी प्रथा है, जिसे उगादी पच्चड़ी नाम से जाना जाता है। उगादी के दिन हमें पच्चड़ी पेय का सेवन अवश्य करना चाहिए। पच्चड़ी नामक यह पेय नई इमली, आम, नारियल, नीम के फूल, गुड़ जैसे चीजों को मिलाकर बनायी जाती है। लोगों द्वारा इस पेय को पीने के साथ ही आस-पड़ोस में भी बाँटा जाता है। उगादी पच्चड़ी हमें जीवन में यह ज्ञान कराता है कि जीवन में हमें मीठेपन तथा कड़वाहट भरे षङठ रूचियों की तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ता है। वर्षों तक मजबूत और स्वस्थ्य शरीर की प्राप्ति के लिए एवं विभिन्न प्रकार के धन की प्राप्ति तथा सभी प्रकार की नकरात्मकता का नाश करने के लिए हमें उगादि पच्चड़ी खाना चाहिए।

उगादी का यह पर्व हमें प्रकृति के और भी समीप ले जाने का कार्य करता है क्योंकि यदि इस त्योहार के दौरान पीये जाने वाले पच्चड़ी नामक पेय पर गौर करें तो यह शरीर के लिए काफी स्वास्थ्यवर्धक होता है। हमारे शरीर को मौसम में हुए परिवर्तन से लड़ने के लिए तैयार करता है और हमारे शरीर के प्रतिरोधी क्षमता को भी बढ़ाता है।

छह अलग अलग स्वाद मीठा, खट्टा, मसाला, नमक और कड़वा आदि का प्रतीक है खुशी, घृणा, क्रोध, भय, आश्चर्य का। यह नया गुड़, कच्चे आम के टुकड़े, नीम के फूल, और नए इमली से बना है जो वास्तव में जीवन को प्रतिबिंबित और उदासी का द्योतक है।

बाद में लोगों को पारंपरिक रूप से नए साल की धार्मिक पंचांग के सस्वर पाठ को सुनने के लिए मंदिर में इकट्ठा होते हैं। पंचांग भी चाँद लक्षण के आधार पर ज्योतिष में शामिल है। उगादि चंद्रमा की कक्षा में एक परिवर्तन के साथ एक नया हिंदू चंद्र कैलेंडर की शुरुआत के निशान है। इस दिन मौसम काफी सुहावना रहता है और लोग बहुत प्रसन्न होते है। आप सबको इस नये साल की शुभकामनाओं के साथ आपका मित्र रामकुमार।

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर | BHIMRAO RAMJI AMBEDKAR | BABASAHEB | शान्ति स्वरूप | SHANTI SWAROOP | VAKEEL SAAB

बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर

शान्ति स्वरूप

प्रस्तुत जीवनी में डॉ. भीमराव अंबेडकर के संघर्षपूर्ण जीवन का सजीव एवं मार्मिक चित्रण है। उन्होंने जीवन की कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए अपनी शिक्षा पूरी की। वंचित एवं पीड़ित समाज को जागरूक करना एवं उनके अधिकारों के प्रति सचेत करना ही उनके जीवन का मूल ध्येय रहा। अंबेडकर के मूल मंत्र- 'शिक्षा, संगठन एवं संघर्ष’ से विद्यार्थियों को भलीभाँति परिचित कराने के उद्देश्य से इस जीवनी को संकलित किया गया है।

महापुरुष राजमहलों में ही नहीं, खेत-खलिहानों में भी जन्म लेते हैं। ऊँची जातियों में ही नहीं , वे कभी-कभी निम्न जाति में भी पैदा होते हैं। इस बात को अच्छी तरह समझने के लिए हमें डॉ . बी.आर. अंबेडकर के जीवन चरित्र पर दृष्टि डालनी होगी। डॉ.बी.आर. अंबेडकर का जन्म १४ अप्रैल १८९१ में रामजी सूबेदार के घर में माता भीमाबाई की कोख से छुआ था। उस समय रामजी सूबेदार महू ' नामक छावनी में सैनिक के पद पर थे। वे महाराष्ट्र की महार जाति से संबंध रखते थे। महार जाति महाराष्ट्र में अछूत समझी जाती है। इस कारण महारों को सामाजिक अत्याचार और तरह-तरह के बहिष्कार झेलने पड़ते थे।

जन्म के समय डॉ. अंबेडकर का नाम भीमराव रखा गया था। मगर परिवार वाले उन्हें 'भीवा' कहकर पुकारते थे। भीवा को बचपन से ही छूतछात का कटु अनुभव सहन करना पड़ा। उन दिनों अछूतों के लिए मंदिरों, कुँओं की तरह पाठशाला के भी दरवाजे बंद थे। मगर सेना में इन सामाजिक नियमों की कठोरता में कुछ ढील थी। बहुत कठिनाई से ही सही पर भीवा का सैनिक स्कूल में प्रवेश हो गया।

प्रवेश तो हो गया, मगर सामाजिक भेदभाव और छूतछात भीवा का पीछा नहीं छोड़ा। बालक भीवा को अपने बैठने का टाट अपने साथ घर से ही ले जाना पड़ता था। पाठशाला में उन्हें कक्षा के भीतर अन्य विद्यार्थियों के साथ बैठने की मना ही थी। वे अपनी कक्षा के बाहर सब छात्रों के जूतों के बीच दरवाजे के बाहर बैठते थे। सामाजिक अत्याचारों की निर्दयता देखिए - भीमराव को पानी के घड़े को भी छूने की इजाजत नहीं थी। कारण यह था कि अछूतों के छू लेने से घड़े का जल भ्रष्ट हो जाता। चाहे कितनी भी प्यास लगे, बेशक प्यास के मारे प्राण ही क्यों न निकल जाएँ, मगर प्यासा अछूत घड़े से पानी लेकर नहीं पी सकता था। किसी चपरासी की कृपा हो गई, तो पानी मिल जाता, नहीं तो घर आकर ही पानी पीना पड़ता।

रामजी सूबेदार शिक्षा और अनुशासन का महत्त्व भली प्रकार जानते थे। उन्होंने भीमराव को भी इसका महत्त्व अच्छी तरह समझाया। यही कारण है कि सब प्रकार के अत्याचार, अनाचार और भेदभाव सहन करके भी वे शिक्षा पास करने में जुटे रहे।

भीमराव हाईस्कूल में पहुंचे, तो छूतछात की काली छाया उनके साथ यहाँ भी आ धमकी। गुरुजी ने एक प्रश्न पूछा। किसी ने उत्तर नहीं दिया। भीमराव प्रश्न का उत्तर लिखने के लिए ज्यों ही ब्लैक बोर्ड की तरफ चले, त्यों ही कक्षा के सवर्ण छात्रों ने शोर मचाते हुए कहा - रोको इस अछूत को। ब्लैक बोर्ड के नीचे रखा हमारा भोजन इसके छूने से भ्रष्ट हो जाएगा। भीमराव इस प्रकार के असंख्य अपमान के खून के छूट चुपचाप पी जाते।

सन् १९०७ में भीमराव ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। एक अछूत बालक के लिए यह महान उपलब्धि थी। इस अवसर पर भीमराव के सम्मान में एक सभा का आयोजन किया गया जिसमें कृष्णजी अर्जुन केलुस्कर जी ने अपनी लिखी पुस्तक 'बुद्ध जीवनी' भीमराव को भेंट की। इसी समय रामजी सूबेदार ने घोषणा की कि हमारी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है , फिर भी मैं भीमराव को उच्च शिक्षा दिलाने का भरसक प्रयास करूंगा।

१७ वर्ष की आयु में भीमराव का विद्यार्थी जीवन में ही ९ वर्ष की रमाबाई के साथ विवाह हो गया। अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए भीमराव बंबई के एलफिंस्टन कालेज में दाखिल हो गए। उस समय एक अछूत के लिए यह बहुत अनोखी बात थी। मगर रामजी सूबेदार भीमराव को और पढ़ाने में कठिनाई महसूस करने लगे, तो केलुस्कर गुरुजी भीमराव को बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड जी के पास ले गए। भीमराव ने अपनी विद्वत्ता एवं बुद्धिमत्ता से महाराजा का दिल जीत लिया। महाराजा ने भीमराव की उच्च शिक्षा के लिए रु.२५ / -मासिक छात्रवृत्ति स्वीकृत कर दी। समाज की क्रूर जाति-व्यवस्था उन्हें पग-पग पर पीड़ा पहुँचाती रही। वे संस्कृत पढ़ना चाहते थे, मगर अछूत होने के कारण उन्हें संस्कृत भाषा नहीं पढ़ने दी गई। दृढ इच्छाशक्ति के धनी भीमराव ने १९१२ में अंग्रेजी और फारसी विषयों के साथ बंबई विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा पास की थी। वे बी.ए. की परीक्षा पास करनेवाले पहले महार थे।

सन् १९१३ में अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध भीमराव बड़ौदा स्टेट फोर्समें लैफ्टीनेंट भर्ती हो गए। भीमराव की भर्ती के करीब १५ दिन बाद २ फरवरी १९१३ को उनके पिता रामजी सूबेदार की मृत्यु हो गई। भीमराव पर परिवार के दायित्य का मार बढ़ गया। मगर उनके मन में और भीऊंची शिक्षा पाने की ललक बनी हुई थी।

इसी दौरान बड़ौदा रियासत की तरफ से मेधावी छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजे जाने की योजना के तहत भीमराव का चयन हो गया। अमेरिका में शिक्षा प्राप्त करने के बदले में भीमराव को एक शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़े जिसके अनुसार शिक्षा प्रास करके बड़ौदा रियासत में सेवा करनी थी। जुलाई १९१३ के अंत में भीमराव अंबेडकर न्यूयार्क ( अमेरिका ) में जाकर कोलम्बिया विश्वविद्यालय में दाखिल हो गए। उस समय एक अछूत युवक का विदेश में जाकर शिक्षा पाना कल्पना से परे की बात थी।

अमेरिका में जाकर भीमराव अंबेडकर को स्वतंत्र एवं खुला माहौल मिला, जहाँ किसी भी प्रकार का जातीय बंधन नहीं था और नही जाति-आधारित भेदभाव। भीमराव का पढ़ाई में खूब मन लगा। अमेरिका में उदार, प्रेमपूर्ण और समानता के व्यवहार ने उन्हें धनाभाव के कारण भूखा-प्यासा रहकर भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। वे शराब, सिगरेट आदि से दूर रहकर १८ घंटे पढ़ा करते थे। इसी दौरान उनकी नजर कमजोर हो गई और उन्हें चश्मा लगाना पड़ा। अमेरिका में उन्होंने राजनीति शास्त्र, नैतिक दर्शनशास्त्र, मानव विज्ञान, समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, आदि विषय पढ़े। सन् १९१५ में उन्होंने एम.ए. तथा १९१६ में पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त की। अब वे भीमराव अंबेडकर से डॉ. भीमराव अंबेडकर हो गए।

सन् १९१६ में ही डॉ. अंबेडकर और अधिक शिक्षा पाने के लिए लंडन पहुँचे। लंडन के प्रोफेसरों ने उन्हें डॉक्टरेट ऑफ साइन्स (डी.ए.सी.) की तैयारी करने की अनुमति दे दी। उन्होंने तुरंत शोधकार्य आरंभ कर दिया।

इसी बीच उन्हें बड़ौदा के दीवान ने एक पत्र लिखा कि छात्रवृत्ति की अवधि खत्म हो चुकी है। अत: तुरंत वापस लौटकर शपथ-पत्र की शर्तों के अनुसार बड़ौदा रियासत की दस वर्ष तक सेवा करो। डॉ. अंबेडकर को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। भारत रवाना होने से पूर्व उन्होंने विश्वविद्यालय से यह अनुमति ले ली कि अक्टूबर १९२१ तक अधूरी पढ़ाई पूरी की जा सकती है। २१ अगस्त १९१७ को डॉ. अंबेडकर बंबई पहुंचे।

बड़ौदा रियासत की शर्त के अनुसार डॉ. अंबेडकर ने सैन्य सचिव के पद पर कार्य आरंभ किया। मगर इतने उदार महाराजा की बड़ीदा नगरी में संसार के महान विद्वान को छूतछात की दूषित भावना के कारण रहने के लिए कोई मकान नहीं मिला। वे नाम बदलकर एक पारसी धर्मशाला में रहने लगे। मगर पारसियों को जब उनकी जाति का पता चला, तो उन्होंने भी डॉ. अंबेडकर को अपमानित करके खदेड़ दिया। कितना मजबूत रहा होगा डॉ. अंबेडकर का जिगर, जो इतने जुल्म सहकर भी प्रगति पथ पर अग्रसर होते रहे। डॉ. अंबेडकर ने एक जगह लिखा भी है - 'वर्षों का समय बीत जाने पर भी पारसी सराय में मेरे साथ हुए तुर्व्यवहार का स्मरण करते ही मेरी आँखों में आँसू छलक पड़ते हैं।'

अपनी योग्यता के बल पर और जीवन के प्रगति पथ पर तेजी से अग्रसर होने के दृढ संकल्प के कारण डॉ. अंबेडकर सन् १९१८ में रु.४५०/- के मासिक वेतन पर सिडनेहम कालेज, मुंबई में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए। यह नौकरी उन्होंने वेतन में से कुछ पैसे बचाकर लंडन जाकर अधूरी पढ़ाई पूरी करने के लिए की थी। सिडनेम कालेज में भी जातिवादी मानसिकता के सवर्णों ने उन्हें प्रताड़ित करना नहीं छोड़ा।

जातीय आधार पर होने वाले अत्याचार कभी-कभी डॉ. अंबेडकर को यह सोचने के लिए बाध्य कर देते कि इस अन्याय को मिटाने के लिए हमें बंदूक उठा लेनी चाहिए। मगर धन्य है डॉ. अंबेडकर उन्होंने तलवार या बंदूक का नहीं अहिंसात्मक तरीके से अपने समाज के कष्टों को दूर करने का निर्णय लिया। अब उन्होंने अपने लिए या अपने बीबी-बच्चों के लिए नहीं, अपितु सदियों से पीड़ित समाज की पीड़ा दूर करने का बीड़ा उठाया।

उन्होंने वंचित एवं पीडित समाज को जागरुक करना आरंभ किया। इस दिशा में सर्वप्रथम उन्होंने 'मूकनायक' यानी 'गूगों का नेता' नामक समाचार पत्र आरंभ किया। इस कार्य में कोल्हापुर के महाराज शाहूजी महाराजाने भी उनकी सहायता की।

डॉ. अंबेडकर ने प्रोफेसर की नौकरी करते समय जो पैसे कमाए, उनमें कुछ कर्जे के पैसे मिलाकर वे दोबारा अपनी अधूरी पढ़ाई को पूरा करने के लिए सन् १९२० में फिर लंडन चले गए। वहाँ पर संघर्षपूर्ण अध्ययन के बल उन्होंने सन् १९२१ में 'ब्रिटिश भारत में साम्राज्य पूंजी का प्रादेशिक विकेंद्रीकरण' विषय पर शोधकार्य पूरा करके मास्टर ऑफ साइंस की डिग्री प्राप्त की। सन् १९२३ में डॉ. भीमराव अंबेडकर एम.ए., पीएच.डी., एम.एस.सी., डी.एस.सी, और बार-एट-लॉ बनकर बंबई आए।

लंडन से लौटकर उन्होंने बैरिस्टर बनकर वकालत करने का निश्चय किया। इसी के साथ उन्होंने अपनी योग्यता के बल पर समाज कल्याण के कार्य को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ का गठन किया। सन् १२४ में उन्होंने ' समता सैनिक दल' की स्थापना की।

२४ जनवरी १९२४ को बंबई विधान परिषद में डॉ. अंबेडकर ने बजट भाषण प्रस्तुत किया। उन्होंने बंबई विधान परिषद का सदस्य रहते हुए जन कल्याण के बहुत से कार्य किए। इसी बीच उन्हें पता चला कि महाड़ नामक स्थान पर हिंदुओं के धर्म-स्थानों, कुओं व तालाब पर कुत्ते बिल्ली, गाय-भैंस व गधे-सूअर तो पानी पी सकते हैं, पर अछूत लोग नहीं। यह तो जातीय भेदभाव की पराकाष्ठा थी।

डॉ. अंबेडकर जानते थे कि स्वतंत्रता व अधिकार भीख में नहीं मिलते, इन्हें पाने के लिए तो सिर कटवाने पड़ते हैं। डॉ. अंबेडकर ने अछूतों को संगठित किया और १९-२० मार्च १९२७ को महाड़ में एक विशाल सभा का आयोजन किया । संसार के मानव इतिहास की यह ऐसी घटना थी, शायद ही कोई विदेशी विश्वास करेगा कि भारत के अछूतों को अपनी जान खतरे में डालकर पानी पीने के लिए संघर्ष करना पड़ा था।

इस संघर्ष में डॉ. अंबेडकर को सफलता मिली और इस घटना की सफलता के साथ डॉ. अंबेडकर अछूतों के ईमानदार नेता के रूप में स्थापित हुए।

भारत की भावी शासन-प्रणाली व संविधान के बारे में रूप-रेखा तय करने के लिए ब्रिटिश सम्राट ने एक गोलमेज सम्मेलन लंडन में आयोजित किया। इस सम्मेलन में ८९ भारतीय प्रतिनिधियों सहित भारत के अछूतों की ओर से डॉ. अंबेडकर ने अपने प्रभावशाली भाषण में कहा, " वे ब्रिटिश भारत की जनसंख्या के पाँचवे भाग का, जो कि फ्रांस या इंग्लैंड की आबादी से भी अधिक है, मत व्यक्त कर रहे हैं”। डॉ. अंबेडकर ने सिंह-गर्जना करते हुए कहा, 'जब हम अपनी वर्तमान स्थिति और ब्रिटिश शासनसे पहले की स्थिति की तुलना करते हैं, तो हम पाते हैं कि, हम उन्नति करने की बजाय व्यर्थ में अपना समय बर्बाद कर रहे हैं।

डॉ. अंबेडकर गोलमेज सम्मेलन में डटकर लड़े, निर्भयता से गरजे और अछूतों के पृथक निर्वाचन का अधिकार पाने में सफल हुए।

गांधी जी सहित हिन्दू नेताओं ने लिखित में 'पूनापैक्ट' नाम का एक समझौता किया, जिसके तहत अछूतों की प्रगति के लिए नौकरियों में और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था की गई।

२७ मई १९३५ को उनकी पत्नी रमाबाई का देहांत हो गया। उन्होंने बहुत दुःख माना और भगवा वस्त्र पहनकर संन्यास लेने का निर्णय कर लिया। मगर परिवार के बड़ों और मित्रों के समझाने-बुझाने पर उन्होंने भगवा वस्त्र त्यागकर समाज-कल्याण के लिए संघर्ष की राह पकड़ने का निर्णय लिया। इस समय भगवा वस्त्र धारण करने के कारण लोगों ने उन्हें 'बाबासाहेब' कहना आरंभ कर दिया।

बाबासाहेब गजब के पुस्तक प्रेमी थे। पुस्तकों को वे अपनी पत्नी और बच्चों से अधिक मानते थे। उनका पुस्तकालय किसी के भी व्यक्तिगत पुस्तकालय से बहुत विशाल था।

बाबासाहेब की विद्वत्ता और योग्यता से प्रभावित होकर भारत के गवर्नर ने उन्हें सन् १९४२ में अपने मंत्रिमंडल में श्रममंत्री का पद सौंपा। जब भारतवर्ष के स्वतंत्र होने की बात आई, तो अंग्रेजों ने यह सुनिश्चित करना चाहा कि हमारी शासन-व्यवस्था किस और कैसे संविधान के आधीन चलेगी। देश में संविधान बनाने वाला उनसे योग्य कोई था नहीं, अत: भारत के संविधान निर्माण के लिए उन्हें मसौदा समिति का अध्यक्ष चुना गया। उन्हीं के द्वारा हमारा संविधान लिखा गया।

संविधान पूरा होने पर भारत के प्रथम राष्टपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था - 'डॉ. अंबेडकर को संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाने से अधिक अच्छा कार्य हम नहीं कर पाए।' बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर को भारतीय संविधान का जनक माना जाता है। स्वतंत्र भारत में उन्हें नेहरू मंत्रिमंडल में कानून मंत्री बनाया गया। कानून मंत्री के रूप में उन्होंने अनेक अनूठे कार्य किए।

१४ अक्तूबर १९५६ को उन्होंने अपने पाँच लाख अनुयायियों के साथ भंते चंद्रमणि महाथेरो के हार्थो बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। वे बौद्ध बन गये। ६ दिसंबर १९५६ को बाबासाहेब का परिनिर्वाण हुआ। दलितों के मसीहा एवं भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर को मरणोपरांत "भारत रत्न' के सर्वोच्च सम्मान से विभूषित किये जाने पर देश में सर्वत्र हर्ष और संतोष प्रकट किया गया।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

कबीर की साखी | स्पर्श | भाग-2 | कक्षा-10 | द्वितीय भाषा | पद्य-खंड | पाठ-1 | कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE | CBSE | HINDI | CALSS X

 


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कबीर की साखी
स्पर्श भाग-2
कक्षा-10 (द्वितीय भाषा)
पद्य-खंड पाठ-1

कबीर का जन्म 1398 में काशी में हुआ माना जाता है। गुरु रामानंद के शिष्य कबीर ने 120 वर्ष की आयु पाई। जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मगहर में बिताए और वहीं चिरनिद्रा में लीन हो गए।

कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ था जब राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक क्राँतियाँ अपने चरम पर थीं। कबीर क्रांतदर्शी कवि थे। उनकी कविता में गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है। उनकी कविता सहज ही मर्म को छू लेती है। एक ओर धर्म के बाह्याडंबरों पर उन्होंने गहरी और तीखी चोट की है तो दूसरी ओर आत्मा-परमात्मा के विरह-मिलन के भावपूर्ण गीत गाए हैं। कबीर शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को अधिक महत्त्व देते थे। उनका विश्वास सत्संग में था और वे मानते थे कि ईश्वर एक है, वह निर्विकार है, अरूप है।

कबीर की भाषा पूर्वी जनपद की भाषा थी। उन्होंने जनचेतना और जनभावनाओं को अपने सबद और साखियों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया।

कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE

ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ॥

कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।
ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥

सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥

बिरह भुवंगम तन बसै मन्त्र न लागै कोई।
राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई।।

निंदक नेडा राखिए आँगन कुटी बंधाई।
बिना सांबण पांणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥

पोथी पढि-पढि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखिर पीव का, पढै सो पंडित होइ॥

हम घर जाल्या आपणाँ लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥




गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि-गढि काढै खोट। अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।। (कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE)

कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE


गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि-गढि काढै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

कबीरदास ने उपर्युक्त दोहे में गुरू का महत्व समझाया है।

कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घडे के समान है। गुरू भीतर से हाथ का सहारा देकर बाहर से चोट मार मारकर साथ ही शिष्यों की बुराई को निकालते है। गुरु ही शिष्य के चरित्र का निर्माण करता है, गुरु के अभाव में शिष्य एक माटी का टुकड़ा ही होता है जिसे गुरु एक घड़े का आकार देते हैं, उसके चरित्र का निर्माण करते हैं। सत्गुरू ही शिष्य की बुराईयो कों दूर करके संसार में सम्माननीय बनाते है।

कठिन शब्दार्थ :

कुम्भ – घडा

गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट – गुरु कठोर अनुशासन किन्तु मन में प्रेम भावना रखते हुए शिष्य के खोट को (मन के विकारों को) दूर करते है।

बाहर बाहै चोट –बाहर चोट मारना



निंदक नेडा राखिए आँगन कुटी बंधाई। बिना सांबण पांणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥ (कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE)

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कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE


निंदक नेडा राखिए आँगन कुटी बंधाई।
बिना सांबण पांणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥

कबीरदास ने उपर्युक्त दोहे में वर्णन किया है कि निंदा करने वाले व्यक्तियों को अपने पास रखने की सलाह देते हैं ताकि आपके स्वभाव में सकारात्मक परिवर्तन आ सके।

कबीरदास जी कहते है कि निंदकों को आँगन में कुटिया बनाकर अपने निकट रखा जाए जिससे बिना साबुन और पानी के स्वभाव निर्मल होता रहेगा। पास स्थित निंदक दोष निकालेगा और निन्द्य व्यक्ति अपना परिमार्जन करता जाएगा। उस तरह वह बिना साबुन और पानी के ही निर्मल हो जाएगा।

कठिन शब्दार्थ :

निंदक - निंदा करने वाला

नेड़ा - निकट

आँगणि - आँगन

साबण - साबुन

निरमल - साफ़

सुभाइ - स्वभाव


पोथी पढि-पढि जग मुवा, पंडित भया न कोइ। एकै आखिर पीव का, पढै सो पंडित होइ॥ (कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE)

कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE


पोथी पढि-पढि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखिर पीव का, पढै सो पंडित होइ॥

कबीरदास ने उपर्युक्त दोहे में वास्त्विक ज्ञान और प्रेमतत्व का वर्णन किया है।

कबीरदास कहते है कि सारे संसार के लोग पुस्तक पढते-पढते मर गये कोई भी पंडित (वास्त्विक ज्ञान रखने वाला) नहीं हो सका। परन्तु जो अपने प्रिय परमात्मा के नाम का एक ही अक्षर जपता है (या प्रेम का एक अक्षर पढता है) वही सच्चा ज्ञानी (पंडित) होता है। वही परमात्मा का सच्चा भक्त होता है।

कठिन शब्दार्थ :

पोथी - पुस्तक

मुवा - मरना

भया - बनना

अषिर - अक्षर

पीव - प्रिय