मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि-गढि काढै खोट। अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।। (कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE)

कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE


गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि-गढि काढै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

कबीरदास ने उपर्युक्त दोहे में गुरू का महत्व समझाया है।

कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घडे के समान है। गुरू भीतर से हाथ का सहारा देकर बाहर से चोट मार मारकर साथ ही शिष्यों की बुराई को निकालते है। गुरु ही शिष्य के चरित्र का निर्माण करता है, गुरु के अभाव में शिष्य एक माटी का टुकड़ा ही होता है जिसे गुरु एक घड़े का आकार देते हैं, उसके चरित्र का निर्माण करते हैं। सत्गुरू ही शिष्य की बुराईयो कों दूर करके संसार में सम्माननीय बनाते है।

कठिन शब्दार्थ :

कुम्भ – घडा

गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट – गुरु कठोर अनुशासन किन्तु मन में प्रेम भावना रखते हुए शिष्य के खोट को (मन के विकारों को) दूर करते है।

बाहर बाहै चोट –बाहर चोट मारना