बुधवार, 15 दिसंबर 2021

राहुल-जननी | मैथिली शरण गुप्त | MAITHILI SHARAN GUPT | अबला-जीवन, हाय! तुम्हारी यही कहानी | आँचल में है दूध और आँखों में पानी!

राहुल-जननी 

मैथिली शरण गुप्त 

इस पद ‘यशोधरा' खंडकाव्य के 'राहुल-जननी' शीर्षक से लिये गये हैं। इनमें गुप्तजी ने यशोधरा के माता रूप और पत्नीरूप का उद्घाटन किया है।

राजकुमार गौतम मानव-जीवन के शाश्वत सत्य की खोज में क्षणभंगुर संसार को त्याग देते हैं। पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को बिना जगाए और बिना कुछ बताए रात को ही निकल जाते हैं। सुबह यशोधरा को यह पता चलता है। वह बहुत दु:खी होती है। कुछ देर बाद राहुल जाग पड़ता है और रोने लगता है। यशोधरा उसे चुप कराती हुई कहती है - ‘रे अभागे! तू अब क्यों रो रहा है? चुप जा। उनके जाते वक्त अगर तू रोता तो वे मुझे सोती छोड़कर क्यों चले जाते? हम दोनों ने तो सोकर उन्हें खो दिया। अब रोने से क्या फायदा? राहुल को और समझाती हुई यशोधरा कहती है 'बेटे! मेरे भाग्य में रोना तो लिखा है। मैं रोऊँगी। तेरे सारे कष्ट मिटाऊँगी। तू क्यों रोता है? तू हँसा कर। हमारे जीवन में जो कुछ आएगा, उसे सहना ही पड़ेगा। हमारे सुख के दिन अवश्य लौटेंगे। अब मैं तुझे अपना दूध पिलाकर और सारी स्नेह-ममता देकर पालूँगी। तेरे पिता के लिए आँसू बहाऊँगी। तुम दोनों के प्रति मुझे समान न्याय करना होगा। इसलिए पतिव्रता नारी बनकर मैंने पति की तरह सारे सुख-भोग त्याग दिये हैं।

चुप रह, चुप रह, हाय अभागे!

रोता है अब, किसके आगे?

तुझे देख पाता वे रोता,

मुझे छोड़ जाते क्यों सोता?

अब क्या होगा? तब कुछ होता,

सोकर हम खोकर ही जागे!



चुप रह, चुप रह, हाय अभागे!

बेटा, मैं तो हूँ रोने को;

तेरे सारे मल धोने को

हँस तू, है सब कुछ होने को.

भाग्य आयेंगे फिर भी भागे,

चुप रह, चुप रह, हाय अभागे!

तुझको क्षीर पिलाकर लूँगी,

नयन-नीर ही उनको दूँगी,

पर क्या पक्षपातिनी हूँगी?

मैंने अपने सब रस त्यागे।

चुप रह, चुप रह, हाय अभागे।

गुप्तजी ने पति वियोगिनी यशोधरा की मानसिक दशा का चित्रण किया है। यशोधरा के जरिये भारतीय नारी-जीवन की सच्चाई उपस्थापित की है। यशोधरा अपने अतीत और वर्तमान की तुलना करती है और कहती है कि जो कल इस राजमहल की रानी बनी हुई थी, वह आज दासी भी कहाँ है? अर्थात् यशोधरा अपने आपको दासी से भी पराधीन मानती है। नारी जीवन की यही वास्तविकता है कि आँखों में आँसू भरकर भी दूसरों के लिए कर्त्तव्य का सम्पादन करती चले। अंत में यशोधरा कहती है - 'हे मेरे शिशु संसार राहुल! तू मेरा दूध पीकर पलता चल और हे मेरे प्रभु (पतिदेव)! तुम तो मेरे आँसू के पात्र हो! इसे तुम स्वीकार करो ।'

चेरी भी वह आज कहाँ, कल थी जो रानी;

दानी प्रभु ने दिया उसे क्यों मन यह मानी?

अबला-जीवन, हाय! तुम्हारी यही कहानी

आँचल में है दूध और आँखों में पानी!

मेरा शिशु-संसार वह

दूध पिये, परिपुष्ट हो।

पानी के ही पात्र तुम

प्रभो, रुष्ट या तुष्ट हो।

मेरा नया बचपन | सुभद्रा कुमारी चौहान | SUBHADRA KUMARI CHAUHAN

मेरा नया बचपन 
सुभद्रा कुमारी चौहान 


‘मेरा नया बचपन' कविता चौहानजी के बचपन-संबंधी मनोभावों की एक झलक है। राष्ट्रीय कविताओं के अतिरिक्त सुभद्रा की वात्सल्य संबंधी कुछ कविताएँ भी अपनी स्वाभाविकता में अप्रतिम हैं। 'मेरा नया बचपन' कविता में कवयित्री ने अपने बचपन की याद की है। इसमें उनका मातृहृदय सजग हो उठा है। बचपन की सरल, मधुर स्मृतियाँ आनन्द का अतुलित भंडार होती हैं। कवयित्री ने अपनी बिटिया के बचपन की अठखेलियों और शरारतों में अपने ही बचपन की झलक देखी। उन्हें लगा कि उनका बचपन फिर से लौट आया है। वस्तुत: नारी-हृदय मातृत्व पाकर ही गौरवान्वित होता है। सुभद्राजी पूर्ण माता है।

बार-बार आती है मुझको

मधुर याद बचपन तेरी,

गया, ले गया तू, जीवन की,

सबसे मस्त खुशी मेरी।



चिंता रहित खेलना खाना,

वह फिरना निर्भय स्वच्छंद,

कैसे भूला जा सकता है

बचपन का अतुलित आनंद।

रोना और मचल जाना भी,

क्या आनंद दिखलाते थे,

बड़े-बड़े मोती-से आँसू,

जयमाला पहनाते थे।



मैं रोई, माँ काम छोड़कर

आई, मुझको उठा लिया,

झाड़-पोंछकर चूम चूमकर,

गीले गालों को सुखा दिया।

आ जा बचपन! एक बार फिर

दे दे अपनी निर्मल शांति,

व्याकुल व्यथा मिटाने वाली

वह अपनी प्राकृत विश्रांति।



वह भोली-सी मधुर सरलता

वह प्यारा जीवन निष्पाप,

क्या फिर आकर मिटा सकेगा

तू मेरे मन का संताप?



मैं बचपन को बुला रही थी,

बोल उठी बिटिया मेरी,

नंदन-वन-सी फूल उठी,

यह छोटी-सी कुटिया मेरी।



माँ ओ! कहकर बुला रही थी,

मिट्टी खाकर आई थी,

कुछ मुँह में, कुछ लिए हाथ में,

मुझे खिलाने आई थी।



मैंने पूछा- यह क्या लाई?

बोल उठी वह - माँ खाओ,

हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से,

मैंने कहा- तुम ही खाओ।



पाया मैंने बचपन फिर से

बचपन बेटी बन आया,

उसकी मंजुल मूर्ति देखकर,

मुझमें नव-जीवन आया।



मैं भी उसके साथ खेलती,

अब जाकर उसको पाया,

भाग गया था मुझे छोड़कर,

वह बचपन फिर से आया।



जिसे खोजती थी बरसों से,

खाती हूँ, तुतलाती हूँ,

मिलकर उसके साथ स्वयं, 

मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।

फिर महान बन | नरेन्द्र शर्मा | NARENDRA SHARMA

फिर महान बन - नरेन्द्र शर्मा 

मनुष्य अमृत की सन्तान है। अपनी महानता के कारण वह सबसे श्रेष्ठ प्राणी के रूप में परिचित है। लेकिन आज वह अपना कर्त्तव्य भूल गया है। अपने कर्त्तव्य पर सचेतन होने के लिए कवि ने इस कविता में सलाह दी है। मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने के लिए, संसार को स्वर्ग बनाने के लिए यह कवि की चेतावनी है। कवि ने मनुष्य को फिर महान बनने की प्रेरणा दी है।

फिर महान बन, मनुष्य!

फिर महान बन।

मन मिला अपार प्रेम से भरा तुझे,

इसलिए कि प्यास जीव-मात्र की बुझे,

विश्व है तृषित, मनुष्य, अब न बन कृपण।

फिर महान बन।

शत्रु को न कर सके क्षमा प्रदान जो,

जीत क्यों उसे न हार के समान हो?

शूल क्यों न वक्ष पर बनें विजय-सुमन!

फिर महान बन।

दुष्ट हार मानते न दुष्ट नेम से,

पाप से घृणा महान है, न प्रेम से

दर्प-शक्ति पर सदैव गर्व कर न, मन।

फिर महान बन।

मंगलवार, 14 दिसंबर 2021

प्रियतम | सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला' | SURYAKANT TRIPATHI NIRALA | PRIYATAM

प्रियतम 
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला' 

भगवान विष्णु किसान को अपना सबसे बड़ा भक्त मानते हैं। नारदजी को यह बात अच्छी नहीं लगती और वे नम्रतापूर्वक उसका विरोध करते हैं। भगवान् नारद जी की परीक्षा लेते हैं जिसमें वे सफल नहीं हो पाते। अन्त में नारदजी अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं। निराला जी प्रस्तुत कविता के जरिए यह संदेश देना चाहते हैं कि कर्म ही ईश्वर है। इसलिए हर एक व्यक्ति को कर्म करना चाहिए। कर्म से निवृत्त रहकर सिर्फ भगवान का नाम लेने से कोई आगे नहीं बढ़ सकता या ईश्वरीय सान्निध्य प्राप्त नहीं कर सकता। कर्म करते हुए तथा सारी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए भी भगवान का नाम नहीं भूलना चाहिए।

एक दिन विष्णु के पास गये नारदजी,

पूछा, 'मृत्युलोक में वह कौन है पुण्यश्लोक

भक्त तुम्हारा प्रधान'?

विष्णुजी ने कहा

'एक सज्जन किसान है, प्राणों से प्रियतम।'

नारद कहा, ‘मैं उसकी परीक्षा लूँगा'।

हँसे विष्णु सुनकर यह, कहा कि 'ले सकते हो।'

नारदजी चल दिये, पहुँचे भक्त के यहाँ,

देखा, हल जोत कर आया वह दुपहर को;

दरवाजे पहुँचकर रामजी का नाम

स्नान-भोजन करके, फिर चला या काम पर।

शाम को आया दरवाजे, नाम लिया,

प्रातः काल चलते समय एक बार फिर उसने

मधुर नाम स्मरण किया।

'बस केवल तीन बार' नारद चकरा गये।

दिवा-रात्रि जपते हैं नाम ऋषि-मुनि लोग

किन्तु भगवान को किसान ही यह याद आया!

गये वे विष्णुलोक, बोले भगवान् से,

'देखो किसान को,

दिन भर में तीन बार नाम उसने लिया है।'

बोले विष्णु 'नारदजी'!

आवश्यक दूसरा काम एक आया है,

तुम्हें छोड़कर कोई और नहीं कर सकता।

साधारण विषय यह, बाद को विवाद होगा,

तब तक यह आवश्यक कार्य पूरा कीजिये,

तैल-पूर्ण पात्र यह लेकर,

प्रदक्षिणा कर आइए भूमण्डल की

ध्यान रहे सविशेष,

एक बूँद भी इससे तेल न गिरने पाए।'

लेकर चले नारदजी, आज्ञा पर धृतलक्ष्य।

एक बूँद तेल इस पात्र से गिरे नहीं।

योगिराज जल्द ही

विश्व-पर्यटन करके लौटे वैकुण्ठ को।

तेल एक बूँद भी उस पात्र से गिरा नहीं।

उल्लास मन में भरा था यह सोचकर,

तेल का रहस्य एक अवगत होगा नया।

नारद को देखकर विष्णु भगवान् ने

बैठाया स्नेह से कहा,

‘बतलाओ पात्र लेकर जाते समय कितनी बार

नाम इष्ट का लिया?'

'एक बार भी नहीं,

शंकित हृदय से कहा नारद ने विष्णु से,

'काम तुम्हारा ही था,

ध्यान उसीसे लगा, नाम फिर क्या लेता और'?

विष्णु ने कहा, 'नारद'!

उस किसान का भी काम मेरा दिया हुआ है,

उत्तरदायित्व कई लदे हैं एक साथ,

सबको निभाता और काम करता हुआ,

नाम भी वह लेता है, इसी से है प्रियतम।

नारद लज्जित हुए, कहा, 'यह सत्य है।'

रविवार, 12 दिसंबर 2021

सरदार वल्लभभाई पटेल VALLABHBHAI PATEL

सरदार वल्लभभाई पटेल 

मुंबई की एक सभा में सिंह की तरह गरजते हुए एक देशभक्त ने कहा था कि, "अंग्रेज भारत को जितनी जल्दी आजाद कर दें, उतना ही अच्छा। यदि देरी की गई, तो यह उन्हीं के लिए खराब बात होगी।" यह सिंह गर्जना करने वाले व्यक्ति थे लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल।

वल्लभभाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के पेटलाद तालुके के करमसद गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम झबेर भाई पटेल और माता का नाम लाड़बाई था। झबेर भाई किसान थे।

सरदार पटेल के बचपन की एक घटना है। उनकी आँख के पास एक फोड़ा निकल आया। बहुत दवा दी गई पर ठीक न हुआ। किसी व्यक्ति ने सलाह दी कि लोहे की सलाख खूब गर्म करके फोड़े में धँसा दी जाए तो फोड़ा फूट जाएगा। सलाख गर्म की गई किंतु किसी में यह साहस न होता था कि गरम सलाख को फोड़े में धँसाए। भय यह था कि कहीं आँख में न लगे। इस पर बालक वल्लभ ने कहा, "देखते क्या हो, सलाख ठंडी हो रही है।" और फिर स्वयं ही उसे लेकर फोड़े में धँसा दिया। बालक के इस साहस को देखकर उपस्थित लोगों ने कहा कि यह बालक आगे चलकर बहुत ही साहसी होगा। बाईस वर्ष की उम्र में उन्होंने नाडियाद स्कूल से मैट्रिक परीक्षा पास की। फिर मुख्तारी परीक्षा पास करके गोधरा में मुख्तारी करने लगे।

कुछ समय बाद वल्लभभाई वकालत पढ़ने के लिए विदेश चले गए। जहाँ वह रहते थे, वहाँ से पुस्तकालय ग्यारह मील दूर था। वह नित्य प्रति सवेरे उठकर उस पुस्तकालय में जाते और शाम को पुस्तकालय के बंद होने पर ही वहाँ से उठते। अपने इसी अध्ययन के फलस्वरूप वह उस साल वकालत की परीक्षा में सर्वप्रथम रहे। इस पर उन्हें पचास पौंड का पुरस्कार भी मिला।

विदेश से लौटकर वह अहमदाबाद में वकालत करने लगे और थोड़े ही समय में अत्यंत प्रसिद्ध हो गए। इसी समय वह गांधी जी के संपर्क में आए। उन्होंने वकालत छोड़ दी और पूरी तरह तन-मन-धन से देश की सेवा में जुट गए।

सर्वप्रथम वल्लभभाई ने गोधरा में हुए प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन में गुजरात की बेगार-प्रथा को समाप्त करने के लिए एक प्रस्ताव पास कराया। इस सम्मेलन में पहली बार भारतीय भाषाओं का प्रयोग किया गया। वल्लभभाई के प्रयासों के फलस्वरूप गैरकानूनी बेगार प्रथा बंद हो गई। वल्लभभाई ने नागपुर के झंडा सत्याग्रह का नेतृत्व भी किया। इस सत्याग्रह के कारण अंग्रेज सरकार को समझौते के लिए झुकना पड़ा। इस सत्याग्रह के बाद उनका नाम सारे भारत में फैल गया।

सन् 1927 में बारदोली का प्रसिद्ध सत्याग्रह शुरू हुआ। किसानों पर सरकार ने लगान की दर बढ़ा दी। किसान वल्लभभाई के पास गए। इस तरह उनके नेतृत्व में आंदोलन प्रारंभ हो गया। उन्होंने गाँव वालों को इस तरह संगठित किया कि लगान मिलना तो दूर, गाँवों में अंग्रेज अफसरों को भोजन, रिहाइश और सवारी तक मिलना मुश्किल हो गया।

इस में बहुत अत्याचार किए। गरीब किसानों के घरों के ताले फौज के जरिए तुड़वाकर, सामान जब्त करके मालगुजारी वसूल करने की कोशिश की गई पर सरकारी खजाने में एक कौड़ी भी जमा न हुई। हजारों लोग जेल गए। उनकी गाय, भैंस तक जब्त कर ली गई पर उन्होंने सिर न झुकाया । यहाँ तक कि जब्त किए गए सामान को उठाने वाला कोई मजदूर नहीं मिलता था और न जब्त की गई जायदाद की नीलामी में बोली लगाने वाला कोई आदमी। महीनों तक यही हाल रहा। अंत में सरकार को झुकना पड़ा।

सन् 1929 में लाहौर में पूर्ण स्वराज्य की माँग की गई। अंग्रेज सरकार ने इसे नहीं माना। गांधी जी ने फिर से सत्याग्रह का नारा दिया और 12 मार्च को प्रसिद्ध डांडी यात्रा शुरू कर दी। इसके बाद 6 अप्रैल को नमक कानून तोड़कर उन्होंने नमक सत्याग्रह आरंभ किया। सरदार पटेल ने इस सत्याग्रह में भाग लिया। वह गिरफ्तार कर लिए गए और उनको तीन माह की कैद और 500 रु0 जुर्माने की सजा दी गई। सरदार पटेल ने जुर्माना स्वीकार न कर उसके स्थान पर तीन सप्ताह और जेल में ही काटे ।

सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। अंग्रेज सरकार ने अपनी ओर से भारत के इस युद्ध में शामिल होने की घोषणा कर दी। इसका सर्वत्र विरोध हुआ। सरदार पटेल 17 नवम्बर 1940 को व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तार हुए, पर स्वास्थ्य खराब होने के कारण नौ महीने बाद रिहा कर दिए गए। 'भारत छोड़ो' आंदोलन के सिलसिले में अगस्त 1942 में वह फिर गिरफ्तार किए गए। अन्य सभी नेताओं के साथ 15 जून 1945 को वह भी छोड़े गए।

15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ। सरदार पटेल ने गृहमंत्री का कार्यभार सँभाला। स्वतंत्रता के बाद देश के सामने कई समस्याएँ आईं। सरदार पटेल ने अपनी सूझबूझ से इन सभी पर काबू पा लिया।

जिस कार्य के लिए सरदार पटेल को सदैव याद किया जाएगा, वह था देशी रियासतों का एकीकरण । जब अंग्रेज भारत छोड़कर जाने लगे तो देशी रियासतों को यह आजादी दे गए कि वह चाहें तो आजाद रह सकते हैं, चाहें तो भारत या पाकिस्तान में मिल जाएँ। सरदार पटेल ने इस विकट समस्या को अपनी दृढ़ता और सूझबूझ हल कर दिखाया और लगभग 600 रियासतों को भारतीय संघ का अटूट अंग बनाकर भारत के मानचित्र को नवीन स्वरूप प्रदान किया। संपूर्ण भारत में एकता स्थापित हो गई, इसलिए उन्हें भारत का लौहपुरुष कहा जाता है।

सरदार पटेल स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् केवल ढाई वर्ष जीवित रहे। वह अंतिम समय तक कठिन परिश्रम करते रहे। 15 दिसम्बर 1950 को दिल के दौरे से मुंबई (बंबई) में उनका निधन हो गया। भारत निर्माण में सरदार वल्लभ भाई के अविस्मरणीय योगदान के कारण वर्ष 1991 में भारत के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। सरदार पटेल की सफलता का मूल मंत्र था कर्तव्यपालन और कठोर अनुशासन। अपने पचहत्तरवें जन्म दिवस पर उन्होंने राष्ट्र को संदेश दिया था- "उत्पादन बढ़ाओ, खर्च घटाओ और अपव्यय बिल्कुल न करो।"

लाल बहादुर शास्त्री LAL BAHADUR SHASTRI

लाल बहादुर शास्त्री 

बच्चो! आप के विद्यालय में दो अक्टूबर को दो महान विभूतियों का जन्मदिन मनाया जाता है - एक मोहन दास करमचंद गांधी और दूसरे 'जय जवान जय किसान' का नारा देने वाले लाल बहादुर शास्त्री। लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 ई० को मुगलसराय (तत्कालीन वाराणसी वर्तमान चंदौली) के साध्ररण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम शारदा प्रसाद तथा माता का नाम रामदुलारी देवी था। मात्र डेढ़ वर्ष की अवस्था में पिता का देहांत हो जाने के कारण अनेक अभावों और कठिनाइयों को झेलते हुए वे जीवन पथ पर आगे बढ़े। वे स्वतंत्र भारत के पहले रेल मंत्री बने। उसके बाद उद्योग मंत्री तथा स्वराष्ट्र मंत्री भी बने। जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद ये सर्वसम्मति से भारत के दूसरे प्रधानमंत्री भी बने।

देशवासियों के स्वाभिमान को जगाने वाले महान लोकप्रिय नेता लाल बहादुर शास्त्री का निधन 10 जनवरी 1966 को ताशकंद (रूस) में हुआ था।

लाल बहादुर शास्त्री जी का व्यक्तित्व बहुत ही व्यावहारिक एवं संतुलित था। वे जो कहते थे, उसे पहले स्वयं करते थे। इसका उल्लेख उनके जीवन की कई घटनाओं में मिलता है। आइए, उनमें से कुछ प्रसंगों के बारे में जानें -

प्रसंग - 1

शास्त्री जी उन दिनों रेलमंत्री थे। एक बार उन्हें बनारस के पास सेवापुरी जाना पड़ा। छोटे कद का होने के कारण शास्त्री जी को गाड़ी से प्लेटफार्म पर उतरने में काफी दिक्कत हुई। यह देखकर वहाँ खड़ी कुछ औरतें हँस कर कहने लगीं कि अब महसूस हो रहा होगा कि महिलाओं को प्लेटफार्म पर उतरते समय कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। प्लेटफार्म पर पहुँचते ही शास्त्री जी ने स्टेशन मास्टर को बुलाया और उनसे कहा एक फावड़े का इंतजाम कर सकते हैं? फावड़ा तुरंत लाया गया। शास्त्री जी ने फावड़ा लेकर क्या वे उस नीचे प्लेटफार्म के दूसरी ओर जमीन खोदनी शुरू कर दी और मिट्टी प्लेटफार्म पर डालने लगे। यह देखकर वहाँ जो लोग खड़े थे वे भी फावड़ा और उसी तरह की चीजें ले आए।

शास्त्री जी का अनुसरण करने लगे। सभी को तब सुखद अचरज हुआ, जब तीन घंटों के अंदर वह नीचा प्लेटफार्म मानक स्तर तक ऊँचा बन गया।

प्रसंग - 2

यह प्रसंग भी उस समय का है, जब शास्त्री जी रेलमंत्री थे और सरकारी काम से इलाहाबाद जा रहे थे। शास्त्री जी की कार रेल फाटक से थोड़ी ही दूर थी कि लाइनमैन ने फाटक बंद कर दिया। शास्त्री जी के स्टाफ का एक सदस्य लाइनमैन की ओर दौड़कर गया और उससे कहा कि कार में रेलमंत्री बैठे हैं, तुम तुरंत फाटक खोल दो। लाइनमैन ने फाटक खोलने से साफ मना कर दिया और बोला कि मैं नहीं जानता कि कौन रेलमंत्री है और कौन प्रधानमंत्री। मैं अपनी ड्यूटी कर रहा हूँ। जब आने वाली गाड़ी गुजर जाएगी, फाटक खोल दूँगा। स्टाफ के अफसर ने लौटकर कहा” श्रीमान्, वह आदमी बड़ा जिद्दी है। उसके

विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए।" दूसरे दिन जब लाइनमैन की तरक्की कर उसे आगे का ग्रेड दिया गया तो सभी लोग अचंभे में पड़ गए।

प्रसंग - 3

यह प्रसंग उन दिनों का है जब शास्त्री जी प्रधानमंत्री थे। एक बार उनका ड्राइवर सुबह निश्चित समय पर नहीं आया। उन्होंने कुछ समय प्रतीक्षा की फिर हाथ में फाइल लेकर पैदल ही दफ्तर की ओर चल दिए। उनका दफ्तर घर से करीब एक किलोमीटर दूर था। इस बात से सचिवालय में हड़कंप मच गया। ड्राइवर से जवाब तलब किया गया। जवाब में उसने कहा कि एकाएक उसका छोटा बच्चा गंभीर रूप से बीमार हो गया था और उसे भागकर डॉक्टर के पास जाना पड़ा। शिकायती फाइल जब शास्त्री जी के पास पहुँची तो उन्होंने उस पर टिप्पणी लिखी कि “उसके लिए उसके बेटे के जीवन का महत्व और किसी भी कार्य से अधिक महत्वपूर्ण है।"

प्रसंग-4

यह घटना उस समय की है, जब शास्त्री जी प्रधानमंत्री थे। एक दिन खाने की मेज पर परिवार के सभी सदस्य बहुत गंभीर थे और बिना कुछ बोले चुपचाप खाना खा रहे थे। जब शास्त्री जी ने इस बारे में पूछा तो भी वे चुप रहे। उनके जोर देने पर उनके बेटे ने कहा "बाबू जी, आजकल आप हमें बहुत कम समय देते हैं।" शास्त्री जी ने जवाब दिया "तुम जानते हो कि प्रधानमंत्री बनने के पहले सिर्फ तुम लोग ही मेरे परिवार के सदस्य थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद यह पूरा देश मेरा परिवार है। अगर इसे ध्यान में रखें तो तुम्हारे साथ जो समय बीतता है, वह देश के करोड़ों लोगों के साथ बीतने वाले समय के अनुपात की दृष्टि से बहुत ज्यादा है।"

प्रसंग - 5

शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के फौरन बाद एक विपक्षी दल ने प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन की अगुवाई महिलाएं कर रही थीं। अनेक महिलाएं अपनी गोद में बच्चे लिए हुए थीं। प्रधानमंत्री आवास के सामने पहुँच कर उन्होंने बहुत ऊँची आवाज में चिल्लाना शुरू कर दिया। तेज गरमी के कारण प्रदर्शन करने वाले पसीना-पसीना हो रहे थे। एकाएक शास्त्री जी उठ खड़े हुए। उन्होंने एक ट्रे उठाई, उसमें गिलास रखे और वाटर कूलर के पास जाकर एक-एक करके उनमें पानी भरा। इसके बाद वे हाथ में ट्रे लेकर फाटक की ओर चल दिए। सुरक्षा बलों ने मदद देने को कहा लेकिन उन्होंने सख्ती से मना कर दिया।

वे सीधे एक महिला प्रदर्शनकारी के पास पहुँचे। महिला की गोद में एक छोटा सा बच्चा था जो रो रहा था। उन्होंने पिता की तरह महिला को डाँटते हुए कहा," तुम इस छोटे बच्चे की माँ हो। क्या तुम्हें यह नहीं मालूम कि यह बच्चा प्यासा है, इसीलिए रो रहा है ?" उन्होंने बच्चे को अपनी गोद में लिया और ट्रे माँ के हाथ में पकड़ा दी। फिर एक गिलास उठाया और बच्चे को पानी पिलाने लगे। महिलाओं ने उनके पैर छूने शुरू कर दिए। कुछ ही क्षणों में भीड़ हटने लगी और लोगों को यह बिल्कुल याद न रहा कि वे वहाँ किस उद्देश्य से आए थे। जब सिर्फ चार-पाँच आदमी बच गए तब शास्त्री जी ने उनसे अनुरोध किया कि वे अंदर चलें और इस संबंध में बातचीत करें।

मैं सबसे छोटी होऊँ | कविता | सुमित्रानंदन पंत | SUMITRANANDAN PANT

मैं सबसे छोटी होऊँ  
सुमित्रानंदन पंत

इस कविता में एक छोटी बच्ची के माध्यम से माँ के प्रति प्रेम और स्नेह को प्रस्तुत किया गया है, छोटी बच्ची कामना करती है कि वह अपनी माँ के आँचल से कभी अलग नहीं हो। छोटी बच्ची अपनी माँ की सबसे छोटी संतान बनने की इच्छा रखती है। वह सदा अपनी माँ का प्यार और दुलार पाती रहेगी। उसकी गोद में खेल पाएगी। उसकी माँ हमेशा उसे अपने आंचल में रखेगी, उसे कभी अकेला नहीं छोड़ेगी। सबसे छोटी होने से उसकी माँ उसे अपने हाथ से नहलाएगी, सजाएगी और संवारेगी। वह कभी बड़ी नहीं होना चाहती क्योंकि इससे वह अपनी माँ का सुरक्षित और स्नेह से भरा आँचल खो देगी।

मैं सबसे छोटी होऊँ,

तेरी गोदी में सोऊँ,


तेरा अंचल पकड़-पकड़कर

फिरूँ सदा माँ! तेरे साथ,

कभी न छोडूँ तेरा हाथ!


बड़ा बनाकर पहले हमको

तू पीछे छलती है मात!

हाथ पकड़ फिर सदा हमारे

साथ नहीं फिरती दिन-रात!


अपने कर से खिला, धुला मुख,

धूल पोंछ, सज्जित कर गात,

थमा खिलौने, नहीं सुनाती

हमें सुखद परियों की बात!


ऐसी बड़ी न होऊँ मैं

तेरा स्नेह न खोऊँ मैं,

तेरे अंचल की छाया में

छिपी रहूँ निस्पृह, निर्भय,

कहूँ-दिखा दे चंद्रोदय!

काटे कम से कम मत बोओ | रामेश्वर शुक्ल अँचल | RAMESHWAR SHUKLA ‘ANCHAL’

काटे कम से कम मत बोओ 

रामेश्वर शुक्ल अँचल 


इस कविता में - दुःख के विपरीत सुख, रुदन के विपरीत जागृति, संशय के विपरीत विश्वास पर बल दिया है। अंत में कवि संदेश देते हैं कि यदि किसी की भलाई या अच्छाई नहीं कर सकते हों, तो कम से कम उसके साथ बुराई से पेश मत आओ। फूल नहीं तो कम से कम काटे तो मत बोओl

यदि फूल नहीं बो सकते तो काँटे कम से कम मत बोओ

है अगम चेतना की घाटी, कमजोर बदा मानव का मन,

मसता ममता की शीतल छाया में, होता कटुता का स्वयं शमन!

ज्वालाएँ जब घुल जाती हैं, खुल-खुल जाते हैं मुँदे नयन,

होकर निर्मलता में प्रशांत, बहता प्राणों का क्षुब्ध पवन।

संकट में यदि मुसका न सको, भय से कातर हो मत रोओ।

यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।



हर सपने पर विश्वास करो, ती लगा चांदूती का चंदन,

मत याद करो, मत सोचो-ज्वाला में कैसे बिता जीवन

इस दुनिया की है रीति यही-सहत तन, बहता है मन

सुख की अभिमानी मदिरा में, जग सका, वह है चेतन

इसमें तुम जाग नहीं सकते, तो सेज बिछाकर मत सोओ।

यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।



पग-पग पर शोर मचाने से, मन में संकल्प नहीं जमता,

अनसुना-अचीन्हा करने से, संकट का वेग नहीं कमता,

संशय के सूक्ष्म कुहासे में, विश्वास नहीं क्षण भर रमता,

बादल के घेरों में भी तो जय घोष न मारुत का थमता!

- यदि बढ़ न सको विश्वासों पर, साँसों से मुरदे मत ढोओ;

यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।

जन्म-दिवस - रूपनारायण त्रिपाठी | RUPNARAYAN TRIPATHI

जन्म-दिवस - रूपनारायण त्रिपाठी 

यह देश की आजादी के जन्म दिवस पर लिखी कविता है। कवि चाहते हैं कि देश के नवयुवक, इस अवसर पर खुशियाँ मनाएँ और देश के प्रति अपने कर्तव्य को समझकर देश के नव-निर्माण में अपना सहयोग दें।


घर-घर मंगल-दीप जलाओ, उजियाली का रास-रचाओ।

सदियों का तम हरनेवाली नई किरण का जन्म-दिवस है।।

यह वह दिन है जब अपने को, अपना वातावरण मिला था।

अपने पौरुष के पुष्कर में, स्वतंत्रता का कमल खिला था।

विहगो! गीत खुशी के गाओ, भँवरो! जीवन-बीन बजाओ।

आज तुम्हारी फुलबगिया में, नये सुमन का जन्म दिवस है।।

बजी चेतना की शहनाई, जगा राह का तिनका-तिनका।

लहर-लहर ने ली अंगडाई, महका फूल सुनहरे दिन का।

सागर, सरिता, वन, उपवन में, अपनी धरती और गगन में।

आज हिमाचल के आँगन में नई लगन का जन्म-दिवस है।।

सदियों की उदास बेंसी में, जगा मुक्ति का गीत सुनहरा।

सपनों की प्यासी बाहों में, विश्वासों का बादल उतरा ।।

उजियाली के राजकुमारो, नई राह के सिरजनहारो,

आज तुम्हारी स्वतन्त्रता के पहले क्षण का जन्म-दिवस है।।

तुम्हें शपथ हर बुझे दीप की, उजियाली को नई उमर दो।

सदियों की उजड़ी बगिया को, नये-नये फूलों से भर दो ।।

श्रम की नूतन ऋचा सँवारो, पौरुष की आरती उतारो,

आज देश की नव रचना के अभिनव प्रण का जन्म-दिवस है।

वीरांगना चेन्नम्मा | VEERANGANA CHENNAMMA

वीरांगना चेन्नम्मा 

VEERANGANA CHENNAMMA


छात्र कर्नाटक की वीर महिला चैन्नम्मा की देशभक्ति का परिचय प्राप्त करते हैं। अंग्रेज़ों की अनेक कोशिशों के बाद भी कित्तूर को चेन्नम्मा ने बचाया। लेकिन चेन्नम्मा के बंदी बन जाने के कारण कित्तूर अंग्रेज़ों के वश में गया। चेन्नम्मा जैसी वीर महिला के कारण कर्नाटक गर्व का अनुभव करता है।

18 वीं शताब्दी में सत्तालोलुप अंग्रेज़ों को नाकों चने चबानेवाली सर्वप्रथम भारतीय वीरांगना चेन्नम्मा थी। चेन्नम्मा का जन्म काकतीय वंश में सन् 1778 में हुआ था। उनके पिता का नाम धूलप्पा देसाई और माता का नाम पद्मावती था। एक तो इकलौती, फिर रूपवती और स्वस्थ। चेन्नम्मा शब्द का अर्थ ही है सुन्दर महिला। उनकी शिक्षा-दीक्षा राजकुल के अनुरूप ही हुई। घुड़सवारी, शस्त्रास्त्रों का अभ्यास, आखेट आदि युद्ध कलाएँ उन्हें अपने वीर पिता से प्राप्त हुई। अपने जंगमगुरु के मार्गदर्शन में उन्होंने उर्दू, मराठी और संस्कृत भाषाओं का अध्ययन किया।

कित्तूरु कर्नाटक राज्य के उत्तरी बेलगावी जिले में है। उन दिनों कित्तूर कर्नाटक राज्य के व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र भी था। देश-विदेश के व्यापारी वहाँ के बाज़ारों में हीरे-जवाहरातें खरीदने के लिए आया करते थे। ऐसे समृद्ध राज्य के प्रजावत्सल राजा मल्लसर्ज थे। चेन्नम्मा के माता-पिता ने बड़े हौसले से उनका विवाह राजा मल्लसर्ज के साथ कर दिया।

रानी चेन्नम्मा कित्तूरु के राजमहल में सुख से रहने लगी। उनकी कोख से एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ, जिसका नाम था शिवबसवराज। लेकिन बचपन में ही उसकी मृत्यु हुई। राजा मल्लसर्ज की पहली पत्नी थी रुद्रम्मा। पूना के पटवर्दन ने मल्लसर्ज को चालाकी से बन्दी बना लिया। वहीं उनकी मृत्यु हो गई। मल्लसर्ज की मृत्यु के बाद चेन्नम्मा ने रुद्रम्मा के पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज को गद्दी पर बिठाया। शिवलिंग रुद्रसर्ज ने चेन्नम्मा की सलाह को हवा में उड़ाकर चाटुकारों से गहरी मित्रता कर ली, जिससे कित्तूर का पतन शुरू हुआ।

राजा शिवलिंग रुद्रसर्ज की मृत्यु 11 सितंबर 1824 को हुई। इसे अंग्रेज़ों ने कित्तूरु राज्य को हड़पने का बड़ा अच्छा अवसर समझा। राजा निःसन्तान मरा था। उसने अपने एक संबधी गुरुलिंग मल्लसर्ज को गोद लिया था। लेकिन अंग्रेज़ गोद लिए पुत्र को उत्तराधिकारी नहीं मानते थे। उस समय डालहौसी गवरनर जनरल थे। ऐसे अवसर पर रानी चेन्नम्मा ने कित्तूरु राज्य को सँभालकर रक्षा करने की कसम खाई।

कित्तूरु राज्य में अंग्रेज़ी सैनिकों के प्रवेश से रानी चेन्नम्मा का रक्त खौल उठा, लेकिन उस समय वे कुछ नहीं कर सकीं। अंग्रेज़ों से लोहा लेने के लिए उन्होंने भीतर ही भीतर तैयारी आरंभ कर दी। अंग्रेज़ी प्रतिनिधी थैकरे ने रानी चेन्नम्मा को भाँति-भाँति के सन्देश भेजे। मगर रानी अपनी स्वाधीनता का सौदा करने पर राज़ी न हुई। इसी समय थैकरे को कित्तूरु राज्य के येल्लप्पशेट्टी और वेंकटराव नामक देशद्रोही मिल गये। वे कित्तूरु का नमक खाकर कित्तूरु की जड़ खोदने में लगे हुए थे। थैकरे ने उन्हें कित्तूरु का आधा-आधा राज्य सौंप देने की लालच दिखायी। बदले में वे कित्तूरु के सभी भेद खोलने और भरसक सहायता करने को तैयार हो गये। दोनों ने कित्तूरु का शासनभार संभालने का परवाना लेकर चेन्नम्मा को दिया। उसे पढ़ते ही चेन्नम्मा ने थैकरे का पत्र टुकड़े-टुकड़े करते हुए कहा "हमने गोद लेकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध कोई षड्यंत्र नहीं रचा है। गोद लेना हमारा अधिकार है, इसे थैकरे नहीं रोक सकता। हमारे घरेलू मामलों में बोलनेवाला वह है ही कौन? कित्तूर स्वतंत्र राज्य है और तब तक रहेगा जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं।" यह फटकार सुनते ही दोनों देशद्रोही अपना-सा मुँह लेकर चले गये। कित्तूरु में गुरुसिद्धप्पा जैसे कुशल दीवान और वालण्णा, रायण्णा, गजवीर और चेन्नवसप्पा जैसे वीर योद्धा भी थे, जिनके रहते कित्तूरु के लिए कोई खतरा न था।

कित्तूरु की जनता अंग्रेज़ों की चाल से भली-भांति परिचित थी। थैकरे स्वयं बड़ी सेना लेकर कित्तूरु आ पहुँचा। किंतु रानी उससे नहीं डरीं। थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ कित्तूरु के किले पर चढ़ाई करने की आज्ञा दे दी। रानी ने वीर सैनिकों को युद्ध के लिए ललकारते हुए कहा - “मातृभूमि के सपूतो! अपने प्राणों की बाजी लगाकर हम अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हैं। अंग्रेज़ इसे हमसे बलपूर्वक छीनना चाहते हैं, लेकिन इसे हम कैसे छोड़ सकते हैं? यह हमें अपने पूर्वजों से मिली है।

उधर थैकरे ने घमकी दी कि, "बीस मिनट में आत्मसमर्पण कर दिया जाय, नहीं तो किला तहस-नहस कर दिया जाएगा।” कुछ समय बाद मर्दानी वेश में रानी चेन्नम्मा शेरनी की भाँति अंग्रेज़ों की सेना पर टूट पड़ी। उनके पीछे दो हज़ार योद्धा थे। भयानक युद्ध हुआ। अंग्रेज़ों की सेना इस प्रवाह को सह न सकी। वह भाग खड़ी और थैकरे मारा गया । देशद्रोहियों का काम तमाम कर दिया गया। बंदी गोरे अंग्रेज़ अफसरों के साथ उदारता का व्यवहार किया गया और उन्हें छोड़ दिया गया। लेकिन यह विजय बहुत दिनों तक न रही।

कुछ ही समय के बाद अंग्रेज़ों ने कित्तूरु राज्य पर फिर आक्रमण किया। अब अंग्रेज़ी सेना अधिक थी। लेकिन कित्तूरु के वीर सैनिकों के सम्मुख उसे माननी पड़ी। फिर एक बार अंग्रेज़ों ने सारी शक्ति लगाकर घेरा डाला। इस युद्ध दुबारा हार में रणचण्डी चेन्नम्मा बंदी बना ली गईं। अंग्रेज़ों ने कित्तूरु को लूटा। वहाँ कुछ भी न बचा। चेन्नम्मा को बैलहोंगला के दुर्ग में कारागार में डाल दिया गया। बंदीगृह में ही 2 फरवरी 1829 को चेन्नम्मा की जीवन ज्योति सदा के लिए बुझ गई।

यह कर्नाटक जनता के लिए गर्व की बात है कि कर्नाटक की वीरांगना चेन्नम्मा ने पहली बार स्वतंत्रता की जो चिनगारी डाली थी, बाद में वह सारे भारत में फैल गई।