रविवार, 12 दिसंबर 2021

सरदार वल्लभभाई पटेल VALLABHBHAI PATEL

सरदार वल्लभभाई पटेल 

मुंबई की एक सभा में सिंह की तरह गरजते हुए एक देशभक्त ने कहा था कि, "अंग्रेज भारत को जितनी जल्दी आजाद कर दें, उतना ही अच्छा। यदि देरी की गई, तो यह उन्हीं के लिए खराब बात होगी।" यह सिंह गर्जना करने वाले व्यक्ति थे लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल।

वल्लभभाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के पेटलाद तालुके के करमसद गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम झबेर भाई पटेल और माता का नाम लाड़बाई था। झबेर भाई किसान थे।

सरदार पटेल के बचपन की एक घटना है। उनकी आँख के पास एक फोड़ा निकल आया। बहुत दवा दी गई पर ठीक न हुआ। किसी व्यक्ति ने सलाह दी कि लोहे की सलाख खूब गर्म करके फोड़े में धँसा दी जाए तो फोड़ा फूट जाएगा। सलाख गर्म की गई किंतु किसी में यह साहस न होता था कि गरम सलाख को फोड़े में धँसाए। भय यह था कि कहीं आँख में न लगे। इस पर बालक वल्लभ ने कहा, "देखते क्या हो, सलाख ठंडी हो रही है।" और फिर स्वयं ही उसे लेकर फोड़े में धँसा दिया। बालक के इस साहस को देखकर उपस्थित लोगों ने कहा कि यह बालक आगे चलकर बहुत ही साहसी होगा। बाईस वर्ष की उम्र में उन्होंने नाडियाद स्कूल से मैट्रिक परीक्षा पास की। फिर मुख्तारी परीक्षा पास करके गोधरा में मुख्तारी करने लगे।

कुछ समय बाद वल्लभभाई वकालत पढ़ने के लिए विदेश चले गए। जहाँ वह रहते थे, वहाँ से पुस्तकालय ग्यारह मील दूर था। वह नित्य प्रति सवेरे उठकर उस पुस्तकालय में जाते और शाम को पुस्तकालय के बंद होने पर ही वहाँ से उठते। अपने इसी अध्ययन के फलस्वरूप वह उस साल वकालत की परीक्षा में सर्वप्रथम रहे। इस पर उन्हें पचास पौंड का पुरस्कार भी मिला।

विदेश से लौटकर वह अहमदाबाद में वकालत करने लगे और थोड़े ही समय में अत्यंत प्रसिद्ध हो गए। इसी समय वह गांधी जी के संपर्क में आए। उन्होंने वकालत छोड़ दी और पूरी तरह तन-मन-धन से देश की सेवा में जुट गए।

सर्वप्रथम वल्लभभाई ने गोधरा में हुए प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन में गुजरात की बेगार-प्रथा को समाप्त करने के लिए एक प्रस्ताव पास कराया। इस सम्मेलन में पहली बार भारतीय भाषाओं का प्रयोग किया गया। वल्लभभाई के प्रयासों के फलस्वरूप गैरकानूनी बेगार प्रथा बंद हो गई। वल्लभभाई ने नागपुर के झंडा सत्याग्रह का नेतृत्व भी किया। इस सत्याग्रह के कारण अंग्रेज सरकार को समझौते के लिए झुकना पड़ा। इस सत्याग्रह के बाद उनका नाम सारे भारत में फैल गया।

सन् 1927 में बारदोली का प्रसिद्ध सत्याग्रह शुरू हुआ। किसानों पर सरकार ने लगान की दर बढ़ा दी। किसान वल्लभभाई के पास गए। इस तरह उनके नेतृत्व में आंदोलन प्रारंभ हो गया। उन्होंने गाँव वालों को इस तरह संगठित किया कि लगान मिलना तो दूर, गाँवों में अंग्रेज अफसरों को भोजन, रिहाइश और सवारी तक मिलना मुश्किल हो गया।

इस में बहुत अत्याचार किए। गरीब किसानों के घरों के ताले फौज के जरिए तुड़वाकर, सामान जब्त करके मालगुजारी वसूल करने की कोशिश की गई पर सरकारी खजाने में एक कौड़ी भी जमा न हुई। हजारों लोग जेल गए। उनकी गाय, भैंस तक जब्त कर ली गई पर उन्होंने सिर न झुकाया । यहाँ तक कि जब्त किए गए सामान को उठाने वाला कोई मजदूर नहीं मिलता था और न जब्त की गई जायदाद की नीलामी में बोली लगाने वाला कोई आदमी। महीनों तक यही हाल रहा। अंत में सरकार को झुकना पड़ा।

सन् 1929 में लाहौर में पूर्ण स्वराज्य की माँग की गई। अंग्रेज सरकार ने इसे नहीं माना। गांधी जी ने फिर से सत्याग्रह का नारा दिया और 12 मार्च को प्रसिद्ध डांडी यात्रा शुरू कर दी। इसके बाद 6 अप्रैल को नमक कानून तोड़कर उन्होंने नमक सत्याग्रह आरंभ किया। सरदार पटेल ने इस सत्याग्रह में भाग लिया। वह गिरफ्तार कर लिए गए और उनको तीन माह की कैद और 500 रु0 जुर्माने की सजा दी गई। सरदार पटेल ने जुर्माना स्वीकार न कर उसके स्थान पर तीन सप्ताह और जेल में ही काटे ।

सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। अंग्रेज सरकार ने अपनी ओर से भारत के इस युद्ध में शामिल होने की घोषणा कर दी। इसका सर्वत्र विरोध हुआ। सरदार पटेल 17 नवम्बर 1940 को व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान गिरफ्तार हुए, पर स्वास्थ्य खराब होने के कारण नौ महीने बाद रिहा कर दिए गए। 'भारत छोड़ो' आंदोलन के सिलसिले में अगस्त 1942 में वह फिर गिरफ्तार किए गए। अन्य सभी नेताओं के साथ 15 जून 1945 को वह भी छोड़े गए।

15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ। सरदार पटेल ने गृहमंत्री का कार्यभार सँभाला। स्वतंत्रता के बाद देश के सामने कई समस्याएँ आईं। सरदार पटेल ने अपनी सूझबूझ से इन सभी पर काबू पा लिया।

जिस कार्य के लिए सरदार पटेल को सदैव याद किया जाएगा, वह था देशी रियासतों का एकीकरण । जब अंग्रेज भारत छोड़कर जाने लगे तो देशी रियासतों को यह आजादी दे गए कि वह चाहें तो आजाद रह सकते हैं, चाहें तो भारत या पाकिस्तान में मिल जाएँ। सरदार पटेल ने इस विकट समस्या को अपनी दृढ़ता और सूझबूझ हल कर दिखाया और लगभग 600 रियासतों को भारतीय संघ का अटूट अंग बनाकर भारत के मानचित्र को नवीन स्वरूप प्रदान किया। संपूर्ण भारत में एकता स्थापित हो गई, इसलिए उन्हें भारत का लौहपुरुष कहा जाता है।

सरदार पटेल स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् केवल ढाई वर्ष जीवित रहे। वह अंतिम समय तक कठिन परिश्रम करते रहे। 15 दिसम्बर 1950 को दिल के दौरे से मुंबई (बंबई) में उनका निधन हो गया। भारत निर्माण में सरदार वल्लभ भाई के अविस्मरणीय योगदान के कारण वर्ष 1991 में भारत के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। सरदार पटेल की सफलता का मूल मंत्र था कर्तव्यपालन और कठोर अनुशासन। अपने पचहत्तरवें जन्म दिवस पर उन्होंने राष्ट्र को संदेश दिया था- "उत्पादन बढ़ाओ, खर्च घटाओ और अपव्यय बिल्कुल न करो।"

लाल बहादुर शास्त्री LAL BAHADUR SHASTRI

लाल बहादुर शास्त्री 

बच्चो! आप के विद्यालय में दो अक्टूबर को दो महान विभूतियों का जन्मदिन मनाया जाता है - एक मोहन दास करमचंद गांधी और दूसरे 'जय जवान जय किसान' का नारा देने वाले लाल बहादुर शास्त्री। लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 ई० को मुगलसराय (तत्कालीन वाराणसी वर्तमान चंदौली) के साध्ररण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम शारदा प्रसाद तथा माता का नाम रामदुलारी देवी था। मात्र डेढ़ वर्ष की अवस्था में पिता का देहांत हो जाने के कारण अनेक अभावों और कठिनाइयों को झेलते हुए वे जीवन पथ पर आगे बढ़े। वे स्वतंत्र भारत के पहले रेल मंत्री बने। उसके बाद उद्योग मंत्री तथा स्वराष्ट्र मंत्री भी बने। जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद ये सर्वसम्मति से भारत के दूसरे प्रधानमंत्री भी बने।

देशवासियों के स्वाभिमान को जगाने वाले महान लोकप्रिय नेता लाल बहादुर शास्त्री का निधन 10 जनवरी 1966 को ताशकंद (रूस) में हुआ था।

लाल बहादुर शास्त्री जी का व्यक्तित्व बहुत ही व्यावहारिक एवं संतुलित था। वे जो कहते थे, उसे पहले स्वयं करते थे। इसका उल्लेख उनके जीवन की कई घटनाओं में मिलता है। आइए, उनमें से कुछ प्रसंगों के बारे में जानें -

प्रसंग - 1

शास्त्री जी उन दिनों रेलमंत्री थे। एक बार उन्हें बनारस के पास सेवापुरी जाना पड़ा। छोटे कद का होने के कारण शास्त्री जी को गाड़ी से प्लेटफार्म पर उतरने में काफी दिक्कत हुई। यह देखकर वहाँ खड़ी कुछ औरतें हँस कर कहने लगीं कि अब महसूस हो रहा होगा कि महिलाओं को प्लेटफार्म पर उतरते समय कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। प्लेटफार्म पर पहुँचते ही शास्त्री जी ने स्टेशन मास्टर को बुलाया और उनसे कहा एक फावड़े का इंतजाम कर सकते हैं? फावड़ा तुरंत लाया गया। शास्त्री जी ने फावड़ा लेकर क्या वे उस नीचे प्लेटफार्म के दूसरी ओर जमीन खोदनी शुरू कर दी और मिट्टी प्लेटफार्म पर डालने लगे। यह देखकर वहाँ जो लोग खड़े थे वे भी फावड़ा और उसी तरह की चीजें ले आए।

शास्त्री जी का अनुसरण करने लगे। सभी को तब सुखद अचरज हुआ, जब तीन घंटों के अंदर वह नीचा प्लेटफार्म मानक स्तर तक ऊँचा बन गया।

प्रसंग - 2

यह प्रसंग भी उस समय का है, जब शास्त्री जी रेलमंत्री थे और सरकारी काम से इलाहाबाद जा रहे थे। शास्त्री जी की कार रेल फाटक से थोड़ी ही दूर थी कि लाइनमैन ने फाटक बंद कर दिया। शास्त्री जी के स्टाफ का एक सदस्य लाइनमैन की ओर दौड़कर गया और उससे कहा कि कार में रेलमंत्री बैठे हैं, तुम तुरंत फाटक खोल दो। लाइनमैन ने फाटक खोलने से साफ मना कर दिया और बोला कि मैं नहीं जानता कि कौन रेलमंत्री है और कौन प्रधानमंत्री। मैं अपनी ड्यूटी कर रहा हूँ। जब आने वाली गाड़ी गुजर जाएगी, फाटक खोल दूँगा। स्टाफ के अफसर ने लौटकर कहा” श्रीमान्, वह आदमी बड़ा जिद्दी है। उसके

विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए।" दूसरे दिन जब लाइनमैन की तरक्की कर उसे आगे का ग्रेड दिया गया तो सभी लोग अचंभे में पड़ गए।

प्रसंग - 3

यह प्रसंग उन दिनों का है जब शास्त्री जी प्रधानमंत्री थे। एक बार उनका ड्राइवर सुबह निश्चित समय पर नहीं आया। उन्होंने कुछ समय प्रतीक्षा की फिर हाथ में फाइल लेकर पैदल ही दफ्तर की ओर चल दिए। उनका दफ्तर घर से करीब एक किलोमीटर दूर था। इस बात से सचिवालय में हड़कंप मच गया। ड्राइवर से जवाब तलब किया गया। जवाब में उसने कहा कि एकाएक उसका छोटा बच्चा गंभीर रूप से बीमार हो गया था और उसे भागकर डॉक्टर के पास जाना पड़ा। शिकायती फाइल जब शास्त्री जी के पास पहुँची तो उन्होंने उस पर टिप्पणी लिखी कि “उसके लिए उसके बेटे के जीवन का महत्व और किसी भी कार्य से अधिक महत्वपूर्ण है।"

प्रसंग-4

यह घटना उस समय की है, जब शास्त्री जी प्रधानमंत्री थे। एक दिन खाने की मेज पर परिवार के सभी सदस्य बहुत गंभीर थे और बिना कुछ बोले चुपचाप खाना खा रहे थे। जब शास्त्री जी ने इस बारे में पूछा तो भी वे चुप रहे। उनके जोर देने पर उनके बेटे ने कहा "बाबू जी, आजकल आप हमें बहुत कम समय देते हैं।" शास्त्री जी ने जवाब दिया "तुम जानते हो कि प्रधानमंत्री बनने के पहले सिर्फ तुम लोग ही मेरे परिवार के सदस्य थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद यह पूरा देश मेरा परिवार है। अगर इसे ध्यान में रखें तो तुम्हारे साथ जो समय बीतता है, वह देश के करोड़ों लोगों के साथ बीतने वाले समय के अनुपात की दृष्टि से बहुत ज्यादा है।"

प्रसंग - 5

शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के फौरन बाद एक विपक्षी दल ने प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन की अगुवाई महिलाएं कर रही थीं। अनेक महिलाएं अपनी गोद में बच्चे लिए हुए थीं। प्रधानमंत्री आवास के सामने पहुँच कर उन्होंने बहुत ऊँची आवाज में चिल्लाना शुरू कर दिया। तेज गरमी के कारण प्रदर्शन करने वाले पसीना-पसीना हो रहे थे। एकाएक शास्त्री जी उठ खड़े हुए। उन्होंने एक ट्रे उठाई, उसमें गिलास रखे और वाटर कूलर के पास जाकर एक-एक करके उनमें पानी भरा। इसके बाद वे हाथ में ट्रे लेकर फाटक की ओर चल दिए। सुरक्षा बलों ने मदद देने को कहा लेकिन उन्होंने सख्ती से मना कर दिया।

वे सीधे एक महिला प्रदर्शनकारी के पास पहुँचे। महिला की गोद में एक छोटा सा बच्चा था जो रो रहा था। उन्होंने पिता की तरह महिला को डाँटते हुए कहा," तुम इस छोटे बच्चे की माँ हो। क्या तुम्हें यह नहीं मालूम कि यह बच्चा प्यासा है, इसीलिए रो रहा है ?" उन्होंने बच्चे को अपनी गोद में लिया और ट्रे माँ के हाथ में पकड़ा दी। फिर एक गिलास उठाया और बच्चे को पानी पिलाने लगे। महिलाओं ने उनके पैर छूने शुरू कर दिए। कुछ ही क्षणों में भीड़ हटने लगी और लोगों को यह बिल्कुल याद न रहा कि वे वहाँ किस उद्देश्य से आए थे। जब सिर्फ चार-पाँच आदमी बच गए तब शास्त्री जी ने उनसे अनुरोध किया कि वे अंदर चलें और इस संबंध में बातचीत करें।

मैं सबसे छोटी होऊँ | कविता | सुमित्रानंदन पंत | SUMITRANANDAN PANT

मैं सबसे छोटी होऊँ  
सुमित्रानंदन पंत

इस कविता में एक छोटी बच्ची के माध्यम से माँ के प्रति प्रेम और स्नेह को प्रस्तुत किया गया है, छोटी बच्ची कामना करती है कि वह अपनी माँ के आँचल से कभी अलग नहीं हो। छोटी बच्ची अपनी माँ की सबसे छोटी संतान बनने की इच्छा रखती है। वह सदा अपनी माँ का प्यार और दुलार पाती रहेगी। उसकी गोद में खेल पाएगी। उसकी माँ हमेशा उसे अपने आंचल में रखेगी, उसे कभी अकेला नहीं छोड़ेगी। सबसे छोटी होने से उसकी माँ उसे अपने हाथ से नहलाएगी, सजाएगी और संवारेगी। वह कभी बड़ी नहीं होना चाहती क्योंकि इससे वह अपनी माँ का सुरक्षित और स्नेह से भरा आँचल खो देगी।

मैं सबसे छोटी होऊँ,

तेरी गोदी में सोऊँ,


तेरा अंचल पकड़-पकड़कर

फिरूँ सदा माँ! तेरे साथ,

कभी न छोडूँ तेरा हाथ!


बड़ा बनाकर पहले हमको

तू पीछे छलती है मात!

हाथ पकड़ फिर सदा हमारे

साथ नहीं फिरती दिन-रात!


अपने कर से खिला, धुला मुख,

धूल पोंछ, सज्जित कर गात,

थमा खिलौने, नहीं सुनाती

हमें सुखद परियों की बात!


ऐसी बड़ी न होऊँ मैं

तेरा स्नेह न खोऊँ मैं,

तेरे अंचल की छाया में

छिपी रहूँ निस्पृह, निर्भय,

कहूँ-दिखा दे चंद्रोदय!

काटे कम से कम मत बोओ | रामेश्वर शुक्ल अँचल | RAMESHWAR SHUKLA ‘ANCHAL’

काटे कम से कम मत बोओ 

रामेश्वर शुक्ल अँचल 


इस कविता में - दुःख के विपरीत सुख, रुदन के विपरीत जागृति, संशय के विपरीत विश्वास पर बल दिया है। अंत में कवि संदेश देते हैं कि यदि किसी की भलाई या अच्छाई नहीं कर सकते हों, तो कम से कम उसके साथ बुराई से पेश मत आओ। फूल नहीं तो कम से कम काटे तो मत बोओl

यदि फूल नहीं बो सकते तो काँटे कम से कम मत बोओ

है अगम चेतना की घाटी, कमजोर बदा मानव का मन,

मसता ममता की शीतल छाया में, होता कटुता का स्वयं शमन!

ज्वालाएँ जब घुल जाती हैं, खुल-खुल जाते हैं मुँदे नयन,

होकर निर्मलता में प्रशांत, बहता प्राणों का क्षुब्ध पवन।

संकट में यदि मुसका न सको, भय से कातर हो मत रोओ।

यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।



हर सपने पर विश्वास करो, ती लगा चांदूती का चंदन,

मत याद करो, मत सोचो-ज्वाला में कैसे बिता जीवन

इस दुनिया की है रीति यही-सहत तन, बहता है मन

सुख की अभिमानी मदिरा में, जग सका, वह है चेतन

इसमें तुम जाग नहीं सकते, तो सेज बिछाकर मत सोओ।

यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।



पग-पग पर शोर मचाने से, मन में संकल्प नहीं जमता,

अनसुना-अचीन्हा करने से, संकट का वेग नहीं कमता,

संशय के सूक्ष्म कुहासे में, विश्वास नहीं क्षण भर रमता,

बादल के घेरों में भी तो जय घोष न मारुत का थमता!

- यदि बढ़ न सको विश्वासों पर, साँसों से मुरदे मत ढोओ;

यदि फूल नहीं बो सकते तो, काँटे कम से कम मत बोओ।

जन्म-दिवस - रूपनारायण त्रिपाठी | RUPNARAYAN TRIPATHI

जन्म-दिवस - रूपनारायण त्रिपाठी 

यह देश की आजादी के जन्म दिवस पर लिखी कविता है। कवि चाहते हैं कि देश के नवयुवक, इस अवसर पर खुशियाँ मनाएँ और देश के प्रति अपने कर्तव्य को समझकर देश के नव-निर्माण में अपना सहयोग दें।


घर-घर मंगल-दीप जलाओ, उजियाली का रास-रचाओ।

सदियों का तम हरनेवाली नई किरण का जन्म-दिवस है।।

यह वह दिन है जब अपने को, अपना वातावरण मिला था।

अपने पौरुष के पुष्कर में, स्वतंत्रता का कमल खिला था।

विहगो! गीत खुशी के गाओ, भँवरो! जीवन-बीन बजाओ।

आज तुम्हारी फुलबगिया में, नये सुमन का जन्म दिवस है।।

बजी चेतना की शहनाई, जगा राह का तिनका-तिनका।

लहर-लहर ने ली अंगडाई, महका फूल सुनहरे दिन का।

सागर, सरिता, वन, उपवन में, अपनी धरती और गगन में।

आज हिमाचल के आँगन में नई लगन का जन्म-दिवस है।।

सदियों की उदास बेंसी में, जगा मुक्ति का गीत सुनहरा।

सपनों की प्यासी बाहों में, विश्वासों का बादल उतरा ।।

उजियाली के राजकुमारो, नई राह के सिरजनहारो,

आज तुम्हारी स्वतन्त्रता के पहले क्षण का जन्म-दिवस है।।

तुम्हें शपथ हर बुझे दीप की, उजियाली को नई उमर दो।

सदियों की उजड़ी बगिया को, नये-नये फूलों से भर दो ।।

श्रम की नूतन ऋचा सँवारो, पौरुष की आरती उतारो,

आज देश की नव रचना के अभिनव प्रण का जन्म-दिवस है।

वीरांगना चेन्नम्मा | VEERANGANA CHENNAMMA

वीरांगना चेन्नम्मा 

VEERANGANA CHENNAMMA


छात्र कर्नाटक की वीर महिला चैन्नम्मा की देशभक्ति का परिचय प्राप्त करते हैं। अंग्रेज़ों की अनेक कोशिशों के बाद भी कित्तूर को चेन्नम्मा ने बचाया। लेकिन चेन्नम्मा के बंदी बन जाने के कारण कित्तूर अंग्रेज़ों के वश में गया। चेन्नम्मा जैसी वीर महिला के कारण कर्नाटक गर्व का अनुभव करता है।

18 वीं शताब्दी में सत्तालोलुप अंग्रेज़ों को नाकों चने चबानेवाली सर्वप्रथम भारतीय वीरांगना चेन्नम्मा थी। चेन्नम्मा का जन्म काकतीय वंश में सन् 1778 में हुआ था। उनके पिता का नाम धूलप्पा देसाई और माता का नाम पद्मावती था। एक तो इकलौती, फिर रूपवती और स्वस्थ। चेन्नम्मा शब्द का अर्थ ही है सुन्दर महिला। उनकी शिक्षा-दीक्षा राजकुल के अनुरूप ही हुई। घुड़सवारी, शस्त्रास्त्रों का अभ्यास, आखेट आदि युद्ध कलाएँ उन्हें अपने वीर पिता से प्राप्त हुई। अपने जंगमगुरु के मार्गदर्शन में उन्होंने उर्दू, मराठी और संस्कृत भाषाओं का अध्ययन किया।

कित्तूरु कर्नाटक राज्य के उत्तरी बेलगावी जिले में है। उन दिनों कित्तूर कर्नाटक राज्य के व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र भी था। देश-विदेश के व्यापारी वहाँ के बाज़ारों में हीरे-जवाहरातें खरीदने के लिए आया करते थे। ऐसे समृद्ध राज्य के प्रजावत्सल राजा मल्लसर्ज थे। चेन्नम्मा के माता-पिता ने बड़े हौसले से उनका विवाह राजा मल्लसर्ज के साथ कर दिया।

रानी चेन्नम्मा कित्तूरु के राजमहल में सुख से रहने लगी। उनकी कोख से एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ, जिसका नाम था शिवबसवराज। लेकिन बचपन में ही उसकी मृत्यु हुई। राजा मल्लसर्ज की पहली पत्नी थी रुद्रम्मा। पूना के पटवर्दन ने मल्लसर्ज को चालाकी से बन्दी बना लिया। वहीं उनकी मृत्यु हो गई। मल्लसर्ज की मृत्यु के बाद चेन्नम्मा ने रुद्रम्मा के पुत्र शिवलिंग रुद्रसर्ज को गद्दी पर बिठाया। शिवलिंग रुद्रसर्ज ने चेन्नम्मा की सलाह को हवा में उड़ाकर चाटुकारों से गहरी मित्रता कर ली, जिससे कित्तूर का पतन शुरू हुआ।

राजा शिवलिंग रुद्रसर्ज की मृत्यु 11 सितंबर 1824 को हुई। इसे अंग्रेज़ों ने कित्तूरु राज्य को हड़पने का बड़ा अच्छा अवसर समझा। राजा निःसन्तान मरा था। उसने अपने एक संबधी गुरुलिंग मल्लसर्ज को गोद लिया था। लेकिन अंग्रेज़ गोद लिए पुत्र को उत्तराधिकारी नहीं मानते थे। उस समय डालहौसी गवरनर जनरल थे। ऐसे अवसर पर रानी चेन्नम्मा ने कित्तूरु राज्य को सँभालकर रक्षा करने की कसम खाई।

कित्तूरु राज्य में अंग्रेज़ी सैनिकों के प्रवेश से रानी चेन्नम्मा का रक्त खौल उठा, लेकिन उस समय वे कुछ नहीं कर सकीं। अंग्रेज़ों से लोहा लेने के लिए उन्होंने भीतर ही भीतर तैयारी आरंभ कर दी। अंग्रेज़ी प्रतिनिधी थैकरे ने रानी चेन्नम्मा को भाँति-भाँति के सन्देश भेजे। मगर रानी अपनी स्वाधीनता का सौदा करने पर राज़ी न हुई। इसी समय थैकरे को कित्तूरु राज्य के येल्लप्पशेट्टी और वेंकटराव नामक देशद्रोही मिल गये। वे कित्तूरु का नमक खाकर कित्तूरु की जड़ खोदने में लगे हुए थे। थैकरे ने उन्हें कित्तूरु का आधा-आधा राज्य सौंप देने की लालच दिखायी। बदले में वे कित्तूरु के सभी भेद खोलने और भरसक सहायता करने को तैयार हो गये। दोनों ने कित्तूरु का शासनभार संभालने का परवाना लेकर चेन्नम्मा को दिया। उसे पढ़ते ही चेन्नम्मा ने थैकरे का पत्र टुकड़े-टुकड़े करते हुए कहा "हमने गोद लेकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध कोई षड्यंत्र नहीं रचा है। गोद लेना हमारा अधिकार है, इसे थैकरे नहीं रोक सकता। हमारे घरेलू मामलों में बोलनेवाला वह है ही कौन? कित्तूर स्वतंत्र राज्य है और तब तक रहेगा जब तक मेरे शरीर में प्राण हैं।" यह फटकार सुनते ही दोनों देशद्रोही अपना-सा मुँह लेकर चले गये। कित्तूरु में गुरुसिद्धप्पा जैसे कुशल दीवान और वालण्णा, रायण्णा, गजवीर और चेन्नवसप्पा जैसे वीर योद्धा भी थे, जिनके रहते कित्तूरु के लिए कोई खतरा न था।

कित्तूरु की जनता अंग्रेज़ों की चाल से भली-भांति परिचित थी। थैकरे स्वयं बड़ी सेना लेकर कित्तूरु आ पहुँचा। किंतु रानी उससे नहीं डरीं। थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ कित्तूरु के किले पर चढ़ाई करने की आज्ञा दे दी। रानी ने वीर सैनिकों को युद्ध के लिए ललकारते हुए कहा - “मातृभूमि के सपूतो! अपने प्राणों की बाजी लगाकर हम अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हैं। अंग्रेज़ इसे हमसे बलपूर्वक छीनना चाहते हैं, लेकिन इसे हम कैसे छोड़ सकते हैं? यह हमें अपने पूर्वजों से मिली है।

उधर थैकरे ने घमकी दी कि, "बीस मिनट में आत्मसमर्पण कर दिया जाय, नहीं तो किला तहस-नहस कर दिया जाएगा।” कुछ समय बाद मर्दानी वेश में रानी चेन्नम्मा शेरनी की भाँति अंग्रेज़ों की सेना पर टूट पड़ी। उनके पीछे दो हज़ार योद्धा थे। भयानक युद्ध हुआ। अंग्रेज़ों की सेना इस प्रवाह को सह न सकी। वह भाग खड़ी और थैकरे मारा गया । देशद्रोहियों का काम तमाम कर दिया गया। बंदी गोरे अंग्रेज़ अफसरों के साथ उदारता का व्यवहार किया गया और उन्हें छोड़ दिया गया। लेकिन यह विजय बहुत दिनों तक न रही।

कुछ ही समय के बाद अंग्रेज़ों ने कित्तूरु राज्य पर फिर आक्रमण किया। अब अंग्रेज़ी सेना अधिक थी। लेकिन कित्तूरु के वीर सैनिकों के सम्मुख उसे माननी पड़ी। फिर एक बार अंग्रेज़ों ने सारी शक्ति लगाकर घेरा डाला। इस युद्ध दुबारा हार में रणचण्डी चेन्नम्मा बंदी बना ली गईं। अंग्रेज़ों ने कित्तूरु को लूटा। वहाँ कुछ भी न बचा। चेन्नम्मा को बैलहोंगला के दुर्ग में कारागार में डाल दिया गया। बंदीगृह में ही 2 फरवरी 1829 को चेन्नम्मा की जीवन ज्योति सदा के लिए बुझ गई।

यह कर्नाटक जनता के लिए गर्व की बात है कि कर्नाटक की वीरांगना चेन्नम्मा ने पहली बार स्वतंत्रता की जो चिनगारी डाली थी, बाद में वह सारे भारत में फैल गई।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

भिखारिन | गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर | BHIKHARIN | RABINDRANATH TAGORE

भिखारिन - गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर

प्रस्तुत कहानी एक पुत्रवत्सला दिव्यांग भिखारिन के विश्वास के छले जाने और संघर्ष की संवेदनशील रचना है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने मानव चरित्र के कई परतों को इस कहानी में संवेदनशीलता के साथ रखा है। एक भिखारिन अपने जीवन की समस्त पूंजी द्वारा अपने पालित पुत्र को रोगमुक्त करने के लिए खर्च करना चाहती है, लेकिन समाज का धनवान और धार्मिक रूप में प्रसिद्ध सेठ उसके भीख से संचित धन को लौटाने में छल करता है। ‘संतान की पहचान’ कहानी को एक निर्णायक मोड़ देती है और पाठकों को मानव चरित्र को समझने और पहचानने का बोध भी देती है। एक सेठ भिखारिन के पाँवों पर क्यों गिर पड़ता है? वह क्यों यह कहने को विवश है कि ‘ममता की लाज रख लो, आखिर तुम भी तो उसकी माँ हो।’ कहानी की मार्मिकता को पाठक इन पंक्तियों में शिद्दत से महसूस कर सकते हैं कि- ‘उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे, किन्तु वह भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी।’

अंधी प्रतिदिन मंदिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी होती, दर्शन करनेवाले बाहर निकलते तो अपना हाथ फैला देती और नम्रता से बोलती - “बाबू जी, अंधी पर दया हो जाय।“

वह जानती थी कि मंदिर में आनेवाले सहृदय और दयालु हुआ करते हैं। उसका यह अनुमान असत्य न था। आने-जाने वाले दो-चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते थे। अंधी उनको दुआएँ देती और उनकी सहृदयता को सराहती।

स्त्रियाँ भी उसके पल्ले में थोड़ा-बहुत अनाज डाल जाया करती थीं। सुबह से शाम तक वह इसी प्रकार

हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके पश्चात् मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोंपड़ी की राह पकड़ती। उसकी झोंपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी वह याचना करती जाती, किन्तु राहगीरों में अधिक संख्या श्वेत वस्त्र वालों की होती, जो पैसे देने की अपेक्षा झिड़कियाँ दिया करते हैं। तब भी अंधी निराश न होती और उसकी याचना बराबर जारी रहती। झोंपड़ी तक पहुँचते-पहुँचते उसे दो-चार पैसे और मिल ही जाते। झोंपड़ी के समीप पहुँचते ही एक दस वर्ष का लड़का उछलता-कूदता आता और उससे लिपट जाता। अंधी टटोलकर उसके मस्तिष्क को चूम लेती।

बच्चा कौन है? किसका है? कहाँ से आया? इस बात से कोई परिचित नहीं था। पाँच वर्ष हुए पास-पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक दिन संध्या समय, लोगों ने उसकी गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था। अंधी उसका मुख चूम-चूमकर उसे चुप करने का प्रयत्न कर रही थी। यह कोई असाधारण घटना न थी, अतः किसी ने भी न पूछा कि बच्चा किसका है। उसी दिन से वह बच्चा अंधी के पास था और प्रसन्न था। उसको वह अपने से अच्छा खिलाती और पहनाती।

अंधी ने अपनी झोंपड़ी में एक हाँड़ी गाड़ रखी थी। दिनभर जो कुछ माँगकर लाती, उसमें डाल देती और उसे किसी वस्तु से ढँक देती, ताकि दूसरे व्यक्तियों की दृष्टि उस पर न पड़े। खाने के लिए अन्न काफी मिल जाता था। उससे काम चलाती। पहले बच्चे को पेट भरकर खिलाती, फिर स्वयं खाती। रात को बच्चे को अपने वक्ष से लगाकर वहीं पड़ी रहती। प्रातःकाल होते ही उसको खिला-पिलाकर फिर मंदिर के द्वार पर जा खड़ी होती।

काशी में सेठ बनारसी दास बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति थे। बच्चा-बच्चा उनकी कोठी से परिचित था। वे बहुत बड़े देवभक्त और धर्मात्मा थे। धर्म पर उनकी बड़ी श्रद्धा थी। दिन के बारह बजे तक वे स्नान-ध्यान में संलग्न रहते थे। उनकी कोठी पर हर समय भीड़ लगी रहती थी। कर्ज के इच्छुक तो आते ही थे, परन्तु ऐसे व्यक्तियों का भी ताँता बँधा रहता जो अपनी पूँजी सेठ जी के पास धरोहर रूप में रखने आते थे। सैकड़ों भिखारी अपनी जमा पूँजी इन्हीं सेठ जी के पास जमा कर जाते थे। अन्धी को भी यह बात ज्ञात थी, किंतु पता नहीं कि अब तक वह अपनी कमाई यहाँ जमा कराने में क्यों हिचकिचाती रही।

उसके पास काफी रुपये हो गए थे, हाँड़ी लगभग पूरी भर गई थी। उसको शंका थी कि कोई उसको चुरा न ले। एक दिन संध्या समय अंधी ने वह हाँड़ी उखाड़ी और अपने फटे हुए आँचल में छुपाकर सेठ जी की कोठी पर जा पहुँची।

सेठ जी बहीखाते के पृष्ठ उलट रहे थे। उन्होंने पूछा, “क्या है, बुढ़िया?“

अंधी ने हाँड़ी उनके आगे सरका दी और डरते-डरते कहा - “सेठ जी, इसे अपने पास जमा कर लीजिए, मैं अंधी, अपाहिज कहाँ रखती फिरूँगी?“

सेठ जी ने हाँड़ी की ओर देखकर कहा - “इसमें क्या है?“ अंधी ने उत्तर दिया - “भीख माँगकर अपने बच्चे के लिए दो-चार पैसे इकट्ठे किए हैं; अपने पास रखते डरती हूँ। कृपया इन्हें आप अपनी कोठी में रख लें।“ सेठ जी ने मुनीम की ओर संकेत करते हुए कहा - “बही में जमा कर लो।“ फिर बुढ़िया से पूछा - “तेरा नाम क्या है?“ अंधी ने अपना नाम बताया, मुनीम जी ने नकदी गिनकर, उसके नाम से जमा कर ली। अंधी सेठ जी को आशीर्वाद देती हुई अपनी झोंपड़ी में चली गई।

दो वर्ष बहुत सुखपूर्वक बीते। इसके पश्चात् एक दिन लड़के को ज्वर ने आ दबाया।

अंधी ने दवा-दारू की, वैद्य-हकीमों से उपचार कराया, परंतु सम्पूर्ण प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हुए। लड़के की दशा दिन-प्रतिदिन बुरी होती गई। अंधी का हृदय टूट गया; साहस ने जवाब दे दिया; वह निराश हो गई। परंतु फिर ध्यान आया कि संभवतः डॉक्टर के इलाज से फायदा हो जाए। इस विचार के आते ही वह गिरती-पड़ती सेठ जी की कोठी पर जा पहुँची। सेठ जी उपस्थित थे।

अंधी ने कहा - “सेठ जी, मेरी जमा पूँजी में से दस-पाँच रुपये मुझे मिल जाएँ तो बड़ी कृपा हो। मेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर को दिखाऊँगी।“

सेठ जी ने कठोर स्वर में कहा - “कैसी जमा पूँजी? कैसे रुपये? मेरे पास किसी के रुपये जमा नहीं हैं।“ अंधी ने रोते हुए उत्तर दिया - “दो वर्ष हुए, मैं आपके पास धरोहर रूप में रखकर गई थी। दे दीजिए, बड़ी दया होगी।“

सेठ जी ने मुनीम की ओर रहस्यमयी दृष्टि से देखते हुए कहा - “मुनीम जी, जरा देखना तो, इसके नाम की कोई पूँजी जमा है क्या? तेरा नाम क्या है री?“

अंधी की जान में जान आई, आशा बँधी। पहला उत्तर सुनकर उसने सोचा कि यह सेठ बेईमान है किंतु अब सोचने लगी कि संभवतः इसे ध्यान न रहा होगा। ऐसा धर्मात्मा व्यक्ति भी भला कहीं झूठ बोल सकता है! उसने अपना नाम बता दिया।

मुनीम ने सेठ जी का संकेत समझ लिया था, बही के पृष्ठ उलट-पुलटकर देखा। फिर कहा - “नहीं तो, इस नाम पर एक पाई भी जमा नहीं है।“

अंधी वहीं जमी बैठी रही। उसने रो-रोकर कहा - “सेठ जी! परमात्मा के नाम पर, धर्म के नाम पर, कुछ दे दीजिए।

मेरा बच्चा जी जाएगा। मैं जीवन भर आपके गुण गाऊँगी।“

परन्तु पत्थर में जोंक न लगी। सेठ जी ने क्रुद्ध होकर उत्तर दिया - “जाती है या नौकर को बुलाऊँ।“ अंधी लाठी टेककर खड़ी हो गई और सेठ जी की ओर मुख करके बोली - “अच्छा! भगवान तुम्हें बहुत दे।“ और अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।

यह आशीष न थी बल्कि एक दुखिया का श्राप था। बच्चे की दशा बिगड़ती गई, दवा-दारू हुई ही नहीं, फायदा क्यों कर होता? एक दिन उसकी दशा बड़ी चिंताजनक हो गई, प्राणों के लाले पड़ गए, उसके जीवन से अंधी भी निराश हो गई। सेठ जी पर रह-रहकर उसे क्रोध आता था। इतना धनी व्यक्ति है, दो-चार रुपये दे ही देता तो क्या चला जाता और फिर मैं उससे कुछ दान नहीं माँग रही थी, अपने ही रुपये माँगने गई थी। सेठ जी से उसे घृणा हो गई।

बैठे-बैठे उसको कुछ ध्यान आया। उसने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया और ठोकरें खाती, पड़ती सेठ जी के पास पहुँची और उनके द्वार पर धरना देकर बैठ गई। बच्चे का शरीर ज्वर से भभक रहा था और अंधी का कलेजा भी।

एक नौकर किसी काम से बाहर आया। अंधी को बैठी देखकर उसने सेठ जी को सूचना दी। सेठ जी ने आज्ञा दी कि उसे भगा दो।

नौकर ने अंधी को चले जाने को कहा, किंतु वह उस स्थान से न हिली। मारने का भय दिखाया, पर

वह टस-से-मस न हुई। नौकर ने फिर अंदर जाकर कहा कि वह नहीं टलती। सेठ जी स्वयं बाहर पधारे। देखते ही पहचान गए। बच्चे को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि उसकी शक्ल-सूरत, उनके मोहन से बहुत मिलती-जुलती है। सात वर्ष हुए जब मोहन किसी मेले में खो गया था। उसकी बहुत खोज की पर उसका कोई पता न मिला। उन्हें स्मरण हो आया कि मोहन की जाँघ पर लाल रंग का चिह्न था। इस विचार के आते ही उन्होंने अंधी की गोद के बच्चे की जाँघ देखी। चिह्न अवश्य था, परंतु पहले से कुछ बड़ा। उनको विश्वास हो गया कि बच्चा उन्हीं का मोहन है। उन्होंने तुरंत उसको छीनकर अपने कलेजे से चिपटा लिया।

शरीर ज्वर से तप रहा था। नौकर को डॉक्टर लेने को भेजा और स्वयं मकान के अंदर चल दिए।

अंधी खड़ी हो गई और चिल्लाने लगी - “मेरे बच्चे को न ले जाओ; मेरे रुपये तो हजम कर गए, अब क्या मेरा बच्चा भी मुझसे छीनोगे?“

सेठ जी बहुत चिंतित हुए और बोले - “बच्चा मेरा है; यही एक बच्चा है; सात वर्ष पूर्व कहीं खो गया था। अब मिला है, अब इसको नहीं जाने दूँगा और लाख यत्न करके भी इसके प्राण बचाऊँगा।“

अंधी ने जोर का ठहाका लगाया - “तुम्हारा बच्चा है, इसलिए लाख यत्न करके भी उसे बचाओगे। मेरा बच्चा होता तो उसे मर जाने देते, क्यों? यह भी कोई न्याय है? इतने दिनों तक खून-पसीना एक करके उसको पाला है। मैं उसको अपने हाथ से नहीं जाने दूँगी।“

सेठ जी की अजीब दशा थी। कुछ करते-धरते नहीं बनता था। कुछ देर वहीं मौन खड़े रहे, फिर मकान के अंदर चले गए। अंधी कुछ समय तक खड़ी रोती रही, फिर वह भी अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।

दूसरे दिन प्रातःकाल प्रभु की कृपा हुई या दवा ने अपना जादू का सा प्रभाव दिखाया कि मोहन का ज्वर उतर गया। होश आने पर उसने आँखें खोलीं, तो सर्व प्रथम शब्द उसकी जबान से निकला - ‘‘माँ’’। चारों ओर अपरिचित शक्लें देखकर उसने अपने नेत्र फिर बंद कर लिए। उस समय से उसका ज्वर फिर अधिक होना आरम्भ हो गया। माँ-माँ की रट लगी हुई थी, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, सेठ जी के हाथ-पाँव फूल गए, चारों ओर अँधेरा दिखाई पड़ने लगा।

“क्या करूँ, एक ही बच्चा है? इतने दिनों बाद मिला भी तो मृत्यु उसको अपने चंगुल में दबा रही है; इसे कैसे बचाऊँ?“

सहसा उनको अंधी का ध्यान आया। पत्नी को बाहर भेजा कि देखो कहीं वह अब तक द्वार पर न बैठी हो। परंतु वह यहाँ कहाँ? सेठ जी ने घोड़ागाड़ी तैयार कराई और बस्ती से बाहर उसकी झोंपड़ी पर पहुँचे। झोंपड़ी बिना द्वार के थी, अंदर गए। देखा कि अंधी एक फटे-पुराने टाट पर पड़ी है और उसके नेत्रों से अश्रुधारा बह रही है। सेठ जी ने धीरे-से उसको हिलाया। उसका शरीर भी अग्नि की भाँति तप रहा था।

सेठ जी ने कहा - “बुढ़िया! तेरा बच्चा मर रहा है; डॉक्टर निराश हो गए हैं, रह-रहकर वह तुझे पुकारता है। अब तू ही उसके प्राण बचा सकती है। चल और मेरे............नहीं, नहीं अपने बच्चे की जान बचा ले।“ अंधी ने उत्तर दिया - “मरता है तो मरने दो, मैं भी मर रही हूँ। हम दोनों स्वर्ग-लोक में फिर माँ-बेटे की तरह मिल जाएँगे। इस लोक में सुख नहीं है। वहाँ मेरा बच्चा सुख में रहेगा। मैं वहाँ उसकी सुचारु रूप से सेवा-सुश्रुषा करूँगी।“ सेठ जी रो दिए। आज तक उन्होंने किसी के सामने सिर न झुकाया था, किन्तु इस समय अंधी के पाँवों पर गिर पड़े और रो-रोकर बोले - “ममता की लाज रख लो, आखिर तुम भी उसकी माँ हो। चलो, तुम्हारे चलने से वह बच जायगा।“

ममता शब्द ने अंधी को विकल कर दिया। उसने तुरंत कहा - “अच्छा चलो।“

सेठ जी सहारा देकर उसे बाहर लाए और घोड़ागाड़ी पर बिठा दिया। गाड़ी घर की ओर दौड़ने लगी। उस समय सेठ और अंधी भिखारिन दोनों की एक ही दशा थी। दोनों की यही इच्छा थी कि शीघ्र-से-शीघ्र अपने बच्चे के पास पहुँच जाएँ।

कोठी आ गई; सेठ जी ने सहारा देकर अंधी को उतारा और अंदर ले जाकर मोहन की चारपाई के समीप उसको खड़ा कर दिया। उसने टटोलकर मोहन के माथे पर हाथ फेरा। मोहन पहचान गया कि यह उसकी माँ का हाथ है। उसने तुरंत नेत्र खोल दिए और उसे अपने समीप खड़े हुए देखकर कहा - “माँ, तुम आ गईं।“

अंधी ने स्नेह से भरे हुए स्वर में उत्तर दिया - “हाँ बेटा, तुम्हें छोड़कर कहाँ जा सकती हूँ।“

अंधी भिखारिन मोहन के सिरहाने बैठ गई और उसने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया। मोहन को बहुत सुख अनुभव हुआ और वह उसी की गोद में सो गया।

दूसरे दिन से मोहन की दशा अच्छी होने लगी और दस-पंद्रह दिनों में वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया। जो काम हकीमों के जोशांदे, वैद्यों की पुड़ियाँ और डॉक्टर की दवाइयाँ न कर सकीं थीं, वह अंधी की स्नेहमयी सेवा ने पूरा कर दिया।

मोहन के पूरी तरह स्वस्थ हो जाने पर अंधी ने विदा माँगी। सेठ जी ने बहुत कुछ कहा - सुना कि वह उन्हीं के पास रह जाए, परंतु वह सहमत न हुई। विवश होकर विदा करना पड़ा। जब वह चलने लगी तो सेठ जी ने रुपयों की एक थैली उसके हाथों में दे दी। अंधी ने पूछा, “इसमें क्या है?“

सेठ जी ने कहा - “इसमें तुम्हारी धरोहर है, तुम्हारे रुपये। मेरा वह अपराध.............“

अंधी ने बात काटकर कहा - “यह रुपये तो मैंने तुम्हारे मोहन के लिए ही इकट्ठे किए थे, उसी को दे देना।“

अंधी ने वह थैली वहीं छोड़ दी और लाठी टेकती हुई चल दी। बाहर निकलकर फिर उसने उस घर की ओर नेत्र उठाए। उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे, किंतु वह भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी। इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी।

साथी, हाथ बढ़ाना | साहिर लुधियानवी | SAHIR LUDHIANVI | गीत

साथी हाथ बढ़ाना (गीत) 
साहिर लुधियानवी

एक दूसरे के साथ मिलकर रहने से मुश्किल काम भी आसान हो जाता है। नये नये मार्ग खुलने लगते हैं। इस कविता में मिलजुलकर रहने से प्राप्त होनेवाले परिणामों के बारे में बताया गया है।


साथी हाथ बढ़ाना

एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना।

साथी हाथ बढ़ाना।

हम मेहनतवालों ने जब भी, मिलकर कदम बढ़ाया

सागर ने रस्ता छोड़ा, परबत ने सीस झुकाया

फ़ौलादी हैं सीने अपने, फ़ौलादी हैं बाँहें

हम चाहें तो चट्टानों में पैदा कर दें राहें

साथी हाथ बढ़ाना।

मेहनत अपने लेख की रेखा, मेहनत से क्या डरना

कल गैरों की खातिर की, आज अपनी खातिर करना

अपना दुख भी एक है साथी, अपना सुख भी एक

अपनी मंजिल सच की मंज़िल, अपना रस्ता नेक

साथी हाथ बढ़ाना ।



एक से एक मिले तो कतरा, बन जाता है दरिया

एक से एक मिले तो ज़र्रा, बन जाता है सेहरा

एक से एक मिले तो राई, बन सकती है परबत

एक से एक मिले तो इंसाँ, बस में कर ले किस्मत

साथी हाथ बढ़ाना।

पर्यावरण बचाओ - डॉ. परशुराम शुक्ल | PARSHURAMSHUKLA

पर्यावरण बचाओ 
 डॉ. परशुराम शुक्ल


परिसर के बिना मानव का जीवन असंभव है। शुद्ध पर्यावरण जीव व जगत् के लिए आवश्यक है। आजकल जल, वायु और ध्वनि का प्रदूषण निरंतर बढ़ते जाने के कारण परिसर का संतुलन बिगड़ रहा है। इसलिए पर्यावरण की रक्षा करना सबका आद्य कर्तव्य है। प्रस्तुत कविता में शुक्ल जी ने इस ज्वलंत समस्या की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है।

आज समय की माँग यही है,

पर्यावरण बचाओ।


तब तक जीव है जगत में,

जब तक जग में पानी।

जब तक वायु शुद्ध रहती है,

सोंधी मिट्टी रानी।

तब तक मानव का जीवन है,

यह सबको समझाओ।


ध्वनि, मिट्टी, जलवायु आदि,

जीव जगत के मित्र सभी।

इनकी रक्षा करना,

अब कर्तव्य हमारा।

शोर और मिट्टी का संकट,

दूर करेंगे सारा।


एक वृक्ष यदि कट जाय तो,

ग्यारह वृक्ष लगाओ।

एक वृक्ष हम नित रोपेंगे,

आज शपथ यह खाओ।

आज समय की माँग यही है,

पर्यावरण बचाओ।

जय-जय भारत माता | मैथिलीशरण गुप्त | MAITHILI SHARAN GUPT

जय-जय भारत माता 
मैथिलीशरण गुप्त 


कवि इस कविता में भारत माता का गुणगान कर रहे हैं। कवि प्रार्थना कर रहे हैं कि इस देश के पावन आँगन में अंधेरा हटे और ज्ञान मिले। सब लोग मिलजुल कर भारत माता के यश की गाथा गाएँ।

जय-जय भारत माता।

ऊँचा हिया हिमालय तेरा

उसमें कितना स्नेह भरा

दिल में अपने आग दबाकर

रखता हमको हरा-भरा,

सौ-सौ सोतों से बह-बहकर

सौ-सौ सोतों से बह-बहकर

है पानी फूटा आता,

जय-जय भारत माता ।



कमल खिले तेरे पानी में

धरती पर हैं आम फले,

इस धानी आँचल में देखो

कितने सुंदर भाव पले,

भाई-भाई मिल रहें सदा ही

टूटे कभी न नाता,

जय-जय भारत माता।



तेरी लाल दिशा में ही माँ

चंद्र-सूर्य चिरकाल रहें,

तेरे पावन आँगन में

अंधकार हटे और ज्ञान मिले,

मिलजुल कर ही हम सब गाएँ

तेरे यश की गाथा, जय जय भारत माता।