गुरुवार, 11 नवंबर 2021

राजा राममोहन राय | RAJA RAM MOHAN ROY

राजा राममोहन राय 
RAJA RAM MOHAN ROY


श्मशान घाट पर चिता सजाई जा चुकी थी। एक स्त्री, जिसके पति का निधन हो गया था, उस चिता पर जीवित जलने के लिए तैयार की जा रही थी। उस स्त्री के देवर ने उपस्थित लोगों का विरोध किया कि यह गलत हो रहा है। उसने कहा यह कहाँ की समझदारी है कि पति के मरने पर उसकी पत्नी जीवित चिता में जल जाये या आप लोगों द्वारा जलने के लिए मजबूर कर दी जाये। यह कुरीति है.... अन्याय है और सरासर अत्याचार है।"

पर उस युवक की किसी ने नहीं सुनी। अन्ततः वही हुआ जो समाज चाहता था। स्त्री चिता पर कूद पड़ी और जीवित जल मरी। इस घटना ने युवक के हृदय को पीड़ा से झकझोर दिया। यहीं से इस युवक ने इस कुरीति को समाप्त करने का बीड़ा उठा लिया। यह दृढ़ निश्चयी, साहसी और समाज सुधारक युवक राममोहन राय था।

जन्म:- 22 मई 1772 ई. को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के गांव राधानगर

पिता:- रामकान्त राय

माता:- तारिणी देवी

मृत्युः- 27 सितम्बर 1833 ई. इंग्लैण्ड के बिरस्टल नगर

राम मोहन राय के समाज सुधार सम्बन्धी कार्य।

सती प्रथा का विरोध, अन्धविश्वासों का विरोध. बहुविवाह विरोध, बाल विवाह विरोध, जाति प्रथा का विरोध, विधवाओं का पुनर्विवाह पुत्रियों को पिता की सम्पत्ति का भाग दिलवाना, धार्मिक सुधार ईश्वर एक है, स्त्री पुरुष को बराबरी के अधिकार।

राममोहन की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही बंगला भाषा में हुई। बाद में एक साहब द्वारा भी उन्हें शिक्षा दी गई। इनकी माँ संस्कृत की विदुषी थीं। मौलवी राममोहन राय ने पटना में अरबी तथा फारसी की उच्च शिक्षा पराप्त की। काशी में इन्हीं ने संस्कृत का भी अध्ययन किया, इन्होंने अंग्रेजी भाषा को भी मन लगाकर पढ़ा। इन पर एक तरफ तो सूफी मत का प्रभाव था, तो दूसरी तरफ वेदान्त और उपनिषदों के प्रभाव से इनका व्यक्तित्व उदारवादी विचारों से ओत-परोत हो गया।

बीच में कुछ समय के लिए राम मोहन राय तिब्बत भी गये। वहीं उन्होंने बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। इन्होंने जैन धर्म और उसके कल्प स्तर का भी अध्ययन किया।

पिता के बुलावे पर ये तिब्बत से वापस आये थोड़े दिन बाद इनका विवाह कर दिया गया। पारिवारिक जीवन के निर्वाह के लिए इन्हीं ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन क्लर्क के पद पर नौकरी कर ली। अपनी मेहनत एवं ईमानदारी के बल पर ये दीवान जैसे उच्च पद पर पहुँच गये। नौकरी में रहते हुए ही इन्होंने अंग्रेजी, लेटिन व ग्रीक आदि भाषाओं को अच्छी तरह सीख लिया।

राम मोहन राय की आयु अभी 40 वर्ष की थी, इन्होंने नौकरी छोड़ दी। इन्होंने कोलकाता में एक कोठी खरीदी और वहीं से समाज सेवा के कार्य करते रहे।

राममोहन राय ने उदारवादी विचार धारा के लोगों को लेकर 'आत्मीय सभा' बनाई। इसका प्रमुख उद्देश्य इस बात का प्रचार करना था 'ईश्वर एक है।' पर उनके इस कथन से कट्टरपन्थी लोग नाराज हो गये। वे उनके विरुद्ध तर्क-वितर्क करते थे। राम मोहन राय उनकी शंकाओं के समाधान के लिए लेख लिखते और उदारवादी दृष्टिकोण के प्रति उन्हें सहमत करते। राममोहन राय ने 'ईश्वर एक है' की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए ब्रह्मसभा की स्थापना की। इसका नाम बाद में बदलकर 'ब्रह्म समाज' कर दिया गया। इसमें भी धर्मों की अच्छी व उदार बातों का समावेश किया गया था।

राममोहन राय ने अपने विचारों को फैलाने के लिए सन् 1821 में 'संवाद कौमुदी' बंगला साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने 1882 ई. में फारसी में मिरा ए-तुल अखबार भी प्रकाशित किया। वे अंग्रेजी शिक्षा के पक्षधर थे। उनका मानना था कि पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान भी भारतीयों के लिए लाभकारी है। उन्होंने 1825 ई. में वेदान्त कालेज की स्थापना की, जिसमें भारतीय विद्या के अलावा सामाजिक एवं भौतिक विज्ञान की भी पढ़ाई होती थी।

भारतीय नव जागरण के अग्रदूत के रूप में राजा राममोहन राय की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। इन्होंने भारतीय धर्म और सभ्यता को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने का प्रयास किया। उनका कहना था -

मैं केवल अन्धविश्वासों की आलोचना करता हूँ न कि धर्म की।

राजा की उपाधि कैसे मिली?

राममोहन राय के समय मुगल शासक कम्पनी से मिलने वाले धन से सन्तुष्ट नहीं था। उसने राम मोहन राय को अपना प्रतिनिधि बनाकर इंग्लैण्ड के शासक के पास भेजा।

इसी अवसर पर मुगल सम्राट ने उनको 'राजा' की उपाधि दी।

स्वातन्त्र्य प्रेमी राजा राममोहन राय की राजनीति का आधारभूत सिद्धान्त उनका यह विश्वास था कि शासन की क्षमता भारतीयों में किसी से कम नहीं है। उन्होंने प्रशासन में सुधार के लिए आन्दोलन किए। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध शिकायत लेकर राममोहन राय 8 अप्रैल 1831 ई. को इंग्लैण्ड पहुँचे। वहीं से वे फ्रांस की राजधानी पेरिस गये। वे फिर इंग्लैण्ड वापस आये। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य खराब होता गया। इंग्लैण्ड के ब्रिस्टल नगर में 62 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। ब्रिस्टल नगर में आज भी उनका स्मारक बना हुआ है।

बुधवार, 10 नवंबर 2021

छत्रपति शिवाजी | CHATRAPATI SHIVAJI

छत्रपति शिवाजी 
CHATRAPATI SHIVAJI


भारतीय इतिहास के महापुरुषों में शिवाजी का नाम प्रमुख है। वे जीवन भर अपने समकालीन शासकों के अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करते रहे।

शिवाजी का जन्म 4 मार्च सन् 1627 ई. को महाराष्ट्र के शिवनेर के किले में हुआ था। इनके पिता का नाम शाहजी और माता का नाम जीजाबाई था। शाहजी पहले अहमदनगर की सेना में सैनिक थे। वहाँ रहकर शाहजी ने बड़ी उन्नति की और वे प्रमुख सेनापति बन गये। कुछ समय बाद शाहजी ने बीजापुर के सुल्तान के यहाँ नौकरी कर ली। जब शिवाजी लगभग दस वर्ष के हुए तब उनके पिता शाहजी ने अपना दूसरा विवाह कर लिया। अब शिवाजी अपनी माता के साथ दादाजी कोणदेव के संरक्षण में पूना में रहने लगे।

माँ जीजाबाई धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। उन्होंने बड़ी कुशलता से शिवाजी की शिक्षा दीक्षा का प्रबन्ध किया। दादाजी कोणदेव की देख-रेख में शिवाजी को सैनिक शिक्षा मिली और वे घुड़सवारी, अस्त्रों-शस्त्रों के प्रयोग तथा अन्य सैनिक कार्यों में शीघ्र ही निपुण हो गये। वे पढ़ना, लिखना तो अधिक नहीं सीख सके, परन्तु अपनी माता से रामायण, महाभारत तथा पुराणों की कहानियाँ सुनकर उन्होंने हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। माता ने शिवाजी के मन में देश-प्रेम की भावना जाग्रत की। वे शिवाजी को वीरों की साहसिक कहानियाँ सुनाती थीं। बचपन से ही शिवाजी के निडर व्यक्तित्व का निर्माण आरम्भ हो गया था।

शिवाजी सभी धर्मों के संतों के प्रवचन बड़ी श्रद्धा के साथ सुनते थे। सन्त रामदास को उन्होंने अपना गुरु बनाया। गुरु पर उनका पूरा विश्वास था और राजनीतिक समस्याओं के समाधान में भी वे अपने गुरु की राय लिया करते थे। दादाजी कोणदेव से शिवाजी ने शासन सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त कर लिया था पर जब शिवाजी बीस वर्ष के थे तभी उनके दादा की मृत्यु हो गयी। अब शिवाजी को अपना मार्ग स्वयं बनाना था। भावल प्रदेश के साहसी नवयुवकों की सहायता से शिवाजी ने आस-पास के किलों पर अधिकार करना आरम्भ कर दिया। बीजापुर के सुल्तान से उनका संघर्ष हुआ। शिवाजी ने अनेक किलों को जीत लिया और रायगढ़ को अपनी राजधानी बनाया। बीजापुर का सुल्तान शिवाजी को नीचा दिखाना चाहता था। उसने अपने कुशल सेनापति अफजल खाँ को पूरी तैयारी के साथ शिवाजी को पराजित करने के लिए भेजा। अफजल खाँ जानता था कि युद्ध भूमि में शिवाजी के सामने उसकी दाल नहीं गलेगी इसलिए कूटनीति से उसने शिवाजी को अपने जाल में फँसाना चाहा। उसने दूत के द्वारा शिवाजी के पास संधि प्रस्ताव भेजा। उन्हें दूत की बातों से अफजल खाँ के कपटपूर्ण व्यवहार का आभास मिल गया था। अतः वे सतर्क होकर अफजल खाँ से मिलने गये। उन्होंने साहसपूर्वक स्थिति का सामना किया और हाथ में पहने हुए बघनख से अफजल खाँ का वध कर दिया।

शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से मुगल बादशाह औरंगज़ेब को चिन्ता हुई। उसने अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेजा और उससे शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति को नष्ट करने को कहा। शाइस्ता खाँ पूना के एक महल में ठहरा था। रात के समय शिवाजी ने अपने सैनिकों के साथ शाइस्ता खाँ पर आंक्रमण कर दिया। लेकिन वे अँधेरे में कमरे से भाग निकला। इस पराजय से मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा को बड़ी क्षति पहुँची।

अब शिवाजी का दमन करने के लिए औरंगज़ेब ने आमेर के राजा जयसिंह को भेजा जयसिंह नीतिकुशल, दूरदर्शी, योग्य और साहसी सेनानायक था। इन दोनों के मध्य दो महीने तक घमासान युद्ध हुआ। अन्त में शिवाजी संधि करने के लिए विवश हो गये और उनको जयसिंह की सभी शर्तें स्वीकार करनी पड़ी।

जब जयसिंह के साथ शिवाजी आगरा पहुँचे तब नगर के बाहर उनका स्वागत नहीं किया गया। मुगल दरबार में भी उनको यथोचित सम्मान नहीं मिला। स्वाभिमानी शिवाजी यह अपमान सहन न कर सके, वे मुगल सम्राट की अवहेलना करके दरबार से चले आये। औरंगज़ेब ने उनके महल के चारों ओर पहरा बैठाकर उनको कैद कर लिया। वे शिवाजी का वध करने की योजना बना रहा था। इसी समय शिवाजी ने बीमार हो जाने की घोषणा कर दी। वे ब्राह्मणों और साधु सन्तों को मिठाइयों की टोकरियाँ भिजवाने लगे। बँहगी में रखी एक ओर की टोकरी में स्वयं बैठकर वे आगरा नगर से बाहर निकल गये और कुछ समय बाद अपनी राजधानी रायगढ़ पहुँच गये। शिवाजी के भाग निकलने का औरंगज़ेब को जीवन-भर पछतावा रहा।

शिवाजी को अपनी सैन्य शक्ति का पुन: गठन करने के लिए समय की आवश्यकता थी। अत: उन्होंने मुगलों से सन्धि करने में हित समझा। दक्षिण के सूबेदार राजा जयसिंह की मृत्यु हो चुकी थी और उनके स्थान पर शाहजादा मुअज्जम दक्षिण का सूबेदार था। उसकी सिफारिश पर औरंगज़ेब ने सन्धि स्वीकार कर ली और शिवाजी की राजा की उपाधि को भी मान्यता दे दी। अब शिवाजी अपने राज्य की शासन व्यवस्था को सुदृढ़ करने में लग गये।

शिवाजी बहुत प्रतिभावान और सजग राजनीतिज्ञ थे। उन्हें अपने सैनिकों की क्षमता और देश की भौगोलिक स्थिति का पूर्ण ज्ञान था। इसलिए उन्होंने दुर्गों के निर्माण और छापामार युद्ध में मुगल सेनाओं की सहायता करके उनको अपना मित्र भी बनाये रखा।

उनकी यह नीति उनके युग के लिए नयी थी। यद्यपि उनका जीवन एक तूफानी दौर के बीच से गुजर रहा था पर वे अपने राज्य की शासन व्यवस्था के लिए समय निकाल लेते थे। शिवाजी की ओर से औरंगज़ेब का मन साफ नहीं था इसलिए सन्धि के दो वर्ष बाद ही फिर संघर्ष आरम्भ हो गया। शिवाजी ने अपने वे सब किलें फिर जीत लिये जिनको जयसिंह ने उनसे छीन लिया था। उनकी सेना फिर मुगल राज्य में छापा मारने लगी। उन्होंने कोडाना के किले पर आक्रमण करके अधिकार प्राप्त कर लिया और उसका नाम सिंहगढ़ रख दिया। अनेक अन्य किलों पर अधिकार कर लेने के बाद शिवाजी ने सूरत पर छापा मारा और बहुत सी सम्पत्ति प्राप्त की। इस प्रकार प्राप्त सम्पत्ति का कुछ भाग तो वे उदारता से अपने सैनिकों में बाँट देते थे और शेष सेना के संगठन तथा प्रजा के हित के कार्यों में खर्च करते थे। शिवाजी परिस्थिति को देखकर अपनी रणनीति बनाते थे, इसीलिए उनकी विजय होती थी।

अब शिवाजी महाराष्ट्र के विस्तृत क्षेत्र के स्वतन्त्र शासक बन गए और सन् 1674 ई. में बड़ी धूमधाम से उनका राज्याभिषेक हुआ। उसी समय उन्होंने छतरपति की पदवी धारण की। इस अवसर पर उन्होंने बड़ी उदारता से दीन दुःखियों को दान दिया।

राज्याभिषेक के बाद भी शिवाजी ने अपना विजय अभियान जारी रखा। बीजापुर और कर्नाटक पर आक्रमण करके समुद्रतट के सारे प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया। शिवाजी ने ही सबसे सुव्यवस्थित ढंग से पहले नौसेना का संगठन किया। शिवाजी महान दूरदर्शी थे और वे यह जानते थे कि भविष्य में देश को नौसेना की भी आवश्यकता होगी। शिवाजी सभी धर्मों का समान आदर करते थे। राज्य के पदों के वितरण में भी कोई भेद भाव नहीं रखते थे। उनके राज्य में स्तियों का बड़ा सम्मान किया जाता था। युद्ध में यदि शतरू पक्ष की कोई महिला उनके अधिकार में आ जाती तो वे उसका सम्मान करते थे और उसे उसके पति अथवा माता-पिता के पास पहुंचा देते थे। उनका राज्य धर्मनिरपेक्ष राज्य था। उनके राज्य में हर एक व्यक्ति को धार्मिक स्वतन्त्रता थी। अत्याचार के दमन को वे अपना कर्त्तव्य समझते थे, इसीलिए सेना संगठन को विशेष महत्व देते थे। सैनिकों की सुख-सुविधा का वे विशेष ध्यान रखते थे। शिवाजी के राज्य में अपराधी को दण्ड अवश्य मिलता था। जब उनका पुत्र शम्भाजी अमर्यादित व्यवहार करने लगा तो उसे भी शिवाजी के आदेश से बन्दी बना लिया गया था।

शिवाजी ने एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना का महान संकल्प लिया था और इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहे। सच्चे अर्थों में शिवाजी एक महान राष्ट्रनिर्माता थे। उन्हीं के पदचिह्नों पर चलकर पेशवाओं ने भारत में मराठा शक्ति और प्रभाव का विस्तार कर शिवाजी के स्वप्न को साकार किया।

अबुल फजल | ABU'L-FAZL IBN MUBARAK | अकबर के नवरत्न | अकबरनामा | आइने अकबरी | ABUL FAZL

अबुल फजल 
ABU'L-FAZL IBN MUBARAK 

अबुल फजल के पूर्वज कई पीढ़ी पहले भारत में आकर बस गये । इनके पिता मुबारक आगरा के पास रहते थे। उनके दो पुत्र थे फैजी और अबुल फजल मुबारक बड़े स्वतंत्र विचार के थे। जो बातें उन्हें ठीक नहीं जँचती थी उन्हें वे नहीं मानते थे। मुबारक का प्रभाव दोनों भाइयों पर पड़ा। दोनों भाई धार्मिक बातों में अति उदार और विवेकशील थे। दोनों बहुत विद्वान और अनेक विषयों के कुशल ज्ञाता थे।

अबुल फजल का जन्म 14 जनवरी सन् 1551 ई. को आगरा के पास ही हुआ था। फैजी इनसे चार साल बड़े थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा इनके पिता द्वारा ही हुई। जब अबुल फजल छोटे थे तभी राजधानी के निकट उपद्रव हो गया था। मुबारक उपद्रवियों के साथ रहे, इसलिए अकबर के कोप के भाजन हो गये। किन्तु कुछ ही दिनों में कुछ लोगां के प्रयत्न से अंकबर ने उन्हें क्षमा कर दिया। फैजी अकबर के दरबार में गये। उन्होंने कविता पढ़ी। उनकी मधुर कविता पर अकबर मुग्ध हो गये और वे उसी दिन से दरबार में आने जाने लगे।

अबुल फजल उस समय पन्द्रह वर्ष के थे। दिन-रात अध्ययन में लगे रहते थे। इनके ज्ञान को देखकर लोगों को आश्चर्य होता था। उसी समय की एक घटना कही जाती है। अबुल फजल को एक फारसी पुस्तक मिली। पुस्तक अच्छी थी, किन्तु आधी जल गयी थी। अबुल फजल ने जला अंश कैंची से काट डाला, वहाँ सादा कागज जोड़ा और ऊपर से पढ़कर अपने मन से सब पृष्ठों में शेष अंश लिख डाला। कुछ दिनों के बाद कहीं से उस पुस्तक की दूसरी प्रतिलिपि कोई लाया। अबुल फजल ने अपनी प्रति उससे मिलायी। उन्होंने जो लिखा था उसमें कहीं नये शब्द तथा नये ढंग के वाक्य आ गये थे, किन्तु बात जो अबुल फजल ने लिखी थी वह पूरी पुस्तक में थी।

ये चौबीस वर्ष के थे जब अकबर से इनकी भेंट हुई। फैजी ने अपने छोटे भाई का परिचय सम्राट से कराया। पहले ही दिन अकबर पर इनकी विद्वता का प्रभाव पड़ा। अकबर बंगाल पर आक्रमण करने जा रहे थे। सब लोग साथ गये। अबुल फजल नहीं गये। अकबर ने अनेक बार इन्हें स्मरण किया। जब बंगाल पर विजय प्राप्त कर अकबर फतेहपुर सीकरी लौटे तब अबुल फजल ने उन्हें कुरान की एक टीका भेंट की जो उन्होंने स्वयं अपने ढंग से तैयार की थी।

अबुल फजल ने राजकुमारों को कुछ दिन पढ़ाया भी था। दरबार में उनका मान प्रतिदिन बढ़ता गया। अनेक राजकीय पदों पर उन्होंने काम किया। अबुल फजल विद्वान तो थे ही, सैनिक भी थे और कई युद्धों में सम्राट की ओर से गये थे। युद्धों का संचालन भी किया था।

एक बार अकबर के पुत्र जहाँगीर अकबर से विद्रोह कर बैठे। उस समय बहुत से सैन्य अधिकारी गुप्त रूप से जहाँगीर का साथ दे रहे थे। अबुल फजल ने सब प्रकार से सम्राट की सहायता की और उसके परिणामस्वरूप जहाँगीर अपने कार्य में सफल न हो सका। जहाँगीर ने समझा अबुल फजल ही राह का काँटा है, उसे ही हटाना चाहिए। अबुल फजल उन दिनों दक्षिण में थे। उन्हें अकबर ने बुलाने के लिए आदमी भेजे। जहाँगीर को इसका पता लग गया। उसने उनकी हत्या की गुप्त योजना की। अबुल फजल जब दक्षिण से लौट रहे थे, राह में लड़ाई में वे मारे गये। अकबर उनकी बाट देख रहे थे। दिन पर दिन गिने जाने लगे। किसी का साहस नहीं होता था कि यह समाचार अकबर के सम्मुख ले जाये। अन्त में यह समाचार अकबर के सम्मुख लोग ले गये। जब उन्हें पता लगा कि जहाँगीर ही अबुल फजल के वध के कारण थे, उनके शोक की सीमा न रही। कई दिन तक उन्होंने भोजन नहीं किया। उन्होंने कहा- “यदि सलीम (जहाँगीर का असली नाम) राज्य ही चाहता था तो मुझे क्यों नहीं मार डाला? अबुल फजल के जीते रहने से मैं कितना सुखी होता।"

अबुल फजल शत्रु से भी कठोर वचन नहीं बोलते थे। सत्य को ही वे सबसे बड़ा धर्म मानते थे। इसी से इनका किसी धर्म से विरोध नहीं रहा। घर के नौकर-चाकर भी इन्हें अपने घर का ही समझते थे। यदि किसी कर्मचारी में त्रुटि पाते थे तो समझा-बुझाकर उसे ठीक राह पर लाते थे।

अकबर ने अबुल फजल की अनेक संस्कृत पुस्तकों का फारसी में अनुवाद करने के लिए कहा था। महाभारत, भागवत आदि कुछ संस्कृत गुरन्थों का उन्हां ने फारसी में अनुवाद किया था जो अब तक मिलते हैं। फारसी में उन्होंने 'अकबरनामा' नामक विशाल ग्रन्थ लिखा जिसमें अकबर के राज्य का वर्णन है। ‘आइने अकबरी' भी इन्हीं का लिखा ग्रन्थ है। उसमे भी अकबर के शासन की बहुत-सी महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं। दोनों ग्रन्थ इतिहास की दृष्टि से श्रेष्ठ माने जाते हैं।

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

मधुर मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा | MADUR MADUR MERE DEPAK JAL - MAHADEVI VARMA | CBSE | CLASS X | HINDI

मधुर मधुर मेरे दीपक जल - महादेवी वर्मा


मधुर मधुर मेरे दीपक जल!

युग युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल,

प्रियतम का पथ आलोकित कर।



सौरभ फैला विपुल धूप बन,

मृदुल मोम सा घुल रे मृदु तन;

दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,

तेरे जीवन का अणु गल गल!

पुलक पुलक मेरे दीपक जल!



सारे शीतल कोमल नूतन,

माँग रहे तुझसे ज्वाला-कण

विश्व-शलभ सिर धुन कहता 'मैं

हाय न जल पाया तुझ में मिल'!

सिहर सिहर मेरे दीपक जल!



जलते नभ में देख असंख्यक,

स्नेहहीन नित कितने दीपक;

जलमय सागर का उर जलता,

विद्युत ले घिरता है बादल! 

विहँस विहँस मेरे दीपक जल!

आदिगुरु शंकराचार्य | ADI SHANKARA CHARYA

आदिगुरु शंकराचार्य 

नदी की वेगवती धारा में माँ-बेटे घिर गए थे। बेटे ने माँ से कहा - "यदि आप मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दें तो मैं बचने की चेष्टा करूँ, अन्यथा यहीं डूब जाऊँगा। उसने अपने हाथ-पैर ढीले छोड़ दिए। पुत्र को डूबता देखकर उसकी माँ ने स्वीकृति दे दी। पुत्र ने स्वयं तथा माँ दोनों को बचा लिया।' 
- यह बालक शंकराचार्य थे।

शंकराचार्य के मन में बचपन से ही संन्यासी बनने की प्रबल इच्छा जाग उठी थी। माँ की अनुमति मिलने पर वे संन्यासी बन गए।

शंकराचार्य के बचपन का नाम शंकर था। इनका जन्म दक्षिण भारत के केरल प्रदेश में पूर्णा नदी के तट पर स्थित कालडी ग्राम में आज से लगभग बारह सौ वर्ष पहले हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम आर्यम्बा था। इनके पिता बड़े विद्वान थे तथा इनके पितामह भी वेद-शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनका परिवार अपने पांडित्य के लिये विख्यात था।

इनके बारे में ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी - 'आपका पुत्र महान विद्वान, यशस्वी तथा भाग्यशाली होगा' इसका यश पूरे विश्व में फैलेगा और इसका नाम अनन्त काल तक अमर रहेगा'। पिता शिवगुरु यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने पुत्र का नाम शंकर रखा। ये अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान थे। शंकर तीन ही वर्ष के थे कि इनके पिता का देहान्त हो गया। पिता की मृत्यु के बाद माँ आर्यम्बा शंकर को घर पर ही पढ़ाती रही। पाँचवे वर्ष उपनयन संस्कार हो जाने पर माँ ने इन्हें आगे अध्ययन के लिए गुरु के पास भेज दिया। शंकर कुशाग्र एवं अलौकिक बुद्धि के बालक थे। इनकी स्मरण शक्ति अद्भत थी। जो बात एक बार पढ़ लेते या सुन लेते उन्हें याद हो जाती थी। इनके गुरु भी इनकी प्रखर मेधा को देखकर आश्चर्यचकित थे। शंकर कुछ ही दिनों में वेदशास्त्रों एवं अन्य धर्मग्रन्थों में पारंगत हो गये। शीघ्र ही इनकी गणना प्रथम कोटि के विद्वानों में होने लगी।

शंकर गुरुकुल में सहपाठियों के साथ भिक्षा माँगने जाते थे। वे एक बार कहीं भिक्षा माँगने गये। अत्यन्त विपन्नता के कारण गृहस्वामिनी भिक्षा न दे सकी अतः रोने लगी।

शंकर के हृदय पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा।

विद्या अध्ययन समाप्त कर शंकर घर वापस लौटे। घर पर वे विद्यार्थियों को पढ़ाते तथा माँ की सेवा करते थे। इनका ज्ञान और यश चारों तरफ फैलने लगा। केरल के राजा ने इन्हें अपने दरबार का राजपुरोहित बनाना चाहा किन्तु इन्होंने बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। राजा स्वयं शंकर से मिलने आये। उन्होंने एक हजार अशर्फियाँ इन्हें भेंट की और इन्हें तीन स्वरचित नाटक दिखाये। शंकर ने नाटकों की प्रशंसा की किन्तु अशर्फियाँ लेना अस्वीकार कर दिया। शंकर के त्याग एवं गुणग्राहिता के कारण राजा इनके भक्त बन गए।

अपनी माँ से अनुमति लेकर शंकर ने संन्यास ग्रहण कर लिया। माँ ने अनुमति देते समय शंकर से वचन लिया कि वे उनका अन्तिम संस्कार अपने हाथों से ही करेंगे। यह जानते हुए भी कि संन्यासी यह कार्य नहीं कर सकता उन्होंने माँ को वचन दे दिया। माँ से आज्ञा लेकर शंकर नर्मदा तट पर तप में लीन संन्यासी गोविन्दनाथ के पास पहुँचे। शंकर जिस समय वहाँ पहुँचे गोविन्दनाथ एक गुफा में समाधि लगाये बैठे थे। समाधि टूटने पर शंकर ने उन्हें प्रणाम किया और बोले - 'मुझे संन्यास की दीक्षा तथा आत्मविद्या का उपदेश दीजिए।'

गोविन्दनाथ ने इनका परिचय पूछा तथा इनकी बातचीत से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने संन्यास की दीक्षा दी और इनका नाम शंकराचार्य रखा। वहाँ कुछ दिन अध्ययन करने के बाद वे गुरु की अनुमति लेकर सत्य की खोज के लिए निकल पड़े। गुरु ने उन्हें पहले काशी जाने का सुझाव दिया।

शंकराचार्य काशी में एक दिन गंगा स्नान के लिए जा रहे थे। मार्ग में एक चांडाल मिला। शंकराचार्य ने उसे मार्ग से हट जाने के लिए कहा। उस चांडाल ने विनम्र भाव से पूछा 'महाराज! आप चांडाल किसे कहते हैं? इस शरीर को या आत्मा को? यदि शरीर को तो वह नश्वर है और जैसा अन्न-जल का आपका शरीर वैसा ही मेरा भी। यदि शरीर के भीतर की आत्मा को, तो वह सबकी एक है, क्योंकि ब्रह्म एक है। शंकराचार्य को उसकी बातों से सत्य का ज्ञान हुआ और उन्होंने उसे धन्यवाद दिया।

काशी में शंकराचार्य का वहाँ के प्रकाण्ड विद्वान मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ हुआ। यह शास्त्रार्थ कई दिन तक चला। मंडन मिशर तथा उनकी पत्नी भारती को बारी-बारी से इनसे शास्त्रार्थ हुआ। पहले शंकराचार्य भारती से हार गए किन्तु पुनः शास्त्रार्थ होने पर वे जीते। मंडन मिश्र तथा उनकी पत्नी शंकराचार्य के शिष्य बन गये।

महान कर्मकाण्डी कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करने के लिए वे प्रयागधाम गए। भट्ट बड़े-बड़े विद्वानों को परास्त करने वाले दिग्विजयी विद्वान थे।

संन्यासी शंकराचार्य विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते रहे। वे श्रुंगेरी में थे तभी माता की बीमारी का समाचार मिला। वहु तुरन्त माँ के पास पहुँचे। वह इन्हें देखकर बड़ी प्रसन्न हुईं। कहते हैं कि इन्होंने माँ को भगवान विष्णु का दर्शन कराया और लोगों के विरोध करने पर भी माँ का दाह संस्कार किया।

शंकराचार्य ने धर्म की स्थापना के लिए सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। उन्होंने भग्न मंदिरों का जीणों द्धार कराया तथा नये मन्दिरों की स्थापना की। लोगों को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में पिरोने के लिए उन्होंने भारत के चारों कोनों पर चार धामों (मठों) की स्थापना की। इनके नाम हैं - श्री बदरीनाथ, द्वारिकापुरी, जगन्नाथपुरी तथा श्री रामेश्वरम्। ये चारों धाम आज भी विद्यमान हैं। इनकी शिक्षा का सार है –

“ब्रह्म सत्य है तथा जगत मिथ्या है” इसी मत का इन्होंने प्रचार किया।

शंकराचार्य बड़े ही उज्जवल चरित्र के व्यक्ति थे। वे सच्चे संन्यासी थे तथा उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन्होंने भाष्य, स्तोत्र तथा प्रकरण ग्रन्थ भी लिखे। इनका देहावसान मात्र 32 वर्ष की अवस्था में हो गया। उनका अन्तिम उपदेश था -

“हे मानव! तू स्वयं को पहचान, स्वयं को पहचानने के बाद, तू ईश्वर को पहचान जायेगा।“

संत नामदेव | SANT NAMDEV | नामदेव का भजन 'अभंग'

संत नामदेव

जिस प्रकार उत्तर भारत में अनेक सन्त हुए हैं, उसी प्रकार दक्षिण भारत में भी महान सन्त हुए हैं, जिनमें नामदेव भी एक हैं। नामदेव के जीवन के सम्बन्ध में कुछ ठीक से ज्ञात नहीं है। इतना पता चलता है कि जिन्होंने इन्हें पाला, उनका नाम दामोदर था। दामोदर की पत्नी का नाम गुणाबाई था। वे पंढरपुर में गोकुलपुर नामक गाँव में रहते थे। भीमा नदी के किनारे इन्हें नामदेव शिशु की अवस्था में मिले थे। यही नामदेव के माता-पिता माने जाते हैं। घटना आज से लगभग आठ सौ साल पहले की है।

उनकी शिक्षा कहाँ हुई थी, इसका पता नहीं। इतना पता लगता है कि आठ वर्ष की अवस्था से वे योगाभ्यास करने लगे। उसी समय से उन्होंने अन्न खाना छोड़ दिया और शरीर की रक्षा के लिए केवल थोड़ा-सा दूध पी लिया करते थे। स्वयं अध्ययन करके इन्होंने अपूर्व बुद्धि तथा ज्ञान प्राप्त किया था।

नामदेव के विषय में अनेक चमत्कारी कथाएँ मिलती हैं। एक घटना इस प्रकार बतायी गयी है कि एक बार इनके पिता इनकी माता को साथ लेकर कहीं बाहर गये। यह लोग कृष्ण के बड़े भक्त थे और घर में विट्ठलनाथ की मूर्ति स्थापित कर रखी थी जिसकी नियमानुसार प्रतिदिन पूजा होती थी। नामदेव से उन लोगों ने कहा, हम लोग बाहर जा रहे हैं। विट्ठलनाथ को खिलाये बिना न खाना। उनका अभिप्राय भोग लगाने का था किन्तु नामदेव ने सीधा अर्थ लिया। दूसरे दिन भोजन बनाकर थाल परोसकर मूर्ति के पास पहुँच गये और विट्ठलनाथ से भोजन करने का आग्रह करने लगे। बारम्बार कहने पर भी विट्ठलनाथ टस से मस नहीं हुए। नामदेव झुंझलाकर वहीं बैठ गये। माता-पिता की आज्ञा की अवहेलना करना वे पाप समझते थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक विट्ठलनाथ भोजन नहीं ग्रहण करेंगे, मैं यूँ ही बैठा रहूँगा। कहा जाता है कि नामदेव के हठ से विट्ठलनाथ ने मनुष्य शरीर धारण कर भोजन ग्रहण किया।

जब नामदेव के पिता लौटे और उन्होंने यह घटना सुनी तब उन्हें विश्वास नहीं हुआ किन्तु जब बार-बार नामदेव ने कहा तब उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वे जानते थे कि यह बालक कभी झूठ नहीं कहेगा। उन्होंने कहा, “बेटा, तू भाग्यवान है। तेरा जन्म लेना इस संसार में सफल हुआ। भगवान तुझ पर प्रसन्न हुए और स्वयं तुझे दर्शन दिया।” नामदेव यह सुनकर पुलकित हो गए और उसी दिन से दूनी लगन से पूजा करने लगे।

एक दिन नामदेव औषधि के लिए बबूल की छाल लेने गये। पेड़ की छाल इन्होंने काटी ही थी कि उसमें रक्त के समान तरल पदार्थ बहने लगा। नामदेव को ऐसा लगा कि जैसे उन्होंने मनुष्य की गर्दन पर कुल्हाड़ी चलायी है। पेड़ को घाव पहुँचाने का इन्हें पश्चाताप हुआ। उसी दिन उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे घर छोड़कर चले गये। घर छोड़ने के बाद ये देश के अनेक भागों में भ्रमण करते रहे। साधु-सन्तों के साथ रहते थे और भजन-कीर्तन करते थे। एक बार की घटना है कि चार सौ भक्तों के साथ यह कहीं जा रहे थे। लोगों ने समझा कि डाकुओं का दल है, डाका डालने के लिए कहीं जा रहा है। अधिकारियों ने पकड़ लिया और राजा के पास ले गये। वहीं राजा के सामने एक मृत गाय को जीवित कर इन्होंने राजा को चमत्कृत कर दिया। राजा यह चमत्कार देखकर डर गया। नामदेव के सम्बन्ध में ऐसी सैकड़ों घटनाओं का वर्णन मिलता है। इन घटनाओं में सच्चाई न भी हो तो भी उनसे इतना पता चलता है कि उनकी शक्ति एवं प्रतिभा अलौकिक थी। कठिन साधना और योग के अभ्यास के बल पर बहुत से कार्यों को भी उन्होंने सम्भव कर दिखाया।

वे स्वयं भजन बनाते थे और गाते थे। उनके शिष्य भी गाते थे। इन भजनों को 'अभंग' कहते हैं। उनके रचे सैकड़ों अभंग मिलते हैं और महाराष्ट्र के रहने वाले बड़ी भक्ति तथा श्रद्धा से आज भी उनके अभंग गाते हैं। महाराष्ट्र में उनका नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है।

महाराष्ट्र ही नहीं, सारे देश के लोग उन्हें बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं और उनकी गणना उसी श्रेणी में है जिसमें तुलसी, रामदास, नरसी मेहता और कबीर की है।

महाकवि कालिदास | MAHAKAVI KALIDAS | मेघदूत | ऋतुसंहार | अभिज्ञानशाकुन्तल | रघुवंश | कुमारसम्भव

महाकवि कालिदास


क्या आप कभी यह कल्पना कर सकते हैं कि बादल भी किसी का सन्देश दूसरे तक पहुँचा सकते हैं? संस्कृत साहित्य में एक ऐसे महाकवि हुए हैं, जिन्होंने मेघ के द्वारा सन्देश भेजने की मनोहारी कल्पना की। वे हैं संस्कृत के महान कवि कालिदास।

कालिदास कौन थे ? उनके माता-पिता का क्या नाम था ? उनका जन्म कहाँ हुआ था ? इस बारे में कुछ ज्ञात नहीं है। उन्हांेने अपने जीवन के विषय में कहीं कुछ नहीं लिखा है। अत: उनके बारे में जो कुछ भी कहा जाता है वह अनुमान पर आधारित है। कहा जाता है कि पत्नी विद्योत्तमा की प्रेरणा से उन्होंने माँ काली देवी की उपासना की जिसके फलस्वरूप उन्हें कविता करने की शक्ति प्राप्त हुई और वह कालिदास कहलाए।

कविता करने की शक्ति प्राप्त हो जाने के बाद जब वे घर लौटे तब अपनी पत्नी से कहा “अनावृतं कपाटं द्वारं देहि” (अर्थात दरवाजा खोलो) पत्नी ने कहा “अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष: ।” (वाणी मं कुछ विशेषता है) कालिदास ने यह तीन शब्द लेकर तीन काव्य गरन्थों की रचना की।

इसे भी जानिये

‘अस्ति' से कुमार सम्भव के प्रथम श्लोक, ‘कश्चित्' से मेघदूत के प्रथम श्लोक और 'वाक्' से रघुवंश के प्रथम श्लोक की रचना की।

महाकवि कालिदास ई०पू० प्रथम शताब्दी में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के राजकवि थे। ये शिव-भक्त थे। उनके गरन्थों के मंगल श्लोकों से इस बात की पुष्टि होती है। मेघदूत और रघुवंश के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उन्होंने भारतवर्ष की विस्तृत यात्रा की थी। इसी कारण उनके भौगोलिक वर्णन सत्य, स्वाभाविक और मनोरम हुए। रचनाएँ

महाकाव्य - रघुवंश, कुमारसम्भव

नाटक - अभिज्ञानशाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्र

खण्डकाव्य या गीतकाव्य - ऋतुसंहार, मेघदूत

महाकवि कालिदास के ग्रन्थों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने वेदों, उपनिषदों, दर्शनों, रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों, शास्त्रीय संगीत, ज्योतिष, व्याकरण,एवं छन्दशास्तर आदि का गहन अध्ययन किया था।

महाकवि कालिदास अपनी रचनाओं के कारण सम्पूर्ण विश्व में परसिद्ध हैं। उनके कवि हृदय में भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव था। अभिज्ञानशाकुन्तल में शकुन्तला की विदा बेला पर महर्षि कण्व द्वारा दिया गया उपदेश आज भी भारतीय समाज के लिए एक सन्देश है -

अपने गुरुजनों की सेवा करना, कुरोध के आवेश में प्रतिकूल आचरण न करना, अपने आश्रितों पर उदार रहना, अपने ऐश्वर्य पर अभिमान न करना, इस प्रकार आचरण करने वाली स्त्रियाँ गृहलक्ष्मी के पद को प्राप्त करती हैं।

अभिज्ञानशाकुन्तल

महाकवि कालिदास का प्रकृति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे प्रकृति को सजीव और मानवीय भावनाओं से परिपूर्ण मानते थे। उनके अनुसार मानव के समान वे भी सुख-दुःख का अनुभव करती है। शकुन्तला की विदाई बेला पर आश्रम के पशु-पक्षी भी व्याकुल हो जाते हैं.

हिरणी कोमल कुश खाना छोड़ देती है, मोर नाचना बन्द कर देते हैं और लताएँ अपने पीले पत्ते गिराकर मानों अपनी प्रिय सखी के वियोग में अश्रुपात (आँसू गिराने) करने लगती हैं।

अभिज्ञानशाकुन्तल

कालिदास अपनी उपमाओं के लिए भी संसार में परसिद्ध हैं। उनकी उपमाएँ अत्यन्त मनोरम हैं और सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं। अभिज्ञानशाकुन्तल के चतुर्थ अंक में कालिदास ने शकुन्तला की विदाई बेला पर प्रकृति द्वारा शकुन्तला को दी गयी भेंट का मनोहारी चितरण किया है।

"किसी वृक्ष ने चन्द्रमा के तुल्य श्वेत मांगलिक रेशमी वस्तर दिया। किसी ने पैरों को रंगने योग्य आलक्तक (आलता महावर) प्रकट किया। अन्य वृक्षों ने कलाई तक उठे हुए सुन्दर किसलयों (कोपलों) की प्रतिस्पर्धा करने वाले, वन देवता के करतलों (हथेलियों) से आभूषण दिये।"

कालिदास अपने नाटक अभिज्ञानशाकुन्तल के कारण भारत में ही नहीं विश्व में सर्वशरेष्ठ नाटककार माने जाते हैं। भारतीय समालोचकों ने कालिदास का अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक सभी नाटकों में सर्वश्रेष्ठ बताया है

"काव्येषु नाटकं रम्यं तंतर रम्या शकुन्तला "

संसार की सभी भाषाओं में कालिदास की इस रचना का अनुवाद हुआ है। जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान गेटे ‘अभिज्ञानशाकुन्तल' नाटक को पढ़कर भाव विभोर हो उठे और कहा यदि स्वर्गलोक और मर्त्यलोक को एक ही स्थान पर देखना हो तो मेरे मँह से सहसा एक ही नाम निकल पड़ता है शकुन्तला..

महाकवि कालिदास को भारत का 'शेक्सपियर' कहा जाता है। कालिदास और संस्कृत साहित्य का अटूट सम्बन्ध है। जिस प्रकार रामायण और महाभारत संस्कृत कवियों के आधार हैं उसी प्रकार कालिदास के काव्य और नाटक आज भी कवियों के लिए अनुकरणीय बने हैं।

सोमवार, 8 नवंबर 2021

सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन | SARVEPALLI RADHAKRISHNAN

सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन 
SARVEPALLI RADHAKRISHNAN

तुम जब सफलता की ऊँचाइयों तक पहुँच जाओ तो उस समय अपने कदमों को यथार्थ के धरातल से डिगने मत देना। - सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन

क्या आप जानते हैं आपके विद्यालय में प्रतिवर्ष 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस क्यों मनाया जाता है?

पाँच सितम्बर का दिन महान दार्शनिक, कुशल शिक्षक एवं गणतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन की याद दिलाता है। इनका जन्म 5 सितम्बर 1888 को तमिलनाडु के तिरुतानी गाँव में हुआ था।

वैसे तो समय-समय पर सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन इस देश के अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन हुए हैं। लेकिन एक शिक्षक के रूप में उन्होंने जो किया है वह युगों-युगों तक स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। मद्रास (चेन्नई) प्रेसीडेन्सी कॉलेज के सहायक अध्यापक पद से शुरू करके विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपति तक के सफर में इन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए। ये जहाँ भी गए वहाँ कुछ न कुछ सुधारात्मक बदलाव जरूर हुआ। आन्ध्र विश्वविद्यालय को इन्होंने आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय को राजधानी का श्रेष्ठ ज्ञान केन्द्र बनाने का भरपूर प्रयास किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए किया गया उनका कार्य विशेष उल्लेखनीय है।

इनकी माता का नाम श्रीमती सीतम्मा तथा पिता का नाम सर्वपल्ली वीरास्वामी था। आरम्भिक शिक्षा गाँव के ही स्कूल में तथा मद्रास (चेन्नई) क्रिश्चियन कॉलेज से बी.ए. एवं एम.ए.

** 17 वर्ष की उम्र में ही शिवकमुअम्मा से शादी।

** 1909 में मद्रास (चेन्नई) के प्रेसीडेन्सी कॉलेज से शिक्षक जीवन की शुरुआत।

** 1918 में मैसूर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक हुए।

** 1921 में कोलकाता विश्वविद्यालय चले गए और दर्शनशास्त्र का शिक्षण करने लगे।

** 1928 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के साथ शैक्षिक सम्बन्धों की शुरुआत।

** 1931 में आन्ध्र विश्वविद्यालय के कुलपति बने।

** 1939 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति पद का कार्यभार दिया गया।

** 1954 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति बने तथा इसी वर्ष भारत के सर्वोच्च सम्मान "भारत रत्न” से सम्मानित किए गए।

** 1956 में पत्नी शिवकमुअम्मा का निधन।

** 17 अपरैल 1975 को देहावसान।

प्रमुख पुस्तकें -

द एथिक्स ऑफ वेदान्त, द फिलॉसफी ऑफ रवीन्द्र नाथ टैगोर, माई सर्च फार थ, द रेन ऑफ कंटम्परेरी फिलॉसफी, रिलीजन एण्ड सोसाइटी, इण्डियन फिलॉसफी, द एसेन्सियल आफ सायकॉलजी।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने भारत छोड़ो आन्दोलन में बढ़कर हिस्सा लिया। परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश के तात्कालिक गवर्नर सर मारिस हेलेट ने क्रुद्ध होकर पूरे विश्वविद्यालय को युद्ध अस्पताल में बदल देने की धमकी दी। डॉ. राधाकृष्णन तुरन्त दिल्ली गए और वहाँ वायसराय लार्ड लिनालियगो से मिले। उन्हें अपनी बातों से प्रभावित कर गवर्नर के निर्णय को स्थगित कराया। फिर एक नई समस्या आई। क्रुद्ध गवर्नर ने विश्वविद्यालय की आर्थिक सहायता बन्द कर दी। लेकिन राधाकृष्णन ने शान्तिपूर्वक येनकेन प्रकारेण धन की व्यवस्था की और विश्वविद्यालय संचालन में धन की कमी को आड़े नहीं आने दिया।

राधाकृष्णन ने कई प्रकार से अपने देश की सेवा की, किन्तु सर्वोपरि वे एक महान शिक्षक रहे जिससे हम सबने बहुत कुछ सीखा और सीखते रहेंगे। - पं. जवाहर लाल नेहरू

शिक्षा के क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदान को देखते हुए भारत सरकार की ओर से वर्ष 1954 में उन्हें स्वतंत्र भारत के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से विभूषित किया गया। डॉ. राधाकृष्णन 'भारत रत्न' से सम्मानित किए जाने वाले प्रथम भारतीय नागरिक थे। वास्तव में उनका भारत रत्न से सम्मानित होना देश के हर शिक्षक के लिए गौरव की बात थी।

राजनीति और राधाकृष्णन -

सन् 1949 में राधाकृष्णन को सोवियत संघ में भारत के प्रथम राजदूत के रूप में चुना गया। उस समय वहाँ के राष्ट्रपति थे जोसेफ स्तालिन। इनके चयन से लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। आदर्शवादी दर्शन की व्याख्या करने वाला एक शिक्षक भला भौतिकवाद की धरती पर कैसे टिक पायेगा? लेकिन सबको विस्मृत करते हुए डॉ. राधाकृष्णन ने अपने चयन को सही साबित कर दिखाया। उन्होंने भारत और सोवियत रूस के बीच सफलतापूर्वक एक मित्रतापूर्ण समझदारी की नींव डाली।

विशेष उल्लेखनीय : -

** सोवियत संघ में राजदूत बनकर मास्को और भारत के बीच दोस्ती की नींव डाली। (1949-1954)

** भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति के रूप में सदन की कार्यवाही में एक नया आयाम परस्तुत किया। (1952-1962)

** भारत के राष्ट्रपति के रूप में देश का मान बढ़ाया । (1962-1967)

डॉ. राधाकृष्णन को विदेशों में जब भी मौका मिलता स्वतंत्रता के पक्ष में अपने विचार व्यक्त करने से नहीं चूकते। उनका कहना था - “भारत कोई गुलाम नहीं जिस पर शासन किया जाय, बल्कि यह अपनी आत्मा की खोज में लगा एक राष्ट्र है।"

शासनाध्यक्ष राधाकृष्णन : -

सन् 1955 में डॉ. राधाकृष्णन स्वतंत्र भारत के उप राष्ट्रपति के पद पर चुने गए। यह चुनाव आदर्श साबित हुआ। जितनी मर्यादा उन्हें उपराष्ट्रपति पद से मिली उससे कहीं ज्यादा उन्होंने उस पद की मर्यादा में वृद्धि की। राधाकृष्णन अक्सर राज्य सभा में होने वाली गरमागरम बहस के बीच अपनी विनोदपूर्ण टिप्पणियों से वातावरण को सरस बना देते थे। राधाकृष्णन जिस तरीके से राज्य सभा की कार्यवाही का संचालन करते थे उससे प्रतीत होता था कि यह सभा की बैठक नहीं बल्कि पारिवारिक मिलन समारोह है।

-जवाहर लाल नेहरू

1962 में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय गणतंत्र के दूसरे राष्ट्रपति बने। वे कभी भी एक दल अथवा कार्यक्रम के समर्थक नहीं रहे। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने विदेशों में अपने भाषण के दौरान राजनीतिज्ञों एवं लोगों को प्रेरित किया - “लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में अपने कर्तव्य का पालन करें। इस बात को पूरी तरह समझ लें कि लोकतंत्र का अर्थ मतभेदों को मिटा डालना नहीं बल्कि मतभेदों के बीच समन्वय का रास्ता निकालना है।"

1967 में राष्ट्रपति पद से मुक्त होते हुए उन्होंने देशवासियों को सचेत करते हुए कहा - “इस धारणा को बल नहीं मिलना चाहिए कि हिंसापूर्ण अव्यवस्था फैलाये बिना कोई परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। सार्वजनिक जीवन के सभी पहलुओं में जिस प्रकार से छल-कपट प्रवेश कर गया है उसके लिए अधिक बुद्धिमत्ता का सहारा लेकर हमें अपने जीवन में उचित परिवर्तन लाना चाहिए। समय के साथ-साथ हमें आगे जरूर बढ़ते रहना चाहिए।”

सरस वक्ता :-

डॉ. राधाकृष्णन एक कुशल वक्ता थे। इनके वक्तव्य को लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। वे गंभीर से गंभीर विषयों का प्रस्तुतीकरण अत्यन्त सहज रूप से कर लेते थे। इनके व्याख्यानों से देश ही नहीं वरन् पूरी दुनिया के लोग प्रभावित थे। वे कठिन से कठिन विषयों की व्याख्या आधुनिक शब्दावलियों में इस प्रकार करते थे कि इसका प्रयोग लोग अपनी आधुनिक अनुभूतियों के अनुरूप कर सकें।

मद्रास (चेन्नई) प्रेसीडेंसी कॉलेज के एक छात्र के शब्दों में -“जितनी देर तक वे पढ़ाते थे, उतने समय तक उनका प्रस्तुतीकरण उत्कृष्ट था। वे जो कुछ भी पढ़ाते थे, सभी के लिए सुगम था। उन्होंने कभी कोई कठोर बात नहीं कही, फिर भी उनकी कक्षाओं में अत्यधिक अनुशासन का पालन होता था।"

राधाकृष्णन के व्याख्यानों ने भारतीय तथा यूरोपियन, दो भिन्न संस्कृतियों को समझने के लिए सेतु का काम किया। - प्रसिद्ध उपन्यासकार एल्डस हक्सले।

घर वापसी :-

डॉ. राधाकृष्णन राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद मई 1967 में मद्रास (चेन्नई) स्थित अपने घर के सुपरिचित माहौल में लौट आये और जीवन के अगले आठ वर्ष बड़े ही आनन्दपूर्वक व्यतीत किये।

भारतीय दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान, कुशल राजनीतिज्ञ एवं अद्वितीय शिक्षक के रूप में विख्यात डॉ. राधाकृष्णन 17 अप्रैल, 1975 को इस दुनिया से चल बसे। जीवन भर वे 'ह्यूम' की सलाह -“एक दार्शनिक बनो, परन्तु कीर्ति अर्जित करने के साथ ही एक मानव बने रहो, पर चलते रहे।“

राधाकृष्णन के दुबले-पतले शरीर में एक महान आत्मा का निवास था - एक ऐसी श्रेष्ठ आत्मा जिसकी हम सभी श्रद्धा, प्रशंसा, यहाँ तक कि पूजा करना भी सीख गए। - नोबेल पुरस्कार विजेता, सी.वी. रमन

शनिवार, 7 अगस्त 2021

पंद्रह अगस्त - गिरिजाकुमार माथुर

पंद्रह अगस्त - गिरिजाकुमार माथुर



काव्य परिचय :

प्रस्तुत गीत में कवि ने स्वतंत्रता के उत्साह को अभिव्यक्त किया है। स्वतंत्रता के पश्चात विदेशी शासकों से मुक्ति का उल्लास देश में चारों ओर छलक रहा है। इस नवउल्लास के साथ-साथ कवि देशवासियों तथा सैनिकों को सजग और जागरूक रहने का आवाहन कर रहा है। समस्त भारतवासियों का लक्ष्य यही होना चाहिए कि भारत की स्वतंत्रता पर अब कोई आँच न आने पाए क्योंकि दुखों की काली छाया अभी पूर्ण रूप से हटी नहीं है। जब शोषित, पीड़ित और मृतप्राय समाज का पुनरुत्थान होगा तभी सही मायने में भारत आजाद कहलाएगा।



आज जीत की रात
पहरुए, सावधान रहना!
खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना।
प्रथम चरण है नये स्वर्ग का
है मंजिल का छोर,
इस जनमंथन से उठ आई
पहली रतन हिलोर,
अभी शेष है पूरी होना
जीवन मुक्ता डोर,
क्योंकि नहीं मिट पाई दुख की
विगत साँवली कोर,
ले युग की पतवार
बने अंबुधि महान रहना,
पहरुए, सावधान रहना!


विषम श्रृंखलाएँ टूटी हैं
खुल समस्त दिशाएँ,
आज प्रभंजन बनकर चलतीं
युग बंदिनी हवाएँ.
प्रश्नचिह्न बन खड़ी हो गईं
ये सिमटी सीमाएँ,
आज पुराने सिंहासन की
टूट रहीं प्रतिमाएँ,
उठता है तूफान
इंदु, तुम दीप्तिमान रहना,
पहरुए, सावधान रहना!


ऊँची हुई मशाल हमारी
आगे कठिन डगर है,
शत्रु हट गया लेकिन उसकी
छायाओं का डर है,
शोषण से मृत है समाज
कमजोर हमारा घर है,
किंतु आ रही नई जिंदगी
यह विश्वास अमर है,
जनगंगा में ज्वार
लहर तुम प्रवहमान रहना,
पहरुए, सावधान रहना !

('धूप के धान' काव्य संग्रह से)



कवि परिचय : गिरिजाकुमार माथुर जी का जन्म २२ अगस्त १९१९ को अशोक नगर (मध्य प्रदेश) में हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा झाँसी में तथा स्नातकोत्तर शिक्षा लखनऊ में हुई। आपने ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली तथा आकाशवाणी लखनऊ में सेवा प्रदान की। संयुक्त राष्ट्र संघ, न्यूयार्क में सूचनाधिकारी का पदभार भी सँभाला। आपके काव्य में राष्ट्रीय चेतना के स्वर मुखरित होने के कारण प्रत्येक भारतीय के मन में जोश भर देते हैं। माथुर जी की मृत्यु १९९४ में हुई।

प्रमुख कृतियाँ : 'मंजीर', 'नाश और निर्माण', 'धूप के धान', 'शिलापंख चमकीले', 'जो बँध नहीं सका', 'साक्षी रहे वर्तमान', 'मैं वक्त के हूँ सामने' (काव्य संग्रह) आदि।

काव्य प्रकार : यह 'गीत' विधा है जिसमें एक मुखड़ा और दो या तीन अंतरे होते हैं। इसमें परंपरागत भावबोध तथा शिल्प प्रस्तुत किया जाता है। कवि अपने कथ्य की अभिव्यक्ति हेतु प्रतीकों, बिंबों तथा उपमानों को लोक जीवन से लेकर उनका प्रयोग करता है। 'तार सप्तक' के कवियों में अज्ञेय, मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर, नेमिचंद्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, रामविलास शर्मा का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

बुधवार, 4 अगस्त 2021

शनि : सबसे सुंदर ग्रह | गुणाकर मुले | SATURN | टायटन |

शनि : सबसे सुंदर ग्रह 
गुणाकर मुले


सौर-मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के बाद शनि ग्रह की कक्षा है। शनि सौर-मंडल का दूसरा बड़ा ग्रह है। यह हमारी पृथ्वी से करीब 750 गुना बड़ा है। शनि के गोले का व्यास 116 हज़ार किलोमीटर है अर्थात् पृथ्वी के व्यास से करीब नौ गुना अधिक। हमारी पृथ्वी सूर्य से करीब 15 करोड़ किलोमीटर की दूरी पर है। तुलना में शनि ग्रह दस गुना अधिक दूर है। इसे दूरबीन के बिना कोरी आँखों से भी आकाश में पहचाना जा सकता है। 

हमारी पौराणिक कथाओं के अनुसार शनि महाराज सूर्य के पुत्र हैं। शनि को 'शनैश्चर' भी कहते है। आकाश के गोल पर यह ग्रह बहुत धीमी गति से चलता दिखाई देता है। इसीलिए प्राचीन काल के लोगों ने इसे 'शनैःचर' नाम दिया था। शनैचर का अर्थ होता है धीमी गति से चलनेवाला। 

लेकिन बाद के लोगों ने इस शनैश्चर को सनीचर बना डाला। सनीचर का नाम लेते ही अंधविश्वासियों की रूह काँपने लगती है। एक बार यदि यह ग्रह किसी की राशि में पहुंच जाये, तो फिर साढ़े सात साल तक उसकी खैर नहीं।

शनि को यदि दूरबीन से देखा जाये तो इस ग्रह के चहुँ ओर वलय (गोल) दिखाई देते हैं। प्रकृति ने इस ग्रह के गले में खूबसूरत हार डाल दिये है। शनि के इन वलयों या कंकणों ने इस ग्रह को सौर-मंडल का सबसे सुंदर एवं मनोहर ग्रह बनाया है। वस्तुतः शनि सौर-मंडल का सर्वाधिक सुंदर ग्रह है।

ताज़ी जानकारी के अनुसार बृहस्पति, युरेनस और नेपच्यून के इर्द-गिर्द भी वलय हैं, परंतु शनि के वलय ज्यादा विस्तृत और स्पष्ट हैं। शनि के अद्भुत वलयों और इसकी अन्य अनेक विशेषताओं के बारे में विस्तृत जानकारी हमें आधुनिक काल में ही मिली है। 

शनि ग्रह अत्यंत मंद गति से करीब तीस वर्षों में सूर्य का एक चक्कर लगाता है। इसलिए साल-भर के अंतर के बाद भी आकाश में शनि की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई देता। यह एक राशि में करीब ढाई साल तक रहता है। 

शनि ग्रह सूर्य से पृथ्वी की अपेक्षा करीब दस गुना अधिक दूर है, इसलिए बहुत कम सूर्यताप उस ग्रह तक पहुँचता है - पृथ्वी का मात्र सौवाँ हिस्सा। इसलिए शनि के वायुमंडल का तापमान शून्य के नीचे 150° सेंटीग्रेड के आसपास रहता है। शनि एक अत्यन्त ठंडा ग्रह है। 

बृहस्पति की तरह शनि का वायुमंडल भी हाइड्रोजन, हीलियम, मीथेन तथा एमोनिया गैसों से बना है। शनि की सतह के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है। हम केवल इसके चमकीले बाहरी यायुमंडल को ही देख सकते हैं। शनि के केंद्रभाग में ठोस गुठली होनी चाहिए। लेकिन चंद्रमा, मंगल या शुक्र की तरह शनि की सतह पर उतर पाना आदमी के लिए संभव नहीं होगा। 

अभी दो दशक पहले तक शनि के दस उपग्रह खोजे थे। लेकिन अब शनि के उपग्रहों की संख्या 17 पर पहुँच गई है। धरती से भेजे गये स्वचालित अंतरिक्षयान पायोनियर तथा वायजर शनि के नज़दीक पहुँचे और इन्हीं के ज़रिए इस ग्रह के सात नए उपग्रह खोजे गये। शनि के और भी कुछ चंद्र हो सकते है।

शनि का सबसे बड़ा चंद्र टायटन सौर-मंडल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और 6 दिलचस्प उपग्रह है। टाइटन हमारे चंद्र से भी काफी बड़ा है। इसका व्यास 5150 किलोमीटर है। अभी कुछ साल पहले तक टाइटन को ही सौर-मंडल का सबसे बड़ा उपग्रह समझा जाता था, परंतु वायजर यान की खोजबीन से पता चला है कि बृहस्पति का गैनीमीड उपग्रह सौर-मंडल का सबसे बड़ा उपग्रह है। शनि की सतह पर अंतरिक्षयान को उतारना तो संभव नहीं है, परंतु टाइटन की सतह पर अतरिक्षयान को उतारा जा सकता है। 

शनि हमारे सौर-मंडल का एक अद्भुत और सुंदर ग्रह है। किसी भी ग्रह को शुभ या अशुभ समझने का कोई भौतिक कारण नहीं है। शनि तो हमारे सौर-मंडल का सबसे खूबसूरत ग्रह है।