बुधवार, 21 जुलाई 2021

स्वामी विवेकानंद | डॉ. जगदीश चंद्र | SWAMI VIVEKANANDA | रामकृष्ण परमहंस | नरेंद्र देव | सिस्टर निवेदिता | NARENDRANATH DATTA

स्वामी विवेकानंद - डॉ. जगदीश चंद्र 

आशय : भारत देश में जन्मे अनेक महान् व्यक्तियों ने भारत की कीर्ति विदेशों में फैलायी। ऐसे व्यक्तियों में से एक हैं स्वामी विवेकानंद। इस पाठ में उनकी महानता के परिचय के साथ देशप्रेम की प्रेरणा भी प्राप्त कर सकते हैं।

भारत के इतिहास में स्वामी विवेकानंद का नाम अमर है। इस वीर सन्यासी ने देश-विदेश में भ्रमण कर भारतीय धर्म और दर्शन का प्रसार किया तथा समाज-सेवा का नया मार्ग दिखाया। 

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ते के एक कायस्थ घराने में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेंद्र देव था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त एक प्रतिष्ठित वकील थे। उनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी धर्मपरायण महिला थीं। 


बालक नरेंद्र का शरीर स्वस्थ, सुडौल और सुंदर था। कुश्ती लड़ने, दौड़ लगाने, घुड़सवारी करने और तैरने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता था। वे संगीत एवं खेल-कूद की प्रतियोगिताओं में भी भाग लिया करते थे। नरेंद्र आरंभ से ही पढ़ाई-लिखाई में बड़े तेज थे। वे अपने स्कूल में सर्वप्रथम रहा करते थे। एन्ट्रन्स परीक्षा में भी वे प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुए थे। बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने कानून का अध्ययन प्रारंभ किया। इसी बीच में उनके पिता का देहांत हो गया। 

अध्ययन काल में उनकी रुचि व्याख्यान देने और विचारों के आदान प्रदान करने में थी। इसी कारण उन्होंने अपने कॉलेज में एक व्याख्यान-समिति बनाई थी और कई प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया था। पाश्चात्य विज्ञान तथा दर्शन का भी उन्होंने अध्ययन किया था। किशोरावस्था से ही नरेंद्र दार्शनिक एवं धार्मिक विचारों में तल्लीन रहते थे। एक दिन नरेंद्र रामकृष्ण परमहंस के पास पहुँचे और अपनी जिज्ञासा उन्हें कह सुनाई। रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को अपना शिष्य स्वीकार किया। 


स्वामी परमहंस के जीवन-दर्शन से विवेकानंद इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने अपने गुरु के संदेश का प्रसार करना चाहा। जनता को सत्य की राह दिखाने के लिए सितंबर सन् 1893 को वे संयुक्त राज्य अमरीका गये। उस समय वहाँ शिकागो नगर में सर्वधर्म सम्मेलन हो रहा था। इस महासभा में विवेकानंद ने भारतीय धर्म और तत्वज्ञान पर भाषण दिया। उनका भाषण बड़ा गंभीर एवं हृदयस्पर्शी था। उनकी वाणी सुनकर श्रोतागण मुग्ध हो गये। कुछ समय तक वे अमरीका में ही रहे और अपने भाषणों द्वारा लोगों को त्याग और संयम का पाठ पढ़ाया। इसके बाद वे इंग्लैंड और स्विट्जरलैंड भी गये और वहाँ उन्होंने सत्य और धर्म का प्रसार कर भारत के गौरव को बढ़ाया। अनेक विदेशी स्वामीजी के शिष्य बन गये। उनमें से कुमारी मार्गरेट एलिज़बेथ का नाम उल्लेखनीय है, जो स्वामीजी की अनुयायिनी बनकर सिस्टर निवेदिता के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुई। 

स्वामी विवेकानंद ने भारत में भी भ्रमण करके भारतीय संस्कृति और सभ्यता का सदुपदेश दिया। उन्होंने अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों को हटाकर धर्म का वास्तविक मर्म समझाया। साधु-सन्यासी वर्ग को भी उन्होंने शांति प्राप्त करने का नया मार्ग जताया। वह था दीन-दुखी जनों की सेवा और महायता का मार्ग।

स्वामी विवेकानंद ने समाज सेवा को परमात्मा की सच्ची सेवा बतलाया। वे स्वयं भी समाज सेवा में लग जाते थे। सन् 1897 में प्लेग और अकाल से पीड़ित भारतवासियों की उन्होंने बड़ी तन्मयता से सेवा की थी। समर्थ लोगों को उन्होंने गरीबों की दशा सुधारने का संदेश दिया। इसी ध्येय से उन्होंने कलकते में 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की। 

स्वामीजी ने अज्ञान, अशिक्षा, विदेशी अनुकरण, दास्य मनोभाव आदि के बुरे प्रभावों का बोध कराया। उन्होंने अपने भाषणों द्वारा जनता के मन से हीनता की भावना को दूर भगाने का प्रामाणिक प्रयत्न किया। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था - "प्यारे देशवासियो! वीर बनो और ललकार कर कहो कि मैं भारतीय हूँ। अनपढ़ भारतीय, निर्धन भारतीय, ऊँची जाति का भारतीय, नीच जाति का भारतीय - सब मेरे भाई हैं। उनकी प्रतिष्ठा मेरी प्रतिष्ठा है। उनका गौरव मेरा गौरव है।" 


4 जुलाई सन् 1902 को स्वामी विवेकानंद परलोक सिधारे। लेकिन आज भी उनके कार्य और संदेश अमर हैं। 

लेखक परिचय :

इस पाठ के लेखक डॉ. जगदीश चंद्र हैं। इन्होंने भारत के किशोर बालक बालिकाओं के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने के लिए अनेक महापुरुषों की जीवनियाँ लिखी हैं।



बुधवार, 14 जुलाई 2021

संत कवि रैदास | SANT RAVIDAS | HINDI

संत कवि रैदास



संत कवि रैदास का जन्म काशी के पास गांव में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। कहा जाता है कि उस दिन रविवार था इसलिए नवजात शिशु का नाम रविदास रखा गया जो बोल-चाल की 'रहदास' या रैदास' हो गया। स्वामी रामानंद के प्रमुख बारह शिष्यों में महान संत कबीर के साथ संत रैदास का नाम भी बडी श्रद्धा के साथ लिया जाता है। 

रैदास एक चर्मकार परिवार में पैदा हुए थे। नगर के बाहर ही सड़क के किनारे उन्होंने एक छोटी-सी कुटिया बना ली थी। यहाँ रहकर वे भगवान की भक्ति करते, उनके भजन गाते और आजीविका के लिए जूते बनाते या उनकी मरम्मत करते, उनके पास भगवान की एक सुंदर चतुर्भुजी मूर्ति थी जिसे वे हमेशा अपने पास रखते थे। एक किंवदंती के अनुसार रैदास के पड़ोस में एक पंडित था, वह भगवान की चतुर्भुजी मूर्ति को प्राप्त करना चाहता था। उसने रैदास से कहा, तुम हमेशा चमड़े का काम करते हो। तुम से इस मूर्ति की सेवा-पूजा ठीक से नहीं हो रही है और न ही हो सकती है। इसलिए इसे मुझे दे दो। रैदास बोले, पंडित, तुम केवल नाम के पंडित हो। तुम भक्ति भावना से पूजा नहीं करते। इसीलिए यह मूर्ति तुम्हारे पास नहीं रह सकती। 

रैदास की बात पंडित को बुरी लगी। वह स्थानीय राजा के पास गया और कहने लगा, महाराज, आपके राज्य में अधर्म हो रहा है। देखिए, रैदास जैसे लोग भगवान की पूजा कर रहे हैं। यदि यह चलता रहा तो आप के राज्य पर संकट आ सकता है। पंडित की बात सुनकर राजा ने रैदास को मूर्ति के साथ दरबार में बुलाया और कहा, रैदास, तुम यह मूर्ति इस पंडित को क्यों नहीं दे देते? 


राजा की बात सुनकर रैदास ने अपनी मूर्ति को सबके सामने रख दिया और कहा, महाराज, यदि यह पंडित भगवान का सच्चा भक्त है तो यह अपने भक्ति-भाव या तंत्र-मंत्र से मूर्ति को अपने पास बुला ले। रैदास की बात सुनकर पंडित ने कई मंत्र पढ़े और भजन गाए परंतु मूर्ति ज़रा भी न हिली। तब राजा कहा, अच्छा रैदास, अब तुम बुलाओ मूर्ति को अपने पास। रैदास ने सबके सामने भक्ति भाव से भजन गाया - 

"नरहरि चंचल है मति मेरी, कैसे भक्ति करूँ मैं तेरी।" 

जैसे ही रैदास का भजन पूरा हुआ वह मूर्ति उछलकर रैदास की गोद में आ गिरी। यह देखकर पंडित तो दरबार छोड़कर भाग गया। राजा ने रैदास के चरण पकड़ लिए और वे उनके शिष्य बन गए। 



एक बार एक सेठ रैदास के पास अपने जूते सिलवाने के लिए आया। वह गंगास्नान के लिए जा रहा था। बातों ही बातों में सेठ ने रैदास से भी गंगास्नान के लिए चलने को कहा तो रैदास ने कहा, सेठजी, आप जाइए, हम गरीब लोगों के लिए तो हमारा काम ही गंगास्नान है। 

रैदास की बातें सुनकर सेठ बोला, तुम्हारा उद्धार भला कैसे हो सकता है? तुम तो हमेशा काम में ही लगे रहते हो, कभी कोई धर्म-कर्म भी किया करो। रैदास ने अपनी जेब से एक सुपारी निकाली और कहा सेठजी आप तो गंगास्नान के लिए जा ही रहे हैं। कृपया आप मेरी यह सुपारी भी ले जाएँ और गंगा मैया को भेंट कर दें। परंतु याद रखिए, अगर गंगा मैया हाथ फैलाकर मेरी सुपारी लें तभी भेंट कीजिए नहीं तो मेरी सुपारी लौटा लाइए। सेठ ने रैदास से उसकी सुपारी तो ले ली परंतु मन ही मन रैदास का मज़ाक बनाने लगा। 

दूसरे दिन सेठ ने गंगास्नान के लिए प्रस्थान किया। गंगा पूजा के बाद उसे रैदास सुपारी की याद आई। उसने मैया से कहा हे गंगा मैया, आप हाथ फैलाएँ तो मैं आपको रैदास की सुपारी भेंट करूँ। तभी एक चमत्कार हुआ। गंगा मैया ने हाथ फैलाकर रैदास की सुपारी स्वीकार की और उसके बदले में एक स्वर्ण कंकण दिया और कहा, यह मेरे प्रिय भक्त रैदास को दे देना। 

यह सब देख-सुनकर सेठ आश्चर्यचकित हो गया। वह जब लौट रहा था तब उसने सोचा कि इस स्वर्ण कंकण का रैदास क्या करेगा। यदि मैं इसे राजा को भेंट करूं तो बहुत-सा धन पुरस्कार स्वरूप मिल सकता है। इसलिए वह सीधा राजभवन गया। राजा को स्वर्ण कंकण भेंटकर, पुरस्कार प्राप्त किया और घर लौट आया। 

राजा ने वह कंकण अपनी रानी को दिया। रानी ने कहा, कंकण तो अद्वितीय है परंतु इसका जोड़ा होना चाहिए। राजा ने सेठ को बुलाया और कहा, एक कंकण तो पहना नहीं जा सकता इसलिए ऐसा ही एक कंकण और लेकर आइए। राजा की बात सुनकर सेठ के तो होश उड़ गए। वह वहाँ से सीधा रैदास के पास आया और सारी कहानी सुनाकर कहने लगा, भैया, अब तुम ही मेरी जान बचा सकते हो। तुम मेरे साथ गंगा घाट पर चलो और गंगा मैया से वैसा ही दूसरा कंकण माँग कर लाओ।

सेठ की बातें सुनकर रैदास हँसे और फिर बोले, देखो सेठ, कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है। यदि मन शुद्ध है और भक्ति भाव सच्चा है तो मेरी इस कठौती में भी गंगा मैया प्रकट हो सकती हैं। वे गंगा मैया की स्तुति करने लगे। कुछ ही क्षणों में रैदास की कठौती में गंगा मैया प्रकट हो गईं। उन्होंने एक और स्वर्ण कंकण रैदास को दिया और अदृश्य हो गईं। 

यह देखकर सेठ ने रैदास के चरण पकड़ लिए और मुझे क्षमा करना। मैं तो आपको केवल एक चर्मकार ही मानता था परंतु आप तो संत हैं। सच्चे भक्त हैं। आप मुझे मेरा मार्गदर्शन कीजिए। 



रैदास की भक्ति से ही यह कहावत प्रचलित है मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसका अर्थ है, परमात्मा सर्वव्यापी है। यदि मन शुद्ध है तो उसके दर्शन कहीं भी हो सकते हैं ।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

स्काउट | गाइड | रोवर | रेंजर | कब | बुलबुल | बेडेन पॉवेल | SCOUT GUIDE |

स्काउट - गाइड

SCOUT - GUIDE



आपने कभी अपने जैसे बच्चों को खाकी रंग की पोशाक पहने और गले में स्कार्फ बाँधे अवश्य देखा होगा। इनके चेहरे पर सेवा का भाव भी देखा होगा। आपने इनको मेले में या किसी धार्मिक समारोह में भीड़ को नियंत्रित करते हुए व बड़े-बूढो की सहायता करते हुए देखा होगा। आप जानते ये कौन हैं। हाँ, सही पहचाना आपने! ये काउट! आइए, आज हम स्काउट के बारे में कुछ आवश्यक जानकारी प्राप्त करते हैं। 


स्काउट एक प्रकार की प्रशिक्षण योजना है जिसके जन्मदाता बेडेन पॉवेल थे। उनका जन्म २२ फरवरी, सन् १८५७ को लंदन में हुआ था। जब वे छोटे थे तभी बेडेन पॉवेल के पिता की मृत्यु हो गई थी। वे बचपन से ही साहसिक कार्यों में रुचि लेते थे। खाली समय में वे अपनी माताजी की घरेलू कार्यों में सहायता किया करते थे। 

बड़े होकर बेडेन पॉवेल ने सेना में नौकरी कर ली। सन् १८७६ में उन्हें सैनिक अधिकारी बनाकर भारत के मेरठ शहर में भेजा गया। बाद में उन्हें अफ्रीका भेजा गया, जहाँ उन्हें जुलू कबीले के लोगों का सामना करना पड़ा। सन् १८९३ में उनकी टुकड़ी ने अपनी कुशलता से अफ्रीका के अशांत क्षेत्रों पर काबू पा लिया। अफ्रीकावासी उन्हें 'इम्पासी' कहकर पुकारते थे। इम्पासी का अर्थ होता है - कभी न सोने वाला बेड़िया। अफ्रीकी लोगों ने जासूसी कला में पॉवेल की निपुणता के कारण उन्हें यह नाम दिया था। 

बेडेन पॉवेल ने स्काउट प्रशिक्षण योजना की स्थापना की। इसका उद्देश्य बालकों को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ बनाना उनका मत था कि एक जागरूक इनसान बनाने के लिए बच्चों में स्वावलंबन और सेवाभाव का विकास करना आवश्यक है। 


भारत में श्रीमती एनी बेसेंट के सहयोग से स्काउट दल की स्थापना हुई। शुरू-शुरू में इस दल में बालकों को ही प्रशिक्षण दिया जाता था। बाद में बालिकाओं के लिए भी गाइड दल गया। आज़ादी के बाद ७ नवबर, सन् १९५० को भारत स्काउट गाइड नामक संगठन बनाया गया। इस संगठन के अधीन बालक-बालिकाओं को प्रशिक्षण दिया जाता है। 



५ से १० वर्ष के बालकों को कब और बालिकाओं को बुलबुल कहा जाता है और उन्हें  विशेष प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है। इनका आदर्श वाक्य है- भरसक प्रयत्न करो। 

१० ने १६ वर्ष के बालकों को स्काउट और बालिकाओं को गाइड प्रशिक्षण दिया जाता हैं। इस दल का आदर्श वाक्य है - सदा तत्पर रहो।

१६ से २५ वर्ष के युवकों को रोवर और युवतियों को रेंजर प्रशिक्षण दिया जाता है। इनका आदर्श वाक्य है - सेवा करते रहो।

स्काउट और गाइड के लिए कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक है। इन नियमों में प्रमुख हैं - विश्वसनीयता, वफ़ादारी, मित्रता, अनुशासनप्रियता, साहस आदि। इन्हें उच्चतम कर्मठ भावना से जीवन व्यतीत करना, सच्चा देशभक्त बनना, दूसरों के प्रति सजगता बनाए रखना व दयाभाव रखना सिखाया जाता है। स्काउट को शिक्षा दी जाती है कि वह सिर्फ अपने देश का ही नहीं, अपितु समाज व विश्व का भी नागरिक है। इसलिए उसे ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे सब की भलाई हो। 


हमें अपने जीवन में स्काउट और गाइड से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए।

शनिवार, 5 जून 2021

जो देखकर भी नहीं देखते - हेलेन केलर | HELEN ADAMS KELLER | BRAILLE

जो देखकर भी नहीं देखते 
हेलेन केलर

कभी-कभी मैं अपने मित्रों की परीक्षा लेती हूँ, यह परखने के लिए कि वह क्या देखते हैं। हाल ही में मेरी एक प्रिय मित्र जंगल की सैर करने के बाद वापिस लौटीं। मैंने उनसे पूछा, "आपने क्या-क्या देखा?" 

"कुछ खास तो नहीं, उनका जवाब था। मुझे बहुत अचरज नहीं हुआ क्योंकि  मैं अब इस तरह के उत्तरों की आदी हो चुकी हूँ। मेरा विश्वास है कि जिन लोगों की आँखें होती हैं, वे बहुत कम देखते हैं।

क्या यह संभव है कि भला कोई जंगल में घंटा भर घूमे और फिर भी कोई विशेष चीज़ न देखे? मुझे जिसे कुछ भी दिखाई नहीं देता - सैकड़ों रोचक चीजें मिलती हैं, जिन्हें मैं छूकर पहचान लेती हूँ। मैं भोज-पत्र के पेड़ की चिकनी छाल और चीड़ की खुरदरी छाल को स्पर्श से पहचान लेती हूँ। वसंत के दौरान मैं टहनियों में नयी कलियाँ खोजती हूँ। मुझे फूलों की पंखुड़ियों की मखमली सतह छूने और उनकी घुमावदार बनावट महसूस करने में अपार आनंद मिलता है। इस दौरान मुझे प्रकृति के जादू का कुछ अहसास होता है। कभी, जब मैं खुशनसीब होती हूँ, तो टहनी पर हाथ रखते ही किसी चिड़िया के मधुर स्वर कानों में गूंजने लगते हैं। अपनी अंगुलियों के बीच झरने के पानी को बहते हुए महसूस कर मैं आनंदित हो उठती हूं। मुझे चीड़ की फैली पत्तियाँ या घास का मैदान किसी भी महगे कालीन से अधिक प्रिय है। बदलते मौसम का समां मेरे जीवन में एक नया रंग और खुशियाँ भर जाता है। 

कभी-कभी मेरा दिल इन सब चीज़ों को देखने के लिए मचल उठता है। अगर मुझे इन चीज़ों को सिर्फ छूने भर से इतनी खुशी मिलती है, तो उनकी सुंदरता देखकर तो मेरा मन मुग्ध ही हो जाएगा। परंतु, जिन लोगों की आँखें हैं, वे सचमुच बहुत कम देखते हैं। इस दुनिया के अलग-अलग सुंदर रंग उनकी संवेदना को नहीं छूते। मनुष्य अपनी क्षमताओं की कभी कदर नहीं करता। वह हमेशा उस चीज की लगाए रहता है जो उसके पास नहीं है। 



यह कितने दुख की बात है कि दृष्टि के आशीर्वाद को लोग एक साधारण-सी चीज समझते हैं, जबकि इस नियामत से जिंदगी को खुशियों के इंद्रधनुषी रंगों से हरा-भरा किया जा सकता हैं।



शनिवार, 29 मई 2021

ऐसा था नेपोलियन | NAPOLEON

ऐसा था नेपोलियन

नेपोलियन जब छोटा लड़का था तभी से वह सत्यवादी था। एक दिन वह अपनी बहन इलाइज़ा के साथ आँखमिचौनी खेल रहा था। इलाइज़ा छिपी थी और नेपोलियन उसे ढूँढ़ने के लिए इधर-उधर दौड़ रहा था। अचानक वह एक लड़की से जा टकराया। लड़की अमरूद बेचने के लिए ले जा रही थी। नेपोलियन के धक्के से उसकी टोकरी नीचे गिर पड़ी। कीचडू होने के कारण उसके सारे अमरुद खराब हो गए। वह रोती हुई कहने लगी, "अब माँ को मैं जवाब दूंगी?' 

इलाइज़ा कहने लगी, "चलो भैया, हम यहाँ से भाग चलें!" "नहीं बहन, हमारे कारण ही तो इसकी हानि हुई है।" यह कहकर नेपोलियन ने जेब में रखे तीन छोटे सिक्के उस लड़की को देकर कहा, "बहन, मेरे पास तीन ही सिक्के हैं, तुम इन्हें ले लो।" इन तीन सिक्कों से क्या होगा? मेरी माँ मुझे बहुत मारेगी", लड़की ने कहा।" अच्छा, तो तुम हमारे साथ घर चलो, हम तुम्हें अपनी माँ से और पैसे दिलवा देंगे।" इस पर इलाइज़ा ने नेपोलियन से कहा, "भैया, इसे घर ले चलोगे तो माँ नाराज़ होंगी।"

नेपोलियन नहीं माना। वह उस लड़की को अपने साथ घर ले गया। मां को घटना की जानकारी देकर वह बोला, "माँ, आप मुझे जो जेब-खर्च देती हैं, उसमें से इस लड़की को पैसे दे दीजिए।" "ठीक है, मैं तुम्हारी सच्चाई से खुश हूँ मगर याद रखना, अब तुम्हें एक महीने तक जेब-खर्च के लिए कुछ भी नहीं मिलेगा" माँ ने कहा।" ठीक है माँ! "नेपोलियन से हंसते हुए कहा। माँ ने उस लड़की को बड़े सिक्के दिए। खुशी-खुशी घर लौट गई। नेपोलियन को धक्का देने की सज़ा तो मिली परंतु सत्य के पथ पर चलने के कारण उसे यह सज़ा भुगतने में अद्भुत आनंद आया। वास्तव में नेपोलियन सच्चाई के पर चलने वाला इंसान था। बचपन से ही उसे खुद पर दृढ़ विश्वास था और दृढ़ इच्छा शक्ति भी। एक अन्य घटना नेपोलियन की दृढ़ इच्छा शक्ति का प्रमाण देती है। 


एक बार नेपोलियन ने एक ज्योतिषी को अपना हाथ दिखाया। ज्योतिषी हाथ देखकर कहा, तुम्हारे हाथ में तो भाग्य की रेखा ही नहीं है। नेपोलियन ने पूछा, यह रेखा कहाँ होती है? ज्योतिषी ने हाथ में भाग्य की रेखा का स्थान बतलाया। नेपोलियन ने उस स्थान पर चाकू से रेखा खींची और कहा, "लीजिए बन गई भाग्य की रेखा!"


ज्योतिषी ने हँसकर कहा, यह रेखा तो तुमने खींची है। नेपोलियन ने दृढ़ता से कहा' "हाँ, क्योंकि मैं अपने भाग्य का निर्माता स्वयं हूँ।" ऐसा था नेपोलियन!

किसी ने सच ही कहा है, 'होनहार बिरवान के होत चिकने पात अर्थात् विद्वान और महान व्यक्ति के विशिष्ट लक्षण बचपन में ही दिख जाते हैं। वे जीवनभर अपने आदर्शों पर अडिग रहते हैं।



रविवार, 23 मई 2021

राम का राज्याभिषेक | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण |RAM KA RAJABHISHEK | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

राम का राज्याभिषेक 
बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

विभीषण चाहते थे कि राम कुछ दिन लंका में रुक जाएँ। नयी लंका में। उनकी लंका में। उन्होंने अपनी इच्छा राम को बताई। उसका कारण भी। “मैं चाहता हूँ कि आप कुछ दिन यहाँ विश्राम कर लें। युद्ध की थकान उतर जाएगी। वैसे इसमें मेरा स्वार्थ भी है। आपका सान्निध्य और रीति-नीति सीखने का अवसर। आपने यह नगरी देखी भी तो नहीं है। "राम ने लंका नगरी में कदम नहीं रखा था। सीता से मिलने हनुमान गए। दो बार। अंगद गए। लक्ष्मण भी हो आए। विभीषण के राजतिलक के समय। राम उस नगरी से दूर ही रहे। "यह संभव नहीं है, मित्र!" राम ने कहा। वनवास के चौदह वर्ष पूरे हो गए हैं। मैं तत्काल अयोध्या लौटना चाहता हूँ। भरत मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। जाने में विलंब हुआ तो वे प्राण दे देंगे। उन्होंने प्रतिज्ञा की है। मैं उनकी प्रतिज्ञा से बँधा हूँ।" विभीषण राम से अलग नहीं होना चाहते थे। उनका अनुरोध राम ने अस्वीकार कर दिया था। पर वे निराश नहीं थे। इस बार उन्होंने एक नया प्रस्ताव रखा। "मेरी इच्छा है कि मैं आपके राज्याभिषेक में उपस्थित रहूँ। मुझे अपने साथ चलने की अनुमति दें।" राम ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। बोले, "आप मेरे लिए यात्रा की व्यवस्था कर दें।" राम ने विभीषण की विनती मान ली तो सुग्रीव और हनुमान आगे आए। राम ने उन्हें भी अयोध्या आमंत्रित किया। विभीषण का पुष्पक विमान उन्हें ले जाने के लिए तैयार था। विमान के उड़ान भरने तक वानर सेना वहीं रही। विमान जाने के बाद वे कूदते-फाँदते किष्किंधा की ओर चल पड़े। विभीषण ने अपने कोषागार से उन्हें रत्नाभूषण दिए थे। उनकी वर्षा की थी। उसी विमान से। वानरों के लिए यह मनोरंजन था। जिसे जो मिला, लूटा। विमान लंका से चला। उड़ान भरने के बाद उसने उत्तर दिशा पकड़ी। जिधर अयोध्या नगरी थी। राम सीता के साथ बैठे थे। मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थान बताते जा रहे थे। रावण सीता का हरण कर उसी मार्ग से लाया था। पंचवटी से। उस समय सीता ने वे स्थान ठीक से नहीं देखे थे। स्थानों के नाम उन्हें ज्ञात नहीं थे। पहले रणभूमि पड़ी। फिर वह पुल, जिसे नल और नील ने बनाया था। सेतुबंध। किष्किधा रास्ते में था। वानरराज सुग्रीव की राजधानी थी। सीता के आग्रह पर विमान किष्किधा में उतरा। सुग्रीव की रानियों तारा और रूपा को लेने। आगे ऋष्यमूक पर्वत पड़ा और उसके बाद पंपा सरोवर। उसकी सुंदरता अद्भुत थी। राम ने सीता को एक पतली, चमकती हुई रेखा दिखाई। “सीते! देखो, यह गोदावरी नदी है। ऊँचाई से इतनी छोटी दिख रही है। इसी के तट पर पंचवटी है। देखो, हमारी पर्णकुटी अब भी बनी हुई है। "सीता ने आँखें बंद कर लीं। जैसे पंचवटी को पुनः देखने से डर रही हों। उन्हें पूरा घटनाक्रम याद आ गया। गंगा-यमुना के संगम पर ऋषि भरद्वाज का आश्रम था। विमान वहाँ उतरा। सबने रात वहीं बिताई। ऋषि का आग्रह था। राम उसे टाल नहीं सके। वहीं से उन्होंने हनुमान को अयोध्या भेजा। भरत को उनके आगमन की पूर्व सूचना देने के लिए।


राम सीधे अयोध्या नहीं जाना चाहते थे। उनके मन में एक प्रश्न था। एक संशय। चौदह वर्ष की अवधि कम नहीं होती। कहीं इस अवधि में भरत को सत्ता का मोह तो नहीं हो गया? हनुमान को अयोध्या भेजते हुए उन्होंने यह प्रश्न रखा था। कहा, "हे वानर शिरोमणि, आप भरत को मेरे आने की सूचना दीजिएगा। ध्यान से देखिएगा कि यह समाचार सुनकर उनके चेहरे पर कैसे भाव आते हैं? यदि भरत को इस सूचना से प्रसन्नता नहीं हुई तो मैं अयोध्या नहीं जाऊँगा। भरत राजकाज सँभालें, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं। "हनुमान वायु वेग से चले। जैसे उड़ रहे हों। मार्ग में निषादराज गुह से भेंट की। उनसे अयोध्या का हाल जाना। वहाँ से नंदीग्राम पहुँचे। उन्होंने भरत से कहा, “श्रीराम के वनवास की अवधि पूर्ण हो गई है। वे लौट रहे हैं। प्रयाग पहुँच चुके हैं। मैं उन्हीं की आज्ञा से आपके पास आया हूँ। "भरत की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। आँखों में खुशी के आँसू थे। वे बार-बार हनुमान को धन्यवाद दे रहे थे। यह शुभ सूचना उन तक पहुँचाने के लिए। उनके चेहरे पर केवल एक भाव था। प्रसन्नता। हनुमान उनसे विदा लेकर आश्रम लौट आए। राम के पास। अगली सुबह प्रयाग से शृंगवेरपुर होते हुए राम का विमान कुछ ही देर में सरयू नदी के ऊपर पहुँच गया। दूर अयोध्या नगरी के भवनों के शिखर दिखाई देने लगे। सबने अयोध्या को प्रणाम किया। 


उधर, भरत से सूचना पाकर अयोध्या में उत्सव की तैयारियाँ होने लगीं। नगर को सजाया गया। शत्रुघ्न राज्याभिषेक की व्यवस्था में लग गए। महल से तीनों रानियाँ नंदीग्राम के लिए निकल पड़ी। कौशल्या सबसे आगे थीं। उन्हें पता था कि राम पहले भरत से भेंट करेंगे। राम का विमान नंदीग्राम उतरा। उनका भव्य स्वागत हुआ। आकाश राम के जयघोष से गूंज उठा। राम ने विमान से उतरकर भरत को गले लगाया। माताओं को प्रणाम किया। भरत भागते हुए आश्रम के भीतर गए। राम की खड़ाऊँ उठा लाए। जिसे सिंहासन पर रखकर उन्होंने चौदह वर्ष राजकाज चलाया था। झुककर अपने हाथों से राम को पहनाई। मिलन का यह दृश्य अद्भुत था। सबके चेहरों पर प्रसन्नता थी। सबकी आँखें खुशी के आँसुओं से नम थीं। राम-लक्ष्मण ने नंदीग्राम में तपस्वी बाना उतार दिया। दोनों को राजसी वस्त्र पहनाए गए। जन समूह राम की जयकार करता अयोध्या के लिए चला। शोभायात्रा की छटा देखने योग्य थी। 


नंदीग्राम से चलने के पूर्व राम ने पुष्पक विमान को कुबेर के पास भेज दिया। वह विमान कुबेर का ही था। रावण ने उसे बलात छीन लिया था। सजी-धजी अयोध्या नगरी राम के दर्शन पर आह्लादित थी। नगरवासी प्रसन्न थे। उन्हें उनके राम वापस मिल गए थे। माताएँ प्रसन्न थीं। उनका पुत्र लौट आया था। मुनिगण खुश थे। राम ने उनकी शिक्षाओं का मान रखा। कभी विरत नहीं हुए। भरत ने अयोध्या का राज्य राम को नंदीग्राम में ही लौटा दिया था। राजमहल पहुँचे तो मुनि वशिष्ठ ने कहा, कल सुबह राम का राज्याभिषेक होगा।" इसकी तैयारी शत्रुघ्न ने पहले ही कर दी थी। पूरा नगर सजाया गया था। दीपों से जगमगा रहा था। फूलों से सुवासित था। वाद्ययंत्रों से झंकृत था। पूरे चौदह वर्ष बाद। अगले दिन मुनि वशिष्ठ ने राम का राजतिलक किया। राम और सीता सोने के रत्नजटित सिंहासन पर बैठे। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उनके पास खड़े थे। हनुमान नीचे बैठ गए। माताओं ने आरती उतारी। मंगलाचार हुआ। शुभ गीत गाए गए। राम ने सीता को एक बहुमूल्य हार दिया। प्रजाजनों को उपहार दिए। अनेक वस्तुएँ प्रदान की। "कल सीता ने अपने गले का हार उतारा। वे दुविधा में थीं। किसे दें? दुविधा राम ने दूर की, "जिस पर तुम सर्वाधिक प्रसन्न हो, उसे दे दो! "सीता ने वह हार हनुमान को भेंट कर दिया। भक्ति और पराक्रम के लिए। कुछ दिनों में सारे अतिथि एक-एक कर चले गए। विभीषण लंका लौटे। सुग्रीव ने किष्किधा की ओर प्रयाण किया।


ऋषि-मुनि अपने आश्रम चले गए। हनुमान कहीं नहीं गए। राम दरबार में ही रहे। राम ने लंबे समय तक अयोध्या पर राज किया। उनके राज में किसी को कष्ट नहीं था। सब सुखी थे। भेदभाव नहीं था। कोई बीमार नहीं पड़ता था। खेत हरे-भरे थे। पेड़ फलों से लदे रहते थे। राम न्यायप्रिय थे। गुणों के सागर थे। उनका राज्य राम राज्य था। आज तक स्मृतियों में है।