शनिवार, 8 मई 2021

चित्रकूट में भरत | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | CHITRAKUT MAI BHARAT | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

चित्रकूट में भरत 
 बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

भरत केकय राज्य में थे। अपनी ननिहाल में। अयोध्या की घटनाओं से सर्वथा अनभिज्ञा लेकिन वे चिंतित थे। उन्होंने एक सपना देखा था। पर उसका अर्थ पूरी तरह नहीं समझ पा रहे थे। संगी-साथियों के साथ बातचीत में उन्होंने कहा, "मैं नहीं जानता कि उसका अर्थ क्या है? पर सपने से मुझे डर लगने लगा है। मैंने देखा कि समुद्र चंद्रमा धरती पर गिर पड़े। वृक्ष सूख गए। एक राक्षसी पिता को खींचकर ले जा रही है। वे रथ पर बैठे हैं। रथ गधे खींच रहे हैं।" जिस समय भरत मित्रों को अपना सपना सुना रहे थे, ठीक उसी समय अयोध्या से घुड़सवार दूत वहाँ पहुँचे। घुड़सवारों ने छोटा रास्ता चुना था। जल्दी पहुँचने के लिए। भरत को संदेश मिला। वे तत्काल अयोध्या जाने के लिए तैयार हो गए। ननिहाल में भरत का मन नहीं लग रहा था। उचट गया था। वे अयोध्या पहुँचने को उतावले थे। केकयराज ने भरत को विदा किया। सौ रथों और सेना के साथ। उन्हें घुड़सवारों से अधिक समय लगा। लंबा रास्ता पकड़ना पड़ा। सेना और रथ खेतों से होकर नहीं जा सकते थे। वे आठ दिन बाद अयोध्या पहुंचे। नदी-पर्वत लाँघते। थके हुए। और चिंतिता ने अयोध्या नगरी को दूर से देखा। नगर उन्हें सामान्य नहीं लगा। बदला-बदला सा था। अनिष्ट की आशंका उनके मन में और गहरी हो गई। "यह मेरी अयोध्या नहीं है? क्या हो गया है इसे? "उन्होंने पूछा। “सड़कें सूनी हैं। बाग-बगीचे उदास हैं। सब लोग कहाँ गए? वह तुमुलनाद कहाँ है? पक्षी भी कलरव नहीं कर रहे हैं। इतनी चुप्पी क्यों?" किसी ने भरत के प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया।

नगर पहुँचते ही भरत सीधे राजभवन गए। महाराज दशरथ के प्रासाद की ओर। महाराज वहाँ नहीं थे। फिर वे कैकेयी के महल की ओर बढ़े। माँ ने आगे बढ़कर पुत्र को गले लगा लिया। परंतु भरत की आँखें पिता को ढूँढ रहीं थीं। उन्होंने माँ से पूछा। "पुत्र! तुम्हारे पिता चले गए हैं।

वहाँ, जहाँ एक दिन हम सबको जाना है। उनका निधन हो गया। "भरत यह सुनते ही शोक में खूब गए। पछाड़ खाकर गिर पड़े। पिलाप करने लगे। माँ कैकेयी ने उन्हें उठाया। ढाढ़स बंधाया। कहा, " उठो पुत्र! यशस्वी कुमार शोक नहीं करते। तुम्हारा इस प्रकार दु:खी होना उचित नहीं है। राजगुणों के विरुद्ध है। अपने को संभालो। "क्या से क्या हो गया! भरत यह मानकर चल रहे थे कि पिता राज्याभिषेक की तैयारियों में व्यस्त होंगे। सब कुछ उलटा हो गया। "उन्होंने मेरे लिए कोई संदेश दिया?" भरत ने माँ से पूछा। "नहीं, अंतिम समय में उनके मुँह से केवल तीन शब्द निकले। हे राम! हे सीते! हे लक्ष्मण! तुम्हारे लिए कुछ नहीं कहा।" भरत व्याकुल थे। विकलता बढ़ती ही जा रही थी। वह तुरंत राम के पास जाना चाहते थे। "महाराज ने उन्हें वनवास दे दिया है। चौदह वर्ष के लिए। सीता और लक्ष्मण भी राम के साथ गए हैं। "कैकेयी ने भरत का मन पढ़ते हुए कहा। वह जानती थीं कि भरत यहाँ से सीधे राम के पास ही जाएंगे। "परंतु वनवास क्यों? भ्राता राम से कोई अपराध हुआ? "

"राम ने कोई अपराध नहीं किया। महाराज ने उन्हें दंड भी नहीं दिया। इसके लिए मैंने महाराजा दशरथ से प्रार्थना की थी। मुझे तुम्हारे हित में यही उचित लगा। मैं तुम्हारा अहित नहीं देख सकती थी, "कैकेयी ने कहा। वरदान की पूरी कथा सुनाते हुए उन्होंने कहा, "उठो पुत्र! राजगद्दी संभालो। अयोध्या का निष्कंटक राज्य अब तुम्हारा है।"

भरत अपना क्रोध रोक नहीं सके। चीख पडे, तुमने क्या किया, माते! ऐसा अनर्थ! घोर अपराध! अपराधिनी हो तुम। वन तुम्हें जाना चाहिए था, राम को नहीं। मेरे लिए यह राज अर्थहीन है। पिता को खोकर। भाई से बिछड़कर। नहीं चाहिए मुझे ऐसा राज्य। "इस बीच मंत्रीगण और सभासद भी वहाँ आ गए। भरत बोलते रहे, "तुमने पाप किया है, माते! इतना साहस कहाँ से आया तुममें? किसने तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट की? उलटा पाठ किसने पढ़ाया? यह अपराध अक्षम्य है। मैं राजपद नहीं ग्रहण करूँगा। तुमने ऐसा सोचा कैसे? "सभासदों की ओर मुड़ते हुए भरत ने हाथ जोड़कर' आप भी सुन लें। मेरी माँ ने जो किया है, उसमें मेरा कोई हाथ नहीं है। मैं राम की सौगंध खाकर कहता हूँ। मैं राम के पास जाऊँगा। उन्हें मनाकर लाऊंगा। प्रार्थना करूंगा कि वे गद्दी संभालें। मैं दास बनकर रहूंगा।" भरत बहुत उत्तेजित हो गए थे। स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सके। बोलते-बोलते उनकी साँस उखड़ने लगी। वे चकराकर धरती पर गिर पड़े।

सुध-बुध लौटी तो भरत रानी कौशल्या के महल की ओर चल पड़े। उनसे लिपटकर बच्चों की तरह बिलखकर रोए। उनके चरणों में गिर पड़े। कौशल्या आहत थीं। उन्होंने कहा, "पुत्र, तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई। तुम जो चाहते थे, हो गया। राम अब जंगल में हैं। अयोध्या का राज तुम्हारा है। मुझे बस एक दुख है। कैकेयी ने राज लेने का जो तरीका अपनाया वह अनुचित था। निर्मम था। तुम राज करो पुत्र, पर मुझ पर एक दया करो। मुझे मेरे राम के पास भिजवा दो। "भरत ने रानी कौशल्या से क्षमा माँगी। सफ़ाई दी। रानी कैकेयी के व्यवहार पर ग्लानि व्यक्त की। कहा, "राम मेरे प्रिय अग्रज हैं। मैं उनका अहित सोच भी नहीं सकता। मैं निरपराध हूँ। "कौशल्या ने भरत को क्षमा कर दिया। उन्हें गले से लगा लिया। भरत सारी रात फूट-फूटकर रोते रहे।

सुबह तक शत्रुघ्न को पता चल गया था कि कैकेयी के कान किसने भरे। मंथरा अयोध्या के घटनाक्रम से घबरा गई थी। छिप गई। कुछ दिनों से उसे किसी ने नहीं देखा। भरत और शत्रुघ्न राम को वापस लाने पर मंत्रणा कर रहे थे। तभी शत्रुघ्न की दृष्टि, बचकर निकलती मंथरा पर पड़ी। उन्होंने लपककर उसके बाल पकड़ कर भरत के सामने लाए। भरत दासी की भूमिका बताई। शत्रुघ्न उसे जान से मार देने पर उद्यत थे। भरत ने बीच-बचाव किया। मुनि वशिष्ठ अयोध्या का राजसिंहासन रिक्त नहीं देखना चाहते थे। खाली सिंहासन के खतरों से वे परिचित थे। उन्होंने सभा बुलाई। भरत और शत्रुघ्न को आमंत्रित किया। भरत से कहा, "वत्स! तुम राजकाज सँभाल लो। पिता के निधन और बड़े भाई के वन-गमन के बाद यही उचित है। "भरत ने महर्षि का आग्रह अस्वीकार कर दिया। बोले, "मुनिवर, यह राज्य राम का है। वही इसके अधिकारी हैं। मैं यह पाप नहीं कर सकता। हम सब वन जाएंगे। और राम को वापस लाएंगे। "वन जाने के लिए सभी तैयार थे। भरत ने सबके मन की बात कही थी। सबकी इच्छा थी कि राम अयोध्या लौट आएं। अगली सुबह भरत सभी मंत्रियों और सभासदों के साथ वन के लिए चले। गुरु वशिष्ठ साथ थे। नगरवासी भी थे। अयोध्या की चतुरंगिणी सेना तो थी ही। राम तब तक गंगा पार कर चित्रकूट पहुंच गए थे। वहाँ एक आश्रम था। महर्षि भरद्वाज का। गंगा-यमुना के संगम पर। राम आश्रम में नहीं रहना चाहते थे। ताकि महर्षि को असुविधा न हो। महर्षि ने उन्हें एक पहाड़ी दिखाई। सुंदर स्थान। सुरम्य दृश्य। पर्णकुटी वहीं बनाई गई। भरत को सूचना मिल गई थी। वे चित्रकूट ही आ रहे थे। पूरे दल-बल के साथ। सेना के चलने से आसमान धूल अट गया। हर ओर कोलाहल। वे शृंगवेरपुर पहुँचे। निषादराज गुह को सेना देखकर कुछ संदेह हुआ। कहीं राजमद में आकर भरत राम पर आक्रमण करने तो नहीं जा रहे हैं? सही स्थिति पता चली तो उन्होंने भरत की अगवानी की। गंगा पार करने के लिए देखते-देखते पाँच सौ नावें जुटा दी। रास्ते में मुनि भरद्वाज का आश्रम पड़ा। उन्होंने भरत को राम का समाचार दिया। वह मार्ग दिखाया, जिधर से राम गए। वह पहाड़ी दिखाई, जहाँ राम ने पर्णकुटी बनाई। अयोध्यावासियों ने रात आश्रम में ही बिताई। इस संतोष के साथ कि राम अब दूर नहीं है।

आगे जंगल बना था। सेना चली तो वन में खलबची मच गई। जानवर इधर-उधर भागने लगे। पक्षियों ने अपना बसेरा छोड़ दिया। छोटी वनस्पतियों सेना के पांव तले कुचल गईं। बड़े वृक्ष थरथरा उठे। राम और सीता पर्णकुटी में थे। लक्ष्मण पहरा दे रहे थे। कोलाहल उन्होंने भी सुना। वे एक ऊँचे पेड़ पर देखने के लिए कि है। लक्ष्मण ने देखा कि विराट सेना चली आ रही है। सेना का ध्वज जाना पहचाना था। अयोध्या की सेना थी। वे उत्तर की ओर से आगे बढ़ रहे थे। लक्ष्मण ने पेड़ से ही चीखकर कहा, "भैया, भरत सेना के साथ इधर आ रहे हैं। लगता है वे हमें मार डालना चाहते हैं। ताकि एकछत्र राज कर सकें। "राम कुटी से बाहर आए। उन्होंने लक्ष्मण को समझाया। “भरत हम पर हमला नहीं करेगा। कभी नहीं। वह हम लोगों से भेंट करने आ रहा होगा, "राम ने कहा। "भैंट के लिए सेना के साथ आने का क्या औचित्य? दो भाइयों के मिलन में सेना का क्या काम? "लक्ष्मण आश्वस्त नहीं थे। वे सेना पर आक्रमण करना चाहते थे। राम ने उन्हें रोक दिया।
"वीर पुरुष धैर्य का साथ कभी नहीं छोड़ते। कुछ समय प्रतीक्षा करो। इस प्रकार का उतावलापन उचित नहीं है। "भरत ने सेना पहाड़ी के नीचे रोक दी। नगरवासियों से भी वहीं ठहरने को कहा। कोलाहल थम गया। उसकी जगह पुनः वन की नैसर्गिक शांति ने ले ली। भरत ने पहाड़ी को प्रणाम किया। शत्रुघ्न को साथ लेकर नंगे पाँव ऊपर चढ़े। पाँवों की गति अचानक बढ़ गई। भाई से मिलने की उत्कंठा में। वे और प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे। पहाड़ी पर दूर से उन्हें एक छवि दिखी। वह राम थे। शिला पर बैठे हुए। पास ही सीता और लक्ष्मण बैठे थे। भरत दौड़ पड़े। राम के चरणों में गिर पड़े। उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। शत्रुघ्न ने भी राम की चरण वंदना की। बोले वे भी नहीं। उन्होंने दोनों को उठाकर सीने से लगा लिया। सबकी आँखों में आँसू थे। भरत साहस नहीं जुटा पा रहे थे। बड़े भाई को यह सूचना देने का कि पिता दशरथ नहीं रहे। “एक दु:खद समाचार है, भ्राता!" बहुत कठिनाई से उन्होंने कहा। "पिता दशरथ नहीं रहे। आपके आने के छठे दिन। दुख में प्राण त्याग दिए। "राम सन्न रह गए। शोक में डूब गए।

राम को पता चला कि भरत के साथ केवल सेना नहीं आई है। नगरवासी आए है। गुरुजन हैं। माता हैं। कैकेयी भी। राम-लक्ष्मण पहाड़ी से उतरकर उनसे भेंट करने आए। सबसे स्नेह से मिले। सीता को तपस्विनी के वेश में देखकर माताएँ दुःखी हुई। राम ने कैकेयी को प्रणाम किया। सहज भाव से। कैकेयी मन-ही-मन पछता रही थीं। अगले दिन भरत ने राम से राजग्रहण करने की आग्रह किया। समझाया। विनती की कि अयोध्या लौट चलें। राम इसके लिए तैयार नहीं हुए। "पिता की आज्ञा का पालन अनिवार्य है। पिता की मृत्यु के बाद मैं उनका वचन नहीं तोड़ सकता।" भरत को राजकाज समझाया। कहा कि अब तुम ही गद्दी सँभालो। यह पिता की आज्ञा है।

राम-भरत संवाद के समय मंत्री और सभासद वहाँ उपस्थित थे। मुनि वशिष्ठ भी। भरत बार-बार राम से लौटने का आग्रह करते रहे। राम हर बार पूरी विनम्रता और दृढ़ता के साथ इसे अस्वीकार करते रहे। महर्षि वशिष्ठ ने कहा, "राम! रघुकुल की परंपरा में राजा ज्येष्ठ पुत्र ही होता है। तुम्हें अयोध्या लौटकर अपना दायित्व निभाना चाहिए। इसी में कुल का मान है।"

राम ने बहुत संयत स्वर में कहा, "चाहे चंद्रमा अपनी चमक छोड़ दे, सूर्य पानी की तरह ठंडा हो जाए, हिमालय शीतल न रहे, समुद्र की मर्यादा भंग हो जाए, परंतु मैं पिता की आज्ञा से विरत नहीं हो सकता। मैं उन्हीं की आज्ञा से वन आया हूँ। उन्हीं की आज्ञा से भरत को राजगद्दी सँभालनी चाहिए। "राम किसी तरह लौटने को तैयार नहीं हुए। भरत के चेहरे पर निराशा के भाव थे। वे विफल हो गए थे। राम को मनाने में। आप नहीं लौटेंगे तो मैं भी खाली हाथ नहीं जाऊँगा। आप मुझे अपनी खड़ाऊँ दे दें। मैं चौदह वर्ष उसी की आज्ञा से राजकाज चलाऊगा। भरत का यह आग्रह राम ने स्वीकार कर लिया। अपनी खड़ाऊँ दे दी। भरत ने खड़ाऊँ को माथे से लगाया और कहा, "चौदह वर्ष तक अयोध्या पर इन चरण-पादुकाओं का शासन रहेगा।" सबको प्रणाम कर राम ने उन्हें चित्रकूट से विदा किया। राम की चरण पादुकाओं को एक सुसज्जित हाथी पर रखा गया। प्रतिहारी उस पर चवर डुलाते रहे। अयोध्या पहुंचकर भरत ने पादुका पूजन किया। कहा, ये पादुकाएँ राम की धरोहर हैं। मैं इनकी रक्षा करूंगा। इनकी गरिमा को आँच नहीं आने दूंगा। 'भरत अयोध्या में कभी नहीं रुके। तपस्वी के वस्त्र पहने और नंदीग्राम चले गए। जाते समय उन्होंने कहा, "मेरी अब केवल एक इच्छा है। इन पादुकाओं को उन चरणों में देखें, जहाँ इन्हें होना चाहिए। मैं राम के लौटने की प्रतीक्षा करूँगा। चौदह वर्ष।"


राम का वन-गमन | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | RAM VANGAMAN | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

राम का वन-गमन
बाल रामकथा
वाल्मीकि रामायण

कोपभवन के घटनाक्रम की जानकारी बाहर किसी को नहीं थी। यद्यपि सभी सारी रात जागे थे। कैकेयी अपनी जिद पर अड़ी हुई। राजा दशरथ उन्हें समझाते हुए। नगरवासी राज्याभिषेक की तैयारी करते हुए। गुरु वशिष्ठ की आँखों में भी नींद नहीं थी। आखिर, राम का अभिषेक था! दिन चढ़ते के साथ चहल-पहल और बढ़ गई। हर व्यक्ति शुभ घड़ी की प्रतीक्षा में। 



महामंत्री सुमंत्र कुछ असहज थे। महर्षि के पास आए। दोनों ने महाराज के बारे में चर्चा की। पिछली शाम से किसी ने महाराज को नहीं देखा था। कुछ लोगों के लिए इसका कारण आयोजन की व्यस्तता थी। महर्षि ने सुमंत्र को राजभवन भेजा। समय तेजी से बीत रहा था। शुभ घड़ी निकट आ रही थी। सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। केवल महाराज का आना शेष था। सुमंत्र तत्काल राजभवन पहुंचे। 

कैकेयी के महल की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सुमंत्र को एक अनजान डर ने घेर लिया। अंदर पहुंचे। देखा कि महाराजा पलंग पर पड़े हैं। बीमार। दीनहीन। सुमंत्र का मन भांपते हुए कैकेयी ने कहा, "चिंता की कोई बात नहीं है, मंत्रिवर। महाराज राज्याभिषेक के उत्साह में रातभर जागे हैं। निकलने से पूर्व राम से बात करना चाहते हैं।" 
"कैसी बात?" सुमंत्र ने पूछा। 
"मैं नहीं जानती। अपने मन की बात वे राम को ही बताएँगे। आप उन्हें बुला लाइए।" 



दशरथ ने बहुत क्षीण स्वर में राम को बुलाने की आज्ञा दी। सुमंत्र के मन में कई तरह की आशंकाएँ थीं। पर वे उन्हें टालते रहे। राम के निवास बाहर भारी भीड़ थी। लक्ष्मण भी वहीं थे। भवन को सजाया गया था। उसकी चमक-दमक देखने योग्य थी। सुमंत्र को देखकर कोलाहल बढ़ गया। लोगों के लिए यह एक संकेत था। राज्याभिषेक के लिए राम को आमंत्रित करने का। सुमंत्र ने कहा, "राजकुमार, महाराज ने आपको बुलाया है। आप मेरे साथ ही चलें।"


कुछ ही पल में राम वहाँ पहुँच गए। लक्षण साथ थे। दोनों भाई विस्मित थे। लोग जय जयकार करने लगे। पुष्पवर्षा होने लगी। राजकुमार समझ नहीं पा रहे थे कि महाराज उन्हें अचानक क्यों बुलाया। लोग समझ रहे थे कि राम राज्याभिषेक के लिए जा रहे हैं। 

महल में पहुंचकर राम ने पिता को प्रणाम किया। फिर माता कैकयी को। राम को देखते ही राजा दशरथ बेसुध हो गए। उनके मुँह से एक हलकी-सी आवाज निकली, "राम" उन्हें होश आया तब भी वे कुछ बोल नहीं सका।

थोड़ी देर तक चुप्पी रही। असहज सन्नाटा। कोई कुछ नहीं बोला तो राम ने पिता से पूछा, "क्या मुझसे कोई अपराध हुआ है? कोई कुछ बोलता क्यों नहीं? आप ही बताइए, माते?" 


"महाराज दशरथ ने मुझे एक बार दो वरदान दिए थे। मैंने कल रात वही दोनों वर मांगे, जिससे वे पीछे हट रहे हैं। यह शारत्र सम्मत नहीं है। रघुकुल की नीति के विरुद्ध है। "कैकेयी ने बोलना जारी रखा, "मैं चाहती हूँ कि राज्याभिषेक भरत का हो और तुम चौदह वर्ष वन में रहो। महाराज यही बात तुमसे नहीं कह पा रहे थे।"

राम संशय में रहे। उन्होंने ढुढता से कहा, "पिता का वचन अवश्य पूरा होगा। भरत को राजगदी दी जाए। मैं आज ही वन चला जाऊंगा।"

राम की शांत और सधी हुई वाणी सुनकर कैकेयी के चेहरे पर प्रसन्नता छा गई। उनकी मनोकामना पूर्ण हुई। राजा दशरथ चुपचाप सब कुछ देख रहे थे। स्पंदनहीन। कैकेयी की और देखते हुए उनके मुंह से बस एक शब्द निकला धिक्कार।

कैकेयी के महल से निकलकर राम सीधे अपनी माँ के पास गए। उन्होंने माता कौशल्या को कैकेयी-भवन का विवरण दिया। और अपना निर्णय सुनाया। राम वन जाएंगे। कौशल्या यह सुनकर सुध खो बैठीं। लक्ष्मण अब तक शांत थे। पर क्रोध से भरे हुए। राम ने समझाया और उनसे वन जाने की तैयारी के लिए कहा। 


कौशल्या का मन था कि राम को रोक लें। वन न जाने दें। राजगद्दी छोड़ दें। पर वह अयोध्या में रहें। उन्होंने कहा, "पुत्र! यह राजाज्ञा अनुचित है। उसे मानने की आवश्यकता नहीं है। "राम ने उन्हें नम्रता से उत्तर दिया, यह राजाज्ञा नहीं. पिता की आज्ञा है। उनकी आज्ञा का उल्लंघन मेरी शक्ति से परे है। आप मुझे आशीर्वाद दें।"

लक्ष्मण से राम का संवाद जारी रहा। राम ने वन-गमन को भाग्यवश आया उलटफेर कहा। लक्ष्मण इससे सहमत नहीं थे। वे इसे कायरों का जीवन मानते थे। उन्होंने राम से कहा, आप बाहुबल से अयोध्या का राजसिंहासन छीन लें। देखता हूँ कौन विरोध करता है।" 

"अधर्म का सिंहासन मुझे नहीं चाहिए। मैं वन जाऊँगा। मेरे लिए तो जैसा राजसिंहासन, वैसा ही वन।" 

कौशल्या ने स्वयं को संभाला। ठठी और राम को गले लगा लिया। वे राम के साथ वन जाना चाहती थीं। राम ने मना कर दिया। कहा कि वृद्ध पिता को आपके सहारे की अधिक आवश्यकता है। कौशल्या ने राम को विदा करते हुए कहा, “जाओ पुत्र! दसों दिशाएँ तुम्हारे लिए मंगलकारी हों। मैं तुम्हारे लौटने तक जीवित रहूंगी।' 


कौशल्या-भवन से निकलकर राम सीता के पास गए। सारा हाल बताया। विदा माँगी। माता-पिता की आयु का उल्लेख किया। उनकी सेवा करने का आग्रह किया। कहा, “प्रिये! तुम निराश मत होना। चौदह वर्ष के बाद हम फिर मिलेंगे।" 

राम के वन-गमन का समाचार तब तक सीता के पास नहीं पहुंचा था। राम को देखकर कुछ आशंका हुई। अनिष्ट की। राम ने विदा मांगी तो सीता व्याकुल हो गई। क्रोधित भी हुई। निर्णय पर प्रतिवाद किया। राम नहीं माने तो सीता ने उनके साथ जंगल जाने का प्रस्ताव रखा। सीता ने कहा, "मेरे पिता का आदेश है कि मैं छाया की तरह हमेशा आपके साथ रहूं।" अंततः राम को उनकी बात माननी पड़ी। तभी लक्ष्मण भी वहाँ आ गए। वह भी साथ जाने को तैयार थे। राम ने उन्हें इसकी स्वीकृति दे दी। शीघ्र तैयारी करने को कहा। 

राम चाहते थे कि सीता वन न जाएँ। अयोध्या में रहें। वे इसकी अनुमति दे चुके थे। फिर भी उन्होंने एक और प्रयास किया। "सीते! वन का जीवन बहुत कठिन है। न रहने का ठीक स्थान, न भोजन का ठिकाना। कठिनाइयाँ कदम-कदम पर। तुम महलों में पली हो। ऐसा जीवन कैसे जी सकोगी?" सीता ने उत्तर नहीं दिया। मुसकरा दीं। उन्हें पता था कि राम अपने दिए वचन से पलट नहीं सकते।


राम वन जा रहे हैं। यह समाचार पूरे नगर में फैल चुका था। नगरवासी दशरथ और कैकेयी को धिक्कार रहे थे। कुछ देर पहले तक जहाँ उत्सव की तैयारियाँ थी, वहाँ उदासी ने घर कर लिया। सड़कें गीली थीं। लोगों के आँसुओं से। सब की इच्छा थी कि राम-सीता वन न जाएँ। वे उन्हें रोकना चाहते थे। पर बेबस थे। 

राम, सीता और लक्ष्मण जंगल जाने से पहले पिता का आशीर्वाद लेने गए। महाराज दशरथ दर्द से कराह रहे थे। तीनों रानियां वहीं थीं। मंत्री आसपास थे। मंत्रीगण रानी कैकेयी को अब भी समझा रहे थे। क्षुब्ध थे पर तर्क का साथ नहीं छोड़ना चाहते थे। ज्ञान, दर्शन, नीति-रीति, परंपरा। सबका हवाला दिया। कैकेयी अड़ी रहीं। 

राम ने कक्ष में प्रवेश किया तो दशरथ में जीवन का संचार हुआ। वे उठकर गए। उन्होंने कहा, "पुत्र! मेरी मति मारी गई लिए विवश हूँ। पर तुम्हारे ऊपर कोई बंधन नहीं है। मुझे बंदी बना लो और राज सँभालो। यह राजसिंहासन तुम्हारा है। केवल तुम्हारा। 

"पिता के वचनों ने राम को झकझोर दिया। वे दु:खी हो गए। पर उन्होंने नीति का साथ नहीं छोड़ा।“ आतरिक पीड़ा आपको ऐसा कहने पर विवश कर रही है। मुझे राज्य का लोभ नहीं है। मैं ऐसा नहीं कर सकता। आप हमें आशीर्वाद देकर विदा करें। विदाई का दु:ख सहन करना कठिन है। इसे और न बढ़ाएँ।'

इसी बीच रानी कैकेयी ने राम, लक्ष्मण और सीता को वल्कल वस्त्र दिए। राम ने राजसी वस्त्र उतार दिए। तपस्वियों के वस्त्र पहने। सीता को तपस्विनी के वेश में देखन सबसे अधिक दुखदायी था। महर्षि वरिष्ठ अब तक शांत थे। उन्हें क्रोध आ रखा। उन्होंने कहा, सीता वन जाएगी तो सब अयोध्यवासी उसके साथ जाएंगे। भरत सूनी अयोध्या पर राज करेंगे। यहाँ कोई नहीं होगा। पशु-पक्षी भी नहीं।"

एक बार फिर राम ने सबसे अनुमति माँगी। आगे-आगे राम उनके पीछे सीता। उनके पीछे लक्ष्मण। महल के ठीक बाहर मंत्री सुमंत्र ऱथ लेकर खड़े थे। रथ पर चढ़कर राम ने कहा, “महामंत्री, रथ तेज़ चलाएँ। नगरवासी रथ के पीछे दौड़े। राज दशरथ और माता कौशल्या भी पीछे-पीछे गए। सब रो रहे थे। सबकी आँखों में आँसू थे। पुरुष, महिलाएँ, बूढ़े, जवान, बच्चे। मीलों तक नंगे पाँव दौड़ते रहे। राम यह दृश्य देखकर विचलित हो गये। भावुक भी। उनसे यह देखा नहीं जा रहा था। उन्होंने सुमंत्र से रथ को और गति से हाँकने को कहा। ताकि लोग हार जाएँ। थककर पीछे छूट जाएँ। घर लौट जाएँ।



राजा दशरथ लगातार रथ की दिशा में नजरें गड़ाए रहे। खड़े रहे, जब तक रथ आँखों से ओझल नहीं हो गया। रथ दिखना बंद हुआ तो वे धरती पर गिर पड़े। रथ दिनभर दौड़ता रहा। वन अभी दूर था। तमसा नदी के तट तक पहुँचते-पहुंचते शाम हो गई। वनवासियों ने रात वहीं बिताई। अगली सुबह वे दक्षिण दिशा की ओर चले। हरे-भरे खेतों के बीच से गोमती नदी पारकर राम-सीता और लक्ष्मण सई नदी के तट पर पहुंचे। महाराज दशरथ के राज्य की सीमा वहीं समाप्त होती थी। राम ने मुड़कर अपनी जन्मभूमि को देखा। उसे प्रणाम किया। कहा, "हे जननी! "अब चौदह वर्ष बाद ही तुम्हारे दर्शन कर सकूँगा।"

शाम होते-होते वे गंगा के किनारे पहुँच गए। शृंगवेरपुर गाँव में। निषादराज गुह ने उनका स्वागत किया। राम ने रात वहीं विश्राम किया। गुहराज के अतिथि के रूप में। वन क्षेत्र आ गया था। नदी के उस पार। अगली सुबह राम ने महामंत्री को समझा बुझाकर वापस भेज दिया। दोनों राजकुमारों और सीता ने नाव से नदी पार की। सुमंत्र तट पर खड़े रहे। वनवासियों के उस पार उतरने तक। उसके बाद वे अयोध्या लौट आए।

सुमंत्र का खाली रथ अयोध्या पहुंचा तो लोगों ने उसे घेर लिया। वे राम के बारे में जानना चाहते थे। सुमंत्र बिना कुछ बोले सीधे राजभवन गए। राजा दशरथ कौशल्या-भवन में थे। बेचैन। सुमंत्र की प्रतीक्षा में। उन्होंने कहा, "महामंत्री! राम कहाँ है? सीता कैसी हैं? लक्ष्मण का क्या समाचार है? वे कहाँ रहते हैं? क्या खाते हैं?

सुमंत्र की आँखों में आँसू थे। उन्होंने एक-एक कर महाराज के सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। सुमंत्र को पता था कि दशरथ को इन उत्तरों से संतोष नहीं होगा। महाराज की बेचैनी बनी रही। बढ़ती गई। वन-गमन के छठे दिन दशरथ प्राण त्याग दिए। राम का वियोग उनसे सहा नहीं गया।

दूसरे दिन महर्षि वशिष्ठ ने मंत्रिपरिषद् से चर्चा की। सबकी राय थी कि राजगद्दी खाली नहीं रहनी चाहिए। तय हुआ कि भरत को तत्काल अयोध्या बुलाया जाए। घुड़सवार दूत रवाना किए गए। इस निर्देश के साथ कि उन्हें अयोध्या की घटनाओं के संबंध में मौन रहना है।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

दो वरदान | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | DHO VARDAN | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

दो वरदान 
 बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

राजा दशरथ के मन में अब एक ही इच्छा बची थी। राम का राज्याभिषेक उन्हें युवराज का पद देना। अयोध्या लौटने के बाद से ही उन्होंने राम को राज-काज में शामिल करना शुरू कर दिया था। राम यह जिम्मेदारी अच्छी तरह निभा रहे थे। उनकी विनम्रता, विद्वत्ता और पराक्रम का लोहा सभी मानते थे। प्रजा उनको चाहती थी। दशरथ केलिए तो वह प्राणों से प्यारे थे। दरबार में राम का सम्मान निरंतर बढ़ रहा था। 
राजा दशरथ वृद्ध हो चले थे। मुनि वशिष्ठ से विचार-विमर्श के बाद एक दिन उन्होंने दरबार में कहा, "मैंने लंबे समय तक राज-काज चलाया। जैसा बन पड़ा। अब मेरे अंग शिथिल हो गए हैं। मैं वृद्ध हो चला हूँ। मैं चाहता हूँ कि यह कार्यभार राम को सौंप दूं। अगर आप सब सहमत हों तो राम को युवराज का पद दे दिया जाए। अगर आपकी राय इससे भिन्न है तो मैं उस पर भी विचार करने को तैयार हूँ।" 


सभा ने तुमुलध्वनि से राजा दशरथ के प्रस्ताव का स्वागत किया। राम की जय-जयकार होने लगी। दशरथ थोड़ी देर तक सुनते रहे। संतोष के साथ। उन्होंने कहा, "शुभ काम में देरी नहीं होनी चाहिए। मेरी इच्छा है कि राम का राज्याभिषेक कल कर दिया जाए।" यह समाचार पलक झपकते पूरे नगर में फैल गया। हर जगह बस यही चर्चा थी। राज्याभिषेक की तैयारियाँ शुरू हो गईं। 
भरत और शत्रुघ्न उस समय अयोध्या में नहीं थे। वह अपने नाना केकयराज के यहाँ गए हुए थे। भरत जब भी अयोध्या लौटने की बात करते, नाना उन्हें रोक लेते। भरत को अयोध्या की घटनाओं की सूचना नहीं थी। उन्हें अपने पिता के निर्णय के संबंध में नहीं पता था। यह जानकारी भी नहीं थी कि अगले दिन राम का राज्याभिषेक होने वाला है। केकय से एक दिन में भरत और शत्रुघ्न का आना संभव नहीं था। 


राजा दशरथ ने इस संबंध में राम से चर्चा की। कहा कि भरत यहाँ नहीं है पर मैं चाहता हूँ कि राज्याभिषेक का कार्यक्रम न रोका जाए। उन्होंने राम से कहा, "जनता ने तुम्हें अपना राजा चुना है। तुम राजधर्म का पालन करना। कुल की मर्यादा की रक्षा अब तुम्हारे हाथ में है। 
"राज्याभिषेक की तैयारियाँ रानी कैकेयी की दासी ने भी देखीं। मंथरा ने। शुरू में उसे इस चहल-पहल का कारण समझ में नहीं आया। उसने इसे कोई अन्य अनुष्ठान समझा। इतनी रौनक! ऐसी सजावट! ऐसा कुछ उसने अन्य अनुष्ठानों में नहीं देखा था। उसे अचंभा हुआ। फिर उसने रानी कौशल्या की दासी से पूछा। उसे तब पता चला कि कल राम का राज्याभिषेक होने वाला है। यह उत्सव उसी के लिए है। 
मंथरा जलभुन गई। राम का राज्याभिषेक उसे षड्यंत्र लगा। कैकेयी के विरुद्ध। वह कैकेयी की दासी थी। बचपन से। कैकेयी का हित उसके लिए सर्वोपरि था। मंथरा उसे अपना हित मानती थी। वह कैकेयी की मुँहलगी थी। रानी कैकेयी भी उसे बहुत मानती थी। 


क्रोध से आगबबूला मंथरा रनिवास की ओर भागी। सीधे कैकेयी के कक्ष में। वह हाँफ रही थी। क्रोध से चेहरा लाल था। भागने के कारण साँस उखड़ रही थी। उसने रानी कैकेयी को सोते हुए देखा।
किसी तरह स्वयं को संभालते हुए मंथरा ने कहा, "अरे मेरी मूर्ख रानी! उठ। तेरे ऊपर भयानक विपदा आने वाली है। यह समय सोने का नहीं है। होश में आओ। विपत्ति का पहाड़ टूटे, इससे पहले जाग जाओ।" रानी कैकेयी नींद से चौंककर उठीं। उन्हें मंथरा की बात समझ में नहीं आई। "बात क्या है? तुम इतना घबराई क्यों हो? सब कुशल तो है?" उन्होंने पूछा।
"कैसा कुशल? कैसा मंगल? सब अमगल होने वाला है। तुम्हारे सुखों का अंत। महाराज दशरथ ने कल राम का राज्याभिषेक करने का निर्णय लिया है। अब राम युवराज होंगे।" 
"यह तो बहुत शुभ समाचार है!" कैकेयी ने प्रसन्नता से अपने गले का हार उतारकर मंथरा को दे दिया।" मैं बहुत प्रसन्न हूँ। राम युवराज पद के लिए हर तरह से योग्य हैं।" 
"रानी! तुम्हारी बुद्धि फिर गई है। मति मारी गई है। सवाल राम की योग्यता का नहीं है। राजा दशरथ के षड्यंत्र का है। तुम्हारे अधिकार छीनने का है, "मंथरा ने हार दूर फेंकते हुए कहा।" यह षड्यंत्र नहीं तो और क्या है? कल सुबह राज्याभिषेक है। भरत को जानबूझकर ननिहाल भेज दिया। समारोह के लिए बुलाया तक नहीं।"


कैकेयी का स्वर उग्र हो गया। उन्होंने मंथरा को डाँटते हुए कहा, "राम के प्रति मेरा अगाध स्नेह है। वह मुझे माँ के समान मानते हैं। तुझे इसमें षड्यंत्र दिखाई देता है? इसमें षड्यंत्र नहीं है। राम के बाद भरत ही राजा बनेंगे। राज सर्वदा ज्येष्ठ पुत्र को ही मिलता है। 
"मंथरा पर इस फटकार का कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसके लिए यह दशरथ का षड्यंत्र था। वह रानी कैकेयी के पलंग पर बैठ गई। उनके बहुत निकट। कैकेयी के चेहरे की ओर देखते हुए उसने कहा, "तुम बहुत भोली हो। नादान हो। तुम्हें आसन्न संकट नहीं दिखता। दुःख की जगह प्रसन्नता होती है। इस बुद्धि पर किसी को भी तरस आएगा। समझो रानी! राम राजा बने तो तुम कौशल्या की दासी बन जाओगी। भरत राम के दास हो जाएंगे। वह राजा नहीं बनेंगे। राम के बाद अगला राजा राम का पुत्र होगा। अनर्थ को अर्थ समझने की मूर्खता मत करो, रानी! राम को राज मिला तो वे भरत को देश निकाला दे देंगे। वे भरत को दंड देंगे। इस तिरस्कार से भरत की रक्षा करो, रानी! कोई ऐसा उपाय करो कि राजगद्दी भरत को मिले और राम को जंगल भेज दिया जाए।"
कैकेयी पर मंथरा की बातों का असर होने लगा। उनका सिर चकरा गया। वह पलंग से उठी तो पाँव सीधे नहीं पड़े। आँखों में आंसू थे। मन भारी हो गया। प्रसन्नता की जगह अव्यक्त क्रोध ने ले ली। मंथरा के तर्कों में उन्हें सच्चाई दिखने लगी। 


"तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं?" कैकेयी ने आँसू पोंछते हुए मंथरा से कहा। 
मंथरा पलंग से उठी। कैकेयी के पास जाकर खडी हो गई। उसने कहा, "याद रानी! महाराज दशरथ ने तुम्हें दो वरदान दिए थे। दशरथ से अपना वचन पूरा करने को कहो। एक से भरत के लिए राजगद्दी माँग लो। दूसरे से राम को चौदह वर्ष का वनवास। 
"कैकेयी का चेहरा तमतमाया हुआ था। उन्हें मंथरा की बात ठीक लगी। उनके मन में एक प्रश्न अब भी था। यह बात दशरथ से कैसे कहें? उन्हें रनिवास बुलवाएँ या प्रतीक्षा करें। मंथरा ने कैकेयी के मन की बात भाँप ली। उसने कहा, "तुम मैले कपड़े पहनकर कोपभवन चली जाओ। महाराज दशरथ आएँ तो उनकी ओर मत देखो। बात मत करो। तुम उनकी प्रिय रानी हो। तुम्हारा दुःख देख नहीं पाएँगे। बस उसी समय तुम उन्हें पिछली बात याद दिलाना। दोनों वचन माँग लेना।"
"मैं ऐसा ही करूंगी। महाराज का षड्यंत्र सफल नहीं होने दूंगी। "
मंथरा का लक्ष्य पूरा हो गया था। चलते-चलते उसने रानी कैकेयी से कहा, "राम के लिए चौदह वर्ष से कम वनवास मत मांगना। भरत इतने समय में राज-काज संभाल लेंगे। जब तक राम लौटेंगे, लोग उन्हें भूल चुके होंगे। अब जल्दी करो, रानी! समय बहुत कम है। 


"रानी कैकेयी कोपभवन चली गईं। मंथरा रनिवास से निकल गई। 
दिनभर की गहमागहमी के बाद महाराज दशरथ को रानियों की याद आई। तुरंत रनिवास की ओर चल पड़े। उन्हें शुभ समाचार देने। सबसे पहले वह कैकेयी के कक्ष की ओर मुड़े। कैकेयी वहाँ नहीं थीं। प्रतिहारी से पूछा। पता चला कि वे कोपभवन में हैं। दशरथ को चिंता हुई। कैकेयी कोपभवन में! परंतु क्यों? क्या इसलिए कि उन्हें अब तक सूचना नहीं मिली। "मैं उसे अवश्य मना लूँगा," दशरथ ने सोचा। 
दशस्थ कोपभवन का दृश्य देखकर हैरान हो गए। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। कैकेयी जमीन पर लेटी हुई थीं। बाल बिखरे हुए। गहने कक्ष में बिखरे हुए। कपड़े मैले।" 
तुम्हें क्या दु:ख है? क्या हुआ है तुम्हें? मुझे बताओ। अस्वस्थ हो? राजवैद्य को बुलाऊँ?" दशरथ ने कई सवाल पूछे। कोई उत्तर नहीं मिला। कैकेयी रोती रहीं। 
"तुम मेरी सबसे प्रिय रानी हो। मैं तुम्हें प्रसन्न देखना चाहता हूँ। तुम्हारी खुशी के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ। कुछ भी। धरती आसमान एक कर सकता हूँ।" दशरथ ने कैकेयी को मनाने का बहुत प्रयास किया। उत्तर उन्हें फिर भी नहीं मिला। 
दशरथ भी भूमि पर बैठ गए। विनती करते रहे। हाँ, "मै बीमार हूँ"  कैकेयी ने कहा, अपनी बीमारी के संबंध में बताऊँगी। लेकिन पहले आप एक वचन दें। मैं जो माँगें, उसे पूरा करेंगे।"
राजा ने तत्काल हामी भर दी। कहा, “मैं राम की सौगंध खाकर कहता हूँ। तुम्हारी हर इच्छा पूरी करूँगा।" 
महाराज दशरथ ने राम की सौगंध ली तो कैकेयी उठकर बैठ गईं। 
“आप मुझे वे दोनों वरदान दीजिए, जिसका संकल्प आपने वर्षों पहले रणभूमि में लिया था।" 
महाराज दशरथ ने हामी भरी।
"कल सुबह राज्याभिषेक भरत का हो, राम का नहीं," कैकेयी ने कहा। दशरथ भौचक रह गए। उन पर वज्रपात-सा हुआ। थोड़ा रुककर कैकेयी बोली, "राम को चौदह वर्ष का वनवास हो।"
दशरथ का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। अवाक रह गए। सिर चकराने लगा। वे मूच्छित होकर गिर पड़े। 
कुछ देर में राजा को होश आया। कैकेयी की ओर देखा। बड़े कातर भाव से बोले, "यह तुम क्या कह रही हो? मुझे विश्वास नहीं होता कि मैंने सही सुना है। "कैकेयी अड़ी रहीं। दशरथ कैकेयी की माँग को अस्वीकार करते रहे। अनर्थ बताते रहे। तब कैकेयी ने अंतिम हथियार चलाया। 
"अपने वचन से पीछे हटना रघुकुल का अनादर है। आप चाहें तो ऐसा कर सकते हैं। पर तब आप दुनिया को मुँह दिखाने योग्य नहीं रहेंगे। रही मेरी बात। आप वरदान नहीं देंगे तो मैं विष पीकर आत्महत्या कर लूँगी। यह कलंक आपके माथे होगा। 


"राजा दशरथ यह सुन नहीं सके। दोबारा बेहोश हो गए। रातभर बेसुध पड़े रहे। बीच-बीच में होश आता। वह कैकेयी को समझाते। गिड़गिड़ाते, धमकाते, डराते। पर कैकेयी टस-से-मस नहीं हुई। सारी रात इसी तरह बीत गई।

जंगल और जनकपुर | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | JANGIL AUR JANAKPUR| BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

जंगल और जनकपुर
बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण

राजमहल से निकलकर महर्षि विश्वामित्र सरयू नदी की ओर बढ़े। दोनों राजकुमार साथ थे। उन्हें नदी पार करनी थी। आश्रम पहुँचने के लिए। विश्वामित्र ने अयोध्या के निकट नदी पार नहीं की। दूर तक सरयू के किनारे-किनारे चलते रहे। दक्षिणी तट पर। उसी तट पर, जिस पर अयोध्या नगरी थी।



वे चलते रहे। नदी के घुमाव के साथ-साथ। राजमहल पीछे छूट गया। उसकी आखिरी बस्ती भी निकल गई। चलते-चलते एक तीखा मोड़ आया तो सब कुछ दृष्टि से ओझल हो गया।

राम और लक्ष्मण ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी नजर सामने थी। महर्षि विश्वामित्र के सधे कदमों की ओर। सूरज की चमक धीमी पड़ने लगी। शाम होने को आई। राजकुमारों के चेहरों पर थकान का कोई चिह्न नहीं था। उत्साह था। वे दिन भर पैदल चले थे। और चलने को तैयार थे।

महर्षि अचानक रुके। उन्होंने आसमान पर दृष्टि डाली। चिड़ियों के झुंड अपने बसेरे की ओर लौट रहे थे। आसमान मटमैला-लाल हो गया था। चरवाहे लौट रहे थे। गायों के पैर से उठती धूल में आधे छिपे हुए।

"हम आज रात नदी तट पर ही विश्राम करेंगे, महर्षि ने पीछे मुड़ते हुए कहा। दोनों राजकुमारों के चेहरे के भाव देखते

हुए विश्वामित्र हलका-सा मुसकराए। राम के निकट आते हुए उन्होंने कहा, "मैं तुम दोनों को कुछ विद्याएँ सिखाना चाहता हूँ। इन्हें सीखने के बाद कोई तुम पर प्रहार नहीं कर सकेगा। उस समय भी नहीं, जब तुम नींद में रहो।"


राम और लक्ष्मण नदी में मुँह-हाथ धोकर लौटे। महर्षि के निकट आकर बैठे। विश्वामित्र ने दोनों भाइयों को 'बला-अतिबला' नाम की विद्याएँ सिखाईं। रात में वे लोग वहीं सोए। तिनकों और पत्तों का बिस्तर बनाकर। नींद आने तक महर्षि उनसे बात करते रहे।

सुबह हुई। यात्रा फिर शुरू हुई। मार्ग वही था। सरयू नदी के किनारे-किनारे। चलते-चलते वे एक ऐसी जगह पहुंचे , जहाँ दो नदियां आपस में मिलती थीं। उस संगम की दूसरी नदी गंगा थी। महर्षि अब भी आगे चल रहे थे। लेकिन एक अंतर-आ गया था। राम-लक्ष्मण अब दूरी बनाकर नहीं चलते थे। महर्षि के ठीक पीछे थे ताकि उनकी बातें ध्यान से सुन सकें। रास्ते में पड़ने वाले आश्रमों के बारे में। वहाँ के लोगों के बारे में। वृक्षों- वनस्पतियों के संबंध में। स्थानीय इतिहास उसमें शामिल होता था।

आगे की यात्रा कठिन थी। जंगलों से होकर। उससे पहले उन्हें नदी पार करनी थी। रात में ऐसा करना महर्षि विश्वामित्र को उचित नहीं लगा। तीनों लोग वही रूक गए। संगम पर बने एक आश्रम में। अगली सुबह उन्होंने नाव से गंगा पार की।

नदी पार जंगल था। घना। दुर्गम। सूरज की किरणें धरती तक नहीं पहुँचती थीं, इतना घना। वह डरावना भी था। हर ओर से झींगुरों की आवाज। जानवरों की दहाड़। कर्कश ध्वनियाँ। राम और लक्ष्मण को आश्वस्त करते हुए महर्षि ने कहा, “ये जानवर और वनस्पतियाँ जंगल की शोभा हैं। इनसे कोई डर नहीं है। असली खतरा राक्षसी ताड़का से है। वह यहीं रहती है। तुम्हें वह खतरा हमेशा के लिए मिटा देना है।"

ताड़का के डर से कोई उस वन में नहीं आता था। जो भी आता, ताड़का उसे मार डालती। अचानक आक्रमण कर देती। ठसका डर इतना था कि उस सुंदर वन का नाम 'ताड़का वन' पड़ गया था।



राम ने महर्षि की आज्ञा मान ली। धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई। और उसे एक बार खींचकर छोड़ा। इतना ताड़का को क्रोधित करने के लिए बहुत था। टॅकार सुनते ही क्रोध से बिलबिलाई ताड़का गरजती हुई राम की ओर दौड़ी। दो बालकों को देखकर उसका क्रोध और भड़क उठा।

जंगल में जैसे तूफ़ान आ गया। विशालकाय पेड़ काँप उठे। पत्ते टूटकर इधर-उधर उड़ने लगे। धूल का घना बादल छा गया। उसमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। फिर ताड़का ने पत्थर बरसाने शुरू कर दिए। राम ने उस पर बाण चलाए। लक्ष्मण ने भी निशाना साधा। ताड़का बाणों से घिर गई। राम का एक बाण उसके हृदय में लगा। वह गिर पड़ी। फिर नहीं उठ पाई।

विश्वामित्र बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राम को गले लगा लिया। उन्होंने दोनों राजकुमारों को सौ तरह के नए अस्त्र-शस्त्र दिए। उनका प्रयोग करने की विधि बताई। उनका महत्व समझाया। महर्षि का आश्रम वहाँ से अधिक दूर नहीं था। लेकिन तब तक रात हो चली थी। विश्वामित्र ने वह दूरी अगले दिन तय करने का निर्णय लिया। ताड़का मर चुकी थी। उसका भय नहीं था। तीनों ने रात वहीं बिताई। ताड़का वन में, जो अब पूरी तरह भयमुक्त था। सुबह जंगल बदला हुआ था। अब वह ताड़का वन नहीं था। क्योंकि ताड़का नहीं थी। भयानक आवाजें गायब हो चुकी थीं। पत्तों से गुजरती हवा थी। उसकी सरसराहट का संगीत था। चिड़ियों की चहचहाहट थी। शांति थी। तसवीर बदल गई थी। सिद्धाश्रम का अतिम पड़ाव था-महर्षि का आश्रम। रास्ता छोटा भी था। मनोहारी भी। प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते तीनों लोग जल्दी ही आश्रम पहुंच गए। आश्रमवासियों ने उनकी अगवानी की। अभिनंदन किया। उनकी प्रसन्नता दुगुनी हो गई थी। महर्षि विश्वामित्र के आश्रम लौटने की खुशी। राम-लक्ष्मण के आगमन का सुख! विश्वामित्र यज्ञ की तैयारियों में लग गए। अनुष्ठान प्रारंभ हुआ। आश्रम की रक्षा की जिम्मेदारी राम-लक्ष्मण को सौंपकर महर्षि आश्वस्त थे। अनुष्ठान अपने अंतिम चरण में था। पूरा होने वाला था। कुछ ही दिनों में।


पाँच दिन तक सब ठीक-ठाक चलता रहा। शांति से। निर्विघ्न। लगता था कि राजकुमारों की उपस्थिति ने ही राक्षसों को भगा दिया है। राम और लक्ष्मण ने यज्ञ पूरा होने तक न सोने का निर्णय किया। वे लगातार जागते रहे। चौकस रहे। कमर में तलवार। पीठ पर तुणीर। हाथ में धनुष। प्रत्यंचा चढ़ी हुई। हर स्थिति के लिए तैयार। अनुष्ठान का अंतिम दिन। अचानक भयानक आवाजों से आसमान पर गया। सुबाहु और मारीच ने राक्षसों के दल-बल के साथ आश्रम पर धावा बोल दिया। मारीच क्रोधित था। यज्ञ के अलावा भी। इस बात से कि राम-लक्ष्मण ने उसकी माँ को मारा था। ताड़का को। राम ने राक्षसों का हमला होते ही कार्रवाई की। धनुष उठाया और मारीच को निशाना बनाया। मारीच बाण लगते ही मूच्छित हो गया। बाण के वेग से बहुत दूर जाकर गिरा। समुद्र के किनारे। वह मरा नहीं। जब होश आया तो उठकर दक्षिण दिशा की ओर भाग गया। राम का दूसरा बाण सुबाहु को लगा। उसके प्राण वहीं निकल गए। सुबाहु के मरने पर राक्षस सेना में भगदड़ मच गई। वे चीखते-चिल्लाते भागे। कुछ लक्ष्मण के बाणों का शिकार हुए अन्य जान बचाकर

भाग खड़े हुए। महर्षि विश्वामित्र का अनुष्ठान संपन हुआ। राम ने महर्षि को प्रणाम करते हुए पूछा, "अब हमारे लिए क्या आज्ञा है, मुनिवर?" महर्षि ने राम को गले लगाया। कहा, "हम लोग यहाँ से मिथिला जाएंगे। महाराज जनक के यहाँ। विदेहराज के दरबार में। मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों मेरे साथ चलो। उनके आयोजन में हिस्सा लेने। महाराज के पास एक अद्भुत शिव-धनुष है। तुम भी उसे देखो। "राम और लक्ष्मण अगली यात्रा को लेकर उत्साहित थे। नए स्थान देखने और जानने का अवसर! सोन नदी पार कर विश्वामित्र मिथिला की सीमा के पास पहुंचे। अपने शिष्यों और राजकुमारों के साथ। वे गौतम ऋषि के आश्रम से होते हुए नगर में पहुंचे। राजा जनक ने महल से बाहर आकर विश्वामित्र का स्वागत किया। तभी उनकी दृष्टि राजकुमारों पर पड़ी। विदेहराज चकित रह गए। वे स्वयं को रोक नहीं पाए। महर्षि से पूछा, “ये सुंदर राजकुमार कौन हैं? मैं इनके आकर्षण से खिंचता जा रहा हूँ।" "ये राम और लक्ष्मण हैं। महाराज दशरथ के पुत्र। मैं इन्हें अपने साथ लाया हूँ। आपका अद्भुत धनुष दिखाने।"


भाग खड़े हुए। महर्षि विश्वामित्र का अनुष्ठान संपन हुआ। राम ने महर्षि को प्रणाम करते हुए पूछा, "अब हमारे लिए क्या आज्ञा है, मुनिवर? "महर्षि ने राम को गले लगाया। कहा, "हम लोग यहाँ से मिथिला जाएंगे। महाराज जनक के यहाँ। विदेहराज के दरबार में। मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों मेरे साथ चलो। उनके आयोजन में हिस्सा लेने। महाराज के पास एक अद्भुत शिव-धनुष है। तुम भी उसे देखो। "राम और लक्ष्मण अगली यात्रा को लेकर उत्साहित थे। नए स्थान देखने और जानने का अवसर! सोन नदी पार कर विश्वामित्र मिथिला की सीमा के पास पहुंचे। अपने शिष्यों और राजकुमारों के साथ। वे गौतम ऋषि के आश्रम से होते हुए नगर में पहुंचे। राजा जनक ने महल से बाहर आकर विश्वामित्र का स्वागत किया। तभी उनकी दृष्टि राजकुमारों पर पड़ी। विदेहराज चकित रह गए। वे स्वयं को रोक नहीं पाए। महर्षि से पूछा, “ये सुंदर राजकुमार कौन हैं? मैं इनके आकर्षण से खिंचता जा रहा हूँ।" "ये राम और लक्ष्मण हैं। महाराज दशरथ के पुत्र। मैं इन्हें अपने साथ लाया हूँ। आपका अद्भुत धनुष दिखाने।"

राम ने सिर झुकाकर गुरु की आज्ञा स्वीकार की। आगे बढ़े। पेटी का ढक्कन खोल दिया। राम ने पहले धनुष देखा फिर महर्षि को। गुरु का संकेत मिलने पर राम ने वह विशाल धनुष सहज ही उठा लिया। यज्ञशाला में उपस्थित सभी लोग हतप्रभ थे। "इसकी प्रत्यंचा चढ़ा दूं, मुनिवर?" राम ने पूछा।" अवश्य। यदि ऐसा कर सकते हो। "विदेहराज चकित थे। राम ने आसानी से धनुष झुकाया। ऊपर से दबाकर प्रत्यंचा खींची। दबाव से धनुष बीच से टूट गया। उसके दो टुकड़े हो गए। बच्चों के खिलौने की तरह। यज्ञशाला में सन्नाटा छा गया। सब चुप थे। एक-दूसरे की ओर देख रहे थे।


सभागार की चुप्पी महाराज जनक ने तोड़ी। उनकी खुशी का ठिकाना न था । उन्हें सीता के लिए योग्य वर मिल गया था। उनकी प्रतिज्ञा पूरी हुई। जनकराज ने कहा, "मुनिवर! आपकी अनुमति हो तो मैं महाराज दशरथ के पास संदेश भेजूं। बारात लेकर आने का निमंत्रण। यह शुभ संदेश उन्हें शीघ्र भेजना चाहिए।" महर्षि की अनुमति से दूत अयोध्या भेजे गए। सबसे तेज चलने वाले रथों से। इस बीच जनकपुर में धूम मच गई। बारात के स्वागत की तैयारियाँ होने लगी। नगर की प्रसन्नता चरम पर थी।

महाराज जनक का संदेश मिलते ही अयोध्या में भी खुशी छा गई। आनन-फानन में बारात तैयार हुई। हाथी, घोड़े, रथ, सेना। बारात को मिथिला पहुंचने में पांच दिन लग गए। जनकपुरी जगमगा रही थी। हर मार्ग पर तोरणद्वार। हर जगह फूलों की चादर। एक-एक कोना सुवासित। हर घर के प्रवेशद्वार पर वंदनवार। एक-एक घर से मंगलगीत। मुख्यमार्ग पर दर्शकों की अपार भीड़। खिड़कियों और छज्जों से झाँकती महिलाएँ। एक नजर राम को देख लें। राम-सीता की जोड़ी दिख जाए। विवाह से ठीक पहले विदेहराज ने महाराज दशरथ से कहा, "राजन! राम ने मेरी प्रतिज्ञा पूरी कर बड़ी बेटी सीता को अपना लिया। मेरी इच्छा है कि छोटी पुत्री उर्मिला का विवाह लक्ष्मण से हो जाए। मेरे छोटे भाई कुशध्वज की भी दो पुत्रियाँ हैं- मांडवी और श्रुतकीर्ति। कृपया उन्हें भरत और शत्रुघ्न के लिए स्वीकार करें। "राजा दशरथ ने यह प्रस्ताव तत्काल मान लिया। विवाह के बाद बारात कुछ दिन जनकपुरी में रुकी। बाराती बहुओं को लेकर अयोध्या लौटे तो रानियों ने पुत्र-वधुओं की आरती उतारी। स्त्रियों ने फूल बरसाए। शंखध्वनि से गलियाँ गँज उठीं। यह आनंदोत्सव लगातार कई दिनों तक चलता रहा।


रविवार, 25 अप्रैल 2021

आश्रम का अनुमानित व्यय | मोहनदास करमचंद गांधी | MAHATMA GANDHI | AASHRAM KA ANUMAANIT VYAY | CBSE | HINDI | CLASS VII

आश्रम का अनुमानित व्यय 
मोहनदास करमचंद गांधी

दक्षिण अफ्रीका से लौटकर गांधी जी ने अहमदाबाद में एक आश्रम की स्थापना की, उसके प्रारंभिक सदस्यों तथा सामान आदि का विवरण इस पाठ में है।

आरंभ में संस्था (आश्रम) में आ चालीस लोग होंगे। कुछ समय में इस संख्या के पचास हो जाने की संभावना है।

हर महीने औसतन दस अतिथियों के आने की संभावना है। इनमें तीन या पाँच सपरिवार होंगे, इसलिए स्थान की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि परिवारवाले लोग अलग रह सकें और शेष एक साथ।

इसको ध्यान में रखते हुए तीन रसोईघर हों और मकान कुल पचास हजार वर्ग फुट क्षेत्रफल में बने तो सब लोगों के लायक जगह हो जाएगी।

इसके अलावा तीन हजार पुस्तकें रखने लायक पुस्तकालय और अलमारियाँ होनी चाहिए।

कम-से-कम पाँच एकड़ जमीन खेती करने के लिए चाहिए, जिसमें कम से कम तीस लोग काम कर सकें, इतने खेती के औजार चाहिए। इनमें कुदालियों, फावड़ों और खुरपों की जरूरत होगी।

बढ़ईगिरी के निम्नलिखित औजार भी होने चाहिए - पाँच बड़े हथौड़े, तीन बसूले, पाँच छोटी हथौड़ियाँ, दो एरन, तीन बम, दस छोटी-बड़ी छेनियाँ, चार रंदे, एक सालनी, चार केतियाँ, चार छोटी-बड़ी बेधनियाँ, चार आरियाँ, पाँच छोटी-बड़ी संडासियों, बीस रतल कीलें छोटी और बड़ी, एक मोंगरा (लकड़ी का हथौड़ा), मोची के औजार।

मेरे अनुमान से इन सब पर कुल पाँच रुपया खर्च आएगा।

रसोई के लिए आवश्यक सामान पर एक सौ पचास रुपये खर्च आएगा।

स्टेशन दूर होगा तो सामान को या मेहमानों को लाने के लिए बैलगाड़ी चाहिए।

मैं खाने का खर्च दस रुपये मासिक प्रति व्यक्ति लगाता हूँ। मैं नहीं समझता कि हम यह खर्च पहले वर्ष में निकाल सकेंगे। वर्ष में औसतन पचास लोगों खर्च छह हजार रुपये आएगा।

मुझे मालूम हुआ है कि प्रमुख लोगों की इच्छा यह है कि अहमदाबाद में यह प्रयोग एक वर्ष तक किया जाए। यदि ऐसा हो तो अहमदाबाद को ऊपर बताया गया सब खर्च उठाना चाहिए। मेरी माँग तो यह भी है कि अहमदाबाद मुझे पूरी जमीन और मकान सभी दे दे तो बाकी खर्च मैं कहीं और से या दूसरी तरह जुटा लूँगा। अब चूँकि विचार बदल गया है, इसलिए ऐसा लगता है कि एक वर्ष का या इससे कुछ कम दिनों का खर्च अहमदाबाद को उठाना चाहिए। यदि अहमदाबाद एक वर्ष के खर्च का बोझ उठाने के लिए तैयार न हो, तो ऊपर बताए गए खाने के खर्च का इंतजाम मैं कर सकता हूँ। चूँकि मैंने खर्च का यह अनुमान जल्दी में तैयार किया है, इसलिए यह संभव है कि कुछ मदें मुझसे छूट गई हों। इसके अतिरिक्त खाने के खर्च के सिवा मुझे स्थानीय स्थितियों की जानकारी नहीं है। इसलिए मेरे अनुमान में भूलें भी हो सकती हैं।

यदि अहमदाबाद सब खर्च उठाए तो विभिन्न मदों में खर्च इस तरह होगा -

• किराया बंगला और खेत की जमान

• किताबों की अलमारियों का खर्च

• बढ़ई के औजार

• मोची के औजार

चौके का सामान

एक बैलगाड़ी या घोडागाडी

एक वर्ष के लिए खाने का खर्च -

छह हजार रुपया।

मेरा खयाल है कि हमें लुहार और राजमिस्त्री के औजारों की भी जरूरत होगी। दूसरे बहुत से औजार भी चाहिए, किंतु इस हिसाब से मैंने उनका खर्च और शिक्षण - संबंधी सामान का खर्च शामिल नहीं किया है। शिक्षण के सामान में पाँच-छह देशी हथकरघों की आवश्यकता होगी।

मोहनदास करमचंद गांधी

(अहमदाबाद में स्थापित आश्रम का संविधान स्वयं गांधी जी ने तैयार किया था। इस संविधान के मसविदे से पता चलता है कि वह भारतीय जीवन का निर्माण किस प्रकार करना चाहते थे।)

घरेलू सामान

चार पतीले चालीस आदमियों का खाना बनाने के योग्य: दो छोटी पतीलिया दस आदमियों के योग्यः तीन पानी भरने के पतीले या तांबे के कलशे; चार मिट्टी के बड़े; चार तिपाइया; एक कढ़ाई; दस रतल खाना पकाने योग्य; तीन कलछिया; दो आटा गूंधने की परातें; एक पानी गरम करने का बड़ा पतीला; तीन केतलिया; पाच बाल्टिया या नहाने का पानी रखने के बरतन; पाच पतीले के ढक्कन; पाच अनाज रखने के बरतनः तीन तइया; दस थालिया; दस कटोरिया; दस गिलास: दस प्याले; चार कपड़े धोने के टब; दो छलनिया। एक पीतल की छलनी: तीन चक्किया; दस चम्मच; एक करछा, एक इमामदस्ता-मूसली; तीन झाडू, छह कुरसिया: तीन मेजें; छह किताबें रखने की अलमारिया; तीन दवातें: छह काले तख्ते, छह रैक; तीन भारत के नक्शे; तीन दुनिया के नक्शे; दो बंबई अहाते के नक्शे; एक गुजरात का नक्शा; पाच हाथकरणे; बढ़ई के औजार, मोची के औजार; खेती के औजार; चार चारपाइया: एक गाड़ी; पांच लालटेन: तीन कमोड; दस गहे; तीन चैबर पॉट; चार सड़क की बत्तियाँ।

(वैशाख बदी तेरह, मंगलवार 11 मई, 1915)

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन् | धीरंजन मालवे | CHANDRASEKHARA VENKATA RAMAN | DHIRANJAN MALVE | CBSE | HINDI | NCERT

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन् 

धीरंजन मालवे


पेड़ से सेब गिरते हुए तो लोग सदियों से देखते आ रहे थे, मगर पीछे छिपे रहस्य को न्यूटन से पहले कोई और समझ नहीं पाया था। ठीक उसी प्रकार विराट समुद्र की नील-वर्णीय आभा को भी असंख्य लोग आदि से देखते आ रहे थे, मगर इस आभा पर पड़े रहस्य के परदे हटाने के हमारे समक्ष उपस्थित हुए सर चंद्रशेखर वेंकट रामन्।


बात सन् 1921 की है, जब रामन् समुद्री यात्रा पर थे। जहाज के डेक पर खड़े होकर नीले समुद्र को निहारना, प्रकृति-प्रेमी रामन् को अच्छा लगता था। वे समुद्र की नीली आभा में घंटों खोए रहते। लेकिन रामन् केवल भावुक प्रकृति-प्रेमी ही नहीं थे। उनके अंदर एक वैज्ञानिक की जिज्ञासा भी उतनी ही सशक्त थी। यही जिज्ञासा उनसे सवाल कर बैठी - 'आखिर समुद्र का रंग नीला ही क्यों होता है? कुछ और क्यों नहीं? ' रामन् सवाल का जवाब ढूँढ़ने में लग गए। जवाब ढूँढ़ते ही वे विश्वविख्यात बन गए।


रामन् का जन्म 7 नवंबर सन् 1888 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली नगर में हुआ था। इनके पिता विशाखापत्तनम् में गणित और भौतिकी के शिक्षक थे। पिता इन्हें बचपन से गणित और भौतिकी पढ़ाते थे। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जिन दो विषयों के ज्ञान ने उन्हें जगत-प्रसिद्ध बनाया, उनकी सशक्त नींव उनके पिता ने ही तैयार की थी। कॉलेज की पढ़ाई उन्होंने पहले ए.बी.एन. कॉलेज तिरुचिरापल्ली से और फिर प्रेसीडेंसी कॉलेज मद्रास से की। बी.ए. और एम.ए. - दोनों ही परीक्षाओं में उन्होंने काफ़ी ऊँचे अंक हासिल किए।

रामन् का मस्तिष्क विज्ञान के रहस्यों को सुलझाने के लिए बचपन से ही बेचैन रहता था। अपने कॉलेज के जमाने से ही उन्होंने शोधकार्यों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था। उनका पहला शोधपत्र फिलॉसॉफिकल मैगजीन में प्रकाशित हुआ था। उनकी दिल का इच्छा तो यही थी कि वे अपना सारा जीवन शोधकार्यों को ही समर्पित कर दें, मगर उन दिनों शोधकार्य को पूरे समय के कैरियर के रूप में अपनाने की कोई खास व्यवस्था नहीं थी। प्रतिभावान छात्र सरकारी नौकरी की ओर आकर्षित होते थे। रामन् भी अपने समय के अन्य सुयोग्य छात्रों की भाँति भारत सरकार के वित्त-विभाग में अफ़सर बन गए। उनकी तैनाती कलकत्ता में हुई।

कलकत्ता में सरकारी नौकरी के दौरान उन्होंने अपने स्वाभाविक रुझान को बनाए रखा। दफ़्तर से फुर्सत पाते ही वे लौटते हुए बटू बाजार आते, जहाँ 'इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस' की प्रयोगशाला थी। यह अपने आपमें एक अनूठी संस्था थी, जिसे कलकत्ता के एक डॉक्टर महेंद्रलाल सरकार ने वर्षों की कठिन मेहनत और लगन के बाद खड़ा किया था। इस संस्था का उद्देश्य था देश में वैज्ञानिक चेतना का विकास करना। अपने महान् उद्देश्यों के बावजूद इस संस्था के पास साधनों का नितांत अभाव था। रामन् इस संस्था की प्रयोगशाला में कामचलाऊ उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए शोधकार्य करते। यह अपने आपमें एक आधुनिक हठयोग का उदाहरण था, जिसमें एक साधक दफ़्तर में कड़ी मेहनत के बाद बहू बाजार की इस मामूली-सी प्रयोगशाला में पहुँचता और अपनी इच्छाशक्ति के जोर से भौतिक विज्ञान को समृद्ध बनाने के प्रयास करता।


उन्हीं दिनों वे वाद्ययंत्रों की ओर आकृष्ट हुए। वे वाद्ययंत्रों की ध्वनियों के पीछे छिपे वैज्ञानिक रहस्यों की परतें खोलने का प्रयास कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने अनेक वाद्ययंत्रों का अध्ययन किया जिनमें देशी और विदेशी, दोनों प्रकार के वाद्ययंत्र थे।

वाद्ययंत्रों पर किए जा रहे शोधकार्यों के दौरान उनके अध्ययन के दायरे में जहाँ वायलिन, चैलो या पियानो जैसे विदेशी वाद्य आए, वहीं वीणा, तानपूरा और मृदंगम् पर भी उन्होंने काम किया। उन्होंने वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर पश्चिमी देशों की इस भ्रांति को तोड़ने की कोशिश की कि भारतीय वाद्ययंत्र विदेशी वाद्यों की तुलना में घटिया है। वाद्ययंत्रों के कंपन के पीछे छिपे गणित पर उन्होंने अच्छा-खासा काम किया और अनेक शोधपत्र भी प्रकाशित किए।

उस ज़माने के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री सर आशुतोष मुखर्जी को इस प्रतिभावान युवक के बारे में जानकारी मिली। उन्हीं दिनों कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का नया पद सृजित हुआ था। मुखर्जी महोदय ने रामन् के समक्ष प्रस्ताव रखा कि वे सरकारी नौकरी छोड़कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद स्वीकार कर लें। रामन् के लिए यह एक कठिन निर्णय था। उस जमाने के हिसाब से वे एक अत्यंत प्रतिष्ठित सरकारी पद पर थे, जिसके साथ मोटी तनख्वाह और अनेक सुविधाएँ जुड़ी हुई थीं। उन्हें नौकरी करते हुए दस वर्ष बीत चुके थे। ऐसी हालत में सरकारी नौकरी छोड़कर कम वेतन और कम सुविधाओंवाली विश्वविद्यालय की नौकरी में आने का फैसला करना हिम्मत का काम था।

रामन् सरकारी नौकरी की सुख-सुविधाओं को छोड़ सन् 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय की नौकरी में आ गए। उनके लिए सरस्वती की साधना सरकारी सुख-सुविधाओं से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के शैक्षणिक माहौल में वे अपना पूरा समय अध्ययन, अध्यापन और शोध में बिताने लगे। चार साल बाद यानी सन् 1921 में समुद्र-यात्रा के दौरान जब रामन् के मस्तिष्क में समुद्र के नीले रंग की वजह का सवाल हिलोरें लेने लगा, तो उन्होंने आगे इस दिशा में प्रयोग किए, जिसकी परिणति रामन् प्रभाव की खोज के रूप में हुई।

रामन् ने अनेक ठोस रवों और तरल पदार्थों पर प्रकाश की किरण के प्रभाव का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि जब एकवर्णीय प्रकाश की किरण किसी तरल या ठोस रखेदार पदार्थ से गुजरती है तो गुजरने के बाद उसके वर्ण में परिवर्तन आता है। वजह यह होती है कि एकवर्णीय प्रकाश की किरण के फोटॉन जब तरल या ठोस रवे से गुजरते हुए इनके अणुओं से टकराते हैं तो इस टकराव के परिणामस्वरूप वे या तो ऊर्जा का कुछ अंश खो देते हैं या पा जाते हैं। दोनों ही स्थितियाँ प्रकाश के वर्ण (रंग) में बदलाव लाती हैं। एकवर्णीय प्रकाश की किरणों में सबसे अधिक ऊर्जा बैजनी रंग के प्रकाश में होती है। बैजनी के बाद क्रमश: नीले, आसमानी, हरे, पीले, नारंगी और लाल वर्ण का नंबर आता है। इस प्रकार लाल-वर्णीय प्रकाश की ऊर्जा है। एकवर्णीय प्रकाश तरल या ठोस रवों से गुजरते हुए जिस परिमाण में ऊर्जा खोता या पाता है, उसी हिसाब से उसका वर्ण परिवर्तित हो जाता है।


रामन् की खोज भौतिकी के क्षेत्र में एक क्रांति के समान थी। इसका पहला परिणाम तो यह हुआ कि प्रकाश की प्रकृति के बारे में आइंस्टाइन के विचारों का प्रायोगिक प्रमाण मिल गया। आइंस्टाइन के पूर्ववर्ती वैज्ञानिक प्रकाश को तरंग के रूप में मानते थे, मगर आइंस्टाइन ने बताया कि प्रकाश अति सूक्ष्म कणों की तीव्र धारा है। इन अति कणों की तुलना आइंस्टाइन ने बुलेट से की और इन्हें 'फोटॉन' नाम दिया। रामन् के प्रयोगों ने आइंस्टाइन की धारणा का प्रत्यक्ष प्रमाण दे दिया, क्योंकि एकवर्णीय प्रकाश के वर्ण में परिवर्तन यह साफ़तौर पर प्रमाणित करता है कि प्रकाश की किरण तीव्रगामी सूक्ष्म कणों के प्रवाह के रूप में व्यवहार करती है।

रामन् की खोज की वजह से पदार्थों के अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन सहज हो गया। पहले इस काम के लिए इंफ्रा रेड स्पेक्ट्रोस्कोपी का सहारा लिया जाता था। यह मुश्किल तकनीक है और गलतियों की संभावना बहुत अधिक रहती है। रामन् की खोज के बाद पदार्थों की आणविक और परमाणविक संरचना के अध्ययन के लिए रामन् स्पेक्ट्रोस्कोपी का सहारा लिया जाने लगा। यह तकनीक एकवर्णीय प्रकाश के वर्ण में परिवर्तन के आधार पर, पदार्थों के अणुओं और परमाणुओं की संरचना की सटीक जानकारी देती है। इस जानकारी की वजह से पदार्थों का संश्लेषण प्रयोगशाला में करना तथा अनेक उपयोगी पदार्थों का कृत्रिम रूप से निर्माण संभव हो गया है।

रामन् प्रभाव की खोज ने रामन् को विश्व के चोटी के वैज्ञानिकों की पंक्ति में ला खड़ा किया। पुरस्कारों और सम्मानों की तो जैसे झड़ी-सी लगी रही। उन्हें सन् 1924 में रॉयल सोसाइटी की सदस्यता से सम्मानित किया गया। सन् 1929 में उन्हें 'सर' की उपाधि प्रदान की गई। ठीक अगले ही साल उन्हें विश्व के सर्वोच्च पुरस्कार-भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें और भी कई पुरस्कार मिले, जैसे रोम का मेत्यूसी पदक, रॉयल सोसाइटी का ह्यूज पदक, फ़िलोडेल्फ़िया इंस्टीट्यूट का फ्रैंकलिन पदक, सोवियत रूस का अंतर्राष्ट्रीय लेनिन पुरस्कार आदि। सन् 1954 में रामन् को देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। वे नोबेल पुरस्कार पानेवाले पहले भारतीय वैज्ञानिक थे। उनके बाद यह पुरस्कार भारतीय नागरिकतावाले किसी अन्य वैज्ञानिक को अभी तक नहीं मिल पाया है। उन्हें अधिकांश सम्मान उस दौर में मिले जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था। उन्हें मिलनेवाले सम्मानों ने भारत को एक नया आत्म - सम्मान और आत्म-विश्वास दिया। विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने एक नयी भारतीय चेतना को जाग्रत किया।

भारतीय संस्कृति से रामन् को हमेशा ही गहरा लगाव रहा। उन्होंने अपनी भारतीय पहचान को हमेशा अक्षुण्ण रखा। अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के बाद भी उन्होंने अपने दक्षिण भारतीय पहनावे को नहीं छोड़ा। वे कट्टर शाकाहारी थे और मदिरा से सख्त परहेज रखते थे। जब वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने स्टॉकहोम गए तो वहाँ उन्होंने अल्कोहल पर रामन् प्रभाव का प्रदर्शन किया। बाद में आयोजित पार्टी में जब उन्होंने शराब पीने से इनकार किया तो एक आयोजक ने परिहास में उनसे कहा कि रामन् ने जब अल्कोहल पर रामन् प्रभाव का प्रदर्शन कर हमें आह्लादित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, तो रामन् पर अल्कोहल के प्रभाव का प्रदर्शन करने से परहेज क्यों?

रामन् का वैज्ञानिक व्यक्तित्व प्रयोगों और शोधपत्र-लेखन तक ही सिमटा हुआ नहीं था। उनके अंदर एक राष्ट्रीय चेतना थी और वे देश में वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन के विकास के प्रति समर्पित थे। उन्हें अपने शुरुआती दिन हमेशा ही याद रहे।

जब उन्हें ढंग की प्रयोगशाला और उपकरणों के अभाव में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था। इसीलिए उन्होंने एक अत्यंत उन्नत प्रयोगशाला और शोध संस्थान की स्थापना की जो बंगलोर में स्थित है और उन्हीं के नाम पर 'रामन् रिसर्च इंस्टीट्यूट' नाम से जानी जाती है। भौतिक शास्त्र में अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने इंडियन जरनल ऑफ फिजिक्स नामक शोध-पत्रिका प्रारंभ की। अपने जीवनकाल में उन्होंने सैकड़ों शोध छात्रों का मार्गदर्शन किया। जिस प्रकार एक दीपक से अन्य कई दीपक जल उठते हैं, उसी प्रकार उनके शोध-छात्रों ने आगे चलकर काफी अच्छा काम किया। उन्हीं में कई छात्र बाद में उच्च पदों पर प्रतिष्ठित हुए। विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए वे ‘करेंट साइंस’ नामक एक पत्रिका का भी संपादन करते थे। रामन् प्रभाव केवल प्रकाश की किरणों तक ही सिमटा नहीं था। उन्होंने अपने व्यक्तित्व के प्रकाश की किरणों से पूरे देश को आलोकित और प्रभावित किया। उनकी मृत्यु 21 नवंबर सन् 1970 के दिन 82 वर्ष की आयु में हुई।

रामन् वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने हमें हमेशा ही यह संदेश दिया कि हम अपने आसपास घट रही विभिन्न प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन एक वैज्ञानिक दृष्टि से करें। तभी तो उन्होंने संगीत के सुर-ताल और प्रकाश की किरणों की आभा के अंदर से वैज्ञानिक सिद्धांत खोज निकाले। हमारे आसपास ऐसी न जाने कितनी ही चीजें बिखरी पड़ी हैं, जो अपने पात्र की तलाश में हैं। ज़रूरत है रामन् के जीवन से प्रेरणा लेने की और प्रकृति के बीच छुपे वैज्ञानिक रहस्य का भेदन करने की।

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

नृत्यांगना सुधा चंद्रन | रामाज्ञा तिवारी | NRITYANGANA SUDHA CHANDRAN | RAMAGNA TIWARI | CBSE | CLASS VII | HINDI

नृत्यांगना सुधा चंद्रन 

रामाज्ञा तिवारी


जीवन के किसी भी क्षेत्र में शिखर तक पहुँचने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति और कठिन परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। कई लोग ऐसे भी हैं जिन शारीरिक अक्षमता के बावजूद संघर्ष किया है और लक्ष्य प्राप्त किया है। ऐसा ही एक नाम है - सुधा चंद्रन। पैर खराब होने के बावजूद वह चोटी की नृत्यांगना बनी।

सुधा चंद्रन की माता श्रीमती थंगम एवं पिता श्री के.डी.चंद्रन की हार्दिक इच्छा थी कि उनकी पुत्री राष्ट्रीय ख्याति की नृत्यांगना बने। इसीलिए चंद्रन दंपत्ति ने सुधा को पाँच वर्ष की अल्पायु में ही मुंबई के प्रसिद्ध नृत्य विद्यालय 'कला-सदन' में प्रवेश दिलवाया। पहले-पहल तो नृत्य विद्यालय के शिक्षकों ने इतनी छोटी उम्र की बच्ची के दाखिले में हिचकिचाहट महसूस की किंतु सुधा की प्रतिभा देखकर सुप्रसिद्ध नृत्य शिक्षक श्री के.एस. रामास्वामी भागवतार ने उसे शिष्या के रूप में स्वीकार कर लिया और सुधा उनसे नियमित प्रशिक्षण प्राप्त करने लगी। जल्द ही सुधा के नृत्य कार्यक्रम विद्यालय के आयोजनों में होने लगे। नृत्य के साथ-साथ, अध्ययन में भी सुधा ने अपनी प्रतिभा दिखाई लेकिन सुधा के स्वप्नों की इंद्रधनुषी दुनिया में एकाएक 2 मई, 1981 को अँधेरा छा गया।

2 मई को तिरूचिरापल्ली से मद्रास जाते समय उनकी बस दुर्घटनाग्रस्त हो गई। इस दुर्घटना में सुधा के बाएँ पाँव की एड़ी टूट गई और दायाँ पाँव बुरी तरह जख्मी हो गया। प्लास्टर लगने पर बायाँ पाँव तो ठीक हो गया किंतु दायीं टाँग में 'गैंग्रीन' (एक प्रकार का कैंसर) हो गया। ऐसे में डॉक्टरों के पास सुधा की दायीं टाँग काट देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। अंततः दुर्घटना के एक महीने बाद सुधा की दायीं टाँग घुटने के साढ़े सात इंच नीचे से काट दी गई। एक टाँग का कट जाना संभवतः किसी भी नृत्यांगना के जीवन का अंत ही होता। सुधा के साथ भी यही हुआ। सुधा ने लकड़ी के गुटके के पाँव और बैसाखियों के सहारे चलना शुरू कर दिया और मुंबई आकर वह पुनः अपनी पढ़ाई में जुट गई।

इसी बीच सुधा ने मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सुप्रसिद्ध कृत्रिम अंग विशेषज्ञ डॉ.पी.सी.सेठी के बारे में सुना। वह जयपुर गई और डॉ.सेठी से मिली। डॉ.सेठी ने सुधा को आश्वस्त किया कि वह दुबारा सामान्य ढंग से चल सकेगी। इस पर सुधा ने पूछा- "क्या मैं नाच सकूँगी?" डॉ.सेठी ने कहा - "क्यों नहीं, प्रयास करो तो सब कुछ संभव है। "डॉ.सेठी ने सुधा के लिए एक विशेष प्रकार की टाँग बनाई जो अल्यूमिनियम की थी और इसमें ऐसी व्यवस्था थी कि वह टाँग को आसानी से घुमा सकती थी। सुधा एक नए विश्वास के और उसने नृत्य का अभ्यास शुरू करना चाहा किंतु इस प्रयास में कटी हुई टाँग से खून निकलने लगा। कोई भी सामान्य व्यक्ति इस तरह की घटना के बाद दुबारा नाचने की हिम्मत कतई नहीं करता किंतु सुधा साधारण मिट्टी की नहीं बनी थी। जल्दी ही उसने अपनी निराशा पर काबू प्राप्त किया और अपने नृत्य प्रशिक्षक को साथ लेकर डॉ.सेठी से पुनः मिली।

डॉ. सेठी ने सुधा के नृत्य प्रशिक्षक से नृत्य हेतु पाँवों की विभिन्न मुद्राओं को गंभीरता से देखा-परखा और एक नयी टौंग बनवाई, जो नृत्य विशेष जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी। टाँग लगाते समय डॉ . सेठी ने सुधा से कहा- "मैं जो कुछ कर सकता था मैंने कर दिया, अब तुम्हारी बारी है।" 



सुधा ने पुनः नृत्य का अभ्यास प्रारंभ किया। शुरुआत बहुत अच्छी नहीं रही। कटे हुए पाँव के हूँठ से खून रिसने लगा किंतु सुधा ने कड़ा अभ्यास जारी रखा। कठिन अभ्यास से सुधा जल्द ही सामान्य नृत्य मुद्राओं को प्रदर्शित करने में सफल हो गई। 28 जनवरी, 1984 को मुंबई के 'साउथ इंडिया वेलफेयर सोसायटी' के हाल में एक अन्य नृत्यांगना प्रीति के साथ सुधा ने दुबारा नृत्य के सार्वजनिक प्रदर्शन का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। यह दिन सुधा की जिंदगी का संभवत : सबसे कठिन दिन था, उस दिन से भी ज्यादा जबकि उसका पाँव काट दिया गया था। सुधा का यह प्रदर्शन बेहद सफल रहा। चहेतों ने उसे देखते-देखते पलकों पर उठा लिया और वह रातों-रात एक ऐतिहासिक महत्त्व की व्यक्तित्त्व हो गई। उसकी अद्भुत जीवन-यात्रा से प्रभावित होकर तेलुगु के फ़िल्मकार ने उसकी जिंदगी को आधार बना कर एक कहानी लिखवाई और 'मयूरी' नाम से तेलुगु में एक फ़िल्म बनाई। अपने पात्र को सुधा ने स्वयं परदे पर जीवंत कर दिया। फ़िल्म को अद्भुत सफलता मिली और इस फ़िल्म में अभिनय के लिए सुधा को भारत के 33 वें राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में विशेष पुरस्कार प्रदान किया गया। 'मयूरी' की सफलता को देखते हुए इसके निर्माता ने यह फ़िल्म हिंदी में भी 'नाचे मयूरी' नाम से प्रदर्शित की और सुधा ने पूरे भारत को अपनी प्रतिभा का मुरीद कर दिया। आज सुधा एक व्यस्त नृत्यांगना ही नहीं, फ़िल्म कलाकार भी है। सुधा को उसके असामान्य साहस और श्रेष्ठ उपलब्धियों के लिए कई पुरस्कार भी प्राप्त हो चुके हैं। 
- रामाज्ञा तिवारी

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

ईदगाह | प्रेमचंद | IDGAH | PREMCHAND | STORY | HINDI | NTA | UGC | CBSE | NET

ईदगाह - प्रेमचंद

प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद ने कहानी और उपन्यास दोनों ही लिखे हैं। वे भारत के श्रेष्ठतम कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में जानते हैं। ईदगाह मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध कहानी है। इस कहानी में दादी और पोते का मार्मिक प्रेम दर्शाया गया है। इस में कथन व संदर्भ, वातावरण का सजीव चित्रण है। इस में बाल्यावस्था की निर्मल भावनाओं का सुंदर प्रतिबिंब दर्शाया गया है। ईदगाह कहानी बाल मनोविज्ञान पर आधारित कहानी है। इस कहानी में हामिद के मनोभावों और परिस्थितियों का सूक्ष्म चित्रण मिलता है।

कहानी के मुख्य पात्र

हामिद, अमीना, महमूद, मोहसिन, नूरे, सम्मी

रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद आज ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभात! वृक्षों पर कुछ अजीब हरियाली है। खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है! मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है! ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न है। बार-बार जेब से खज़ाना निकालकर गिनते हैं। महमूद गिनता है, एक दो... दस-बारह। उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास पंद्रह पैसे हैं। इनसे अनगिनत चीजें लाएँगे–खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और न जाने क्या-क्या। और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह भोली सूरत का चार-पांच साल का दुबला-पतला लड़का था। उसका पिता गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली पड़ती गयी और एक दिन वह भी परलोक सिधार गयी। किसी को पता न चला कि आखिर अचानक यह क्या हुआ।

अब हामिद अपनी दादी अमीना की गोदी में सोता है। दादी अम्मा हामिद से कहती है कि उसके अब्बाजान रुपये कमाने गये हैं। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बहुत-सी अच्छी चीजें लाने गयी हैं। आशा तो बड़ी चीज़ है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है। फिर भी वह प्रसन्न है। अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन है और उसके घर में दाना तक नहीं है। लेकिन हामिद! उसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा की किरण। हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है - "तुम डरना नहीं अम्मा, मैं सबसे पहले आऊँगा। बिलकुल न डरना। अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने पिता के साथ जा रहे हैं। हामिद का प्रश्न अमीना के सिवा कौन है? भीड़ में बच्चा कहीं खो गया तो क्या होगा? तीन कोस चलेगा कैसे? पैरों में छाले पड़ जाएँगे।

जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी दूर चलकर, उसे गोदी ले लेगी, लेकिन यहाँ सेवइयाँ कौन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते लौटते सारी सामग्री जमा करके झटपट बना लेती। यहाँ तो चीजें जमा करते-करते घंटों लगेंगे। गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद जा रहा था। शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। बड़ी-बड़ी इमारतें- अदालत, कॉलेज, क्लब, घर आदि दिखायी देने लगे। ईदगाह जानेवालों की टोलियाँ नज़र आने लगीं। एक-से-एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए हैं। सहसा ईदगाह नज़र आयी और उसी के पास ईद का मेला। नमाज़ पूरी होते ही सब बच्चे मिठाई और खिलौनों की दुकानों पर धावा बोल देते हैं। हामिद दूर खड़ा है। उसके पास केवल तीन पैसे हैं। मोहसिन भिश्ती तो खरीदता है, महमूद सिपाही, नूरे वकील और सम्मी धोबिन। हामिद खिलौनों को ललचाई आँखों से देखता है।

वह अपने आपको समझाता है, “मिट्टी के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जाएँ। ”फिर मिठाइयों की दुकानें आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ लीं, किसी ने गुलाबजामुन, किसी ने सोहन हलवा। मोहसिन कहता है, “हामिद, रेवड़ी ले ले, कितनी खुशबूदार है।" हामिद ने कहा, "रखे रहो, क्या मेरे पास पैसे नहीं है? "सम्मी बोला, "तीन ही पैसे तो हैं, तीन पैसे में क्या-क्या लोगे? "हामिद मौन रह गया। मिठाइयों के बाद लोहे की चीज़ों की दुकानें आती हैं। कई चिमटे रखे हुए थे। हामिद को ख्याल आता है, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं तो हाथ जल जाते हैं, अगर चिमटा ले जाकर दादी को दे दें, तो वह कितनी प्रसन्न होंगी। फिर उनकी उँगलियाँ कभी नहीं जलेंगी। दादी अम्मा चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी- "मेरा बच्चा! अम्मा के लिए चिमटा लाया है। हज़ारों दुआएँ देती रहेंगी। फिर पड़ोस की औरतों को दिखाएँगी। सारे गाँव में चर्चा होने लगेगी। हामिद चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। बड़ों की दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं और तुरंत सुनी जाती हैं। हामिद ने दुकानदार से पूछा, “यह चिमटा कितने का है? "छह पैसे कीमत सुनकर हामिद का दिल बैठ गया। हामिद ने कलेजा मज़बूत करके कहा, " तीन पैसे लोगे? "दुकानदार ने बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक हो और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। दोस्तों ने मजाक किया, “यह चिमटा क्यों लाया पगले! इसे क्या करेगा? "घर आने पर अमीना हामिद की आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगीं। सहसा हाथ में चिमटा देखकर वह चौकी। "यह चिमटा कहाँ से लाया?" "मैंने मोल लिया है अम्मा। "कितने पैसे में?" "तीन पैसे दिये। अमीना ने अपने माथे पर हाथ रखा। वह अफ़सोस करती हुई, आह! भरती हुई बोली - “यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुई, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! सारे मेले में तुझे और कोई चीज़ न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?

हामिद ने अपराधी भाव से कहा, “ तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, यह मुझसे देखा न जाता था अम्मा। इसलिए मैं इसे लिवा लाया। "अमीना का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया। यह मूक स्नेह था मार्मिक प्रेम था जो रस और स्वाद से भरा। बच्चे में कितना त्याग, कितना सद्भाव और कितना विवेक है। दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा! वहाँ भी अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्गद् हो गया। आँचल फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जातीं और आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूंदें गिरानी जाती थीं। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!

अवधपुरी में राम | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | AVADPURI MAI RAM | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

वाल्मीकि रामायण 

बाल रामकथा 

अवधपुरी में राम


अवध यह कथा अवध की है और बहुत पुरानी है। अवध में सरयू नदी के किनारे एक अति सुंदर नगर था अयोध्या। सही अर्थों में दर्शनीय और देखने लायक| भव्यता जैसे उसका दूसरा नाम हो! अयोध्या में केवल राजमहल भव्य नहीं था। उसकी एक-एक इमारत आलीशान थी। आम लोगों के घर भव्य थे। सड़कें चौड़ी थीं। सुंदर बाग-बगीचे। पानी से लबालब भरे सरोवर। खेतों में लहराती हरियाली। हवा में हिलती फ़सलें सरयू की लहरों के साथ खेलती थीं। अयोध्या हर तरह से संपन्न नगरी थी । संपन्नता कोन-अंतरे तक बिखरी हुई। सभी सुखी। सब समृद्रा दुःख और विपन्नता को अयोध्या का पता नहीं मालूम था या उन्हें नगर की सीमा में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। पूरा नगर विलक्षण था। अद्भुत और मनोरमा उसे ऐसा होना ही था। वह कोसल राज्य की राजधानी था। राजा दशरथ वहीं रहते थे। उनके राज में दुःख का भला क्या काम? राजा दशरथ कुशल योद्धा और न्यायप्रिय शासक थे। महाराज अज के पुत्र। महाराज रघु के वंशज। रघुकुल के उत्तराधिकारी। रघुकुल की रीति-नीति का प्रभाव हर सुख-समृद्धि लेकर बात-व्यवहार तक। लोग मर्यादाओं का पालन करते थे। सदाचारी थे। पवित्रता और शांति हर जगह थी। नगर में भी। लोगों के मन में भी। राजा दशरथ यशस्वी थे। उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं थी। राज-सुख था। कमी होने का प्रश्न ही नहीं था। लेकिन उन्हें एक दु:ख था। छोटा सा दुःख। मन के एक कोने में छिपा हुआ। वह रह-रहकर उभर आता था। उन्हें सालता रहता था। उनके कोई संतान नहीं थी। आयु लगातार बढ़ती जा रही थी। उनकी तीन रानियाँ थीं कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। रानियों के मन में भी बस यही एक दुःख था। संतान की कमी। जीवन सूना-सूना लगता था। राजा दशरथ से रानियों की बातचीत प्रायः इसी विषय पर आकर रुक जाती थी। राजा दशरथ की चिंता बढ़ती जा रही थी।


बहुत सोच-विचारकर महाराज दशरथ ने इस संबंध में वशिष्ठ मुनि से चर्चा की। उन्हें पूरी बात विस्तार से बताई। रघुकुल के अगले उत्तराधिकारी के बारे में अपनी चिंता बताई। मुनि वशिष्ठ राजा दशरथ की चिंता समझते थे। उन्होंने दशरथ को यज्ञ करने की सलाह दी। पुत्रेष्टि यज्ञ। महर्षि ने कहा, "आप पुत्रेष्टि यज्ञ करें, महाराज! आपकी इच्छा अवश्य पूरी होगी।" यज्ञ महान तपस्वी ऋष्यशृंग की देखरेख में हुआ। पूरा नगर उसकी तैयारी में लगा हुआ था। यज्ञशाला सरयू नदी के किनारे बनाई गई। यज्ञ में अनेक राजाओं निमंत्रित किया गया। तमाम ऋषि-मुनि पधारे। शंखध्वनि और मंत्रोच्चार के बीच एक-एक कर सबने आहुति डाली। अंतिम आहुति राजा दशरथ की थी। यज्ञ पूरा हुआ। अग्नि के देवता ने महाराज दशरथ को आशीर्वाद दिया। कुछ समय बाद दशरथ की इच्छा पूरी हुई। तीनों रानियाँ पुत्रवती हुईं। महारानी कौशल्या ने राम को जन्म दिया। चैत्र माह की नवमी के दिन। रानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए। लक्ष्मण और शत्रुघ्न। रानी कैकेयी के पुत्र का नाम भरत रखा गया। राजमहल में खुशी छा गई। नगर में बधाइयाँ बजने लगी। मंगलगीत गाए गए।


हर ओर खुशी। उत्सव जैसा दृश्य। राजा दशरथ प्रसन्न थे। उनकी मनोकामना पूरी हुई। प्रजा प्रसन्न थी कि दशरथ की चिंता दूर हुई। नगर में बड़ा समारोह आयोजित किया गया। धूमधाम से। आयोजन में दूर-दूर से लोग आए। राजा दशरथ ने सबको पूरा सम्मान दिया। उन्हें कपड़े, अनाज और धन देकर विदा किया। चारों राजकुमार धीरे-धीरे बड़े हुए। वे बहुत सुंदर थे। सुदर्शन। साथ खेलने निकलते तो लोग उन्हें देखते रह जाते। आँखें उनसे हटती नहीं थीं। चारों भाइयों में आपस में बहुत प्रेम था। वे अपने बड़े भाई राम की आज्ञा मानते थे। खेलकूद में लक्ष्मण प्रायः राम के साथ रहते। भरत और शत्रुघ्न की एक अलग जोड़ी थी। और बड़े होने पर राजकुमारों को शिक्षा-दीक्षा के लिए भेजा गया। उन्होंने कुशल और अपनी विद्या में दक्ष गुरुजनों से ज्ञान अर्जित किया। शास्त्रों का अध्ययन किया। शस्त्र-विद्या सीखी। चारों राजकुमार कुशाग्र बुद्धि थे। जल्द ही सब विद्याओं में पारंगत हो गए। राम इसमें सर्वोपरि थे। उनमें कई अन्य गुण भी थे। विवेक, शालीनता और न्यायप्रियता। राजा दशरथ को राम सबसे अधिक प्रिय थे। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण। और इन मानवीय गुणों के कारण भी।


राजकुमार कुछ और बड़े हुए। विवाह योग्य। नगर में इसकी चर्चा होने लगी। महाराज दशरथ भी ऐसा ही चाहते थे। अपनी संतानों के लिए सुयोग्य वधुएँ। परिजनों में चर्चा पहले से ही हो रही थी। बाद में पुरोहितों को भी इसमें शामिल कर लिया गया। अयोध्या का राजमहल। एक दिन ऐसी ही चर्चा चल रही थी। गहन मंत्रणा। तभी एक द्वारपाल घबराया हुआ अंदर आया। उसने सूचना दी कि महर्षि विश्वामित्र पधारे हैं। महाराज दशरथ तत्काल अपना आसन छेड़कर खड़े हो गए। द्वार की ओर बढ़े। महर्षि अगवानी करने। उन्हें लेकर दरबार में आए। विश्वामित्र को ऊँचा आसन दिया गया। विश्वामित्र कभी स्वयं राजा थे। बड़े और बलशाली। बाद में अपना राजपाट छोड़ दिया। संन्यास ग्रहण कर लिया। जंगल चले गए। वहीं उन्होंने अपना आश्रम बनाया। उसे उन्होंने सिद्धाश्रम नाम दिया। महर्षि के स्वागत-सत्कार के बाद दशरथ ने कहा, " महर्षि, आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ। आप अपने मन की बात कहिए। आपकी आज्ञा का पूरी तरह पालन होगा।" "राजन! मैं जो माँगने जा रहा हूँ उसे देना आपके लिए कठिन होगा। "

"आप आज्ञा दीजिए, महर्षि! मैं पूरा करने के लिए तत्पर हूँ। बिलकुल नहीं हिचकूँगा।" "मैं सिद्धि के लिए एक यक्ष कर रहा हूँ। अनुष्ठान लगभग पूरा हो गया है। लेकिन दो राक्षस ठस में बाधा डाल रहे हैं। मैं जानता हूँ कि उन राक्षसों को केवल एक ही व्यक्ति मार सकता है। वह राम हैं। आप अपने ज्येष्ठ पुत्र को मुझे दे दें यज्ञ पूरा हो, "विश्वामित्र ने कहा। दशरथ पर जैसे बिजली गिर पड़ी। वह अचकचा गए। उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि मुनिवर उनसे राम को माँग लेंगे। उनके ज्येष्ठ पुत्र। उनके सबसे प्रिय। दशरथ चिंता में पड़ गए। विश्वामित्र दशरथ की दुविधा समझ रहे थे। उन्होंने कहा, "मैं राम को केवल कुछ दिनों के लिए माँग रहा हूँ। यज्ञ दस दिन में संपन्न हो जाएगा। "महाराज दशरथ दु:खी हो गए। पुत्र-वियोग की आशंका से काँप उठे। दरबार में सन्नाटा छा गया। दशरथ की दशा देखकर मंत्री चिंतित थे। पर चुप थे। महर्षि वशिष्ठ शांत थे। इतने में दशरथ काँप कर बेहोश हो गए। होश आया तो डर ने उन्हें फिर जकड़ लिया। मूच्छित होकर दोबारा गिर पड़े। संज्ञा-शून्य पड़े रहे।


महर्षि विश्वामित्र का क्रोध बढ़ता जा रहा था। दरबार सशंकित था। किसी अनिष्ट की आशंका से। वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे। महर्षि और महाराज के बीच संवाद में कुछ बोलना उचित भी नहीं था। मुनि वशिष्ठ चुपचाप आकर महाराज दशरथ के पास खड़े हो गए। थोड़ी देर बाद दशरथ उठे। स्वयं को सँभालते हुए उन्होंने महर्षि से विनती की, "महामुनि! मेरा राम तो अभी सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ है। वह राक्षसों से कैसे लड़ेगा? राक्षस मायावी हैं। वह उनका छल-कपट कैसे समझेगा? उन्हें कैसे मारेगा? इससे अच्छा तो यही होगा कि आप मेरी सेना ले जाएँ। मैं स्वयं आपके साथ चलूँ। राक्षसों से युद्ध करूँ।" महर्षि विश्वामित्र ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। क्रोधित थे, पर उसे व्यक्त नहीं कर रहे थे। उन्हें अपने यज्ञ के नियम याद थे। क्रोध करने से यज्ञ खंडित हो जाता। अनुष्ठान अधूरा रह जाता। "मैं राम के बिना नहीं रह सकता, महामुनि! एक पल भी नहीं। आप राम को छोड़कर जो चाहें माँग लें। उसे मत ले जाइए। मैं राम को नहीं दूँगा। बिलकुल नहीं। वह मेरी बुढ़ापे की संतान है। मैं उससे बहुत प्रेम करता हूँ।"

महर्षि का क्रोध भभक उठा। दरबार, मंत्रीगण और ऋषि-मुनि सकते में आ गए। “ आप रघुकुल की रीति तोड़ रहे हैं, राजन। वचन देकर पीछे हट रहे हैं। यह बरताव कुल के विनाश का सूचक है। आप जानते हैं कि मैं स्वयं दुष्ट राक्षसों का संहार कर सकता था। लेकिन मैंने संन्यास ले लिया है। अगर आप राम को नहीं देंगे तो मैं खाली हाथ लौट जाऊँगा।"


बात बिगडती देखकर मुनि वशिष्ठ आगे आये। महाराज दशरथ को समझाया। राम की शक्ति के बारे में। प्रतिज्ञा तोड़ने के संबंध में। महर्षि विश्वामित्र के साथ रहने पर राजकुमार राम को होने वाले लाभ के बारे में। "राजन, आपको अपना वचन पूरा करना चाहिए। रघुकुल की रीति यही है। प्राण देकर भी आपके पूर्वजों ने वचन निभाया है। आप राम की चिंता न करें। महर्षि के होते उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।" महाराज दशरथ की चिंता कुछ कम हुई। पर मन अब भी खिन्न था। पुत्र-बिछोह का दु:ख सभी तर्कों पर भारी पड़ रहा था। गुरु वशिष्ठ ने कहा, "महाराज, महर्षि विश्वामित्र सिद्ध पुरुष हैं। तपस्वी हैं। अनेक गुप्त विद्याओं के जानकार हैं। वह कुछ सोचकर ही यहाँ आए हैं। राम उनसे अनेक नयी विद्याएँ सीख सकेंगे। आप राम को महर्षि विश्वामित्र के साथ जाने दें। राम को उन्हें सौंप दें।

"दशरथ ने मुनि वशिष्ठ को बात दु:खी मन से स्वीकार कर ली। लेकिन वह राम को अकेले नहीं भेजना चाहते थे। उन्होंने विश्वामित्र से आग्रह किया। कहा कि वे राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण को भी ले जाएँ। महर्षि विश्वामित्र ने महाराज दशरथ का यह आग्रह स्वीकार कर लिया। राम और लक्ष्मण को तत्काल दरबार में बुलाया गया। महाराज दशरथ ने उन्हें अपने निर्णय को सूचना दी। दोनों भाइयों ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। सिर झुकाकर। आदर सहित।

इसकी सूचना माता कौशल्या को दी गई। बताया गया कि राम और लक्ष्मण वन जा रहे हैं। महर्षि विश्वामित्र के साथ। नितांत गंभीर माहौल में स्वस्तिवचन हुआ। शंखध्वनि हुई। नगाड़े बजे। महाराज दशरथ ने भावुक होकर दोनों पुत्रों का मस्तक चूमकर उन्हें महर्षि को सौंप दिया। दोनों राजकुमार बिना विलंब किए महर्षि के साथ चल पड़े। बीहड़ और भयानक जंगलों की ओर। विश्वामित्र आगे-आगे चल रहे थे। राम उनके पीछे थे। लक्ष्मण राम से दो कदम पीछे। अपने धनुष सँभाले हुए। पीठ पर तुणीर बाँधे। कमर में तलवारें लटकाए।