बुधवार, 1 जून 2016

UGC-NET&SET-MODEL PAPER-36

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1. इनमें उदय प्रकाश का काव्य-संग्रह कौन-सा है?
A) साथ चलते हुए 
B) भूखण्ड तप रहा है 
C) सुनो कारीगर 
D) जलसा घर

2. लाला श्रीनिवासदास के परिक्षा गुरू को किसने हिन्दी का पहला मौलिक उपन्यास माना?
A) हजारीप्रसाद द्विवेदी 
B) श्यामसुन्दर दास 
C) नगेन्द्र 
D) रामचंद्र शुक्ल

3. हरिऔध जी का 'अधखिला फूल' किस विधा की रचना है?
A) नाटक 
B) उपन्यास 
C) कहानी 
D) काव्य

4. देवकीनन्दन खत्री के लोकप्रिय उपन्यास 'चन्द्रकान्ता' का प्रकाशन कब हुआ?
A) 1891 
B) 1892 
C) 1893 
D) 1894

5. बच्चन सिंह के मत में आधुनिक हिन्दी का पहला आलोचक कौन है?
A) हजारी प्रसाद द्विवेदी 
B) बालकृष्ण भट्ट 
C) महावीरप्रसाद द्विवेदी 
D) रामचन्दशुक्ल

6. खडीबोली के आदि कवि कौन है?
A) प्रेमघन 
B) भारतेन्दु 
C) अमीर खुसरो 
D) सरहपा

7. रायबरेली के दौलतपुर गाँव में किस महान हिन्दी साहित्यकार का जन्म हुआ?
A) महावीरप्रसाद द्विवेदी 
B) हजारीप्रसाद द्विवेदी 
C) नगेन्द्र 
D) रामचंद्रशुक्ल

8. 'सहने केलिए बनी है, सह तू दुखिया नारी' – मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्ति किस काव्य की है?
A) यशोधरा 
B) साकेत 
C) भारत-भारती 
D) विष्णुप्रिया

9. प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार जो प्रसार भारती की अध्यक्षा बनी है?
A) चित्रा मुद्गल 
B) मृणाल पाण्डे 
C) कृष्ण सोबती 
D) ममता कालिया

10. शुक्ल जी के मत में हिन्दी की पहली कहानी कौन-सी है?
A) इंदुमति 
B) ग्राम 
C) उसने कहा था 
D) सौत

UGC-NET&SET-MODEL PAPER-35

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1. सूर की प्रतिभा का उत्कर्ष सूरसागर के किस स्कंध में दिखाई पडता है?
A) ग्यारहवें 
B) आठवें 
C) दसवें 
D) नवें

2. भाव वाच्य _____________ से बनता है?
A) सकर्मक क्रिया 
B) अकर्मक क्रिया 
C) प्रेरणार्थक क्रिया 
D) सहायक क्रिया

3. 'सतम' शब्द किस भाषा का है?
A) ईरान 
B) संस्कृत 
C) अवेस्ता 
D) लैटिन

4. 'चंदबरदाई को छंदों का राजा' किसने कहा?
A) नगेंद्र 
B) रामचंद्रशुक्ल 
C) रामकुमार वर्मा 
D) डॉ. नामवर सिंह

5. संविधान के किस अनुच्छेद में 15 वर्षों तक अंग्रेजी को सरकारी कामकाज में प्रयोग करने की व्यवस्था हुई?
A) 348 
B) 349 
C) 350 
D) 351

6. रोला छंद के प्रत्येक चरण में कितनी मात्रायें होती है?
A) 24 
B) 22 
C) 26 
D) 28

7. 'बिहारी के दोहों को हाथी दाँत पर कढे बेल बूटे' किसने कहा?
A) बच्चन सिंह 
B) रामचंद्रशुक्ल 
C) नगेंद्र 
D) हजारी प्रसाद द्विवेदी

8. 'औदात्य सिद्धातं' के प्रतिष्ठापक कौन है?
A) क्रोचे 
B) लाँजाइनस 
C) कॉलरिज 
D) अरस्तु

9. सरस्वती पत्रिका के प्रकाशक कौन थे?
A) हजारीप्रसाद द्विवेदी 
B) महावीरप्रसाद द्विवेदी 
C) श्यामसुन्दर दास 
D) चिंतामणि घोष

10. 'एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है' – यह घोषणा किसकी है?
A) धूमिल 
B) नगोरख पाण्डेय 
C) लीलाधर जगूडी 
D) कात्यायनी

कामायनी (चिंता सर्ग) - जयशंकर प्रसाद

कामायनी 
(चिंता सर्ग)
- जयशंकर प्रसाद

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से
देख रहा था प्रलय प्रवाह

नीचे जल था ऊपर हिम था,
एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन

दूर दूर तक विस्तृत था हिम
स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से
टकराता फिरता पवमान

तरूण तपस्वी-सा वह बैठा
साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का
होता था सकरूण अवसान।

उसी तपस्वी-से लंबे थे
देवदारू दो चार खड़े,
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर
बनकर ठिठुरे रहे अड़े।

अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ,
ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार,
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का
होता था जिनमें संचार।

चिंता-कातर वदन हो रहा
पौरूष जिसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का
बहता भीतर मधुमय स्रोत।

बँधी महावट से नौका थी
सूखे में अब पड़ी रही,
उतर चला था वह जल-प्लावन,
और निकलने लगी मही।

निकल रही थी मर्म वेदना
करूणा विकल कहानी सी,
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही,
हँसती-सी पहचानी-सी।

"ओ चिंता की पहली रेखा,
अरी विश्व-वन की व्याली,
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण
प्रथम कंप-सी मतवाली।

हे अभाव की चपल बालिके,
री ललाट की खलखेला
हरी-भरी-सी दौड़-धूप,
ओ जल-माया की चल-रेखा।

इस ग्रहकक्षा की हलचल-
री तरल गरल की लघु-लहरी,
जरा अमर-जीवन की,
और न कुछ सुनने वाली, बहरी।

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी-
अरी आधि, मधुमय अभिशाप
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी,
पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।

मनन करावेगी तू कितना?
उस निश्चित जाति का जीव
अमर मरेगा क्या?
तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।

आह घिरेगी हृदय-लहलहे
खेतों पर करका-घन-सी,
छिपी रहेगी अंतरतम में
सब के तू निगूढ धन-सी।

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा,
चिंता तेरे हैं कितने नाम
अरी पाप है तू, जा, चल जा
यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।

विस्मृति आ, अवसाद घेर ले,
नीरवते बस चुप कर दे,
चेतनता चल जा, जड़ता से
आज शून्य मेरा भर दे।"

"चिंता करता हूँ मैं जितनी
उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती जाती
रेखायें दुख की।

आह सर्ग के अग्रदूत
तुम असफल हुए, विलीन हुए,
भक्षक या रक्षक जो समझो,
केवल अपने मीन हुए।

अरी आँधियों ओ बिजली की
दिवा-रात्रि तेरा नतर्न,
उसी वासना की उपासना,
वह तेरा प्रत्यावत्तर्न।

मणि-दीपों के अंधकारमय
अरे निराशा पूर्ण भविष्य
देव-दंभ के महामेध में
सब कुछ ही बन गया हविष्य।

अरे अमरता के चमकीले पुतलो
तेरे ये जयनाद
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि
बन कर मानो दीन विषाद।

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित
हम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब
विलासिता के नद में।

वे सब डूबे, डूबा उनका विभव,
बन गया पारावार
उमड़ रहा था देव-सुखों पर
दुख-जलधि का नाद अपार।"

"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या
स्वप्न रहा या छलना थी
देवसृष्टि की सुख-विभावरी
ताराओं की कलना थी।

चलते थे सुरभित अंचल से
जीवन के मधुमय निश्वास,
कोलाहल में मुखरित होता
देव जाति का सुख-विश्वास।

सुख, केवल सुख का वह संग्रह,
केंद्रीभूत हुआ इतना,
छायापथ में नव तुषार का
सघन मिलन होता जितना।

सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल,
वैभव, आनंद अपार,
उद्वेलित लहरों-सा होता
उस समृद्धि का सुख संचार।

कीर्ति, दीप्ती, शोभा थी नचती
अरूण-किरण-सी चारों ओर,
सप्तसिंधु के तरल कणों में,
द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर।

शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी
पद-तल में विनम्र विश्रांत,
कँपती धरणी उन चरणों से होकर
प्रतिदिन ही आक्रांत।

स्वयं देव थे हम सब,
तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?
अरे अचानक हुई इसी से
कड़ी आपदाओं की वृष्टि।

गया, सभी कुछ गया,मधुर तम
सुर-बालाओं का श्रृंगार,
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित
मधुप-सदृश निश्चित विहार।

भरी वासना-सरिता का वह
कैसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय-जलधि में संगम जिसका
देख हृदय था उठा कराह।"

"चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी
सुरभित जिससे रहा दिगंत,
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह
मधु से पूर्ण अनंत वसंत?

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित
प्रेमालिंगन हुए विलीन,
मौन हुई हैं मूर्छित तानें
और न सुन पडती अब बीन।

अब न कपोलों पर छाया-सी
पडती मुख की सुरभित भाप
भुज-मूलों में शिथिल वसन की
व्यस्त न होती है अब माप।

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे,
हिलते थे छाती पर हार,
मुखरित था कलरव,गीतों में
स्वर लय का होता अभिसार।

सौरभ से दिगंत पूरित था,
अंतरिक्ष आलोक-अधीर,
सब में एक अचेतन गति थी,
जिसमें पिछड़ा रहे समीर।

वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा
अंग-भंगियों का नत्तर्न,
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा
मदिर भाव से आवत्तर्न।