रविवार, 3 अप्रैल 2016

प्लेटो-कला संबंधी दृष्टिकोण

प्लेटो-कला संबंधी दृष्टिकोण


प्लेटो का जन्म यूनान की राजधानी एथेन्स के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। इसका कालखंड 427ई.पू से 347ई.पू माना जाता है। प्लेटो ग्रीक विचारक और दार्शनिक ‘सुकरात’ का शिष्य था। प्लेटो का परिवार राजनीति से संबद्ध रहा था। प्लेटो भी राजनीति में भाग लेने का इच्धुक था। पाश्चात्य काव्यशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र का तो वह जन्मदाता ही माना जाता है। वास्तव में तो वह दार्शनिक था, साहित्य विषयक उसके विचार प्रायः आनुषंगिक ही हैं।

प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में स्पष्ट कहा कि भाव अथवा विचार ही आधारभूत सत्य है। प्लेटो अनुकरण को समस्त कलाओं की मौलिक विशेषता मानते हैं । इस दृष्टि से प्लेटो की दृष्टि में समस्त कवि और कलाकर अनुकरणकर्ता मात्र हैं। प्लेटो के अनुसार अनुकरण वह प्रक्रिया है जो वस्तुओं को उनके यथार्थ रूप में प्रस्तुत न करके आदर्श रूप में प्रस्तुत करती है।

प्लेटो कला में ऐन्द्रिय ऐक्य अनिवार्य मानता था। अर्थात कलाकार को अपनी कृति के समस्त अंगों का विन्यास एक निश्चित क्रम से पूर्ण संगति के साथ करना चाहिए। प्लेटो की मान्यता है कि ‘अच्छी काव्य-कृति के निर्माण के लिए कवि को अपने विषय का पूर्ण एवं स्पष्ट बोध होना चाहिए और उसकी अभिव्यक्ति में गतिपूर्ण योजना होनी चाहिए।‘ इसी आधार पर उसने संगीतकला, चित्रकला आदि को ललित कलाओं के वर्ग में रखा और उनका उद्देश्य मनोरंजन बताया है। दूसरा वर्ग उपयोगी कला माना है, जिसका उद्देश्य व्यावहारिक उपयोग है।

प्लेटो एक आदर्शवादी विचारक था। उसने कवियों के लिए मार्गदर्शन दिया कि कवि को ऐसी काव्य रचना नहीं करना चाहिए जो न्याय, सत्य एवं सौंदर्य के विरूद्ध हो। प्लेटो सामाजिक-व्यवस्था की माँग को लेकर सामने आए थे। उसके लिए उन्होंने प्रत्येक ज्ञान, व्यवहार, वस्तु आदि को सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि में परखा था । प्लेटो के कला–विषयक दृष्टिकोण की विशेषता यह है कि वह भारतीय चिंतन के पर्याप्त अनुकूल और निकट है। ‘उपयोगितावादी’ दृष्टिकोण भारतीय धारणा ‘शिव’ के अति निकट है।

रीति सम्प्रदाय

रीति सम्प्रदाय

लक्षणग्रंथों में प्रयुक्त “रीति” शब्द - ढ़ग,शैली,प्रकार,मार्ग तथा प्रणाली है। रीतितत्व काव्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। आचार्य वामन ने रीति सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा की है। उनके अनुसार “पदों की विशिष्ट रचना ही रीति है”---“विशिष्टपदरचना रीतिः”। वामन के मत में रीति काव्य की आत्मा है---“रीतिरात्मा काव्यस्य”। उनके अनुसार विशिष्ट पद रचना रीति है और गुण उसके विशिष्ट आत्मरूप धर्म है।

पूर्ववर्ती काव्यशास्त्री आचार्य दण्डी ने भी इस मत को स्वीकार किया था। उन्होंने रीति एवं गुणों को परस्पर सम्बध्द कर एक मानने की चेष्टा भी की थी। आनन्दवर्धन भी रीति पर विचार करते हुए लिखते है –“वाक्य वाचक चारूत्व हेतुः” अर्थात रीति शब्द और अर्थ में सौंदर्य का विधान करती है। आचार्य विश्वनाथ भी रीति को रस का उपकारक मानते हैं। वक्रोक्ति जीवित के लेखक कुन्तक ने इस सिद्धांत को स्वीकार करने की अपेक्षा इसका विरोध किया था। इसका प्रभाव सम्भवतः मम्मट पर भी पडा था और उन्होंने प्रत्यक्ष रूप में रीतियों को स्वीकार न कर वृत्तियों के रूप में इन्हें स्वीकार किया है। राजशेखर ने रीतियों को काव्य का बाह्य तत्व स्वीकार किया हैं। उनका कथन इस प्रकार है – “वचन विन्यासक्रमो रीतिः”।

जिस प्रकार अवयवों का उचित सन्निवेश शरीर का सौंदर्य बढ़ाता है, शरीर का उपकारक होता है, उसी प्रकार गुणाभिव्यंजक वर्णों (रीति) का यथास्थान पर प्रयोग शब्दार्थ शरीर तथा आत्मा का विशेष उपकार करता है। अतः काव्य में रीति का विशेष महत्व है। क्योंकि वह काव्य शरीर का एक मात्र आधार है। आचार्य वामन ने वैदर्भी, गौडी एवं पांचाली नामक तीन रीतियाँ मानी हैं। प्रायः यह तीनों ही अधिकांश आचार्यो को मान्य है।

वैदर्भी रीति : “माधुर्य व्यंजक वर्णों से युक्त, दीर्घ समासों से रहित अथवा छोटे समासों वाली ललितपद रचना का नाम वैदर्भी है, यह रीति श्रृंगार आदि ललित एवं मधुर रसों के लिए अधिक अनुकूल होती है”। विदर्भ देश के कवियों के द्धारा अधिक प्रयोग में आने के कारण इनका नाम वैदर्भी है। आचार्य विश्वनाथ ने इनकी विशेषताओं के आधार पर इसका लक्षण इस प्रकार लिखा है---

“माधुर्यव्यञ्जकैर्वर्णेः रचना ललितात्मिका ।
अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भीरीतिरिष्यते”।।

माधुर्यव्यंजक वर्णों के द्धारा की हुई समास रहीत अथवा छोटे समासों से युक्त मनोहर रचना को वैदर्भी कहते हैं। इसका दूसरा नाम ललिता भी है। वामन तथा मम्मट इसे उपनागरिका भी कहते हैं। रूद्रट के अनुसार वैदर्भी का स्वरूप इस प्रकार है –- “समासरहित अथवा छोटे-छोटे समासों से युक्त, श्लेषादि दस गुणों से युक्त एवं चवर्ग से अधिकतया युक्त, अल्पप्राण अक्षरों से व्याप्त सुन्दर वृत्ति वैदर्भी कहलाती है”। वैदर्भी रीतिकाव्य में विशेष प्रशंसित रीति है। कालिदास को वैदर्भी रीति की रचना में विशेष सफलता मिली है। इस प्रकार वैदर्भी रीति काव्य में सर्वश्रेष्ठ मान्य है। उदाहरण :-

“मधुशाला वह नहीं, जहाँ पर मदिरा बेची जाती है।
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला”।।

इस पद में कोमल मधुर वर्णों का प्रयोग हुआ है, समासों का अभाव है। पदावली ललित है, श्रुतिमधुर है, अतः वैदर्भी रीति है।

गौडी 
रीति : यह ओजपूर्ण शैली है। “ओज प्रकाश वर्णों से सम्पन्न, दीर्घ समास वाली शब्दाडम्बरवती रीति गौडी होती है”। दण्डी इसमें दस गुणों का समावेश नहीं मानते हैं, वामन गौडी रीति के स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखते हैं कि इसमें ओज और कान्ति गुणों का प्राधान्य तथा समास की बहुलता रहती है। मधुरता तथा सुकुमारता का इसमें अभाव रहता है। रुद्रट ने इस को दीर्घ समास वाली रचना माना है जो कि रौद्र, भयानक, वीर आदि उग्ररसों की अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त होती है।

इस रीति की रचना में उद्दीपक वर्णों का प्रयोग होता है, जिससे शौर्य भावना का आविर्भाव होता है। इसी गौडी रीति का दूसरा नाम “परूषा” है। मम्मट के अनुसार इसका लक्षण इस प्रकार है--“ओजः प्रकाशकैस्तुपरूषा“। आचार्य आनन्दवर्धन इसे “दीर्घसमासवृत्ति“ कहते हैं।
उदाहरणः-

अच्छहि निश्च्छ रच्चाहि उजारौं इमि।
तो से तिच्छतुच्छन को कछवै न गंत हौं।।
जारि डारौं लङ्कहि उजारि डारौं उपवन।
फारि डारौं रावण को मैं हनुमंत हौं।।

इस उदाहरण में संयुक्ताक्षरों का प्रचुर प्रयोग है, ओज गुण की अभिव्यक्ति हो रही है। वर्ण कर्णकटु तथा महाप्राण – ट,ठ,ड,ण,ह आदि का प्रयोग हुआ, अतः इस पद में गौडी रीति है।

पंचाली 
रीति : “ओज एवं कांति समन्वित पदों की मधुर सुकुमार रचना को “पांचाली” कहते हैं”। पंचाली रीति का उल्लेख भामह तथा दण्डी ने नहीं किया है। इस रीति का सबसे पहले उल्लेख वामन ने किया था। वामन के अनुसार - यह माधुर्य और सुकुमारता से सम्पन्न रीति और अगठित, भावाशिथिल,छायायुक्त (कान्तिरहित) मधुर और सुकुमार गुणों से युक्त होती है। माधुर्य और सौकुमायपौपंन्ना पांचाली रीति होती है।

उदहरणः-

मधु राका मुसकाती थी, पहले जब देखा तुमको।
परिचित से जाने कबके, तुम लगे उसी क्षण हमको।।

इस उदाहरण में प्रसाद गुण की अधिकता है। समास का अभाव है। शब्दावली कोमल है, अतः पांचाली रीति है।

राजशेखर “मागधी” नामक एक अन्य रीति भी स्वीकार करते हैं जो मगध देश में व्यवह्रत होती है। भोज “अवन्तिका” नामक रीति का उल्लेख करते हैं। एक “लाटी” नामक रीति भी है, इसका प्रयोग लाटदेश में होता है। रूद्रट के अनुसार लाटी मध्यम समास वाली होती है। इसका उपयोग उग्ररसों में होता है। विश्वनाथ लाटी को वैदर्भी पांचाली के बीच की रीति मानते है—“लाटी तु रीति वैदर्भीपांचाल्योन्तरे”।

उपर्युक्त विवेचन के अनुसार रीति सम्प्रदाय के भेद निम्नलिखित हैः

1 समास के सर्वथा अभाव की स्थिति में - वैदर्भी रीति।

2 समाम के अल्प मात्रा में रहने पर – पाँचाली रीति।

3 समास की बहुलता रहने पर – गौडी रीति ।

4 समास की स्थिति मध्यम रहने पर – लाटी रीति।

“रीति-काव्य की भूमिका” में दी गई डॉ.नगेन्द्र की परिभाषा और व्याख्या--–‘रीति’ शब्द और अर्थ के आश्रित रचना-चमत्कार का नाम है जो माधुर्य, ओज अथवा प्रसाद गुण के द्धारा चित्र को द्रवित, दीप्त और परिव्याप्त करती हुई रस-दशा तक पहुँचाती है। वामन रस की स्थिति गुण के अंतर्गत मानते है, जो कि रीति का भी मूल आधार है। आचार्य वामन के मत में रचना और चमत्कार दोनों रीति पर आश्रित है, वही माधुर्य आदि गुणों के कारण चित्त को द्रवित कर रस-दशा तक पहुँचाते हैं। अतः रीति ही काव्य का सर्वस्व है।

पाठ योजना (कबीर की साखी)

पाठ योजना 

कक्षा :                                                                        

दिनांक : 

पाठ का नाम : कबीर की साखी


शैक्षणिक उद्देश्य :-

१ सामान्य उद्देश्य :

१) छात्रों में काव्य के प्रति रुचि उत्पन्न करवाना।

२) छात्रों को सस्वर कविता वाचन का अभ्यास कराना।

३) छात्रों में भावानुभूति तथा सौंदर्यानुभूति का विकास करवाना।

२ विशिष्ट उद्देश्य :

१) छात्र काव्य के भावों को बोधगम्य करके अपने शब्दों में प्रस्तुत कर सकेंगे।

२) छात्र गुरूजनों के प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त करना।

३) छात्र भाव–सौंदर्य और शिल्प सौंदर्य को समझ सकेंगे।

४) छात्र ईश्वर की सर्वव्यापकता के संदेश को ग्रहण कर सकेंगे।

३ सहायक सामग्री :

निर्धारित पाठ्य पुस्तक तथा संत कवि कबीर का भाव चित्र, व्याकरण, शामपट चाँक एंव चार्ट आदि ।

४ प्रस्तुतीकरण :

सर्वप्रथम विद्यार्थियों को कबीरदास का परिचय देते हुए उनके काव्य पाठ ’ साखी ’ का भाव एंव व्याख्यान निम्नलिखित रुप से बताया जाएगा ।

ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ । 
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ ॥ 

व्याख्यान :- ऐसी वाणी बोलना चाहिए जिसमें मन का अहंकार न हो , ऐसी वाणी वक्ता के शरीर को शीतलता देती है और श्रोता को सुख प्रदान करती है ।

जब मैं था तब हैरि नहीं, अब हरि है मैं नाँहि । 
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ॥ 

व्याख्यान :-जब तक अहंकार था तब तक ईश्वर से परिचय नहीं हो सका। अहंकार या आत्मा के भेदत्व का अनुभव जब समाप्त हो गया तो ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो गया। ’मैं’ आत्मन का अलग अहसास खत्म हो जाने के बाद, एकमात्र सत्ता ब्रह्मा का अनुभव शेष रहता है। बूँद का अस्थित्व यदि समुद्र में विलिन हो गया तो बूँद भी समुद्र ही हो जाती है। शरीर के भीतर जब परम-ज्योति रूपी दीपक का प्रकाश हुआ तो अज्ञानान्धकार–जनित अहं स्वयं नष्ट हो गया। दीपक का तात्पर्य ज्ञान भी हो सकता है। ज्ञान के होने पर ’सर्व खल्विदं ब्रह्मा ’ की भावना प्रबल हो जाती है।

गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि-गढि काढै खोट। 
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।। 

व्याख्यान :- गुरू कुम्हार है और शिष्य घडा है, गुरू भीतर से हाथ का सहारा देकर, बाहर से चोट मार मारकर साथ ही शिष्यों की बुराई को निकलते है।

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार। 
तरूवर ज्यों पत्ता झडे, बहुरि न लागे डार।। 

व्याख्यान :- इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है, यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड जाए दुबारा डाल पर नहीं लगता।

सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै । 
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै ॥ 

व्याख्यान :- कबीरदास कहते है कि सभी खाकर अज्ञान की निशा में सो रहे हैं। एक मात्र कबीर दुखी हैं जो जागते हुए रो रहे हैं।

कबीर को सारा संसार मोह ग्रस्त दिखाई देता है। वह मृत्यु के छाया में रहकर भी सबसे बेखबर विषय-वासनाओं को भोगते हुए अचेत पडा है। कबीर का अज्ञात दूर हो गया है। उनमें ईश्वर के प्रेम की प्यास जाग उठी है। सांसारिकता से उनका मन विमुख हो गया है। उन्हे दोहरी पीडा से गुजरना पड रहा है। पहली पीडा है- सुखी जीवों का घोर यातनामय भविष्य, मुक्त होने के अवसर को व्यर्थ में नष्ट करने की उनकी नियति। दूसरी पीडा भगवान को पा लेने की अतिशय बेचैनी। दोहरी व्यथा से व्यथित कबीर जाग्रतावस्था में है और ईश्वर को पाने की करुण पुकार लगाए हुए है।

निंदक नेडा राखिए आँगन कुटी बंधाई । 
बिना सांबण पांणी बिना, निरमल करै सुभाइ ॥ 

व्याख्यान :- कबीर कहते है कि निंदकों को आँगन में कुटिया बनाकर अपने निकट रखा जाए जिससे बिना साबुन और पानी के स्वभाव निर्मल होता रहेगा। पास स्थित निंदक दोष निकालेगा और निन्द्य व्यक्ति अपना परिमार्जन करता जाएगा। उस तरह वह बिना साबुन और पानी के ही निर्मल हो जाएगा ।

पोथी पढि-पढि जग मुवा, पंडित भया न कोइ । 
एकै आखिर पीव का, पढै सो पंडित होइ ॥ 

व्याख्यान :- सारे संसार के लोग पुस्तक पढते-पढते मर गये कोई भी पंडित (वास्त्विक ज्ञान रखने वाला ) नहीं हो सका । परन्तु जो अपने प्रिय परमात्मा के नाम का एक ही अक्षर जपता है (या प्रेम का एक अक्षर पढता है ) वही सच्चा ज्ञानी ( पंडित ) होता है । वही परमात्मा का सच्चा भक्त होता है ।

५ कठिन शब्दार्थ :

बाँणी = बोली, आपा=अहं, पीव=प्रिय, कुम्भ=घडा आदि।

६ विद्यार्थी – क्रियाएँ :

१) आदर्श वाचन को सुनकर तथा अनुकरण वाचन के द्वारा साखी का अर्थ तथा भाव ग्रहण करेंगे।

२) शामपट पर देखकर विभिन्न शब्दों के अर्थ तथा उदाहरण लिखेंगे ।

३) जिज्ञासा समाधान हेतु प्रश्न पूछ सकते है ।

४) दिए गए अभ्यास कार्य तथा गृहकार्य को पूर्ण करेंगे ।

५) मौखिक रुप से साखी के भाव बता सकेंगे ।

७ मूल्यांकन :

१) कबीर की साखी को मौखिक रुप से उसका भाव बोल पाएँगे ।

२) अभ्यास के प्रश्न पूछकर।

३) कठिन शब्दों के अर्थ पूछकर ।

४) चक्र परीक्षा द्वारा।

८ गृहकार्य :

कबीर की साखी की भाव और पद्य पाठ के प्रश्न लिखवाना।
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कबीर का समाज दर्शन और उनकी प्रासंगिकता

कबीर का समाज दर्शन और उनकी प्रासंगिकता


भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में कबीर ऐसे महान विचारक एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति है,जिन्होंने शताब्दियों की सीमा का उल्लंघन कर दीर्घ काल तक भारतीय जनता का पथ आलोकित किया और सच्चे अर्थों में जन-जीवन का नायकत्व किया। कबीर ने एक जागरूक,विचारक तथा निपुण सुधारक के रुप में तत्कालीन समाज में व्याप्त बुराइयों पर निर्मम प्रहार किया। कबीर के व्यक्तित्व में नैसर्गिक और परिस्थितियों की प्रतिक्रियाओं का योग हुआ है। उन्हें “जाति-पांति प्रथा” सब से अधिक दुःखदायक एवं असह्य प्रतीत हुई। उन्होंने स्वतः कहा है.....

“तुम जिन जानो गीत है, यह निज ब्रह्म विचार”।

पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही उनका प्रधान लक्ष्य है। कथनी के स्थान पर करनी को,प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को तथा बाह्यभेदों के स्थान पर सब में अन्तर्निहित एक मूल सत्य की पहचान को महत्व प्रदान करना कबीर का उद्देश्य है। हिन्दू समाज की वर्णवादी व्यवस्था को तोडकर उन्होंने एक जाति,एक समाज का स्वरूप दिया। कबीर-पंथ में हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए स्थान है। जाति प्रथा के मूलाधार वर्णाश्रय व्यवस्था पर गहरी चोट करते हुए.......

“एक बून्द एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।
एक जोति में सब उत्पनां, कौन बाह्मन कौन सूदा”।।

इस अनुभव को धारण करने में ही मानवता का हित निहित हैं। मूर्तिपूजा और खुदा को पुकारने के लिए जोर से आवाज लगाने पर कबीर ने गहरा व्यंग्य किया। वे कहते है ……….

“पहान पूजै हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।
या तो यह चक्की भली पीस खाये संसार”।।

तो मुसलमानों से पूछा………

“काँकर पाथर जोरिकै, मस्जिद लई बनाय।
ता चंदि मुल्ला बांगदै बहरा हुआ खुदाय”।।

कबीर ने शास्त्रों के नाम पर प्रचलित भेदभाव की रूढि का खण्डन करते हुए स्पष्ट उद्घोष किया.........

“जाति-पांति पूछे नहिं कोई,
हरि को भजै सो हरि का होई”।

हिन्दू-मुसलमान भेदभाव का खण्डन करते हुए कहते है कि……….

“वही महादेव वही महमद ब्रह्मा आदम कहियो ।
को हिंदू को तूरक कहावै,एक जमीं पर रहियो”।।

हिन्दू और मूसलमानों में धार्मिक ऐक्य की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने उस निराकार,निर्गुण राम की उपासना का मार्ग प्रशस्त किया। कबीर ऐसे साधक है,जो दोनों की अभेदता का, दोनों की एकता का मरम जानते है, तत्व समझते है। इसलिए स्पष्ट शब्दों में सुझाव देते है……….

“कहै कबीर एक राम जपहिरे,हिन्दू तुरक न कोई।
हिन्दू तुरक का कर्ता एकै,ता गति लखि न जाई”।।

कबीर तीर्थ-यात्रा,व्रत,पूजा आदि को निरर्थक मानते हुए हृदय की शुद्धता को महत्व देते है।वे कहते हैं कि……….

“तेरा साँई तुज्झ में,ज्यों पुहुपन में बास ।
कस्तूरी का मिरग ज्यों,फिर-फिर ढूँढे घास”।।

कर्तव्य भावना की प्रतिष्ठा करते हुए प्रभु के लिए मन में सच्चा प्रेम नहीं तो ऊपर से बाहरी तौर पर रोने-धोने से क्या लाभ होगा……….

“कह भथौ तिलक गरै जपमाला,मरम न जानै मिलन गोपाला।
दिन प्रति पसू करै हरि हाई,गरै काठवाकी बांनि न जाई”।।

स्पष्टतः वे बाह्याचारों को ढ़ोंग मानते है और अन्तः साधना पर बल देते है। वे ब्रह्म का निवास अन्तर में मानते है और उसे पाने के लिए अपने भीतर खोजने की सलाह देते है। वे कहते है……….

“पानी बिच मीन पियासी,
मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी,
आतम ज्ञान बिना सब सूना
क्य मथुरा क्या कासी ?
घर की वस्तु घरी नही सूझै
बाहर खोजन जासी”।

स्पष्टतः कबीर ने एक ऐसा साधना परक भक्ति मार्ग खडा किया, जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों बिना किसी विरोध के एक साथ चल सके।यह मार्ग ही निर्गुण मार्ग या संत मत है। कबीर की यह दृष्टि परम्परा के सार तत्वों के संग्रह से बनकर भी परम्परा से भिन्न है। इसलिए क्रांन्तिकारी है। कबीर अपनी साधना से इस निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार कर चुके थे और इसे दूसरों तक पहुँचाना चाहते थे। इसलिए समाज-सुधारक कबीर आज भी प्रासंगिक है।