रविवार, 3 अप्रैल 2016

कबीर का समाज दर्शन और उनकी प्रासंगिकता

कबीर का समाज दर्शन और उनकी प्रासंगिकता


भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में कबीर ऐसे महान विचारक एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति है,जिन्होंने शताब्दियों की सीमा का उल्लंघन कर दीर्घ काल तक भारतीय जनता का पथ आलोकित किया और सच्चे अर्थों में जन-जीवन का नायकत्व किया। कबीर ने एक जागरूक,विचारक तथा निपुण सुधारक के रुप में तत्कालीन समाज में व्याप्त बुराइयों पर निर्मम प्रहार किया। कबीर के व्यक्तित्व में नैसर्गिक और परिस्थितियों की प्रतिक्रियाओं का योग हुआ है। उन्हें “जाति-पांति प्रथा” सब से अधिक दुःखदायक एवं असह्य प्रतीत हुई। उन्होंने स्वतः कहा है.....

“तुम जिन जानो गीत है, यह निज ब्रह्म विचार”।

पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही उनका प्रधान लक्ष्य है। कथनी के स्थान पर करनी को,प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को तथा बाह्यभेदों के स्थान पर सब में अन्तर्निहित एक मूल सत्य की पहचान को महत्व प्रदान करना कबीर का उद्देश्य है। हिन्दू समाज की वर्णवादी व्यवस्था को तोडकर उन्होंने एक जाति,एक समाज का स्वरूप दिया। कबीर-पंथ में हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए स्थान है। जाति प्रथा के मूलाधार वर्णाश्रय व्यवस्था पर गहरी चोट करते हुए.......

“एक बून्द एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।
एक जोति में सब उत्पनां, कौन बाह्मन कौन सूदा”।।

इस अनुभव को धारण करने में ही मानवता का हित निहित हैं। मूर्तिपूजा और खुदा को पुकारने के लिए जोर से आवाज लगाने पर कबीर ने गहरा व्यंग्य किया। वे कहते है ……….

“पहान पूजै हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।
या तो यह चक्की भली पीस खाये संसार”।।

तो मुसलमानों से पूछा………

“काँकर पाथर जोरिकै, मस्जिद लई बनाय।
ता चंदि मुल्ला बांगदै बहरा हुआ खुदाय”।।

कबीर ने शास्त्रों के नाम पर प्रचलित भेदभाव की रूढि का खण्डन करते हुए स्पष्ट उद्घोष किया.........

“जाति-पांति पूछे नहिं कोई,
हरि को भजै सो हरि का होई”।

हिन्दू-मुसलमान भेदभाव का खण्डन करते हुए कहते है कि……….

“वही महादेव वही महमद ब्रह्मा आदम कहियो ।
को हिंदू को तूरक कहावै,एक जमीं पर रहियो”।।

हिन्दू और मूसलमानों में धार्मिक ऐक्य की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने उस निराकार,निर्गुण राम की उपासना का मार्ग प्रशस्त किया। कबीर ऐसे साधक है,जो दोनों की अभेदता का, दोनों की एकता का मरम जानते है, तत्व समझते है। इसलिए स्पष्ट शब्दों में सुझाव देते है……….

“कहै कबीर एक राम जपहिरे,हिन्दू तुरक न कोई।
हिन्दू तुरक का कर्ता एकै,ता गति लखि न जाई”।।

कबीर तीर्थ-यात्रा,व्रत,पूजा आदि को निरर्थक मानते हुए हृदय की शुद्धता को महत्व देते है।वे कहते हैं कि……….

“तेरा साँई तुज्झ में,ज्यों पुहुपन में बास ।
कस्तूरी का मिरग ज्यों,फिर-फिर ढूँढे घास”।।

कर्तव्य भावना की प्रतिष्ठा करते हुए प्रभु के लिए मन में सच्चा प्रेम नहीं तो ऊपर से बाहरी तौर पर रोने-धोने से क्या लाभ होगा……….

“कह भथौ तिलक गरै जपमाला,मरम न जानै मिलन गोपाला।
दिन प्रति पसू करै हरि हाई,गरै काठवाकी बांनि न जाई”।।

स्पष्टतः वे बाह्याचारों को ढ़ोंग मानते है और अन्तः साधना पर बल देते है। वे ब्रह्म का निवास अन्तर में मानते है और उसे पाने के लिए अपने भीतर खोजने की सलाह देते है। वे कहते है……….

“पानी बिच मीन पियासी,
मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी,
आतम ज्ञान बिना सब सूना
क्य मथुरा क्या कासी ?
घर की वस्तु घरी नही सूझै
बाहर खोजन जासी”।

स्पष्टतः कबीर ने एक ऐसा साधना परक भक्ति मार्ग खडा किया, जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों बिना किसी विरोध के एक साथ चल सके।यह मार्ग ही निर्गुण मार्ग या संत मत है। कबीर की यह दृष्टि परम्परा के सार तत्वों के संग्रह से बनकर भी परम्परा से भिन्न है। इसलिए क्रांन्तिकारी है। कबीर अपनी साधना से इस निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार कर चुके थे और इसे दूसरों तक पहुँचाना चाहते थे। इसलिए समाज-सुधारक कबीर आज भी प्रासंगिक है।