रविवार, 23 जुलाई 2023

नौकर - अनु बंद्योपाध्याय | mahatma gandhi | naukar | 6th class | cbse | ncert | hindi | Anu Bandyopadhyaya

नौकर - अनु बंद्योपाध्याय

लेखिका के बारे में

अनु बंद्योपाध्याय (1917-2006) स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ सामाजिक कामों में भी गांधी जी की अभिन्न सहयोगी रहीं। उन्होंने 'कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ महात्मा गांधी' के संपादन के अलावा कस्तूरबा ट्रस्ट के साथ भी काम किया। 'बहुरूप गांधी' में लेखिका ने गांधी जी की दिनचर्या के उन कार्यों को रोचकता से लिखा है जिन्हें गांधी खुशी से करते थे। गांधी जी केवल राष्ट्रपिता और स्वाधीनता के निर्माता ही नहीं थे, उनके जीवन के हर प्रसंग से सीखा जा सकता है।

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आश्रम में गांधी कई ऐसे काम भी करते थे जिन्हें आमतौर पर नौकर-चाकर करते हैं। जिस ज़माने में वे बैरिस्टरी से हज़ारों रुपये कमाते थे, उस समय भी वे प्रतिदिन सुबह अपने पतला हाथ से चक्की पर आटा पीसा करते थे। चक्की चलाने में कस्तूरबा और उनके लड़के भी हाथ बँटाते थे। इस प्रकार घर में रोटी बनाने के लिए महीन या मोटा आटा वे खुद पीस लेते थे। साबरमती आश्रम में भी गांधी ने पिसाई का काम जारी रखा। वह चक्की को ठीक करने में कभी-कभी घंटों मेहनत करते थे। एक बार एक कार्यकर्ता ने कहा कि आश्रम में आटा कम पड़ गया है। आटा पिसवाने में हाथ बँटाने के लिए गांधी फ़ौरन उठकर खड़े हो गए। गेहूँ पीसने से पहले उसे बीनकर साफ़ करने पर वह जोर देते थे। कौपीनधारी इस महान व्यक्ति को अनाज बीनते देखकर उनसे मिलने वाले लोग हैरत में पड़ जाते थे। बाहरी लोगों के सामने शारीरिक मेहनत का काम करते गांधी को शर्म नहीं लगती थी। एक बार उनके पास कॉलेज के कोई छात्र मिलने आए। उनको अंग्रेजी भाषा के अपने ज्ञान का बड़ा गर्व था। गांधी से बातचीत के अंत में वे बोले, "बापू, यदि मैं आपकी कोई सेवा कर सकूँ तो कृपया मुझे अवश्य बताएँ।" उन्हें आशा थी कि बापू उन्हें कुछ लिखने-पढ़ने का काम देंगे। गांधी ने उनके मन की बात ताड़ ली और बोले, "अगर आपके पास समय हो, तो इस थाली के गेहूँ बीन डालिए। " आगंतुक बड़ी मुश्किल में पड़ गए, , लेकिन अब तो कोई चारा नहीं था। एक घंटे तक गेहूँ बीनने के बाद वह थक गए और गांधी से विदा माँग कर चल दिए।

कुछ वर्षों तक गांधी ने आश्रम के भंडार का काम संभालने में मदद दी। सवेरे की प्रार्थना के बाद वे रसोईघर में जाकर सब्ज़ियाँ छीलते थे। रसोईघर या भंडारे में अगर वे कहीं गंदगी या मकड़ी का जाला देख पाते थे तो अपने साथियों को आड़े हाथों लेते। उन्हें सब्जी, फल और अनाज के पौष्टिक गुणों का ज्ञान था। एक बार एक आश्रमवासी ने बिना धोए आलू काट दिए। गांधी ने उसे समझाया कि आलू और नींबू को बिना धोए नहीं काटना चाहिए। एक बार एक आश्रमवासी को कुछ ऐसे केले दिए गए जिनके छिलकों पर काले चक्ते पड़ गए थे। उसने बहुत बुरा माना। तब गांधी ने उसे समझाया कि ये जल्दी पच जाते हैं और तुम्हें खासतौर पर इसलिए दिए गए हैं कि तुम्हारा हाजमा कमज़ोर है। गांधी आश्रमवासियों को अकसर स्वयं ही भोजन परोसते थे। इस कारण वे बेचारे बेस्वाद उबली हुई चीज़ों के विरुद्ध कुछ कह भी नहीं पाते थे। दक्षिण अफ्रीका की एक जेल में वे सैकड़ों कैदियों को दिन में दो बार भोजन परोसने का कार्य कर भी चुके थे। 

आश्रम का एक नियम यह था कि सब लोग अपने पान बरतन खुद साफ़ करें। रसोई के बरतन बारी-बारी से कुछ लोग दल बाँधकर धोते थे। एक दिन गांधी ने बड़े-बड़े पतीलों को खुद साफ़ करने का काम अपने ऊपर लिया। निचला भाग इन पतीलों की पेंदी में खूब कालिख लगी थी। राख भरे हाथों से वह एक पतीले को खूब ज़ोर-ज़ोर से रगड़ने में लगे हुए थे कि तभी कस्तूरबा वहाँ आ गईं। उन्होंने पतीले को पकड़ लिया और बोलीं, “यह काम आपका नहीं है। इसे करने को और बहुत से लोग हैं।" गांधी को लगा कि उनकी बात मान लेने में ही बुद्धिमानी है और वे चुपचाप कस्तूरबा को उन बरतनों की सफ़ाई सौंपकर चले आए। बरतन एकदम चमकते न हों, तब तक गांधी को संतोष नहीं होता था। एक बार जेल में उनको जो मददगार दिया गया था उसके काम से असंतुष्ट होकर उन्होंने बताया था कि वे खुद कैसे लोहे के बरतनों को भी माँज कर चाँदी-सा चमका सकते थे। 

जब आश्रम का निर्माण हो रहा था उस समय वहाँ आने वाले कुछ मेहमानों को तंबुओं में सोना पड़ता था। एक नवागत को पता नहीं था कि अपना बिस्तर कहाँ रखना चाहिए, इसलिए उसने बिस्तर को लपेटकर रख दिया और यह पता लगाने गया कि उसे कहाँ रखना है। लौटते समय उसने देखा कि गांधी खुद उसका बिस्तर कंधे पर उठाए रखने चले जा रहे हैं।

आश्रम के लिए बाहर बने कुएँ से पानी खींचने का काम भी वे रोज़ करते थे। एक दिन गांधी कुछ अस्वस्थ थे और चक्की पर आटा पीसने के काम में हिस्सा बँटा चुके थे। उनके एक साथी ने उन्हें थकावट से बचाने के लिए अन्य आश्रमवासियों की सहायता से सभी बड़े-छोटे बरतनों में पानी भर डाला। गांधी को यह बात पसंद नहीं आई, मन में कुछ ठेस भी लगी। उन्होंने बच्चों के नहाने का एक टब उठा लिया और कुएँ से उसमें पानी भरकर टब को सिर पर उठाकर आश्रम में ले आए। बेचारे कार्यकर्ता को बहुत पछतावा हुआ।

शरीर से जब तक बिलकुल लाचारी न हो तब तक गांधी को यह बात बिलकुल पसंद नहीं थी कि महात्मा या बूढ़े होने के कारण उनको अपने हिस्से का दैनिक शारीरिक श्रम न करना पड़े। उनमें हर प्रकार का काम करने की अद्भुत क्षमता और शक्ति थी। वह थकान का नाम भी नहीं जानते थे। दक्षिण अफ्रीका में बोअर युद्ध के दौरान उन्होंने घायलों को स्ट्रेचर पर लादकर एक-एक दिन में पच्चीस-पच्चीस मील तक ढोया था। वह मीलों पैदल चल सकते थे। दक्षिण अफ्रीका में जब वे टॉलस्टॉय बाड़ी में रहते थे, तब पास के शहर में कोई काम होने पर दिन में अकसर बयालीस मील तक पैदल चलते थे। इसके लिए वे घर में बना कुछ नाश्ता साथ लेकर सुबह दो बजे ही निकल पड़ते थे, शहर में खरीददारी करते और शाम होते-होते वापस फार्म पर लौट आते थे। उनके अन्य साथी भी उनके इस उदाहरण का खुशी-खुशी अनुकरण करते थे।

एक बार किसी तालाब की भराई का काम चल रहा था, जिसमें गांधी के साथी लगे हुए थे। एक सुबह काम खत्म करके वे लोग फावड़े कुदाल और टोकरियाँ लिए जब वापस लौटे तो देखते हैं कि गांधी ने उनके लिए तश्तरियों में नाश्ते के लिए फल आदि तैयार करके रखे हैं। एक साथी ने पूछा, “आपने हम लोगों के लिए यह सब कष्ट क्यों किया? क्या यह उचित है कि हम आपसे सेवा कराएँ?" गांधी ने मुसकराकर उत्तर दिया, “क्यों नहीं। मैं जानता था कि तुम लोग थके-माँदे लौटोगे। तुम्हारा नाश्ता तैयार करने के लिए मेरे पास खाली समय था।'

दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों के जाने-माने नेता के रूप में गांधी भारतीय प्रवासियों की माँगों को ब्रिटिश सरकार के सामने रखने के लिए एक बार लंदन गए। वहाँ उन्हें भारतीय छात्रों ने एक शाकाहारी भोज में निमंत्रित किया। छात्रों ने इस अवसर के लिए स्वयं ही शाकाहारी भोजन तैयार करने का निश्चय किया था। तीसरे पहर दो बजे एक दुबला-पतला और छरहरा आदमी आकर उनमें शामिल हो गया और तश्तरियाँ धोने, सब्ज़ी साफ़ करने और अन्य छुट-पुट काम करने में उनकी मदद करने लगा। बाद में छात्रों का नेता वहाँ आया तो क्या देखता है कि वह दुबला-पतला आदमी और कोई नहीं, उस शाम को भोज में निमंत्रित उनके सम्मानित अतिथि गांधी थे।

गांधी दूसरों से काम लेने में बहुत सख्त थे, लेकिन अपने लिए दूसरों से काम कराना उन्हें नापसंद था। एक बार एक राजनीतिक सम्मेलन से गांधी जब अपने डेरे पर लौटे तो रात हो गई थी। सोने से पहले वे अपने कमरे का फर्श बुहार रहे थे। उस समय रात के दस बजे थे। एक कार्यकर्ता ने दौड़कर गांधी के हाथ से बुहारी ले ली। जब गांधी गाँवों का दौरा कर रहे होते, उस समय रात को यदि लिखते समय लालटेन का तेल खत्म हो जाता तो वे चंद्रमा की रोशनी में ही पत्र पूरा कर लेना ज़्यादा पसंद करते थे, लेकिन सोते हुए अपने किसी थके हुए साथी को नहीं जगाते थे। नौआखाली पद-यात्रा के समय गांधी ने अपने शिविर में केवल दो आदमियों को ही रहने की अनुमति दी। इन दोनों को यह नहीं मालूम था कि खाखरा कैसे बनाया जाता है। इस पर गांधी स्वयं रसोई में जा बैठे और निपुण रसोइए की तरह उन्होंने खाखरा बनाने की विधि बताई। उस समय गांधी की अवस्था अठहत्तर वर्ष की थी।

गांधी को बच्चों से बहुत प्रेम था। अपने बच्चों के जन्म के दो माह बाद उन्होंने कभी किसी दाई को बच्चे की देखभाल के लिए नहीं रखा। वे मानते थे कि बच्चे के विकास के लिए माँ-बाप का प्यार और उनकी देखभाल अनिवार्य है।

वे माँ की तरह बच्चों की देखभाल कर सकते थे, खिला-पिला और बहला सकते थे। एक बार दक्षिण अफ्रीका में जेल से छूटने के बाद घर लौटने पर उन्होंने देखा कि उनके मित्र की पत्नी श्रीमती पोलक बहुत ही दुबली और कमज़ोर हो गई हैं। उनका बच्चा उनका दूध पीना छोड़ता नहीं था और वह उसका दूध छुड़ाने की कोशिश कर रही थीं। बच्चा उन्हें चैन नहीं लेने देता था और रो-रोकर उन्हें जगाए रखता था। गांधी जिस दिन लौटे, उसी रात से उन्होंने बच्चे की देखभाल का काम अपने हाथों में ले लिया। सारे दिन बड़ी मेहनत करने, सभाओं में भाषण देने के बाद, चार मील पैदल चलकर गांधी कभी-कभी रात को एक बजे घर पहुँचते थे और बच्चे को श्रीमती पोलक के बिस्तर पर से उठाकर अपने बिस्तर पर लिटा लेते थे। वह चारपाई के पास एक बरतन में पानी भरकर रख लेते ताकि यदि बच्चे को प्यास लगे तो उसे पिला दें, लेकिन इसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी। बच्चा कभी नहीं रोता और उनकी चारपाई पर रात में आराम से सोता रहता था। एक पखवाड़े तक माँ से अलग सुलाने के बाद बच्चे ने माँ का दूध छोड़ दिया।

गांधी अपने से बड़ों का बड़ा आदर करते थे। दक्षिण अफ्रीका में गोखले गांधी के साथ ठहरे हुए थे। उस समय गांधी ने उनके दुपट्टे पर इस्त्री की। वह उनका बिस्तर ठीक करते थे, उनको भोजन परोसते थे और उनके पैर दबाने को भी तैयार रहते थे। गोखले बहुत मना करते थे, लेकिन गांधी नहीं मानते थे। महात्मा कहलाने से बहुत पहले एक बार दक्षिण अफ्रीका से भारत आने पर गांधी कांग्रेस के अधिवेशन में गए। वहाँ उन्होंने गंदे पाखाने साफ़ किए और बाद में उन्होंने एक बड़े कांग्रेसी नेता से पूछा, “मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?" नेता ने कहा, “मेरे पास बहुत से पत्र इकट्ठे हो गए हैं जिनका जवाब देना है। मेरे पास कोई कारकुन नहीं है जिसे यह काम दूँ। क्या तुम यह काम करने को तैयार हो?" गांधी ने कहा, “ज़रूर, मैं ऐसा कोई भी काम करने को तैयार हूँ जो मेरी सामर्थ्य से बाहर न हो। " यह काम उन्होंने थोड़े ही समय में समाप्त कर डाला और इसके बाद उन्होंने उन नेता की कमीज़ के बटन आदि लगाने और उनकी अन्य सेवा का काम खुशी से किया।

जब कभी आश्रम में किसी सहायक को रखने की आवश्यकता होती थी, तब गांधी किसी *हरिजन को रखने का आग्रह करते थे। उनका कहना था, "नौकरों को हमें वेतनभोगी मज़दूर नहीं, अपने भाई के समान मानना चाहिए। इसमें कुछ कठिनाई हो सकती है, कुछ चोरियाँ हो सकती हैं, फिर भी हमारी कोशिश सर्वथा निष्फल नहीं जाएगी।”

उन्हें यह मालूम ही न था कि किसी को नौकर की भाँति कैसे रखें। एक बार भारत की जेल में उनके कई साथी कैदियों को उनकी सेवा-टहल का काम सौंपा गया। एक आदमी उनके फल धोता या काटता, दूसरा बकरियों को दुहता, तीसरा उनके निजी नौकर की तरह काम करता और चौथा उनके पाखाने की सफ़ाई करता था। एक ब्राह्मण कैदी उनके बरतन धोता था और दो गोरे यूरोपियन प्रतिदिन उनकी चारपाई बाहर निकालते थे।

गांधी ने देखा कि इंग्लैंड में ऊँचे घरानों में घरेलू नौकरों को परिवार का आदमी माना जाता था। एक बार एक अंग्रेज़ के घर से विदा लेते समय उन्हें यह देखकर खुशी हुई कि घरेलू नौकरों का उनसे परिचय नौकरों की तरह नहीं बल्कि परिवार के सदस्य के समान कराया गया।

एक बार एक भारतीय सज्जन के यहाँ काफ़ी दिनों तक ठहरने के बाद गांधी जब चलने लगे तब उस घर के नौकरों से उन्होंने विदा ली और कहा, “मैं कभी किसी को अपना नौकर नहीं समझता, उसे भाई या बहन ही माना है और आप लोगों को भी मैं अपना भाई समझता हूँ। आपने मेरी जो सेवा की उसका प्रतिदान देने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है, लेकिन ईश्वर आपको इसका पूरा फल देंगे।"

अनु बंद्योपाध्याय

झाँसी की रानी | सुभद्रा कुमारी चौहान | मुकुल से | jhaansee kee raanee | Jhansi Rani | CBSE | CLASS VI | NCERT | HINDI

झाँसी की रानी - सुभद्रा कुमारी चौहान 

('मुकुल' से)


संहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फ़िरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,

चमक उठी सन् सत्तावन में

वह तलवार पुरानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी ।।

कानपुर के नाना की मुँहबोली बहन 'छबीली' थी,

लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,

नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी,

बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी,

वीर शिवाजी की गाथाएँ

उसको याद ज़बानी थीं।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,

देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,

नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,

सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार,

महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी

भी आराध्य भवानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,

ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,

राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,

सुभट बुंदेलों की विरुदावलि -सी वह आई झाँसी में,

चित्रा ने अर्जुन को पाया,

शिव से मिली भवानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजयाली छाई,

किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,

तीर चलानेवाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,

रानी विधवा हुई हाय! विधि को भी नहीं दया आई,

निःसंतान मरे राजा जी,

रानी शोक-समानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,

राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,

फ़ौरन फ़ौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,

लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया,

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा

झाँसी हुई बिरानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

अनुनय-विनय नहीं सुनता है, विकट फ़िरंगी की माया,

व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,

डलहौजी ने पैर पसारे अब तो पलट गई काया,

राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया,

रानी दासी बनी, बनी यह

दासी अब महरानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

छिनी राजधानी देहली की, लिया लखनऊ बातों-बात,

कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,

उदैपुर, तंजोर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात,

जबकि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात,

बंगाले, मद्रास आदि की

भी तो यही कहानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

रानी रोई रनिवासों में, बेगम गम से थीं बेज़ार,

उनके गहने-कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,

सरे-आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,

‘नागपुर के जेवर ले लो’‘लखनऊ के लो नौलख हार',

यों परदे की इज़्ज़त पर-

देशी के हाथ बिकानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

कुटियों में थी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,

वीर सैनिकों के मन में था, अपने पुरखों का अभिमान,

नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,

बहिन छबीली ने रण-चंडी का कर दिया प्रकट आह्वान,

हुआ यज्ञ प्रारंभ उन्हें तो

सोई ज्योति जगानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,

यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,

झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थीं,

मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपुर, कोल्हापुर में भी

कुछ हलचल उकसानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता - महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,

नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,

अहमद शाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,

भारत के इतिहास-गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम,

लेकिन आज जुर्म कहलाती,

उनकी जो कुरबानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़ चले हम झाँसी के मैदानों में,

जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,

लेफ्टिनेन्ट वॉकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,

रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्व असमानों में,

ज़ख्मी होकर वॉकर भागा,

उसे अजब हैरानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,

घोड़ा थककर गिरा भूमि पर, गया स्वर्ग तत्काल सिधार,

यमुना-तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,

विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार,

अंग्रेजों के मित्र सिंधिया

ने छोड़ी रजधानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी॥

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी.

अबके जनरल स्मिथ सन्मुख था, उसने मुँह की खाई थी,

काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थीं,

युद्ध क्षेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी,

पर, पीछे ह्यूरोज़ आ गया,

हाय! घिरी अब रानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

तो भी रानी मार-काटकर चलती बनी सैन्य के पार,

किंतु सामने नाला आया, था यह संकट विषम अपार,

घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार,

रानी एक, शत्रु बहुतेरे होने लगे वार पर वार,

घायल होकर गिरी सिंहनी

उसे वीर गति पानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,

मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,

अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,

हमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता नारी थी,

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको

जो सीख सिखानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे हम कृतज्ञ भारतवासी,

यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनाशी,

होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,

हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी,

तेरा स्मारक तू ही होगी,

तू खुद अमिट निशानी थी।

बुंदेले हरबोलों के मुँह

हमने सुनी कहानी थी।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो

झाँसीवाली रानी थी।। 

सुभद्रा कुमारी चौहान ('मुकुल' से)

मंगलवार, 20 जून 2023

साँस-साँस में बाँस - एलेक्स एम. जॉर्ज (अनुवाद- शशि सबलोक) | saans-saans mein baans | CBSE | HINDI | CLASS 6 | NCERT | CHAPTER 17

साँस-साँस में बाँस - एलेक्स एम. जॉर्ज (अनुवाद- शशि सबलोक)


बाँस से मेरा रिश्ता

बाँस का यह झुरमुट मुझे अमीर बना देता है। इससे मैं अपना घर बना सकता हूँ, बाँस के बरतन और औज़ार इस्तेमाल करता हूँ, सूखे बाँस को मैं ईंधन की तरह इस्तेमाल करता हूँ, बाँस का कोयला जलाता हूँ, बाँस का अचार खाता हूँ, बाँस के पालने में मेरा बचपन गुज़रा, पत्नी भी तो मैंने बाँस की टोकरी के ज़रिए पाई और फिर अंत में बाँस पर ही लिटाकर मुझे मरघट ले जाया जाएगा।

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एक जादूगर थे चंगकीचंगलनबा। अपने जीवन में उन्होंने कई बड़े-बड़े करतब दिखलाए। जब मरने को हुए तो लोगों से बोले, “मुझे दफ़नाए जाने के छठे दिन मेरी कब्र खोदकर देखोगे तो कुछ नया सा पाओगे।"

कहा जाता है कि मौत के छठे दिन उनकी कब्र खोदी गई और उसमें से निकले बाँस की टोकरियों के कई सारे डिजाइन। लोगों ने उन्हें देखा. पहले उनकी नकल की और फिर नए डिज़ाइन भी बनाए।

बाँस भारत के विभिन्न हिस्सों में बहुतायत में होता है। भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के सातों राज्यों में बाँस बहुत उगता है। इसलिए वहाँ बाँस की चीजें बनाने का चलन भी खूब है। सभी समुदायों के भरण-पोषण में इसका बहुत हाथ है। यहाँ हम खासतौर पर देश के उत्तरी-पूर्वी राज्य नागालैंड की बात करेंगे। नागालैंड के निवासियों में बाँस की चीजें बनाने का खूब प्रचलन है।

इंसान ने जब हाथ से कलात्मक चीजें बनानी शुरू की, बाँस की चीजें तभी से बन रही है। आवश्यकता के अनुसार इसमें बदलाव हुए है और अब भी हो रहे हैं।

कहते हैं कि बाँस की बुनाई का रिश्ता उस दौर से है, जब इंसान भोजन इकट्ठा करता था। शायद भोजन इकट्ठा करने के लिए ही उसने ऐसी डलियानुमा चीजें बनाई होंगी। क्या पता बया जैसी किसी चिड़िया के घोंसले से टोकरी के आकार और बुनावट की तरकीब हाथ लगी हो!

बाँस से केवल टोकरियाँ ही नहीं बनतों, बाम को खपच्चियों से ढेर चीजे बनाई जाती है जैसे–तरह-तरह की चटाइयाँ टोपिया, टोकरियाँ, बरतन, बैलगाड़ियाँ, फ़र्नीचर, सजावटी सामान, जाल, मकान, पुल और खिलौने भी।

असम में ऐसे ही एक जाल, जकाई से मछली पकड़ते हैं। छोटी मछलियों को पकड़ने के लिए इसे पानी की सतह पर रखा जाता है या फिर धीरे-धीरे चलते हुए खींचा जाता है। बाँस की खपच्चियों को इस तरह बाँधा जाता है कि वे एक शंकु का आकार ले लें। इस शंकु का ऊपरी सिरा अंडाकार होता है। निचले नुकीले सिरे पर खपच्चियाँ एक-दूसरे में गुँथी हुई होती हैं।

खपच्चियों से तरह-तरह की टोपियाँ भी बनाई जाती हैं। असम के चाय बागानों के चित्रों में तुम्हें लोग ऐसी टोपियाँ पहने दिख जाएँगे और हाँ उनकी पीठ पर टँगी बाँस की बड़ी-सी टोकरी देखना न भूलना।

जुलाई से अक्टूबर, घनघोर बारिश के महीने! यानी लोगों के पास बहुत सारा खाली वक्त या कहो आसपास के जंगलों से बाँस इकट्ठा करने का सही वक्त। आमतौर पर वे एक से तीन साल की उम्र वाले बाँस काटते हैं। बूढ़े बाँस सख्त होते हैं और टूट भी तो जाते हैं। बाँस से शाखाएँ और पत्तियाँ अलग कर दी जाती हैं। इसके बाद ऐसे बाँसों को चुना जाता है जिनमें गाँठें दूर-दूर होती हैं। दाओ यानी चौड़े, चाँद जैसी फाल वाले चाकू से इन्हें छीलकर खपच्चियाँ तैयार की जाती हैं। खपच्चियों की लंबाई पहले से ही तय कर ली जाती है। मसलन, आसन जैसी छोटी बनाने के लिए बाँस को हरेक गठान से काटा जाता है। लेकिन टोकरी बनाने के लिए हो सकता है कि दो या तीन या चार गठानों वाली लंबी खपच्चियाँ काटी जाएँ। यानी कहाँ से काटा जाएगा यह टोकरी की लंबाई पर निर्भर करता है।

आमतौर पर खपच्चियों की चौड़ाई एक इंच से ज्यादा नहीं होती है। चौड़ी खपच्चियाँ किसी काम की नहीं होतीं। इन्हें चीरकर पतली खपच्चियाँ बनाई जाती हैं। पतली खपच्चियाँ लचीली होती हैं। खपच्चियाँ चीरना उस्तादी का काम है। हाथों की कलाकारी के बिना खपच्चियों की मोटाई बराबर बनाए रखना आसान नहीं। इस हुनर को पाने में काफ़ी समय लगता है।

टोकरी बनाने से पहले खपच्चियों को चिकना बनाना बहुत ज़रूरी है। यहाँ फिर दाओ काम आता है। खपच्ची बाएँ हाथ में होती है और दाओ दाएँ हाथ में। दाओ का धारदार सिरा खपच्ची को दबाए रहता है जबकि तर्जनी दाओ के एकदम नीचे होती है। इस स्थिति में बाएँ हाथ से खपच्ची को बाहर की ओर खींचा जाता है। इस दौरान दायाँ अँगूठा दाओ को अंदर की ओर दबाता है और दाओ खपच्ची पर दबाव बनाते हुए घिसाई करता है। जब तक खपच्ची एकदम चिकनी नहीं हो जाती. यह प्रक्रिया दोहराई जाती है। इसके बाद होती है खपच्चियों की रंगाई। इसके लिए ज्यादातर गुड़हल, इमली की पत्तियों आदि का उपयोग किया जाता है। काले रंग के लिए उन्हें आम की छाल में लपेटकर कुछ दिनों के लिए मिट्टी में दबाकर रखा जाता है।

बाँस की बुनाई वैसे ही होती है जैसे कोई और बुनाई। पहले खपच्चियों को चित्र में दिखाए गए तरीके से आड़ा-तिरछा रखा जाता है। फिर बाने को बारी-बारी से ताने के ऊपर-नीचे किया जाता है। इससे चैक का डिजाइन बनता है। पलंग की निवाड़ की बुनाई की तरह।

टुइल बुनना हो तो हरेक बाना दो या तीन तानों के ऊपर और नीचे से जाता है। इससे कई सारे डिजाइन बनाए जा सकते हैं।

टोकरी के सिरे पर खपच्चियों को या तो चोटी की तरह गूँथ लिया जाता है या फिर कटे सिरों को नीचे की ओर मोड़कर फैसा दिया जाता है और हमारी टोकरी तैयार! चाहो तो बेची या घर पर ही काम में ले लो।

एलेक्स एम. जॉर्ज (अनुवाद- शशि सबलोक)

शनिवार, 17 जून 2023

संसार पुस्तक है - जवाहरलाल नेहरू (अंग्रेज़ी से अनुवाद -प्रेमचंद) | CBSE | HINDI | CLASS 6 | NCERT

संसार पुस्तक है - जवाहरलाल नेहरू 

(अंग्रेज़ी से अनुवाद -प्रेमचंद)


लेखक के बारे में

जवाहरलाल नेहरू (14 नवम्बर 1889-27 मई 1964) आज़ाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे। बच्चों से उन्हें बेहद लगाव था। वे 'चाचा नेहरू' के नाम से जाने जाते हैं। उनकी बेटी इंदिरा जब 10 वर्ष की थीं, नेहरू जी ने उन्हें अनेक चिट्ठियाँ लिखी। इनमें बताया गया है कि पृथ्वी की शुरुआत कैसे हुई और मनुष्य ने अपने आप को कैसे धीरे-धीरे समझा-पहचाना। ये चिट्ठियाँ बच्चों में अपने आस-पास की दुनिया के बारे में सोचने-समझने और जानने की उत्सुकता पैदा करती हैं। नेहरू जी को अपने देश के बारे में बोलने बताने में विशेष आनंद आता था। ये सभी चिट्टियाँ 'पिता के पत्र पुत्री के नाम' पुस्तक में संकलित है। 'संसार पुस्तक है' इसी पुस्तक से साभार लिया गया है। खास बात यह है कि ये पत्र नेहरू जी ने अंग्रेजी में लिखे थे और इनका हिंदी में अनुवाद हिंदी के मशहूर उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद ने किया है।

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जब तुम मेरे साथ रहती हो तो अकसर मुझसे बहुत-सी बातें पूछा करती हो और मैं उनका जवाब देने की कोशिश करता हूँ। लेकिन अब, जब तुम मसूरी में हो और मैं इलाहाबाद में, हम दोनों उस तरह बातचीत नहीं कर सकते। इसलिए मैंने इरादा किया है कि कभी-कभी तुम्हें इस दुनिया की और उन छोटे-बड़े देशों की जो इस दुनिया में हैं, छोटी-छोटी कथाएँ लिखा करूँ। तुमने हिंदुस्तान और इंग्लैंड का कुछ हाल इतिहास में पढ़ा है। लेकिन इंग्लैंड केवल एक छोटा-सा टापू है और हिंदुस्तान, जो एक बहुत बड़ा देश है, फिर भी दुनिया का एक छोटा-सा हिस्सा है। अगर तुम्हें इस दुनिया का कुछ हाल जानने का शौक है, तो तुम्हें सब देशों का और उन सब जातियों का जो इसमें बसी हुई हैं, ध्यान रखना पड़ेगा, केवल उस एक छोटे-से देश का नहीं जिसमें तुम पैदा हुई हो।

मुझे मालूम है कि इन छोटे-छोटे खतों में बहुत थोड़ी-सी बातें ही बतला सकता हूँ। लेकिन मुझे आशा है कि इन थोड़ी-सी बातों को भी तुम शौक से पढ़ोगी और समझोगी कि दुनिया एक है और दूसरे लोग जो इसमें आबाद हैं हमारे भाई-बहन हैं। जब तुम बड़ी हो जाओगी तो तुम दुनिया और उसके आदमियों का हाल मोटी-मोटी किताबों में पढ़ोगी। उसमें तुम्हें जितना आनंद मिलेगा, उतना किसी कहानी या उपन्यास में भी न मिला होगा।

यह तो तुम जानती ही हो कि यह धरती लाखों-करोड़ों वर्ष पुरानी है और बहुत दिनों तक इसमें कोई आदमी न था। आदमियों से पहले सिर्फ़ जानवर थे और जानवरों से पहले एक ऐसा समय था जब इस धरती पर कोई जानदार चीज़ न थी। आज जब यह दुनिया हर तरह के जानवरों और आदमियों से भरी हुई है, उस ज़माने का खयाल करना भी मुश्किल है, जब यहाँ कुछ न था। लेकिन विज्ञान जाननेवालों और विद्वानों ने, जिन्होंने इस विषय को खूब सोचा और पढ़ा है, लिखा है कि एक समय ऐसा था जब यह धरती बेहद गरम थी और इस पर कोई जानदार चीज़ नहीं रह सकती थी। और अगर हम उनकी किताबें पढ़ें और पहाड़ों और जानवरों की पुरानी हड्डियों को गौर से देखें तो हमें खुद मालूम होगा कि ऐसा समय जरूर रहा होगा।

तुम इतिहास की किताबों में ही पढ़ सकती हो। लेकिन पुराने जमाने में तो आदमी पैदा ही न हुआ था, किताबें कौन लिखता? तब हमें उस ज़माने की बातें कैसे मालूम हों? यह तो नहीं हो सकता कि हम बैठे-बैठे हर एक बात सोच निकालें। यह बड़े मज़े की बात होती, क्योंकि हम जो चीज़ चाहते सोच लेते और सुंदर परियों की कहानियाँ गढ़ लेते। लेकिन जो कहानी किसी बात को देखे बिना ही गढ़ ली जाए वह ठीक कैसे हो सकती है? लेकिन खुशी की बात है कि उस पुराने ज़माने की लिखी हुई किताबें न होने पर भी कुछ ऐसी चीजें हैं, जिनसे हमें उतनी ही बातें मालूम होती हैं जितनी किसी किताब से होतीं। ये पहाड़, समुद्र, सितारे, नदियाँ, जंगल, जानवरों की पुरानी हड्डियाँ और इसी तरह की और भी कितनी ही चीजें हैं, जिनसे हमें दुनिया का पुराना हाल मालूम हो सकता है। मगर हाल जानने का असली तरीका यह नहीं है कि हम केवल दूसरों की लिखी हुई किताबें पढ़ लें, बल्कि खुद संसार रूपी पुस्तक को पढ़ें। मुझे आशा है कि पत्थरों और पहाड़ों को पढ़कर तुम थोड़े ही दिनों में उनका हाल जानना सीख जाओगी। सोचो, कितनी मज़े की बात है। एक छोटा-सा रोड़ा जिसे तुम सड़क पर या पहाड़ के नीचे पड़ा हुआ देखती हो, शायद संसार की पुस्तक का छोटा-सा पृष्ठ हो, शायद उससे तुम्हें कोई नयी बात मालूम हो जाए। शर्त यही है कि तुम्हें उसे पढ़ना आता हो।

कोई जबान, उर्दू, हिंदी या अंग्रेजी सीखने के लिए तुम्हें उसके अक्षर सीखने होते हैं। इसी तरह पहले तुम्हें प्रकृति के अक्षर पढ़ने पड़ेंगे, तभी तुम उसकी कहानी उसके पत्थरों और चट्टानों की किताब से पढ़ सकोगी। शायद अब भी तुम उसे थोड़ा-थोड़ा पढ़ना जानती हो। जब तुम कोई छोटा-सा गोल चमकीला रोड़ा देखती हो, तो क्या वह तुम्हें कुछ नहीं बतलाता? यह कैसे गोल, चिकना और चमकीला हो गया और उसके खुरदरे किनारे या कोने क्या हुए? अगर तुम किसी बड़ी चट्टान को तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर डालो तो हर एक टुकड़ा खुरदरा और नोकीला होगा। यह गोल चिकने रोड़े की तरह बिलकुल नहीं होता। फिर यह रोड़ा कैसे इतना चमकीला, चिकना और गोल हो गया? अगर तुम्हारी आँखें देखें और कान सुनें तो तुम उसी के मुँह से उसकी कहानी सुन सकती हो। वह तुमसे कहेगा कि एक समय, जिसे शायद बहुत दिन गुज़रे हों, वह भी एक चट्टान का टुकड़ा था। ठीक उसी टुकड़े की तरह, उसमें किनारे और कोने थे, जिसे तुम बड़ी चट्टान से तोड़ती हो। शायद वह किसी पहाड़ के दामन में पड़ा रहा। तब पानी आया और उसे बहाकर छोटी घाटी तक ले गया। वहाँ से एक पहाड़ी नाले ने ढकेलकर उसे एक छोटे-से दरिया में पहुँचा दिया। इस छोटे-से दरिया से वह बड़े दरिया में पहुँचा। इस बीच वह दरिया के पैदे में लुढ़कता रहा, उसके किनारे घिस गए और वह चिकना और चमकदार हो गया। इस तरह वह कंकड़ बना जो तुम्हारे सामने है। किसी वजह से दरिया उसे छोड़ गया और तुम उसे पा गईं। अगर दरिया उसे और आगे ले जाता तो वह छोटा होते-होते अंत में बालू का एक ज़र्रा हो जाता और समुद्र के किनारे अपने भाइयों से जा मिलता, जहाँ एक सुंदर बालू का किनारा बन जाता, जिस पर छोटे-छोटे बच्चे खेलते और बालू के घरौंदे बनाते। अगर एक छोटा-सा रोड़ा तुम्हें इतनी बातें बता सकता है, तो पहाड़ों और दूसरी चीज़ों से, जो हमारे चारों तरफ़ हैं, हमें और कितनी बातें मालूम हो सकती हैं !

→ जवाहरलाल नेहरू (अंग्रेज़ी से अनुवाद -प्रेमचंद)

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

THE MOUNTAIN MAN | मांझी | दशरद मांझी | नाटक | SCHOOL SCRIPT | फिल्म | MOTIVATION | DIRE TO DREAM

THE MOUNTAIN MAN | मांझी | दशरद मांझी | नाटक | SCHOOL SCRIPT | फिल्म | MOTIVATION | DIRE TO DREAM 

फिल्म: मांझी द माउंटेन मैन | अभिनीत: नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे | निर्देशक: केतन मेहता | 21 अगस्त 2015

मांझी द माउंटेन मैन

1min Story review………..

यह फिल्म है बिहार के दशरथ मांझी की, जिन्होंने अकेले दम पर  22 सालों की कड़ी मेहनत से सिर्फ़ हथोड़े और छैनी की मदद से एक बड़ा पहाड़ काटकर रास्ता बना लिया और लगभग 70 किलोमीटर(km) की लंबी दूरी को सिर्फ एक किलोमीटर में समेट दिया। यह फिल्म पटना के गहलोरे गांव के दशरथ मांझी के वास्तविक जीवन पर आधारित है। यह फिल्म दशरथ मांझीके जूनून, प्रयास, कभी न हार मानने वाली ज़िद्द और आखिर में सफल होने की कहानी है। हालाँकि यह पूरी फिल्म बहुत ही प्रेरणादायक है जिसे देखने के बाद आप पूरी तरह मोटिवेशन से भर जाते हैं।

SCENE-1

(परदा खोलने के बाद.... एक मेला जैसा जन..... मुखिया के dress पर तीन या पाँच लोग /background music) तीन या पाँच लोग बैठकर बात कर रहे है......)

सब बराबर... सब बराबर..... सब बराबर... सब बराबर......। (नाचते..नाचते मेला आ रहे है)

सरकार ने कानून बना दिया है। सब बराबर.. सब बराबर.....। (नाचते..नाचते मेला आ रहे है)

दशरथ - यह सच्च है....... सब बराबर.....

(मेला GROUP) पात्र-1 अखबार में छपा है....... सब बराबर... सब बराबर.......।

(मुखिया GROUP) पात्र-2 गलती हो गयी यार....सरकार ने खास बात खतम कर रही है.....गिरिजनवासी और जमींदारी खतम....सब बराबर कह रहे है....

(मुखिया GROUP) पात्र-3 छोडिये मुखिया जी कानून कौन लागू करेगा.... (उसी समय दशरथ वहाँ पहुँचता है)

दशरथ - Good morning मुखिया जी कैसे है आप....आप बिलकुल बदले ही नही। अभी वही चमक...(गले लगाते है) (जोशभरी आवाज background music)

मुखिया - बहुवा माँफ करना पहचाना ही नही....

दशरथहमे दशरथ मबुल माथे की बेटा....

मुखिया हर चल...तूम.....हा हा हर चल..... (Music……)

दशरथ सबको सरकार बराबर कर दिया कि किसी को भी छू सकते है.....

(मुखिया GROUP) पात्र 1अरे दशरथ.....कौन सा बराबर......

(मुखिया GROUP) पात्र 2अरे न लायक.....कौन सा बराबर......

मुखिया सरकार बोलने पर माथे पर बैठेगा......(नाराज से background music) इतनी तुड़ाई करो कि जीवन भर अपनी जात की औकात न भूलें।.... (दशरथ को मारते है)

(दशरथ मार खाकर भाग जाता है.......)

SCENE-2

(दशरथ वहाँ से घर जाता है.....)

दशरथ - हाय... ये तो मेरी फगुनिया (बीबी) है? कैसे हो...तुम्हारे लिए ताजमहल लाया हूँ...

बीबी - इतनी छोटी....

दशरथ - हाह...हाह... यह तो हमारे पहाड़ जैसा बड़ा है। अच्छा एक बात बता दूँ.... हम शहर जायेंगे और कुछ काम कर खुश से रहेंगे।

बीबी - हम जानते हैं....खुश से रहेंगे।

दशरथ खूब कमायेंगे खुश से रहेंगे....

बीबी अभी मेरे लिए काम है....पहाड चढकर पानी लाना है.....

दशरथ चलो मैं भी तुम्हारे साथ आऊँगा।

बीबी न बाबा, तुम अपने काम देख लो।...(Music……)

(बीबी पहाड छडती है.......)

बीबी – (मन मे सोचती थी कि शहर में खुशी से रहेंगे....सब जगह घूमेंगे...नाचेंगे...

(उसी समय...पहाड से नीचे गिर जाती....) 

पात्र-1दशरथ तुम्हारी बीबी पहाड से गिर गई......

दशरथ हे भगवान.... क्या हो गया...

(music…. डाक्टर के पास ले जाते है......) (Time need here…)

डाक्टर बच्चा तो जिंदा है लेकिन.............

दशरथ – (रोता....रोता....कहता है......) पहाड की वजह से ही... पहाड की वजह से ही... फगुनिया.. मैं वादा करता हूँ...तुम्हारी हालत गाँव के किसी के साथ न होने दूँगा।... मैं पहाड को तोडकर रास्ता बनाऊँगा.....बहुत अकड़ है तोहरा में, देख कैसे उखाड़ते हैं अकड़ तेरी”.......

SCENE-3

(Background ब़डा पहाड... Stage पर कागज से बना पहाड......)

30sec.. Music……

उसी समय पत्थर तोडता दशरथ (dress मजदूरों की/ हवा चलने की आवाज background music)........

पात्र-1 – अरी चल दिया पहाड तोडे...अरे दो साल हो गया एक ही लोग आया मदद करे...एक दिन मरते रहना पहाड में....तो बनते रहना पहाड तुडवय्या...

(उसी समय पहाड के पास आकर खुद पहाड को देखकर दशरथ कहता है......)

दशरथ – हे फिर आ गये...सब राज्य कुषे...हाँ...आपको क्या लगता था, हम नही लौटेंगे.....जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं, बहुतै बड़ा दंगल चलेगा रे तोहर हमारा.....तैयार है.... हाँ. हाँ. हाँ. हाँ...तैयार है। (music……)

दशरथ – हमके रूलाकर हँसते है...हँसहँसहँसहँसहँस (फिर तोडना शुरू करते है) (पत्थर तोडने जैसा background music)

दशरथ – ये कासे कास बना दिया...हमको...कुछ गुनानी नही चाहते...ये तो दिक्कत है हम... पेलों से गुस गये हमारी कोपडिया में......कभी भी कही से शुरू हो जाते है...चल पडा...आगे पीछे पीछे आगे...नाचते रहता.... (music…) सब याद है....सब याद है।

(उसी समय दो आदमी दशरथ को मजाक उडाते कहते है कि अकेला पहाड तोडेगा.... हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ...) और कब तक... (dress मजदूरों की/ आश्चर्य से आवाज background music)

दशरथ : लोग कहते हैं कि हम पागल हैं.... जिंदगी खराब कर रहा है जब तक.....है टूटेगा नहीं...मैं हरेगा नहीं..!

SCENE–3

(उसी समय पत्रकार वहाँ पहुँचते है...... Background music....)

दशरथ मांझी उनसे कहते हैं – तुम अपना अखबार क्यों नहीं शुरू करते?

तो वह पत्रकार कहता है - अपना अखबार शुरू करना बहुत मुश्किल काम है।

तो दशरथ मांझी कहते हैं - "पहाड़ तोड़ने से भी ज़्यादा मुश्किल है"? हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ........

(music…..पत्थर तोडने जैसा....रास्ता बन गया....)

पत्रकार - दशरथ मांझी आप सूपर मेन है... एक बात बताईये...असंभव कार्य संभव करने के बाद क्या कहना चाहेंगे आप....

(पत्रकार और पूरे गाँव वालों से दशरथ कहता है कि.....

दशरथ : क्या बतायेंगे भय्या

पत्रकार कुछ तो कहिये....

दशरथ: भगवान के भरोसे मत बैठिये, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो! हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ.हाँ...............(दिल से हँसता है.... Story end..)

(दशरथ ने 22 सालों की कड़ी मेहनत से एक बड़ा पहाड़ काटकर रास्ता बना लिया और लगभग 70 किलोमीटर(km) की लंबी दूरी को सिर्फ एक किलोमीटर में समेट दिया। यह एक सजीव कहानी है। अभी भी आप उस रास्ता देख सकते है। आदमी चाहे तो असंभव कार्य भी संभव कर सकता है इसका एक उदाहरम दशरथ माँझी.....)

******धन्यवाद******