सोमवार, 22 नवंबर 2021

लाला लाजपत राय | LALA LAJPAT RAI

लाला लाजपत राय 

LALA LAJPAT RAI


“प्रिय मित्रों, मै आपको कैसे बताऊँ कि इस समय मैं पंजाब की स्थिति के बारे में क्या महसूस कर रहा हूँ। मेरा हृदय दुःख से भरा हुआ है। यद्यपि मेरी जबान मूक है। मैंने बहुत कोशिश की कि इस कष्ट के समय में मैं आप सब के साथ रहूँ और आपका दुःख बाट परन्तु मैं अपने प्रयास में असफल रहा हूँ। मैं शहीद नहीं कहलाना चाहता पर आप सब के संकट की घड़ी में आपके काम आना चाहता हूँ। मेरे हृदय में दुःख है और आत्मा घायल। मुझे नौकरशाहों की करतूतों पर बहुत क्रोध आ रहा है उससे भी ज्यादा गुस्सा आ रहा है अपने देश के लोगों के व्यवहार पर।”

इस संदेश को लाला लाजपत राय ने भेजा था, जब जलियाँवाला बाग का हत्याकाण्ड हुआ और वे उस समय भारत में नहीं थे। लाला लाजपत राय का जन्म फिरोजपुर जिले के ढोडिके नामक स्थान में 28 जनवरी 1865 में हुआ था। उनके पिता राधा किशन आजाद स्कूल के अध्यापक थे और माता थीं गुलाबी देवी। लाजपत राय ने अपने पिता को अपना गुरु स्वीकार किया और कहा “मुझे भारत में उनसे अच्छा अध्यापक नहीं मिला। वे पढ़ाते नहीं थे बल्कि छात्रों को स्वयं सीखने में सहायता करते थे।"

लाला लाजपत राय ने अपने पिता से ही पढ़ने और सीखने का उत्साह पाया, साथ में पाया स्वतन्त्रता के प्रति अथाह प्यार और भारत के लोगों से लगाव। लाजपत राय की माता ने उन्हें धर्म की शिक्षा दी। सन् 1882 में जब वे लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज के छात्र थे उस समय पंजाब और उत्तर भारत के अन्य भागों में आर्य समाज का प्रभाव एक तूफान के समान झकझोर रहा था। लाजपत राय स्वामी दयानन्द और आर्य समाज से प्रभावित हुए तथा आर्य समाज में सम्मिलित हो गये। इससे उनके जीवन को नयी दिशा मिली। लाला लाजपत राय एक संवेदनशील व्यक्ति थे जो कुछ वे सीखते थे उसे आत्मसात कर लेते थे। संवेदनशीलता और स्वतन्त्र विचार की आदत के कारण वे भारतीय देशभक्तों की जीवन कथाओं में रुचि रखने लगे।

सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई स्थापना के तीन वर्ष बाद लाजपत राय इसमें सम्मिलित हुए। उस समय उनकी अवस्था 23 वर्ष की थी। भारतीयों को अपने विचार प्रगट करने का वह एक अच्छा मंच था। लाला लाजपत राय ने कांग्रेस का ध्यान जनता की मूल समस्याओं गरीबी और निरक्षरता की ओर आकर्षित किया।

“लाला लाजपत राय के आस्था एवं विश्वास के कारण उन्हें पंजाब केसरी तथा शेरे पंजाब की उपाधि दी गयी।”

जिस समय ब्रिटिश सरकार की शक्ति अपनी चरम सीमा पर थी उस समय लाला लाजपत राय द्वारा सरकार का खुला विरोध करना बहुत साहस की बात थी। लाजपत राय की राष्ट्रीयता की भावना दिनों-दिन प्रचण्ड होती जा रही थी। इसी समय वह बाल गंगाधर तिलक के सम्पर्क में आये तिलक ने घोषणा की "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहँगा।” लाजपत राय तिलक की इस बात से पूर्णत: सहमत था।

लाला लाजपत राय स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन का प्रचार पूरे देश में करना चाहते थे जिससे ब्रिटिश आर्थिक व्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़े। इस तरह ब्रिटिश सरकार को जबरदस्ती हमारी स्वतन्त्रता की माँग को सुनना पड़ेगा। ब्रिटिश सरकार की अपनी निर्भय आलोचना, अपने दृढ़ विश्वास और जनता पर काबू होने के कारण लाला लाजपत राय पर कई बार राजद्रोह का आरोप लगाया गया। ब्रिटिश सरकार ने इन्हें कई बार अपने रास्ते से हटाने की कोशिश भी की तथा मई 1907 में लाला जी को गिरफ्तार करके कैद में डाल दिया।

राजनैतिक क्षेत्र उन्हें कट्टर देशभक्त कांग्रेस का सबसे योग्य प्रवक्ता मानता था। उन्होंने कई बार भारत का नेतृत्व विदेशों में भी किया। भारत के लिए समर्थन पाने की आशा में उन्होंने इंग्लैण्ड और यूरोप का कई बार दौरा भी किया।

8 नवम्बर 1927 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने भारत के भविष्य पर रिपोर्ट देने के लिए एक आयोग नियुक्त किया। इसमें सात ब्रिटिश सदस्य थे जिसका अध्यक्ष सरजॉन साइमन था लेकिन इस आयोग में भारतीय प्रतिनिधि नहीं थे। यह बात भारतीय राजनीतिज्ञों को बहुत बुरी लगी। जब ये सदस्य भारत आये तब लोगों ने इसका विरोध किया और काले झण्डे दिखाए। “साइमन कमीशन" के सदस्य भारत में जहाँ कहीं भी गए सभी जगह उनका व्यापक विरोध हो गया। लोगों ने 'साइमन वापस जाओ' के नारे लगाये।

आयोग के सदस्य 30 अक्टूबर 1928 को जब लाहौर पहुँचने वाले थे, वहाँ इनका विरोध कर रहे लोगों का नेतृत्व शान्तिपूर्ण ढंग से लाला लाजपत राय कर रहे थे। जैसे ही आयोग रेलवे स्टेशन पर पहँचा, शान्तिपूर्ण जुलूस पर क़रूरता से लाठियाँ बरसायी गयीं। लाजपत राय उनके विशेष निशाने पर थे। उन पर भी लाठियों की खूब बौछारें हुई।

लाठियाँ खाते हुए भी लाला लाजपत राय ने अपने वक्तव्य द्वारा लोगों को नियंत्रित रखा। जब आक्रमण समाप्त हुआ तब वे निर्भीकता से जूलूस का नेतृत्व करते हुए वापस आये। सायंकाल की एक सभा में शेरे पंजाब फिर गरजा -
“प्रत्येक प्रहार जो उन्होंने हम पर किये हैं वह उनके साम्राज्य के पतन के ताबूत में एक और कील है” घायल होने के बावजूद भी पंजाब के शेर के पास भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने की असीम शक्ति थी। लाठी चार्ज में आयी गम्भीर चोटों वे बीमार रहने लगे।

16 नवम्बर सन् 1929 को रात में उनका स्वास्थ्य अत्यधिक बिगड़ गया। अनेक प्रयत्न के बावजूद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका और प्रातः काल उनका निधन हो गया। लाला लाजपत राय राजनैतिक मंच के अलावा सामाजिक गतिविधियों में सतत प्रयत्नशील रहे सामाजिक सुधार के कार्यक्रमों एवं शिक्षा का प्रचार करने के लिये उन्होंने दूर-दूर तक भ्रमण किया। लाला लाजपत राय ने अति वंचित एवं पिछड़े लोगों के लिए, जिन्हें शिक्षा का लाभ नहीं मिल पाता था, एक शिक्षण संस्था की स्थापना की इसके पश्चात् इस तरह की कई संस्थायें खोली गयीं और उनका अस्तित्व बनाये रखने के लिए उन्होंने अपनी बचत से 40,000 रुपया दान दिया। लाला लाजपत राय हृदय से शिक्षाशास्त्री थे। उनका विश्वास था कि जनता के उत्थान के लिए शिक्षा अनिवार्य है। वे बच्चों के शारीरिक विकास पर बहुत जोर देते थे, इसमें बच्चों के लिए पौष्टिक आहार भी शामिल था। उनकी इच्छा थी किं स्कूल के बच्चों को राष्ट्रीयता और देश भक्ति भी अन्य विषयों की तरह पढ़ाया जाय जिससे बच्चे अपने देश पर गर्व करना सीखें। उनकी पत्रिका 'यंग इण्डिया' के अनुसार लाला लाजपत राय का महिलाओं की समस्याओं को देखने का दृष्टिकोण अपने समय से बहुत आगे एवं प्रगतिशील था। वे चाहते थे कि भारतीय महिला अपनी सलज्जता, मर्यादा और परिवार के प्रति अपने कर्तव्य की भावना कायम रखें। वे यह भी चाहते थे कि महिलायें अपने अधिकारों को मानसिक माँगना सीखें। उनका सुझाव था कि बालिकाओं को भी उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास का अवसर दिया जाय।

सन् 1896 में जब उत्तर भारत में भीषण अकाल था, लोग भूख से मर रहे थे, तब ब्रिटिश सरकार के राहत कार्य पर्याप्त नहीं महसूस कर भारतीय नेताओं ने राहत कार्य अपने हाथ में ले लिया जिसमें लाला लाजपत राय सबसे आगे थे।

इसी प्रकार पंजाब में भूकम्प पीडितों को राहत पहँचाने और उनकी सहायता करने में आप अग्रणी रहे। लाला लाजपत राय ने अपने राहत कार्य के दौरान 'सर्वेन्टस ऑफ पीपुल सोसाइटी' की स्थापना भी की थी। इसके सदस्य भारतीय देश भक्त थे जिनका ध्येय ज्यादा से ज्यादा समय राष्ट्र की सेवा में व्यतीत करना था।

लाला लाजपत राय ने कई पुस्तकें भी लिखीं हैं :- जैसे ‘ए हिस्टरी ऑफ इण्डिया', 'महाराज अशोक', 'वैदिक टैक्ट' 'अनहैप्पी इण्डिया'। उन्हों ने कई पत्रिकाओं की स्थापना और सम्पादन भी किया जैसे ‘यंगइण्डिया’, ‘दी पीपुल' और 'दैनिक वन्दे मातरम्' ये उनके काम के हिस्से थे। मुहम्मद अली जिन्ना ने लाला लाजपत राय के लिए कहा था, '

‘वह भारत माता के महान पुत्रों में से एक है' लाला लाजपत राय के योगदानों को यह देश कभी भी भुला नहीं सकता। उनका त्याग और बलिदान देशवासियों के लिए चिरस्मरणीय रहेगा।

स्वामी विवेकानन्द | SWAMI VIVEKANANDA

स्वामी विवेकानन्द 

SWAMI VIVEKANANDA


“यदि कोई व्यक्ति यह समझता है कि वह दूसरे धर्मों का विनाश कर अपने धर्म की विजय कर लेगा, तो बन्धुओं! उसकी यह आशा कभी भी पूरी नहीं होने वाली। सभी धर्म हमारे अपने हैं, इस भाव से उन्हें अपनाकर ही हम अपना और सम्पूर्ण मानवजाति का विकास कर पायेंगे। यदि भविष्य में कोई ऐसा धर्म उत्पन्न हुआ जिसे सम्पूर्ण विश्व का धर्म कहा जाएगा तो वे अनन्त और निर्बाध होगा। वह धर्म न तो हिन्दू होगा, न मुसलमान, न बौद्ध, न ईसाई अपितु वह इन सबके मिलन और सामंजस्य से पैदा होगा।"

ये ही वो शब्द हैं, जिन्होंने विश्वमंच पर भारत की सिरमौर छवि को प्रस्तुत किया और संसार को यह मानने को विवश कर दिया कि भारत वास्तव में विश्वगुरु है। क्या आप जानते हैं, ये शब्द किसने कहे थे? ये शब्द 11 सितम्बर सन् 1893 को शिकागो (अमेरिका) में आयोजित विश्वधर्मसभा के मंच पर स्वामी विवेकानन्द ने कहे थे स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी को कोलकाता में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त तथा माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। इनके बचपन का नाम नरेन्द्र था।

घर का वातावरण अत्यन्त धार्मिक था। दोपहर में सारे परिवार की स्त्रियाँ इकट्ठा होतीं और कथा-वार्ता कहतीं। नरेन्द्र शांत होकर बड़े चाव से इन कथाओं को सुनता। बचपन में ही नरेन्द्र ने रामायण तथा महाभारत के अनेक प्रसंग तथा भजन कीर्तन कण्ठस्थ कर लिये थे।

नरेन्द्र की प्राथमिक शिक्षा घर पर ही हुई। इसके उपरान्त वे विभिन्न स्थानों पर शिक्षा प्राप्त करने गए। कुश्ती, बॉक्सिंग, दौड़, घुड़दौड़, तैराकी, व्यायाम उनके शौक थे। उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। सुन्दर व आकर्षक व्यक्तित्व के कारण लोग उन्हें मन्त-मुग्ध होकर देखते रह जाते। घर पर पिता की विचारशील पुरुषों से चर्चा होती। नरेन्द्र उस चर्चा में भाग लेते और अपने विचारों से विद्वत्मण्डली को आश्चर्य चकित कर देते। उन्होंने बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त की। इस समय तक उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय संस्कृति का विस्तृत अध्ययन कर लिया था। दार्शनिक विचारों के अध्ययन से उनके मन में सत्य को जानने की इच्छा जागने लगी।

कुछ समय पश्चात् नरेन्द्र ने अनुभव किया कि उन्हें बिना योग्य गुरु के सही मार्गदर्शन नहीं मिल सकता है क्योंकि जहाँ एक ओर उनमें आध्यात्मिकता के प्रति जन्मजात रुझान था वहीं उतना ही प्रखर बुद्धियुक्त तार्किक स्वभाव था। ऐसी परिस्थिति में वे ब्रह्म समाज की ओर आकर्षित हुए। नरेन्द्र नाथ का प्रश्न था "क्या ईश्वर का अस्तित्व है?” इस प्रश्न के समाधान के लिए वे अनेक व्यक्तियों से मिले किन्तु समाधान न पा सके। इसी बीच उन्हें ज्ञात हुआ कि कोलकाता के समीप दक्षिणेश्वर में एक तेजस्वी साधु निवास करते है।

अपने चचेरे भाई से भी नरेन्द्र ने इन साधु के बारे में सुना। वे मिलने चल दिए। वे साधु थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस नरेन्द्र ने उनसे पूछा - "महानुभाव, क्या आपने ईश्वर को देखा है?” उत्तर मिला "हाँ मैंने देखा है, ठीक ऐसे ही जैसे तुम्हें देख रहा हूँ, बल्कि तुमसे भी अधिक स्पष्ट और प्रगाढ़ रूप में।" नरेन्द्र इस उत्तर पर मौन रह गये। उन्होंने मन ही मन सोचा चलो कोई तो ऐसा मिला जो अपनी अनुभूति के आधार पर यह कह सकता है कि ईश्वर का अस्तित्व है। नरेन्द्र नाथ का संशय दूर हो गया। शिष्य की आध्यात्मिक शिक्षा का श्री गणेश यहीं से हुआ।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने इस उद्विग्न, चंचल और हठी युवक में भावी युगप्रवर्तक और अपने सन्देशवाहक को पहचान लिया था। उन्हां ने टिप्पणी की -

“नरेन (नरेन्द्रर) एक दिन संसार को आमूल झकझोर डालेगा।"

गुरु रामकृष्ण ने अपने असीम धैर्य द्वारा इस नवयुवक भक्त की क्रान्तिकारी भावना का शमन कर दिया। उनके प्यार ने नरेन्द्र को जीत लिया और नरेन्द्र ने भी गुरु को उसी प्रकार भरपूर प्यार और श्रद्धा दी।

अपनी महासमाधि से तीन-चार दिन पूर्व श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपनी सारी शक्तियाँ नरेन्द्र को दे डाली और कहा - “मेरी इस शक्ति से, जो तुममें संचारित कर दी है, तुम्हारे द्वारा बड़े-बड़े कार्य होंगे और उसके बाद तुम वहाँ चले जाओगे जहाँ से आये हो'।

रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात् नरेन्द्र परिव्राजक के वेश में मठ छोड़कर निकल पड़े। उन्होंने सम्पूर्ण भारत में घूम-घूम कर रामकृष्ण के विचारों को फैलाना प्रारम्भ कर दिया। वे भारतीय जनता से मिलते। उनके सुख दुःख बाँटते। दलितों शोषितों के प्रति उनके मन में विशेष करुणा का भाव था। यह समाचार पढ़कर कि कोलकाता में एक आदमी भूख से मर गया, द्रवित स्वर में वे पुकार उठे “मेरा देश, मेरा देश! छाती पीटते हुए उन्होंने स्वयं से प्रश्न किया - “धर्मात्मा कहे जाने वाले हम संन्यासियों ने जनता के लिए क्या किया है?” इसी समय उन्होंने अपना पहला कर्तव्य तय किया - “दरिद्रजन की सेवा, उनका उद्धार” उनके द्रवित कण्ठ से यह स्वर फूटा “यदि दरिद्र पीडित मनुष्य की सेवा के लिए मुझे बार-बार जन्म लेकर हजारों यातनाएँ भी भोगनी पड़ीं, तो मैं भोगूँगा।”

स्वामी जी ने अपने जीवन के कुछ उद्देश्य निर्धारित किये। सबसे बड़ा कार्य धर्म की पुनस्थापना का था। उस समय भारत ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व में बुद्धिवादियों की धर्म से श्रद्धा उठती जा रही थी। अतः आवश्यक था धर्म की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत करना जो मानव जीवन को सुखमय बना सके। दूसरा कार्य था हिन्दू धर्म और संस्कृति पर हिन्दुओं की शुद्धा जमाए रखना जो उस समय यूरोप के प्रभाव में आते जा रहे थे।

तीसरा कार्य था भारतीयों को उनकी संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिक परम्पराओं का योग्य उत्तराद्दिकारी बनाना। स्वामी जी की वाणी और विचारों से भारतीयों में यह विश्वास जाग्रत हुआ कि उन्हें किसी के सामने मस्तक झुकाने अथवा लज्जित होने की आवश्यकता नहीं।

लगभग तीन वर्ष तक स्वामी जी ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर प्रत्यक्षतः ज्ञान प्राप्त किया। इस अवधि में अद्दिकांशतः वे पैदल ही चले। उन्होंने देश की अवनति के कारणों पर मनन किया और उन साधनों पर विचार किया जिनसे कि देश का पुन: उत्थान हो सके। भारत की दरिद्रता के निवारण हेतु सहायता प्राप्ति के उद्देश्य से उन्होंने पाश्चात्य देशों की यात्रा का निर्णय लिया।

सन् 1893 ई. में शिकागो (अमेरिका) में सम्पूर्ण विश्व के धर्माचार्यां का सम्मेलन होना निश्चित हुआ। स्वामी जी के हृदय में यह भाव जाग्रत हुआ कि वे भी इस सम्मेलन में जाएँ। खेतरी नरेश, जो कि उनके शिष्य थे, वे स्वामी जी की इस भावना की पूर्ति में सहयोग किया। खेतरी नरेश के प्रस्ताव पर उन्होंने अपना नाम विवेकानन्द धारण किया और अनेक प्रचण्ड बाधाओं को पारकर इस सम्मेलन में सम्मिलित हुए। निश्चित समय पर धर्म सभा का कार्य प्रारम्भ हुआ। विशाल भवन में हजारों नर-नारी शोता उपस्थित थे। सभी वक्ता अपना भाषण लिखकर लाए थे जबकि स्वामी जी ने ऐसी कोई तैयारी न की थी। धर्म सभा में स्वामी जी को सबसे अन्त में बोलने का अवसर दिया गया क्योंकि वहाँ न कोई उनका समर्थक था, न उन्हें कोई पहचानता था। स्वामी जी ने ज्यों ही श्रोताओं को सम्बोधित किया “अमेरिका वासी बहनों और भाइयों! त्यों ही सारा सभा भवन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। बहुत देर तक तालियाँ बजती रहीं। पूर्व के सभी वक्ताओं ने सम्बोधन में कहा था 'अमेरिका वासी महिलाओं एवं पुरुषों। स्वामी जी के अपनत्व भरे सम्बोधन ने सभी श्रोताओं का हृदय जीत लिया। तालियाँ थमने पर स्वामी जी ने व्याख्यान प्रारम्भ किया। अन्य सभी वक्ताओं ने जहाँ अपने-अपने धर्म और ईश्वर की श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश की, वह स्वामी विवेकानन्द ने सभी धर्मों को एकाकार करते हुए घोषणा की "लड़ो नहीं साथ चलो। खण्डन नहीं, मिलो। विग्रह नहीं, समन्वय और शांति के पथ पर बढ़ो।' इस भाषण से उनकी ख्याति सम्पूर्ण विश्व में फैल गयी। अमेरिका के अग्रणी पत्र दैनिक हेराल्ड ने लिखा “शिकागो धर्म सभा में विवेकानन्द ही सर्वश्रेष्ठ व्याख्याता हैं।” प्रेस ऑफ अमेरिका ने लिखा “उनकी वाणी में जादू है, उनके शब्द हृदय पर गम्भीरता से अंकित हो जाते हैं।"

स्वामी जी की विदेश यात्रा के कई उद्देश्य थे। एक तो वे भारतवासियों के इस अन्धविश्वास को तोड़ना चाहते थे कि समुद्र यात्रा पाप है, तथा विदेशियों के हाथ का अन्न-जल ग्रहण करने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है। दूसरा यह कि भारत में अंग्रेजी प्रभाव वाले लोगों को वे यह भी दिखाना चाहते थे कि भारतवासी भले ही अपनी संस्कृति का आदर करें या न करें, पश्चिम के लोग जरूर उससे प्रभावित हो सकते हैं। शिकागो सम्मेलन के बाद जनता के विशेष अनुरोध पर स्वामी जी तीन वर्ष अमेरिका और इंग्लैण्ड में रहे। इस अवधि में भाषणों, वक्तव्यों, लेखों, वाद-विवादों के द्वारा उन्होंने भारतीय विचारधारा को पूरे यूरोप में फैला दिया।

विदेश यात्रा में उन्हें सबसे मधुर मित्र के रूप में जे.जे. गुडविन, सेवियर दम्पति और मार्गरेट नोब्ल मिले जिन्हों ने उनके कार्य एवं विचारों को सर्वत्र फैलाया। मार्गरेट नोब्ल ही 'भगिनी निवेदिता' कहलायी। भगिनी निवेदिता भारतीय तपस्वी समाज में प्रवेश करने वाली प्रथम पाश्चात्य महिला थीं। इन्होंने पश्चिम में विवेकानन्द की विचारधारा के प्रचार-प्रसार हेतु जितना कार्य किया उतना किसी और ने नहीं किया। विदेश यात्रा के दौरान ही उनकी भेंट प्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर से हुई। विवेकानन्द ने उन्हें भारत आने का निमंत्रण दिया। मैक्समूलर स्वामी जी के ज्ञान एवं व्यवहार से अभिभूत हो गये।

स्वामी जी ने यूरोप और अमेरिकावासियों को भोग के स्थान पर संयम और त्याग का महत्त्व समझाया, जबकि भारतीयों का ध्यान समाज की आर्थिक दुरावस्था की ओर आकृष्ट किया। उन्होंने कहा - “जो भूख से तड़प रहा हो उसके आगे दर्शन और धर्मग्रन्थ परोसना उसका मजाक उड़ाना है" उन्होंने कहा -“भारत का कल्याण शक्ति साधना में है यहाँ के जन-जन में जो साहस और विवेक छिपा है उसे बाहर लाना है। मैं भारत में लोहे की माँसपेशियाँ और फौलाद की नाडियाँ देखना चाहता हूँ।" मानव मात्र के प्रति प्रेम और सहानुभूति उनका स्वभाव था। वे कहा करते - "जब पड़ोसी भूखा मरता हो तब मन्दिर में भोग लगाना पुण्य नहीं पाप है। वास्तविक पूजा निर्दन और दरिद्र की पूजा है, रोगी और कमजोर की पूजा है।"

इंग्लैण्ड और अमेरिका में पर्याप्त प्रचार कार्य की व्यवस्था कर स्वामी जी भारत आये। यहाँ पहुँचकर अपने कार्य को दृढ़ आधार देने तथा मानव मात्र की सेवा के उद्देश्य से 1897 ई. में 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की। मिशन का लक्ष्य सर्वधर्म समभाव था। नये मठों का निर्माण, देश-विदेश में परचार कार्य की व्यवस्था, इस सबके कारण स्वामी जी को विश्राम नहीं मिल पाता था। इसका प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ने लगा। चिकित्सकों के सुझाव पर स्थान परिवर्तन कर दार्जिलिंग चले गये, पर तभी कोलकाता में प्लेग फैल गया। उन्हें यह समाचार मिला तो वे महामारी से ग्रस्त लोगों की सेवा के लिए विकल हो उठे। उन्होंने कोलकाता लौटकर प्लेग ग्रस्त लोगों की सेवा का कार्य शुरू कर दिया। स्वामी जी के हृदय में नारियों के प्रति असीम उदारता का भाव था। वे कहते थे जो जाति नारी का सम्मान करना नहीं जानती वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी, न आगे कर सकेगी।

4 जुलाई सन् 1902 ई. को वे प्रातः काल से ही अत्यन्त प्रफुल्ल दिख रहे थे। ब्रह्म मुहूर्त में उठे। पूजा की। शिष्यों के बीच बैठकर रुचिपूर्वक भोजन किया। छात्रों को संस्कृत पढ़ाई। फिर एक शिष्य के साथ बेलूर मार्ग पर लगभग दो मील चले और भविष्य की योजना समझाई। शाम हुई। संन्यासी बन्धुओं से स्नेहमय वार्तालाप किया। राष्ट्रों के अभ्युदय और पतन का प्रसंग उठाते हुए कहा “यदि भारत समाज संघर्ष में पड़ा तो नष्ट हो जाएगा”। सात बजे मठ में आरती के लिए घंटी बजी। वे अपने कमरे में चले गये और गंगा की ओर देखने लगे। जो शिष्य साथ था उसे बाहर भेजते हुए कहा - मेरे ध्यान में विघ्न नहीं होना चाहिए। पैंतालीस मिनट बाद शिष्य को बुलाया सब खिड़कियाँ खुलवा दीं। भूमि पर बायीं करवट चुपचाप लेटे रहे। ध्यान मग्न प्रतीत होते थे। घण्टे पहर बाद एक गहरा निःश्वास छोड़ा और फिर चिर मौन छा गया। एक गुरुभाई ने कहा - "उनके नथुनों, मुँह और आँखों में थोड़ा रक्त आ गया है।” दिखता था कि वे समाधि में थे। इस समय उनकी अवस्था उन्तालीस वर्ष की थी। अगले दिन संघर्ष, त्याग और तपस्या का प्रतीक वह महापुरुष संन्यासी गुरु भाई और शिष्यों के कंधां पर जय-जयकार की ध्वनि के साथ चिता की ओर जा रहा था। वातावरण में जैसे ये शब्द अब भी गूँज रहे थे - “शरीर तो एक दिन जाना ही है, फिर आलंसियों की भाँति क्यों जिया जाए। जंग लगकर मरने की अपेक्षा कुछ करके मरना अच्छा है। उठो जागो और अपने अन्तिम लक्ष्य की पूर्ति हेतु कर्म में लग जाओ।

शनिवार, 20 नवंबर 2021

टीपू सुल्तान TIPU SULTAN | MYSORE

टीपू सुल्तान 

TIPU SULTAN


टीपू सुल्तान हैदरअली का पुत्र था और इसका जन्म सन् 1753 ई. में हुआ था। इसके पिता मैसूर के शासक थे। कुछ लोग समझते हैं कि हैदरअली मैसूर का राजा था। यह बात नहीं है। हैदरअली ने अपने को कभी राजा नहीं बनाया। मैसूर के राजा की मृत्यु के बाद उसने उनके छोटे पुत्र को जिसकी अवस्था तीन-चार वर्ष की थी, राजा घोषित कर दिया और उन्हीं के नाम पर सब काम-काज करता रहा। उसने धीरे-धीरे मैसूर राज्य की सीमा बढ़ा ली थी। कुछ पढ़ा-लिखा न होने पर भी उसको सेना सम्बन्धी अच्छा ज्ञान था। उसका सहायक खांडेराव एक महाराष्ट्री था।

टीपू जब तीस साल का हुआ, हैदरअली की मृत्यु हुई। युद्ध तथा शासन का तब तक उसे बहुत अच्छा ज्ञान हो गया था। उस समय भारत में इंग्लैण्ड की ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपना राज्य फैला रही थी। हैदर अली कई बार कम्पनी से लड़ा था जिसके कारण टीपू को अंग्रेजों से लड़ने के रंग-ढंग की जानकारी हो गयी थी। इस युद्ध में टीपू ने नये ढंग के आक्रमण का तरीका निकाला था। वह एकाएक बहुत जोरों से बिजली की भाँति आक्रमण करता था और शत्रु के पैर उखड़ जाते थे। हैदरअली स्वयं पढ़ा-लिखा नहीं था परन्तु टीपू की शिक्षा की उसने अच्छी व्यवस्था कर दी थी। अत: टीपू शिक्षित भी था और घुड़सवारी में भी निपुण था।

जिस समय टीपू को पिता की मृत्यु का समाचार मिला वह भारत के पश्चिम मालाबार में अंग्रेजों से लड़ रहा था। उसने लड़ाई छोड़ना ही उचित समझा। वहाँ सभी दरबारियों तथा मन्त्रियों ने इनको ही सहायता दी और टीपू मैसूर की बड़ी सेना का सेनापति बनाया गया।

इसके बाद उसे अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने का प्रबन्ध करना था। अंग्रेजों ने मराठों से सन्धि कर ली और टीपू पर आक्रमण किया। इस लड़ाई में टीप और अंग्रेजों को पराजित किया। टीप ने अपनी सहायता के लिए कुछ फ्रेंच सिपाही भी रखे थे जो उन दिनों भारत में थे। अंग्रेजों ने टीप से सन्धि की प्रार्थना की। इस सन्धि की बातें करने के लिए अंग्रेजों की ओर से एक दल आया और टीप से अंग्रेजों की सन्धि हो गयी किन्तु अंग्रेजों ने ये सन्धि इसलिए की थी कि हमें समय मिल जाय जिसमें हम और तैयारी को चूर कर ले और टीपू की सारी शक्ति को चूर कर डाले। टीपू को इसका ध्यान न रहा। वह समझता था कि मैंने अंग्रेजों को हरा दिया है, मेरी शक्ति उनके बराबर तो है ही। यहीं उसने धोखा खाया। उसने शत्रु की शक्ति का अनुमान ठीक नहीं लगाया। फ्रेंच सैनिकों ने भी टीप के इस विचार का समर्थन किया। इतना ही नहीं, उन लोगां ने उसे भड़काया भी था।

उन लोगों का विचार था कि यदि अवसर मिले तो टीपू की सहायता से अंग्रेजों को भारत के दक्षिण से निकालकर स्वयं वहाँ राज्य करें। इन बातों से टीपू का उत्साह बढ़ गया। टीपू ने फ्रांस से कुछ सहायता पाने की आशा की, कुछ जगह पत्र भी लिखा। उसका यही अभिप्राय था कि अंग्रेजों को भारतवर्ष से निकाल दिया जाये। अंग्रेजों को इस बात का पता लग गया और उन्होंने टीपू को समय देना उचित न समझा। उन्होंने टीपू के विरुद्ध सेना भेज दी। इस बार अंग्रेजों और टीपू के बीच कई बार घमासान लड़ाइयाँ हुईं और अन्त में टीपू घिर गया। कुछ दिनों के बाद टीपू लड़ते हुए मारा गया।

टीपू को विजय प्राप्त नहीं हुई, यह उसका दुर्भाग्य था। किन्तु यदि उसे सचमुच सहायता मिली होती तो अंग्रेजों का राज्य भारतवर्ष में शायद दृढ़ न हो पाता और हमारे देश का इतिहास बदल गया होता। यदि वह अंग्रेजों से ले देकर सन्धि कर लेता तो उसे कोई कठिनाई न होती किन्तु उसने ऐसा नहीं किया और इसी कारण अंग्रेज भी उसका नाश करने पर तुले हुए थे।

टीपू ने अपने राज्य में अनेक सुधार किये थे। उस समय वहाँ ऐसी प्रथा थी कि एक स्त्री कई पुरुषों से विवाह कर सकती थी। यह प्रथा उसने बन्द कर दी और नियम बनाया कि जो ऐसा करेगा उसे कठोर दण्ड दिया जायेगा। वह स्वयं शराब नहीं पीता था और उसके राज्य में शराब पीना अपराध था। उसकी पढ़ने-लिखने में रुचि थी और उसका निजी पुस्तकालय था। उन दिनों पुस्तकालय बनाना कठिन था क्योंकि छापाखाना नहीं था और हाथ से लिखी पुस्तकें ही मिलती थीं। उन पुस्तकों से पता चलता है कि साहित्य के साथ साथ टीपू की कविता, गणित, ज्योतिष, विज्ञान तथा कला में भी रुचि थी। टीपू का जीवन आमोद-प्रमोद में नहीं बीतता था। सबेरे से सन्ध्या तक वह परिश्रम करता था और चाहता था कि दूसरे भी इसी प्रकार राज्य का काम-काज करें। उसने तिथियाँ सूर्य-वर्षों के अनुसार चलायी थीं। युद्ध-कला पर उसने एक पुस्तक भी लिखी। उसकी स्पष्ट आज्ञा थी युद्ध के पश्चात् लूटपाट में स्त्रियों को कोई न छुए। अपनी माता का वह बहुत सम्मान करता था और सदा उनकी आज्ञा का पालन करता था।

टीपू ने अपने पिता के सम्मुख युवावस्था में लिख कर प्रतिज्ञा की थी कि मैं झूठ कभी नहीं बोलूँगा, धोखा किसी को नहीं दूँगा, चोरी नहीं करूँगा और जीवन के अन्त तक उसने इस परतिज्ञा का पालन किया।

टीपू हिन्दू-मुस्लिम मेल-जोल का पक्षपाती था। उसकी सेना में तथा मन्त्रि मण्डल में सभी धर्मों के अनुयायी थे। हाँ, धोखा देने वालों के साथ उसका व्यवहार कठोर होता था और उन्हें वह दण्ड देता था।

टीप, वह वीर था जिसने अपने देश को विदेशियों के चंगुल से छुड़ाने का कठिन प्रयत्न किया। उसे सफलता नहीं मिली, किन्तु उसके महान होने में कोई सन्देह नहीं है।

गोस्वामी तुलसीदास | TULSIDAS | भक्तिकाल | रामभक्तिशाखा

गोस्वामी तुलसीदास 

लगभग चार सौ वर्ष पहले तीर्थ शूकरखेत (आज सोरां, जिला-एटा, उ0प्र0) में संत नरहरिदास का आश्रम था। वे विद्वान उदार और परम भक्त थे। वे अपने आश्रम में लोगों को बड़े भक्ति-भाव से रामकथा सुनाया करते थे। एक दिन जब नरहरिदास कथा सुना रहे थे, उन्होंने देखा भक्तों की भीड़ में एक बालक तन्मयता से कथा सुन रहा है। बालक की ध्यान मुद्रा और तेजस्विता देख उन्हें उसके महान आत्मा होने की अनुभूति हुई। उनकी यह अनुभूति बाद में सत्य सिद्ध भी हुई। यह बालक कोई और नहीं तुलसीदास थे। जिन्होंने अप्रतिम महाकाव्य 'रामचरित मानस' की रचना की।

तुलसीदास का जन्म यमुना तट पर स्थित राजापुर (चित्रकूट) में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्मा राम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद है। जन्म के कुछ ही समय बाद इनके सिर से माँ बाप का साया उठ गया। सन्त नरहरिदास ने अपने आश्रम में इन्हें आश्रय दिया। वहीं इन्होंने रामकथा सुनी। पन्द्रह वर्षों तक अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने के पश्चात् तुलसीदास अपने जन्म स्थान राजापुर चले आए। यहीं पर उनका विवाह रत्नावली के साथ हुआ। एक दिन जब तुलसी कहीं बाहर गये हुए थे, रत्नावली अपने भाई के साथ मायके (पिता के घर) चली गयीं। घर लौटने पर तुलसी को जब पता चला, वे उल्टे पाँव ससुराल पहुँच गए। तुलसी को देखकर उनके ससुराली जन स्तब्ध रह गए। रत्नावली भी लज्जा और आवेश से भर उठी। उसने धिक्कारते हुए कहा 'तुम्हें लाज नहीं आती, हाड़- माँस के शरीर से इतना लगाव रखते हो। इतना प्रेम ईश्वर से करते तो अब तक न जाने क्या हो जाते।' पत्नी की तीखी बातें तुलसी को चुभ गयीं। वे तुरन्त वहाँ से लौट पड़े। घर-द्वार छोड़कर अनेक जगहों में घूमते रहे फिर साधु वेश धारण कर स्वयं को श्रीराम की भक्ति में समर्पित कर दिया।

काशी में श्री राम की भक्ति में लीन तुलसी को हनुमान के दर्शन हुए। कहा जाता है कि उन्होंने हनुमान से श्रीराम के दर्शन कराने को कहा। हनुमान ने कहा राम के दर्शन चित्रकूट में होंगे। तुलसी ने चित्रकूट में राम के दर्शन किए। चित्रकूट से तुलसी अयोध्या आये। यहीं सम्वत् 1631 में उन्होंने 'रामचरित मानस की रचना प्रारम्भ की। उनकी यह रचना काशी के अस्सी घाट में दो वर्ष सात माह छब्बीस दिनों में सम्वत् 1633 में पूरी हुई। जनभाषा में लिखा यह ग्रन्थ रामचरित मानस, न केवल भारतीय साहित्य का बल्कि विश्व साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है। इसका अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं के साथ विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है। रामचरित मानस में श्रीराम के चरित्र को वर्णित किया गया है। इसमें जीवन के लगभग सभी पहलुओं का नीतिगत वर्णन है। भाई का भाई से, पत्नी का पति से, पति का पत्नी से, गुरु का शिष्य से, शिष्य का गुरु से, राजा का प्रजा से कैसा व्यवहार होना चाहिए, इसका अति सजीव चित्रण है। राम की रावण पर विजय इस बात का प्रतीक है कि सदैव बुराई पर अच्छाई, असत्य पर सत्य की विजय होती है।

तुलसी ने जीवन में सुख और शान्ति का विस्तार करने के लिए जहाँ न्याय, सत्य और प्राणिमात्र से प्रेम को अनिवार्य माना है वहीं दूसरों की भलाई की प्रवृत्ति को मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म कहा है। उनकी दृष्टि में दूसरों को पीड़ा पहँचाने से बड़ा कोई पाप नहीं है। उन्होंने लिखा है कि

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।“

रामचरित मानस के माध्यम से तुलसीदास ने जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। इसी कारण रामचरित मानस केवल धार्मिक ग्रन्थ न होकर पारिवारिक, सामाजिक एवं नीतिसम्बन्धी व्यवस्थाओं का पोषक ग्रन्थ भी है। तुलसी ने रामचरित मानस के अलावा और भी ग्रन्थों की रचना की है जिनमें विनय पतिका, कवितावली, दोहावली, गीतावली आदि प्रमुख हैं।

तुलसीदास समन्वयवादी थे। उन्हें अन्य धर्मा मत-मतान्तरों में कोई विरोध नहीं दिखायी पड़ता था। तुलसीदास जिस समय हुए उस समय मुगल सम्राट अकबर का शासन काल था। अकबर के अनेक दरबारियों से उनका परिचय था। अब्दुर्रहीम खानखाना से जो स्वयं बहुत बड़े विद्वान तथा कवि थे, तुलसीदास की मित्रता थी। उन्होंने तुलसीदास की प्रशंसा में यह दोहा कहा -

सुरतिय, नरतिय, नागतिय, यह चाहत सब कोय।

गोद लिए हलसी फिरे, तुलसी सो सुत होय।।

तुलसीदास अपने अंतिम समय में काशी में गंगा किनारे अस्सीघाट में रहते थे। वहीं इनका देहावसान सम्वत् 1680 में हुआ। इनकी मृत्यु को लेकर एक दोहा प्रसिद्ध है -

“संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।

श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।“

भक्त, साहित्यकार के रूप में तुलसीदास हिन्दी भाषा के अमूल्य रत्न हैं।

दानवीर राजा हर्षवर्धन | RAJA HARSHA | रत्नावली | नागानन्द | प्रियदर्शिका

दानवीर राजा हर्षवर्धन 

ईसा की सातवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध की बात है। प्रयाग में बहुत बड़े दान-समारोह का आयोजन किया गया था। सम्पूर्ण भारत से लोग दान-दक्षिणा पाने के लिए एकत्र थे। राजा दान-दक्षिणा की सभी वस्तुओं को यहाँ तक कि राजकोष की सम्पूर्ण सम्पत्ति और अपने शरीर के समस्त आभूषणों को जब दान दे चुका तो एक व्यक्ति ऐसा रह गया जिसे देने के लिए उसके पास कुछ शेष नहीं था। दानार्थी बोला- राजन्! आपके पास मुझे देने के लिए कुछ नहीं बचा है। मैं वापस जाता हूँ। राजा ने कहा- ठहरो, अभी मेरे वस्त्र शेष हैं जिन्हें मैंने दान नहीं दिया है और पास खड़ी बहन से अपना तन ढकने के लिए दूसरा वस्तर मांग कर उसने अपना उत्तरीय उतार कर उस याचक को दे दिया। गद्गद् स्वर से जनसमूह ने हर्ष ध्वनि की…. राजा चिरंजीव हों उनका यश अमर रहे आदि नारे लगाए।

जन-जन को अपनी दानशीलता से मुग्ध करने वाला यह राजा और कोई नहीं, दानवीर हर्षवर्धन था।

590 ई. के ज्येष्ठ माह में रानी यशोमती के गर्भ से हर्ष का जन्म हुआ था। उनके पिता प्रभाकर वर्धन थानेश्वर के योग्य एवं प्रतापी शासक थे, जिन्होंने भारत पर आक्रमण करने वाले हूणों का बड़ी कुशलता से दमन किया था। पिता की मृत्यु के बाद हर्षवर्धन के बड़े भाई, राज्यवर्धन गद्दी पर बैठे। इसी बीच मालवा के राजा देवगुप्त ने हर्ष की छोटी बहन राज्यश्री के पति ग्रहवर्मा की हत्या कर दी। गहवर्मा कन्नौज का राजा था। राज्यश्री को कैद करके कारागार में डाल दिया गया था। इस अपमान का बदला लेने के लिए राजवर्धन ने मालवा पर चढ़ाई कर दी और युद्ध में विजयी हुआ किन्तु लौटते समय बंगाल के राजा शशांक द्वारा मार डाला गया। हर्ष अभी सोलह वर्ष का नहीं हुआ था। भाई राज्यवर्धन की मृत्यु पर अत्यधिक दुःखी हुआ और राजपाट छोड़ने को तैयार हो गया। इस पर मन्त्रियों ने उसे बहुत समझाया और राजा बनने की सविनय प्रार्थना की, तब शीलादित्य उपनाम ग्रहण करके वर्ष 606 ई. में वह कन्नौज के सिंहासन पर बैठा। अब तरुण हर्ष के सामने दो काम थे। एक तो अपनी बहन को ढूँढ़कर लाना, दूसरे अपने भाई के हत्यारों को दण्ड देना। इसके लिए उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वह इस दोहरी स्थिति से अत्यधिक उद्विग्न हो गया था। इसी बीच हर्ष के कर्मचारियों ने उसे दिग्विजय के लिए प्रेरित किया। हर्ष ने पहले शशांक को परास्त किया, उसके बाद बहन राज्यश्री का पता लगाया, जो पति की मृत्यु से दुखी होकर जंगल में चिता में जलने जा रही थी। अपनी बहन को वह ले आया और उसे जीवन पर्यन्त अपने पास रखा।

इसके बाद हर्ष ने उत्तरी भारत के विभिन्न राज्यों को जीत कर अपने अधिकार में कर लिया और अपने राज्य में पूर्ण शान्ति स्थापित की। दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त करने में वह असफल रहा। चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय नामक राजा ने उसे नर्मदा नदी से आगे नहीं बढ़ने दिया। हर्ष एक कुशल सेनापति एवं शूरवीर योद्धा था। नेतृत्व करने की उसमें अपूर्व क्षमता थी। जिसके बल पर उसने 30 वर्ष से अधिक समय तक शान्तिपूर्वक राज्य किया।

हर्ष एक प्रजावत्सल राजा था। प्रजा के हित के लिए उसने अनेक महान कार्य किये। हर्ष के कार्य-कलापों के विषय में विशेष वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग के लेखों में मिलता है जो 630 ई. में भारत में बौद्ध धर्म के पवित्र स्थानों को देखने तथा बौद्ध धर्म के पवित्र ग्रन्थों को लेने आया था।

हर्ष के समय में भारत को अपने इतिहास के एक अत्यन्त भव्य युग को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हर्ष धार्मिक विषयों में उदार और विद्या प्रेमी था। प्रयाग की सभा में वह सभी वर्णां, जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोगों को निष्पक्ष होकर दान देता था। बुद्ध की मूर्ति के साथ-साथ सूर्य और शिव की मूर्तियों का भी सम्मान करता था। वह इतना बड़ा दानी था कि युद्ध सामग्री के अतिरिक्त सब कुछ दान देता था। उसने नगरों तथा गाँवों के राजमार्गों पर धर्मशालाएं बनवायीं जिनमें भोजन और चिकित्सा का प्रबन्ध था।

हर्ष स्वयं विद्वान होने के साथ-साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था। बाणभट्ट हर्ष के दरबारी कवि थे। बाणभट्ट ने हर्ष के काव्य कौशल, ज्ञान और उनकी मौलिकता की भूरि भूरि प्रशंसा की है। हर्ष ने संस्कृत भाषा में “रत्नावली”, “नागानन्द", और “प्रियदर्शिका” नामक नाटक लिखे। साथ ही एक व्याकरण ग्रंथ की भी रचना की। प्राचीन भारत की साहित्यिक समालोचना में हर्ष को उच्च श्रेणी का कवि माना जाता।

उक्त रचनाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य निबन्ध हैं जिनकी रचना का श्रेय हर्ष को ही दिया जाता है। हर्ष सरकारी जमीन की आय का एक चतुर्थांश विद्वानों को पुरस्कृत करने में और दूसरा चतुर्थांश विभिन्न सम्प्रदायों को दान देने में खर्च करता था। विद्वान कवियों के अतिरिक्त अच्छे धर्म प्रचारक भी उसकी राजसभा की शोभा बढ़ाते थे। इनमें सागरमति, प्रज्ञारश्मि, सिंहरश्मि और ह्वेनसांग आदि प्रमुख हैं।

हर्ष की नीति अहिंसावादी थी। उसने अपने राज्य में सर्वत्र माँसाहार का निषेध कर दिया था। उसने जीव हिंसा पर रोक लगा दी थी तथा कठोर दण्ड का प्रावधान कर दिया था। हर्ष के समय में वास्तुकला, शिल्प, गृहनिर्माण के अतिरिक्त विविध कलाओं में भी भारत बहुत उन्नत था। ह्वेनसांग ने उस काल के नाना प्रकार के वस्त्रों का विशेष उल्लेख किया है। नगरों में कन्नौज, प्रयाग, मथुरा, थानेश्वर, हरिद्वार, रामपुर, पीलीभीत, अयोध्या, कौशाम्बी, वाराणसी, रंगपुर आदि विशेष रूप से समृद्ध एवं विकसित थे। ये नगर स्तूपों, विहारों, मन्दिरों, अतिथि भवनों, धर्मशालाओं एवं सब प्रकार की सुख सुविधाओं से पूर्ण थे।

हर्ष के शासनकाल में भारत का आन्तरिक शासन-सुव्यवस्थित हो गया था जिसके फलस्वरूप विद्या, व्यापार, संस्कृति, कला आदि क्षेत्रों में बहुमुखी विकास हुआ और पड़ोसी देशों में भी इसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह लोग भारत को विवेक और संस्कृति का केन्द्र मानकर अपनी ज्ञान पिपासा को तृप्त करने के लिए इस पुण्यभूमि की शरण में आए।

हर्ष बहुमुखी प्रतिभा और विलक्षण चरित्र के कारण एक साथ ही राजा, कवि, योद्धा, विद्वान राजसी और साधु स्वभाव के थे। बौद्ध धर्म का अध्ययन पूरा कर चीन लौटते समय ह्वेनसांग ने कहा था।

“मैं अनेक राजाओं के सम्पर्क में आया किन्तु हर्ष जैसा कोई नहीं। मैंने अनेक देशों में भ्रमण किया है किन्तु भारत जैसा कोई देश नहीं। भारत वास्तव में महान देश है और उसकी महत्ता का मूल है उसकी जनता तथा हर्ष जैसे उसके शासक।"