शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

श्रम विभाजन और जाति प्रथा | बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर | BHIMRAO RAMJI AMBEDKAR |

श्रम विभाजन और जाति प्रथा
बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर

यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी 'जातिवाद' के पोषकों की कमी नहीं हैं। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज 'कार्य-कुशलता' के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही है कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का स्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

जाति-प्रथा को यदि श्रम मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह वश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दृषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उस में पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति-प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता। 'पूर्व लेख' ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना गा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह बहुत से लोग 'निर्धारित' कार्य को 'अरुचि' के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अत : यह निर्विवाद रूप से हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणारुचि व आत्म-शक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय बना देती है।

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

अन्याय के खिलाफ | अल्लूरी श्रीराम राजू | आंध्र प्रदेश के कोया आदिवासी | ALLURI SITARAMA RAJU | ANYAAY KE KHILAF | ADIVASI (TRIBAL) | CBSE | CALSS VIII | HINDI

अन्याय के खिलाफ

 आंध्र प्रदेश के कोया आदिवासी
अल्लूरी श्रीराम राजू 


बात 1922 की है। उन दिनों अंग्रेजों का शासन था। भारत देश अंग्रेजों का गुलाम था। अपने लोगों को तरह-तरह के अत्याचार सहने पड़ते थे। अंग्रेज शासन ने अपने स्वार्थ पूरे करने के लिए भारत के लोगों को बहुत डरा-धमका कर रखा था। पर उनकी धमकियों के खिलाफ़ लड़ने की हिम्मत रखने वाले भी लोग थे। ऐसे ही लोग थे आंध्र प्रदेश के कोया आदिवासी और उनके नेता का नाम था अल्लूरी श्रीराम राजू।

आंध्र के घने जंगलों के बीच रहने वाले कोया आदिवासी सीधी-सादी खेती के माध्यम से अपनी रोजी - रोटी जुटाया करते थे। पर जब से अंग्रेजों ने उनके बीच आकर अपना हक जमाया, उनका जीवन मुश्किल हो गया।

अंग्रेजों की योजना थी कि घने जंगलों और पहाड़ों को चीरती हुई एक सड़क बिछाई जाए। पर सड़क के निर्माण कार्य के लिए मजदूर कहाँ से आएँगे? यह सवाल जब तहसीलदार महोदय के सामने आया तो उनकी निगाह कोया आदिवासियों पर पड़ी। तहसीलदार का नाम था बेस्टीयन। बेस्टीयन को शासन द्वारा सड़क बनवाने का काम सौंपा गया था।

बेस्टीयन स्वभाव से बहुत अक्खड़ और क्रूर था। वह आदिवासियों के गाँवों में गया और बड़े घमंड के साथ खूब चिल्ला-चिल्लाकर बोला, "दो दिन में जंगल में सड़क बनाने का काम शुरू होगा। तुम सब लोगों को इस काम पर पहुंचना है। अगर नहीं पहुंचे तो ठीक नहीं होगा। अंग्रेज सरकार का हुक्म है, यह जान लो।" आदिवासी लोग चुप हो गए। वे उन घने जंगलों के बीच अकेले पड़े थे। वे कुछ पूछे तो किससे, कुछ करें तो क्या? किसी ने हिम्मत करके तहसीलदार से पूछना चाहा कि काम करेंगे तो बदले में क्या मिलेगा? तो बेस्टीयन का चेहरा तमतमा गया, "क्या मिलेगा? हुक्म बजाना नौकर का काम है। आगे से यह सवाल मत पूछना।"

आदिवासी सहम गए। काम पर जाने लगे। पर उनका मन नहीं मानता था। वे अपमान से अंदर ही अंदर घुट रहे थे और गुस्से से सुलग रहे थे।

उन्हीं दिनों एक साधु जंगलों में आकर रहने लगा था। उस साधु का नाम था, अल्लूरी श्रीराम राजू। श्रीराम राजू ने हाई स्कूल तक पढ़ाई की थी। उसके बाद अगली पढ़ाई छोड़कर वह 18 वर्ष की उम्र में ही साधु बन गया। जब वह उन जंगलों में रहने आया तो आदिवासी लोगों से अच्छी तरह हिल-मिल गया। लोग उसे अपने दुख- दर्द की कहानी सुनाते और पूछते कि कैसे अपने कष्टों से छुटकारा पाएँ।

श्रीराम राजू ने आदिवासियों से कहा, “अत्याचार के सामने दबना नहीं चाहिए। तुम लोगों को काम पर जाने से मना करना चाहिए।

"उसकी बात सुनकर आदिवासियों में हिम्मत आई। श्रीराम राजू ने उन्हें यह भी बताया कि देश में और लोग भी अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ लड़ रहे हैं। उनमें एक मशहूर नेता हैं, जिनका नाम गांधी जी है। गांधी जी का कहना है कि भारत के लोगों को अंग्रेजी सरकार का सहयोग नहीं करना चाहिए। अगर कोई अंग्रेज़ अन्याय करेगा तो हम अन्याय सहने से इंकार करेंगे।

यह सब सुनकर कोया आदिवासियों का दिल मजबूत हुआ। फिर क्या था, विद्रोह की ऐसी आग भड़की कि अंग्रेजों के होश उड़ गए। भोले-भाले आदिवासियों के मन में भरा सारा अपमान, दुख और क्रोध फूट के निकल पड़ा। भद्राचलम से परवथीपुरम तक पूरे इलाके के आदिवासी लोग अन्याय के खिलाफ़ लड़ने के लिए कूद पड़े। अंग्रेज सरकार के ऐसे छक्के छूटे कि आसपास के राज्यों से सेना बुलानी पड़ी, पर अंग्रेजों की इतनी भारी सेना भी दो साल तक विद्रोह को दबा न पाई।

जब सँकरी पगडंडियों से सेना की टुकड़ी गुजर रही होती तो जंगलों में छिपे आदिवासी भारतीय सिपाहियों को गुजर जाने देते और जैसे ही अंग्रेज़ सारजेंट या कमांडर नजर आते तो उन पर अचूक निशाना लगाते। आदिवासियों के विद्रोह से अंग्रेज़ सरकार इतना डरने लगी थी कि राजू के दल को आते देखकर थानों से पुलिस भाग जाती थी। श्रीराम राजू ने आदिवासियों से कह रखा था कि अंग्रेजों से लड़ो पर एक भी भारतीय सैनिक का बाल बाँका न होने पाए। अंग्रेजों की सेना में बहुत से भारतीय सिपाही भी थे। राजू के आदेश का सख्ती से पालन हुआ। जब वह पहाड़ों से कूच करता था, मानो उन्हें किसी का भय न हो। आदिवासी लोग पुलिस चौकियों या सेना पर हमला कर देते थे और उनके अस्त्र-शस्त्र लूटकर भाग जाते थे।

राजू ने एक कोने से दूसरे कोने तक गुप्त संदेश पहुँचाने के लिए गुप्तचरों का जाल फैला रखा था। अंग्रेजी सेना के आने जाने के संदेश ऐसे पहुँचाए जाते कि किसी को कानों कान खबर न हो। यह सब देखकर अंग्रेजों ने भी अपने दाँतों तले उँगली दबा ली।

जंगलों और पहाड़ों में राजू के लोग बड़ी फुर्ती से छिपते-फिरते। ऐसे इलाके में हथियारों से लदी अंग्रेजों की भारी-भरकम सेना अपने आपको कमजोर महसूस करने लगती थी। राजू के लोगों को गाँव-गाँव का सहारा था। गाँव के लोग विद्रोहियों को शरण देते और लाख कोशिश करने पर अंग्रेज़ उनकी खबर नहीं लगा पाते। फिर अंग्रेजों को एक तरकीब सूझी। उन्होंने सोचा कि आदिवासियों को लड़ाई में तो हरा नहीं पाएंगे, अब इन्हें भूखे रखकर मारना पड़ेगा। अंदर जंगल के गाँवों में राशन लाने वाले सारे रास्ते बंद कर दिए गए। किसी को भी सामान का एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना मुश्किल हो गया। लोगों की बंदूकों के कारतूस खत्म हो गए। इसके कारण अंग्रेजों के सिपाही गाँवों में घुसकर लोगों को मारने-पीटने लगे। यहाँ तक की ठगी हुई फसल को भी जलाया जाने लगा।

आदिवासियों की हिम्मत जवाब देने लगी। आखिर कब तक यह तकलीफ़ बर्दाश्त की जा सकती थी। कुछ साथी पुलिस की पकड़ में आ गए थे। एक बार राजू भी पुलिस की गिरफ्त में आकर बुरी तरह जख्मी हो गया था। लोग परेशान होकर राजू पास पहुँचते। राज भी परेशान था। उससे उनका दुख देखा नहीं गया। राजू ने सोचा कि अगर मैं अंग्रेजों के सामने आत्म-समर्पण कर दूँ तो अंग्रेज इन हजारों लोगों को रोज़ सताना बंद कर देंगे। उसने देखा कि दो वर्षों के इतने लंबे संघर्ष के बाद लोगों में कठिनाइयों का सामना करने की तैयारी नहीं रह पाई है और अंग्रेज सरकार तो उन्हें भूखा मारकर ही छोड़ेगी।

यह सोचकर श्रीराम राजू अपने आपको अंग्रेजों के हवाले सौंपने चला। सेना के मेजर गुडॉल, मम्पा गाँव में डेरा डाले हुए थे। राजू को गिरफ्तार करके उसके सामने पेश किया गया। गिरफ्तारी की खबर सुनकर आसपास के गाँवों के लोग बड़ी संख्या में वहाँ इकट्ठे होने लगे।

मेजर गुडॉल मन ही मन बहुत अधिक खुश हो रहा था। उसे कहाँ उम्मीद थी कि उनका शिकार खुद जाल में फँसने चला आएगा। राजू माँग कर रहा था कि उसे कचहरी में पेश किया जाए और कानून के हिसाब से उसके साथ बर्ताव हो। पर गुडॉल का कोई इरादा नहीं था कि कोर्ट-कचहरी के चक्कर में राजू को अपनी जान बचाने का ज़रा भी मौका मिले। बस, उसके इशारे पर एक सिपाही ने राजू पर गोली चलाई और उसका काम तमाम कर दिया गया।

इस तरह अल्लूरी श्रीराम राजू अपने लोगों खातिर शहीद हुआ। इसके बाद कोया आदिवासियों का आंदोलन टूट गया। पर अंग्रेज सरकार ने अच्छा-खासा पाठ पढ़ लिया था। वे समझ गए थे कि आदिवासियों के साथ मनमर्जी नहीं की जा सकती। तब से आदिवासियों के हितों की रक्षा करने के लिए विशेष कोशिश करने का फैसला हुआ अपने देश के इतिहास में कोया आदिवासियों ने अन्याय के खिलाफ लड़ने की मिसाल स्थापित की।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर | ISHWAR CHANDRA VIDYASAGAR | CBSE | CLASS VI | HINDI

ईश्वरचंद्र विद्यासागर


ईश्वरचंद्र विद्यासागर प्रसिद्ध विद्वान् और समाज सुधारक थे। वे बंगाल के निवासी थे। बंगाल में उनका बहुत सम्मान था। वे सादा जीवन उच्च विचार वाले महापुरुष थे।

एक दिन एक युवक उनसे मिलने उनके गाँव मिदनापुर आया। वह रेलगाड़ी से स्टेशन पर उतरा। उसके पास एक सूटकेस था। स्टेशन पर कुली नहीं था। उस युवक को बहुत गुस्सा आया। वह बोला, यह अजीब स्टेशन है। यहाँ एक भी कुली नहीं है।

उसी गाड़ी से एक और आदमी उतरा। वह बहुत सादी पोशाक में था। वह आधी बाँह का कुर्ता, धोती और चप्पल पहने था। वह आदमी उस युवक के पास आया और बोला, 'क्या बात है भाई?' युवक बहुत गुस्से में था। वह बोला, 'यह कैसा स्टेशन है? यहाँ एक भी कुली नहीं है। मेरे पास सामान है। 'तब वह आदमी बोला, 'लाइए मैं आपका सामान उठा लूँ। वह आदमी युवक का सूटकेस उठाकर स्टेशन से बाहर आया। जब उस युवक ने मजदूरी के पैसे देने चाहे तो वह व्यक्ति बोला, 'मुझे पैसे नहीं चाहिए।' वहाँ कुछ बैलगाड़ियाँ खड़ी थीं। युवक एक बैलगाड़ी में बैठ गया।

दूसरे दिन सवेरे वह युवक ईश्वरचंद्र के घर आया। घर के बाहर एक आदमी खड़ा था। यह वही आदमी था जिसने कल रात उसका सामान उठाया था। युवक बोला, 'क्या विद्यासागर जी यहीं रहते हैं।'

उस आदमी ने कहा, जी हाँ, आइए अंदर बैठिए।

युवक ने पूछा, 'विद्यासागर जी कहाँ हैं?'

उस आदमी ने कहा, 'मैं ही विद्यासागर हूँ।'

युवक को बहुत शर्म आई और उसने विद्यासागर जी से माफी माँगी। फिर बोला, 'कल मुझसे भूल हुई। अब मैं समझ गया कि कोई काम बड़ा या छोटा नहीं होता। अपना काम स्वयं करना चाहिए।

पोंगल/संक्रांति | विविधता में एकता भारत की विशेषता | PONGAL | SANKRANTH I CBSE | CLASS VII | HINDI | INDIA

पोंगल/संक्रांति 

विविधता में एकता भारत की विशेषता 

भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारतीय किसान का जीवन प्रकृति से जुड़ा रहता है। वह प्रकृति के साथ ही हँसता-रोता है, नाचता गाता है। बुआई, सिंचाई, निराई आदि खेती-बाड़ी के सारे काम वह मौसम के अनुसार करता है। जब चारों तरफ हरियाली छा जाती है, वृक्ष लताएँ फूलों से लद जाती हैं तब मानव भी गुनगुनाने लगता है। जब खेत-खलिहान अनाज से भर जाते हैं तब उसके पाँव थिरक उठते हैं, वह उत्सव मनाने के लिए मचल उठता है। त्योहारों का जन्म यहीं से होता है।

पोंगल नयी फसल का त्योहार है। यह संक्रांति के दिन मनाया जाता है। तमिलनाडु, आध्रप्रदेश और तेलंगाना का यह प्रमुख त्योहार है। यह जनवरी में मनाया जाता है। 'पोंगल' में खेतों से सुनहरे रंग का नया धान कटकर किसान के घर आता है। गन्ने के खेत की फसल तैयार होती है। बगीचे में हल्दी का पौधा लहलहा उठता है। इन्हें देखकर किसान का मन नाच उठता है। उसके जीवन में मिठास आ जाती है। संक्रांति के दिन नए चावल का मीठा भात बनाकर सूर्य को चढ़ाया जाता है। इसी मीठे भात को पोंगल कहते हैं। इसी से त्योहार का नाम पोंगल पड़ा है।

तमिलनाडु, आध्रप्रदेश और तेलंगाना में पोंगल त्योहार पौष मास में आरंभ के चार दिनों तक मनाया जाता है। पोंगल के पहले दिन लोग 'भोगी' का त्योहार मनाते हैं। पूरे घर की सफ़ाई की जाती है। इससे पर्यावरण स्वच्छ हो जाता है। भोगी के दिन शाम को बच्चे ढोल और बाजे बजाकर खुशियाँ मनाते हैं।

पोंगल के दिन घर आँगन को रंगोली से सजाते हैं। नहा-धोकर सभी लोग नए कपड़े पहनते हैं। उस दिन सब कुछ नया होता है। आँगन में अँगीठी जलाकर नए बर्तन में पोंगल पकाया जाता है। बर्तन में हल्दी का पौधा बाँध दिया जाता है। गन्ने के रस में नयी फसल का चावल पकाया जाता है। जब चावल उबलकर ऊपर उठता है तो उसमें दूध डाल देते हैं। दूध के साथ उफनता हुआ पोंगल बर्तन के ऊपर से उमड़ता है और चारों ओर रिसकर आँच में टपक पड़ता है। उस समय चारों ओर इकट्ठे लोग खुशी से नाच उठते हैं और जोश में चिल्लाते हैं- ' पोंगलो पोंगल! 'उन्हें प्रसन्नता होती है कि सूर्य और अग्नि ने पोंगल का भोग स्वीकार कर लिया है। लोग अपने पास-पड़ोस में पोंगल बाँटते हैं। उसके बाद मित्र और सगे-संबंधी सब मिलकर बढ़िया भोजन करते हैं। पोंगल के दिन हर तमिल भाषी, तेलुगु भाषी चाहे वह भारत के किसी कोने में रहता हो अपने घर पहुँचने की कोशिश करता है। विवाहित लड़कियाँ पोंगल मनाने अपने मायके आती हैं। तीसरे दिन 'माट्टु पोंगल' मनाया जाता है। तमिल भाषा में 'माडु' गाय-बैलों को कहते हैं। 'माडु' का अर्थ 'धन' भी है। पुराने समय में गाय-बैल ही हमारी संपत्ति थे।

'माट्टु पोंगल के दिन गाय बैलों को अच्छी तरह लाया जाता है। लोग उनके सींगों को रंगते हैं और उन्हें रंगीन कपड़ों से सजाते हैं। लोग उनके गले में फूल-मालाएँ पहनाते हैं तथा उन्हें गुड़ और अच्छी-अच्छी चीजें खिलाते हैं। शाम को मैदान में बैलों को दौड़ाया जाता है।

चौथे दिन 'काणुम पोंगल' होता है। खाना बाँधकर पूरा परिवार घर से बाहर निकल पड़ता है। जगह-जगह मेले लगते हैं। लोग मेलों में घूमते हैं या आसपास के स्थान देखने के लिए चल पड़ते हैं। इस तरह चारों दिन लोग अपने दैनंदिन कामों से छुट्टी लेकर इस त्योहार का आनंद लेते हैं।

खेती से संबंधित यह त्योहार पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। गुजरात से लेकर बंगाल तक लोग इसे संक्रांति के नाम से मनाते हैं। उत्तर भारत में संक्रांति पर स्नान का महत्त्व है। गंगा, यमुना, नर्मदा, क्षिप्रा आदि नदियों में लोग स्नान करते हैं। चावल और मूंग की दाल की खिचड़ी बनाकर खाते-खिलाते हैं।

महाराष्ट्र में यह तिल-गुड़ का त्योहार है। तिल स्नेह का प्रतीक है और गुड़ मिठास का। लोग एक दूसरे को तिल-गुड़ देकर कहते हैं- "तिल-गुड़-घ्या, गोड बोला' अर्थात - तिल और गुड़ खाओ और मीठा बोलो। पंजाब में संक्रांति से एक दिन पहले 'लोहड़ी' का त्योहार मनाते हैं। 'लोहड़ी' का अर्थ है - 'छोटी' या छोटी संक्रांति। लोग अपने घर से बाहर, आँगन में या चौराहे पर लकड़ियाँ जमा करते हैं। संध्या के बाद स्त्री-पुरुष और बच्चे वहाँ इकट्ठे होते हैं और लोहड़ी जलाते हैं। नयी फसल का मक्का आग में डाला जाता है। यह खील की तरह फूल उठता है। लोग मक्के की फूली (खील) और तिल की रेवड़ियाँ बाँटते हैं। आपस में प्रेम से मिलते हैं। अरुणाचल प्रदेश में 'पानुङ' का त्योहार भी इसी समय मनाया जाता है।

विविधता में एकता भारत की विशेषता है। एक ही त्योहार को लोग विविध रूपों में मनाकर भारत की सांस्कृतिक एकता को मज़बूत बनाते हैं।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

दक्षिण भारत का एक प्रमुख पर्व ‘उगादी’ | 'UGADI' CELEBRATION | SOUTH FESTIVAL 'UGADI'

दक्षिण भारत का एक प्रमुख पर्व ‘उगादी’

पेडों पर सजती है नए पत्तों की बहार,
हरियाली से महकता प्रकृति का व्यवहार,
ऐसा सजता है उगादी का त्योहार.
मौसम भी करता नव वर्ष का सत्कार.
आप सबको उगादि का खुशियों भरा त्योहार की शुभकामनाएँ।

उगादी दक्षिण भारत का एक प्रमुख पर्व है। दक्षिण भारत में चंद्र पंचाग को मानने वाले लोगो द्वारा नव वर्ष मनाया जाता है। यह पर्व चैत्र माह के पहले दिन मनाया जाता है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक इन क्षेत्रों में नववर्ष के रुप में मनाते है। दक्षिण भारत में इस पर्व को काफी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है क्योंकि वसंत आगमन के साथ ही किसानों के लिए यह पर्व नयी फसल के आगमन का भी अवसर होता है। मुख्यतः उगादि का यह त्योहार उस समय आता है जब भारत में वसंत ऋतु अपने चरम पर होती है और इस समय किसानों को नयी फसल भी मिलती है। दक्षिण भारत में उगादी अवसर पर ब्रम्हाजी की पूजा की जाती है। लोक मानते है कि इस दिन ब्रम्हा जी ब्रह्माण्ड की रचना की थी।

उगादी के दिन एक विशेष पेय बनाने की भी प्रथा है, जिसे उगादी पच्चड़ी नाम से जाना जाता है। उगादी के दिन हमें पच्चड़ी पेय का सेवन अवश्य करना चाहिए। पच्चड़ी नामक यह पेय नई इमली, आम, नारियल, नीम के फूल, गुड़ जैसे चीजों को मिलाकर बनायी जाती है। लोगों द्वारा इस पेय को पीने के साथ ही आस-पड़ोस में भी बाँटा जाता है। उगादी पच्चड़ी हमें जीवन में यह ज्ञान कराता है कि जीवन में हमें मीठेपन तथा कड़वाहट भरे षङठ रूचियों की तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ता है। वर्षों तक मजबूत और स्वस्थ्य शरीर की प्राप्ति के लिए एवं विभिन्न प्रकार के धन की प्राप्ति तथा सभी प्रकार की नकरात्मकता का नाश करने के लिए हमें उगादि पच्चड़ी खाना चाहिए।

उगादी का यह पर्व हमें प्रकृति के और भी समीप ले जाने का कार्य करता है क्योंकि यदि इस त्योहार के दौरान पीये जाने वाले पच्चड़ी नामक पेय पर गौर करें तो यह शरीर के लिए काफी स्वास्थ्यवर्धक होता है। हमारे शरीर को मौसम में हुए परिवर्तन से लड़ने के लिए तैयार करता है और हमारे शरीर के प्रतिरोधी क्षमता को भी बढ़ाता है।

छह अलग अलग स्वाद मीठा, खट्टा, मसाला, नमक और कड़वा आदि का प्रतीक है खुशी, घृणा, क्रोध, भय, आश्चर्य का। यह नया गुड़, कच्चे आम के टुकड़े, नीम के फूल, और नए इमली से बना है जो वास्तव में जीवन को प्रतिबिंबित और उदासी का द्योतक है।

बाद में लोगों को पारंपरिक रूप से नए साल की धार्मिक पंचांग के सस्वर पाठ को सुनने के लिए मंदिर में इकट्ठा होते हैं। पंचांग भी चाँद लक्षण के आधार पर ज्योतिष में शामिल है। उगादि चंद्रमा की कक्षा में एक परिवर्तन के साथ एक नया हिंदू चंद्र कैलेंडर की शुरुआत के निशान है। इस दिन मौसम काफी सुहावना रहता है और लोग बहुत प्रसन्न होते है। आप सबको इस नये साल की शुभकामनाओं के साथ आपका मित्र रामकुमार।