कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती सोहनलाल दि्ववेदी
इस कविता में कोशिश करने से सफलता प्राप्त करने का संदेश मिलता है। कवि कहते हैं कि जीवन की प्रतियोगिता में असफलता से विमुख न होते हुए अपनी कमियों को खुद पहचानकर स्वप्रयत्न से लगातार आगे बढ़ने से हार कभी नहीं होती है।
इस कविता में कवि ने यह संदेश दिया है कि सतत प्रयत्नशील व्यक्ति की निश्चित रूप से जीत होती है। समस्याओं से मुँह न मोड़कर आगे बढ़ना चाहिए।
वह आदमी सचमुच ही पिछड़ा था क्योंकि सब बोलते तो वह चुप रहता, सब चलते तो वह पीछे रहता और जब सब पेटुओं की तरह खाते तब वह अलग सबसे दूर बैठा आहिस्ता से थोड़ा सा खाता था। लेकिन जब सारी दुनिया थकान से गहरी नींद में लीन हो जाती तब वह अकेले आकाश में टकटकी लगाये रहता था अर्थात् चिन्तामग्न रहता था। हर कार्य में पीछे रहने वाला यह पिछड़ा आदमी देश की आजादी के लिए गोली झेलने के सबसे आगे रहा और मारा गया।
(आशय: लोकगीतों को आम जनता का संगीत माना जाता है। भारत लोकगीतों का अपना ही महत्वपूर्ण स्थान है। प्रस्तुत पाठ में लेखक ने कई स्थानों में प्रचलित लोकगीतों का परिचय हमारे सामने रखा है।)
लोकगीत अपनी लोच, ताशगी और लोकप्रियता शास्त्रीय संगीत से भिन्न हैं। लोकगीत जनता के संगीत हैं। घर, गाँव और नगर की जनता के गीत हैं ये। इनके लिए की ज़रूरत नहीं होती। त्योहारों और विशेष अवसरों पर ये गाए जाते हैं। सदा से ये गाए जाते रहे हैं और इनके रचने वाले भी अधिकतर गाँव के लोग ही हैं। स्त्रियों ने भी इनकी रचना में विशेष भाग लिया है। ये गीत बाजों की मदद के बिना ही या साधारण ढोलक, झाँझ, करताल, बाँसुरी आदि की मदद से गाए जाते हैं।
एक समय था जब शास्त्रीय संगीत के सामने इनको हेय समझा जाता था। अभी हाल तक इनकी बड़ी उपेक्षा की जाती थी। पर इधर साधरण जनता की ओर जो लोगों की नज़र फिरी है तो साहित्य और कला के क्षेत्र में भी परिवर्तन हुआ है। अनेक लोगों ने विविध बोलियों के लोक-साहित्य और लोकगीतों के संग्रह पर कमर बाँधी है और इस प्रकार के अनेक संग्रह अब तक प्रकाशित भी हो गए हैं।
लोकगीतों के कई प्रकार हैं। इनका एक प्रकार तो बड़ा ही ओजस्वी और सजीव है। यह इस देश के आदिवासियों का संगीत है। मध्य प्रदेश, दकन, छोटा नागपुर में गोंड-खांड, ओराँव-मुंडा, भील में संथाल आदि फैले हुए हैं, जिनमें आज भी जीवन नियमों की जकड़ में बँध न सका और निर्दृद्व लहराता है। इनके गीत और नाच अधिकतर साथ-साथ और बड़े-बड़े दलों में गाए और नाचे जाते हैं। बीस-बीस तीस-तीस आदमियों और औरतों के दल एक साथ या एक-दूसरे जवाब में गाते हैं, दिशाएँ गूंज उठती हैं। पहाड़ियों के अपने-अपने गीत हैं। उनके अपने-अपने भिन्न रूप होते हुए भी अशास्त्रीय होने के कारण उनमें अपनी एक समान भूमि है। गढ़वाल, किन्नौर, काँगड़ा आदि के अपने-अपने गीत और उन्हें गाने की अपनी-अपनी विधियाँ हैं। उनका अलग नाम ही पहाड़ी' पड़ गया है।
वास्तविक लोकगीत देश के गाँवों और देहातों में है। इनका संबंध देहात की जनता से है। बड़ी जान होती है इनमें। चैता, कजरी, संबंध देहात की जनता से है। बड़ी बात होती है इनमें। चैता, कजरी, बारहमासा, सावन आदि बनारस और उत्तर प्रदेश के अन्य पूरबी और बिहार के पश्चिमी जिलों में गाए जाते हैं। बाउल और भतियाली बंगाल के लोकगीत हैं। पंजाब में माहिया आदि इसी प्रकार के हैं। हीर-राँझा, सोहनी-महीवाल संबंधी गीत पंजाबी में और ढोला-मारू आदि के गीत राजस्थानी में बड़े चाव से गाए जाते हैं।
इन देहाती गीतों के रचयिता कोरी कल्पना को इतना मान न देकर अपने गीतों के विषय रोजमर्रा के बहते जीवन से लेते हैं, जिससे वे सीधे मर्म को छू लेते हैं। उनके राग भी साधरणत: पीलू, सारंग, दुर्गा, सावन, सोरठ आदि हैं। कहरवा, बिरहा, धोबिया आदि देहात में बहुत गाए जाते हैं और बड़ी भीड़ आकर्षित करते हैं।
इनकी भाषा के संबंध में कहा जा चुका है कि ये सभी लोकगीत गाँवों और इलाकों की बोलियों में गाए जाते हैं। इसी कारण ये बड़े आह्लादकर और आनंददायक होते हैं। राग तो इन गीतों के आकर्षक होते ही हैं, इनकी समझी जा सकने वाली भाषा भी इनकी सफलता का कारण है।
भोजपुरी में करीब तीस-चालीस बरसों से 'बिदेसिया' का प्रचार हुआ है। गाने वालों के अनेक समूह इन्हें गाते हुए देहात में फिरते हैं। उधर के जिलों में विशेषकर बिहार में बिदेसिया से बढ़कर दूसरे गाने लोकप्रिय नहीं हैं। इन गीतों में अधिकतर रसिकप्रियों और प्रियाओं की बात रहती है, परदेशी प्रेमी की और इनसे करुणा और विरह का रस बरसता है।
जंगल की जातियों आदि के दल-गीत होते हैं जो अधिकतर भी दुलमी बिरहा आदि में पाए जाते हैं। पुरुष एक ओर और स्त्रियाँ दूसरी ओर एक-दूसरे के जवाब के रूप में दल बाँधकर गाते हैं और दिशाएँ गुंजा देते हैं। पर इधर कुछ काल से इस प्रकार के दलीय गायन का ह्रास हुआ है। एक दूसरे प्रकार के बड़े लोकप्रिय गाने आल्हा के हैं। अधिकतर ये बुंदेलखंडी में गाए जाते हैं। आरंभ तो इसका चंदेल राजाओं के राजकवि जगनिक से माना जाता है जिसने आल्हा-ऊदल की वीरता का अपने म हाकाव्य में बखान किया, पर निश्चय ही उसके छंद को लेकर जनबोली में उसके विषय को दूसरे देहाती कवियों ने भी समय-समय पर अपने गीतों में उतारा और ये गीत हमारे गाँवों में आज भी बहुत प्रेम से गाए जाते हैं। इन्हें गाने वाले गाँव-गाँव ढोलक लिए गाते फिरते हैं। इसी की सीमा पर उन गीतों का भी स्थान है जिन्हें नट रस्सियों पर खेल करते हुए गाते हैं। अधिकतर ये गद्य-पद्यात्मक हैं और इनके अपने बोल हैं। अनंत संख्या अपने देश में स्त्रियों के गीतों की है। हैं तो ये गीत भी लोकगीत ही, पर अधिकतर इन्हें औरतें ही गाती हैं। इन्हें सिरजती भी अधिकतर वही हैं। वैसे नाचने वाले या गाने वाले मर्दों की भी कमी नहीं है पर इन गीतों का संबंध विशेषतः स्त्रियों से है। इस भारत इस दिशा में सभी देशों से भिन्न है क्योंकि संसार के देशों में स्त्रियों के अपने गीत मर्दों या जनगीतों से अलग और भिन्न नहीं हैं, मिले-जुले ही हैं।
त्योहारों पर नदियों में नहाते समय के, नहाने जाते हुए राह के, विवाह के, मटकोड़, ज्यौनार के संबंधियों के लिए प्रेमयुक्त गाली TB के, जन्म आदि सभी अवसरों के अलग-अलग गीत हैं, जो स्त्रियाँ गाती रही हैं। महाकवि कालिदास आदि ने भी अपने ग्रंथों में उनके गीतों का हवाला दिया है। सोहर, बानी, सेहरा आदि उनके अनंत गानों में से कुछ हैं। वैसे तो बारहमासे पुरुषों के साथ नारियाँ भी गाती हैं। एक विशेष बात यह है कि नारियों के गाने साधरणत: अकेले नहीं गाए जाते, दल बाँधकर गाए जाते हैं। अनेक कंठ एक साथ फूटते हैं यद्यपि अधिकतर उनमें मेल नहीं होता, फिर भी त्योहारों और शुभ अवसरों पर वे बहुत ही भले लगते हैं। गाँवों और नगरों में गायिकाएँ भी होती हैं जो विवाह, जन्म आदि के अवसरों पर गाने के लिए बुला ली जाती हैं। सभी ऋतुओं में स्त्रियाँ उल्लसित होकर दल बाँधकर गाती हैं। पर होली, बरसात की कजरी आदि तो उनकी अपनी चीज़ है, जो सुनते ही बनती है। पूरब की बोलियों में अधिकतर मैथिल-कोकिल विद्यापति के गीत गाए जाते हैं। पर सारे देश के कश्मीर से कन्याकुमारी-केरल तक और काठियावाड़-गुजरात-राजस्थान से उड़ीसा-आंध्र तक अपने अपने विद्यापति हैं।
स्त्रियाँ ढोलक की मदद से गाती हैं। अधिकतर उनके गाने साथ नाच का भी पुट होता है। गुजरात का एक प्रकार का दलीय गायन 'गरबा' है जिसे विशेष विधि से घेरे में घूम-घूमकर औरतें गाती हैं। साथ ही लकड़ियाँ भी बजाती जाती हैं जो बाजे का काम करती हैं। इसमें नाच-गान साथ चलते वस्तुत: यह नाच ही है। सभी प्रांतों में यह लोकप्रिय हो चला है। इसी प्रकार होली के अवसर पर ब्रज में रसिया चलता है जिसे दल के दल लोग गाते हैं, स्त्रियाँ विशेष तौर पर। गाँव के गीतों के वास्तव में अनंत प्रकार हैं। जीवन जहाँ इठला-इठलाकर लहराता है वहीं भला आनंद के स्रोतों की कमी हो सकती है? उद्दाम जीवन के ही वहाँ के अनंत संख्यक गाने प्रतीक हैं।
‘नेता जी‘ के नाम से प्रसिद्ध भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ओजस्वी सेनानी सुभाषचंद्र बोस ने यह पत्र ‘केसरी‘ पत्रिका के संपादक श्री एन.सी केलकर के नाम बर्मा के मांडले जेल से लिखा। बोस को जब बरहमपुर (बंगाल) जेल से मांडले जेल स्थानांतरित किया गया तो उस जेल में पहुँचने के बाद उनकी स्मृति में यह बात कौंधी कि महान क्रांतिकारी और कांग्रेस (गरम दल) के नेता ‘लोकमान्य‘ बाल गंगा धर तिलक ने अपने कारावास के अधिकांश भाग बेहद हतोत्साहित कर देने वाले इसी परिवेश में व्यतीत किए थे। कारावास के छह वर्ष लोकमान्य ने अत्यंत शारीरिक और मानसिक यंत्रणा में बिताए फिर भी उस त्रासद स्थिति में ‘गीता भाष्य‘ जैसी ग्रन्थ की रचना की। मांडले जेल-जीवन के बारे में बोस के शब्द हैं “मैंने भगवान को धन्यवाद दिया कि मांडले में अपनी मातृभूमि और स्वदेश से बलात् अनुपस्थिति के बावजूद मुझे पवित्र स्मृतियाँ राहत और प्रेरणा देंगीं। अन्य जेलों की तरह यह भी एक ऐसा तीर्थस्थल है, जहाँ भारत के एक माहन सपूत लगातार छह वर्ष तक रहे।”
प्रिय श्री केलकर,
मैं पिछले कुछ महीनों से आपको पत्र लिखने की सोच रहा था जिसका कारण केवल यह रहा है कि आप तक ऐसी जानकारी पहुँचा दूँ जिसमें आपको दिलचस्पी होगी। मैं नहीं जानता कि आपको मालूम है या नहीं कि मैं यहाँ गत जनवरी से कारावास में हूँ। जब बरहमपुर जेल (बंगाल) से मुझे माँडले जेल के लिए स्थानांतरण का आदेश मिला था, तब मुझे यह स्मरण नहीं आया था कि लोकमान्य तिलक ने अपने कारावास काल का अधिकांश भाग माँडले जेल में ही गुजारा था। इस चहारदीवारी में, यहाँ के बहुत ही हतोत्साहित कर देनेवाले परिवेश में, स्वर्गीय लोकमान्य ने अपने सुप्रसिद्ध ‘गीता भाष्य‘ ग्रंथ का प्रणयन किया था जिसने मेरी नम्र राय में उन्हें ‘शंकर‘ और ‘रामानुज‘ जैसे प्रकांड भाष्यकारों की श्रेणी में स्थापित कर दिया है।
जेल के जिस वार्ड में लोकमान्य रहते थे वह आज तक सुरक्षित है, यद्यपि उसमें फेरबदल किया गया है और उसे बड़ा बनाया गया है। हमारे अपने जेल के वार्ड की तरह, वह लकड़ी के तख्तों से बना है, जिसमें गर्मी में लू और धूप से, वर्षा में पानी से, शीत ऋतु में सर्दी से तथा सभी ऋतुओं में धूलभरी हवाओं से बचाव नहीं हो पाता। मेरे यहाँ पहुँचने के कुछ ही क्षण बाद, मुझे उस वार्ड का परिचय दिया गया। मुझे यह बात अच्छी नहीं लग रही थी कि मुझे भारत से निष्कासित कर दिया गया था लेकिन मैंने भगवान को धन्यवाद दिया कि माँडले में अपनी मातृभूमि और स्वदेश से बलात् अनुपस्थिति के बावजूद मुझे पवित्र स्मृतियाँ राहत और प्रेरणा देंगी। अन्य जेलों की तरह यह भी एक ऐसा तीर्थस्थल है, जहाँ भारत का एक महानतम सपूत लगातार छह वर्ष तक रहा था।
हम जानते हैं कि लोकमान्य ने कारावास में छह वर्ष बिताए। लेकिन मुझे विश्वास है कि बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि उस अवधि में उन्हें किस हद तक शारीरिक और मानसिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ा था। वे यहाँ एकदम अकेले रहे और उन्हें कोई बौद्धिक स्तर का साथी नहीं मिला। मुझे विश्वास है कि उन्हें किसी अन्य बंदी से मिलने-जुलने नहीं दिया जाता था।
उनको सांत्वना देनेवाली एकमात्र वस्तु किताबें थीं और वे एक कमरे में एकदम एकाकी रहते थे। यहाँ रहते हुए उन्हें दो या तीन भेंटों से अधिक का मौका नहीं दिया गया और ये भेंटें भी पुलिस और जेल अधिकारियों की उपस्थिति में हुई होंगी, जिससे वे कभी भी खुलकर और हार्दिकता से बात नहीं कर पाए होंगे।
उन तक कोई भी अखबार नहीं पहुँचने दिया जाता था। उनकी जैसी प्रतिष्ठा और स्थितिवाले नेता को बाहरी दुनिया के घटनाचक्रों से एकदम अलग कर देना, एक तरह की यंत्रणा ही है और इस यंत्रणा को जिसने भुगता है, वही जान सकता है। इसके अलावा उनके कारावास की अधिकांश अवधि में देश का राजनैतिक जीवन मंद गति से खिसक रहा था और इस विचार ने उन्हें कोई संतोष नहीं दिया होगा कि जिस उद्देश्य को उन्होंने अपनाया था, वह उनकी अनुपस्थिति में किस गति से आगे बढ़ रहा है।
उनकी शारीरिक यंत्रणा के बारे में जितना ही कम कहा जाए, बेहतर होगा। वे दंड-संहिता के अंतर्गत बंदी थे और इस प्रकार आज के राजबंदियों की अपेक्षा कुछ मायनों में उनकी दिनचर्या कहीं अधिक कठोर रही होगी। इसके अलावा उन्हें मधुमेह की बीमारी थी। जब लोकमान्य यहाँ थे, माँडले का मौसम तब भी प्रायः ऐसा रहा होगा जैसा वह आजकल है और अगर आज नौजवानों को शिकायत है कि वहाँ की जलवायु शिथिल कर देनेवाली और मंदाग्नि तथा गठिया को जन्म देनेवाली है और धीरे-धीरे, वह व्यक्ति की जीवन-शक्ति को सोख लेती है, तो लोकमान्य ने, जो वयोवृद्ध थे, कितना कष्ट झेला होगा?
लेकिन इस कारागार की चहारदीवारियों में उन्होंने क्या यातनाएँ सहीं, इसके विषय में लोगों को बहुत कम जानकारी है। कितने लोगों को पता होता है, उन अनेक छोटी-छोटी बातों का, जो किसी बंदी के जीवन में सुइयों की सी चुभन बन जाती हैं और जीवन को दूभर बना देती हैं। वे गीता की भावना में मग्न रहते थे और शायद इसलिए दुख और यंत्रणाओं से ऊपर रहते थे। यही कारण है कि उन्होंने उन यंत्रणाओं के बारे में किसी से कभी एक शब्द भी नहीं कहा।
समय-समय पर मैं इस सोच में डूबता रहा हूँ कि कैसे लोकमान्य को अपने बहुमूल्य जीवन के छह लंबे वर्ष इन परिस्थितियों में बिताने के लिए विवश होना पड़ा था। हर बार मैंने अपने आपसे पूछा, ‘‘अगर नौजवानों को इतना कष्ट महसूस होता है तो महान लोकमान्य को अपने समय में कितनी पीड़ा सहनी पड़ी होगी, जिसके विषय में उनके देशवासियों को कुछ भी पता नहीं रहा होगा।‘‘ यह विश्व भगवान् की कृति है, लेकिन जेलें मानव के कृतित्व की निशानी हैं। उनकी अपनी एक अलग ही दुनिया है और सभ्य समाज ने जिन विचारों और संस्कारों को प्रतिबद्ध होकर स्वीकार किया है, वे जेलों में लागू नहीं होते। अपनी आत्मा के ह्रास के बिना, बंदी जीवन के प्रति अपने आपको अनुकूल बना पाना आसान नहीं है। इसके लिए हमें पिछली आदतें छोड़नी होती हैं और फिर भी स्वास्थ्य और स्फूर्ति बनाए रखनी होती है। केवल लोकमान्य जैसा दार्शनिक ही उस यंत्रणा और दासता के बीच मानसिक संतुलन बनाए रख सकता था और ’गीता भाष्य’ जैसे विशाल एवं युग-निर्माणकारी ग्रंथ का प्रणयन कर सकता था।
मैं जितना ही इस विषय पर चिंतन करता हूँ उतना ही ज्यादा मैं उनके प्रति आदर और श्रद्धा में डूब जाता हूँ। आशा करता हूँ कि मेरे देशवासी लोकमान्य की महत्ता को आँकते हुए इन सभी तथ्यों को भी दृष्टिपथ में रखेंगे। जो महापुरुष मधुमेह से पीड़ित होने के बावजूद इतने सुदीर्घ कारावास को झेलता गया और जिसने उन अंधकारमय दिनों में अपनी मातृभूमि के लिए ऐसी अमूल्य भेंट तैयार की, उसे विश्व के महापुरुषों की श्रेणी में प्रथम पंक्ति में स्थान मिलना चाहिए।
लेकिन लोकमान्य ने प्रकृति के जिन अटल नियमों से अपने बंदी जीवन के दौरान टक्कर ली थी, उनको अपना बदला लेना ही था। अगर मैं कहूँ तो मेरा विश्वास है कि लोकमान्य ने जब माँडले को अंतिम नमस्कार किया था तो उनके जीवन के दिन गिने-चुने ही रह गए थे। निस्संदेह यह एक गंभीर दुख का विषय है कि हम अपने महानतम पुरुषों को इस प्रकार खोते रहे, लेकिन मैं यह भी सोचता हूँ कि क्या वह दुर्भाग्य किसी-न-किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता था।
कन्नड भाषा की श्रेष्ठ महिला वचनकारों में अक्कमहादेवी का नाम आदर के साथ लिया जाता है। अक्कमहादेवी महान भक्तिन एवं रहस्यवादी कवयित्री थी। चन्नमल्लिकार्जुन को इन्होंने पति के रूप में स्वीकार करके अपनी साधना की। चन्नमल्लिकार्जुन उनके वचनों का अंकित नाम है। इनके सैकड़ों वचन हैं। हिंदी में जो स्थान मीरा का है वही स्थान कन्नड में अक्कमहादेवी का है। उनके प्रस्तुत वचनों द्वारा ईश्वर पर अनन्य भक्ति तथा ज्ञानियों के साथ रहने से होनेवाले लाभों का मार्मिक वर्णन मिलता है।
अक्कमहादेवी इन वचन में स्वयं को धन्य मानती हुई कहती हैं कि - प्रभु, आपके सामने कोई भी गरीब नहीं है। इसकी पुष्टि में वे कहती हैं यदि भूख लगी तो गाँव में अन्न देनेवाले हैं। प्यास लगती है तो पानी की कमी नहीं है क्योंकि इधर-उधर तालाब, कुएँ हैं। तुम्हारी कृपा से ठंड से बचने के लिए फटे वस्त्र मिले हैं। सोने के लिए उजड़े मंदिर हैं। हे प्रभु! तुम्हारा संग ही मेरे जीवन का सौभाग्य है। आपके बिना मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है। तू ही मेरा प्रिय आत्म-सखा है।
कन्नड भाषा की श्रेष्ठ महिला वचनकारों में अक्कमहादेवी का नाम आदर के साथ लिया जाता है। अक्कमहादेवी महान भक्तिन एवं रहस्यवादी कवयित्री थी। चन्नमल्लिकार्जुन को इन्होंने पति के रूप में स्वीकार करके अपनी साधना की। चन्नमल्लिकार्जुन उनके वचनों का अंकित नाम है। इनके सैकड़ों वचन हैं। हिंदी में जो स्थान मीरा का है वही स्थान कन्नड में अक्कमहादेवी का है। उनके प्रस्तुत वचनों द्वारा ईश्वर पर अनन्य भक्ति तथा ज्ञानियों के साथ रहने से होनेवाले लाभों का मार्मिक वर्णन मिलता है।
अक्कमहादेवी अपने वचन में बुराइयों में भी अच्छाई पाने का आशय करते हुए व्यक्त कहती हैं -अज्ञानियों से स्नेह करने से स्वयं की वृद्धि होती है क्योंकि उन्हें सुधारते-सुधारते स्वयं बहुत कुछ सीख जाते है। यहाँ पत्थर अर्थात् अज्ञानी, चिनगारी अर्थात् उसे सशक्त बनाना। ज्ञानियों का संग करने से हम सुलभ रूप से ज्ञानी बन जाएँगे। जैसे दही के मथने से माखन निकल आता है। अक्कमहादेवी अपने प्रभु की प्रशंसा करते हुए कहती हैं तुम्हारे भक्तों का संग करना कर्पूर-पर्वत की ज्योति को पाने के समान है।
कन्नड भाषा की श्रेष्ठ महिला वचनकारों में अक्कमहादेवी का नाम आदर के साथ लिया जाता है। अक्कमहादेवी महान भक्तिन एवं रहस्यवादी कवयित्री थी। चन्नमल्लिकार्जुन को इन्होंने पति के रूप में स्वीकार करके अपनी साधना की। चन्नमल्लिकार्जुन उनके वचनों का अंकित नाम है। इनके सैकड़ों वचन हैं। हिंदी में जो स्थान मीरा का है वही स्थान कन्नड में अक्कमहादेवी का है। उनके प्रस्तुत वचनों द्वारा ईश्वर पर अनन्य भक्ति तथा ज्ञानियों के साथ रहने से होनेवाले लाभों का मार्मिक वर्णन मिलता है।
अक्कमहादेवी के वचनों में नीति एवं वास्तविकता का संगम मिलता है। वे अपने वचनों के द्वारा निरर्थक जीवन डालते हुए कहती हैं - मनुष्य मुरझाए फूल में सुगंध को ढूँढ़ने का प्रयास नहीं करेगा। बच्चे में सच्चाई है या बुराई है, देखने का प्रयास कोई नहीं करेगा। अक्कमहादेवी कहती हैं विश्वास में धक्का लगने के बाद फिर सद्गुण दिखाई देने पर कोई विश्वास नहीं करेगा। कोई पहले ही दुखी है और भी उसे दुखी करने का कौन प्रयास करेगा? हे मेरे भगवान, सुनो जब इस संसार रूपी नदी पार करने पर उस मल्लाह रूपी भगवान को कौन याद करेगा अर्थात् सभी पथ-प्रदर्शक को भूल जायेंगे। यही आज की स्थिति है।
एक सामान्य सी दुबली-पतली करनाल (हरियाणा) की बिटिया, अपनी प्रतिबद्धता और साहस से इतना कुछ करती रही जो भारत की ही नहीं विश्व की बेटियों में अपनी पहचान कायम कर सकी। माता-पिता की चौथी संतान कल्पना चावला बचपन से नक्षत्र लोक को घंटों निहारा करती थी। वह एक अन्तरिक्ष-यात्री के रूप में स्पेस सटल ‘कोलम्बिया‘ में बैठकर अंतरिक्ष के गूढ़ रहस्य खोलने की यात्रा पर थी। जान जोखिम में डालने वाली इस यात्रा में यह सच है वह अपना जान गँवा बैठी पर एक जीवंत इतिहास अवश्य रच डाली। बचपन के इस वक्तव्य को उसने अपना बलिदान देकर साबित किया कि ‘जो काम लड़के कर सकते हैं वह मैं भी कर सकती हूँ।’
1 फरवरी 2003, विश्व के लोग अपने-अपने टेलीविजन सैट पर आँखें गड़ाए हुए थे। अमेरिका में फ्लोरिडा के केप केनेवरल अंतरिक्ष केंद्र के बाहर दर्शकों की भीड़ थी। सबकी आँखें आकाश की ओर लगी थीं। अवसर था कोलंबिया शटल के पृथ्वी पर लौटने का। भारत के लोग भी आतुरता से टी. वी. पर बैठे इस दृश्य को देख रहे थे। उनकी आतुरता का कारण यह भी था कि इस अंतरिक्ष अभियान में भारत की बेटी, इकतालीस वर्षीया कल्पना चावला भी शामिल थी। उसके परिवार के लोग तो फ्लोरिडा में ही अपनी बेटी के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। यहाँ भारत में उसके नगर करनाल में उसी के विद्यालय-टैगोर बाल निकेतन- के लगभग तीन सौ छात्र-छात्राएँ अपने विद्यालय की पूर्व छात्रा, कल्पना चावला के अंतरिक्ष से सकुशल वापस लौटने को उत्सव के रूप में मनाने के लिए एकत्र हुए थे।
प्रकृति के रहस्यों को खोजने में जान का जोखिम रहता ही है। एवरेस्ट विजय करने में दर्जनों पर्वतारोहियों ने अपनी जानें गँवाई हैं। उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की खोज में भी अनेक सपूतों ने अपने बलिदान किए हैं। यही स्थिति अंतरिक्ष अभियान की भी है। जब तक अभियान पूरी तरह सफल न हो जाए, तब तक अंतरिक्ष यात्रियों, अंतरिक्ष केंद्र के संचालकों, दर्शकों के हृदय में धुकधुकी लगी रहती है। उस दिन भी केप केनेवरल में प्रातः 9 बजे दर्शकों की साँस ऊपर की ऊपर रह गई। पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश के साथ ही कोलंबिया शटल का संपर्क अंतरिक्ष केंद्र से टूट गया। सहसा कुछ मिनटों के बाद टेक्सास के ऊपर एक जोरदार धमाका सुनाई दिया। ह्यूस्टन कमान केंद्र में घबराहट फैल गई। कोलंबिया स्पेस शटल में सवार सभी सातों अंतरिक्ष यात्रियों के शरीर के चिथड़े-चिथड़े होकर अमेरिका की भूमि पर यहाँ-वहाँ बिखर गए। भारत ने उस दिन अपने जाज्वल्यमान नक्षत्र, कल्पना चावला, को खो दिया। समूचे देश में, विशेष रूप से करनाल में, शोक की लहर दौड़ गई। टैगोर बाल निकेतन में आयोजित होनेवाला उत्सव, शोक-सभा में परिवर्तित हो गया। इस हादसे से एक अरब से अधिक देशवासियों के चेहरे मुरझा गए। करनाल की यह विलक्षण बेटी सफलतापूर्वक एक यात्रा पूरी कर चुकी थी, लेकिन दूसरी यात्रा में वही दुबली-पतली लड़की अपनी मधुर मुस्कान और दृढ़ संकल्प के साथ अपने सपनों को साकार न कर पाई। कल्पना के जीवन की यह कहानी करनाल से प्रारम्भ हुई और अंतरिक्ष में समाप्त हुई। आओ, इस कहानी का प्रारंभ देखें।
बनारसी दास चावला भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से भारत आकर करनाल में बसे थे। सन् 1961 में यहीं कल्पना का जन्म हुआ था। बनारसीदास चावला की यह चौथी संतान थी। माता-पिता अपनी दुलारी बेटी को मोंटू कहते थे। शिक्षा के क्षेत्र में मोंटू का परिवार काफी आगे था। मोंटू की स्कूली शिक्षा करनाल के टैगोर बाल निकेतन में ही हुई। गर्मी के दिनों में रात को खुले आसमान में तारागणों की ओर निहारती हुई कल्पना नक्षत्र-लोक में पहुँच जाती थी। शायद यहीं से उसे अंतरिक्ष-यात्रा की सूझी थी।
जागरुक पिता ने अपनी प्यारी बेटी मोंटू की रुचि को भाँप लिया था और जब वह आठवीं कक्षा में थी, तभी उसे पहली उड़ान कराई थी। एंट्रेंस की परीक्षा उत्तीर्ण करके कल्पना ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू की। इंजीनियरिंग में उसने अंतरिक्ष विषय लिया। चंडीगढ़ के पूर्वी पंजाब इंजीनियरिंग महाविद्यालय में उस समय तक एयरोनाटिक विभाग में कम छात्र-छात्राएँ ही दाखिला लेते थे। छात्राओं का प्रतिशत तो और भी कम रहता था। कॉलेज में पढ़ते समय कल्पना दत्तचित्त होकर अपना कोर्स तो तैयार करती ही थी, साथ ही कॉलेज के सभी क्रियाकलापों में भी भाग लेती थी। वह अक्सर कहती थी - ’’जो काम लड़के कर सकते हैं, वह मैं भी कर सकती हूँ।‘‘
कल्पना को जब एयरोनाटिक्स की डिग्री मिल गई, तब उसने अपनी आगे की पढ़ाई अमेरिका में करने का मन बनाया। उसे वहाँ प्रवेश भी मिल गया। वहीं उसका परिचय जीन पियरे से हुआ। दिसम्बर 1983 में वे दोनों विवाहसूत्र में बँध गए।
विवाह के उपरांत भी कल्पना ने अंतरिक्ष में उड़ने का अपना ध्येय अटल रखा। एक दिन उसे टेलिफोन पर नासा से समाचार मिला - ‘हमें खुशी होगी यदि आप यहाँ आकर एक अंतरिक्ष यात्री के रूप में अंतरिक्ष कार्यशाला में भाग लें।‘ कल्पना के लिए तो यह मनमाँगी मुराद पूरी होना था। नासा द्वारा अंतरिक्ष-यात्रा के लिए चुने जाने का गौरव बिरले ही लोगों के भाग्य में होता है।
6 मार्च 1995 से कल्पना का एकवर्षीय प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। तरह-तरह की प्रशिक्षण प्रणालियों के द्वारा इन अंतरिक्ष यात्रियों को तैयार करने में कई महीने लग जाते हैं। कल्पना को इस अवधि में जो उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपे जाते थे, वह उन्हें पूरी निष्ठा से करती थी।
19 सितम्बर 1997 को एस टी एस 87 के अभियान दल के सदस्यों का परीक्षण हुआ। इनमें कुछ पुराने अनुभवी सदस्य थे तो कुछ नए भी थे। कल्पना का यह पहला अभियान था। उड़ान से पहले अंतरिक्ष यात्री अपने-अपने परिजनों से मिले। इसके बाद सब एक-एक करके अंतरिक्ष-यान में सवार हुए। अंतरिक्ष-यान 17500 मील प्रति घंटे की गति से उड़ा। कल्पना के लिए इतनी ऊँचाई से विश्व की झलक देख पाना एक दैवी कृपा के समान था। यह यान सत्रह दिनों तक अंतरिक्ष में घूमता रहा और अंतरिक्ष यात्री अपने प्रयोग करते रहे। अंततः शुक्रवार प्रातः 6 बजे अंतरिक्ष-यान कैनेडी अंतरिक्ष केंद्र पर उतरा। दर्शक दीर्घा में बैठे अंतरिक्ष-यात्रियों के परिवार के लोगों ने यान के सकुशल वापस लौट आने पर ईश्वर को धन्यवाद दिया।
इस उड़ान में उपग्रह और कंप्यूटर प्रणाली में कुछ गड़बड़ी आ गई थी। इस गड़बड़ी का दोष कल्पना पर लगाया गया। जाँच दल के सामने कल्पना ने निर्भीक होकर अपनी बात कही। कल्पना के तर्क से सहमत होकर जाँच दल ने उसे पूर्ण रूप से दोषमुक्त कर दिया। अतः उसे इसके बाद दूसरे अभियान के लिए भी चुना गया। दूसरे अभियान की तिथि 16 जनवरी 2003 निश्चित की गई। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य भौतिक क्रिया का अध्ययन करना था जिससे बदलते मौसम एवं जलवायु का ज्ञान सुलभ हो सके।
अपने निर्धारित समय पर यह अभियान चला। इस अभियान में कल्पना अपने साथ संगीत की कई सीडी ले गई थी। इस अभियान में अनेक धर्मों के अंतरिक्ष यात्री भाग ले रहे थे और वहाँ सर्वधर्म समभाव का माहौल बन गया था। कल्पना समय-समय पर सीडी के गाने सुनकर तरोताजा हो जाती थी। स्पेस शटल अपने निर्धारित कार्यक्रम, निर्धारित समय में पूरा करके वापस पृथ्वी की ओर आ रहा था। तभी 1 फरवरी 2003 का वह काला दिन आया जब स्पेस शटल तथा उसमें सवार सात अंतरिक्ष-यात्रियों के शरीर के क्षत-विक्षत अंग अमेरिका की धरती पर इधर-उधर बिखर गए। सम्पूर्ण विश्व में इस दुर्घटना से शोक की लहर फैल गई।
कल्पना का जन्म और जीवन सामान्य जैसा ही था किन्तु उसकी उपलब्धियाँ असामान्य थीं। वह सदा नई जानकारी, नए अनुभव, नए चमत्कार करना चाहती थी। सारे विश्व के बच्चों के लिए उसका यही संदेश था- ‘अपने विश्वास के धरातल से आगे बढ़कर चलो, तभी असंभव को संभव बनाया जा सकता है।‘ कल्पना के इसी संदेश को जीवंत रखने के लिए उसके परिवार ने ‘मोंट्यू फाउंडेशन‘ की स्थापना की है, जिसका उद्देश्य है प्रतिभावान नवयुवकों और नवयुवतियों को, जिन्हें धनाभाव के कारण उच्च शिक्षा से वंचित होना पड़ता है, विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त करने में सहायता करना।
पाठ का आशय : इस पाठ से बच्चे साहन गुण, दृढ़ निश्चय, अथक परिश्रम, मुसीबतों का सामना करना इत्यादि आदर्श गुण सीखते हैं। इसके साथ हिमालय की ऊँची चोटियों की जानकारी भी प्राप्त करते है। यह पाठ सिद्ध करता है कि 'मेहनत का फल अच्छा होता है'।
इस लेख द्वारा छात्र यह जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि महिलाएँ भी साहस प्रदर्शन में पुरुषों से कुछ कम नहीं हैं। बिजेंद्री पाल इस विचार का एक निदर्शन है। ऐसी महीलाओं से प्रेरणा पाकर छात्र साहसी भाव अपना सकते हैं ।
पहली महिला एवरेस्ट विजेता बिछेद्री पाल को एवरेस्ट की चोटी पर चढ़नेवाली पहली भारतीय महिला होने का गौरव प्राप्त है। बिजेंद्री एक साधारण भारतीय परिवार में हुआ था। पिता किशनपाल सिंह और मां हंसादेई नेगी की पांच संतानों में यह तीसरी संतान हैं। बिछेद्री के बड़े भाई को पहाड़ों पर जाना अच्छा लगता था। भाई को देखकर उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे भी वही करेंगी जो उनका भाई करते हैं। ये किसी से पीछे नहीं रहेंगी, उनसे बेहतर करके दिखलाएंगी। इसी जज़्वे से उन्होंने पर्वतारोहण का प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया। बिजेंद्री को बचपन में रोज़ पांच किलोमीटर पैदल चल कर स्कूल जाना पड़ता था। बाद पर्वतारोहण - प्रशिक्षण के दौरान उनका कठोर परिश्रम बहुत काम आया। सिलाई का काम सीख लिया और सिलाई करके पढ़ाई का खर्च जुटाने लगी। इस तरह उन्होंने संस्कृत में एम.ए तथा बी.एड तक की शिक्षा प्राप्त की। पढ़ाई के साथ-साथ विजेंद्री ने पहाड़ पर चढ़ने के अपने लक्ष्य को भी हमेशा अपने सामने रखा। इसी दौरान उन्होंने ने 'कालाताग' पर्वत की चढ़ाई की। सन् 1982 में उन्हेंने 'गंगोत्री ग्लेशियर' (6672 मी) तथा हड गेरों (5819 मी) की चढ़ाई की जिससे उनमें आत्मविश्वास और बढ़ा।
अगस्त 1983 में जब दिल्ली में हिमालय पर्वतारोहियों का सम्मेलन हुआ तब वे पहली बार तेनजिंग नोर्गे (एवरेस्ट पर चढ़नेवाले पहले पुष्प) तथा चुके तावी (एवरेस्ट पर चढ़नेवाली पहली महिला) से मिलीं। तब उन्होंने संकल्प लिया कि वे भी उनकी तरह एवरेस्ट पर पहुंचेगी और यह दिन भी आया, जब 23 मई 1984 को एपरेस्ट पहुंचकर भारत का झंडा फहरा दिया। उस समय उनके साय पर्वतारोही अंग दोरजी भी थे। भारत की इस महिला द्वारा लिखित यह इतिवृत्तांत बहुत प्रेरणादायक तया रोचक है। इसमें उन्होंने इस बात का वर्णन किया है कि ये एवरेस्ट के शिखर पर कैसे पहुंची कर्नल खुल्लर ने साउथ कोल तक की चढ़ाई के लिए तीन शिखर दलों के दो समूह बना दिए। मैं सुबह चार बजे उठ गई , बर्फ पिघलाई और चाय बनाई। कुछ बिस्कुट और आधी चॉकलेट का हल्का नाश्ता करने के पश्चात् मैं लगभग साढ़े पांच बजे अपने तंबू से निकल पड़ी। अंग दोरजी ने मुझसे पूछा क्या मैं उनके साथ चलना चाहूंगी। मुझे उन पर विश्वास था। साथ ही साथ मैं अपनी आरोहण क्षमता और कर्मठता के बारे में भी आश्वस्त थी। सुबह 6.20 पर जब अंग दोरजी और मैं साउथ कोल से बाहर निकले तो दिन ऊपर चढ़ आया था। हल्की-हल्की हवा चल रही थी और ठंड बहुत अधिक थी। हमने बगैर रस्सी के ही चढ़ाई की। अग दोरजी एक निश्चित गति से ऊपर चढ़ते गए। मुझे भी उनके साथ चलने में कोई कठिनाई नहीं हुई। जमी हुई बर्फ की सीधी व ढलाऊ चट्टानें इतनी सख्त और भुरभुरी थीं, मानो शीशे की चादर बिछी हो। हमें बर्फ काटने के लिए फावड़े का इस्तेमाल करना पड़ा। दो घंटे से कम समय में ही हम शिखर कैप पर पहुंच गए। अंग दोरजी ने पीछे मुड़कर पूछा, "क्या तुम थक गई हो?" मैंने जवाब दिया, "नहीं" ये बहुत अधिक आश्चर्यचकित और आनंदित हुए। थोड़ी चाय पीने के बाद हमने पुनः चढ़ाई शुरू कर दी। व्हाटू एक नायलॉन की रस्सी लाया था इसलिए अग दोरजी और मैं रस्सी के सहारे चढ़े, जबकि व्हाट्र एक हाथ से रस्सी पकड़े हुए बीच में चला। तभी व्हाटू ने गौर किया कि मैं इन ऊंचाईयों के लिए आवश्यक चार लीटर आक्सीजन की अपेक्षा लगभग ढाई लीटर यह सुनकर ऑक्सीजन प्रति मिनट की दर से लेकर चढ़ रही थी। मेरे रेगुलेटर पर जैसे ही उसने ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाई मुझे कठिन चढ़ाई आसान लगने लगी। दक्षिणी शिखर के ऊपर हवा की गति बढ़ गई थी। उस ऊंचाई पर तेज़ हवा के झोंके भुरभुरे बर्फ के कणों को चारों तरफ उड़ा रहे थे जिससे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने देखा कि थोड़ी दूर तक कोई ऊंची चढ़ाई नहीं है। ढलान एकदम सीधी नीची चली गई है। मेरी सांस मानो एकदम रुक गई थी। मुझे लगा कि सफलता बहुत नज़दीक है। 23 मई, 1984 के दिन दोपहर के 1 बजकर 1 मिनट पर मैं एवरेस्ट की चोटी पर खड़ी थी। एवरेस्ट की चोटी पर पहुँचनेवाली में प्रथम भारतीय महिला थी। एवरेस्ट की चोटी पर इतनी जगह नहीं थी कि दो व्यक्ति साथ-साथ खड़े हो सकें। चारों तरफ हज़ारों मीटर लंबी सीधी ढलान को देखते हुए हमारे सामने मुख्य प्रश्न सुरक्षा का था। हमने फावड़े से पहले वर्फ की खुदाई कर अपने आपको सुरक्षित रूप से स्थिर किया। इसके बाद मैं अपने घुटनों के बल बैठी। बर्फ पर अपने माथे को गाकर मैने साग के ताज का चुंबन किया। बिना उठे ही मैंने अपने थैले से हनुमान चालीसा और दुर्गा माँ का चित्र निकाला। मैंने इन्हें अपने साथ लाए लाल कपड़े में लपेटा और छोटी-सी पूजा करके इनको बर्फ में दवा दिया। उठकर मै अपने रन्जु नेता अंग दोरजी के प्रति आदर भाव से झुकी। उन्होंने मुझे गले लगाया। कुछ देर बाद सोनम पुलजर पहुंचे और उन्होंने फोटो लिए।
इस समय तक ल्हाटू ने हमारे नेता को एवरेस्ट पर पहुंचने की सूचना दी थी। तब मेरे हाथ में वॉकी-टॉकी दिया गया। कर्नल खुल्लर ने मुझे बधाई दी और बोले, "देश को तुम पर गर्व है।" हमने शिखर पर 43 मिनट व्यतीत किए और अपनी वापसी यात्रा 1 बजकर 55 मिनट पर आरंभ की। अंग दोरजी और मैं साउथ कोल पर सायं पांच बजे तक पहुंच गए। सबने साउथ कोल से शिखर तक और पापस साउथ कोल तक की यात्रा (चोटी पर रुकने सहित) पूरे 10 घंटे 40 मिनट के अंदर पूरी करने पर बधाई दी। मैं जब तंबू में घुस रही थी, मैंने मेजर कुमार को कर्नल खुल्लर से वायरलैस पर बात करते सुना, "आप विश्वास करें या करें श्रीमान, बिजेंद्री पाल केवल तीन घंटे में ही वापिस आ गई है और वह उतनी ही चुस्त दिख रही है जितनी वह आज सुबह चढ़ाई शुरू करने से पहले थी। मुझे पर्वतारोहण में श्रेष्ठता के लिए भारतीय पर्वतारोहण संघ का प्रतिष्ठित स्वर्ण पदक तथा अन्य अनेक सम्मान और पुरस्कार प्रदान किए गए। पद्मश्री और प्रतिष्ठित अर्जुन पुरस्कार की घोषणा की गई। सबके आकर्षण और सम्मान का केंद्र होना मुझे बहुत अच्छा लगा। इस तरह बिजेंद्री को एवरेस्ट पर पहुंचनेवाली पहली भारतीय महिला होने का गौरव प्राप्त हुआ।
(बिजेंद्री पाल द्वारा लिखित 'एवरेस्ट' - मेरी शिखर यात्रा पर आधारित)
प्रस्तुत पद में कवि सूरदास ने कृष्ण की बाल-लीला का वर्णन करते हुए उसके स्वभाव, भोलेपन एवं माता यशोदा के वात्सल्य का सुंदर चित्रण किया है।
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।
मोसों कहत मोल को लीनो, तोहि जसुमति कब जायो।।
कहा कहौं इहि रिस के मारे, खेलन हौं नहिं जात।
पुनि पुनि कहत कौन है माता, को है तुमरो तात।।
गोरे नंद जसोदा गोरी, तुम कत स्याम सरीर।
चुटकी दै दै हँसत ग्वाल, सब सिखै देत बलबीर।।
तू मोहिं को मारन सीखी, दाउहि कबहुँ न खीझै।
मोहन को मुख रिस समेत लखि, जसुमति सुनि सुनि रीझे।।
सुनहु कान्ह बलभद्र चवाई, जनमत ही को धूत।
'सूर' स्याम मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत।।
प्रस्तुत पंक्तियों में भाई बलराम के प्रति कृष्ण की शिकायत का मोहक वर्णन किया गया है। कृष्ण अपनी माँ यशोदा से शिकायत करता है कि भाई मुझे बहुत चिढ़ाता है। वह मुझसे कहता है कि तुम्हें यशोदा माँ ने जन्म नहीं दिया है बल्कि मोल लिया है। इसी गुस्से के कारण उसके साथ मैं खेलने नहीं जाता। वह मुझसे बार-बार पूछता है कि तुम्हारे माता-पिता कौन है? वह यह भी कहता है कि नंद और यशोदा तो गोरे हैं, लेकिन तुम्हारा शरीर क्यों काला है? उसकी ऐसी हँसी-मज़ाक सुनकर मेरे सब ग्वाल मित्र चुटकी बजा बजाकर हँसते हैं। उन्हें बलराम ने ही ऐसा करना सिखाया है। माँ, तुमने केवल मुझे ही मारना सीखा है और भाई पर कभी गुस्सा नहीं करती। (अपने भाई के प्रति क्रोधित और सखाओं द्वारा अपमानित) कृष्ण के क्रोधयुत मुख को देखकर और उसकी बातों को सुनकर यशोदा खुश हो जाती है। वह कहती है हे कृष्ण ! सुनो । बलराम जन्म से ही चुगलखोर है। मैं गोधन की कसम - खाकर कहती हूँ, मैं ही तेरी माता हूँ और तुम मेरे पुत्र हो।
इस पद में सूरदास ने वालकृष्ण के भोलेपन और यशोदा के वात्सल्य का मार्मिक चित्रण किया है।