मंगलवार, 9 नवंबर 2021

आदिगुरु शंकराचार्य | ADI SHANKARA CHARYA

आदिगुरु शंकराचार्य 

नदी की वेगवती धारा में माँ-बेटे घिर गए थे। बेटे ने माँ से कहा - "यदि आप मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दें तो मैं बचने की चेष्टा करूँ, अन्यथा यहीं डूब जाऊँगा। उसने अपने हाथ-पैर ढीले छोड़ दिए। पुत्र को डूबता देखकर उसकी माँ ने स्वीकृति दे दी। पुत्र ने स्वयं तथा माँ दोनों को बचा लिया।' 
- यह बालक शंकराचार्य थे।

शंकराचार्य के मन में बचपन से ही संन्यासी बनने की प्रबल इच्छा जाग उठी थी। माँ की अनुमति मिलने पर वे संन्यासी बन गए।

शंकराचार्य के बचपन का नाम शंकर था। इनका जन्म दक्षिण भारत के केरल प्रदेश में पूर्णा नदी के तट पर स्थित कालडी ग्राम में आज से लगभग बारह सौ वर्ष पहले हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम आर्यम्बा था। इनके पिता बड़े विद्वान थे तथा इनके पितामह भी वेद-शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनका परिवार अपने पांडित्य के लिये विख्यात था।

इनके बारे में ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी - 'आपका पुत्र महान विद्वान, यशस्वी तथा भाग्यशाली होगा' इसका यश पूरे विश्व में फैलेगा और इसका नाम अनन्त काल तक अमर रहेगा'। पिता शिवगुरु यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने पुत्र का नाम शंकर रखा। ये अपने माँ-बाप की इकलौती सन्तान थे। शंकर तीन ही वर्ष के थे कि इनके पिता का देहान्त हो गया। पिता की मृत्यु के बाद माँ आर्यम्बा शंकर को घर पर ही पढ़ाती रही। पाँचवे वर्ष उपनयन संस्कार हो जाने पर माँ ने इन्हें आगे अध्ययन के लिए गुरु के पास भेज दिया। शंकर कुशाग्र एवं अलौकिक बुद्धि के बालक थे। इनकी स्मरण शक्ति अद्भत थी। जो बात एक बार पढ़ लेते या सुन लेते उन्हें याद हो जाती थी। इनके गुरु भी इनकी प्रखर मेधा को देखकर आश्चर्यचकित थे। शंकर कुछ ही दिनों में वेदशास्त्रों एवं अन्य धर्मग्रन्थों में पारंगत हो गये। शीघ्र ही इनकी गणना प्रथम कोटि के विद्वानों में होने लगी।

शंकर गुरुकुल में सहपाठियों के साथ भिक्षा माँगने जाते थे। वे एक बार कहीं भिक्षा माँगने गये। अत्यन्त विपन्नता के कारण गृहस्वामिनी भिक्षा न दे सकी अतः रोने लगी।

शंकर के हृदय पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा।

विद्या अध्ययन समाप्त कर शंकर घर वापस लौटे। घर पर वे विद्यार्थियों को पढ़ाते तथा माँ की सेवा करते थे। इनका ज्ञान और यश चारों तरफ फैलने लगा। केरल के राजा ने इन्हें अपने दरबार का राजपुरोहित बनाना चाहा किन्तु इन्होंने बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया। राजा स्वयं शंकर से मिलने आये। उन्होंने एक हजार अशर्फियाँ इन्हें भेंट की और इन्हें तीन स्वरचित नाटक दिखाये। शंकर ने नाटकों की प्रशंसा की किन्तु अशर्फियाँ लेना अस्वीकार कर दिया। शंकर के त्याग एवं गुणग्राहिता के कारण राजा इनके भक्त बन गए।

अपनी माँ से अनुमति लेकर शंकर ने संन्यास ग्रहण कर लिया। माँ ने अनुमति देते समय शंकर से वचन लिया कि वे उनका अन्तिम संस्कार अपने हाथों से ही करेंगे। यह जानते हुए भी कि संन्यासी यह कार्य नहीं कर सकता उन्होंने माँ को वचन दे दिया। माँ से आज्ञा लेकर शंकर नर्मदा तट पर तप में लीन संन्यासी गोविन्दनाथ के पास पहुँचे। शंकर जिस समय वहाँ पहुँचे गोविन्दनाथ एक गुफा में समाधि लगाये बैठे थे। समाधि टूटने पर शंकर ने उन्हें प्रणाम किया और बोले - 'मुझे संन्यास की दीक्षा तथा आत्मविद्या का उपदेश दीजिए।'

गोविन्दनाथ ने इनका परिचय पूछा तथा इनकी बातचीत से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने संन्यास की दीक्षा दी और इनका नाम शंकराचार्य रखा। वहाँ कुछ दिन अध्ययन करने के बाद वे गुरु की अनुमति लेकर सत्य की खोज के लिए निकल पड़े। गुरु ने उन्हें पहले काशी जाने का सुझाव दिया।

शंकराचार्य काशी में एक दिन गंगा स्नान के लिए जा रहे थे। मार्ग में एक चांडाल मिला। शंकराचार्य ने उसे मार्ग से हट जाने के लिए कहा। उस चांडाल ने विनम्र भाव से पूछा 'महाराज! आप चांडाल किसे कहते हैं? इस शरीर को या आत्मा को? यदि शरीर को तो वह नश्वर है और जैसा अन्न-जल का आपका शरीर वैसा ही मेरा भी। यदि शरीर के भीतर की आत्मा को, तो वह सबकी एक है, क्योंकि ब्रह्म एक है। शंकराचार्य को उसकी बातों से सत्य का ज्ञान हुआ और उन्होंने उसे धन्यवाद दिया।

काशी में शंकराचार्य का वहाँ के प्रकाण्ड विद्वान मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ हुआ। यह शास्त्रार्थ कई दिन तक चला। मंडन मिशर तथा उनकी पत्नी भारती को बारी-बारी से इनसे शास्त्रार्थ हुआ। पहले शंकराचार्य भारती से हार गए किन्तु पुनः शास्त्रार्थ होने पर वे जीते। मंडन मिश्र तथा उनकी पत्नी शंकराचार्य के शिष्य बन गये।

महान कर्मकाण्डी कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करने के लिए वे प्रयागधाम गए। भट्ट बड़े-बड़े विद्वानों को परास्त करने वाले दिग्विजयी विद्वान थे।

संन्यासी शंकराचार्य विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते रहे। वे श्रुंगेरी में थे तभी माता की बीमारी का समाचार मिला। वहु तुरन्त माँ के पास पहुँचे। वह इन्हें देखकर बड़ी प्रसन्न हुईं। कहते हैं कि इन्होंने माँ को भगवान विष्णु का दर्शन कराया और लोगों के विरोध करने पर भी माँ का दाह संस्कार किया।

शंकराचार्य ने धर्म की स्थापना के लिए सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया। उन्होंने भग्न मंदिरों का जीणों द्धार कराया तथा नये मन्दिरों की स्थापना की। लोगों को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में पिरोने के लिए उन्होंने भारत के चारों कोनों पर चार धामों (मठों) की स्थापना की। इनके नाम हैं - श्री बदरीनाथ, द्वारिकापुरी, जगन्नाथपुरी तथा श्री रामेश्वरम्। ये चारों धाम आज भी विद्यमान हैं। इनकी शिक्षा का सार है –

“ब्रह्म सत्य है तथा जगत मिथ्या है” इसी मत का इन्होंने प्रचार किया।

शंकराचार्य बड़े ही उज्जवल चरित्र के व्यक्ति थे। वे सच्चे संन्यासी थे तथा उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। इन्होंने भाष्य, स्तोत्र तथा प्रकरण ग्रन्थ भी लिखे। इनका देहावसान मात्र 32 वर्ष की अवस्था में हो गया। उनका अन्तिम उपदेश था -

“हे मानव! तू स्वयं को पहचान, स्वयं को पहचानने के बाद, तू ईश्वर को पहचान जायेगा।“

संत नामदेव | SANT NAMDEV | नामदेव का भजन 'अभंग'

संत नामदेव

जिस प्रकार उत्तर भारत में अनेक सन्त हुए हैं, उसी प्रकार दक्षिण भारत में भी महान सन्त हुए हैं, जिनमें नामदेव भी एक हैं। नामदेव के जीवन के सम्बन्ध में कुछ ठीक से ज्ञात नहीं है। इतना पता चलता है कि जिन्होंने इन्हें पाला, उनका नाम दामोदर था। दामोदर की पत्नी का नाम गुणाबाई था। वे पंढरपुर में गोकुलपुर नामक गाँव में रहते थे। भीमा नदी के किनारे इन्हें नामदेव शिशु की अवस्था में मिले थे। यही नामदेव के माता-पिता माने जाते हैं। घटना आज से लगभग आठ सौ साल पहले की है।

उनकी शिक्षा कहाँ हुई थी, इसका पता नहीं। इतना पता लगता है कि आठ वर्ष की अवस्था से वे योगाभ्यास करने लगे। उसी समय से उन्होंने अन्न खाना छोड़ दिया और शरीर की रक्षा के लिए केवल थोड़ा-सा दूध पी लिया करते थे। स्वयं अध्ययन करके इन्होंने अपूर्व बुद्धि तथा ज्ञान प्राप्त किया था।

नामदेव के विषय में अनेक चमत्कारी कथाएँ मिलती हैं। एक घटना इस प्रकार बतायी गयी है कि एक बार इनके पिता इनकी माता को साथ लेकर कहीं बाहर गये। यह लोग कृष्ण के बड़े भक्त थे और घर में विट्ठलनाथ की मूर्ति स्थापित कर रखी थी जिसकी नियमानुसार प्रतिदिन पूजा होती थी। नामदेव से उन लोगों ने कहा, हम लोग बाहर जा रहे हैं। विट्ठलनाथ को खिलाये बिना न खाना। उनका अभिप्राय भोग लगाने का था किन्तु नामदेव ने सीधा अर्थ लिया। दूसरे दिन भोजन बनाकर थाल परोसकर मूर्ति के पास पहुँच गये और विट्ठलनाथ से भोजन करने का आग्रह करने लगे। बारम्बार कहने पर भी विट्ठलनाथ टस से मस नहीं हुए। नामदेव झुंझलाकर वहीं बैठ गये। माता-पिता की आज्ञा की अवहेलना करना वे पाप समझते थे। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक विट्ठलनाथ भोजन नहीं ग्रहण करेंगे, मैं यूँ ही बैठा रहूँगा। कहा जाता है कि नामदेव के हठ से विट्ठलनाथ ने मनुष्य शरीर धारण कर भोजन ग्रहण किया।

जब नामदेव के पिता लौटे और उन्होंने यह घटना सुनी तब उन्हें विश्वास नहीं हुआ किन्तु जब बार-बार नामदेव ने कहा तब उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वे जानते थे कि यह बालक कभी झूठ नहीं कहेगा। उन्होंने कहा, “बेटा, तू भाग्यवान है। तेरा जन्म लेना इस संसार में सफल हुआ। भगवान तुझ पर प्रसन्न हुए और स्वयं तुझे दर्शन दिया।” नामदेव यह सुनकर पुलकित हो गए और उसी दिन से दूनी लगन से पूजा करने लगे।

एक दिन नामदेव औषधि के लिए बबूल की छाल लेने गये। पेड़ की छाल इन्होंने काटी ही थी कि उसमें रक्त के समान तरल पदार्थ बहने लगा। नामदेव को ऐसा लगा कि जैसे उन्होंने मनुष्य की गर्दन पर कुल्हाड़ी चलायी है। पेड़ को घाव पहुँचाने का इन्हें पश्चाताप हुआ। उसी दिन उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे घर छोड़कर चले गये। घर छोड़ने के बाद ये देश के अनेक भागों में भ्रमण करते रहे। साधु-सन्तों के साथ रहते थे और भजन-कीर्तन करते थे। एक बार की घटना है कि चार सौ भक्तों के साथ यह कहीं जा रहे थे। लोगों ने समझा कि डाकुओं का दल है, डाका डालने के लिए कहीं जा रहा है। अधिकारियों ने पकड़ लिया और राजा के पास ले गये। वहीं राजा के सामने एक मृत गाय को जीवित कर इन्होंने राजा को चमत्कृत कर दिया। राजा यह चमत्कार देखकर डर गया। नामदेव के सम्बन्ध में ऐसी सैकड़ों घटनाओं का वर्णन मिलता है। इन घटनाओं में सच्चाई न भी हो तो भी उनसे इतना पता चलता है कि उनकी शक्ति एवं प्रतिभा अलौकिक थी। कठिन साधना और योग के अभ्यास के बल पर बहुत से कार्यों को भी उन्होंने सम्भव कर दिखाया।

वे स्वयं भजन बनाते थे और गाते थे। उनके शिष्य भी गाते थे। इन भजनों को 'अभंग' कहते हैं। उनके रचे सैकड़ों अभंग मिलते हैं और महाराष्ट्र के रहने वाले बड़ी भक्ति तथा श्रद्धा से आज भी उनके अभंग गाते हैं। महाराष्ट्र में उनका नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है।

महाराष्ट्र ही नहीं, सारे देश के लोग उन्हें बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं और उनकी गणना उसी श्रेणी में है जिसमें तुलसी, रामदास, नरसी मेहता और कबीर की है।

महाकवि कालिदास | MAHAKAVI KALIDAS | मेघदूत | ऋतुसंहार | अभिज्ञानशाकुन्तल | रघुवंश | कुमारसम्भव

महाकवि कालिदास


क्या आप कभी यह कल्पना कर सकते हैं कि बादल भी किसी का सन्देश दूसरे तक पहुँचा सकते हैं? संस्कृत साहित्य में एक ऐसे महाकवि हुए हैं, जिन्होंने मेघ के द्वारा सन्देश भेजने की मनोहारी कल्पना की। वे हैं संस्कृत के महान कवि कालिदास।

कालिदास कौन थे ? उनके माता-पिता का क्या नाम था ? उनका जन्म कहाँ हुआ था ? इस बारे में कुछ ज्ञात नहीं है। उन्हांेने अपने जीवन के विषय में कहीं कुछ नहीं लिखा है। अत: उनके बारे में जो कुछ भी कहा जाता है वह अनुमान पर आधारित है। कहा जाता है कि पत्नी विद्योत्तमा की प्रेरणा से उन्होंने माँ काली देवी की उपासना की जिसके फलस्वरूप उन्हें कविता करने की शक्ति प्राप्त हुई और वह कालिदास कहलाए।

कविता करने की शक्ति प्राप्त हो जाने के बाद जब वे घर लौटे तब अपनी पत्नी से कहा “अनावृतं कपाटं द्वारं देहि” (अर्थात दरवाजा खोलो) पत्नी ने कहा “अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष: ।” (वाणी मं कुछ विशेषता है) कालिदास ने यह तीन शब्द लेकर तीन काव्य गरन्थों की रचना की।

इसे भी जानिये

‘अस्ति' से कुमार सम्भव के प्रथम श्लोक, ‘कश्चित्' से मेघदूत के प्रथम श्लोक और 'वाक्' से रघुवंश के प्रथम श्लोक की रचना की।

महाकवि कालिदास ई०पू० प्रथम शताब्दी में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के राजकवि थे। ये शिव-भक्त थे। उनके गरन्थों के मंगल श्लोकों से इस बात की पुष्टि होती है। मेघदूत और रघुवंश के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उन्होंने भारतवर्ष की विस्तृत यात्रा की थी। इसी कारण उनके भौगोलिक वर्णन सत्य, स्वाभाविक और मनोरम हुए। रचनाएँ

महाकाव्य - रघुवंश, कुमारसम्भव

नाटक - अभिज्ञानशाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्र

खण्डकाव्य या गीतकाव्य - ऋतुसंहार, मेघदूत

महाकवि कालिदास के ग्रन्थों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि उन्होंने वेदों, उपनिषदों, दर्शनों, रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों, शास्त्रीय संगीत, ज्योतिष, व्याकरण,एवं छन्दशास्तर आदि का गहन अध्ययन किया था।

महाकवि कालिदास अपनी रचनाओं के कारण सम्पूर्ण विश्व में परसिद्ध हैं। उनके कवि हृदय में भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव था। अभिज्ञानशाकुन्तल में शकुन्तला की विदा बेला पर महर्षि कण्व द्वारा दिया गया उपदेश आज भी भारतीय समाज के लिए एक सन्देश है -

अपने गुरुजनों की सेवा करना, कुरोध के आवेश में प्रतिकूल आचरण न करना, अपने आश्रितों पर उदार रहना, अपने ऐश्वर्य पर अभिमान न करना, इस प्रकार आचरण करने वाली स्त्रियाँ गृहलक्ष्मी के पद को प्राप्त करती हैं।

अभिज्ञानशाकुन्तल

महाकवि कालिदास का प्रकृति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे प्रकृति को सजीव और मानवीय भावनाओं से परिपूर्ण मानते थे। उनके अनुसार मानव के समान वे भी सुख-दुःख का अनुभव करती है। शकुन्तला की विदाई बेला पर आश्रम के पशु-पक्षी भी व्याकुल हो जाते हैं.

हिरणी कोमल कुश खाना छोड़ देती है, मोर नाचना बन्द कर देते हैं और लताएँ अपने पीले पत्ते गिराकर मानों अपनी प्रिय सखी के वियोग में अश्रुपात (आँसू गिराने) करने लगती हैं।

अभिज्ञानशाकुन्तल

कालिदास अपनी उपमाओं के लिए भी संसार में परसिद्ध हैं। उनकी उपमाएँ अत्यन्त मनोरम हैं और सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं। अभिज्ञानशाकुन्तल के चतुर्थ अंक में कालिदास ने शकुन्तला की विदाई बेला पर प्रकृति द्वारा शकुन्तला को दी गयी भेंट का मनोहारी चितरण किया है।

"किसी वृक्ष ने चन्द्रमा के तुल्य श्वेत मांगलिक रेशमी वस्तर दिया। किसी ने पैरों को रंगने योग्य आलक्तक (आलता महावर) प्रकट किया। अन्य वृक्षों ने कलाई तक उठे हुए सुन्दर किसलयों (कोपलों) की प्रतिस्पर्धा करने वाले, वन देवता के करतलों (हथेलियों) से आभूषण दिये।"

कालिदास अपने नाटक अभिज्ञानशाकुन्तल के कारण भारत में ही नहीं विश्व में सर्वशरेष्ठ नाटककार माने जाते हैं। भारतीय समालोचकों ने कालिदास का अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक सभी नाटकों में सर्वश्रेष्ठ बताया है

"काव्येषु नाटकं रम्यं तंतर रम्या शकुन्तला "

संसार की सभी भाषाओं में कालिदास की इस रचना का अनुवाद हुआ है। जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान गेटे ‘अभिज्ञानशाकुन्तल' नाटक को पढ़कर भाव विभोर हो उठे और कहा यदि स्वर्गलोक और मर्त्यलोक को एक ही स्थान पर देखना हो तो मेरे मँह से सहसा एक ही नाम निकल पड़ता है शकुन्तला..

महाकवि कालिदास को भारत का 'शेक्सपियर' कहा जाता है। कालिदास और संस्कृत साहित्य का अटूट सम्बन्ध है। जिस प्रकार रामायण और महाभारत संस्कृत कवियों के आधार हैं उसी प्रकार कालिदास के काव्य और नाटक आज भी कवियों के लिए अनुकरणीय बने हैं।

सोमवार, 8 नवंबर 2021

सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन | SARVEPALLI RADHAKRISHNAN

सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन 
SARVEPALLI RADHAKRISHNAN

तुम जब सफलता की ऊँचाइयों तक पहुँच जाओ तो उस समय अपने कदमों को यथार्थ के धरातल से डिगने मत देना। - सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन

क्या आप जानते हैं आपके विद्यालय में प्रतिवर्ष 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस क्यों मनाया जाता है?

पाँच सितम्बर का दिन महान दार्शनिक, कुशल शिक्षक एवं गणतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन की याद दिलाता है। इनका जन्म 5 सितम्बर 1888 को तमिलनाडु के तिरुतानी गाँव में हुआ था।

वैसे तो समय-समय पर सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन इस देश के अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन हुए हैं। लेकिन एक शिक्षक के रूप में उन्होंने जो किया है वह युगों-युगों तक स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। मद्रास (चेन्नई) प्रेसीडेन्सी कॉलेज के सहायक अध्यापक पद से शुरू करके विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपति तक के सफर में इन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए। ये जहाँ भी गए वहाँ कुछ न कुछ सुधारात्मक बदलाव जरूर हुआ। आन्ध्र विश्वविद्यालय को इन्होंने आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय को राजधानी का श्रेष्ठ ज्ञान केन्द्र बनाने का भरपूर प्रयास किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए किया गया उनका कार्य विशेष उल्लेखनीय है।

इनकी माता का नाम श्रीमती सीतम्मा तथा पिता का नाम सर्वपल्ली वीरास्वामी था। आरम्भिक शिक्षा गाँव के ही स्कूल में तथा मद्रास (चेन्नई) क्रिश्चियन कॉलेज से बी.ए. एवं एम.ए.

** 17 वर्ष की उम्र में ही शिवकमुअम्मा से शादी।

** 1909 में मद्रास (चेन्नई) के प्रेसीडेन्सी कॉलेज से शिक्षक जीवन की शुरुआत।

** 1918 में मैसूर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक हुए।

** 1921 में कोलकाता विश्वविद्यालय चले गए और दर्शनशास्त्र का शिक्षण करने लगे।

** 1928 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के साथ शैक्षिक सम्बन्धों की शुरुआत।

** 1931 में आन्ध्र विश्वविद्यालय के कुलपति बने।

** 1939 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति पद का कार्यभार दिया गया।

** 1954 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति बने तथा इसी वर्ष भारत के सर्वोच्च सम्मान "भारत रत्न” से सम्मानित किए गए।

** 1956 में पत्नी शिवकमुअम्मा का निधन।

** 17 अपरैल 1975 को देहावसान।

प्रमुख पुस्तकें -

द एथिक्स ऑफ वेदान्त, द फिलॉसफी ऑफ रवीन्द्र नाथ टैगोर, माई सर्च फार थ, द रेन ऑफ कंटम्परेरी फिलॉसफी, रिलीजन एण्ड सोसाइटी, इण्डियन फिलॉसफी, द एसेन्सियल आफ सायकॉलजी।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने भारत छोड़ो आन्दोलन में बढ़कर हिस्सा लिया। परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश के तात्कालिक गवर्नर सर मारिस हेलेट ने क्रुद्ध होकर पूरे विश्वविद्यालय को युद्ध अस्पताल में बदल देने की धमकी दी। डॉ. राधाकृष्णन तुरन्त दिल्ली गए और वहाँ वायसराय लार्ड लिनालियगो से मिले। उन्हें अपनी बातों से प्रभावित कर गवर्नर के निर्णय को स्थगित कराया। फिर एक नई समस्या आई। क्रुद्ध गवर्नर ने विश्वविद्यालय की आर्थिक सहायता बन्द कर दी। लेकिन राधाकृष्णन ने शान्तिपूर्वक येनकेन प्रकारेण धन की व्यवस्था की और विश्वविद्यालय संचालन में धन की कमी को आड़े नहीं आने दिया।

राधाकृष्णन ने कई प्रकार से अपने देश की सेवा की, किन्तु सर्वोपरि वे एक महान शिक्षक रहे जिससे हम सबने बहुत कुछ सीखा और सीखते रहेंगे। - पं. जवाहर लाल नेहरू

शिक्षा के क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदान को देखते हुए भारत सरकार की ओर से वर्ष 1954 में उन्हें स्वतंत्र भारत के सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से विभूषित किया गया। डॉ. राधाकृष्णन 'भारत रत्न' से सम्मानित किए जाने वाले प्रथम भारतीय नागरिक थे। वास्तव में उनका भारत रत्न से सम्मानित होना देश के हर शिक्षक के लिए गौरव की बात थी।

राजनीति और राधाकृष्णन -

सन् 1949 में राधाकृष्णन को सोवियत संघ में भारत के प्रथम राजदूत के रूप में चुना गया। उस समय वहाँ के राष्ट्रपति थे जोसेफ स्तालिन। इनके चयन से लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। आदर्शवादी दर्शन की व्याख्या करने वाला एक शिक्षक भला भौतिकवाद की धरती पर कैसे टिक पायेगा? लेकिन सबको विस्मृत करते हुए डॉ. राधाकृष्णन ने अपने चयन को सही साबित कर दिखाया। उन्होंने भारत और सोवियत रूस के बीच सफलतापूर्वक एक मित्रतापूर्ण समझदारी की नींव डाली।

विशेष उल्लेखनीय : -

** सोवियत संघ में राजदूत बनकर मास्को और भारत के बीच दोस्ती की नींव डाली। (1949-1954)

** भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति के रूप में सदन की कार्यवाही में एक नया आयाम परस्तुत किया। (1952-1962)

** भारत के राष्ट्रपति के रूप में देश का मान बढ़ाया । (1962-1967)

डॉ. राधाकृष्णन को विदेशों में जब भी मौका मिलता स्वतंत्रता के पक्ष में अपने विचार व्यक्त करने से नहीं चूकते। उनका कहना था - “भारत कोई गुलाम नहीं जिस पर शासन किया जाय, बल्कि यह अपनी आत्मा की खोज में लगा एक राष्ट्र है।"

शासनाध्यक्ष राधाकृष्णन : -

सन् 1955 में डॉ. राधाकृष्णन स्वतंत्र भारत के उप राष्ट्रपति के पद पर चुने गए। यह चुनाव आदर्श साबित हुआ। जितनी मर्यादा उन्हें उपराष्ट्रपति पद से मिली उससे कहीं ज्यादा उन्होंने उस पद की मर्यादा में वृद्धि की। राधाकृष्णन अक्सर राज्य सभा में होने वाली गरमागरम बहस के बीच अपनी विनोदपूर्ण टिप्पणियों से वातावरण को सरस बना देते थे। राधाकृष्णन जिस तरीके से राज्य सभा की कार्यवाही का संचालन करते थे उससे प्रतीत होता था कि यह सभा की बैठक नहीं बल्कि पारिवारिक मिलन समारोह है।

-जवाहर लाल नेहरू

1962 में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय गणतंत्र के दूसरे राष्ट्रपति बने। वे कभी भी एक दल अथवा कार्यक्रम के समर्थक नहीं रहे। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने विदेशों में अपने भाषण के दौरान राजनीतिज्ञों एवं लोगों को प्रेरित किया - “लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में अपने कर्तव्य का पालन करें। इस बात को पूरी तरह समझ लें कि लोकतंत्र का अर्थ मतभेदों को मिटा डालना नहीं बल्कि मतभेदों के बीच समन्वय का रास्ता निकालना है।"

1967 में राष्ट्रपति पद से मुक्त होते हुए उन्होंने देशवासियों को सचेत करते हुए कहा - “इस धारणा को बल नहीं मिलना चाहिए कि हिंसापूर्ण अव्यवस्था फैलाये बिना कोई परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। सार्वजनिक जीवन के सभी पहलुओं में जिस प्रकार से छल-कपट प्रवेश कर गया है उसके लिए अधिक बुद्धिमत्ता का सहारा लेकर हमें अपने जीवन में उचित परिवर्तन लाना चाहिए। समय के साथ-साथ हमें आगे जरूर बढ़ते रहना चाहिए।”

सरस वक्ता :-

डॉ. राधाकृष्णन एक कुशल वक्ता थे। इनके वक्तव्य को लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। वे गंभीर से गंभीर विषयों का प्रस्तुतीकरण अत्यन्त सहज रूप से कर लेते थे। इनके व्याख्यानों से देश ही नहीं वरन् पूरी दुनिया के लोग प्रभावित थे। वे कठिन से कठिन विषयों की व्याख्या आधुनिक शब्दावलियों में इस प्रकार करते थे कि इसका प्रयोग लोग अपनी आधुनिक अनुभूतियों के अनुरूप कर सकें।

मद्रास (चेन्नई) प्रेसीडेंसी कॉलेज के एक छात्र के शब्दों में -“जितनी देर तक वे पढ़ाते थे, उतने समय तक उनका प्रस्तुतीकरण उत्कृष्ट था। वे जो कुछ भी पढ़ाते थे, सभी के लिए सुगम था। उन्होंने कभी कोई कठोर बात नहीं कही, फिर भी उनकी कक्षाओं में अत्यधिक अनुशासन का पालन होता था।"

राधाकृष्णन के व्याख्यानों ने भारतीय तथा यूरोपियन, दो भिन्न संस्कृतियों को समझने के लिए सेतु का काम किया। - प्रसिद्ध उपन्यासकार एल्डस हक्सले।

घर वापसी :-

डॉ. राधाकृष्णन राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद मई 1967 में मद्रास (चेन्नई) स्थित अपने घर के सुपरिचित माहौल में लौट आये और जीवन के अगले आठ वर्ष बड़े ही आनन्दपूर्वक व्यतीत किये।

भारतीय दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान, कुशल राजनीतिज्ञ एवं अद्वितीय शिक्षक के रूप में विख्यात डॉ. राधाकृष्णन 17 अप्रैल, 1975 को इस दुनिया से चल बसे। जीवन भर वे 'ह्यूम' की सलाह -“एक दार्शनिक बनो, परन्तु कीर्ति अर्जित करने के साथ ही एक मानव बने रहो, पर चलते रहे।“

राधाकृष्णन के दुबले-पतले शरीर में एक महान आत्मा का निवास था - एक ऐसी श्रेष्ठ आत्मा जिसकी हम सभी श्रद्धा, प्रशंसा, यहाँ तक कि पूजा करना भी सीख गए। - नोबेल पुरस्कार विजेता, सी.वी. रमन

शनिवार, 7 अगस्त 2021

पंद्रह अगस्त - गिरिजाकुमार माथुर

पंद्रह अगस्त - गिरिजाकुमार माथुर



काव्य परिचय :

प्रस्तुत गीत में कवि ने स्वतंत्रता के उत्साह को अभिव्यक्त किया है। स्वतंत्रता के पश्चात विदेशी शासकों से मुक्ति का उल्लास देश में चारों ओर छलक रहा है। इस नवउल्लास के साथ-साथ कवि देशवासियों तथा सैनिकों को सजग और जागरूक रहने का आवाहन कर रहा है। समस्त भारतवासियों का लक्ष्य यही होना चाहिए कि भारत की स्वतंत्रता पर अब कोई आँच न आने पाए क्योंकि दुखों की काली छाया अभी पूर्ण रूप से हटी नहीं है। जब शोषित, पीड़ित और मृतप्राय समाज का पुनरुत्थान होगा तभी सही मायने में भारत आजाद कहलाएगा।



आज जीत की रात
पहरुए, सावधान रहना!
खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना।
प्रथम चरण है नये स्वर्ग का
है मंजिल का छोर,
इस जनमंथन से उठ आई
पहली रतन हिलोर,
अभी शेष है पूरी होना
जीवन मुक्ता डोर,
क्योंकि नहीं मिट पाई दुख की
विगत साँवली कोर,
ले युग की पतवार
बने अंबुधि महान रहना,
पहरुए, सावधान रहना!


विषम श्रृंखलाएँ टूटी हैं
खुल समस्त दिशाएँ,
आज प्रभंजन बनकर चलतीं
युग बंदिनी हवाएँ.
प्रश्नचिह्न बन खड़ी हो गईं
ये सिमटी सीमाएँ,
आज पुराने सिंहासन की
टूट रहीं प्रतिमाएँ,
उठता है तूफान
इंदु, तुम दीप्तिमान रहना,
पहरुए, सावधान रहना!


ऊँची हुई मशाल हमारी
आगे कठिन डगर है,
शत्रु हट गया लेकिन उसकी
छायाओं का डर है,
शोषण से मृत है समाज
कमजोर हमारा घर है,
किंतु आ रही नई जिंदगी
यह विश्वास अमर है,
जनगंगा में ज्वार
लहर तुम प्रवहमान रहना,
पहरुए, सावधान रहना !

('धूप के धान' काव्य संग्रह से)



कवि परिचय : गिरिजाकुमार माथुर जी का जन्म २२ अगस्त १९१९ को अशोक नगर (मध्य प्रदेश) में हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा झाँसी में तथा स्नातकोत्तर शिक्षा लखनऊ में हुई। आपने ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली तथा आकाशवाणी लखनऊ में सेवा प्रदान की। संयुक्त राष्ट्र संघ, न्यूयार्क में सूचनाधिकारी का पदभार भी सँभाला। आपके काव्य में राष्ट्रीय चेतना के स्वर मुखरित होने के कारण प्रत्येक भारतीय के मन में जोश भर देते हैं। माथुर जी की मृत्यु १९९४ में हुई।

प्रमुख कृतियाँ : 'मंजीर', 'नाश और निर्माण', 'धूप के धान', 'शिलापंख चमकीले', 'जो बँध नहीं सका', 'साक्षी रहे वर्तमान', 'मैं वक्त के हूँ सामने' (काव्य संग्रह) आदि।

काव्य प्रकार : यह 'गीत' विधा है जिसमें एक मुखड़ा और दो या तीन अंतरे होते हैं। इसमें परंपरागत भावबोध तथा शिल्प प्रस्तुत किया जाता है। कवि अपने कथ्य की अभिव्यक्ति हेतु प्रतीकों, बिंबों तथा उपमानों को लोक जीवन से लेकर उनका प्रयोग करता है। 'तार सप्तक' के कवियों में अज्ञेय, मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर, नेमिचंद्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, रामविलास शर्मा का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

बुधवार, 4 अगस्त 2021

शनि : सबसे सुंदर ग्रह | गुणाकर मुले | SATURN | टायटन |

शनि : सबसे सुंदर ग्रह 
गुणाकर मुले


सौर-मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के बाद शनि ग्रह की कक्षा है। शनि सौर-मंडल का दूसरा बड़ा ग्रह है। यह हमारी पृथ्वी से करीब 750 गुना बड़ा है। शनि के गोले का व्यास 116 हज़ार किलोमीटर है अर्थात् पृथ्वी के व्यास से करीब नौ गुना अधिक। हमारी पृथ्वी सूर्य से करीब 15 करोड़ किलोमीटर की दूरी पर है। तुलना में शनि ग्रह दस गुना अधिक दूर है। इसे दूरबीन के बिना कोरी आँखों से भी आकाश में पहचाना जा सकता है। 

हमारी पौराणिक कथाओं के अनुसार शनि महाराज सूर्य के पुत्र हैं। शनि को 'शनैश्चर' भी कहते है। आकाश के गोल पर यह ग्रह बहुत धीमी गति से चलता दिखाई देता है। इसीलिए प्राचीन काल के लोगों ने इसे 'शनैःचर' नाम दिया था। शनैचर का अर्थ होता है धीमी गति से चलनेवाला। 

लेकिन बाद के लोगों ने इस शनैश्चर को सनीचर बना डाला। सनीचर का नाम लेते ही अंधविश्वासियों की रूह काँपने लगती है। एक बार यदि यह ग्रह किसी की राशि में पहुंच जाये, तो फिर साढ़े सात साल तक उसकी खैर नहीं।

शनि को यदि दूरबीन से देखा जाये तो इस ग्रह के चहुँ ओर वलय (गोल) दिखाई देते हैं। प्रकृति ने इस ग्रह के गले में खूबसूरत हार डाल दिये है। शनि के इन वलयों या कंकणों ने इस ग्रह को सौर-मंडल का सबसे सुंदर एवं मनोहर ग्रह बनाया है। वस्तुतः शनि सौर-मंडल का सर्वाधिक सुंदर ग्रह है।

ताज़ी जानकारी के अनुसार बृहस्पति, युरेनस और नेपच्यून के इर्द-गिर्द भी वलय हैं, परंतु शनि के वलय ज्यादा विस्तृत और स्पष्ट हैं। शनि के अद्भुत वलयों और इसकी अन्य अनेक विशेषताओं के बारे में विस्तृत जानकारी हमें आधुनिक काल में ही मिली है। 

शनि ग्रह अत्यंत मंद गति से करीब तीस वर्षों में सूर्य का एक चक्कर लगाता है। इसलिए साल-भर के अंतर के बाद भी आकाश में शनि की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई देता। यह एक राशि में करीब ढाई साल तक रहता है। 

शनि ग्रह सूर्य से पृथ्वी की अपेक्षा करीब दस गुना अधिक दूर है, इसलिए बहुत कम सूर्यताप उस ग्रह तक पहुँचता है - पृथ्वी का मात्र सौवाँ हिस्सा। इसलिए शनि के वायुमंडल का तापमान शून्य के नीचे 150° सेंटीग्रेड के आसपास रहता है। शनि एक अत्यन्त ठंडा ग्रह है। 

बृहस्पति की तरह शनि का वायुमंडल भी हाइड्रोजन, हीलियम, मीथेन तथा एमोनिया गैसों से बना है। शनि की सतह के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है। हम केवल इसके चमकीले बाहरी यायुमंडल को ही देख सकते हैं। शनि के केंद्रभाग में ठोस गुठली होनी चाहिए। लेकिन चंद्रमा, मंगल या शुक्र की तरह शनि की सतह पर उतर पाना आदमी के लिए संभव नहीं होगा। 

अभी दो दशक पहले तक शनि के दस उपग्रह खोजे थे। लेकिन अब शनि के उपग्रहों की संख्या 17 पर पहुँच गई है। धरती से भेजे गये स्वचालित अंतरिक्षयान पायोनियर तथा वायजर शनि के नज़दीक पहुँचे और इन्हीं के ज़रिए इस ग्रह के सात नए उपग्रह खोजे गये। शनि के और भी कुछ चंद्र हो सकते है।

शनि का सबसे बड़ा चंद्र टायटन सौर-मंडल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और 6 दिलचस्प उपग्रह है। टाइटन हमारे चंद्र से भी काफी बड़ा है। इसका व्यास 5150 किलोमीटर है। अभी कुछ साल पहले तक टाइटन को ही सौर-मंडल का सबसे बड़ा उपग्रह समझा जाता था, परंतु वायजर यान की खोजबीन से पता चला है कि बृहस्पति का गैनीमीड उपग्रह सौर-मंडल का सबसे बड़ा उपग्रह है। शनि की सतह पर अंतरिक्षयान को उतारना तो संभव नहीं है, परंतु टाइटन की सतह पर अतरिक्षयान को उतारा जा सकता है। 

शनि हमारे सौर-मंडल का एक अद्भुत और सुंदर ग्रह है। किसी भी ग्रह को शुभ या अशुभ समझने का कोई भौतिक कारण नहीं है। शनि तो हमारे सौर-मंडल का सबसे खूबसूरत ग्रह है।

बुधवार, 21 जुलाई 2021

रक्षाबंधन | डॉ परशुराम शुक्ल | RAKSHA BANDHAN | Dr. PARSHURAM SHUKLA

रक्षाबंधन - डॉ. परशुराम शुक्ल 



आशयः भाई-बहन के पवित्र संबंध की प्रगाढ़ता को दर्शानेवाला रक्षाबंधन त्योहार का महत्व समझने के साथ-साथ छात्र इस त्योहार को मनाने की विधि-से अवगत होंगे।

आज बहन ने बड़े प्रेम से,
रंग बिरंगा चौक बनाया।
इसके बाद चौक के ऊपर,
अपने भैया को बैठाया।।'



रंग बिरंगी राखी बांधी,
फिर सुन्दर-सा तिल लगाया।
गोल गोल रसगुल्ला खाकर,
भैया मन ही मन मुस्काया।।


थाल सजा कर दीप जला कर,
भाई की आरती उतारी।
मन ही मन में कहती बहना,
भैया रखना लाज हमारी।।


करना सदा बहन की रक्षा,
भैया तुमको समझाना है।
कच्चे धागों का यह बन्धन, 
रक्षाबंधन कहलाता है।।

स्वामी विवेकानंद | डॉ. जगदीश चंद्र | SWAMI VIVEKANANDA | रामकृष्ण परमहंस | नरेंद्र देव | सिस्टर निवेदिता | NARENDRANATH DATTA

स्वामी विवेकानंद - डॉ. जगदीश चंद्र 

आशय : भारत देश में जन्मे अनेक महान् व्यक्तियों ने भारत की कीर्ति विदेशों में फैलायी। ऐसे व्यक्तियों में से एक हैं स्वामी विवेकानंद। इस पाठ में उनकी महानता के परिचय के साथ देशप्रेम की प्रेरणा भी प्राप्त कर सकते हैं।

भारत के इतिहास में स्वामी विवेकानंद का नाम अमर है। इस वीर सन्यासी ने देश-विदेश में भ्रमण कर भारतीय धर्म और दर्शन का प्रसार किया तथा समाज-सेवा का नया मार्ग दिखाया। 

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ते के एक कायस्थ घराने में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेंद्र देव था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त एक प्रतिष्ठित वकील थे। उनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी धर्मपरायण महिला थीं। 


बालक नरेंद्र का शरीर स्वस्थ, सुडौल और सुंदर था। कुश्ती लड़ने, दौड़ लगाने, घुड़सवारी करने और तैरने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता था। वे संगीत एवं खेल-कूद की प्रतियोगिताओं में भी भाग लिया करते थे। नरेंद्र आरंभ से ही पढ़ाई-लिखाई में बड़े तेज थे। वे अपने स्कूल में सर्वप्रथम रहा करते थे। एन्ट्रन्स परीक्षा में भी वे प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुए थे। बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने कानून का अध्ययन प्रारंभ किया। इसी बीच में उनके पिता का देहांत हो गया। 

अध्ययन काल में उनकी रुचि व्याख्यान देने और विचारों के आदान प्रदान करने में थी। इसी कारण उन्होंने अपने कॉलेज में एक व्याख्यान-समिति बनाई थी और कई प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया था। पाश्चात्य विज्ञान तथा दर्शन का भी उन्होंने अध्ययन किया था। किशोरावस्था से ही नरेंद्र दार्शनिक एवं धार्मिक विचारों में तल्लीन रहते थे। एक दिन नरेंद्र रामकृष्ण परमहंस के पास पहुँचे और अपनी जिज्ञासा उन्हें कह सुनाई। रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को अपना शिष्य स्वीकार किया। 


स्वामी परमहंस के जीवन-दर्शन से विवेकानंद इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने अपने गुरु के संदेश का प्रसार करना चाहा। जनता को सत्य की राह दिखाने के लिए सितंबर सन् 1893 को वे संयुक्त राज्य अमरीका गये। उस समय वहाँ शिकागो नगर में सर्वधर्म सम्मेलन हो रहा था। इस महासभा में विवेकानंद ने भारतीय धर्म और तत्वज्ञान पर भाषण दिया। उनका भाषण बड़ा गंभीर एवं हृदयस्पर्शी था। उनकी वाणी सुनकर श्रोतागण मुग्ध हो गये। कुछ समय तक वे अमरीका में ही रहे और अपने भाषणों द्वारा लोगों को त्याग और संयम का पाठ पढ़ाया। इसके बाद वे इंग्लैंड और स्विट्जरलैंड भी गये और वहाँ उन्होंने सत्य और धर्म का प्रसार कर भारत के गौरव को बढ़ाया। अनेक विदेशी स्वामीजी के शिष्य बन गये। उनमें से कुमारी मार्गरेट एलिज़बेथ का नाम उल्लेखनीय है, जो स्वामीजी की अनुयायिनी बनकर सिस्टर निवेदिता के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुई। 

स्वामी विवेकानंद ने भारत में भी भ्रमण करके भारतीय संस्कृति और सभ्यता का सदुपदेश दिया। उन्होंने अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों को हटाकर धर्म का वास्तविक मर्म समझाया। साधु-सन्यासी वर्ग को भी उन्होंने शांति प्राप्त करने का नया मार्ग जताया। वह था दीन-दुखी जनों की सेवा और महायता का मार्ग।

स्वामी विवेकानंद ने समाज सेवा को परमात्मा की सच्ची सेवा बतलाया। वे स्वयं भी समाज सेवा में लग जाते थे। सन् 1897 में प्लेग और अकाल से पीड़ित भारतवासियों की उन्होंने बड़ी तन्मयता से सेवा की थी। समर्थ लोगों को उन्होंने गरीबों की दशा सुधारने का संदेश दिया। इसी ध्येय से उन्होंने कलकते में 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की। 

स्वामीजी ने अज्ञान, अशिक्षा, विदेशी अनुकरण, दास्य मनोभाव आदि के बुरे प्रभावों का बोध कराया। उन्होंने अपने भाषणों द्वारा जनता के मन से हीनता की भावना को दूर भगाने का प्रामाणिक प्रयत्न किया। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था - "प्यारे देशवासियो! वीर बनो और ललकार कर कहो कि मैं भारतीय हूँ। अनपढ़ भारतीय, निर्धन भारतीय, ऊँची जाति का भारतीय, नीच जाति का भारतीय - सब मेरे भाई हैं। उनकी प्रतिष्ठा मेरी प्रतिष्ठा है। उनका गौरव मेरा गौरव है।" 


4 जुलाई सन् 1902 को स्वामी विवेकानंद परलोक सिधारे। लेकिन आज भी उनके कार्य और संदेश अमर हैं। 

लेखक परिचय :

इस पाठ के लेखक डॉ. जगदीश चंद्र हैं। इन्होंने भारत के किशोर बालक बालिकाओं के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने के लिए अनेक महापुरुषों की जीवनियाँ लिखी हैं।



बुधवार, 14 जुलाई 2021

संत कवि रैदास | SANT RAVIDAS | HINDI

संत कवि रैदास



संत कवि रैदास का जन्म काशी के पास गांव में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। कहा जाता है कि उस दिन रविवार था इसलिए नवजात शिशु का नाम रविदास रखा गया जो बोल-चाल की 'रहदास' या रैदास' हो गया। स्वामी रामानंद के प्रमुख बारह शिष्यों में महान संत कबीर के साथ संत रैदास का नाम भी बडी श्रद्धा के साथ लिया जाता है। 

रैदास एक चर्मकार परिवार में पैदा हुए थे। नगर के बाहर ही सड़क के किनारे उन्होंने एक छोटी-सी कुटिया बना ली थी। यहाँ रहकर वे भगवान की भक्ति करते, उनके भजन गाते और आजीविका के लिए जूते बनाते या उनकी मरम्मत करते, उनके पास भगवान की एक सुंदर चतुर्भुजी मूर्ति थी जिसे वे हमेशा अपने पास रखते थे। एक किंवदंती के अनुसार रैदास के पड़ोस में एक पंडित था, वह भगवान की चतुर्भुजी मूर्ति को प्राप्त करना चाहता था। उसने रैदास से कहा, तुम हमेशा चमड़े का काम करते हो। तुम से इस मूर्ति की सेवा-पूजा ठीक से नहीं हो रही है और न ही हो सकती है। इसलिए इसे मुझे दे दो। रैदास बोले, पंडित, तुम केवल नाम के पंडित हो। तुम भक्ति भावना से पूजा नहीं करते। इसीलिए यह मूर्ति तुम्हारे पास नहीं रह सकती। 

रैदास की बात पंडित को बुरी लगी। वह स्थानीय राजा के पास गया और कहने लगा, महाराज, आपके राज्य में अधर्म हो रहा है। देखिए, रैदास जैसे लोग भगवान की पूजा कर रहे हैं। यदि यह चलता रहा तो आप के राज्य पर संकट आ सकता है। पंडित की बात सुनकर राजा ने रैदास को मूर्ति के साथ दरबार में बुलाया और कहा, रैदास, तुम यह मूर्ति इस पंडित को क्यों नहीं दे देते? 


राजा की बात सुनकर रैदास ने अपनी मूर्ति को सबके सामने रख दिया और कहा, महाराज, यदि यह पंडित भगवान का सच्चा भक्त है तो यह अपने भक्ति-भाव या तंत्र-मंत्र से मूर्ति को अपने पास बुला ले। रैदास की बात सुनकर पंडित ने कई मंत्र पढ़े और भजन गाए परंतु मूर्ति ज़रा भी न हिली। तब राजा कहा, अच्छा रैदास, अब तुम बुलाओ मूर्ति को अपने पास। रैदास ने सबके सामने भक्ति भाव से भजन गाया - 

"नरहरि चंचल है मति मेरी, कैसे भक्ति करूँ मैं तेरी।" 

जैसे ही रैदास का भजन पूरा हुआ वह मूर्ति उछलकर रैदास की गोद में आ गिरी। यह देखकर पंडित तो दरबार छोड़कर भाग गया। राजा ने रैदास के चरण पकड़ लिए और वे उनके शिष्य बन गए। 



एक बार एक सेठ रैदास के पास अपने जूते सिलवाने के लिए आया। वह गंगास्नान के लिए जा रहा था। बातों ही बातों में सेठ ने रैदास से भी गंगास्नान के लिए चलने को कहा तो रैदास ने कहा, सेठजी, आप जाइए, हम गरीब लोगों के लिए तो हमारा काम ही गंगास्नान है। 

रैदास की बातें सुनकर सेठ बोला, तुम्हारा उद्धार भला कैसे हो सकता है? तुम तो हमेशा काम में ही लगे रहते हो, कभी कोई धर्म-कर्म भी किया करो। रैदास ने अपनी जेब से एक सुपारी निकाली और कहा सेठजी आप तो गंगास्नान के लिए जा ही रहे हैं। कृपया आप मेरी यह सुपारी भी ले जाएँ और गंगा मैया को भेंट कर दें। परंतु याद रखिए, अगर गंगा मैया हाथ फैलाकर मेरी सुपारी लें तभी भेंट कीजिए नहीं तो मेरी सुपारी लौटा लाइए। सेठ ने रैदास से उसकी सुपारी तो ले ली परंतु मन ही मन रैदास का मज़ाक बनाने लगा। 

दूसरे दिन सेठ ने गंगास्नान के लिए प्रस्थान किया। गंगा पूजा के बाद उसे रैदास सुपारी की याद आई। उसने मैया से कहा हे गंगा मैया, आप हाथ फैलाएँ तो मैं आपको रैदास की सुपारी भेंट करूँ। तभी एक चमत्कार हुआ। गंगा मैया ने हाथ फैलाकर रैदास की सुपारी स्वीकार की और उसके बदले में एक स्वर्ण कंकण दिया और कहा, यह मेरे प्रिय भक्त रैदास को दे देना। 

यह सब देख-सुनकर सेठ आश्चर्यचकित हो गया। वह जब लौट रहा था तब उसने सोचा कि इस स्वर्ण कंकण का रैदास क्या करेगा। यदि मैं इसे राजा को भेंट करूं तो बहुत-सा धन पुरस्कार स्वरूप मिल सकता है। इसलिए वह सीधा राजभवन गया। राजा को स्वर्ण कंकण भेंटकर, पुरस्कार प्राप्त किया और घर लौट आया। 

राजा ने वह कंकण अपनी रानी को दिया। रानी ने कहा, कंकण तो अद्वितीय है परंतु इसका जोड़ा होना चाहिए। राजा ने सेठ को बुलाया और कहा, एक कंकण तो पहना नहीं जा सकता इसलिए ऐसा ही एक कंकण और लेकर आइए। राजा की बात सुनकर सेठ के तो होश उड़ गए। वह वहाँ से सीधा रैदास के पास आया और सारी कहानी सुनाकर कहने लगा, भैया, अब तुम ही मेरी जान बचा सकते हो। तुम मेरे साथ गंगा घाट पर चलो और गंगा मैया से वैसा ही दूसरा कंकण माँग कर लाओ।

सेठ की बातें सुनकर रैदास हँसे और फिर बोले, देखो सेठ, कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है। यदि मन शुद्ध है और भक्ति भाव सच्चा है तो मेरी इस कठौती में भी गंगा मैया प्रकट हो सकती हैं। वे गंगा मैया की स्तुति करने लगे। कुछ ही क्षणों में रैदास की कठौती में गंगा मैया प्रकट हो गईं। उन्होंने एक और स्वर्ण कंकण रैदास को दिया और अदृश्य हो गईं। 

यह देखकर सेठ ने रैदास के चरण पकड़ लिए और मुझे क्षमा करना। मैं तो आपको केवल एक चर्मकार ही मानता था परंतु आप तो संत हैं। सच्चे भक्त हैं। आप मुझे मेरा मार्गदर्शन कीजिए। 



रैदास की भक्ति से ही यह कहावत प्रचलित है मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसका अर्थ है, परमात्मा सर्वव्यापी है। यदि मन शुद्ध है तो उसके दर्शन कहीं भी हो सकते हैं ।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

स्काउट | गाइड | रोवर | रेंजर | कब | बुलबुल | बेडेन पॉवेल | SCOUT GUIDE |

स्काउट - गाइड

SCOUT - GUIDE



आपने कभी अपने जैसे बच्चों को खाकी रंग की पोशाक पहने और गले में स्कार्फ बाँधे अवश्य देखा होगा। इनके चेहरे पर सेवा का भाव भी देखा होगा। आपने इनको मेले में या किसी धार्मिक समारोह में भीड़ को नियंत्रित करते हुए व बड़े-बूढो की सहायता करते हुए देखा होगा। आप जानते ये कौन हैं। हाँ, सही पहचाना आपने! ये काउट! आइए, आज हम स्काउट के बारे में कुछ आवश्यक जानकारी प्राप्त करते हैं। 


स्काउट एक प्रकार की प्रशिक्षण योजना है जिसके जन्मदाता बेडेन पॉवेल थे। उनका जन्म २२ फरवरी, सन् १८५७ को लंदन में हुआ था। जब वे छोटे थे तभी बेडेन पॉवेल के पिता की मृत्यु हो गई थी। वे बचपन से ही साहसिक कार्यों में रुचि लेते थे। खाली समय में वे अपनी माताजी की घरेलू कार्यों में सहायता किया करते थे। 

बड़े होकर बेडेन पॉवेल ने सेना में नौकरी कर ली। सन् १८७६ में उन्हें सैनिक अधिकारी बनाकर भारत के मेरठ शहर में भेजा गया। बाद में उन्हें अफ्रीका भेजा गया, जहाँ उन्हें जुलू कबीले के लोगों का सामना करना पड़ा। सन् १८९३ में उनकी टुकड़ी ने अपनी कुशलता से अफ्रीका के अशांत क्षेत्रों पर काबू पा लिया। अफ्रीकावासी उन्हें 'इम्पासी' कहकर पुकारते थे। इम्पासी का अर्थ होता है - कभी न सोने वाला बेड़िया। अफ्रीकी लोगों ने जासूसी कला में पॉवेल की निपुणता के कारण उन्हें यह नाम दिया था। 

बेडेन पॉवेल ने स्काउट प्रशिक्षण योजना की स्थापना की। इसका उद्देश्य बालकों को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ बनाना उनका मत था कि एक जागरूक इनसान बनाने के लिए बच्चों में स्वावलंबन और सेवाभाव का विकास करना आवश्यक है। 


भारत में श्रीमती एनी बेसेंट के सहयोग से स्काउट दल की स्थापना हुई। शुरू-शुरू में इस दल में बालकों को ही प्रशिक्षण दिया जाता था। बाद में बालिकाओं के लिए भी गाइड दल गया। आज़ादी के बाद ७ नवबर, सन् १९५० को भारत स्काउट गाइड नामक संगठन बनाया गया। इस संगठन के अधीन बालक-बालिकाओं को प्रशिक्षण दिया जाता है। 



५ से १० वर्ष के बालकों को कब और बालिकाओं को बुलबुल कहा जाता है और उन्हें  विशेष प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है। इनका आदर्श वाक्य है- भरसक प्रयत्न करो। 

१० ने १६ वर्ष के बालकों को स्काउट और बालिकाओं को गाइड प्रशिक्षण दिया जाता हैं। इस दल का आदर्श वाक्य है - सदा तत्पर रहो।

१६ से २५ वर्ष के युवकों को रोवर और युवतियों को रेंजर प्रशिक्षण दिया जाता है। इनका आदर्श वाक्य है - सेवा करते रहो।

स्काउट और गाइड के लिए कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक है। इन नियमों में प्रमुख हैं - विश्वसनीयता, वफ़ादारी, मित्रता, अनुशासनप्रियता, साहस आदि। इन्हें उच्चतम कर्मठ भावना से जीवन व्यतीत करना, सच्चा देशभक्त बनना, दूसरों के प्रति सजगता बनाए रखना व दयाभाव रखना सिखाया जाता है। स्काउट को शिक्षा दी जाती है कि वह सिर्फ अपने देश का ही नहीं, अपितु समाज व विश्व का भी नागरिक है। इसलिए उसे ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे सब की भलाई हो। 


हमें अपने जीवन में स्काउट और गाइड से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए।