शनिवार, 11 अप्रैल 2020

छंद - (भारतीय काव्यशास्त्र) ONLINE EXAM

भारतीय काव्यशास्त्र – छंद
1. शिल्पगत आधार पर दोहे से उल्टा छंद है :
सोरठा
रोला
चौपाई
छप्पय

2. चरणों की मात्रा, यति और गति के आधार पर छन्द किस प्रकार के हैं ?
सम, विषम और अर्द्धसम
सम और विषम
मुक्त और मात्रिक
साधारण और दण्डक

3. मैथिलीशरण गुप्त जी के काव्य से इन्हें कौन से छन्द प्रिय होने का प्रमाण मिलता है ?
मात्रिक एवं सम
वर्णिक एवं मात्रिक
सम एवं विषम
वर्णिक एवं सम

4. कुण्डली चरण वाले छन्द को कहते हैं। इसके प्रत्येक चरण में कितनी मात्राएं होती है ?
24
11
13
16

5. छन्द का सर्वप्रथम उल्लेख कहां मिलता है ?
ऋग्वेद
उपनिषद
सामवेद
यजुर्वेद

6. चारों चरणों में समान मात्राओं वाले छन्द को क्या कहते हैं ?
मात्रिक सम छन्द
मात्रिक विषम छन्द
मात्रिक अर्द्धसम छन्द
उपर्युक्त सभी

7. छन्द-बद्ध पंक्ति में प्रयुक्त स्वर-व्यंजन की समानता को कहते हैं -
तुक
चरण
यति
गण

8. छंदशास्त्र में 'दशाक्षर' किसे कहते हैं ?
ल और ग वर्णो को समूह को
दस वर्णों के समूह को
आठ के समूह को
इनमें से कोई नहीं

9. छन्द की रचना किसके द्वारा होती है ?
गणों के समायोजन से
स्वर के समायोजन से
ध्वनियों के समायोजन से
इनमें से कोई नहीं

10. जिस छन्द के पहले तथा तीसरे चरण में 13-13 और दूसरे तथा चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं, वह छन्द कहलाता है -
दोहा
रोला
चौपाई
कुंडलिया

11. छन्द मुख्य रूप से कितने प्रकार के होते हैं ?
दो
तीन
चार
छः

12. प्रवाह लाने के लिए छन्द की पंक्ति में ठहरना कहलाता है -
यति
गति
तुक
लय

13. छन्द की प्रत्येक पंक्ति को क्या कहते हैं ?
चरण
वाक्य
चौपाई
यति

14. वर्ण, मात्रा, गति, यति आदि को नियंत्रित रचना को क्या कहते हैं ?
छन्द
दोहा
अलंकार
रस



‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ का रंगमंचीय विश्लेषण

सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक का रंगमंचीय विश्लेषण

प्रो.एस.वी.एस.एस.नारायण राजू
नाटक का रंगमंचीय होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सफल रूप से प्रदर्शित नाटक को ही सफल नाटक कहा जाता है। नाटककार नाटक की रचना रंगमंच पर प्रदर्शित करने केलिए ही करते है। नाटक में क्रिया ही प्रधान होती है। अर्थात नाटक में जो कुछ लिखा होता है उसकी अपेक्षा वही बात ज्यादा महत्वपूर्ण होती है जो रंगभूमि पर देखी जा सकती है। नाट्य लेखन का उद्देश ही है उसे रंगमंच पर प्रदर्शित करना। ऐसा नाटक जो प्रदर्शित की क्षमता न रखता हो वह सफल नाटक नहीं माना जा सकता है। प्रसिद्ध आधुनिक नाटककार मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायण लाल और सुरेन्द्र वर्मा भी इसी मत में विश्वास रखते हैं कि जो नाटक प्रदर्शन की क्षमता से वंचित हो, वह सफल नाटक नहीं है।

सुरेंद्र वर्मा ने नाटक में क्रिया को प्रधानता दी। रंगमंचीयता को दृष्टि में रखकर कथावस्तु के अनुरूप क्रियाशील पात्रों का सृजन, आकर्षणीय भाषा व संवाद, अभिनय, रंग सज्जा, ध्वनि एवं प्रकाश योजना एवं नकाब प्रयोग को महत्व दिया।

रंगमंचीय विशेषताओं को अभिनय, रंग सज्जा तथा परदे, ध्वनि एवं प्रकाश व्यवस्था के आधार पर परखने की प्रथा पाई जाती है। नाटक के प्रदर्शन के दौरान रसोद्रेक हो इसके लिए नाटककार अभिनय, रंग सज्जा, परदे, ध्वनि एवं प्रकाश व्यवस्था का प्रयोग आवश्यकतानुसार एवं सृजनात्मक रूप से करता है। नाटककार सुरेंद्र वर्मा के नाटकों में अभिनय, रंग सज्जा तथा परदे, ध्वनि एवं प्रकाश व्यवस्था के आधार पर अनेक विशेषताएँ पाई जाती है।

‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ नाटक में शीलवती, ओक्काक, महामात्थ, महाबलाधिकृत और अन्य पात्रों द्वारा वाचिक एवं आंगिक अभिनय रसोद्रेक करता है। नाटक के प्रारंभ में महत्तरिका का गहरी साँस लेते हुए यह कहना “मुझसे सहन नहीं हो रहा है वह श्रृंगार इसलिए“।(1) दर्शक में उत्सुकता उत्पन्न कर देता है। फिर फीकी मुस्कान द्वारा अनहोनी की ओर ईंगित करते व्यंग्य करना भी नाटक के प्रारंभ से ही दर्शक को पकड़ कर रखता है। “ओक्काक का अन्तर्मुख-सा होकर दिन गिनती करना”(2), “दोनों हथेलियों से माथा ठोकना”(3), “दृष्टि बचाकर ग्लानिमिश्रित क्रोध में आना..”(4)। ओक्काक की ग्लानि, क्रोध आत्मविश्वास की कमी और निस्साहयता को दर्शाता है। नाटक के शुरू से अंत तक ओक्काक की आंगिक चेष्टाओं में और वाचिक अभिनय में निस्सहायता ग्लानि और क्रोध झलकता है। ओक्काक का अभिनय श्रोताओं में उसके प्रति सहानुभूति जगाता है। ईश्वर को संबोधित करता यह अभिनय ओक्काक की दुःस्थिति को प्रकट करता है यथा –

“ओक्काक – (खीझता हुआ) लेकिन कैसा है बनाने का यह ढंग? इसका रूप क्या होगा?

(कुछ आगे बढ आता है। दोनों हाथ ऊपर उठाकर, भर्राए स्वर में )

हे प्रभु। क्या संसार की सारी ग्लानि मेरे ही भाग में आनी थीं।“(5)

“ओक्काक - (दोनों कानों पर हाथ रखकर, ऊँचे स्वर में) मत बोलिए मेरे सामने यह शब्द । ...

मुझे इस शब्द से घृणा है.....धर्मनटी”(6)।

विवश रूप में लम्बी साँसे लेना, और दोनों कानों पर हाथ रखने का अभिनय ओक्काक की मानसिक स्थिति को प्रकट करता हैं।

शीलवती का अभिनय इस नाटक की सफलता का मूल कारण है। पहले अंक के अभिनय में शारीरिक भंगिमाओं की कमी शीलवती के आत्म विश्वास का सूचक है जबकि दूसरे अंक में प्रतोष के साथ उत्साह देखा जा सकता है। “प्रतोष के बाहुमूल पर कपोल रगड़ना, अधरों से छूकर फिर उसके बाँहों में समेटने”(7) का अभिनय दर्शक की धडकन को तेज कर देता है। शीलवती के द्धारा ऐसा अभिनय करवाकर सुरेन्द्र वर्मा दर्शक के इन्द्रियों को उत्तेजित करता है। तीसरे अंक में, प्रतोष से शारीरिक तृप्ति पाकर लौटने के बाद शीलवती के आंगिक एवं वाचिक अभिनय में तीव्रता देखी जा सकती है जो उसके आत्मविश्वास, तृप्ति एवं परिपूर्णता को बताता है। शीलवती की कसमासाना, ठंडी साँस भरना, गहरी साँस लेकर सूँघने का अभिनयन करके ओक्काक को चिढ़ाने का यह उदाहरण द्रष्टव्य है –

“ओक्काक – (मन्द स्मित से) तो ....... ? कैसी बीती रात?

शीलवती - (कसमासाकर, ठंडी साँस के साथ) पता ही न चला कि कब भीर हो गई।...और तुम्हारी?

ओक्काक – (कुछ ठहरकर, हल्की मुस्कान से) यह शयनकक्ष साक्षी है.....ये भितियाँ और गवाक्ष.... यह गन्ध कैसी है?.....(शीलवती हँसती है। कुछ ऊँचे स्वर में ) बोलो न ? कैसी है यह गन्ध? (फिर हँसती है) अंगराग? ... (हर शब्द पर नाहीं में सिर हिलाती हैं) गोरोचन? ..... लाक्षारास ? ...... सुरभि ?

शीलवती – (उन्मादिनी – सी) नहीं.... कुछ भी नहीं..... ?

ओक्काक - )विह्वल होकर) तब फिर।

शीलवती – (सूँघने की गहरी साँस लेकर) .....पहचानो....।

ओक्काक – (तीव्र स्वर में) शीलवती।

शीलवती – (स्थिर दृष्टि से देखती है) इस गन्ध से तुम्हारा कोई परिचय नहीं।......अगर होता, तो कल की यह रात न मेरे जीवन में आती, न तुम्हारे।

ओक्काक – (किंकर्तव्यविमूढ़) – सा कक्ष का आधा चक्कर लगाता है। यकायक, दाँए द्वार की ओर मुड़कर) महत्तरिका.... महादेवी के स्नान की व्यवस्था हो।

शीलवती – (उतनी ही ऊँचे स्वर में) नहीं.... (सहज स्वर में ) अभी नहीं।.....”(8)

शीलवती का अभिनय दर्शक को यह अनुभव करता है शीलवती ने प्रतोष के साथ काम में कैसी तृप्ति पाई है। शीलवती का अभिनय इतना प्रभावशाली है कि मानो विवाहित दर्शक अपने अनुभवों को याद करने लगता है और अविवाहित दर्शक इस प्रक्रिया से गुजरना चाहता है।

उसके बाद शीलवती का एक के बाद एक करके महामात्य, महाबलाधिकृत और राजपुरोहित से आत्मविश्वास के साथ आँखों में आँखें मिलाकर प्रश्न करने का अभिनय अति उत्तम है। शीलवती से ऐसा अभिनय करवाकर नाटककार दर्शक को उत्तेजित करता है और दर्शक शीलवती से पूरी तरह जुड़ जाता है और रचनाकार के उद्देश्य को स्वीकार करता है।

दृश्य योजना को लेकर समय के साथ अनेक बदलाव आ रहे है। विज्ञान सामान्य से विशिष्टता की ओर का प्रभाव रंगमंच पर भी पडने लगा है इसलिए एक सा प्रतीत दृश्य योजना रंग सज्जा और दृश्य बंध को अलग-अलग करके देखा जा रहा है।

‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ में नाटक का दृश्यबंध राजप्रसाद का शयनकक्ष है। नाटक सूर्यास्त, रात्रि के विभिन्न पहर और सूर्योदय, तीन अंकों में पूरा होता है। तीनों के एक ही दृश्यबंध में बांध दिया गया है। नाटककार ने इसके लिए संदूकिया दृश्यबंध (बाक्स सेट) की कल्पना की है। नाटक का दृश्यबंध ऐसा है –

“राजाप्रसाद का शयनकक्ष। मंच की अगली सीमा पर दाई और बाई ओर एक-एक द्वार।

दाँए के बाद मदिराकोष्ठ, बाँए के बाद चौकी पर दर्पण एवं प्रसाधन-सामग्री, सामने आसन्दी।

बाई ओर बडा जालगवाक्ष, बाई तथा सामने की दीवार के लगभग मध्य भाग से लेकर दोनों

(दीवारों) के सम्मिलन तक। मंच के घीचोंबीच ऊपर से लटकता मुक्तालाप।

सामने की दीवर के पास शैय्या। कुछ आसन एवं चौकियाँ”(9)।

इस एक दृश्यबंध के द्वारा नाटककार ने तीन अंकों और तीन अलग-अलग समय के पहरों को आसानी से प्रस्तुत किया है। नाटक में शैया एक प्रमुख बिंदु के रूप में उभरकर आता है। शैया सारे नाटक की केन्द्रीय संवेदना को प्रकट करता नाटक का निर्णायक बिन्दु रखता है। इस दृश्यबंध की सराहना करते हुए जयदेव तनेजा लिखते हैं – “नाटककार ने दृश्यबंध को पर्याप्त लचीला बनाकर ओक्काक तथा महत्तरिका और प्रतोष तथा शीलवती के समानान्तर चलते दृश्यों को उनके पूरे वैषम्य और नाट्य-वैभव के साथ कलात्मकता से प्रस्तुत किया है”(10)। एक ही सेट में नाटककार ने दृश्य बदलते ही कभी ओक्काक तथा महत्तरिका, फिर प्रतोष तथा शीलवती और फिर ओक्काक को बताया है।

नाटक के पहले अंक में राजप्रांगण के दृश्य को महत्तरिका गवाक्ष से देखते और राजप्रांगण में नागरिकों की भीड़ और शीलवती का प्रतोष को जयमाला पहनाने के कृत्य की जानकारी ओक्काक को देने का दृश्य सुरेन्द्र वर्मा की प्रयोगशीलता का परिचय देता है। जयदेव तनेजा के शब्दों में – “इसलिए शास्त्रीय दृष्टि से यह प्रसंग दृश्य और सूच्य के बीच की स्थिति का है, जहाँ नाटककार ने केवल स्थूल बाह्य यथार्थ का प्रत्यक्ष दृश्याकन न करके उसके भीतर के साथ और उससे पडनेवाले प्रभाव को प्रस्तुत करके अपनी आधुनिकता का परिचय दिया है”(11)। नाटककार ने यहाँ पर राजप्रांगण के दृश्य को न बताकर एक ही सेट से काम लिया और राजप्रांगण के दृश्य को बताने से ज्यादा महत्वपूर्ण शयनकक्ष में पीडा, विवशता, जिज्ञासा और करूणा क अनुभव कर रहे ओक्काक और उसकी प्रतिक्रिया को दर्शकों तक पहुँचाकर उस पात्र के साथ सहानुभूति उत्पन्न करना है। इसी दृश्य के बारे में पान्डेय विनय भूषण का कहना है कि – “महत्तरिका द्वारा गवाक्ष से राजप्रांगण के दृश्य का चित्रण शास्त्रीय दृष्टि से सूच्य और दृश्य का मित्र प्रयोग होने के कारण एक अनूठा शिल्प प्रयोग बन गया है”(12)।

नाटककार ने राजप्रसाद के शयनकक्ष का प्रयोग प्रतोष के शयनकक्ष के रूप में किया है। नाटक में ओक्काक और प्रतोष के लिए वह एक शैया अलग-अलग शैया लगे। श्रोता केलिए वह शैया एक ही है, उस पर शीलवती को लेने – देने वाला व्यक्ति अलग है।

सुरेंद्र वर्मा के नाटकों में कथावस्तु के अनुकूल वातावरण पाया जाता है। नाटककार ने ध्वनि का प्रयोग आवश्यकतानुसार किया है। “‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ में राजाप्रांगण में एवं उत्सव के वातावरण में मंगलवाद्य-ध्वनि सुनने को मिलता है। मधुर संगीत का प्रयोग नाटक को भावात्मक स्तर पर प्रभावशाली बनाकर प्रस्तुत करता है। नेपथ्थ से धीमी उद्घोषणा। धीरे-धीरे प्रकाश होता है। नेपथ्य में मंगलवाद्य-ध्वनि, जो क्रमशः बहुत गन्द हो जाती है”(13)। मधुर संगीत श्रोता को राजप्रांगण और उत्सव का आभास दिलाता है। कुछ क्षण बाद ध्वनि की उँची नीची लय का प्रयोग करके नाटककार ने महाराज ओक्काक की मनःस्थिति को प्रभावशाली रूप से दर्शाया है।

“महामात्य – आज सारी रात तुम महाराज के साथ रहना। उनका मन बहुत अस्थिर है। कही कुछ कर बैठें।

महत्तरिका – जो आज्ञा।

महामात्य का प्रस्थान। महत्तरिका फिर गवाक्ष के सम्मुख आ जाती है। वाद्य – ध्वनि की ऊँची-

नीची लय।

ओक्काक महाराज का निःशब्द प्रवेश। कुछ क्षणों महत्तरिका की ओर देखता रहता है”(14)।

शीलवती का धर्मनटी बनकर अपने साथ रात बिताने केलिए पर पुरूष चुनना ओक्काक को पसन्द नहीं था। ओक्काक के भीतर की ग्लानि, आक्रोश, निस्सहायता और उथल-पुथल को नाटककार ने संगीत के माध्यम से प्रस्तुत किया है। “नगाडे की ध्वनि के साथ घोषण करवाकर”(15) नाटककार ने नाटक के साथ न्याय किया है। “वाधों की ऊँची-नीची लय, यकायक वाद्य-ध्वनि का विलुप्त होना”(16) नाटक में जिज्ञासा उत्पन्न करता है। नाटककार ने साँसों, वस्त्रों की सरसराहट, आभूषणों की झंकार जैसे सूक्ष्म ध्वनियों का भी प्रयोग किया है जो नाटक को बहुत प्रभावशाली बनाता है। प्रतोष और शीलवती के सम्भोग के समय अँधेरे में साँसों और वस्त्रों की सरसराहट बहुत ही रोमांटिक लगता है और नाटककार की सृजनशीलता को दर्शाता है।

सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक नाटक को प्रारंभ करने के लिए मंच पर प्रकाश होता है। प्रथम अंक में कहीं और प्रकाश व्यवस्था का प्रयोग नहीं हुआ है।

अन्य अंक में दृश्य को बदलने केलिए प्रकाश व्यवस्था का प्रयोग हुआ है। ओक्काक और महत्तरिका के दृश्य से शीलवती और प्रतोष के दृश्य को बदलने केलिए मंच को बदले बिना प्रकाश व्यवस्था की सहायता ली गई है।

“मंच का प्रकाश क्रमशः मंद होते हुए बुझ जाता है – केवल गवाक्ष पर चंद्र किरणों सा बहुत धूमिल आलोक रहता है। (विराम) मंच पर धीरे-धीरे प्रकाश होता है। ओक्काक एवं महत्तरिका के स्थान पर क्रमशः शीलवती तथा प्रतोष दिखाई देते है”(17)।

प्रकाश - परिवर्तन करके लेखक ने ओक्काक के राजप्रासाद के शयन-कक्ष को प्रतोष के शयनकक्ष में बदल दिया है। जयदेव तनेजा के शब्दों में – “यह नाटककार की कुशल प्रकाश व्यवस्था का प्रमाण है कि उसने दृश्यबंध को लचीला बनाकर ओक्काक तथा महत्तरिका और प्रतोष तथा शीलवती के दो-दो दृश्यों को उनके पूरे वैषम्य और नाट्य-वैभव के साथ क्रमशः समानांतर दृश्यों के रूप में कलात्मकता से प्रस्तुत किया है”(18)। इस प्रकार प्रकाश की उपयुक्त व्यवस्थाओं से नाटक की मंचीय प्रस्तुति का प्रभाव दुगुना हो जाता है। नाटक का तीसरे अंक का प्रकाशीय व्यवस्था का सफल नमूना है –

“अन्धकार एक पुरूषाकृति का आभास, जो धीरे धीरे मंच पर टहलती रहती है –

महत्तरिका – (आवेश में ) बधाई हो महाराज।......उजाला । ...प्रकाश......आलोक। (पूर्ववर्ति तीनों शब्दों के साथ तत्क्षण-तीन बार में.......पूर मंच आलोकित हो जाता है”(19)।

मचं पर अन्धकार है, और पुरूषाकृति अर्थात ओक्काक टहल रहा है क्योंकि यह रात्रि उसने बेचैनी की अवस्था में काटी है। इसलिए अन्धकार है। महत्तारिका का प्रातःकाल प्रवेश और संवादों के साथ-तीन बार मंच पर तत्क्षण आलोक हो जाता है। शीलवती राजप्रासाद लौट आई है। ऐसे वातावरण की सृष्टि के लिए तथा नाटक के मूलभाव को संप्रेषित करने केलिए पूरा मंच आलोकित हो जाना, नाटक की गति को तीव्र करता है।

अंधकार के समय प्रकाश-वृत्त का शैया पर केन्द्रित रहना, शैया को बिम्ब साबित करता है। इस नाटक में शैया का महत्वपूर्ण स्थान है – ओक्काक के जीवन में और शीलवती के नारीत्व में भी। इस नाटक में अंधकार के दौरान हल्की कुनमुनाहट, वस्त्रों की सरसराहट आदि ध्वनि दर्शक को स्मृति लोक में ले जाता है।

नाटककार ने नाटक की कथावस्तु को ध्यान में रखकर अंधकार में प्रतोष और शीलवती के बीच संवादों की सृष्टि की है –

“प्रतोष – शीSSल...।

विराम

शीलवती, हूँ..।

विराम

प्रतोष – दीप जला दूँ..।

शीलवती – नहीं.....सब कुछ बदल जाता है प्रकाश के साथ.....।

विराम। चपक में मदिरा डाले जाने की ध्वनि।

प्रतोष – आधी रात बीत गई....।

शीलवती – सजग होकर कैसे कठोर वचन बोलते हो।

प्रतोष – क्यों क्या हुआ

शीलवती – (फिर उसी स्वर में) यह कहो कि आधी रात....और बची है.....।

हँसी। वस्त्रों की सरसराहट । आभूषणों की झंकार”(20)।

अंधकार में बोली जाने वाले इन संवादों को सुनकर दर्शक अपनी सृजनात्मकता के अनुसार दृश्य देखता है। नाटक के अंत में शीलवती जब ओक्काक पर सामर्थ्थ न होते हुए भी विवाह करके उसका जीवन नष्ट करने का आरोप लगाते समय प्रकाश शीलवती और ओक्काक के साथ-साथ शैया पर केंद्रित रहता है। 


संदर्भ सूची – 

1. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.20

2. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.24

3. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.24

4. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.25

5. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.26

6. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.27

7. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.58

8. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.68,69

9. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.19

10. समकालीन हिन्दी नाटक और रंगमंच – जयदेव तनेजा – पृ.सं.17

11. आज के हिन्दी रंगनाटक, परिवेश और परिदृश्य – जयदेव तनेजा – पृ.सं. 142

12. हिन्दी के नये नाटकों में प्रयोग तत्व – पांण्डेय विनय भूषण – पृ.सं.125

13. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.20

14. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.22

15. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.35

16. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.41

17. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.54

18. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.54

19. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.24

20. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेंद्र वर्मा – पृ.सं.63

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

अलंकार स्वरूप एवं विकास - वर्गीकरण (भारतीय काव्यशास्त्र) ONLINE EXAM

भारतीय काव्यशास्त्र 
अलंकार स्वरूप एवं विकास - वर्गीकरण

रस अवयव-स्वरूप और रसों का परिचय (भारतीय काव्यशास्त्र) ONLINE EXAM

भारतीय काव्यशास्त्र 
रस अवयव-स्वरूप और रसों का परिचय

सूर के काव्य में निर्गुण सिद्धांत का खंडन तथा सगुण सिद्धांत का मंडन हुआ है। इस कथन की युक्ति-युक्त परिक्षा कीजिए।


सूर के काव्य में निर्गुण सिद्धांत का खंडन तथा सगुण सिद्धांत का मंडन हुआ है। इस कथन की युक्ति-युक्त परिक्षा कीजिए।

भक्त कवियों में महात्मा सूरदास का नाम अग्रणीय है। उनके काव्य भक्ति के तत्वों से इतना ओतप्रोत है कि उसे  भक्ति के गान के अतिरिक्त अन्य कुछ मानने से संकोच होता है। वल्लभाचार्य से दीक्षित होने के पूर्व सूर भारत वर्ष में प्रचलित अन्य भक्ति पद्धतियों एवं उपासना प्रणालियों से प्रभावित है। वे जाति-पाँति का विरोध करते हुए लिखा है कि –
जाति-पाँति कोअ पूछन नहिं श्रीपत के दरबार
इसके साथ-साथ सत् पुरूषों की प्रशंसा भी किया –
जौ लौं सत् स्वरूप नहिं सूज
वल्लभाचार्य के संपर्क में आते ही सूर पुष्टिमार्गीय भक्त हो गए। भक्ति के क्षेत्र में वल्लभाचार्य का साधना मार्ग पुष्ट मार्ग के नाम से प्रसिद्ध है। सूरदास ने उस समय में प्रचलित योग मार्ग की निंदा की है। उनके पदों में भक्ति के सामने योग मार्ग की निरर्थकता का प्रतिपादन किया गया है। वैराग्य योग मार्ग का प्रधान साधन है परंतु सूरदास वैराग्य को भक्ति का साधक मानते है जबकि योग मार्ग के साधुओं की निंदा करते है –
भक्ति बिना जौ कृपा न करतौ सौ आस न करती
सूरदास की प्रेम भक्ति माधुर्य भाव की भक्ति है और गोपियाँ उसकी प्रतिनिधित्व करती है। प्रेम-भक्ति की महिमा का वर्णन इस प्रकार किया है –
प्रेम भक्ति बिन मुक्ति न होय नाथ कृपा कर दीजौ सोय
सूरदास ने भागवत् पुराण से प्रभावित होकर सूरसागर की रचना की थी। सूरदास के मतानुसार...
श्रीमुख चारि श्लोक दूए ब्रह्मा कौ समुझाई।
ब्रह्मा नारद सौं कहें, नारद व्यास सुनाई।
व्यास कहे सुकदेव सौं, द्वादस स्कंध बनाई।
सूरदास सोइ कहे, पद भाषा करि गाई।।

नारायण ने ब्रह्मा से चार श्लोक कहें, ब्रह्मा ने नारद से, नारद ने व्यास से, व्यासने सुकदेव से कहा।  उसे बारह स्कंधों में बनाकर भगवान के रूप में व्यक्त किया। यदी श्रीमद् भागवत को सूरदास ने अपनी भाषा में अर्थात पदों में व्यक्त किया। सूर के समय में ज्ञान, याग और भक्ति का त्रिकोण संघर्ष चल रहा था। वेदांती लोग अंतःकरण की शुद्धी, जप, तप आदि को प्रमुखता देते थे और नाथपंती योग को एक ओर संत मत दोनों ही संप्रदायों को अपनाकर, निराकार, निर्गुण उपासना का प्रचार कर रहा था। साथ ही साकार की उपासना और भक्ति का आंदोलन भी जोर पकड चुका था। इस प्रकार भ्रमरगीत में निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों का संघर्ष है।
सूरसागर के बारे में आचार्य शुक्लजी का कथन है कि – सूरसागर का सबसे मर्म स्पर्शी और वाग्वैदगध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है, जिसमें गोपियों की वचन वक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता
डॉ. स्नेहलता श्रीवास्तव ने भ्रमरगीत के उद्देश्य को निश्चित करते हुए हिन्दी में भ्रमरगीत काव्य और उसकी परंपरा में लिखा है – ज्ञान पर प्रेम की, मस्तिष्क पर हृदय की विषय दिखाकर, निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना की अपक्षा सगुण साकार ब्रह्म की भक्ति-भावना की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
भ्रमरगीत प्रसंग का प्रतिपाद्य गोपियों के माध्यम से प्रेम तत्व का निरूपण है। श्रीकृष्ण की लीलाओं में जहाँ माधुर्य है, प्रेम है उसके वर्णन में कृष्ण भक्त कवियों का माधुर्य बहुत रमा है। गोपियों के मध्य के कृष्ण और द्वारका के कृष्ण में से सूर ने गोपियों के प्रेम तत्व को उभारा है। गोपियों का प्रेम अद्भुत है, गंभीर है, समर्पण भरा है और अलौकिक है। आचार्य शुक्लजी के अनुसार कृष्ण भक्ति परंपरा में श्रीकृष्ण की प्रेममयी मूर्ती को ही लेकर प्रेम तत्व की बडे विस्तार के साथ व्यंजना हुई है।
उद्धव के निर्गुण ब्रह्म का मज़ाक उड़ाते हुए गोपियाँ कहती है कि –
निर्गुण कौन देस को बासी?
मधुकर! हाँसी समुझाय, सौंह दै बूझनि सांच न हाँसी।।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी?
कैसो वरन, भेस है कैसो के हि रस अभिलासी।।
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे!  कहैगौ गासी।
सुमन मौन है रहयो उच्यो सो सूर सबै मवि नासी।।

निर्गुण किस देश का रहनेवाला है, उसका कैसा वर्ण, कैसा वेश, ये प्रश्न तथा गोपियों के योग का उपदेश कैसे दिखा जा सकता है, ये सब प्रश्नों के नाते सूरदास के खंडन करने की दृष्टि को प्रकट करती है। सबसे बडी बात यह है कि उद्धव का मौन ले जाना, उसके परास्थ तो जाने के लक्षण है और जो स्पष्ट रूप से सगुण भक्ति के सामने निराकार निर्गुण उपासना पद्धति और योग साधना के कुछ और छोटा दिखाने का भाव है।
सूरदास ने भ्रमरगीत के प्रतिपाद्य का प्रमुख अंश सगुम भक्ति की प्रतिष्ठा को ही अंकित किया है। सुरदास योग की अपक्षा भक्ति के महत्व का अधिक प्रतिपाधन करते है किन्तु वे योग को सर्वदा हीन दृष्टि से नहीं देखते। योग का मजाक उडाने से उनका तात्पर्य यही है कि भक्ति योग की अपेक्षा सहज साध्य है। योग की साधना कठिन है। अतः सुकुमार नारियों को योग साधना की सलाह देना एक विषमता मात्र है। उनके भावुक हृदय केलिए तो प्रेम मार्त्र का अनुकरण ही श्रेयस्कर है। चित्ता वृत्तियों को रोकना ही योग है, लेकिन गोपियों का चित्ता तो श्रीकृष्ण ने चुरा लिया फिर योग साधना कैसा, कौन से मन से योग साधना की जाय –
उधो, मन न भए दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस

कृष्ण के मधुरा चले जाने पर गोपियों के प्रेम की परिक्षा होती है। प्रेम विरह में तप गया है और निखर गया है। भ्रमरगीत के माध्यम से गोपियों के प्रेम को प्रकाशित होने का अवसर सूर ने निकल लिया है। संयोग के सभी सुखद व्यापार वियोग में दुःखद बन जाते हैं –

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब ये लता लगति अति सीतल¸ अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं।
बृथा बहति जमुना¸ खग बोलत¸ बृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं।
पवन¸ पानी¸ धनसार¸ संजीवनि दधिसुत किरनभानु भई भुंजैं।
ये ऊधो कहियो माधव सों¸ बिरह करद करि मारत लुंजैं।
सूरदास प्रभु को मग जोवत¸ अंखियां भई बरन ज्यौं गुजैं

वियोग की अनुभूति भी विचित्र होती है। जहाँ एक ओर गोपियों का नारी हृदय सौतिया डाह वश मुरली और कुब्जा को उपालंभ देता हुआ नहीं थकता वहाँ प्रिय की ममता उनसे यह भी कहलवा लेती है – कृष्ण चाहे लाखों विवाह कर लें, दसों कुब्जाओं के रख ले पर रहेंगे हमारे ही।

ब्याहौ लाख धरौ दस कुबरी,
अन्तहि कान्ह हमारो

यह गोपियों के प्रेम की उच्चता है जिसको सूरदास भ्रमरगीत में व्यक्त करना चाहते है। जीव का स्वभाव प्रेम करना है। संसार का प्रेम, स्त्री-पुरूष का प्रेम, धन, वैभव, पद, यश का प्रेम लौकिक है। वियोग की जितनी अंतर दशाएँ ले सकती हैं, जितनी ढंगों से उन दशाओं का साहित्य में वर्णन हुआ है और सामान्यतः हो सकता है वे सब भ्रमरगीत में मौजूद है। रीति आचार्यों के अनुसार विरह की ग्यारह अवस्थाएँ हैं –
1) अभिलाषा                2) चिंता                3) स्मरम             4) गुण-कथन 
5) उद्देश                      6) प्रलाप               7) उन्माध           8) व्याधी
9) जड़ता                    10) मूर्चा              11) मरण

सूरदास की आँखें एक भक्त की आँखें है। वे शान को जानते थे। परंतु चित्त की द्रवनशीलता के लिए भावना का उपाय सहज और सरल माना गया। उन्होंने ब्रह्म से मिलकर अद्धैत हो जाने का एक हो जाने का भाव भी व्यक्त किया है –

सूर उड़ चल तहाँ जहाँ ते बहुरि उडियाँ नाहिं

अर्थात हे सखि! अब वहाँ उड़ चलो जहाँ से फिर उडना ही न पडे। फिर भी इन अद्धैत के भावों के होते हुए भी सूरदास का मार्ग भक्ति है, प्रभु की समीचता के सुख की कामना है। भ्रमरगीत सार में गोपियों के माध्यम से वे यही प्रतिपादन करना चाहते हैं कि भगवान प्राप्ति केलिए सरल मार्ग भक्ति है। यही भ्रमरगीत का सार है।

सूरदास ने अपने भ्रमरगीत की रचना करते समय अपना उद्देश्य यह रखा है कि सगुण ब्रह्म की विजय की प्रतिष्ठा की जाए। इस कारण उन्होंने अनेक स्थलों पर ब्रह्म के समर्थन में तो अनेक तर्क दिए हैं पर निर्गुण ब्रह्म की ओर से तर्क प्रस्तुत नहीं किए। उद्धव को तो बोलने का अवसर ही अधिक नहीं दिए गया है। गोपियों के तर्कों के समक्ष उद्धव का पराजित होना और भी स्पष्ट रीति से कवि के मन्तव्य को प्रत्यक्ष करता है।

निर्गुण पर सगुण की विजय इस बात से भी व्यक्त होती है कि उद्धव-गोपी संवाद के समय उद्धव सिर झुकाकर अपनी हार स्वीकार कर लेते है। सूरदास ने भ्रमरगीत में उद्धव द्वारा गोपियों के उपदेश दिलवाया है और उसका खंडन किया है। यह खंडन दो प्रकार का है – एक तो कबीरदास जैसे संतों की निर्गुण उपासना का और दूसरे योगियों की साधना का। निर्गुण उपासनावालों का कहना है कि भगवान का जो पूर्ण ब्रह्म है ध्यान करो। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं है। उस ब्रह्म के न रूप है न नाम।

महात्मा सूरदास ने पुष्टिमार्गीय प्रेमाभक्ति को ही अपनाया है। इसीलिए उनके सूर-सागर में प्रेम के विविध रूप – दास्य, वात्सल्य, माधुर्य, दाम्पत्य आदि की छटा विद्यमान है। यहाँ भगवान कृष्ण को भी प्रेममय माना गया है, जिन्होंने प्रेम के वशीभूत होकर ब्रज में अवतार लिया है। इसीलिए सूर ने प्रीत के वस नटवर रूप धरयौ कहकर इसी बात का समर्थन किया है। सूरने प्रेम की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए विरह की तीव्रानुभूति में ही विशुद्ध प्रेम के दर्शन किये हैं और वियोग-विह्लता, विरह-वेदना आदि के अंतर्गत सच्चे भक्त की अभिलाषा, व्याकुलता एवं विवशता को चित्रित किया है।

साधारणतः पाँच प्रकार की भक्ति प्रचलित हैं –
1) शान्तभाव की भक्ति जिसमें पूज्य-पूजक-भाव रहता है, अर्थात भगवान पूज्य और भक्त-पूजक होता है।
2) वात्सल्य-भाव की भक्ति, जिसमें भगवान के साथ जन्य-जनक भाव रहता है।
3) दाम्पत्य भाव या माधुर्य भाव की भक्ति, जिसमें भगवान के साथ पतिभाव रहता है।
4) दास्य-भाव की भक्ति, जिसमें भगवान के साथ सेव्य-सेवक-भाव रहता है।
5) सख्य-भाव की भक्ति, जिसमें भगवान के साथ सखा-भाव रहता है।

सूर की भक्ति दास्य-भाव की है, जिसमें सूर के अपने आराध्यदेव कृष्ण को अपना सखा मानकर अपनी भक्ति-भावना प्रकट की है और पुष्टिमार्गीय सेवा-भाव को अपनाया है, जिसके तीनों रूप गुरू-सेवा, संत-सेवा तथा प्रभु-सेवा सूरदास में विद्यमान हैं।

दार्शनिक दृष्टि से सूर के श्रीकृष्ण, मुरली तथा गोपियाँ कमशः ब्रह्म, माया और जीव के प्रतीक माने गये है। माया के दो रूप माने गये हैं- विद्या रूप और अविद्या रूप। विद्या रूप यह है जो ब्रह्म एवं जीव को मिलाने का कार्य करती है और जिसके फलस्वरूप जीव अन्य सभी जीवों को  ब्रह्मवत् समझता है। श्रीकृष्ण की मुरली ही विद्या माया है, जो जीव और ब्रह्म से मिलाने का कार्य करती है। दूसरी अविद्या माया वह है, जो जीव और ब्रह्म में भेद उत्पन्न करती है तथा जिसके कारण जीव संसार के प्रपंच में फँसकर नाना कष्ट सहन करता है। सूर ने इस अविद्या रूप माया को ही माधव नैकु हटकौ गाय कहकर बडा ही सुन्दर निरूपण किया है और उसे त्रिगुणात्मिका कहकर सम्पूर्ण विश्व को भ्रम में डालने वाली बताया है।

सूर ने पुष्टिमार्ग के अनुसार सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य एवं सामुज्य नामक चारों प्रकार की मुक्तियों की ओर संकेत किये है। भगवान के लीलाधाम में पहुँचना ही सालोक्य मक्ति है, उनके चरणारविन्द का सान्निध्य सामीप्य मुक्ति है, कृष्ण के साथ उन्हीं के समान आचरण करना सारूप्य मुक्ति है तथा ईश्वर के साथ एकीभाव को प्राप्त हो जाना सायुज्य मुक्ति कहलाती है। इनमें से सूर ने मुख्यतया सायुज्य मुक्ति को ही महत्व दिया है। सायुज्य मुक्ति के भी जो रूप होते हैं – 1) संसार के दुःख से मुक्ति और 2) नित्य सुख की प्राप्ति। परंतु दोनों ही अवस्थाओं में जीव भगवान का अंग नहीं बनता। केवल लयात्मक सायुज्य मुक्ति में ही जीव ब्रह्म का अंग बनता है। सूर ने लयात्मक सायुज्य मुक्ति का वर्णन संयोग एवं वियोग श्रृंगार के अंतर्गत किया है। इसलिए सूर का रास-लीला वर्णन तथा भ्रमर-गीत दोनों ही लयात्मक सायुज्य मुक्ति के दोनों रूपों के द्योतक है।

सूर का वात्सल्य-वर्णन अत्यंत विशद् एवं गम्भीर है। इसका सम्यक् अध्ययन करने के पहले इसे दो भागों में विभक्त किया ज सकता है – 1) वात्सल्य का संयोग पक्ष और 2) वात्सल्य का वियोग पक्ष। संयोग पक्ष को भी पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है – 1) बालोचित वेश-भूषा का वर्णन 2) बालोचित चेष्टाओं एवं क्रीडाओं का वर्णन 3) बाल विभावों एवं अन्तःप्रकृति का चित्रण 4) बालक के संस्कारों, उत्सवों एवं समारोहों का वर्णन, 5) गो-दोहन तथा गो-चारण का वर्णन। इसी भाँति वात्सल्य के वियोग पक्ष को भी मुख्यतया तीन भागों में विभक्त कर सकते है – 1) कृष्ण के मथुरा-गमन पर 2) मथुरा से नंद के अकेले रहने पर और 3) कृष्ण के मथुरा में ही निवास करने पर।

सूर का काव्य ब्रज-प्रदेश की सुरम्य प्रकृति का रमणीय स्थल है। इसमें ब्रज की प्रकृति-सुंदरी का मनोहारी नर्त्तन पद-पद पर सुनाई पडता है, उसका रूपमाधुरी स्थान पर दिखाई देती है और उसका आनंदोल्लासपूर्ण मधुर कलरव प्रत्येक पद में गुञ्जायमान हो रहा है। सूर ने प्रकृति-नटी की रमणीय झाँकी अंकित करते हुए उसके षड्ऋतुओं में परिवर्तित होने वाले दिव्य सौन्दर्य का अच्छा निरूपण किया है। इसिलिए वसंत ऋतु में ब्रज के अंतर्गत सदैव कोकिल शोर मचाती रहती है, सदा मन्मथ चित चुराता रहता है, दुम-डालियाँ विविध वर्ण के सुमनों से भर जाती है, जिन पर भ्रमरावली उन्मत होकर घँजने लगती है, सर्वत्र हर्ष एवं उल्लास छा जाता है और कोई भी उदास नहीं रहता –

सदा बसंत रहत जहँ बास। सदा हर्ष जहँ नहीं उदास।।
कोकिल कीर सदा तहँ रोर। सदा रूप मन्मथ चित घोर।।
विविध सुमन बन फूले डार। उन्मत मधुकर भ्रमत अपार।।

ऐसे ही शरद ऋतु में भी ब्रज की प्रकृति एक अद्भुत सौंदर्य से सुसज्जित हो उठती है, क्योंकि सरोवरों में नए-नए सरोज और कुसुदिनी के फूल खिल उठते है, चन्द्रिका में सम्पूर्ण वन-प्रदेश स्नान करने लगता है, जल से कोई हट जाती है और वह निर्मल हो जाता है। आकाश भी स्वच्छ रहता है, पृथ्वी रंग-बिरंगे फूलों से आच्छादित हो उठती है और शीतल शशि पीयूष की वर्षा करने लगता है, कुञ्जों में विविध प्रसून मँहक उठते है, कोयल कूकने लगती है और रोम-रोम केलिए सुखदायक शीतल पवन चलने लगते है। सूर ने शरद की इस दिव्य आभा का निरूपण करते हुए लिखा भी है –

आजु निसि सोभित सरद सुहाई।
सीतल मन्द सुगन्ध पवन वहे रोम-रोम सुखदाई।।
अथवा –
सरद चांदनी रजनी सोहै वृन्दावन श्रीकुन्ज।
प्रफुलित सुमन, विविध रंग जहँ-जहँ कूजत कोकिल पुंज।।

सूर ने वर्षा ऋतु में विविध आकृति धारण करने वाली ब्रज-प्रकृति की रमनीय झाँकी भी संकेत की है क्योंकि उस समय वन-उपवन हरीतिमा से भर जाते है, जलाशय जल से परिपूर्ण हो जाते है, इन्द्रधनुष चमकने लगता है, घन-घटा के बीच दक-पंक्ति दिखाई देने लगती है, चारों ओर घटाएँ घिर आती हैं, दामिनी चमकने लगती है, पपीहा पी-पी रटने लगता है, दादुर पिक और मोर शोर करने लगते है और हरी-रही घास पर अरूण बीरबघूटी चित को चुराने लगती है। उस क्षण बादल मदन के हाथी जैसे दिखाई देने लगते है।

सूर के काव्य की भाषा ब्रज-प्रदेश की प्रसिद्ध बोली है, जो ब्रजभाषा के नाम से अभिहित की जाती है, परंतु सूर की ब्रजभाषा एवं उसके शब्द-भण्डार का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि सूर ने अपनी पूर्ववर्ती भाषाओं एवं समकालीन विभाषाओं के अनेकानेक शब्द अपनाये है और अन्धे होने पर भी भाषा का साहित्यिक गुणों से श्रृंगार किया है। सूर की भाषा में संस्कृत,पाली, अपभ्रंश आदि के अतिरिक्त गुजराती, राजस्थानी एवं पंजाबी भाषा के भी शब्द मिलते है। इतना ही नहीं, खडीबोली, अवधी, कन्नौजी, बुन्देलखण्डी आदि बोलियों के अतिरिक्त अरबी, फारसी एवं तुर्की के भी शब्द मिल जाते हैं। सूर का शब्द-भण्डार बडा विस्तृत है।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

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भारतीय काव्यशास्त्र 
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युवापीढ़ी पर महानगरीय परिवेश का प्रभाव (‘वे दिन’ के संदर्भ में) - डॉ.ए.सी.वी.रामकुमार

Issue 2, February 2019.



युवापीढ़ी पर महानगरीय परिवेश का प्रभाव (‘वे दिन’ के संदर्भ में) 

डॉ ए.सी.वी.रामकुमार 
सहायक प्राध्यापक 
हिंदी विभाग, तमिलनाडु केंद्रीय विश्‍वविद्यालय। 


निर्मलवर्मा
“वे दिन' चेकोस्लावाकिया के परिवेश में लिखा गया पहला हिन्दी उपन्यास है, जिसमें मानवीय संबंधों की जटिलता और यूरोपीय जीवन में व्याप्त आतंक को सामने लाया गया है। मानवीय संवेदना को बहुत गहरे जाकर रचना की कथा से उद्घाटित किया गया है। उपन्यास का पूरा वातावरण उदासीन, जटिलता और आतंक से भरा हुआ दिखाई पड़ता है। मैं, फ्रांज, टी०टी०, मारिया और रायना सब उलझे हुए संबंधों और जटिल मनोभावनाओं से जूझता है।

उपन्यास में कथानायक ‘मैं’ (शायद यह निर्मल वर्मा हो सकता है, न भी हो सकता है या कोई भी प्रवासी भारतीय भी हो सकता है) को एक दिन टूरिस्ट एजेन्सी से उनके होस्टल को फोन आती है कि तुरन्त यहाँ आओ। वहाँ टूरिस्ट का मुख्य अधिकारी उसे आस्ट्रिया से आए कुछ जर्मन यात्रियों को शहर घुमाने के लिए गाइड़ के रुप में काम सौंपता है। जर्मन लोग थोड़ी अंग्रेजी भी जानते हैं। नायक छोटी सी आर्थिक सहायता के रुप में ऐसा काम छुट्टियों में करता रहता है। इससे पैसे भी मिलते हैं। उस रात वह पेलिकान में देर तक बैठकर वोट्का पी लिया। छात्रावास के चौकीदार को देर से आने की खीझ से बचने के लिए तीन क्राउन दिए। चौकीदार ने दो पत्र दिए, एक बहन का, जिसे देखकर उसकी उत्सुकता मर गई। थानथुन, बर्मी छात्र जिसे टी०टी० कहा जाता है, फ्रांज पेटर और उसकी गर्लफ्रेंड मारिया - ये तीन पात्र और हैं, जो उपन्यास में गाहे और बेगाहे आते रहते हैं।

मुख्य कथा होटल योरूपा की दूसरी मंजिल कमरा नं० 11 में अपने लघुवयस पुत्र मीता के साथ ठहरी रायना रैमान और ‘मैं’ के साथ चलती रहती है। कथा कुल ढ़ाई दिन की है। नायक रायना को प्राग घुमाता है। वहाँ के सभी दर्शनीय स्थान और चीजें दिखलाता है। रायना पहले भी प्राग आ चुकी है, पर कुछ भूल गई है। उसे दो ही चीजें याद हैं, कासल के पास का सेंट वाइट्स और यहूदियों का पुराना कब्रिस्तान। सेंट वाइट्स इसलिए याद है कि रायना अपने पति जाक के साथ वहाँ तभी तक रुकी थी, जब वे गाथिक स्थापत्य पर किताब लिख रहे थे। अब जाक से उसका संबंध टूट चुका है। मीता को पति-पत्नी बाँट लेते हैं, कभी वह मैं के साथ रहता है, कभी बाप के साथ। रायना को कहीं बंधकर एक शहर में रहना पसंद नहीं। यहूदी कब्रिस्तान इसलिए याद है कि वह नाजी अत्याचारों की हल्की याद दिला जाता है।

बीच-बीच में अपने तीनों मित्रों की खोज-खबर भी लेता रहता है। मारिया को अंग्रेजी नहीं आती थी, फ्रांज को चेक, नायक और टी०टी० को जर्मन। कभी-कभी वे जल्दी में बोलते हुए गड़बड़ जाते थे कि किसके साथ हमें किस भाषा में बोलना चाहिए। फ्रांज प्राग से बाहर जाने के लिए अनुवेश-पत्र चाहता है। प्रांज जर्मन है। मारिया उसके साथ तभी जा सकती है, जब वह उसकी पत्नी हो। पर फ्रांज अनुवेश पत्र के लिए नहीं, अपनी इच्छा और अवसर पर ही मारिया से विवाह कर सकता था। ये विषय मारिया, फ्रांज, टी०टी० तथा 'मैं' नायक भी जानते हैं।

रायना आर्थिक रुप से स्वतंत्र है। ऐसी रायना को कुछ दिन नायक 'मैं'। प्राण के दर्शनीय स्थानों में घुमाता है। वे स्थान कैसे हैं और मन पर उनका प्रभाव कैसा पड़ता है, यह उपन्यास में सहज चित्रित होता चलता है। साथ घूमने से रायना और नायक 'मैं' के बीच आकर्षण जगता है। मानो दोनों, एक-दूसरे को चाहने लगे हैं। स्थिति में आवेग नहीं, अजीब-सी ठंडक, उदासीनता और उदासी है। वे जानते हैं कि इस संग-साथ, यहाँ तक कि शारीरिक मिलन की परिणति का कोई स्थाई रागात्मक संबंध नहीं बनने जा रहा। एक बार रायना मीता को अकेला छोड़कर 'मैं' के साथ छात्रावास आई। छात्रावास के उस कमरे में वह काफी खुल-सी गई। उस कमरे में उस रात दोनों ही सहसा अकेले हो गए थे। अकेलापन जो दुःख, पीड़ा और आँसुओं से बाहर हैं, जो महज जीने के नंगे बनैले आतंक से जुड़ा है - जिसे कोई दूसरा व्यक्ति निचोड़कर बहा नहीं सकता। वे किसी विशद जलधारा में डूबते-उतरते भटकते दो तिनकों जैसे हैं, जो मात्र संयोगवश कुछ क्षणों के लिए निकट आ गए हैं और शीघ्र सदा-सदा के लिए दूर हो जाने वाले हैं। कुछ दिन साथ रह लिए मन में कहीं ज्वार उठा और शरीर ने अपनी इच्छा पूर्ति तक कर ली, फिर भी यह सब कोई संबंध नहीं बना सके। आज इतना समय बीतने के बाद मैं उन दिनों को याद करने बैठा है और उनका हाल अपने ढंग से खोया-खोया सा कह चला है। बस, कुल इतनी कहानी है, जिसमें घटना के नाम पर बहुत थोड़ा सा है किंतु उस अनुभूति की जो हल्की सी छाप मन के किसी कोने में शेष है, वह कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ है।

संबंधों का विघटन :

पूर्व काल में संयुक्त परिवार परंपरा अधिक है। कालक्रम में विभिन्न परिणामों-औद्योगिक क्रांति, शहरी जीवन के प्रति मोह, कृषि के प्रति नीरस भाव, आधुनिकतम विलासपूर्ण जीवन के प्रति आकर्षित होना आदि के कारण सम्मिलित परिवार व्यवस्था का विघटन हुआ। बाद में शहर में भी स्त्री-पुरुष दोनों भी निरंतर धन के पीछे पड़ने के कारण अपने व्यक्तिगत जीवन में भी बेचैन का अनुभव कर रहे हैं। इसलिए स्त्री-पुरुष के संबंधों में विघटन शुरु हुआ। प्रस्तुत उपन्यास में युवपीढ़ी के संबंधों में विघटन का चित्रण निर्मलवर्मा ने अत्यंत सहज शैली में यथार्थ के धरातल पर किया है।

नायक ‘मैं’ को चौकीदार सेंट पीटर दो पत्र देते हैं, एक तो बहन की दूसरी तो कालेज पुस्तकालय से पुस्तक वापस देने की। इन दोनों को बिना पढ़कर देखते ही समाचार समझ में आता है और विशेषकर बहन द्वारा लिखी गई पत्र से उनका दिमाग अस्त-व्यस्त हो जाती है। वह पत्र को पढ़ना नहीं चाहता था। यथा – “मैंने बत्ती बुझा दी। बहन का पत्र अब भी मेरी जेब में था, लेकिन मैंने उसे अगले दिन के लिए छोड़ दिया।“1

“मुझे अपनी बहन की चिट्ठी पढ़ने की इच्छा हुई…………….. फिर याद आया, बत्ती नहीं है। मैंने उसे मेज पर रहने दिया। मुझे हल्की-सी खुशी भी हुई कि उस रात मैं उसे नहीं पढूँगा।“2 इससे पता चलता है कि नायक मैं बत्ती न रहने के कारण बहन की चिट्ठी पढ़ने में असमर्थ हो गया। लेकिन इससे वह अत्यंत प्रसन्न होता है। साधारणतः घर की छुट्टी के लिए इंतजार करते हैं, लेकिन घर से संबंध ठीक न रहने के कारण बहन की चिट्ठी भी बहुत असहनीय जैसे हो गया। इसमें उपन्यासकार निर्मलवर्मा ने पारिवारिक संबंधों के विघटन की विषम स्थिति का सफल अंकन किया है।

रायना के साथ जाते समय नायक शहर दिखाते-दिखाते प्रश्न पूछता है कि क्या आप पहली बार प्राग आई थी। इसके उत्तर में रायना कुछ नहीं कहकर चुप रहती हैं, क्योंकि पहली बार अपने पति के साथ मिलकर आई थी, अब पति से संबंध टूट गया। इस संबंध विघटन के कारण अपने पति के बारे में फिर याद करना नहीं चाहती थी। बाद में वह कहती है कि “मैं अपने पति के साथ आई थी। वह गोथिक आर्किटेक्चर पर एक किताब लिख रहे थे, इसलिए चर्चा के अलावा हम कोई और चीज नहीं देख सके।“3

‘वे दिन' उपन्यास की और एक पात्र टी०टी० अपने दोस्तों से सब विषय बात करते हैं, लेकिन अपने घर के बारे में विशेषकर अपने पिता के बारे में कुछ नहीं बताते। कारण यह है कि उसका पिता अपनी माँ से दूर रहता है – “वह अपने पिता के बारे में चुप रहा करता था और कोई उसके बारे में नहीं पूछते थे। उसकी माँ दूसरा विवाह करने के बाद पश्चिमी बर्लिन में बस गई थी।“4

घर में पारिवारिक संबंध ठीक न रहने के कारण घर से लोग विमुख होते जा रहे हैं। पारिवारिक संबंधों में तनाव और टूटन के फलस्वरूप लोग बाहर रहना ही अधिक पसंद करते हैं। उपन्यास के नायक मैं भी इस प्रकार ही सोचते हैं। रायना ‘मैं’ से पूछती है कि - "आपको अपने घर की याद नहीं आती?5 इसके उत्तर में ‘मैं’ कहता है कि “मैंने तनिक विस्मय से उसकी ओर देखा, नही…. मुझे यहाँ अच्छा लगता है।”6 इसी संबंध में नायक अपने दोस्त टी०टी० को भी इसी प्रकार का उत्तर देते हैं। “नहीं। मैं ने कहा। मैं हमेशा नहीं कहा करता था, ताकि मुझे कुछ ज्यादा न कहना पड़े।"7 इसी सिलसिले में टी०टी० भी कहता है कि - "मुझे घर की अब याद नहीं आता?”8

आधुनिक मशीन युग में जीवन भी मशीन की तरह हो गया है। जो भी हो बहुत संयम से रहते हैं। और पारिवारिक जीवन विशेषकर पति-पत्नी के संबंध टूटने पर भी कुछ भी परवाह नहीं करते हैं। ‘वे दिन’ उपन्यास में ‘मैं’ और रायना के बीच में रायना के पति का संदर्भ आते ही वह कहती है कि – “हम साथ नहीं रहते। उसका स्वर बहुत धीमा था। कुछ देर बाद उसने कहा, हम अलग हो गये हैं। उसे शायद यह भी नहीं मालूम कि मैं मीता के संग प्राग आई हूँ। उसका स्वर सहज और शांत था। उसमें भयावह कुछ भी नहीं था।“9

“डरो नहीं…….. उसने हँसकर कहा, मैं अपनी माँ के विवाह की खुशी में अकेला नहीं पिऊँगा।“10 निर्मलवर्मा ने इससे पारिवारिक टूटने के बारे में युवा पीढ़ी में परिवर्तन का आँखों देखा हाल चित्रण किया है। फ्रांज अपनी माँ की शादी के बारे में आपत्ति नहीं उठाते हैं लेकिन पूर्ण रूप से सहमत भी नहीं। इस प्रकार एक संघर्षपूर्ण मनःस्थिति का कारण था, सिर्फ पारिवारिक संबंधों का टूटन।

घर से दूर अधिक दिन रहने के कारण युवा पीढ़ी में किस प्रकार का परिवर्तन आता है, निर्मलवर्मा ने सफलतापूर्वक चित्रण किया है। ‘वे दिन’ उपन्यास में नायक मैं एक जगह इसी प्रकार का विचार व्यक्त करता है कि – “मैं घर के बारे में नहीं सोचता। मैं सोचता हूँ, एक उम्र के बाद तुम घर वापस नहीं जा सकते। तुम उसी घर में वापस नहीं जा सकते, जैसे जब तुमने उसे छोडा था।“11

इस प्रकार निर्मल वर्मा ने वे दिन में आधुनिक शहरी परिवेश में पारिवारिक संबंधों में विघटन दिखाया है। इसके साथ-साथ इसका परिणाम भी दिखाया है। पारिवारिक संबंध टूटने के कारण व्यक्ति के विचार में किस प्रकार परिवर्तन आते हैं और इस विषमता को झेलते हुए युवा पीढ़ी की यथार्थ चित्रण मैं फ्रांज, टीटी, रायना के द्वारा आधुनिकताबोध को संबोधित करते हुए चित्रण किया है।

संदर्भ सूची :

1) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 28

2) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 114

3) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 41

4) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 50

5) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 58

6) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 58

7) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 118

8) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 119

9) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 64

10) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 81-82

11) निर्मल वर्मा - वे दिन, पृ० 89

संदर्भ ग्रंथ सूची :

1) ‘वे दिन’ - निर्मलवर्मा - राजकमल प्रकाशन प्र.लि.,नई दिल्ली, 1990

“निर्मलवर्मा का परिचय एवं साहित्य दृष्टि” - डॉ.ए.सी.वी.रामकुमार

Review of Research Journal, 
February 2019
“निर्मलवर्मा का परिचय एवं साहित्य दृष्टि”

जीवन परिचय :

किसी भी रचनाकार की रचनाओं का मूल्यांकन करने से पूर्व उसके व्यक्तिगत जीवन का परिचय प्राप्त करके व्यक्तित्व का विश्लेषण कर लेना अत्यंत समीचीन होता है। क्योंकि रचना रचनाकार के व्यक्तिगत जीवन की अर्जित अनुभूतियों, स्मृतियों एवं कल्पनाओं की अभीव्यक्ति है। रचनाकार का व्यक्तित्व जितना सशक्त एवं गौरवपूर्ण होगा उसकी रचनाधर्मिता उतनी ही चमत्कृत और रसपूर्ण होगी।

      स्वातत्रंता के बाद भोगे हुए यथार्थ और कराहती हुई मानवीय संवेदना का हृदय उदारक चित्र साहित्यकारों ने खींचा वह हिन्दी साहित्य में अविस्मरणीय हैं। निर्मलवर्मा जी के उपन्यासों में आधुनिक मानव के चरमराते जीवन और उसकी छटपटाह्ट, संवेदना की गहराई और सूक्ष्म निरीक्षण दिखाई देती है। विदेशी प्रसंगों के वातावरण-शराब और सेक्स का नशा मात्र उन्होंने नहीं खींचा या उनका उपयोग केवल विदेशीपन की छोंक लगाने के लिए नहीं किया, बल्कि हिन्दी उपन्यास और कहानी साहित्य को इन्होंने एक नया रूप और एक नया आयाम दिया।

लेखक का किसी सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन से जुड़े होना स्वयं अपने से जुड़े होना हैं। जो लेखक सही अर्थों में प्रतिबद्ध होता है, प्रतिबद्ध उसके लिए आदर्श या त्याग या समाजसेवा की समस्या न कर अपनी ही सृजन-प्रक्रिया की एक अनिवार्य शर्त बन जाती है। इस सम्बन्ध में निर्मलवर्मा जी का कथन है कि मैं प्रतिबद्ध होकर लिख रहा हूँ।1

सौम्य मितभाषी (किन्तु जहाँ सिद्धान्तों की टकराहट हो वहाँ दृढ़)। अपने बारे में उन्होंने ही अपने शब्दों में मुझमें चाहे कोई आकर्षण न हो, लेकिन किसी लुटी-पिटी बार’(Bar) या पब’ (Pub) में पियक्कड़ों को या ऐसे तलछती प्राणियों को, जो बहुत गहरे में जा चुके हो-अपनी तरफ खींचने की अद्भुत क्षमता रही है। मुझे देखते ही वे मेरी मेज के ईर्द-गिर्द बैठ जाते थे। You are a Quiet Indian, are not you? (बाद में उनके बीच में लम्बे अर्से तक इसी नाम से प्रसिद्ध रहा) उनकी ऊपर से अनर्गल दीखनेवाली आत्मकथाओं में मुझे पहली बार उस अन्धेरे कोनों से साक्षात्कार हुआ, जिन्हें मैं छिपाकर रखता आया था। आज मैं जो कुछ है, उसका एक हिस्सा इन अज्ञात लोगों की देन है।2

पुराने स्मारक और खँडहर हमें उस मृत्यु का बोध कराते हैं जो हम अपने भीतर लेकर चलते है। बहता पानी उस जीवन का बोध कराता है जो मत्यु के बावजूद वर्तमान है, गतिशीत हैं, अन्तहीन है। संकट की घड़ी में अपनी परम्परा का मूल्यांकन करना एक तरह से खुद अपना मूल्यांकन करना है, अपनी अस्मिता की जड़ों को खोजना है। हम कौन है - यह एक दार्शनिक प्रश्न न रहकर खुद अपनी नियती से मुठभेद करने का तात्कालिक प्रश्न बन जाता है। केवल अनुभव सीधे रचना में नहीं उतरता, वह स्मृति के माध्यम से रचना में आकर ढ़लता है। कोई भी रचना न पूर्ण रुप से स्वतंत्र है, न पूर्ण रूप से उपज, बल्कि जिस सेंकरे दरवाजे से लेखक खुद नहीं गुजर सकता, उनकी रचना अपने को एक अदृश्य छाया सी उस दरवाजे के अनुकूल समेट कर रास्ता बना लेती है।3

जन्म और बचपन :

हिन्दी के प्रमुख उपन्यासकार निर्मलवर्मा जी का जन्म सन् १९२९ में शिमला में हुआ और बचपन का बड़ा हिस्सा पहाडों पर ही बीता। निर्मल वर्मा के बचपन के बारे में उन्होंने अपने ही शब्दों में कह रहे है कि शिमला के वे देन आज भी नहीं भूला हूँ। सर्दियाँ शुरुहोते ही शहर उजाड़ से जाता था। आस-पास के लोग बोरिया-बिस्तर बाँधकर दिल्ली की ओर उतरायी शुरू कर देते थे। बरामदे की रेलिंग पर सिर टिकाये हम भाई-बहन उन लोगों को बेहद ईष्या से देखते रहते जो दूर अजनबी स्थानों की ओर प्रस्थान कर जाते थे। पीछे हमारे लिए रह जाते थे, चीड़ के साँय-साँय करते पेड, खाती भुतहे मकान, बर्फ में सिमटी हुए स्कूल जाने वाली पगडण्डी। उन सूनी, कभी न खत्म होनेवाली शामों में हम उन अनजाने देशों के बारे में सोचा करते थे - जो हमेशा दूसरों के लिए हैं, जहाँ हमारी पहुँच कभी नहीं होगा। तब कभी कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन अचानक अपने छोटे-से कमरे, ग्रामफोन, कागज पत्रों को छोडकर बरसों सात समुद्र पार करना होगा।4

      उन्होंने ने अपने शब्दों में पहाडी मकानों की एक खास निर्जन किस्म की भुर्तेली आभा होती है। इसे शायद वही समझ सकते हैं, जिन्होंने अपने अकेले साँय-साँय करते बचपन के वर्ष-बहुत से वर्ष एक साथ पहाड़ी स्टेशनों पर गुजार हों।5

निर्मल वर्मा जी को हमेशा अपनी रचनाओं में यह महसूस होता हैं कि हर चीज की जड़ में साधारण लोगों की जिन्दगी है। कभी-कभी उनको यह विचार काफी दुःख देता है कि हम वास्तविक जिन्दगी में नहीं हैं - उनका मतलब है कि रंग और प्लास्टर में काम करने से कहीं ज्यादा बेहतर है खून और हाड़-मांसवाला काम करना, तसवीरें बनाने से कहीं अधिक सुखदायी है, बच्चों को जन्म देना या किसी व्यापार में लग जाना। लेकिन इसके बावजूद जब उन्होंने यह सोचता है कि मेरी ही तरह मेरे कई दोस्त वास्तविक जिन्दगी के बाहर हैं, तो मैं फिर से अपने को जीवित महसूस करने लगता हूँ।"6

स्वयं उन्हें अपनी स्थिति की विड़म्बन का तीखा और सजग एहसास है - लगता है जैसे हम परम्परा और आधुनिता के हाशिये पर जी रहे हैं। न एक में हमारा घर है, न दूसरे में हमारी सुरक्षा।7 वे यह भी कहते हैं - जैसे मेरी चेतना के बीचों-बीच एक फाँक खिंच गई है, एक तरफ आधुनिक अनुभव, जो मेरे वास्तविक यथार्थ को प्रतिध्वनित करता है दूसरी तरफ अखंडित संपूर्णता का अनुभव है, जिस में मेरी संस्कृति का स्वप्न छिपा है।8

इतिहास और स्मृति निर्मलवर्मा के प्रिय वस्तु है। निर्मलवर्मा के चिंतन में इतिहास के ठोस और विशिष्ट अनुभव है। उनकी पूर्व पश्चिम के द्धन्द्ध में, परम्परा में, औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक परिस्थिति में सुपरिभाषित अवस्थिति है। वहाँ परम्परा इसी स्मृति का अंग है, बल्कि स्मृति को सहजने और समझने का साधना के बिना कोई गहरा या वस्तुपरक विश्लेषण किये, बरसों से निर्मलवर्मा को भारत-व्याकुल, अध्यात्मवादी, पुनरुत्थानवादी आदि कहकर उन्हें हिन्दी के सब से सशक्त प्रतिक्रियावादी के रुप में विख्यात हुई।

उनके व्यक्तित्व के कारण वे जो बदलता है, जो बदलाव की मुद्रा के बावजूद नहीं बदलता है और जो बदलने से ठिठकता है, उस सबको अपनी रचना के तानेबाने में विन्यस्त करनेवाले लेखक है। वे परिवर्तन के चालू छद्म  से बचते है, वे परिवर्तन के सूक्ष्म, लगभग अदृश्य सच की पहचान के कलाकार है।

शिक्षा :

निर्मलवर्मा के पिता जी अंग्रेजों के जमाने में सरकारी अफसर थे, तो उन्हें शिमला और दिल्ली में रहना पड़ता था। इसलिए उनका शिक्षा भी शिमला और दिल्ली में हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध कालेज सेण्ट स्टीफेन्स से इतिहास में सन् १९२ या १९३ में एम.ए करने के बाद कुछ वर्ष अध्यापन कार्य किया। चेखव की कहानियाँ और तुर्गनेव के उपन्यास से प्रभावित होकर आपने लिखना शुरू किया। उनके बड़े भाई राम कुमार। रामकुमार पेरिस में थे, तो वे उनको बराबर बड़े कलाकारों की किताबें, उनके केटलाग्स भेजते रहते थे।

विदेशी भ्रमण :

मैं बरसों से अपने देश के बाहर रहा हूँ। इस से मेरे भीतर एक अलगाव-सा उत्पन्न हुआ है, जो मुझे कभी-कभी बोझ-सा जान पड़ता है। किन्तु दूसरी तरफ इसी अलगाव' ने मुझे अपनी जातीय अस्मिता और संस्कृति को एक ऐसे कोण से देखने का अवसर दिया है, जहाँ भ्रम और भुलावे के लिए गुंजाइश बहुत कम है। मैं एक साथ अपने को बाहर और भीतर पाता हूँ। पश्चिम से मुझे एक तार्किक अन्तर्दृष्टि मिली है, जिसके सहारे मैं ने अपनी सस्कृति के मिथक-बोध, बिम्बों और प्रतीकों की गौर-तार्किक अन्तर्चेतना को परखने की चेष्टा की है, दूसरी तरफ मैं खुद इस अन्तर्चेतना का अंग हूँ, जिसके आधार पर मुझे आधुनिक तर्कशील तकनीकी सभ्यता के अन्तर्विरोधों का अहसास भी होता रहा है।9

सन् १९९ में पहली बार उन्हें प्राग जाना हुआ था। वह समय था जव चेकोस्लोवाकिया में सेंसरशिप, पुस्तकों पर पाबन्दियाँ और हर तरह का दमन अपनी चरम सीमा पर था। जिसे हम स्टालिनिस्टिक टेरर' का समय कहते है, वह समय बहुत ही भयंकर रूप से मौजूद था। स्वाभाविक रूप से निर्मलवर्मा उन दिनों बहुत से चेक लेखकों से मुलाकात हुई। सन् १९६१-६२ के दौरान ही जब निर्मलवर्मा ने चेक भाषा का अध्ययन समाप्त किया और प्राग की चार्ल्स यूनिवर्सिटि में चेक साहित्य के लेक्चर्स में शामिल हुआ जब उन्होंने पहली बार पाया कि जिसे हम एक अधिनायक वादी व्यवस्था के भीतर सेंसरशिप का अस्तित्व कहते है वह कितना कमजोर और ढ़ीला है। निजी रिश्ते अनेक लेखकों से बनते गये, उन्होंने पाया कि इन बुरे वर्षों में भी वे बराबर रचनाशील रहे है। सन् १९६४ तक की चकोस्लोवाकिया की स्थिति के बारे में बताया। वहाँ सात वर्ष रहकर अनेक चेक उपन्यासों और कहानियों का अनुवाद किया। बाद में आप बीच के समय में लन्दन चले गये थे। इस विदेशी भ्रमण उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर गहरा प्रभाव पड़ा है। सन् १९७७ में अमेरिका में आयोजित इन्टरनेशनल राईटिंग प्रोग्राम में भाग लिया। इस प्रकार विभिन्न देशों में भ्रमण करने के कारण अपनी रचनाओं में विभिन्न देशों की सभ्यता और संस्कृति दर्शाती है।

साहित्य के प्रति रुचि :

निर्मल वर्मा का साहित्य और चिन्तन उत्तर-औपनिवेशिक समाज में कुछ बहुत मौलिक प्रश्न और चिन्ताएँ उठाता है, जहाँ कथाकथित सामाजिक यथार्थ का आतंक सा छाया रहा है और मुखर किस्म की सामाजिकता साहित्य को लगभग आत्महीन बनाने पर उतारू है, अगर निर्मलवर्मा अपनी रचना और चिन्तन में पूर्णता और पवित्रता, उनकी खोज और सत्यापन, उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति, उनके अन्त संघर्ष और तनाव को मूलाधार बनाते हैं।

साहित्य के सम्बन्धी निर्मलवर्मा का विचार है कि हमारे देश में साहित्य ऐसी संकोचजनक स्थिति में है, एक भीड़-भरे कमरे में घुसने की स्थिति में है, जहाँ उसके लिए कोई जगह नहीं है और उसे या तो धर्म, या समाजशास्त्र या हमारी रुढ़ नैतिकता के साथ, बारी-बारी से उनकी सेवा करते हुए, आधी कुर्सी पर बैठना होता है।10

निर्मलवर्मा का एक आत्मीय सम्बन्ध चित्रकला से बना। यह एक दिलचस्प प्रक्रिया होती है कि आप चित्रों में जो कुछ देखते है, थोड़ी-सी आदत और अभ्यास के बाद, प्रकृति का साम्य उसके साथ देखने लगते है। यह शायद कला का सब से बड़ा वरदान है। इस सम्बन्ध में निर्मल एक उदाहरण दिया कि - लगभग पाँच-छः वर्ष पहले उन्होंने इटेलियन सुर्रिचलिस्ट पेण्टर किरिको की एक पेंण्टिग एक किताब में देखी थी। किरिको मेरे बहुत प्रिय चित्रकार है। उस पेंण्टिग में एक लड़की पहिया घुमाती हुई दो सुनसान गलियों के बीच में चली आ रही है, गलियों के दोनों तरफ मकान है। इस पेण्टिग को मैं भूल गया था, लेकिन अपना नया उपन्यास (रात का रिपोर्टर) लिखते हुए वह चित्र मेरे दिमाग में जिस तरह से उभर आया वह मुझे एक तरह का चामत्कारिक रहस्योद्घाटन लगा। अन्त अनुशासनीयता की बात मुझे बहुत बनावटी लगती है लेकिन चित्रकला, संगीत और साहित्य की संवेदनाएँ अगर अनायास रूप में हमारे संवेदन तन्त्रों को परिष्कृत करती है तो यह अपने में अद्भुत चीज होती है।

सभी महत्वपूर्ण कलाकृतियाँ इस अन्तर्विरोध का अहसास कराती हैं - एक ओर लेखक की विश्वास करने की इच्छा और दूसरी ओर 'छद्म चेतना' के खिलाफ उसका संघर्ष जो विश्वासों को जन्म देती है। अपने व्यक्तिगत, अकेले अनुभव की एक ऐसी स्मृति में बदलने का संघर्ष, जिस में सबका साँझा है, जो अदृश्य देते हुए भी सब की चीज है, जिस से कोई भी रचना 'मिथ' की सार्वलौकिकता ग्रहण कर पाती हैं।

कलाकार के सम्बन्ध में निर्मलवर्मा का विचार हैं कि मैं तुम से कहता हूँ कि उस मानवीयता का चित्रण करते हुए मैं थक गया हूँ, जिस में मेरा कोई हिस्सा नहीं - - - मैं दो दुनिया के बीच खड़ा हूँ और उनमें से किसी में भी मेरा घर नहीं है।11

      निर्मलवर्मा के चिन्तन में इतिहास के ठोस और विशिष्ट अनुभव है। उसकी पूर्व-पश्चिम के द्वन्द्ध में, परम्मरा में, औपनिवेशिक और उत्तर औपनिवेशिक परिस्थिति में सुपरिभाषित अवस्थिति है। निर्मलवर्मा पश्चिम के लोकतंत्र और सोवियत अधिनायक वाद को एक ही किस्म की आधुनिक सभ्यता के दो पहलू और मानद जाति मात्र के अस्तित्व केलिए खतरा मानते है।

सम्प्रेषणीयता की भावना प्रेम से उत्पन्न होती है - तभी ईसा मसीह के अनुसार जहाँ तीन-चार लोग भी मुझे चाहते हो, मैं वहाँ मौजूद हूँ। इस भीड़ को न ईसा मसीह की जरूरत थी, न रचनाकार की - उसकी जरुरत को एक व्यावसायिक, बाजारू लेखक आसानी से पूरा कर सकता था। आधुनिक लेखक की यह विडम्बना है कि सम्प्रेषणीयता सिर्फ अर्थ खोकर और सिर्फ सम्प्रेषणीयता खोकर प्राप्त किया जा सकता है, आज के तकनीकी समाज की विलक्षण देन है।

यह एक ऐसे संश्लिष्ट रूप की साधना स्थली है जो एक साथ आधुनिक भी हो और जिस में शब्द, सत्य और सौंदर्य तीनों को एक रूप, एक-दूसरे की शर्तों पर चरितार्थ किया जा सके। कला की उसकी शुद्धता की मुखर पक्षधरता करनेवाले हिन्दी लेखकों में निर्मलवर्मा शायद अकेले हैं, जिसके साहित्य में इस पक्षधरता के साथ-साथ नैतिकता, मर्यादा, पवित्रता, सत्य जैसे एक विशेष कोटि के प्रत्यय या भाव एक ओर बार-बार प्रकट होते है किन्तु दूसरी ओर जिन्हें किसी तरह की निश्चिन्त अवस्थिति का कोई सुख यहाँ उपलब्ध नहीं है। इनकी इस बेचैन उपस्थिति में ही यह साहित्य अपनी आत्मचेतना को रूपायित करता है।

लेखन के अलावा अन्य कलाओं में रुचि :

निर्मलवर्मा हिन्दी के उन विरले साहित्यकारों में है, जिन्हें लेखन के अलावा संगीत, चित्रकला तथा फिल्म में भी गहरी दिलचस्पी है। चित्रकला सम्बन्धी उसकी रुचि साहित्य के प्रति रुचि' में बदल गया। उनकी एक कहानी माया दर्पण' पर फिल्म बनी है। जिसे सन् १९३ की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ है। निर्मलवर्मा के सास्त्यि और सिनेमा सम्बन्धी अपने विचार कोई भी कला-कृति, कविता, चित्र, फिल्म - अपने में अन्तिम रूप से सम्पूर्ण है। उसका सत्य और मर्म उसके माध्यम से अलग करना असम्भव है - बल्कि यूँ कहें, स्वयं माध्यम का चुनाव लक्ष्य की खोज के साथ जुड़ा है। इस दृष्टि में फिल्म का सत्य अनूदित करना उतना ही निरर्थक प्रयास है, जितना कविता के मर्म को शब्दों से अलग करके देखने की कोशिश करना। आश्चर्य की बात है कि साहित्य का मूल्यांकन करते समय हम उस कसौटी को अलग रख देते हैं - - जैसे एक विधा की कसौटी दूसरी विधा से अलग हो। यही से भ्रति उत्पन्न होती है। साहित्य और फिल्म के बीच सही रिश्ते को पहचान ने केलिए पहली शर्त इस भ्रान्ति से छुटकारा पाना है।12 मेरे विचार में माया दर्पण - जैसी फिल्मों की सब से बड़ी उपलब्धि यह है कि उनमें ऐसे कोई सनसनीखेज प्रयोग नहीं मिलते जो बम्बई या हालीवुड फिल्मों के आभूषण हैं - अपने में वे अत्यन्त साही, चमत्कारहीन किन्तु अपनी दृष्टि में अत्यन्त ठोस और जीवन्त फिल्में है।13

हर रचना का रूपाकार लेखक के जीवन की विषय-वस्तु द्धारा निर्धारित होता है और चूँकि यह विषय-वस्तु समय के तकाजों, चुनौतियों और निर्णयों के तन्तुजाल से बना है, स्वयं रूपाकार की खोज अपने जीवन में नैतिकता, सही शब्द, सही नाम की खोज से जुड़ जाती है।

निर्मलवर्मा के व्यक्तित्व पर धार्मिक प्रभाव :

धर्म का सम्बन्ध बचपन से ही उनका धार्मिक शिक्षाओं से है। धर्म से उनका सम्बन्ध वैसा ही रहा है जैसा किसी भी हिन्दू परिवार में लोगों का है। निर्मलवर्मा एक कथाकार जो कि भ्रम और यथार्थ के बीच काम करता है. यह उसके लिए सब से मूल्यवान अन्तर्दृष्टि है। इस अर्थ में ही इसे एक धर्मिक अन्तर्दृष्टि के रूप में स्वीकार करता है।

भाषिक प्रभाव :

निर्मलवर्मा ने हिन्दी को एक नई कथाभाषा दी है, उसी तरह से हिन्दी की नई चिन्तन-भाषा के विकास में उनकी मह्त्वपूर्ण भूमिका है। उनकी 'भाषा की ऐंद्रियता, सूक्ष्म से सूक्ष्म बखान भी कविता की तरह बिम्बों या स्मृतिचित्रों से करने की उनकी क्षमता, उनका शब्द संयम और मितव्ययता उनके कथा रूपों को एकाग्र भी बनाते है और साथ ही अनेकार्थी भी। वे अर्थों के बखान के नहीं, अर्थों की गुँजों और अनुगुजों के कथाकार है। वे अधिक बुनियादी और दूरगामी परिवर्तनों के धीमे-धीमे घटने या न घटने के साक्षी-लेखक है।

रचना संसार :

निर्मलवर्मा जी की साहित्यक फलक बहुत व्यापक है। उन्होंने पश्चिम सभ्यता को लेकर अनेक रचनाओं का सृजन किया। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, निबन्ध, संस्मरण और अंग्रेजी लेखकों की रचनाओं का अनुवाद भी किया। उनकी रचनाओं में आधुनिकता बोध विस्तार रूप से दिखाई देता है। निर्मलवर्मा ने मनुष्य के अनुभव को बृहत्तर परिवेश में देखा। इसके लिए वे भारतीय और भारतेतर (यूरोपीय) संदर्भ लेते हैं। भारतीय संदर्भ हो या भारतेतर सब में पीडा अनुभूति मूल में एक ही है। यूरोप के मनुष्य की पीडा रंग-भेद की है तो भारतीय की वर्ग-भेद और वर्ण भेद की। इस तरह निर्मलवर्मा की मानवीय पीड़ा और संत्रास का एक Cosmos रचते हैं, जिस में रंग-भेद, पारिवारिक सम्बन्धों के तनाव, अजनबीपन, अकेलापन के शिकार मनुष्य का चित्र खींचते हैं।

उपन्यास : वे दिन

निर्मलवर्मा का 'वे दिन' आधुनिक संवेदना से सम्पन्न उपन्यास है। पश्चिम के अर्थहीन परिवेश में जिस छोटे सुख की तलाश इस उपन्यास में की गई है, वह आज के सन्दर्भ में गैरमौजूँ नहीं लगती। इसे रोमैंटिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि तीन दिन के सम्पर्क में 'मैं' और 'रायना' का शारीरिक सुख रोमैंटिक अर्थ में प्रेम नहीं, बल्कि रोमानी प्रेम से अलग प्रेम की आधुनिकतावादी परिकल्पना है। अन्त में रायना के प्रति जो मोह उसमें उत्पन्न होता है, वह भावुकता न होकर 'मैं' का बचा हुआ वह मनुष्य है जिससे वह अलग हो गया है।

      "जब मैं ने वे दिन लिखना शुरू किया था तो उसका स्थान विल्कुल अलग था। मैं रोम में एक महिला से मिला था। यह मेरी पहली बार अकेलापन और बहुत ही बेकारी के दिनों की स्थिति थी। मेरे पास पैसे भी नहीं थे और मै बहुत ही लुटे-पिटे होटल में ठहरा हुआ था। शाम को मैं काफी पीने गया तो वहाँ मुझे इंग्लैण्ड की ही एक महिला मिली। मेरी उनसे बातचीत होने लगी क्योंकि इटली में अंग्रेजी बोलनेवाले कम ही मिलते हैं। उन्होंने बताया कि वे एक 'टूरिस्ट ऑफिस' में काम करती हैं और यहाँ पर एक 'टूरिस्ट गाइड' के तौर पर आयी हुई है। बाद में उन्होंने मुझ से पूछा कि क्या आज शाम को मैं खाली हैं, तो मैं ने कहा कि हाँ मैं खाली हैं। लेकिन मैं गया नहीं क्योंकि मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं उनको 'एण्टरटेन' कर सकता। मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं शाम को उनसे मिलूँ, लेकिन मुझे लगा कि यह बहुत ही अजीब होगा कि मैं ने काफी भी उन्हीं के पैसों की पी थी और शाम का खाना भी उन्हीं के पैसों का खाऊँ और उनकी जगह अपने को एण्टरटेन' करूँ। उस महिला का एक 'टूरिस्ट गाइड' के तौर पर रोम के रेस्तारों में मुझ से मिलना, मुझे तब तक याद रहा, जब तक मैं प्राग नहीं आ गया और जब मैं ने हिन्दुस्तान आकर वे दिन लिखना शुरू किया तो अजीब बात यह थी कि रोम में मिली उस महिला का एक गठित रुप प्राण शहर के परिप्रेक्ष्य में मेरे भीतर जन्म लेता है। शायद आपको यह दिलचस्प चीज लगेगी कि प्राग और एक व्यक्ति का पारस्परिक सम्बन्ध पूरे मूर्त और ठोस रूप में जब तक मेरे भीतर नहीं बना तब तक वे दिन के समूचे कथानक ने अपना आकार ग्रहण नहीं किया, हालाँकि उपन्यास का रिश्ता न तो रोम से है और न ही इस महिला से।''14

लाल टीन की छत :

आधुनिकता बोध के उपन्यासों की परम्परा में 'लाल टीन की छत' भी काफी प्रसिध्द है। इन में कही वैयक्तिक, तो कही पारिवारिक-सामाजिक विषमताओं का मुखर विरोध मिलता है। इस उपन्यास में एक वयःसन्धि को पार करती लड़की के अपने अन्तःकरण से बाहर निकलने की कहानी अंकित की गयी है, जिस में काम चेतना की अनुभूति लक्षित हुई है। इस उपन्यास में अस्तित्व की खोज में पात्र की सम्पूर्ण अनुभूतियाँ, संवेदना के धरातल पर तीव्रता से सामने आती हैं।

स्वयं उपन्यासकार अपने शब्दों में ही अभिव्यक्त किया कि - "काया ही एक ऐसा चरित्र है जो किसी एक खास लड़की को लेकर नहीं रचा गया बल्कि काया मेरे बचपन के सब स्मृति अंशों का एक पुंजीभूत चरित्र है तो यह ज्यादा सही होगा। काया निर्मलवर्मा केलिए एक रूपकात्मक अभिव्यक्ति रही है, बचपन के उन वर्षों के बदहवास और विक्षिप्त किस्म के अकेलेपन की जो हम हर बरस शिमला में बिताते थे। अकेली मेम या माँ या पिता या चाचा के चरित्र हैं ये सब भोगे हुए चरित्रों से सूत्र लेकर आये हैं। लामा और काया चरित्रहीन पात्र जो बचपन की स्मृति से उत्पन्न नहीं हुए, उस स्वप्न से उत्पन्न हुए जो हमारा बचपन है। वह शायद ऐसा पहला उपन्यास है जिस में निर्मलवर्मा सीधे-सीधे एक रेखा नहीं खींच सकता कि इनका सम्बन्ध इस एक खास स्मृति से हैं।''15

एक चिथड़ा सुख :

निर्मलवर्मा का उपन्यास 'एक चिथड़ा सुख' अपने ढेर सारे पात्रों के साथ उनके अधूरेपन की गाथा कहनेवाला एक नायक विहीन उपन्यास है। इसमें महानगर के पात्रों की भटकन तथा उनके अधूरेपन की संवेदना चित्रित हुई है। इस उपन्यास में महानगरीय जीवन की विसंगतियों का चित्रण हुआ है।

रात का रिपोर्टर :

निर्मलवर्मा का नया उपन्यास 'रात का रिपोर्टर' आज की राजनैतिक विसंगतियों के शिकार एक बुद्धिजीवी रिपोर्टर रिशी के मानसिक संकट का ब्यौरा है। व्यवस्था और स्वतंत्रता का परस्पर विरोध और तनाव आज के युग की मूल समस्या है। इनके पारस्परिक सम्बन्धों के बिगड़ने पर ही आपतकालीन स्थिति का आविर्भाव होता है। निर्मलवर्मा ने रात का रिपोर्टर में रिशी के द्वारा अपने आन्तरिक संकट और इस संकट के कारण स्वयं अपने जीवन और अपने निकटतम व्यक्तियों के साथ अपने सम्बन्धों के पुनरावलोकन और पुनर्मूल्यांकन की कहानी प्रस्तुत की है। बाहर का डर अन्दर के डर से घुलमिल कर रिशी के जीवन में तुफान खड़ा कर देता है जिससे न भागा जा सकता और न ही जिसे भोगा जा सकता है। रिशी भी अन्त में इस शून्यता से व्याधिग्रस्त हो जाता है। रात का रिपोर्टर मानवीय स्थिति के इस आयाम से बेखबर, उदासीन जैसा लगता है।

कहानी संग्रहः

१) परिन्दे
२) जलती झाड़ी 
३) पिछली गर्मियों में
४) बीच बहस में
) मेरी प्रिय कहानियाँ
६) कल्वे और काला पानी

नाटकः

तीन एकान्त
दुसरी दुनिया 

निबन्ध और संस्मरणः

चीडों पर चाँदनी
हर बारीश में
शब्द और स्मृति
कला का जोखिम
ढ़लान से उतरते हुए

अंग्रेजी में अनूदितः

डेज ऑफ लांगिण (वे दिन)
हिल स्टेशन (कहानियाँ)

अनुवाद :

कुप्रीन की कहानियाँ
कारेल चापेक की कहानियाँ
इतने बड़े धब्बे (सात चेक कहानियाँ)
झोंपडेवाले (रूमानियन कहानियाँ) 
रोम्यो, जूलियट और अंधेरा (उपन्यास) (मूल लेखक : यान ओत्वेनाशेक)
बाहर और परे (उपन्यास) (लेखक : इर्शा फीड)
एमेके की गाथा (उपन्यास) (लेखक : जोसेसकशेरेस्की)
आर.यू.आर (नाटक) (लेखक : कारेल चापेक)

देश के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से वरिष्ठ साहित्यकार निर्मलवर्मा जी के व्यक्तित्व और कुतित्व के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डालते हुए, उनके कृतित्व का संक्षिप्त परिचय देना मेरा सौभाग्य है। निर्मलवर्मा का साहित्य और चिन्तन समाज में कुछ बहुत मौलिक प्रश्न और चिन्ताएँ उठाता है, जहाँ कथाकथित सामाजिक यथार्थ का आतंक सा छाया रहा है और मुखर किस्म की सामाजिकता साहित्य को लगभग आत्महीन बनाने पर उतारू है, अगर निर्मलवर्मा अपनी रचना और चिन्तन में पूर्णता और पवित्रता, उनकी खोज और सत्यापन, उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति, उनके अन्तर संघर्ष और तनाव को मूलाधार बनाते हैं। । स्वतंत्रोत्तर हिन्दी साहित्य में निर्मलवर्मा का स्थान विशिष्ट है। सशक्त उपन्यासकार के अतिरिक्त कहानीकार, नाटककार, विचारक एवं समीक्षक के रूप में भी निर्मलवर्मा जी के गंम्भीर व्यक्तित्व उभरकर आये।

संदर्भ सूची :

1) निर्मल वर्मा - शब्द और स्मृति, पृ० ३३ - ३४
2) निर्मल वर्मा - मेरी प्रिय कहानियाँ, भूमिका , पृ० ८
3) निर्मल वर्मा - शब्द और स्मृति, पृ० २६
4) निर्मल वर्मा - चीडों पर चाँदिनी, पृ० ७
5) निर्मल वर्मा - मेरी प्रिय कहानियाँ, भूमिका, पृ० ८
6) निर्मल वर्मा - शब्द और स्मृति, पृ० ३२
7) संपादक : - अशोक वाजपेयी - निर्मलवर्मा, पृ० ९
8) संपादक : - अशोक वाजपेयी - निर्मलवर्मा, पृ० ९
9) निर्मल वर्मा - शब्द और स्मृति, प्राक्कथन, पृ० १०
10) निर्मल वर्मा - शब्द और स्मृति, पृ० ३३
11) निर्मल वर्मा - शब्द और स्मृति, पृ० २५ .
12) निर्मल वर्मा - शब्द और स्मृति, साहित्य - सिनेमाः सही रिश्ते की पहचान, पृ० ७९
13) निर्मल वर्मा - शब्द और स्मृति, साहित्य – सिनेमाः सही रिश्ते की पहचान, पृ० ७९
14) संपादक : अशोक वाजपेयी, पृ० १९
15) संपादक : अशोक वाजपेयी : निर्मल वर्मा, पृ० २८
                   
डॉ.ए.सी.वी.रामकुमार,

प्रवक्ता, हिंदी विभाग,
तमिलनाडु केंद्रीय विश्‍वविद्यालय,
नीलक्कुडीतिरुवारूर-610 005
तमिलनाडुभारत।