गुरुवार, 7 सितंबर 2023

मिठाईवाला | भगवती प्रसाद वाजपेयी | MITHAIWALA | BHAGWATI PRASAD VAJPAY | HINDI STORY

मिठाईवाला - भगवती प्रसाद वाजपेयी 

बहुत ही मीठे स्वरों के साथ वह गलियों में घूमता हुआ कहता- "बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।”

इस अधूरे वाक्य को वह ऐसे विचित्र. किंतु मादक-मधुर ढंग से गाकर कहता कि सुननेवाले एक बार अस्थिर हो उठते। उसके स्नेहाभिषिक्त कंठ से फूटा हुआ गान सुनकर निकट के मकानों में हलचल मच जाती। छोटे-छोटे बच्चों को अपनी गोद में लिए युवतियाँ चिकों को उठाकर छज्जों पर नीचे झाँकने लगतीं। गलियों और उनके अंतर्व्यापी छोटे-छोटे उद्यानों में खेलते और इठलाते हुए बच्चों का झुंड उसे घेर लेता और तब वह खिलौनेवाला वहीं बैठकर खिलौने की पेटी खोल देता।

बच्चे खिलौने देखकर पुलकित हो उठते। वे पैसे लाकर खिलौने का मोलभाव करने लगते। पूछते-“इछका दाम क्या है? औल इछका? औल इछका?" खिलौनेवाला बच्चों को देखता और उनकी नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से पैसे ले लेता और बच्चों की इच्छानुसार उन्हें खिलौने दे देता। खिलौने लेकर फिर बच्चे उछलने-कूदने लगते और तब फिर खिलौनेवाला उसी प्रकार गाकर कहता-“बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला"। सागर की हिलोर की भाँति उसका यह मादक गान गलीभर के मकानों में इस ओर से उस ओर तक, लहराता हुआ पहुँचता और खिलौनेवाला आगे बढ़ जाता।

राय विजयबहादुर के बच्चे भी एक दिन खिलौने लेकर घर आए। वे दो बच्चे थे चुन्नू और मुन्नू! चुन्नू जब खिलौने ले आया तो बोला “मेला घोला कैछा छंदल ऐ!"

मुन्नू बोला “औल देखो, मेला कैछा छंदल ऐ!"

दोनों अपने हाथी-घोड़े लेकर घरभर में उछलने लगे। इन बच्चों की माँ रोहिणी कुछ देर तक खड़े-खड़े उनका खेल निरखती रही। अंत में दोनों बच्चों को बुलाकर उसने पूछा-" अरे ओ चुन्नू-मुन्नू, ये खिलौने तुमने कितने में लिए हैं?"

मुन्नू बोला- “दो पैछे में। खिलौनेवाला दे गया ऐ।”

रोहिणी सोचने लगी-इतने सस्ते कैसे दे गया है? कैसे दे गया है, यह तो वही जाने। लेकिन दे तो गया ही है, इतना तो निश्चय है!

एक ज़रा सी बात ठहरी। रोहिणी अपने काम में लग गई। फिर कभी उसे इस पर विचार करने की आवश्यकता भी भला क्यों पड़ती!

छः महीने बाद -

नगरभर में दो-चार दिनों से एक मुरलीवाले के आने का समाचार फैल गया। लोग कहने लगे-“ भाई वाह! मुरली बजाने में वह एक ही उस्ताद है। मुरली बजाकर, गाना सुनाकर वह मुरली बेचता भी है, सो भी दो-दो पैसे में। भला, इसमें उसे क्या मिलता होगा? मेहनत भी तो न आती होगी!” be

एक व्यक्ति ने पूछ लिया-"कैसा है वह मुरलीवाला, मैंने तो उसे नहीं देखा !" उत्तर मिला-"उम्र तो उसकी अभी अधिक न होगी, यही तीस-बत्तीस का होगा। दुबला-पतला गोरा युवक है, बीकानेरी रंगीन साफ़ा बाँधता है।" "वही तो नहीं; जो पहले खिलौने बेचा करता था?"

'क्या वह पहले खिलौने भी बेचा करता था?"

"हाँ, जो आकार-प्रकार तुमने बतलाया, उसी प्रकार का वह भी था।"

"तो वही होगा। पर भई, है वह एक उस्ताद।"

प्रतिदिन इसी प्रकार उस मुरलीवाले की चर्चा होती। प्रतिदिन नगर की प्रत्येक गली में उसका मादक, मृदुल स्वर सुनाई पड़ता-“बच्चों को बहलानेवाला, मुरलिया वाला।"

रोहिणी ने भी मुरलीवाले का यह स्वर सुना। तुरंत ही उसे खिलौनेवाले का स्मरण हो आया। उसने मन-ही-मन कहा-खिलौनेवाला भी इसी तरह गा-गाकर खिलौने बेचा करता था।

रोहिणी उठकर अपने पति विजय बाबू के पास गई- “ज़रा उस मुरलीवाले को बुलाओ तो, चुन्नू -मुन्नू के लिए ले लूँ। क्या पता यह फिर इधर आए, न आए। वे भी, जान पड़ता है, पार्क में खेलने निकल गए हैं।'

विजय बाबू एक समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उसी तरह उसे लिए हुए वे दरवाज़े पर आकर मुरलीवाले से बोले-“क्यों भई, किस तरह देते हो मुरली?"

किसी की टोपी गली में गिर पड़ी। किसी का जूता पार्क में ही छूट गया, और किसी की सोथनी (पाजामा) ही ढीली होकर लटक आई है। इस तरह दौड़ते हाँफते हुए बच्चों का झुंड आ पहुँचा। एक स्वर से सब बोल उठे-“अम बी लेंदे मुल्ली और अम वी लेंदे मुल्ली।"

मुरलीवाला हर्ष-गद्गद हो उठा। बोला-“सबको देंगे भैया! लेकिन ज़रा रुको, ठहरो, एक-एक को देने दो। अभी इतनी जल्दी हम कहीं लौट थोड़े ही जाएँगे।

बेचने तो आए ही हैं और हैं भी इस समय मेरे पास एक-दो नहीं, पूरी सत्तावन। ....हाँ, बाबू जी, क्या पूछा था आपने, कितने में दीं!दीं तो वैसे तीन-तीन पैसे के हिसाब से हैं, पर आपको दो-दो पैसे में ही दे दूँगा।"

विजय बाबू भीतर-बाहर दोनों रूपों में मुसकरा दिए। मन-ही-मन कहने लगे कैसा है! देता तो सबको इसी भाव से है, पर मुझ पर उलटा एहसान लाद रहा है। फिर बोले-“तुम लोगों की झूठ बोलने की आदत होती है। देते होगे सभी को दो-दो पैसे में, पर एहसान का बोझा मेरे ही ऊपर लाद रहे हो।"

मुरलीवाला एकदम अप्रतिभ हो उठा। बोला “आपको क्या पता बाबू जी कि इनकी असली लागत क्या है। यह तो ग्राहकों का दस्तर होता है कि दुकानदार चाहे हानि उठाकर चीज क्यों न बेचे, पर ग्राहक यही समझते हैं-दुकानदार मुझे लूट रहा है। आप भला काहे को विश्वास करेंगे? लेकिन सच पूछिए तो बाबू जी, असली दाम दो ही पैसा है। आप कहीं से दो पैसे में ये मुरली नहीं पा सकते। मैंने तो पूरी एक हज़ार बनवाई थीं, तब मुझे इस भाव पड़ी हैं। "

विजय बाबू बोले-"अच्छा. मुझे ज़्यादा वक्त नहीं, जल्दी से दो ठो निकाल दो।"

दो मुरलियाँ लेकर विजय बाबू फिर मकान के भीतर पहुँच गए। मुरलीवाला देर तक उन बच्चों के झुंड में मुरलियाँ बेचता रहा! उसके पास कई रंग की मुरलियाँ थीं। बच्चे जो रंग पसंद करते. मुरलीवाला उसी रंग की मुरली निकाल देता।

'यह बड़ी अच्छी मुरली है। तुम यही ले लो बाबू, राजा बाबू तुम्हारे लायक 44 तो बस यह है। हाँ भैये, तुमको वही देंगे। ये लो। ...तुमको वैसी न चाहिए, यह नारंगी रंग की, अच्छा, वही लो। ...ले आए पैसे? अच्छा, ये लो तुम्हारे लिए मैंने पहले ही से यह निकाल रखी थी...! तुमको पैसे नहीं मिले। तुमने अम्मा से ठीक तरह माँगे न होंगे। धोती पकड़कर पैरों में लिपटकर, अम्मा से पैसे माँगे जाते हैं। बाबू! हाँ, फिर जाओ। अबकी बार मिल जाएँगे...। दुअन्नी है? तो क्या हुआ, ये लो पैसे वापस लो। ठीक हो गया न हिसाब? ....मिल गए पैसे? देखो, मैंने तरकीब बताई! अच्छा अब तो किसी को नहीं लेना है? सब ले चुके? तुम्हारी माँ के पास पैसे नहीं हैं? अच्छा, तुम भी यह लो। अच्छा, तो अब मैं चलता हूँ।” इस तरह मुरलीवाला फिर आगे बढ़ गया।

आज अपने मकान में बैठी हुई रोहिणी मुरलीवाले की सारी बातें सुनती रही। आज भी उसने अनुभव किया, बच्चों के साथ इतने प्यार से बातें करनेवाला फेरीवाला पहले कभी नहीं आया। फिर वह सौदा भी कैसा सस्ता बेचता है! भला आदमी जान पड़ता है। समय की बात है, जो बेचारा इस तरह मारा-मारा फिरता है। पेट जो न कराए, सो थोड़ा!

इसी समय मुरलीवाले का क्षीण स्वर दूसरी निकट की गली से सुनाई पड़ा-" बच्चों को बहलानेवाला, मुरलियावाला! " रोहिणी इसे सुनकर मन-ही-मन कहने लगी-और स्वर कैसा मीठा है इसका! बहुत दिनों तक रोहिणी को मुरलीवाले का वह मीठा स्वर और उसकी बच्चों के प्रति वे स्नेहसिक्त बातें याद आती रहीं। महीने-के-महीने आए और चले गए। फिर मुरलीवाला न आया। धीरे-धीरे उसकी स्मृति भी क्षीण हो गई।

आठ मास के बाद -

सरदी के दिन थे। रोहिणी स्नान करके मकान की छत पर चढ़कर आजानुलंबित केश-राशि सुखा रही थी। इस समय नीचे की गली में सुनाई पड़ा-"बच्चों को बहलानेवाला, मिठाईवाला।"

मिठाईवाले का स्वर उसके लिए परिचित था, झट से रोहिणी नीचे उतर आई। उस समय उसके पति मकान में नहीं थे। हाँ, उनकी वृद्धा दादी थीं। रोहिणी उनके निकट आकर बोली-“दादी, चुन्नू-मुन्नू के लिए मिठाई लेनी है। ज़रा कमरे में चलकर ठहराओ। मैं उधर कैसे जाऊँ, कोई आता न हो। ज़रा हटकर मैं भी चिक की ओट में बैठी रहूँगी।"

दादी उठकर कमरे में आकर बोलीं- “ए मिठाईवाले, इधर आना।"

मिठाईवाला निकट आ गया। बोला-“कितनी मिठाई दूँ माँ? ये नए तरह की मिठाइयाँ हैं-रंग-बिरंगी, कुछ-कुछ खट्टी कुछ-कुछ मीठी, जायकेदार, बड़ी देर तक मुँह में टिकती हैं। जल्दी नहीं घुलतीं। बच्चे बड़े चाव से चूसते हैं। इन गुणों के सिवा ये खाँसी भी दूर करती हैं! कितनी दूँ? चपटी, गोल. पहलदार गोलियाँ हैं। पैसे की सोलह देता हूँ।"

दादी बोलीं- "सोलह तो बहुत कम होती हैं, भला पचीस तो देते।” मिठाईवाला–“नहीं दादी, अधिक नहीं दे सकता। इतना भी देता हूँ, यह अब मैं तुम्हें क्या... खैर, मैं अधिक न दे सकूँगा।"

रोहिणी दादी के पास ही थी। बोली-"दादी, फिर भी काफ़ी सस्ता दे रहा है। चार पैसे की ले लो। यह पैसे रहे।"

मिठाईवाला मिठाइयाँ गिनने लगा।

“तो चार की दे दो। अच्छा, पच्चीस नहीं सही, बीस ही दो। अरे हाँ, मैं बूढ़ी हुई मोलभाव अब मुझे ज़्यादा करना आता भी नहीं।"

कहते हुए दादी के पोपले मुँह से ज़रा सी मुसकराहट फूट निकली।

रोहिणी ने दादी से कहा-“दादी, इससे पूछो. तुम इस शहर में और कभी भी आए थे या पहली बार आए हो? यहाँ के निवासी तो तुम हो नहीं।"

दादी ने इस कथन को दोहराने की चेष्टा की ही थी कि मिठाईवाले ने उत्तर दिया “पहली बार नहीं और भी कई बार आ चुका हूँ।"

रोहिणी चिक की आड़ ही से बोली-"पहले यही मिठाई बेचते हुए आए थे या और कोई चीज़ लेकर?"

मिठाईवाला हर्ष, संशय और विस्मयादि भावों में डूबकर बोला-"इससे पहले मुरली लेकर आया था और उससे भी पहले खिलौने लेकर।”

रोहिणी का अनुमान ठीक निकला। अब तो वह उससे और भी कुछ बातें पूछने के लिए अस्थिर हो उठी। वह बोली-"इन व्यवसायों में भला तुम्हें क्या मिलता होगा?"

वह बोला, “मिलता भला क्या है! यही खानेभर को मिल जाता है। कभी नहीं भी मिलता है। पर हाँ; संतोष, धीरज और कभी-कभी असीम सुख ज़रूर मिलता है और यही मैं चाहता भी हूँ।"

“सो कैसे? वह भी बताओ।"

'अब व्यर्थ उन बातों की क्यों चर्चा करूँ? उन्हें आप जाने ही दें। उन बातों को सुनकर आपको दुख ही होगा।"

'जब इतना बताया है, तब और भी बता दो। मैं बहुत उत्सुक हूँ। तुम्हारा हरजा न होगा। मिठाई मैं और भी ले लूँगी।”

अतिशय गंभीरता के साथ मिठाईवाले ने कहा - "मैं भी अपने नगर का एक प्रतिष्ठित आदमी था। मकान, व्यवसाय, गाड़ी-घोड़े, नौकर-चाकर सभी कुछ था। स्त्री थी, छोटे-छोटे दो बच्चे भी थे। मेरा वह सोने का संसार था। बाहर संपत्ति का वैभव था, भीतर सांसारिक सुख था। स्त्री सुंदरी थी, मेरी प्राण थी। बच्चे ऐसे सुंदर थे, जैसे सोने के सजीव खिलौने। उनकी अठखेलियों के मारे घर में कोलाहल मचा रहता था। समय की गति! विधाता की लीला। अब कोई नहीं है। दादी, प्राण निकाले नहीं निकले। इसलिए अपने उन बच्चों की खोज में निकला हूँ। वे सब अंत में होंगे, तो यहीं कहीं। आखिर, कहीं न जनमे ही होंगे। उस तरह रहता, घुल-घुलकर मरता। इस तरह सुख-संतोष के साथ मरूँगा। इस तरह के जीवन में कभी-कभी अपने उन बच्चों की एक झलक-सी मिल जाती है। ऐसा जान पड़ता है, जैसे वे इन्हीं में उछल-उछलकर हँस खेल रहे हैं। पैसों की कमी थोड़े ही है, आपकी दया से पैसे तो काफ़ी हैं। जो नहीं है, इस तरह उसी को पा जाता हूँ।"

रोहिणी ने अब मिठाईवाले की ओर देखा उसकी आँखें आँसुओं से तर हैं। इसी समय चुन्नू मुन्नू आ गए। रोहिणी से लिपटकर, उसका आँचल पकड़कर बोले-“अम्माँ, मिठाई!'

"मुझसे लो।" यह कहकर, तत्काल कागज़ की दो पुड़ियाँ, मिठाइयों से भरी, मिठाईवाले ने चुन्नू-मून्नू को दे दीं।

रोहिणी ने भीतर से पैसे फेंक दिए।

मिठाईवाले ने पेटी उठाई और कहा-“ अब इस बार ये पैसे न लूँगा।”

दादी बोली - "अरे-अरे, न न अपने पैसे लिए जा भाई!"

तब तक आगे फिर सुनाई पड़ा उसी प्रकार मादक-मृदुल स्वर में-" बच्चों को बहलानेवाला मिठाईवाला।”

   - भगवतीप्रसाद वाजपेयी

बुधवार, 6 सितंबर 2023

मत बांटो इंसान को | विनय महाजन | MAT BANTO INSAAN KO | VINAY MAHAJAN | CBSE | HINDI | CLASS 6

मत बांटो इंसान को - विनय महाजन  
MAT BANTO INSAAN KO - VINAY MAHAJAN


मंदिर-मस्जिद-गिरिजाघर ने

बांट लिया इंसान को

धरती बांटी, सागर बांटा

मत बांटों इंसान को।



अभी राह तो शुरू हुई है

मंजिल बैठी दूर है

उजियाला महलों में बंदी

हर दीपक मजबूर है।



मिला न सूरज का संदेशा

हर घाटी मैदान को।

धरती बांटी, सागर बांटा

मत बांटों इसान को।

अब भी हरी भरी धरती है



ऊपर नील वितान है

पर न प्‍यार हो तो जग सूना

जलता रेगिस्‍तान है।



अभी प्‍यार का जल देना है

हर प्‍यासी चट्टान को

धरती बांटी, सागर बांटा

मत बांटों इंसान को।



साथ उठें सब तो पहरा हों

सूरज का हर द्वार पर

हर उदास आंगन का हक हो

खिलती हुई बहार पर।



रौंद न पाएगा फिर कोई

मौसम की मुस्‍कान को।

धरती बांटी, सागर बांटा मत बांटों इंसान को।

रविवार, 23 जुलाई 2023

दो हरियाणवी लोकगीत | Haryanvi Lok Geet | ऋतु गीत - संत गंगादास | विदाई गीत | Haryanvi Folk Song | cbse

दो हरियाणवी लोकगीत


ऋतु गीत - संत गंगादास (1823-1913)

सावण में सूखे रह गए, गिरधर बिन भाग म्हारे।।

स्याम घटा घन गहर-सी आवै।

देख लहर पै लहर-सी आवै।

हमें कृष्ण बिन कहर-सी आवै।

आगे फेर सलोनो आती।

हमें श्याम बिन वृथा लगाती।

गंगादास लेस न पाती।

हम मोह सिंधु में बह गए, कहो धोवें दाग हमारे।।


विदाई गीत - पारंपरिक

काहे को ब्याही बिदेस रे लक्खी बाबुल मेरे।

हम हैं रे बाबुल मुँडेरे की चिड़ियाँ,

कंकरी मारे उड़ जायें रे, लक्खी बाबुल मेरे।

हम हैं रे बाबुल चोणे की गउएँ,

जिधर हाँको हँक जायें रे, लक्खी बाबुल मेरे।

घर भी सूना आंगन भी सूना लाडो चली पिता घर त्याग।

घर में तो उस के बाबुल रोवैं अम्मां बहिन उदास।

कोठे के नीचे से निकली पलकिया-निकली पलकिया,

आम नीचे से निकला है डोला, भय्या ने खाई है पछाड़।
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छूना और देखना |Jo Dekhakar Bhee Nahin Dekhte | cbse | hindi

छूना और देखना


तुम जानते ही हो कि हम आसपास की दुनिया को अपनी इंद्रियों की मदद से महसूस करते हैं। आँखों से देखते हैं, कानों से सुनते हैं, नाक से सूँघते हैं, जीभ से स्वाद लेते हैं और त्वचा से छूकर किसी चीज़ का अनुभव करते हैं। आओ हम प्रयोगशाला में अपनी नज़र और स्पर्श के माध्यम से कुछ प्रयोग करें और चित्र बनाकर देखें कि हम लोग अपनी आँखों से कितना बारीक अवलोकन कर पाते हैं और कितना छूकर।

इस गतिविधि के लिए आठ-दस किस्म के पेड़-पौधों की पत्तियों की ज़रूरत होगी और तीन चार साथियों की भी। जितने दोस्त इस प्रयोग में शामिल होना चाहें, उतने कागज़ के लिफ़ाफ़े पास रखने होंगे जिनसे आर-पार दिखे।

हर लिफ़ाफ़े में एक पत्ती डाल दो। हर दोस्त को एक-एक लिफ़ाफ़ा दे दो। हाँ, यह ध्यान रखना कि तुम्हारे दोस्त यह न देख पाएँ कि उनके लिफ़ाफ़े में किस तरह की पत्ती डाली जा रही है।

अब तुम अपने दोस्तों से यह कहो कि वे अपने-अपने हाथ डालकर पत्ती को छुएँ। अंदाज़ा लगाएँ कि उनके पास किस पौधे की पत्ती है। पत्ती के आकार को टटोलें और उसका चित्र बनाने का प्रयास करें। इस पूरी प्रक्रिया में पत्ती को आँखों से नहीं देखना है।

जब बिना देखे चित्र बनाने का कार्य पूरा हो जाए तो लिफ़ाफ़े से पत्ती निकाल कर सामने रखें और उसे देखकर चित्र बनाएँ।

*** कौन सा चित्र ज़्यादा बारीकी से बना है? बिना देखे बनाया हुआ या देखकर बनाया हुआ?

*** क्या और कोई तरीका भी है जिससे पत्ती को बिना देखे पहचानने में सहयोग मिल सकता है?

एक दौड़ ऐसी भी | Ek Daud Aisi Bhi | cbse | ncert | hindi

एक दौड़ ऐसी भी


कई साल पहले ओलंपिक खेलों के दौरान एक विशेष दौड़ होने जा रही थी। सौ मीटर की इस दौड़ में एक गज़ब की घटना हुई। नौ प्रतिभागी शुरुआत की रेखा पर तैयार खड़े थे। उन सभी को कोई-न-कोई शारीरिक विकलांगता थी।

सीटी बजी, सभी दौड़ पड़े। बहुत तेज़ तो नहीं, पर उनमें जीतने की होड़ ज़रूर तेज़ थी। सभी जीतने की उत्सुकता के साथ आगे बढ़े। सभी, बस एक छोटे से लड़के को छोड़कर। तभी एक छोटा लड़का ठोकर खाकर लड़खड़ाया, गिरा और रो पड़ा।

उसकी आवाज़ सुनकर बाकी प्रतिभागी दौड़ना छोड़ देखने लगे कि क्या हुआ? फिर, एक-एक करके वे सब उस बच्चे की मदद के लिए उसके पास आने लगे। सब के सब लौट आए। उसे दोबारा खड़ा किया। उसके आँसू पोंछे, धूल साफ़ की। वह छोटा लड़का ऐसी बीमारी से ग्रस्त था, जिसमें शरीर के अंगों की बढ़त धीमे होती है और उनमें तालमेल की कमी भी रहती है। इस बीमारी को डाउन सिंड्रोम कहते हैं। लड़के की दशा देख एक बच्ची ने उसे अपने गले से लगा लिया और उसे प्यार से चूम लिया, यह कहते हुए कि, “इससे उसे अच्छा लगेगा।”

फिर तो सारे बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा और साथ मिलकर दौड़ लगाई और सब के सब अंतिम रेखा तक एक साथ पहुँच गए। दर्शक मंत्रमुग्ध होकर देखते रहे, इस सवाल के साथ कि सब के सब एक साथ बाज़ी जीत चुके हैं, इनमें से किसी एक को स्वर्ण पदक कैसे दिया जा सकता है। निर्णायकों ने भी सबको स्वर्ण पदक देकर समस्या का शानदार हल ढूँढ़ निकाला। सब के सब एक साथ विजयी इसलिए हुए कि उस दिन दोस्ती का अनोखा दृश्य देख दर्शकों की तालियाँ थमने का नाम नहीं ले रही थीं।

पेपरमेशी | जया विवेक | Paper Mache | jaya vivek | craft | cbse | hindi

पेपरमेशी - जया विवेक


मिट्टी की मूर्तिकला के समान कागज़ की कला 'पेपरमेशी' पुरानी नहीं है। अट्ठारहवीं शताब्दी में इस माध्यम में यूरोप में बहुत काम हुआ। सुंदर डिजाइनों वाले डिब्बे, छोटी-छोटी सजावट की चीजें आदि बनाई गई। दरवाजों और चौखटों पर सुंदर बेलबूटे भी इससे बनाए जाते थे।

सन् 1850 के आसपास बड़े-बड़े भवनों के अंदर की सजावट के लिए भी पेपरमेशी का खूब उपयोग हुआ। इससे मुखौटे, गुड़ियों के चेहरे, चित्र के चारों तरफ़ लगने वाले नक्काशीदार फ्रेम, ब्लॉक आदि भी बनाए जाते थे।

अपने यहाँ भी पेपरमेशी में मूर्तियाँ, डिब्बे इत्यादि खूब बनाए जाते हैं। बिहार में मानव आकार जितनी बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ भी बनाई जाती हैं और उन्हें वहाँ की प्रसिद्ध चित्र शैली मधुबनी के समान रंगा भी जाता है। बिहार में इस तरह मूर्तियाँ बनाने वालों में सुभद्रादेवी का नाम प्रसिद्ध है। कश्मीर में पेपरमेशी से डिब्बे बनाने का काम बहुत सुंदर होता है। उनके ऊपर बेलबूटों के सुंदर डिज़ाइन भी बनाए जाते हैं।

अलग-अलग प्रदेशों में लोकनृत्यों और लोककलाओं में कागज़ के बने मुखौटों का खूब उपयोग किया जाता है।

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पेपरमेशी

कागज़ से तरह-तरह की आकृतियाँ, खिलौने, सजावट के लिए झालर, झंडियाँ आदि तो तुमने खूब बनाई होंगी, पर कभी मूर्ति बनाई है कागज़ से? हाँ भई, कागज़ से भी मूर्ति बनाई जा सकती है। इस कला को अंग्रेज़ी में पेपरमेशी कहा जाता है।

कागज़ से मूर्ति बनाने की चार विधियाँ हैं। इन विधियों के बारे में कुछ मूल बातें यहाँ दे रहे हैं।

कागज़ को भिगोकर


सबसे पहले यह तय करो कि तुम क्या बनाना चाहते हो क्योंकि जो भी बनाना चाहोगे उसके साँचे की ज़रूरत पड़ेगी।

पुराने अखबार या रद्दी कापी-किताबों को टुकड़े-टुकड़े करके पानी में भिगो दो। कागज़ को डेढ़-दो घंटे भीगने दो। जब कागज़ अच्छी तरह भीग जाए तो एक-एक टुकड़ा लेकर साँचे पर चिपकाते जाओ। जब परे साँचे पर एक तह जम जाए तो उसके ऊपर पाँच-छह तह गोंद की मदद से चिपकाकर बनाओ। अब इसे सूखने के लिए रख दो। सूख जाने पर सावधानी से धीरे-धीरे साँचे पर कागज़ से बनी रचना को अलग करो। तुम्हारी मूर्ति तैयार है। यह वज़न में हलकी भी होगी और गिरने पर टूटने का डर भी नहीं रहेगा। इसे तुम मन चाहे रंगों से रंग भी सकते हो।

इस विधि से तुम मुखौटे भी बना सकते हो। और हाँ, मुखौटे के लिए तो साँचे की भी आवश्यकता नहीं। बस किसी चेहरे के आकार का बरतन का गोल पेंदा उपयोग कर सकते हो। तसला या बड़ा कटोरा (या अन्य कोई बरतन) चाहिए। इस पर ऊपर बताए तरीके से ही गीले कागज़ की पाँच-छह तह चिपकाओ और सूखने के लिए छोड़ दो। जब अच्छी तरह सूख जाए तो इसे मुँह पर लगाकर अनुमान से आँख और नाक के निशान बना लो। आँखों की जगह दो छेद बनाओ। नाक की जगह पर भी छेद बना सकते हो, ताकि तुम्हारी नाक बाहर निकल आए। चाहो तो मुखौटे में कागज़ की नाक भी बना सकते हो। जब कागज की तीन-चार तह बन जाए तो एक सूखे कागज़ को हाथ से दबाकर, मुट्ठी में भींचकर गोला-सा बना लो। इस गोले को दबाकर ऊपर से संकरा और नीचे से थोड़ा चौड़ा नाक जैसा आकार दे दो। अब इसे गोंद लगाकर मुखौटे पर नाक. की जगह चिपका दो।

मुखौटे पर रंग करके उसे सुंदर बना सकते हो। रंग की मदद से ही आँख की भौंहें, मुँह, मूँछ आदि भी बना लो। भुट्टे के बाल, जूट आदि लगाकर भी दाढ़ी, मूँछ या भौंहें बनाई जा सकती हैं!

कागज़ की लुगदी बनाकर


कागज़ के छोटे-छोटे टुकड़े किसी पुराने मटके या अन्य बरतन में पानी भरकर भिगो दो। इन्हें दो-तीन दिन तक गलने दो। जब कागज़ अच्छी तरह गल जाए तो उसे पत्थर पर कूटकर एक-सा बना लो। अब इस पर गोंद या पिसी हुई मेथी का गाढ़ा घोल डालकर अच्छी तरह मिला लो। इस तरह कागज़ की लुगदी तैयार हो जाएगी। इस लुगदी से मनचाही मूर्ति बना सकते हो। गाँवों में इस विधि से डलिया आदि बनाई जाती हैं। शायद तुमने भी बनाई हो। पर इस तरह की लुगदी से सुघढ़ तथा जटिल डिज़ाइन वाली मूर्तियाँ या वस्तुएँ नहीं बनाई जा सकतीं।

लुगदी में खड़िया (चॉक पाउडर) मिलाकर


अगर खड़िया मिलाकर बनाना है तो एक किलो कागज़ की लुगदी में एक पाव गोंद, पाँच किलो खड़िया चाहिए। कागज़ को पानी में भिगोकर लुगदी बना लो। अगर पानी ज़्यादा लगे तो हाथ से दबाकर निकाल दो। अब इसमें खड़िया मिलाते हुए आटे जैसा गूंधते जाओ। बीच में गोंद भी मिला लो। जब तीनों चीजें अच्छी तरह मिल जाएँ तो मूर्ति के लिए लुगदी तैयार है।

अब इससे तुम जैसी चाहो, वैसी मूर्ति बना सकते हो। साँचे से भी और बिना साँचे के भी। बनने वाली मूर्तियाँ खड़िया के कारण सफ़ेद होंगी। रंग करके मूर्ति को सुंदर बना सकते हो। बाज़ार में बिकने वाले बहुत-से खिलौने इसी विधि से बनते हैं।

लुगदी में मिट्टी मिलाकर


इस विधि में एक किलो कागज़ के लिए एक पाव गोंद तथा दस किलो मिट्टी की आवश्यकता होगी। कागज़ गल जाने पर लुगदी तैयार करते समय उसमें साफ़ छनी महीन मिट्टी मिलाते जाओ और आटे जैसा गूंधकर एक-सा करते जाओ। गोंद भी इसी बीच मिला दो।

लुगदी देखने में मिट्टी की तरह दिखेगी, पर हलकी होगी। इससे तुम साँचे या बिना साँचे के उपयोग के मूर्तियाँ बना सकते हो।

साँचे से बनाने के लिए अंदाज़ से आवश्यक लुगदी लो। उसकी गोल लोई बना लो। अब फ़र्श पर थोड़ी सूखी मिट्टी परथन की तरह फैला दो। इस पर लोई को रखकर हाथ या बेलन से साँचे के आकार में बड़ा करते जाओ। पर उसकी मोटाई बाजरे या ज्वार की रोटी जितनी अवश्य होनी चाहिए।

बेलन हलके हाथ से चलाना। जब लोई साँचे के आकार की हो जाए तो इसे उठाकर साँचे पर रख दो और हाथ से धीरे-धीरे दबाओ, ताकि उसमें साँचे का आकार अच्छे से आ जाए। जब यह थोड़ा कड़क हो जाए तो साँचे को उलटा करके हलके हाथ से थोड़ा-सा ठोको और साँचे को उठा लो। तुम्हारी मूर्ति तैयार है। इसे पकाया तो नहीं जा सकता, पर हाँ, टूटने पर गोंद या फ़ेविकोल से जोड़ ज़रूर सकते हैं और रंग तो कर ही सकते हैं।

**** जया विवेक