शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

अमरकांत | AMARKANT | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

अमरकांत

1925-2014

अमरकांत का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगरा गाँव में हुआ। उनका मूल नाम श्रीराम वर्मा है, उनकी आरंभिक शिक्षा बलिया में हुई। तत्पश्चात् उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. की डिग्री प्राप्त की। साहित्य-सृजन में उनकी बचपन से ही रुचि थी, किशोरावस्था तक आते-आते उन्होंने कहानी-लेखन प्रारंभ कर दिया था।

अमरकांत ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत पत्रकारिता से की। सबसे पहले उन्होंने आगरा से प्रकाशित होनेवाले दैनिक पत्र सैनिक के संपादकीय विभाग में कार्य करना आरंभ किया और यहीं वे प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़े। इसके अतिरिक्त उन्होंने दैनिक अमृत पत्रिका तथा दैनिक भारत के संपादकीय विभागों में भी काम किया। कुछ समय तक वे कहानी पत्रिका के संपादन से भी जुड़े रहे।

अमरकांत नयी कहानी आंदोलन के एक प्रमुख कहानीकार हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में शहरी और ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण किया है। वे मुख्यतः मध्यवर्ग के जीवन की वास्तविकता और विसंगतियों को व्यक्त करनेवाले कहानीकार हैं। वर्तमान समाज में व्याप्त अमानवीयता, हृदयहीनता, पाखंड, आडंबर आदि को उन्होंने अपनी कहानियों का विषय बनाया है। आज के सामाजिक जीवन और उसके अनुभवों को अमरकांत ने यथार्थवादी ढंग से अभिव्यक्त किया है। उनकी शैली की सहजता और भाषा की सजीवता पाठकों को आकर्षित करती है। आंचलिक मुहावरों और शब्दों के प्रयोग से उनकी कहानियों में जीवंतता आती है। अमरकांत की कहानियों के शिल्प में पाठकों को चमत्कृत करने का प्रयास नहीं है। वे जीवन की कथा उसी ढंग से कहते हैं, जिस ढंग से जीवन चलता है।

अमरकांत की मुख्य रचनाएँ हैं जिंदगी और जोंक, देश के लोग, मौत का नगर, मित्र-मिलन, कुहासा (कहानी संग्रह); सूखा पत्ता, ग्राम सेविका, काले उजले दिन, सुखजीवी, बीच की दीवार, इन्हीं हथियारों से (उपन्यास) । 'इन्हीं हथियारों से' उपन्यास पर उन्हें 2007 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन् 2009 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार श्री लाल शुक्ल के साथ संयुक्त रूप से दिया गया। अमरकांत ने बाल-साहित्य भी लिखा है। 

नागार्जुन | NAGARJUN | VAIDYANATH MISHRA | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

नागार्जुन

(सन् 1911-1998)

तरौनी गाँव, जिला मधुबनी, बिहार के निवासी, नागार्जुन का जन्म अपने ननिहाल सतलखा, जिला दरभंगा, बिहार में हुआ था। उनका मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। नागार्जुन की प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय संस्कृत पाठशाला में हुई। बाद में इस निमित्त वाराणसी और कोलकाता भी गए। सन् 1936 में वे श्रीलंका गए और वहीं बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। सन् 1938 में वे स्वदेश वापस आए। फक्कड़पन और घुमक्कड़ी उनके जीवन की प्रमुख विशेषता रही है। उन्होंने कई बार संपूर्ण भारत का भ्रमण किया।

राजनीतिक कार्यकलापों के कारण कई बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा। सन् 1935 में उन्होंने दीपक (मासिक) तथा 1942-43 में विश्वबंधु (साप्ताहिक) पत्रिका का संपादन किया। अपनी मातृभाषा मैथिली में वे यात्री नाम से रचना करते थे। मैथिली में नवीन भावबोध की रचनाओं का प्रारंभ उनके महत्त्वपूर्ण कविता-संग्रह चित्रा से माना जाता है। नागार्जुन ने संस्कृत तथा बांग्ला में भी काव्य-रचना की है।

लोकजीवन, प्रकृति और समकालीन राजनीति उनकी रचनाओं के मुख्य विषय रहे हैं। विषय की विविधता और प्रस्तुति की सहजता नागार्जुन के रचना संसार को नया आयाम देती है। छायावादोत्तर काल के वे अकेले कवि हैं जिनकी रचनाएँ ग्रामीण चौपाल से लेकर विद्वानों की बैठक तक में समान रूप से आदर पाती हैं। जटिल से जटिल विषय पर लिखी गईं उनकी कविताएँ इतनी सहज, संप्रेषणीय और प्रभावशाली होती हैं कि पाठकों के मानस लोक में तत्क बस जाती हैं। नागार्जुन की कविता में धारदार व्यंग्य मिलता है। जनहित के लिए प्रतिबद्धता उनकी कविता की मुख्य विशेषता है।

नागार्जुन ने छंदबद्ध और छंदमुक्त दोनों प्रकार की कविताएँ रचीं। उनकी काव्य-भाषा में एक ओर संस्कृत काव्य परंपरा की प्रतिध्वनि है तो दूसरी ओर बोलचाल की भाषा की रवानी और जीवंतता भी।

पत्रहीन नग्न गाछ (मैथिली कविता संग्रह) पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्हें उत्तर प्रदेश के भारत-भारती पुरस्कार, मध्य प्रदेश के मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार और बिहार सरकार के राजेंद्र प्रसाद पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें दिल्ली की हिंदी अकादमी का शिखर सम्मान भी मिला।

उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं। युगधारा, प्यासी पथराई आँखें, सतरंगे पंखों वाली, तालाब की मछलियाँ, हज़ार-हज़ार बाहों वाली, तुमने कहा था, पुरानी जूतियों का कोरस, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने, रत्नगर्भा, ऐसे भी हम क्या: ऐसे भी तुम क्या, पका है कटहल, मैं मिलटरी का बूढ़ा घोड़ा, भस्मांकुर। बलचनमा, रतिनाथ की चाची, कुंभी पाक, उग्रतारा, जमनिया का बाबा, वरुण के बेटे जैसे उपन्यास भी विशेष महत्त्व उनके हैं। उनकी समस्त रचनाएँ नागार्जुन रचनावली (सात खंड) में संकलित हैं।

सुमित्रानंदन पंत | SUMITRANANDAN PANT | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

सुमित्रानंदन पंत

(सन् 1900-1978)

सुमित्रानंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा, उत्तरांचल के कौसानी गाँव में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में तथा उच्च शिक्षा बनारस और इलाहाबाद में हुई। सन् 1919 में गांधी जी के एक भाषण से प्रभावित होकर उन्होंने बिना परीक्षा दिए ही अपनी शिक्षा अधूरी छोड़ दी और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय हो गए।

पंत जी ने बचपन से ही काव्य-रचना शुरू कर दी थी। लेकिन उनका वास्तविक कविकर्म बाद में प्रारंभ हुआ। उनका काव्य-संग्रह पल्लव और उसकी भूमिका हिंदी कविता में युगांतकारी महत्त्व रखते हैं। उन्होंने सन् 1938 में रूपाभ नामक पत्रिका निकाली, जिसकी प्रगतिशील साहित्य-चेतना के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पंत जी प्रकृति प्रेम और सौंदर्य के कवि हैं। छायावादी कवियों में वे सबसे अधिक भावुक तथा कल्पनाशील कवि के रूप में चर्चित रहे हैं। उनकी कविताओं में पल-पल परिवर्तित होने वाली प्रकृति के गत्यात्मक, मूर्त और सजीव चित्र मिलते हैं। प्राकृतिक सौंदर्य के साथ ही पंत मानव सौंदर्य के भी कुशल चितेरे हैं। कल्पनाशीलता के साथ-साथ रहस्यानुभूति और मानवतावादी दृष्टि उनके काव्य की मुख्य विशेषताएँ हैं।

पंत का संपूर्ण साहित्य आधुनिक चेतना का वाहक है। उन्होंने आधुनिक हिंदी कविता को अभिव्यंजना की नयी पद्धति और काव्य-भाषा को नवीन दृष्टि से समृद्ध किया है। पंत की कविता में भाषा और संवेदना के सूक्ष्म और अंतरंग संबंधों की पहचान है, जिससे हिंदी काव्य-भाषा में नए सौंदर्य-बोध का विकास हुआ है। उन्होंने खड़ी बोली हिंदी की काव्य-भाषा की व्यंजना शक्ति का विकास किया और उसे भावों तथा विचारों की अभिव्यक्ति के लिए अधिक सक्षम बनाया, इसीलिए उन्हें शब्द-शिल्पी कवि भी कहा जाता है।

सुमित्रानंदन पंत अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हुए थे, जिनमें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रमुख हैं।

पंत जी की महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियाँ हैं- वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, उत्तरा, कला और बूढ़ा चाँद, चिदंबरा आदि। पंत जी ने छोटी कविताओं और गीतों के साथ परिवर्तन जैसी लंबी कविता और लोकायतन नामक महाकाव्य की रचना भी की है।

सूरदास | SURDAS | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

सूरदास

(सन् 1478-1583 )

सूरदास का जन्म-स्थान रुनकता या रेणुका क्षेत्र, जिला आगरा, उत्तर प्रदेश माना जाता है। कुछ विद्वानों ने दिल्ली के निकट सीही ग्राम को उनका जन्म स्थान माना है। सूरदास मथुरा और वृंदावन के बीच गऊघाट पर रहते थे। वे महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य थे तथा पुष्टिमार्गी संप्रदाय के 'अष्टछाप' कवियों में उनकी सर्वाधिक प्रसिद्धि थी।

सूरदास के बारे में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे, परंतु उनके काव्य में प्रकृति और श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं आदि का वर्णन देखकर ऐसा नहीं प्रतीत होता कि वे जन्मांध सूरदास सगुणोपासक कृष्णभक्त कवि हैं। उन्होंने कृष्ण के जन्म से लेकर मथुरा जाने तक की कथा और कृष्ण की विभिन्न लीलाओं से संबंधित अत्यंत मनोहर पदों की रचना की है। श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन अपनी सहजता, मनोवैज्ञानिकता और स्वाभाविकता के कारण अद्वितीय है। वे मुख्यतः वात्सल्य और शृंगार के कवि हैं।

सूर का अलंकार-विधान उत्कृष्ट है। उसमें शब्द-चित्र उपस्थित करने एवं प्रसंगों की वास्तविक अनुभूति कराने की पूर्ण क्षमता है। सूर ने अपने काव्य में अन्य अनेक अलंकारों के साथ उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक का कुशल प्रयोग किया है।

सूर की भाषा ब्रजभाषा है। साधारण बोलचाल की भाषा को परिष्कृत कर उन्होंने उसे साहित्यिक रूप प्रदान किया है। उनके काव्य में ब्रजभाषा का स्वाभाविक, सजीव और भावानुकूल प्रयोग है।

सूर के सभी पद गेय हैं और वे किसी न किसी राग से संबंधित हैं। उनके पदों में काव्य और संगीत का अपूर्व संगम है, इसीलिए सूरसागर को राग-सागर भी कहा जाता है। सूरसारावली और साहित्यलहरी सूरदास की अन्य प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं। 

देव | DAV | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

देव

(सन् 1673-1767)

महाकवि देव का जन्म इटावा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनका पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। औरंगज़ेब के पुत्र आलमशाह के संपर्क में आने के बाद देव ने अनेक आश्रयदाता बदले, किंतु उन्हें सबसे अधिक संतुष्टि भोगीलाल नाम के सहृदय आश्रयदाता के यहाँ प्राप्त हुई, जिसने उनके काव्य से प्रसन्न होकर उन्हें लाखों की संपत्ति दान की। अनेक आश्रयदाता राजाओं, नवाबों, धनिकों से संबद्ध रहने के कारण राजदरबारों का आडंबरपूर्ण और चाटुकारिता भरा जीवन देव ने बहुत निकट से देखा था। इसीलिए उन्हें ऐसे जीवन से वितृष्णा हो गई थी।

रीतिकालीन कवियों में देव बड़े प्रतिभाशाली कवि थे। दरबारी अभिरुचि से बँधे होने के कारण उनकी कविता में जीवन के विविध दृश्य नहीं मिलते, किंतु उन्होंने प्रेम और सौंदर्य के मार्मिक चित्र प्रस्तुत किए हैं। अनुप्रास और यमक के प्रति देव में प्रबल आकर्षण है। अनुप्रास द्वारा उन्होंने सुंदर ध्वनिचित्र खींचे हैं। ध्वनि-योजना उनके छंदों में पग-पग पर प्राप्त होती है। शृंगार के उदात्त रूप का चित्रण देव ने किया है।

देव कृत कुल ग्रंथों की संख्या 52 से 72 तक मानी जाती है। उनमें रसविलास, भावविलास, भवानीविलास, कुशलविलास, अष्टयाम, सुमिलविनोद, सुजानविनोद, काव्यरसायन, प्रेमदीपिका आदि प्रमुख हैं।

देव के कवित्त-सवैयों में प्रेम और सौंदर्य के इंद्रधनुषी चित्र मिलते हैं। संकलित सवैयों और कवित्तों में एक ओर जहाँ रूप-सौंदर्य का आलंकारिक चित्रण हुआ है, वहीं रागात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी संवेदनशीलता के साथ हुई है।

पद्माकर| PADMAKAR | INDIAN HINDI POET | साहित्यकार का जीवन परिचय

पद्माकर

(सन् 1753-1833)

रीतिकाल के कवियों में पद्माकर का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे बाँदा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। उनके परिवार का वातावरण कवित्वमय था। उनके पिता के साथ-साथ उनके कुल के अन्य लोग भी कवि थे, अतः उनके वंश का नाम ही 'कवीश्वर' पड़ गया था। वे अनेक राज-दरबारों में रहे। बूँदी दरबार की ओर से उन्हें बहुत सम्मान, दान आदि मिला। पन्ना महाराज ने उन्हें बहुत से गाँव दिए। जयपुर नरेश ने उन्हें कविराज शिरोमणि की उपाधि दी और साथ में जागीर भी। उनकी रचनाओं में हिम्मतबहादुर विरुदावली, पद्माभरण, जगद्विनोद, रामरसायन, गंगा लहरी आदि प्रमुख हैं।

पद्माकर ने सजीव मूर्त विधान करने वाली कल्पना के द्वारा प्रेम और सौंदर्य का मार्मिक चित्रण किया है। जगह-जगह लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग द्वारा वे सूक्ष्म-से-सूक्ष्म भावानुभूतियों को सहज ही मूर्तिमान कर देते हैं। उनके ऋतु वर्णन में भी इसी जीवंतता और चित्रात्मकता के दर्शन होते हैं। उनके आलंकारिक वर्णन का प्रभाव परवर्ती कवियों पर भी पड़ा है। पद्माकर की भाषा सरस, सुव्यवस्थित और प्रवाहपूर्ण है।

काव्य-गुणों का पूरा निर्वाह उनके छंदों में हुआ है। गतिमयता और प्रवाहपूर्णता की दृष्टि से सवैया और कवित्त पर जैसा अधिकार पद्माकर का था, वैसा अन्य किसी कवि का नहीं दिखाई पड़ता। भाषा पर पद्माकर का अद्भुत अधिकार था। अनुप्रास द्वारा ध्वनिचित्र खड़ा करने में वे अद्वितीय हैं।