रविवार, 28 नवंबर 2021

मेरी माँ - डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम | A. P. J. ABDUL KALAM | मिसाइलमैन | पीपल्स प्रेसिडेंट

 मेरी माँ - डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम


‘मिसाइलमैन’ के नाम से चर्चित पीपल्स प्रेसिडेंट डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम एक ऐसे चमत्कारिक व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने अपने कार्य और व्यवहार से देश ही नहीं, दुनियाँ के करोड़ों नवयुवाओं को प्रभावित किए हैं। ऐसे व्यक्तित्व की प्रेरणा स्रोत उनकी ममतामयी माँ आशियम्मा रहीं, जिन्होंने अभाव से भरे दिनों में कलाम को अपने हिस्से का सबकुछ बचा कर उसे संजोते हुए अतिरिक्त स्नेह, लाड़ प्यार के साथ देती रहीं। यही वह स्नेह का मूल भाव था, जो बाद में कलाम के व्यक्तित्व का स्रोत बन कर राष्ट्र के प्रत्येक बच्चों पर न्यौछावर होता रहा और उन्हें एक श्रेष्ठ भारतीय नागरिक बनाने की दिशा में आधार भूमि बन सका।

आज के इस युग में ऐसे लोग कम ही हैं जिन्होंने अपने काम और व्यवहार से करोड़ों युवाओं और सम्पूर्ण देशवासियों को प्रभावित किया हो, उनके दिल में एक खास जगह बनाई हो, ‘मिसाइलमैन’ नाम से चर्चित, चमत्कारिक प्रतिभा के धनी डॉक्टर ए.पी.जे. अब्दुल कलाम उन चुनिंदा हस्तियों में से एक हैं। इनका व्यक्तित्व इतना सरल और सहज रहा कि हर कोई उन्हें देखकर हैरान हो जाता उन्होंने अपने काम के सिवाय कभी भी अपने पद को अहम नहीं समझा अपनी सीधी सादी बातों और जीवन मूल्यों के कारण डॉ.कलाम ने दुनिया के चर्चित लोगों में एक अलग ही जगह बनाई इसलिए वह आज ‘पीपल्स प्रेसिडेंट’ के नाम से भी जाने जाते हैं। वे देश के ऐसे तीसरे राष्ट्रपति हैं, जिन्हें राष्ट्रपति बनने से पूर्व देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारतरत्न’ से सम्मानित किया गया। ऐसे दो अन्य पूर्व राष्ट्रपति हैं: सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन।

ऐसे महान व्यक्तित्व की प्रेरणा-स्रोत डॉ. कलाम की माँ आशियम्मा थीं। मन को छूने वाली अनेक घटनाओं में डॉ. कलाम ने अपनी माँ का बार-बार उल्लेख किया है। बचपन के अभाव भरे दिनों में, एक संयुक्त परिवार के सदस्य के रूप में उन्हें माँ का अधिक लाड़-प्यार, स्नेह और प्रोत्साहन मिला। उन्होंने बताया है कि हमारे घरों में बिजली नहीं थी तब मिट्टीतेल की चिमनी जलाया करते थे या घर में लालटेन से रोशनी होती थी, जिनका समय रात्रि 7 से 9 बजे तक नियत था। पर नन्हें कलाम माँ के अतिरिक्त स्नेह के कारण रात्रि 11 बजे तक दीपक का उपयोग करते थे क्योंकि माँ को कलाम की प्रतिभा पर भरोसा था इसलिए वह कलाम की पढ़ाई के लिए एक स्पेशल लैंप देती थीं जो रात तक पढ़ाई करने में कलाम की मदद करता था। रोशनी को दूसरों तक फैलाने की चाह कलाम के नन्हें मन में यहीं से उठने लगी थी जो समय के साथ विश्वव्यापी बनी।

एक अन्य घटना डॉ. कलाम को जीवनभर याद रही वह यह थी-कलाम की लगन और मेहनत के कारण उनकी माँ खाने-पीने के मामले में उनका विशेष ध्यान रखती थीं। दक्षिण में चावल की पैदावार अधिक होने के कारण वहाँ चावल अधिक खाया जाता है। लेकिन कलाम को रोटियों से विशेष लगाव था इसलिए उनकी माँ उन्हें प्रतिदिन खाने में दो रोटियाँ अवश्य दिया करती थीं। एक बार उनके घर में खाने में गिनी चुनीं रोटियाँ ही थीं। यह देखकर माँ ने अपने हिस्से की रोटी कलाम को दे दी। उनके बड़े भाई ने कलाम को धीरे से यह बात बता दी। इससे कलाम अभिभूत हो उठे और दौड़ कर माँ से लिपट गए।

माँ के विश्वास व प्रोत्साहन का ही परिणाम था कि डॉ. कलाम अपने जीवन को बहुत अनुशासन में जीना पसंद करते थे। वे शाकाहार और ब्रह्मचर्य का पालन करने वालों में से थे। कहा जाता है कि वे कुरान और भगवद्गीता दोनों का अध्ययन करते थे और उनकी गूढ़ बातों पर अमल किया करते थे। उनके संदेश व छात्रों से बातचीत में उनके जीवन के इन भावों और माँ की प्रेरणा का बार-बार उल्लेख मिलता है, जो भारत के तमाम बच्चों और बच्चियों तथा युवाओं को कुछ नया सोचने और नया करने को प्रोत्साहित और प्रेरित करते रहे हैं।

जब डॉ. कलाम आगे की पढ़ाई के लिए बाहर गए तो उन्हें घर छोड़ना पड़ा, उस समय माँ आशियम्मा का कलेजा भर आया, वे रो पड़ीं और अपने आपको शांत नहीं कर पाईं। तब नन्हें कलाम ने माँ के पास बैठकर उन्हें समझाया-‘माँ मैं तुमसे दूर कहाँ जा रहा हूँ। मैं अपनी माँ के बिना भला रह सकता हूँ! नन्हें कलाम के मुँह से ऐसी समझदारी की बात सुनकर माँ ने अपने आँसू पोंछ लिए। वे मुस्कुराईं और फिर हँसी-खुशी उन्हें विदा करने के लिए, कुछ हिदायतें देती हुईं, कुछ कदम कलाम के साथ चलीं। इसके बाद कलाम के पिता और परिवार के अन्य लोग, मित्र स्टेशन पर उन्हें छोड़ने आए थे। रेलगाड़ी में बैठकर स्कूल की ओर यात्रा करते हुए कलाम के मन में माँ की ममता थी, यादे थीं, माँ की हिदायतें, झिड़कियाँ, और शरारत करने पर की गईं सख्तियाँ थीं। कलाम का मन माँ की ममता से सराबोर था।

कोई भी बच्चा जब पहली बार घर छोड़कर बाहर अकेला रहने के लिए जाता है तो उसे सबसे ज्यादा घर से दूरी और माँ की कमी खलती है। माँ से बच्चे के मन का तार जुड़ा होता है, नन्हें बालक कलाम का माँ के प्रति यही भाव उनके बड़े होने के साथ-साथ और भी गहरा होता गया। यही भाव उनकी “माँ” कविता में दिखता है-

माँ

“समंदर की लहरें,

सुनहरी रेत,

श्रद्धानत तीर्थयात्री,

रामेश्वरम् द्वीप की वह छोटी-पूरी दुनिया।

सब में तू निहित है,

सब तुझमें समाहित।

तेरी बाँहों में पला मैं,

मेरी कायनात रही तू,

जब छिड़ा विश्वयुद्ध, छोटा-सा मैं,

जीवन बना था चुनौती, जिन्दगी अमानत,

मीलों चलते थे हम,

पहुँचते किरणों से पहले”

यह कविता उन्होंने तब लिखी जब उनकी माँ इस दुनियाँ में नहीं रहीं और यह सच जाहिर करती है कि वे कलाम के महान कामों के पीछे प्रेरणा रहीं। कलाम के बचपन को माँ ने कुछ इस तरह सँवारा और प्रोत्साहित किया कि बालमन के सभी सहज भाव डॉ. कलाम की प्रौढ़ अवस्था में छलकते रहते थे। नई चीज़ सीखने के लिए वे हमेशा तत्पर रहते थे। उनके अंदर सीखने की भूख थी और पढ़ाई पर घंटों ध्यान देना उनमें से एक था।

एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने जीवन के सबसे बड़े अफसोस का जिक्र किया था उन्होंने कहा था कि वह अपने माता-पिता को उनके जीवनकाल में 24 घंटे बिजली उपलब्ध नहीं करा सके; उन्होंने कहा था कि मेरे पिता (जैनुलाब्दीन) 103 साल तक जीवित रहे और माँ (आशियाम्मा) 93 साल तक जीवित रहीं। उन्होंने भारतीय छात्रों को अपना संदेश देते हुए कहा था -

“सपने वो नहीं होते जो रात को सोते समय नींद में आएँ, सपने वो होते हैं जो रातों में सोने नहीं देते।“

“इंतजार करने वालों को सिर्फ उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।“

प्रस्तुत लेख डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘विंग्स ऑफ फायर’’ के हिंदी रूपान्तरण से संकलित है।

डॉ. जगदीश चन्द्र बोस | JAGADISH CHANDRA BOSE

डॉ. जगदीश चन्द्र बोस

भारतीय वैज्ञानिकों ने अपने अलौकिक आविष्कारों और अनुसंधानों से संसार को चमत्कृत किया है। डॉ. रमन, डॉ. श्रीनिवास रामानुजन की खोजों की ही तरह डॉ. जगदीश चन्द्र बोस की वनस्पतियों के संबंध में की गई खोज से संसार चमत्कृत हुआ। वृक्षों में भी जीवन होता है, यह तथ्य डॉ. बोस ने दुनिया को बताया। इस पाठ में हम डॉ. बोस का संक्षिप्त जीवन-परिचय और उनकी खोजों के संबंध में पढ़ेंगे।

सूर्य अस्त हो रहा था। चिड़ियाँ चहकती र्हुइं अपने-अपने घोंसलों में लौट रही थीं। ठंडक बढ़ती जा रही थी। गरम स्वेटर, मोजे, हॉफ पैण्ट पहने, हाथ में एक बेंत लिए विक्की अपने घर के बगीचे में टहल रहा था। वह कभी किसी पेड़ पर अपना बेंत जमा देता, कभी किसी फूलदार पौधे को झकझोर देता। उसके दादा जी बरामदे में बैठे चाय का घूँट ले रहे थे। उनकी दृष्टि विक्की की ओर ही थी। उसे पेड़-पौधों में उलझा देखकर वे बोले, ‘‘विक्की, अब इधर आ जाओ। पौधों को मत छेड़ो। यह उनके आराम करने का समय है।’’

विक्की ने कहा, ‘‘वाह दादा जी! आपने खूब कहा। मानो पेड़-पौधे भी सचमुच आराम करते हैं, सोते हैं।’’

‘‘हाँ, वे सचमुच आराम करते हैं, रात को सोते भी हैं और प्रातः जाग जाते हैं’’, दादा जी ने विक्की को समझाया।

‘‘दादा जी, यह आपने नई बात बताई। भला पेड़-पौधे भी कहीं सोते हैं! आपने कैसे जाना कि पेड़-पौधे सोते हैं? वे तो रात को भी हिलते-डुलते रहते हैं। सोनेवाला आदमी तो हिलता-डुलता नहीं।’’

‘‘अच्छा, यहाँ आओ। मैं तुम्हें इसकी कहानी सुनाता हूँ’’- दादा जी ने विक्की से कहा।

विक्की को कहानी सुनने का बड़ा शौक था। वह तुरंत आकर दादा जी की गोद में बैठ गया।

‘‘अब सुनाइए कहानी-’’ वह दादा जी से बोला।

(पेड़-पौधे मानव की तरह पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, मरते हैं। उन पर भी सर्दी, गर्मी का प्रभाव पड़ता है। तोड़ने या काटने पर उन्हें भी पीड़ा होती है। कभी ऐसी बातें कल्पना की उड़ान मानी जाती थीं, बाद में भारतीय वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चंद्र बोस ने अपने अनुसंधान से इन बातों को सत्य कर दिखाया।)

दादा जी ने चाय का प्याला रख दिया। वे एक हाथ से उसकी पीठ सहलाते हुए कहानी कहने लगे। ‘‘उस समय अपना देश बहुत बड़ा था। तब बांग्लादेश भी भारत का भाग हुआ करता था। बांग्लादेश की राजधानी ढाका है। ढाका के पास एक गाँव है, राढ़ीरवाल। वहाँ एक डिप्टी कलेक्टर के घर एक बालक का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया जगदीश चंद्र। जगदीश की पाठशाला में किसानों के बच्चे खेती-बाड़ी और पेड़-पौधों के बारे में अकसर बातें करते रहते थे। इस कारण बचपन में ही जगदीश चंद्र की रुचि पेड़-पौधों में हो गई।’’

‘‘बचपन में जगदीश ने देखा कि छुईमुई नाम के पौधे की पत्तियाँ हाथ लगाते ही सिकुड़ जाती हैं और थोड़ी देर के बाद वे पुनः खिल जाती हैं। सूरजमुखी नाम के पौधे के फूल का मुँह सदैव सूरज के सामने होता है। इस बालक ने बडे़ होकर पेड़-पौधों पर बहुत-से प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया था कि पेड़-पौधे भी हम सबकी तरह सोते, जागते हैं। उन्हें भी भोजन और पानी चाहिए। वे भी सुखी और दुखी होते हैं। वे भी रोते हैं।’’

‘‘दादा जी, आप तो जगदीश चंद्र बोस के बारे में पूरी बातें बताइए।’’ विक्की ने मचलते हुए कहा।

‘‘अच्छा, तो सुनो। जगदीश चंद्र जब छोटे थे तो रोते बहुत थे- तुम्हारी तरह।’’, दादा जी ने हँसते हुए कहा।

‘‘मैं कहाँ रोता हूँ।’’- विक्की बोला।

‘‘तुम्हें क्या पता? तुम तो तब बहुत छोटे थे। खैर! उसके माता-पिता ने उसके लिए एक तरकीब सोची। रात में जैसे ही वे रोना शुरू करते, वैसे ही ग्रामोफोन पर कोई गाना बजा दिया जाता था। गाना सुनते ही बालक जगदीश का रोना बंद हो जाता था और वह सो जाता था। जगदीश चंद्र की प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। पाठशाला के आसपास खूब पेड़-पौधो थे। बालक जगदीश का उनसे खूब लगाव हो गया था। गाँव की पढ़ाई पूरी होने पर जगदीश को आगे की शिक्षा के लिए कोलकाता भेज दिया गया। वे पढ़ने में बहुत होशियार थे, जैसे तुम हो।’’ विक्की यह सुनकर बहुत खुश हो गया। ‘‘फिर क्या हुआ?’’- उसने पूछा ।

‘‘जब कोलकाता में उसने पढ़ाई पूरी कर ली, उसे आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेजा गया। वहाँ पढ़ते हुए उसका सम्पर्क बड़े-बडे़ वैज्ञानिकों से हुआ।’’

‘‘फिर क्या वे वहीं रहने लगे?’’ विक्की ने पूछा।

‘‘नहीं, वहाँ की पढ़ाई पूरी करके वे वापस कोलकाता आ गए और वहाँ के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रोफेसर बन गए। बड़ी कक्षाओं को जो टीचर पढ़ाते हैं, उन्हें प्रोफेसर कहते हैं। जगदीश चंद्र अपने सिद्धांत के बड़े पक्के थे। वे गलत काम करते भी नहीं थे और गलत बात मानते भी नहीं थे। उस समय अपने देश पर अँग्रेजों का राज था। अँग्रेज भारतीयों पर तरह-तरह से अत्याचार करते थे। यह कॉलेज उन्हीं का था। उन्होंने यहाँ प्रोफेसरों के लिए दो नियम बना रखे थे।

अँग्रेज प्रोफेसरों को तो वेतन अधिक दिया जाता था, लेकिन भारतीय प्रोफेसरों को कम वेतन मिलता था। जगदीश चंद्र को यह दोहरा व्यवहार पसंद नहीं आया। उन्होंने इसका विरोध किया। कई वर्षों तक उन्होंने वेतन नहीं लिया, लेकिन पूरी ईमानदारी से अपना काम किया। अंत में कॉलेजवालों को झुकना पड़ा।’’

‘‘दादा जी, आपने यह तो बताया ही नहीं कि उन्होंने पेड़-पौधों पर क्या प्रयोग किए?’’- विक्की ने पूछा।

‘‘हाँ, वही तो बता रहा हूँ। उन्होंने अपना पूरा ध्यान पेड़-पौधों के जीवन के अध्ययन पर लगा दिया। उन्होंने इसके लिए कई यंत्र बनाए। इन यंत्रों की सहायता से उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। उन्हें भी हमारी तरह खाना चाहिए, वायु और सूर्य का प्रकाश चाहिए। उन पर भी गर्मी और सर्दी का प्रभाव पड़ता है। उन्हें भी सुख और दुःख होता है। आदमी और पशु-पक्षियों की तरह वे भी मरते हैं।’’

जगदीश चंद्र बोस द्वारा की गई खोजें संसार भर की प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपीं। लोगों को जब इसकी जानकारी मिली तो दुनिया भर में हड़कंप मच गया। कुछ वैज्ञानिकों को उनकी खोज पर विश्वास नहीं हुआ। उन्हें फ्रांस बुलाया गया और वहाँ अपने प्रयोग सिद्ध करने के लिए कहा गया। उन्होंने कहा, ‘‘जहर खाने से आदमी मर जाता है। यदि किसी पौधे पर जहर डाला जाए तो वह भी मुरझा जाएगा।’’

तुरंत वहाँ जहर मंगाया गया। वह जहर एक पौधे पर डाला गया तो उस पौधे पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा। डॉ. जगदीश चंद्र बोस को तो अपने प्रयोग पर पूरा विश्वास था। उन्होंने कहा, ‘‘यदि यह जहर पौधे पर कोई प्रभाव नहीं डाल सका तो मेरे ऊपर भी नहीं डाल सकेगा।’’ यह कहकर उन्होंने बचा जहर स्वयं पी लिया। सचमुच उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ क्योंकि वह जहर था ही नहीं। यूरोप के कुछ वैज्ञानिकों ने उन्हें नीचा दिखाने के लिए यह शड्यंत्र रचा था। वे सब बहुत लज्जित हुए।

‘‘डाँ.जगदीश चंद्र बोस सही अर्थों में एक वैज्ञानिक थे। विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने ‘बसु विज्ञान मंदिर’ नामक एक संस्था की स्थापना की। उन्होंने अपने प्रयोगों से अपने देश का नाम रोशन किया। अब तो तुम्हें विश्वास हो गया कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है।’’

‘‘हाँ, दादा जी, अब मैं जान गया। अब मैं किसी पेड़-पौधे को नुकसान नहीं पहुँचाऊँगा।’’

शनिवार, 27 नवंबर 2021

भारतीय गायिकाओं में बेजोड़ - लता मंगेशकर | कुमार गंधर्व | LATA MANGESHKAR | KUMAR GANDHARVA | KUMAR GANDHARVA | INDIAN PLAYBACK SINGER

भारतीय गायिकाओं में बेजोड़

लता मंगेशकर

कुमार गंधर्व


बरसों पहले की बात है। मै बीमार था। उस बीमारी में एक दिन मैंने सहज ही रेडियो लगाया और अचानक एक अद्वितीय स्वर मेरे कानों में पड़ा। स्वर सुनते ही मैंने अनुभव किया कि यह स्वर कुछ विशेष है, रोज़ का नहीं। यह स्वर सीधे और कलेज से जा भिड़ा। मैं तो हैरान हो गया। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह स्वर किसका है। मैं तन्मयता से सुनता ही रहा। गाना समाप्त होते ही गायिका नाम घोषित किया गया- लता मंगेशकर। नाम सुनते ही मैं चकित हो गया। मन-ही-मन एक संगति पाने का भी अनुभव हुआ। सुप्रसिद्ध गायक दीनानाथ मंगेशकर की अजब गायकी एक दूसरा स्वरूप लिए उन्हीं की बेटी की कोमल आवाज में सुनने का अनुभव हुआ।
मुझे लगता है 'बरसात' के भी पहले के किसी चित्रपट का वह कोई गाना था। तब से लता निरंतर गाती चली आ रही है और मैं भी उसका गाना सुनता आ रहा हूँ। लता के पहले प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का चित्रपट संगीत में अपना जमाना था। परंतु उसी क्षेत्र में बाद में आई हुई लता उससे कहीं आगे निकल गई। कला के क्षेत्र में ऐसे चमत्कार कभी-कभी दीख पड़ते हैं। जैसे प्रसिद्ध सितारिये विलायत खाँ अपने सितारवादक पिता की तुलना में बहुत ही आगे चले गए।

मेरा स्पष्ट मत है कि भारतीय गायिकाओं में लता के जोड़ की गायिका हुई ही नहीं। लता के कारण चित्रपट संगीत को विलक्षण लोकप्रियता प्राप्त हुई है, यही नहीं लोगों का शास्त्रीय संगीत की ओर देखने का दृष्टिकोण भी एकदम बदला है। छोटी बात कहूंगा। पहले भी घर-घर छोटे बच्चे गाया करते थे पर उस गाने में और आजकल घरों में सुनाई देने वाले बच्चों के गाने में बड़ा अंतर हो गया। आजकल के नन्हे-मुन्ने भी स्वर में गुनगुनाते हैं। क्या लता इस जादू का कारण नहीं है? कोकिला का स्वर निरंतर कानों में पड़ने लगे तो कोई भी सुनने वाला उसका अनुकरण करने का प्रयत्न करेगा। ये स्वाभाविक ही है। चित्रपट संगीत के कारण सुंदर स्वर मालिकाएँ लोगों के कानों पर पड़ रही हैं। संगीत के विविध प्रकारों से उनका परिचय हो रहा है। उनका स्वर-ज्ञान बढ़ रहा है। सुरीलापन क्या इसकी समझ भी उन्हें होती जा रही है। तरह-तरह की लय के भी प्रकार उन्हें सुनाई पड़ने लगे हैं और आकारयुक्त लय के साथ उनकी जान-पहचान होती जा रही है। साधारण प्रकार के लोगों को भी उसकी सूक्ष्मता समझ में आने लगी है। इन सबका श्रेय लता को ही है। इस प्रकार उसने नयी पीढ़ी के संगीत को संस्कारित किया है और सामान्य मनुष्य में संगीत विषयक अभिरुचि पैदा करने में बड़ा हाथ बँटाया है। संगीत की लोकप्रियता, उसका प्रसार और अभिरुचि के विकास का श्रेय लता को ही देना पड़ेगा।

भारतीय गायिकाओं में बेजोड़ - लता मंगेशकर

सामान्य श्रोता को अगर आज लता की ध्वनिमुद्रिका ' और शास्त्रीय गायकी की ध्वनिमुद्रिका सुनाई जाए तो वह लता की ध्वनिमुद्रिका ही पसंद करेगा। गाना कौन से राग में गाया गया और ताल कौन-सा था, यह शास्त्रीय ब्योरा इस आदमी को सहसा मालूम नहीं रहता। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि राग मालकोस था और ताल त्रिताल। उसे तो चाहिए वह मिठास, जो उसे मस्त कर दे, जिसका वह अनुभव कर सके और यह स्वाभाविक ही है। क्योंकि जिस प्रकार मनुष्यता हो तो वह मनुष्य है, वैसे ही गानपन हो तो वह संगीत है। और लता का कोई भी गाना लीजिए तो उसमें शत-प्रतिशत यह 'गानपन' मौजूद मिलेगा। 
लता की लोकप्रियता का मुख्य मर्म यह 'गानपन' ही है। लता के गाने की एक और विशेषता है, उसके स्वरों की निर्मलता। उसके पहले की पार्श्व गायिका नूरजहाँ भी एक अच्छी गायिका थी, इसमें संदेह नहीं तथापि उसके गाने में एक मादक उत्तान दीखता था। लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है। ऐसा दीखता है कि लता का जीवन की ओर देखने का जो दृष्टिकोण है वही उसके गायन की निर्मलता में झलक रहा है। हाँ, संगीत दिग्दर्शकों ने स्वर की इस निर्मलता का जितना उपयोग कर लेना चाहिए था, उतना नहीं किया। मैं स्वयं संगीत दिग्दर्शक होता तो लता को बहुत जटिल काम देता, ऐसा कहे बिना रहा नहीं जाता।


लता के गाने की एक और विशेषता है, उसका नादमय उच्चार। उसके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों के आलाप द्वारा बड़ी सुंदर रीति से भरा रहता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक दूसरे में मिल जाते हैं। यह बात पैदा करना बड़ा कठिन है, परंतु लता के साथ यह बात अत्यंत सहज और स्वाभाविक हो बैठी है।

ऐसा माना जाता है कि लता के गाने में करुण रस विशेष प्रभावशाली रीति से व्यक्त होता है, पर मुझे खुद यह बात नहीं पटती। मेरा अपना मत है कि लता ने करुण | रस के साथ उतना न्याय नहीं किया है। बजाए इसके, मुग्ध शृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले मध्य या द्रुतलय' के गाने लता ने बड़ी उत्कटता से गाए हैं। मेरी दृष्टि से उसके गायन में एक और कमी है; तथापि यह कहना कठिन होगा कि इसमें लता का दोष कितना है और संगीत दिग्दर्शकों का दोष कितना। लता का गाना सामान्यतः ऊँची पट्टी में रहता है। गाने में संगीत दिग्दर्शक उसे अधिकाधिक ऊँची पट्टी गवाते है और उसे अकारण ही चिलवाते हैं।

एक प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि शास्त्रीय संगीत में लता का स्थान कौन-सा है। मेरे मत से यह प्रश्न खुद ही प्रयोजनहीन है। उसका कारण यह है कि शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत में तुलना हो ही नहीं सकती। जहाँ गंभीरता शास्त्रीय संगीत का स्थायीभाव है वहीं जलदलय और चपलता चित्रपट संगीत का मुख्य गुणधर्म है। चित्रपट संगीत का ताल प्राथमिक अवस्था का ताल होता है, जबकि शास्त्रीय संगीत में ताल अपने परिष्कृत रूप में पाया जाता है। चित्रपट संगीत में आधे तालों का उपयोग किया जाता है। उसकी लयकारी बिलकुल अलग होती है, आसान होती है। यहाँ गीत और आघात को ज्यादा महत्व दिया जाता है। सुलभता और लोच' को अग्र स्थान दिया जाता है; तथापि चित्रपट संगीत गाने वाले को शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी होना आवश्यक है और वह लता के पास नि:संशय है। तीन-साढ़े तीन मिनट के गाए हुए चित्रपट के किसी गाने का और एकाध गायक की तीन-साढ़े तीन घंटे की महफ़िल, इन दोनों का कलात्मक और चंदात्मक मूल्य एक ही है, ऐसा मैं मानता हूँ। किसी उत्तम लेखक का कोई विस्तृत लेख जीवन के रहस्य का विशद् रूप में वर्णन करता है तो वही रहस्य छोटे से सुभाषित का या नन्ही-सी कहावत में सुंदरता और परिपूर्णता से प्रकट हुआ भी दृष्टिगोचर होता है। उसी प्रकार तीन घंटों की रंगदार महफ़िल का सारा रस लता की तीन मिनट की ध्वनिमुद्रिका में आस्वादित किया जा सकता है। उसका एक-एक गाना एक संपूर्ण कलाकृति होता है। स्वर, लय, शब्दार्थ का वहाँ त्रिवेणी संगम होता है और महफिल की बेहोशी उसमें समाई रहती है। वैसे देखा जाए तो शास्त्रीय संगीत क्या और चित्रपट संगीत क्या, अंत में रसिक को आनंद देने की सामर्थ्य किस गाने में कितना है, इस पर उसका महत्व ठहराना उचित है। मैं तो कहूँगा कि शास्त्रीय संगीत भी रंजक न हो, तो बिलकुल ही नीरस ठहरेगा। अनाकर्षक प्रतीत होगा और उसमें कुछ कमी-सी प्रतीत होगी। गाने में जो गानपन प्राप्त होता है, वह केवल शास्त्रीय बैठक के पक्केपन की वजह से ताल सुर के निर्दोष ज्ञान के कारण नहीं। गाने की सारी मिठास, सारी ताकत उसकी रंजकता पर मुख्यतः अवलंबित रहती है और रंजकता का मर्म रसिक वर्ग के समक्ष कैसे प्रस्तुत किया जाए, किस रीति से उसकी बैठक बिठाई जाए और श्रोताओं से कैसे सुसंवाद साधा जाए. इसमें समाविष्ट है। किसी मनुष्य का अस्थिपंजर और एक प्रतिभाशाली कलाकार द्वारा उसी मनुष्य का तैलचित्र', इन दोनों में जो अंतर होगा वही गायन के शास्त्रीय ज्ञान और उसकी स्वरों द्वारा की गई सुसंगत अभिव्यक्ति में होगा। संगीत के क्षेत्र में लता का स्थान अव्वल दरजे के खानदानी गायक के समान ही मानना पड़ेगा। क्या लता तीन घंटों की महफ़िल जमा सकती है, ऐसा संशय व्यक्त करने वालों से मुझे भी एक प्रश्न पूछना है, क्या कोई पहली श्रेणी का गायक तीन मिनट की अवधि में चित्रपट का कोई गाना उसकी इतनी कुशलता और रसोत्कटता से गा सकेगा? नहीं, यही उस प्रश्न का उत्तर उन्हें देना पड़ेगा? खानदानी गवैयों का ऐसा भी दावा है कि चित्रपट संगीत के कारण लोगों की अभिरुचि बिगड़ गई है। चित्रपट संगीत ने लोगों के 'कान बिगाड़ दिए' ऐसा आरोप लगाया जाता है। पर मैं समझता हूँ कि चित्रपट संगीत ने लोगों के कान खराब नहीं किए हैं, उलटे सुधार दिए है। ये विचार पहले ही व्यक्त किए है और उनकी पुनरूक्ति नहीं करूंगा।

सच बात तो यह है कि हमारे शास्त्रीय गायक बड़ी आत्मसंतुष्ट वृत्ति के हैं। संगीत के क्षेत्र में उन्होंने अपनी हुकुमशाही स्थापित कर रखी है। शास्त्र-शुद्धता के कर्मकांड को उन्होंने आवश्यकता से अधिक महत्व दे रखा है। मगर चित्रपट संगीत द्वारा लोगों की अभिजात्य संगीत से जान-पहचान होने लगी है। उनकी चिकित्सक और चौकस वृत्ति अब बढ़ती जा रही है। केवल शास्त्र-शुद्ध और नीरस गाना उन्हें नहीं चाहिए, उन्हें तो सुरीला और भावपूर्ण गाना चाहिए। और यह क्रांति चित्रपट संगीत ही लाया है। चित्रपट संगीत समाज की संगीत विषयक अभिरुचि में प्रभावशाली मोड़ लाया है। चित्रपट संगीत की लचकदारी उसका एक और सामर्थ्य है, ऐसा मुझे लगता है। उस संगीत की मान्यताएँ, मर्यादाएँ, झझटे सब कुछ निराली है। चित्रपट संगीत का तंत्र ही अलग है। यहाँ नवनिर्मिति की बहुत गुंजाइश है। जैसा शास्त्रीय रागदारी का चित्रपट संगीत दिग्दर्शकों ने उपयोग किया, उसी प्रकार राजस्थानी, पंजाबी, बंगाली, प्रदेश के लोकगीतों के भंडार को भी उन्होंने खूब लूटा है, यह हमारे ध्यान में रहना चाहिए। धूप का कौतुक करने वाले पंजाबी लोकगीत, रूक्ष और निर्जल राजस्थान में पर्जन्य' की याद दिलाने वाले गीत पहाड़ों की घाटियों, खोरों में प्रतिध्वनित होने वाले पहाड़ी गीत, ऋतुचक्र समझाने वाले और खेती के विविध कामों का हिसाब लेने वाले कृषिगीत और ब्रजभूमि में समाविष्ट सहज मधुर गीतों का अतिशय मार्मिक व रसानुकूल उपयोग चित्रपट क्षेत्र के प्रभावी संगीत दिग्दर्शकों ने किया है और आगे भी करते रहेंगे। थोड़े में कहूँ तो संगीत का क्षेत्र ही विस्तीर्ण है। वहाँ अ तक अलक्षित, असंशोधित और अदृष्टिपूर्व ऐसा खूब बड़ा प्रांत है तथापि बड़े जोश से इसकी खोज और उपयोग चित्रपट के लोग करते चले आ रहे हैं। फलस्वरूप चित्रपट संगीत दिनोंदिन अधिकाधिक विकसित होता जा रहा है।

ऐसे इस चित्रपट संगीत क्षेत्र की लता अनभिषिक्त सम्राज्ञी है। और भी कई पाश्र्व गायक-गायिकाएँ हैं, पर लता की लोकप्रियता इन सभी से कहीं अधिक है। उसकी लोकप्रियता के शिखर का स्थान अचल है। बीते अनेक वर्षों से वह गाती आ रही है और फिर भी उसकी लोकप्रियता अबाधित है। लगभग आधी शताब्दी तक जन मन पर सतत प्रभुत्व रखना आसान नहीं है। ज्यादा क्या कहूँ, एक राग भी हमेशा टिका नहीं रहता। भारत के कोने-कोने में लता का गाना जा पहुँचे, यही नहीं परदेस में भी उसका गाना सुनकर लोग पागल हो उठें, यह क्या चमत्कार नहीं है? और यह चमत्कार हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं।

ऐसा कलाकार शताब्दियों में शायद एक ही पैदा होता है। ऐसा कलाकार आज हम सभी के बीच है, उसे अपनी आँखों के सामने घूमता-फिरता देख पा रहे हैं। कितना बड़ा है हमारा भाग्य!

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी | INDIRA GANDHI

भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी

श्रीमती कृष्णा हठी सिंह ने अपनी पुस्तक 'हम नेहरू' में एक प्रसंग का उल्लेख किया है। उनके पास बैठी नन्हीं इन्दु कुछ बुदबुदा रही थी। उन्होंने पूछा “यह क्या हो रहा है?” इन्दु ने अपने घने काले बालों से घिरे चमकते चेहरे को उठाया और दृढ़ता से कहा “जोन आफ आर्क बनने की कोशिश कर रही हैं। एक दिन उसी की तरह मैं भी अपने लोगां की सेवा करूँगी उनका नेतृत्व करूँगी” आगे चलकर वह नन्ही बच्ची इन्दु भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के नाम से प्रसिद्ध हुई इन्दिरा जी का बचपन का नाम इन्दिरा प्रियदर्शिनी था। सब प्यार से इन्हें इन्दु बुलाते थे।

जन्म - 19 नवम्बर 1917

स्थान – इलाहाबाद

पिता का नाम - पं. जवाहर लाल नेहरू

माता का नाम - श्रीमती कमला नेहरू

पति का नाम - श्री फिरोज गांधी

मृत्यु - 31 अक्टूबर 1984

पं. मोती लाल नेहरू की पौत्री तथा पं. जवाहर लाल नेहरू की पुत्री इन्दिरा के रोम रोम में देश-प्रेम की भावना थी। जब वह मात्र तेरह वर्ष की थीं एक दिन कांग्रेस पार्टी के कार्यालय में जा पहुँचीं और बोलीं “मुझे भी कांग्रेस का सदस्य बनना है।”

उनसे कहा गया, “तुम अभी बहुत छोटी हो बड़ी हो जाओ तुम्हें सदस्य बना देंगे" इन्दिरा जी को यह बात जँची नहीं। उन्होंने संकल्प किया कि मैं अपनी कांग्रेस स्वयं बनाउँगी। उन्होंने बच्चों की बिग्रेड बनायी। इसमें वयस्क शामिल नहीं हो सकते थे। इन्दिरा जी ने इसका नाम “वानर सेना" रखा। इस "वानर सेना” का मुख्य कार्य स्वतंत्रता सेनानियों की सहायता करना था।

वानर सेना के बालक-बालिकाएँ सन्देश पहुँचाने, प्राथमिक सहायता करने, खाने की व्यवस्था करने तथा झण्डा फहराने जैसे सरल परन्तु महत्वपूर्ण कार्य करते थे।

पण्डित जवाहर लाल नेहरू अपनी प्रियदर्शिनी को ऐसी शिक्षा देना चाहते थे कि, उनके व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास हो सके। पं. नेहरू व उनकी पत्नी के स्वतन्तरता आन्दोलन में सक्रिय होने के कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। इसका प्रियदर्शिनी की शिक्षा पर असर पड़ा। वे लगातार एक ही जगह स्थिर रहकर शिक्षा ग्रहण न कर सकीं। उन्होंने दिल्ली, इलाहाबाद और पुणे के स्कूलों में शिक्षा पायी। पुणे से मैटी कुलेशनश्की परीक्षा पास करने के बाद वे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के शान्ति निकेतन में आ गयीं। यहाँ पढाई लिखाई के साथ उन्हों ने नन्दलाल बोस से चित्रकला सीखी।

एक बार एक विदेशी प्रोफेसर कला भवन में भाषण देने आए। कलाभवन में जूते पहन कर जाना मना था। वे भूलवश जूते पहन कर कलाभवन में प्रवेश कर गए। जब तीन चार दिन तक ऐसा ही होता रहा तो एक दिन प्रोफेसर के प्रवेश करते ही सारे विद्यार्थी अनुशासित तरीके से कतारबद्ध होकर कक्ष से बाहर हो गये। शिकायत गुरुदेव के पास पहुँची। जाँच करने पर मालूम हुआ कि विरोधी दल का नेतृत्व इन्दिरा ने किया था। गुरुदेव मुस्कराये सत्य की ऐसी पकड़ और अनुशासन के प्रति ऐसी आस्था देखकर उन्होंने उसी दिन भविष्यवाणी की “यह बालिका असाधारण है और इसमें संकल्पों को जीने की शक्ति है।” इन्दिरा जी के व्यक्तित्व पर पं. नेहरू का बहुत प्रभाव पड़ा। पिता पुत्री के सम्बन्ध बेहद आत्मीय थे। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान पं. नेहरू को कई बार जेल जाना पड़ा वे जेल से पत्रों द्वारा पुत्री से सम्पर्क बनाए रखते थे। पत्रों का संग्रह ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम' से प्रकाशित हुआ है। नेहरू जी द्वारा नैनी जेल से इन्दिरा जी को लिखे एक पत्र के कुछ अंश:

कई बार हम संदेह में भी पड़ जाते हैं कि हम क्या करें क्या न करें? यह निश्चय करना कोई सरल कार्य नहीं है। जब भी तुम्हें ऐसा संदेह हो तो ठीक बात का निश्चय करने के तुम्हें एक छोटा सा उपाय बताता हूँ। तुम कोई भी काम ऐसा न करना जिसे दूसरों से छिपाने की इच्छा तुम्हारे मन में उठे। किसी बात को छिपाने की इच्छा तभी होती है जब तुम कोई गलत काम करती हो। बहादुर बनो और सब कुछ स्वयं ही ठीक हो जायेगा। यदि तुम बहादुर बनोगी तो तुम ऐसी कोई बात नहीं करोगी जिससे तुम्हें डरना पड़े या जिसे करने में तुम्हें लज्जित होना पड़े।

निर्भीकता और आत्मविश्वास जैसे गुण उन्हें पिता से विरासत में मिले थे। इन्दिरा जी कठिन परिस्थितियों में धैर्य खोये बिना स्वविवेक से निर्णय लेने में सक्षम थीं। इन विलक्षण गुणों ने इन्दिरा जी को राजनीति के उच्चशिखर पर पहुँचा दिया। उनके पिता ने उन्हें गहन राजनीतिक प्रशिक्षण दिया था। वह लगातार 29 वर्ष तक पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर राजनीतिक कार्यों में उनकी सहायता करती रहीं। इन्दिरा जी ने अपने पिता के साथ अनेक देशों की यात्रायें भी की। इस बीच सन 1942 ई. में श्री फिरोज गांधी के साथ उनका विवाह हो गया। उनके दो पुत्र थे राजीव गांधी व संजय गांधी ये दोनों भी राजनीति के क्षेत्र में काफी सक्रिय रहे। राजीव गांधी उनकी मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री बने परन्तु संजय गांधी का युवावस्था में एक दुर्घटना में देहान्त हो गया, इन्दिरा जी ने इस सदमे को बहुत धैर्य व साहस से झेला।

इन्दिरा जी का राजनीतिक सफरनामा:

**सन् 1958 में वे कांग्रेस के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड की सदस्या बनीं।

**सन् 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गयीं।

**सन् 1962 में यूनेस्को अधिशासी मण्डल की सदस्य चुनी गयीं।

**श्री लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमण्डल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनीं।

** 24 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1977 तक प्रधानमंत्री पद पर रहीं।

**दूसरी बार 14 जनवरी 1980 से 31 अक्टूबर 1984 तक प्रधानमंत्री पद पर रहीं।

प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते हुए उन्हें भारत-पाक युद्ध का भी सामना करना पड़ा। इस कठिन समय में उन्होंने अभूतपूर्व धैर्य और साहस का परिचय दिया। इन्दिरा जी के कुशल नेतृत्व में भारतीय सेना ने पकिस्तानी सेना के छक्के छुडा दिए। श्रीमती गांधी के अदम्य साहस के बारे में एक ब्रिटिश दैनिक की संवाददाता ने लिखा था कि अनेक भारतीय सैनिक अधिकारियों तथा जवानों ने मुझे बताया कि अक्सर घमासान लड़ाई के बीच साड़ी पहने एक दुबली सी आकृति आ जाती थी। वह इन्दिरा जी हुआ करती थीं जो कि फौज की खैरियत जानने के लिए उत्सुक रहती थीं।

एक महत्वपूर्ण निर्णय

सन् 1971 ई. की लड़ाई में श्रीमती गांधी ने एक तरफा युद्ध विराम की घोषणा की और पाकिस्तान की पराजय हुयी। इसी युद्ध के परिणामस्वरूप बांग्ला देश का जन्म हुआ। इसका श्रेय इन्दिरा जी को जाता है। इस युद्ध से भारत एशिया की प्रमुख शक्ति बनकर उभरा और इन्दिरा जी विश्व की प्रमुख नेता के रूप में उभर कर सामने आयीं।

इन्दिरा जी के राजनैतिक जीवन में यों तो कई उतार-चढ़ाव आये परन्तु सन् 1977 ई. के आम चुनाव में उनकी पार्टी की हार से उन्हें कठिन संघर्ष का सामना करना पड़ा। दरअसल श्रीमती गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा ही उनकी पार्टी की हार का कारण बनी। उनके इस निर्णय से जनता रुष्ट हो गयी परन्तु वे जनता पर अपने अटूट विश्वास के सहारे पुनः सत्तारूढ़ हुयीं। वे सदैव विश्वशांति की प्रबल पक्षधर रहीं। उनका व्यक्तित्व ऐसे समय में उभरा जब राष्ट्र अनेक प्रकार के संकट और समस्याओं से घिरा था। एक राजनीतिक योद्धा के रूप में उन्होंने इस देश की सेवा अपनी सम्पूर्ण क्षमता से की, ताकि विश्व में देश का मान-सम्मान बढ़े। अपने कार्यकाल में उन्होंने अनेक महवपूर्ण कार्यक्रम चलाये। उन्होंने देश की दुखती रग को समझा और 'गरीबी हटाओ' का नारा दिया।

बीस सूत्रीय कार्यक्रम के द्वारा इन्दिरा जी ने अनेक मोर्चों पर महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित कीं। विज्ञान और तकनीकी विकास के नए द्वार खोले परमाणु शक्ति का विकास किया तथा देश को अन्तरिक्ष युग में पहुँचाया। कैप्टन राकेशशर्मा द्वारा अंतरिक्ष यात्रा उनके प्रधानमंत्रित्व काल की महँत्वपूर्ण उपलब्धि है। वे निरन्तर देश को प्रगतिशील तथा समृद्धिशाली बनाने के प्रयास में जुटी रहीं। इन्दिरा जी के शासनकाल में खेलकूद को बहुत प्रोत्साहन मिला। सन् 1982 ई. में एशियाड़ खेलों का भव्य आयोजन हुआ। उन्हें अपने जीवन काल में देशवासियों का अपार स्नेह और सम्मान मिला। उनके रोम-रोम में देशप्रेम व्याप्त था। 30 अक्टूबर 1984 ई. को उडीसा में दिया गया उनका भाषण इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

“देश सर्वोपरि है। अगर मैं देश की सेवा करते हुए मर भी जाती हूँ तो मुझे इस पर नाज होगा। मुझे विश्वास है कि मेरे खून का हर कतरा इस राष्ट्र के विकास में योगदान करेगा और इसे मजबूत और गतिशील बनाएगा”। - श्रीमती इन्दिरा गांधी

यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अपने इस भाषण के अगले ही दिन भारत की यह महान सुपुत्री इन्दिरा अपने ही अंगरक्षक की गोलियों का निशाना बन गयीं। यद्यपि आज वे हमारे बीच नहीं है परन्तु उनकी स्मृतियाँ हर भारतीय के दिल में चिरस्थायी रहेगी।

वर्तमान काल के महान संगीतज्ञ स्वर कोकिला लता मंगेशकर | LATA MANGESHKAR

वर्तमान काल के महान संगीतज्ञ 

स्वर कोकिला लता मंगेशकर

संगीत के क्षेत्र में भारत हमेशा ही सम्पूर्ण विश्व का सिरमौर रहा है। यहाँ के संगीत ने पत्थरों को पिघला दिया, बुझते दीपों को प्रज्ज्वलित कर दिया और विश्वजन को संगीत रस से सराबोर कर दिया।

यहाँ हम संगीत के क्षेत्र की ऐसी विलक्षण प्रतिभाओं के बारे में जानेंगे, जिन्होनें बीसवीं शताब्दी में भारतीय संगीत को नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाया और विश्वसंगीत में भारत के वैशिष्ट्य को बनाए रखा।

देश प्रेम और अखण्डता की सरगम - स्वर कोकिला लता मंगेशकर

गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड विश्व का वह महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें विश्व के आश्चर्य अजूबे अंकित किये जाते हैं। क्या आप जानते हैं? भारत की वह कौन सी गायिका है, जिसके नाम सर्वाधिक गीत गाने का रिकार्ड इस पुस्तक में अंकित है? वह भारत कोकिला, स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर हैं जिन पर हम सब भारतीयों को गर्व है।

लता मंगेशकर का जन्म 28 सितम्बर 1929 को इन्दौर में हुआ। इनकी माता का नाम शुद्धमती तथा पिता का नाम पण्डित दीनानाथ मंगेशकर था। पिता शास्त्रीय गायक थे और थियेटर कम्पनी चलाते थे। वे ग्वालियर घराने में संगीत की शिक्षा भी देते थे। उन्होंने लता को पाँच वर्ष की उम्र से ही संगीत की शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया। लता की संगीत में विशेष प्रतिभा देखकर वे कहा करते, "यह लड़की एक दिन चमत्कार साबित होगी।

लता ने अपना प्रथम आकाशवाणी कार्यक्रम 16 दिसम्बर 1941 को प्रस्तुत किया जिसे सुनकर माता-पिता गद्गद हो गए। दुर्भाग्य से 1942 में दीनानाथ जी की मृत्यु हो गयी और परिवार का सम्पूर्ण दायित्व लता पर आ गया। उनके भाई हृदयनाथ और बहिनें आशा, ऊषा व मीना उस समय अत्यन्त छोटे थे। सन् 1942 से 1948 तक लता ने मराठी और हिन्दी की लगभग छः फिल्मों में अभिनय किया और परिवार की आर्थिक स्थिति को सुधारा।

लता मंगेशकर ने पहली बार मराठी फिल्म के लिए गाना गाया, जिसे सम्पादन के समय निकाल दिया गया। पहली हिन्दी फिल्म जिसके लिए उन्हों ने गीत गाया वह थी "आपकी सेवा में" यह फिल्म 1947 में आयी पर लता के गाने को कोई ख्याति न मिली। उस समय फिल्मी दुनिया में भारी-भरकम आवाज वाली गायिकाओं का युग था। दुर्भाग्यवश 1948 में आयी फिल्म शहीद में भी लता द्वारा गाये गीत को फिल्म निर्माता ने यह कहकर फिल्म से निकाल दिया कि उनकी आवाज बहुत महीन (पतली) है। इस फिल्म के संगीतकार गुलाम हैदर ने उस वक्त फिल्म निर्माता के सामने ही घोषणा की. “मैं आज ही कहे दे रहा हूँ कि यह लड़की बहुत शीघ्र संगीत की दुनिया पर छा जाएगी।" अपने इसी विश्वास के बल पर गुलाम हैदर ने लता को मजबूर फिल्म में फिर से गंवाया। गाना था “दिल मेरा तोडा" इस गीत की रिकार्डिंग के समय प्रख्यात संगीतकार हस्नलाल भगतराम, अनिल विश्वास, नौशाद व खेमचन्दर प्रकाश उपस्थित थे। लता जी की गायन प्रशैली से प्रभावित होकर नौशाद व हुस्नलाल भगतराम ने उन्हें अपनी फिल्मों 'अंदाज' और 'बडी बहिन' में मौका दिया। फिर आई 'बरसात' जिसके गाने बहुत लोकप्रिय हुए और लता निरन्तर प्रसिद्धि पाती गई। इस प्रसिद्धि के पीछे थी उनकी कड़ी मेहनत, दृढ़ संकल्प और संगीत के प्रति समर्पण।

1949 में लता जी के स्वर से सजी चार फिल्में आयीं 'बरसात', 'अंदाज', 'दुलारी', और 'महल', इनमें महल का गीत 'आयेगा आने वाला'’ अत्यन्त लोकप्रिय हुआ और लता जी श्रोताओं के दिलो दिमाग पर छा गयीं। तब से आज तक वे फिल्म संगीत में साम्राज्ञी के पद पर विराजमान हैं।

ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा की धनी लता ने हर भाव और मनःस्थिति के अनुरूप अपने स्वर को ढाला। शास्त्रीय संगीत का उत्कृष्ट ज्ञान, शहद से भी मीठा भावरंजित स्वर जो श्रोताओं को अपने साथ एकाकार कर लेता है, उनकी बहुत बडी खूबी है।

इसके साथ ही जो अनुपम चमत्कार उन्होंने कर दिखाया है, वह है अपनी राष्ट्रभाषा तथा देश की सभी प्रमुख लगभग सोलह प्रान्तीय भाषाओं में उतनी ही सहजता और निष्ठा से गीत, भजन और लोकगीत गाना, जितना वे अपनी मातृभाषा मराठी में गाती हैं। गाते समय वे शब्दों के सही उच्चारण पर विशेष ध्यान देती हैं। अपने उच्चारण में शुद्धता लाने के लिए ही उन्होंने एक अध्यापक से उर्दू सीखी।

लता जी की प्रसिद्धि के पीछे उनकी लगन, परिश्रम व तपस्या के साथ-साथ विराट अखण्ड भारत के प्रति उनका गहरा प्रेम, निष्ठा और उसके कल्याण की भावना भी है। सन 1962 में हुई चीनी आक्रमण के बाद जब लता जी ने रुंधे कण्ठ से “ऐ मेरे वतन के लोगों” गाया तो सारा देश तड़प उठा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंण्डित जवाहर लाल नेहरू की आँखें भर आयीं। लता जी ने इस गीत की पंक्ति “जो खून गिरा सरहद पर वह खून था हिन्दुस्तानी" को गाकर देश की एकता और अखण्डता की मशाल जलायी उससे दु:ख की घड़ी में भी देशवासियों का हृदय रोशन हो उठा। आज भी यह गीत सुनकर लोगों की आँखों में आँसु आ जाते हैं।

लता जी :- कुछ रोचक बातं :

**छ:-सात वर्ष की उम्र में लता जी छत पर कोई धुन गुनगुना रही थीं। अचानक वे गिर गयीं और मूच्छित हो गयीं। चेतनावस्था में आने पर वे पुनः हँसती खिलखिलाती उसी धुन को गुनगुनाने लगीं, जिसे मूच्छित होने से पूर्व गुनगुना रही थीं।

**लता जी के स्वर की मधुरता का एक रहस्य यह भी है कि वे कोल्हापुरी काली मिर्च बहुत अधिक खाती है।

**प्रत्येक गीत गाने से पूर्व लता जी उसे अपनी हस्तलिपि में लिखती हैं।

आश्चर्यजनक लता जी -

**लता जी की इच्छा है कि अगर उनका पुनर्जन्म हो तो भारत में ही हो।

**लता जी जिस मंच पर भी गाती हैं, हमेशा नंगे पाँव गाती हैं। ऐसा वे मंच के सम्मान भी करती हैं।

**लता जी तीनों सप्तक में गा सकती है जबकि अधिकंश गायक दो ही सप्तक में गा पाते है।

**लता जी रॉयल अल्बर्ट हॉल, लंदन में कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाली प्रथम भारतीय महिला हैं। (सन् 1974)

**लता जी सर्वोच्च भारतीय नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' प्राप्त करने वाली प्रथम पार्श्व गायिका हैं।

**लता जी अभिनेत्रियों की तीन पीढ़ियों - मधुबाला, जीनत अमान व काजोल के लिए पार्श्वगायन कर चुकी हैं और अभी भी पार्श्वगायन में पूर्णतया सक्रिय हैं।

**लता जी लगभग 20 भाषाओं में 50,000 से अधिक गीत गाकर विश्वरिकार्ड बना चुकी हैं जिसके लिए उनका नाम गिनीस बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में अंकित हैं।

भारत में केवल दो ही व्यक्तित्व हैं जिन्हें भारत रत्न व दादा साहब फाल्के दोनों के सम्मान प्राप्त हैं - सत्यजित रे और लता मंगेशकर।

**लता जी को न्यूयार्क विश्वविद्यालय समेत छः विश्वविद्यालयों ने डॉक्टरेट की मानद उपाधि से विभूषित किया है।

**रायल अल्बर्ट हॉल लन्दन ने कम्प्यूटर की सहायता से लता की आवाज का ग्राफ तैयार किया और पाया कि उनकी आवाज विश्व की सबसे आदर्श आवाज है।

**लता मंगेशकर देश की संभवत: ऐसी एकमात्र हस्ती हैं जिनके जीवनकाल में ही उनके नाम पर 'लता मंगेशकर' पुरस्कार दिया जा रहा है। यह पुरस्कार सन 1984 से मध्यप्रदेश सरकार तथा 1992 से महाराष्ट्र सरकार द्वारा दिया जाता है।

प्रमुख सम्मान -

लता जी पिछले दशकों में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित की जा चुकी हैं जिनमें उल्लेखनीय है - फिल्म फेअर पुरस्कार, महाराष्ट्र रत्न पुरस्कार, बंगाल फिल्म पत्रकार संगठन पुरस्कार, पद्म श्री, पद्मभूषण, पद्म विभूषण, वीडियोकॉन लाइफ टाइम एचीवमेण्ट पुरस्कार, जीवन गौरव पुरस्कार, नूरजहाँ सम्मान, हाकिम खान सुर अवार्ड, स्वरभारती पुरस्कार, 250 ट्राफी, 150 गोल्डन डिस्क, प्लेटिनम डिस्क व हिन्दी सिनेमा का सर्वोच्च 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार तथा भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न (2001).

लता जी: महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ:

विभिन्न ख्याति प्राप्त व्यक्तित्वों ने लता जी के बारे में समय-समय पर महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ की हैं। उनमें से कुछ हैं:

राजकपूरः “उनके कण्ठ में सरस्वती विराजमान हैं।"

नर्गिस दत्तः “लता जी किसी तारीफ की नहीं, पूजा के योग्य हैं।”

अभिताभ बच्चन: पड़ोसी देश के मेरे एक मित्र कहते हैं "हमारे देश में सब कुछ है सिवाय ताजमहल और लता मंगेशकर के।"

जगजीत सिंह: बीसवीं सदी की केवल तीन चीजें याद रखी जाएंगी - लता जी का जन्म, मानव की चाँद पर विजय और बर्लिन की दीवार ढहना।

जावेद अख्तर: जिस प्रकार एक पृथ्वी है, एक सूर्य है, एक चंद्रमा है उस प्रकार एक ही लता है। निःसन्देह लता जी हम सब भारतीयों का गौरव है।

शहनाई के जादूगर - उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ | BISMILLAH KHAN

शहनाई के जादूगर 

उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ

26 जनवरी 1950 स्वतंत्र भारत के प्रथम गणतन्त्र की संध्या पर शहनाई से राग काफी में उभरी स्वरलहरियों ने सम्पूर्ण वातावरण में जैसे सुरों की गंगा प्रवाहित कर दी है। इस दिवस का हर्षोल्लास द्विगुणित हो गया। श्रोता भाव-विभोर होकर स्वरों की इस अपूर्व बाजीगरी का आनन्द उठा रहे थे और मन ही मन प्रशंसा कर रहे थे उस कलाकार की, जो शहनाई से उभरे स्वरों के रास्ते उनके हृदयों में प्रवेश कर रहा था।

यह शहनाई वादक थे उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ जो स्वतंत्र भारत की प्रथम गणतंत्र दिवस की संध्या पर लाल किले में आयोजित समारोह में शहनाई बजा रहे थे। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ एक ऐसा कोमल हृदय मानव जो संगीत के द्वारा आत्मा की गहराइयों में उतर जाते थे। ऐसा व्यक्तित्व जो विश्वविख्यात शहनाई वादक के रूप में जीते जी किंवदन्ती बन गए।

बिस्मिल्लाह खाँ का जन्म 21 मार्च 1916 को डुमराँव (बिहार) में हुआ। इनके पूर्वज डुमराँव रियासत में दरबारी संगीतज्ञ थे। इन्हें संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा चाचा अलीबक्श विलायत से मिली। अलीबक्श वाराणसी के विश्वनाथ मन्दिर में शहनाई बजाते थे। चाचा की शिक्षा से जहाँ उनमें संगीत के प्रति गहरी समझ विकसित हुई वहीं सभी धर्मों के प्रति आदर का भाव भी जाग्रत हुआ। उन्हां ने अपना जीवन संगीत को समर्पित कर दिया और शहनाई वादन को विश्वस्तर पर नित नयी ऊँचाइयाँ देने का निश्चय कर लिया।

बिस्मिल्लाह खाँ संगीत और पूजा को एक ही दृष्टि से देखते थे। उनका मानना था कि संगीत, सुर और पूजा एक ही चीज है। बिस्मिल्लाह खाँ ने अपनी शहनाई की गूंज से अफगानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, अफ्रीका, रूस, अमेरिका, जापान, हांगकांग समेत विश्व के सभी प्रमुख देशों के श्रोताओं को रसमग्न किया। उनका संगीत समुद्र की तरह विराट है लेकिन वे विनम्रतापूर्वक कहते थे। “मैं अभी मुश्किल से इसके किनारे तक ही पहँच पाया हूँ मेरी खोज अभी जारी है।'

संगीत में अतुलनीय योगदान हेतु उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ को देश-विदेश में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' महामहिम राष्ट्रपति द्वारा सन् 2001 में प्रदान किया गया। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, तानसेन पुरस्कार, मध्य प्रदेश राज्य पुरस्कार, 'पद्म विभूषण' जैसे सम्मान एवं विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें प्रदान की गयी डॉक्टरेट की उपाधियाँ उनकी ख्याति की परिचायक हैं।

खाँ साहब अत्यन्त विनम्र, मिलनसार और उदार व्यक्तित्व के धनी थे। वे सभी धर्मो का सम्मान करते थे। संगीत के प्रति पूर्णत: समर्पण, कड़ी मेहनत, घंटों अभ्यास, संतुलित आहार, संयमित जीवन और देश प्रेम के अटूट भाव एवं गुणों ने उन्हें विश्वस्तर पर ख्याति दी। अभिमान तो जैसे उन्हें छु तक नहीं गया। उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ शास्त्रीय संगीत परम्परा की ऐसी महवपूर्ण कड़ी थे जिन पर प्रत्येक देशवासी को गर्व है।

इनका देहावसान 21 अगस्त, 2006 को हुआ था।