मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-6 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-6

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-6 

श्री रामनवमी उत्सव व मसजिद का जीर्णोदृार, 

गुरु के कर-स्पर्श की महिमा,  श्री रामनवमी - उत्सव, 
उर्स की प्राथमिक अवस्था और रुपान्तर एवं मसजिद का जीर्णोदृार 
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गुरु के कर-स्पर्श के गुण



जब सद्गगुरु ही नाव के खिवैया हों तो वे निश्चय ही कुशलता तथा सरलतापूर्वक इस भवसागर के पार उतार देंगे। सद्गगुरु शब्द का उच्चारण करते ही मुझे श्री साई की स्मृति आ रही है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह स्वयं मेरे सामने ही खड़े है और मेरे मस्तक पर उदी लगा रहे हैं। देखो, देखो, वे अब अपना वरद्-हस्त उठाकर मेरे मस्तक पर रख रहे है। अब मेरा हृदय आनन्द से भर गया है। मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे है। सद्गगुरु के कर-स्पर्श की शक्ति महान् आश्चर्यजनक है। लिंग (सूक्ष्म) शरीर, जो संसार को भष्म करने वाली अग्नि से भी नष्ट किया जा सकता है, वह केवल गुरु के कर-स्पर्श से ही पल भर में नष्ट हो जाता है। अनेक जन्मों के समस्त पाप भी मन स्थिर हो जाते है। श्री साईबाबा के मनोहर रुप के दर्शन कर कंठ प्रफुल्लता से रुँध जाता है, आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है और जब हृदय भावनाओं से भर जाता है, तब सह्रदय भाव की जागृति होकर आत्मानुभव के आनंन्द का आभास होने लगता है। मैं और तू का भेद (दैृतभाव) नष्ट हो जाता है और तत्क्षण ही ब्रहृा के साथ अभिन्नता प्राप्त हो जाती है। जब मैं धार्मिक ग्रन्थों का पठन करता हूँ तो क्षण-क्षण में सद्गगुरु की स्मृति हो आती है। बाबा राम या कृष्ण का रुप धारण कर मेरे सामने खड़े हो जाते है और स्वयं अपनी जीवन-कथा मुझे सुनाने लगते है। अर्थात् जब मैं भागवत का श्रवण करता हूँ, तब बाबा श्री कृष्ण का स्वरुप धारण कर लेते हैं और तब मुझे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि वे ही भागवत या भक्तों के कल्याणार्थ उदृवगीता सुना रहे है। जब कभी भी मै किसी से वार्तालाप  किया करता हूँ तो मैं बाबा की कथाओं को ध्यान में लाता हूँ, जिससे उनका उपयुक्त अर्थ समझाने में सफल हो सकूँ। जब मैं लिखने के लिये बैठता हूँ, तब एक शब्द या वाक्य की रचना भी नहीं कर पाता हूँ, परन्तु जब वे स्वयं कृपा कर मुझसे लिखवाने लगते है, तब फिर उसका कोई अंत नहीं होता। जब भक्तों में अहंकार की वृदिृ होने लगती है तो वे शक्ति प्रदान कर उसे अहंकार शून्य बनाकर अंतिम ध्येय की प्राप्ति करा देते है तथा उसे संतुष्ट कर अक्षय सुख का अधिकारी बना देते है। जो बाबा को नमन कर अनन्य भाव से उनकी शरण जाता है, उसे फिर कोई साधना करने की आवस्यकता नहीं है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उसे सहज ही में प्राप्त हो जाते हैं। ईश्वर के पास पहुँचने के चार मार्ग हैं – कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति। इन सबमें भक्तिमार्ग अधिक कंटकाकीर्ण, गड्ढों और खाइयों से परिपूर्ण है। परन्तु यदि सद्गुरु पर विश्वास कर गडढों और खाइयों से बचते और पदानुक्रमण करते हुए सीधे अग्रसर होते जाओगे तो तुम अपने ध्येय अर्थात् ईश्वर के समीप आसानी से पहुँच जाओगे। श्री साईबाबा ने निश्चयात्मक स्वर में कहा है कि स्वयं ब्रहा और उनकी विश्व उत्पत्ति, रक्षण और लय करने आदि की भिन्न-भिन्न शक्तियों के पृथकत्व में भी एकत्व है। इसे ही ग्रन्थकारों ने दर्शाया है। भक्तों के कल्याणार्थ श्री साईबाबा ने स्वयं जिन वचनों से आश्वासन दिया था, उनको नीचे उदृत किया जाता है –

मेरे भक्तों के घर अन्न तथा वस्त्रों का कभी अभाव नहीं होगा। यह मेरा वैशिष्टय है कि जो भक्त मेरी शरण आ जाते है और अंतःकरण से मेरे उपासक है, उनके कल्याणार्थ मैं सदैव चिंतित रहता हूँ। कृष्ण भगवान ने भी गीता में यही समझाया है। इसलिये भोजन तथा वस्त्र के लिये अधिक चिंता न करो। यदि कुछ माँगने की ही अभिलाषा है तो ईश्वर को ही भिक्षा में माँगो। सासारिक मान व उपाधियाँ त्यागकर ईश-कृपा तथा अभयदान प्राप्त करो और उन्ही के दृारा सम्मानित हो। सांसारिक विभूतियों से कुपथगामी मत बनो। अपने इष्ट को दृढ़ता से पकड़े रहो। समस्त इन्द्रियों और मन को ईश्वरचिंतन में प्रवृत रखो। किसी पदार्थ से आकर्षित न हो, सदैव मेरे स्मरण में मन को लगाये रखो, ताकि वह देह, सम्पत्ति व ऐश्वर्य की ओर प्रवृत न हो। तब चित्त स्थिर, शांत व निर्भय हो जायगा। इस प्रकार की मनःस्थिति प्राप्त होना इस बात का प्रतीक है कि वह सुसंगति में है। यदि चित्त की चंचलता नष्ट न हुई तो उसे एकाग्र नहीं किया जा सकता।

बाबा के उपयुक्त को उदृत कर ग्रन्थकार शिरडी के रामनवमी उत्सव का वर्णन करता है। शिरडी में मनाये जाते वाले उत्सवों में रामनवमी अधिक धूमधाम से मनायी जाती है। अतएव इस उत्सव का पूर्ण विवरण जैसा कि साईलीला-पत्रिका (1925) के पृष्ठ 197 पर प्रकाशित हुआ था, यहाँ संक्षेप में दिया जाता है –

प्रारम्भ



कोपरगाँव में श्री गोपालराव गुंड नाम के एक इन्सपेक्टर थे। वे बाबा के परम भक्त थे। उनकी तीन स्त्रियाँ थी, परन्तु एक के भी संतान न थी। श्री साईबाबा की कृपा से उन्हें एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। इस हर्ष के उपलक्ष्य में सन् 1897 में उन्हें विचार आया कि शिरडी में मेला अथवा उरुस भरवाना चाहिये। उन्होंने यह विचार शिरडी के अन्य भक्त-तात्या पाटील, दादा कोते पाटील और माधवराव के समक्ष विचारणार्थ प्रगट किया। उन सभी को यह विचार अति रुचिकर प्रतीत हुआ तथा उन्हें बाबा की भी स्वीकृत और आश्वासन प्राप्त हो गया। उरुस भरने के लिये सरकारी आज्ञा आवश्यक थी। इसलिये एक प्रार्थना-पत्र कलेक्टर के पास भेजा गया, परन्तु ग्राम कुलकर्णी (पटवारी) के आपत्ति उठाने के कारण स्वीकृति प्राप्त न हो सकी। परन्तु बाबा का आश्वासन तो प्राप्त हो ही चुका था, अतः पुनः प्रत्यन करने पर स्वीकृति प्राप्त हो गयी। बाबा की अनुमति से रामनवमी के दिन उरुस भरना निश्चित हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ निष्कर्ष ध्यान में रख कर ही उन्होंने ऐसी आज्ञा दी। अर्थात् उरुस व रामनवमी के उत्सवों का एकीकरण तथा हिन्दू-मुसलिम एकता, जो भविष्य की घटनाओं से ही स्पष्ट है कि यह ध्येय पूर्ण सफल हुआ। प्रथम बाधा तो किसी प्रकार हल हुई। अब दितीय कठिनाई जल के अभाव की उपस्थित हुई। शिरडी तो एक छोटा सा ग्राम था और पूर्व काल से ही वहाँ जल का अभाव बना रहता था। गाँव में केवल दो कुएँ थे, जिनमें से एक तो प्रायः को सूख जाया करता था और दूसरे का पानी खारा था। बाबा ने उसमें फूल डालकर उसके खारे जल को मीठा बना दिया। लेकिन एक कुएँ का जल कितने लोगों को पर्याप्त हो सकता था। इसलिये तात्या पाटील ने बाहर से जल मंगवाने का प्रबन्ध किया। लकड़ी व बाँसों की कच्ची दुकानें बनाई गई तथा कुश्तियों का भी आयोजन किया गया। गोपालपाव गुंड के एक मित्र दामू-अण्णा कासार अहमदनगर में रहते थे। वे भी संतानहीन होने के कारण दुःखी थे। श्री साईबाबा की कृपा से उन्हें भी एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई थी। श्री गुंड ने उनसे एक ध्वज देने को कहा। एक ध्वज जागीरदार श्री नानासाहेब निमोणकर ने भी दिया। ये दोनों ध्वज बड़े समारोह के साथ गाँव में से निकाले गये और अंत में उन्हें मसजिद, जिसे बाबा दृारकामाई के नाम से पुकारते थे, उसके कोनों पर फहरा दिया गया। यह कार्यक्रम अभी पूर्ववत् ही चल रहा है।


चन्दन समारोह

इस मेले में एक अन्य कार्यक्रम का भी श्री गणेश हुआ, जो चन्दनोत्सव के नाम से प्रसिदृ है। यह कोरहल के एक मुसलिम भक्त श्री अमीर सक्कर दलाल के मस्तिष्क की सूझ थी। प्रायः इस प्रकार का उत्सव सिदृ मुसलिम सन्तों के सम्मान में ही किया जाता है। बहुत-सा चन्दन घिसकर बहुत सी चन्दन-धूप थालियों में भरी जाती है तथा लोहवान जलाते है और अंत में उन्हें मसजिद में पहुँचा कर जुलूस समाप्त हो जाता है। थालियों का चन्दन और धूप नीम पर और मसजिद की दीवारों पर डाल दिया जाता है। इस उत्सव का प्रबन्ध प्रथम तीन वर्षों तक श्री. अमीर सक्कर ने किया और उनके पश्चात उनकी धर्मपत्नी ने किया। इस प्रकार हिन्दुओं दृारा ध्वज व मुसलमानों के दृारा चन्दन का जुलूस एक साथ चलने लगा और अभी तक उसी तरह चल रहा है।

प्रबन्ध

रामनवमी का दिन श्री साईबाबा के भक्तों को अत्यन्त ही प्रिय और पवित्र है। कार्य करने के लिये बहुत से स्वयंसेवक तैयार हो जाते थे और वे मेले के प्रबन्ध में सक्रिय भाग लेते थे। बाहर के समस्त कार्यों का भार तात्या पाटील और भीतर के कार्यों को श्री साईबाबा की एक परम भक्त महिला राधाकृष्णमाई सम्बालती थी। इस अवसर पर उनका निवास स्थान अतिथियों से परिपूर्ण रहता और उन्हें सब लोगों की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना पड़ता था। साथ ही वे मेले की समस्त आवश्यक वस्तुओं का भी प्रबन्ध करती थीं। दूसरा कार्य जो वे स्वयं खुशी से किया करती, वह था मसजिद की सफाई करना, चूना पोतना आदि। मसजिद की फर्श तथा दीवारें निरन्तर धूनी जलने के कारण काली पड़ गयी थी। जब रात्रि को बाबा चावड़ी में विश्राम करने चले जाते, तब वे यह कार्य कर लिया करती थी। समस्त वस्तुएँ धूनी सहित बाहर निकालनी पड़ती थी और सफई व पुताई हो जाने के पश्चात् वे पूर्ववत् सजा दी जाती थी। बाबा का अत्यन्त प्रिय कार्य गरीबों को भोजन कराना भी इस कार्यक्रम का एक अंग था। इस कार्य के लिये वृहद् भोज का आयोजन किया जाता था और अनेक प्रकार की मिठाइयाँ बनाई जाती थी। यह सब कार्य राधाकृष्णमाई के निवास स्थान पर ही होता था। बहुत से  श्रीमंत भक्त इस कार्य में आर्थिक सहायता पहुँचाते थे।

उर्स का रामनवमी के त्यौहार में समन्वय



सब कार्यक्रम इसी तरह उत्तम प्रकार से चलता रहा और मेले का महत्व शनैः शनैः बढ़ता ही गया। सन् 1911 में एक परिवर्तन हुआ। एक भक्त कृष्णराव जोगेश्वर भीष्म (श्री साई सगुणोपासना के लेखक) अमरावती के दादासाहेब खापर्डे के साथ मेले के एक दिन पूर्व शिरडी के दीक्षित-वाड़े में ठहरे। जब वे दालान में लेटे हुए विश्राम कर रहे थे, तब उन्हें एक कल्पना सूझी। इसी समय श्री. लक्ष्मणराव उपनाम काका महाजनी पूजन सामग्री लेकर मसजिद की ओर जा रहे थे। उन दोनों में विचार-विनिमय होने लगा और उन्होने सोचा कि शिरडी में उरुस व मेला ठीक रामनवमी के दिन ही भरता है, इसमें अवश्य ही कोई गुढ़ रहस्य निहित है। रामनवमी का दिन हिन्दुओं को बहुत ही प्रिय है। कितना अच्छा हो, यदि रामनवमी उत्सव (अर्थात् श्री राम का जन्म दिवस) का भी श्री गणेश कर दिया जाय। काका महाजनी को यह विचार रुचिकर प्रतीत हुआ। अब मुख्य कठिनाई हरिदास के मिलने की थी, जो इस शुभ अवसर पर कीर्तन व ईश्वर-गुणानुवाद कर सकें। परन्तु भीष्म ने इस समस्या को हल कर दिया। उन्होंने कहा कि मेरा स्वरचित राम आख्यान, जिसमें रामजन्म का वर्णन है, तैयार हो चुका है। मैं उसका ही कीर्तन करुँगा और तुम हारमोनियम के साथ करना तथा राधाकृष्णमाई सुंठवडा़ (सोंठ का शक्कर मिश्रित चूर्ण) तैयार कर देंगी। तब वे दोनों शीघ्र ही बाबा की स्वीकृति प्राप्त करने हेतु मसजिद को गये। बाबा तो अंतर्यामी थे। उन्हें तो सब ज्ञान था कि वाड़े में क्या-क्या हो रहा है। बाबा ने महाजनी से प्रश्न किया कि वहाँ क्या चल रहा था। इस आकस्मिक प्रश्न से महाजनी घबडा गये और बाबा के शब्दों से पुछा कि क्या बात है। भीष्म ने रामनवमी-उत्सव मनाने का विचार बाबा के समक्ष प्रस्तुत किया तथा स्वीकृति देने की प्रार्थना की। बाबा ने भी सहर्ष अनुमति दे दी। सभी भक्त हर्षित हुये और रामजन्मोत्सव मनाने की तैयारियाँ करने लगे। दूसरे दिन रंग-बिरंगी झंडियों से मसजिद सजा दी गई। श्रीमती राधाकृष्णमाई ने एक पालना लाकर बाबा के आसन के समक्ष रख दिया और फिर उत्सव प्रारम्भ हो गया। भीष्म कीर्तन करने को खड़े हो गये और महाजनी हारमोनियम पर उनके साथ करने लगे। तभी बाबा ने महाजनी को बुलाबा भेजा। यहाँ महाजनी शंकित थे कि बाबा उत्सव मनाने की आज्ञा देंगे भी या नहीं। परन्तु जब वे बाबा के समीप पहुँचे तो बाबा ने उनसे प्रश्न किया यह सब क्या है, यह पलना क्यों रखा गया है महाजनी ने बतलाया कि रामनवमी का कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया और इसी कारण यह पालना यहाँ रखा गया। बाबा ने निम्बर पर से दो हार उठाये। उनमें से एक हार तो उन्होंने काका जी के गले में डाल दिया तथा दूसरा भीष्म के लिये भेज दिया। अब कीर्तन प्रारम्भ हो गया था। कीर्तन समाप्त हुआ, तब श्री राजाराम की उच्च स्वर से जयजयकार हुई। कीर्तन के स्थान पर गुलाल की वर्षा की गई। जब हर कोई प्रसन्नता से झूम रहा था, अचानक ही एक गर्जती हुई ध्वनि उनके कानों पर पड़ी। वस्तुतः जिस समय गुलाल की वर्षा हो रही थी तो उसमें से कुछ कण अनायास ही बाबा की आँख में चले गये। तब बाबा एकदम क्रुदृ होकर उच्च स्वर में अपशव्द कहने व कोसने लगे। यह दृश्य देखकर सब लोग भयभीत होकर सिटपिटाने लगे। बाबा के स्वभाव से भली भाँति परिचित अंतरंग भक्त भला इन अपशब्दों का कब बुरा माननेवाले थे। बाबा के इन शब्दों तथा वाक्यों को उन्होंने आर्शीवाद समझा। उन्होंने सोचा कि आज राम का जन्मदिन है, अतः रावण का नाश, अहंकार एवं दुष्ट प्रवृतिरुपी राक्षसों के संहार के लिये बाबा को क्रोध उत्पन्न होना सर्वथा उचित ही है। इसके साथ-साथ उन्हें यह विदित था कि जब कभी भी शिरडी में कोई नवीन कार्यक्रम रचा जाता था, तब बाबा इसी प्रकार कुपित या क्रुदृ हो ही जाया करते थे। इसलिये वे सब स्तब्ध ही रहे। इधर राधाकृष्णमाई भी भयभीत थी कि कही बाबा पालना न तोड़-फोड़ डालें, इसलिये उन्होंने काका महाजनी से पालना हटाने के लिए कहा। परन्तु बाबा ने ऐसा करने से उन्हें रोका। कुछ समय पश्चात् बाबा शांत हो गये और उस दिन की महापूजा और आरती का कार्यक्रम निर्विध्र समाप्त हो गया। उसके बाद काका महाजनी ने बाबा से पालना उतारने की अनुमति माँगी परन्तु बाबा ने अस्वीकृत करते हुये कहा कि अभी उत्सव सम्पूर्ण नहीं हुआ है। अगले दिन गोपाल काला उत्सव मनाया गया, जिसके पश्चात् बाबा ने पालना उतारने की आज्ञा दे दी। उत्सव में दही मिश्रित पौहा एक मिट्टी के बर्तन में लटका दिया जाता है और कीर्तन समाप्त होने पर वह बर्तन फोड़ दिया जाता है, और प्रसाद के रुप में वह पौहा सब को वितरित कर दिया जाता है, जिस प्रकार कि श्री कृष्ण ने ग्वालों के साथ किया था। रामनवमी उत्सव इसी तरह दिन भर चलता रहा। दिन के समय दो ध्वजों जुलूस और रात्रि के समय चन्दन का जुलूस बड़ी धूमधाम और समारोह के साथ निकाला गया। इस समय के पश्चात ही उरुस का उत्सव रामनवमी के उत्सव में परिवर्तित हो गया। अगले वर्ष (सन् 1912) से रामनवमी के कार्यक्रमों की सूची में वृदिृ होने लगी। श्रीमती राधाकृष्णमाई ने चैत्र की प्रतिपदा से नामसप्ताह प्रारम्भ कर दिया। (लगातार दिन रात 7 दिन तक भगवत् नाम लेना नामसप्ताह कहलाता है) सब भक्त इसमें बारी-बारी से भागों से भाग लेते थे। वे भी प्रातःकाल सम्मिलित हो जाया करती थीं। देश के सभी भागों में रामनवमी का उत्सव मनाया जाता है। इसलिये अगले वर्ष हरिदास के मिलने की कठिनाई पुनः उपस्थित हुई, परन्तु उत्सव के पूर्व ही यह समस्या हल हो गई। पाँच-छः दिन पूर्व श्री महाजनी की बाला बुवा से अकस्मात् भेंट होगी। बुवासाहेब अधुनिक तुकाराम के नाम से प्रसिदृ थे और इस वर्ष कीर्तन का कार्य उन्हें ही सौंपा गया। अगले वर्ष सन् 1913 में श्री हरिदास (सातारा जिले केबाला बुव सातारकर) बृहद्सिदृ कवटे ग्राम में प्लेग का प्रकोप होने के कारण अपने गाँव में हरिदास का कार्य नहीं कर सकते थे। इस वर्ष वे शिरडी में आये। काकासाहेब दीक्षित ने उनके कीर्तन के लिये बाबा से अनुमति प्राप्त की। बाबा ने भी उन्हें यथेष्ट पुरस्कार दिया। सन् 1914 से हरिदास की कठिनाई बाबा ने सदैव के लिये हल कर दी। उन्होंने यह कार्य स्थायी रुप से दासगणू महाराज के सौंप दिया। तब से वे इस कार्य को उत्तम रीति से सफलता और विदृतापूर्वक पूर्ण लगन से निभाते रहे। सन् 1912 से उत्सव के अवसर पर लोगों की संख्या में उत्तरोत्तर वृदि होने लगी। चैत्र शुक्ल अष्टमी से दृादशी तक शिरडी में लोगों की संख्या में इतनी अधिक वृदि हो जाया करती थी, मानो मधुमक्खी का छत्ता ही लगा हो। दुकानों की संख्या में बढ़ती हो गई। प्रसिदृ पहलवानों की कुश्तियाँ होने लगी। गरीबों को वृहद् स्तर पर भोजन कराया जाने लगा। राधाकृष्णमाई के घोर परिश्रम के फलस्वरुप शिरडी को संस्थान का रुप मिला। सम्पत्ति भी दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। एक सुन्दर घोड़ा, पालकी, रथ और चाँदी के अन्य पदार्थ, बर्तन, पात्र, शीशे इत्याति भक्तों ने उपहार में भेंट किये। उत्सव के अवसर पर हाथी भी बुलाया जाता था। यद्यपि सम्पत्ति बहुत बढ़ी, परन्तु बाबा उन सब से सदा साधारण वेशभूषा घारण करते थे। यह ध्यान देने योग्य है कि जुलूस तथा उत्सव में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही साथ-साथ कार्य करते थे। परन्तु आज तक न उनमें कोई विवाद हुआ और न कोई मतभेद ही। पहले पहल तो लोगों की संख्या 5000-7000 के लगभग ही होता थी। परन्तु किसी-किसी वर्ष तो यह संख्या 75000 तक पहुँच जाती थी। फिर भी न कभी कोई बीमारी फैली और न कोई दंगा ही हुआ ।


मसजिद का जीर्णोदृार

जिस प्रकार उरुस या मेला भराने का विचार प्रथमतः श्री गोपाल गुंड को आया था, उसी प्रकार मसजिद के जीर्णोदृार का विचार भी प्रथमतः उन्हें ही आया। उन्होंने इस कार्य के निमित्त पत्थर एकत्रित कर उन्हें वर्गाकार करवाया। परन्तु इस कार्य का श्रेय उन्हें प्राप्त नहीं होना था। वह सुयश तो नानासाहेब चाँदोरकर के लिये ही सुरक्षित था और फर्श का कार्य काकासाहेब दीक्षित के लिये। प्रारम्भ में बाबा ने इन कार्यों के लिये स्वीकृति नहीं दी, परन्तु स्थानीय भक्त म्हालसापति के आग्रह करने सा बाबा की स्वीकृति प्राप्त हो गई और एक रात में ही मसजिद का पूरा फर्श बन गया। अभी तक बाबा एक टाट के ही टुकड़े पर बैठते थे। अब उस टाट के टुकड़े को वहाँ से हटाकर, उसके स्थान पर एक छोटी सी गादी बिछा दी गई। सन् 1911 में सभामंडप भी घोर परिश्रम के उपरांत ठीक हो गया। मसजिद का आँगन बहुत छोटा तथा असुविधाजनक था। काकासाहेब दीक्षित आँगन को बढ़कर उसके ऊपर छप्पर बनाना चाहते थे। यथेष्ठ द्रव्यराशि व्यय कर उन्होंने लोहे के खम्भे, बल्लियाँ व कैंचियाँ मोल लीं और कार्य भी प्रारम्भ हो गया। दिन-रात परिश्रम कर भक्तों ने लोहे के खम्भे जमीन में गाड़े। जब दूसरे दिन बाबा चावड़ी से लौटे, उन्होंने उन खम्भों को उखाड़ कर फेंक दिया और अति क्रोधित हो गये। वे एक हाथ से खम्भा पकड़ कर उसे उखाड़ने लगे और दूसर हाथ से उन्होंने तात्या का साफा उतार लिया और उसमें आग लगाकर गड्ढे में फेंक दिया। बाबा के नेत्र जलते हुए अंगारे के सदृश लाल हो गये। किसी को भी उनकी ओर आँख उठा कर देखने का साहस नहीं होता था सभी बुरी तरह भयभीत होकर विचलित होने लगे कि अब क्या होगा। भागोजी शिंदे (बाबा के एक कोढ़ी भक्त) कुछ साहस कर आगे बढ़े, पर बाबा ने उन्हें धक्का देकर पीछे ढकेल दिया। माधवराव की भी वही गति हुई। बाबा उनके ऊपर भी ईंट के ढेले फेंकने लगे। जो भी उन्हें शान्त करने गया, उसकी वही दशा हुई।


कुछ समत के पश्चात् क्रोध शांत होने पर बाबा ने एक दुकानदार को बुलाया और एक जरीदार फेंटा खरीद कर अपने हाथों से उसे तात्या के सिर पर बाँधने लगे, जैसे उन्हें विशेष सम्मान दिया गया हो। यह विचित्र व्यवहार देखकर भक्तों को आश्चर्य हुआ। वे समझ नहीं पा रहे थे कि किस अज्ञात कारण से बाबा इतने क्रोधित हुए। उन्होंने तात्या को क्यों पीटा और तत्क्षण ही उनका क्रोध क्यों शांत हो गया। बाबा कभी-कभी अति गंभीर तथा शांत मुद्रा में रहते थे और बड़े प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया करते थे। परन्तु अनायास ही बिना किसी गोचर कारण के वे क्रोधित हो जाया करते थे। ऐसी अनेक घटनाएँ देखने में आ चुकी है, परन्तु मैं इसका निर्णय नहीं कर सकता कि उनमें से कौन सी लिखूँ और कौन सी छोडूँ। अतः जिस क्रम से वे याद आती जायेंगी, उसी प्रकार उनका वर्णन किया जायगा। अगले अध्याय में बाबा यवन हैं या हिन्दू, इसका विवेचन किया जायेगा तथा उनके योग, साधन, शक्ति और अन्य विषयों पर भी विचार किया जायेगा।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-5 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-5

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-5 

चाँद पाटील की बारात के साथ श्री साई बाबा का पुनः आगमन, 
अभिनंदन तथा श्री साई शब्द से सम्बोधन, 
अन्य संतों से भेंट, 
वेश-भूषा व नित्य कार्यक्रम, 
पादुकाओं की कथा, 
मोहिद्दीन के साथ कुश्ती, 
मोहिद्दीन का जीवन परिवर्तन, 
जल का तेल में रुपान्ततर, 
मिथ्या गरु जौहरअली।
 
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जैसा गत अध्याय में कहा गया है, मैं अब श्री साई बाबा के शिरडी से अंतर्दृान होने के पश्चात् उनका शिरडी में पुनः किस प्रकार आगमन हुआ, इसका वर्णन करुँगा।

चाँद पाटील की बारात के साथ श्री साई बाबा का पुनः आगमन 



जिला औरंगाबाद (निजाम स्टेट) के धूप ग्राम में चाँद पाटील नामक एक धनवान् मुस्लिम रहते थे। जब वे औरंगाबाद जा रहे थे तो मार्ग में उनकी घोड़ी खो गई। दो मास तक उन्होंने उसकी खोज में घोर परिश्रम किया, परन्तु उसका कहीं पता न चल सका। अन्त में वे निराश होकर उसकी जीन को पीट पर लटकाये औरंगाबाद को लौट रहे थे। तब लगभग 14 मील चलने के पश्चात उन्होंने एक आम्रवृक्ष के नीचे एस फकीर को चिलम तैयार करते देखा, जिसके सिर पर एक टोपी, तन पर कफनी और पास में एक सटका था। फकीर के बुलाने पर चाँद पाटील उनके पास पहुँचे। जीन देखते ही फकीर ने पूछा यह जीन कैसी। चाँद पाटील ने निराशा के स्वर में कहा क्या कहूँ मेरी एक घोड़ी थी, वह खो गई है और यह उसी की जीन है। 

फकीर बोले – थोड़ा नाले की ओर भी तो ढूँढो। चाँद पाटील नाले के समीप गये तो अपनी घोड़ी को वहाँ चरते देखकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि फकीर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, वरन् कोई उच्च कोटि का मानव दिखलाई पड़ता है। घोड़ी को साथ लेकर जब वे फकीर के पास लौटकर आये, तब तक चिलम भरकर तैयार हो चुकी थी। केवल दो वस्तुओं की और आवश्यकता रह गई थी। एक तो चिलम सुलगाने के लिये अग्नि और दितीय साफी को गीला करने के लिये जल की। फकीर ने अपना चिमटा भूमि में घुसेड़ कर ऊपर खींचा तो उसके साथ ही एक प्रज्वलित अंगारा बाहर निकला और वह अंगारा चिलम पर रखा गया। फिर फकीर ने सटके से ज्योंही बलपूर्वक जमीन पर प्रहार किया, त्योंही वहाँ से पानी निकलने लगा और उसने साफी को भिगोकर चिलम को लपेट लिया। इस प्रकार सब प्रबन्ध कर फकीर ने चिलम पी और तत्पश्चात् चाँद पाटील को भी दी। यह सब चमत्कार देखकर चाँद पाटील को बड़ा विस्मय हुआ। चाँद पाटील ने फकीर को अपने घर चलने का आग्रह किया। दूसरे दिन चाँद पाटील के साथ फकीर उनके घर चला गया। और वहाँ कुछ समय तक रहा। पाटील धूप ग्राम की अधिकारी था और बारात शिरडी को जाने वाली थी। इसलिये चाँद पाटील शिरडी को प्रस्थान करने का पूर्ण प्रबन्ध करने लगा। फकीर भी बारात के साथ ही गया। विवाह निर्विध्र समाप्त हो गया और बारात कुशलतापू्र्वक धूप ग्राम को लौट आई। परन्तु वह फकीर शिरडी में ही रुक गया और जीवनपर्यन्त वहीं रहा। 

फकीर को साई नाम कैसे प्राप्त हुआ



जब बारात शिरडी में पहुँची तो खंडोबा के मंदिर के समीप म्हालसापति के खेत में एक वृक्ष के नीचे ठहराई गई। खंडोबा के मंदिर के सामने ही सब बैलगाड़ियाँ खोल दी गई और बारात के सब लोग एक-एक करके नीचे उतरने लगे। तरुण फकीर को उतरते देख म्हालसापति ने आओ साई कहकर उनका अभिनन्दन किया तथा अन्य उपस्थित लोगों ने भी साई शब्द से ही सम्बोधन कर उनका आदर किया। इसके पश्चात वे साई नाम से ही प्रसिदृ हो गये। 

अन्त संतों से सम्पर्क 

शिरडी आने पर श्री साई बाबा मसजिद में निवास रहने लगे। बाबा के शिरडी में आने के पूर्व देवीदास नाम के एक सन्त अनेक वर्षों से वहाँ रहते थे। बाबा को वे बहुत प्रिय थे। वे उनके साथ कभी हनुमान मन्दिर में और कभी चावड़ी में रहते थे। कुछ समय के पश्चात् जानकीदास नाम के एक संत का भी शिरडी में आगमन हुआ। अब बाबा जानकीदास से वार्तालाप करने में अपना बहुत-सा समय व्यतीत करने लगे। जानकीदास भी कभी-कभी बाबा के स्थान पर चले आया करते थे और पुणताम्बे के श्री गंगागीर नामक एक पारिवारिक वैश्य संत भी बहुधा बाबा के पास आया-जाया करते थे। जब प्रथम बार उन्होंने श्री साई बाबा को बगीचा-सिंचन के लिये पानी ढोते देखा तो उन्हें बड़ा अचम्भा हुआ। वे स्पष्ट शब्दों में कहने लगे कि शिरडी परम भाग्यशालिनी है, जहाँ एक अमूल्य हीरा है। जिन्हें तुम इस प्रकार परिश्रम करते हुए देख रहे हो, वे कोई सामान्य पुरुष नहीं है। अपितु यह भूमि बहुत भाग्यशालिनी तथा महान् पुण्यभूमि है, इसी कारण इसे यह रत्न प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार श्री अक्कलकोटकर महाराज के एक प्रसिदृ शिष्य पधारे, उन्होंने भी स्पष्ट कहा कि यद्यपि बाहृदृष्टि से ये साधारण व्यक्ति जैसे प्रतीत होते है, परंतु ये सचमुच असाधारण व्यक्ति है। इसका तुम लोगों को भविष्य में अनुभव होगा। ऐसा कहकर वह येवला को लौट गये। यह उस समय की बात है, जब शिरडी बहुत ही साधारण-सा गाँव था और साई बाबा बहुत छोटी उम्र के थे। 

बाबा का रहन-सहन व नित्य कार्यक्रम 

तरुण अवस्था में श्री साई बाबा ने अपने केश कभी भी नहीं कटाये और वे सदैव एक पहलवान की तरह रहते थे। जब वे रहाता जाते (जो कि शिरडी से 3 मील दूर है)तो वहाँ से वे गेंदा, जाई और जुही के पौधे मोल ले आया करते थे। वे उन्हें स्वच्छ करके उत्तम भूमि खोदकर लगा देते और स्वंय सींचते थे। वामन तात्या नाम के एक भक्त इन्हें नित्य प्रति दो मिट्टी के घडे़ दिया करते थे। इन घड़ों दृारा बाबा स्वंय ही पौधों में पानी डाला करते थे। वे स्वंय कुएँ से पानी खींचते और संध्या समय घड़ों को नीम वृक्ष के नीचे रख देते थे। जैसे ही घड़े वहाँ रखते, वैसे ही वे फूट जाया करते थे, क्योंकि वे बिना तपाये और कच्ची मिट्टी का बने रहते थे। दूसरे दिन तात्या उन्हें फिर दो नये घड़े दे दिया करते थे। यह क्रम 3 वर्षों तक चला और श्री साई बाबा इसी स्थान पर बाबा के समाधि-मंदिर की भव्य इमारत शोभायमान है, जहाँ सहस्त्रों भक्त आते-जाते है। 

नीम वृक्ष के नीचे पादुकाओं की कथा



श्री अक्कलकोटकर महाराज के एक भक्त, जिनका नाम भाई कृष्ण जी अलीबागकर था, उनके चित्र का नित्य-प्रति पूजन किया करते थे। एक समय उन्होंने अक्कलकोटकर (शोलापुर जिला) जाकर महाराज की पादुकाओं का दर्शन एवं पूजन करने का निश्चय किया। परन्तु प्रस्थान करने के पूर्व अक्कलकोटकर महाराज ने स्वप्न में दर्शन देकर उनसे कहा कि आजकल शिरडी ही मेरा विश्राम-स्थल है और तुम वहीं जाकर मेरा पूजन करो। इसलिये भाई ने अपने कार्यक्रम में परिवर्तन कर शिरडी आकर श्री साईबाबा की पूजा की। वे आनन्दपूर्वक शिरडी में छः मास रहे और इस स्वप्न की स्मृति-स्वरुप उन्होंने पादुकायें बनवाई। शके सं. 1834 में श्रावण में शुभ दिन देखकर नीम वृक्ष के नीचे वे पादुकायें स्थापित कर दी गई। दादा केलकर तथा उपासनी महाराज ने उनका यथाविधि स्थापना-उत्सव सम्पन्न किया। एक दीक्षित ब्राहृमण पूजन के लिये नियुक्त कर दिया गया और प्रबन्ध का कार्य एक भक्त सगुण मेरु नायक को सौंप गया। 

कथा का पूर्ण विवरण 

ठाणे के सेवानिवृत मामलतदार श्री.बी.व्ही.देव जो श्री साईबाबा के एक परम भक्त थे, उन्होंने सगुण मेरु नायक और गोविंद कमलाकर दीक्षित से इस विषय में पूछताछ की। पादुकाओं का पूर्ण विवरण श्री साई लीला भाग 11, संख्या 1, पृष्ठ 25 में प्रकाशित हुआ है, जो निम्नलिखित है – शक 1834 (सन् 1912) में बम्बई के एक भक्त डाँ. रामराव कोठारे बाबा के दर्शनार्थ शिरडी आये। उनका कम्पाउंडर और उलके एक मित्र भाई कृष्ण जी अलीबागकर भी उनके साथ में थे। कम्पाउंडर और भाई की सगुण मेरु नायक तथा जी. के. दीक्षित से घनिष्ठ दोस्ती हो गई। अन्य विषयों पर विवाद करते समय इन लोगों को विचार आया कि श्री साई बाबा के शिरडी में प्रथम आगमन तथा पवित्र नीम वृक्ष के नीचे निवास करने की ऐतिहासिक स्मृति के उपलक्ष्य में क्यों न पादुकायें स्थापित की जायें। अब पादुकाओं के निर्माण पर विचार विमर्श होने लगा। तब भाई के मित्र कम्पाउंडर ने कहा कि यदि यह बात मेरे स्वामी कोठारी को विदित हो जाय तो वे इस कार्य के निमित्त अति सुन्दर पादुकायें बनवा देंगे। यह प्रस्ताव सबको मान्य हुआ और डॉ. कोठारे को इसकी सूचना दी गई। उन्होंने शिरडी आकर पादुकाओं की रुपरेखा बनाई तथा इस विषय में उपासनी महाराज से भी खंडोवा के मंदिर में भेंट की । उपासनी महाराज ने उस में बहुत से सुधार किये और कमल फूलादि खींच दिये तथा नीचे लिखा श्लोक भी रचा, जो नीम वृक्ष के माहात्म्य व बाबा की योगशक्ति का धोतक था, जो इस प्रकार है - 

सदा निंबवृक्षस्य मूलाधिवासात् 
सुधास्त्राविणं तित्तमप्यप्रियं तम्। 
तरुं कल्पवृक्षाधिकं साधयन्तं 
नमानीश्वरं सद्गगुरुं साईनाथम् ।। 

अर्थात् मैं भगवान साईनाथ को नमन करता हूँ, जिनका सानिध्य पाकर नीम वृक्ष कटु तथा अप्रिय होते हुए भी अमृत वर्षा करता था । (इस वृक्ष का रस अमृत कहलाता है) इसमें अनेक व्याधियों से मुक्ति देने के गुण होने के कारण इसे कल्पवृक्ष से भी श्रेष्ठ कहा गया है । 



उपासनी महाराज का विचार सर्वमान्य हुआ और कार्य रुप में भी परिणत हुआ। पादुकायें बम्बई में तैयार कराई गई और कम्पाउंडर के हाथ शिरडी भेज दी गई। बाबा की आज्ञानुसार इनकी स्थापना श्रावण की पूर्णिमा के दिन की गई। इस दिन प्रातःकाल 11 बजे जी.के. दीक्षित उन्हें अपने मस्तक पर धारण कर खंडोबा के मंदिर से बड़े समारोह और धूमधाम के साथ दृारका माई में लाये। बाबा ने पादुकायें स्पर्श कर कहा कि ये भगवान के श्री चरण है। इनकी नीम वृक्ष के नीचे स्थापना कर दो। इसके एक दिन पूर्व ही बम्बई के एक पारसी भक्त पास्ता शेट ने 25 रुपयों का मनीआर्डर भेजा। बाबा ने ये रुपये पादुकाओं की स्थापना के निमित्त दे दिये। स्थापना में कुल 100 रुपये हुये, जिनमें 75 रुपये चन्दे दृारा एकत्रित हुए। प्रथम पाँच वर्षों तक डॉ. कोठारे दीपक के निमित्त 2 रुपये मासिक भेजते रहे। उन्होंने पादुकाओं के चारों ओर लगाने के लिये लोहे की छडे़ भी भेजी। स्टेशन से छड़े ढोने और छप्पर बनाने का खर्च (7 रु. 8 आने) सगुण मेरु नायक ने दिये। आजकल जरबाड़ी (नाना पुजारी) पूजन करते है और सगुण मेरु नायक नैवेध अर्पण करते तथा संध्या को दीपक जलाते है। भाई कृष्ण जी पहले अक्कलकोटकर महाराज के शिष्य थे। अक्कलकोटकर जाते हुए, वे शक 1834 में पादुका स्थापन के शुभ अवसर पर शिरडी आये और दर्शन करने के पश्चात् जब उन्होंने बाबा से अक्कलकोटकर प्रस्थान करने की आज्ञा माँगी, तब बाबा कहने लगे, अरे अक्कलकोटकर में क्या है। तुम वहाँ व्यर्थ क्यों जाते हो। वहाँ के महाराज तो यही (मैं स्वयं) हैं यह सुनकर भाई ने अक्कलकोटकर जाने का विचार त्याग दिया। पादुकाएँ स्थापित होने के पश्चात् वे बहुधा शिरडी आया करते थे। श्री बी.व्ही, देव ने अंत में ऐसा लिखा है कि इन सब बातों का विवरण हेमाडपंत को विदित नहीं था। अन्यथा वे श्री साई सच्चरित्र में लिखना कभी नहीं भूलते। 

मोहिद्दीन तम्बोली के साथ कुश्ती और जीवन परिवर्तन 

शिरडी में एक पहलवान था, जिसका नाम मोहिद्दीन तम्बोली था। बाबा का उससे किसी विषय पर मतभेद हो गया। फलस्वरुप दोनों में कुश्ती हुई और बाबा हार गये। इसके पश्चात् बाबा ने अपनी पोशाक और रहन-सहन में परिवर्तन कर दिया। वे कफनी पहनते, लंगोट बाँधते और एक कपडे़ के टुकड़े से सिर ढँकते थे। वे आसन तथा शयन के लिये एक टाट का टुकड़ा काम में लाते थे। इस प्रकार फटे-पुराने चिथडे़ पहिन कर वे बहुत सन्तुष्ट प्रतीत होते थे। वे सदैव यही कहा करते थे कि गरीबी अब्बल बादशाही, अमीरी से लाख सवाई, गरीबों का अल्ला भाई। गंगागीर को भी कुश्ती से बड़ा अनुराग था। एक समय जब वह कुश्ती लड़ रहा था, तब इसी प्रकार उसको भी त्याग की भावना जागृत हो गई। इसी उपयुक्त अवसर पर उसे देव वाणी सुनाई दी भगवान के साथ खेल में अपना शरीर लगा देना चाहिये। इस कारण वह संसार छोड़ आत्म-अनुभूति की ओर झुक गया। पुणताम्बे के समीप एक मठ स्थापित कर वह अपने शिष्यों सहित वहाँ रहने लगा। श्री साई बाबा लोगों से न मिलते और न वार्तालाप ही करते थे। जब कोई उनसे कुछ प्रश्न करता तो वे केवल उतना ही उत्तर देते थे। दिन के समय वे नीम वृक्ष के नीचे विराजमान रहते थे। कभी-कभी वे गाँव की मेंड पर नाले के किनारे एक बबूल-वृक्ष की छाया में भी बैठे रहते थे। और संध्या को अपनी इच्छानुसार कहीं भी वायु-सेवन को निकल जाया करते थे। नीमगाँव में वे बहुधा बालासाहेब डेंगले के गृह पर जाया करते थे। बाबा श्री बालासाहेब को बहुत प्यार करते थे। उनके छोटे भाई, जिसका नाम नानासाहेब था, के दितीय विवाह करने पर भी उनको कोई संतान न थी। बालासाहेब ने नानासाहेब को श्री साई बाबा के दर्शनार्थ शिरडी भेजा। कुछ समय पश्चात उनकी श्री कृपा से नानासाहेब के यहाँ एक पुत्ररत्न हुआ। इसी समय से बाबा के दर्शनार्थ लोगों का अधिक संख्या में आना प्रारंभ हो गया तथा उनकी कीर्ति भी दूर दूर तक फैलने लगी। अहमदनगर में भी उनकी अधिक प्रसिदिृ हो गई। तभी से नानासाहेब चांदोरकर, केशव चिदम्बर तथा अन्य कई भक्तों की शिरडी में आगमन होने लगा। बाबा दिनभर अपने भक्तों से फिरे रहते और रात्रि में जीर्ण-शीर्ण मसजिद में शयन करते थे। इस समय बाबा के पास कुल सामग्री – चिलम, तम्बाखू, एक टमरेल, एक लम्बी कफनी, सिर के चारों ओर लपेट ने का कपड़ा और एक सटका था, जिसे वे सदा अपने पास रखते थे। सिर पर सफेद कपडे़ का एक टुकड़ा वे सदा इस प्रकार बाँधते थे कि उसका एक छोर बायें कान पर से पीठ पर गिरता हुआ ऐसा प्रतीत होता था, मानो बालों का जूड़ा हो। हफ्तों तक वे इन्हें स्वच्छ नहीं करते थे। पैर में कोई जूता या चप्पल भी नहीं पहनते थे। केवल एक टाट का टुकड़ा ही अधिकांश दिन में उनके आसन का काम देता था। वे एक कौपीन धारण करते और सर्दी से बचने के लिये दक्षिण मुख हो धूनी से तपते थे। वे धूनी में लकड़ी के टुकड़े डाला करते थे तथा अपना अहंकार, समस्त इच्छायें और समस्त कुविचारों को उसमें आहुति दिया करते थे। वे अल्लाह मालिक का सदा जिहृा से उच्चारण किया करते थे। जिस मसजिद में वे पधारे थे, उसमें केवल दो कमरों के बराबर लम्बी जगह थी और यहीं सब भक्त उनके दर्शन करते थे। सन् 1912 के पश्चात् कुछ परिवर्तन हुआ। पुरानी मसजिद का जीर्णोदार हो गया और उसमें एक फर्श भी बनाया गया। मसजिद में निवास करने के पूर्व बाबा दीर्घ काल तक तकिया में रहे। वे पैरों में घुँघरु बाँधकर प्रेमविहृल होकर सुन्दर नृत्य व गायन भी करते थे। 

जल का तेल में परिवर्तन



बाबा को प्रकाश से बड़ा अनुराग था। वे संध्या समय दुकानदारों से भिक्षा में तेल माँग लेते थे तथा दीपमालाओं से मसजिद को सजाकर, रात्रिभर दीपक जलाया करते थे। यह क्रम कुछ दिनों तक ठीक इसी प्रकार चलता रहा। अब बलिये तंग आ गये और उन्होंने संगठित होकर निश्चय किया कि आज कोई उन्हें तेल की भिक्षा न दे। नित्य नियमानुसार जब बाबा तेल माँगने पहुँचें तो प्रत्येक स्थान पर उनका नकारात्मक उत्तर से स्वागत हुआ। किसी से कुछ कहे बिना बाबा मसजिद को लौट आये और सूखी बत्तियाँ दियों में डाल दीं। बनिये तो बड़े उत्सुक होकर उन पर दृष्टि जमाये हुये थे। बाबा ने टमरेल उठाया, जिसमें बिलकुल थोड़ा सा तेल था। उन्होंने उसमें पानी मिलाया और वह तेल-मिश्रित जल वे पी गये। उन्होंने उसे पुनः टीनपाट में उगल दिया और वही तेलिया पानी दियों में डालकर उन्हें जला दिया। उत्सुक बिनयों ने जब दीपकों को पूर्ववत् रात्रि भर जलते देखा, तब उन्हें अपने कृत्य पर बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने बाबा से क्षमा-याचना की। बाबा ने उन्हें क्षमा कर भविष्य में सत्य व्यवहार रखने के लिये सावधान किया। 

मिथ्या गुरु जौहर अली 



उपयुक्त वर्णित कुश्ती के 5 वर्ष पश्चात जौहर अली नाम के एक फकीर अपने शिष्यों के साथ राहाता आये। वे वीरभद्र मंदिर के समीप एक मकान में रहने लगे। फकीर विदृान था। कुरान की आयतें उसे कंठस्थ थी। उसका कंठ मधुर था। गाँव के बहुत से धार्मिक और श्रदृालु जन उसके पास आने लगे और उसका यथायोग्य आदर होने लगा। लोगों से आर्थिक सहायता प्राप्त कर, उसने वीरभद्र मंदिर के पास एक ईदगाह बनाने का निश्चय किया। इस विषय को लेकर कुछ झगड़ा हो गया, जिसके फलस्वरुप जौहर अली राहाता छोड़ शिरडी आया और बाबा के साथ मसजिद में निवास करने लगा। उसने अपनी मधुर वाणी से लोगों के मन को हार लिया। वह बाबा को भी अपना एक शिष्य बताने लगा। बाबा ने कोई आपत्ति नहीं की और उसका शिष्य होना स्वीकार कर लिया। तब गुरु और शिष्य दोनों पुनः राहाता में आकर रहने लगे। गुरु शिष्य की योग्यता से अनभिज्ञ था, परंतु शिष्य गुरु के दोषों से पूर्ण से परिचित था। इतने पर भी बाबा ने कभी इसका अनादर नहीं किया और पूर्ण लगन से अपना कर्तव्य निबारते रहे और उसकी अनेक प्रकार से सेवा की। वे दोनों कभी-कभी शिरडी भी आया करते थे, परंतु मुख्य निवास राहाता में ही था। श्री बाबा के प्रेमी भक्तों को उनका दूर राहाता में ऱहना अच्छा नहीं लगता था। इसलिये वे सब मिलकर बाबा को शिरडी वापस लाने के लिये गये। इन लोगों की ईदगाह के समीप बाबा से भेंट हुई और उन्हें अपने आगमन का हेतु बतलाया। बाबा ने उन लोगों को समझाया कि फकीर बडे़ क्रोधी और दुष्ट स्वभाव के व्यक्ति है, वे मुझे नहीं छोडेंगे। अच्छा हो कि फकीर के आने के पूर्व ही आप लौट जाये। इस प्रकार वार्तालाप हो ही रहा था कि इतने में फकीर आ पहुँचे। इस प्रकार अपने शिष्य को वहाँ से न जाने के कुप्रत्यन करते देखकर वे बहुत ही क्रोध हुए। कुछ वादविवाद के पश्चात् स्थति में परिवर्तन हो गया और अंत में यह निर्णय हुआ कि फकीर व शिष्य दोनों ही शिरडी में निवास करें और इसीलिये वे शिरडी में आकर रहने लगे। कुछ दिनों के बाद देवीदास ने गुरु की परीक्षा की और उसमें कुछ कमी पाई। चाँद पाटील की बारात के साथ जब बाबा शिरडी आये और उससे 12 वर्ष पूर्व देवीदास लगभग 10 या 11 वर्ष की अवस्था में शिरडी आये और हनुमान मंदिर में रहते थे। देवीदास सुडौल, सुनादर आकृति तथा तीक्ष्ण बुदि के थे। वे त्याग की साक्षात्मूर्ति तथा अगाध ज्ञानी थे। बहुत-से सज्जन जैसे तात्या कोते, काशीनाथ व अन्य लोग, उन्हें अपने गुरु-समान मानते थे। लोग जौहर अली को उनके सम्मुख लाये। विवाद में जौहर अली बुरी तरह पराजित हुआ और शिरडी छोड़ वैजापूर को भाग गया। वह अनेक वर्षों के पश्चात शिरडी आया और श्री साईबाबा की चरण-वन्दना की। उसका यह भ्रम कि वह स्वयः गुरु था और श्री साईबाबा उसके शिष्य अब दूर हो चुका था। श्री साईबाबा उसे गुरु-समान ही आदर करते थे, उसका स्मरण कर उसे बहुत पश्चाताप हुआ। इस प्रकार श्री साईबाबा ने अपने प्रत्यक्ष आचरण से आदर्श उपस्थित किया कि अहंकार से किस प्रकार छुटकारा पाकर शिष्य के कर्तव्यों का पालन कर, किस तरह आत्मानुभव की ओर अग्रसर होना चाहिये। ऊपर वर्णित कथा म्हिलसापति के कथानुसार है। अगले अध्याय में रामनवमी का त्यौहार, मसजिद की पहली हालत एवं पश्चात् उसके जीर्णोंधार इत्यादि का वर्णन होगा। 

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

रविवार, 7 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 4 | SHIRDI SAI BABA | SAI SATHCHARITH-4

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 4

श्री साई बाबा का शिरडी में प्रथम आगमन 

सन्तों का अवतार कार्य, पवित्र तीर्थ शिरडी, श्री साई बाबा का व्यक्तित्व, गौली बुवा का अनुभव, श्री विट्ठल का प्रगट होना, क्षीरसागर की कथा, दासगणु का प्रयाग-स्नान, श्री साई बाबा का शिरडी में प्रथम आगमन, तीन वाडे़।

सन्तों का अवतार कार्य 



भगवद्गीता (चौथा अध्याय 7-8) में श्री कृष्ण कहते है कि जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होता है, तब-तब मैं अवतार धारण करता हूँ। धर्म-स्थापन दुष्टों का विनाश तथा साधुजनों के परित्राण के लिये मैं युग-युग में जन्म लेता हूँ। साधु और संत भगवान के प्रतिनिधि स्वरुप है। वे उपयुक्त समय पर प्रगट होकर अपनी कार्यप्रणाली दृारा अपना अवतार-कार्य पूर्ण करते है। अर्थात् जब ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य अपने कर्तव्यों में विमुख हो जाते है, जब शूद्र उच्च जातियों के अधिकार छीनने लगते है, जब धर्म के आचार्यों का अनादर तथा निंदा होने लगती है, जब धार्मिक उपदेशों की उपेक्षा होने लगती है, जब प्रत्येक व्यक्ति सोचने लगता है कि मुझसे श्रेष्ठ विदृान दूसरा नहीं है, जब लोग निषिदृ भोज्य पदार्थों और मदिरा आदि का सेवन करने लगते है, जब धर्म की आड़ में निंदित कार्य होने लगते है, जब भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बी परस्पर लड़ने लगते है, जब ब्राहमण संध्यादि कर्म छोड़ देते है, कर्मठ पुरुषों को धार्मिक कृत्यों में अरुचि उत्पन्न हो जाती है, जब योगी ध्यानादि कर्म करना छोड़ देते हें और जब जनसाधारण की ऐसी धारणा हो जाती है कि केवल धन, संतान और स्त्री ही सर्वस्व है तथा इस प्रकार जब लोग सत्य-मार्ग से विचलित होकर अधःपतन की ओर अग्रसर होने लगते है, तब संत प्रगट होकर अपने उपदेशों एवं आचरण के दृारा धर्म की संस्थापन करते हैं। वे समुद्र की तरह हमारा उचित मार्गदर्शन करते तथा सत्य पथ पर चलने को प्रेरित करते है। इसी मार्ग पर अनेकों संत-निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव, मुक्ताबाई, नामदेव, गोरा, गोणाई, एकनाथ, तुकाराम, नरहरि, नरसी भाई, सजन कसाई, सावंत माली और रामदास तथा कई अन्य संत सत्य-मार्ग का दिग्दर्शन कराने के हेतु भिन्न-भिन्न अवसरों पर प्रकट हुए और इन सब के पश्चात शिरडी में श्री साई बाबा का अवतार हुआ। 

पवित्र तीर्थ शिरडी 



अहमदनगर जिले में गोदावरी नदी के तट बड़े ही भाग्यशाली है, जिन पर अनेक संतों ने जन्म धारण किया और अनेकों ने वहाँ आश्रय पाया। ऐसे संतों में श्री ज्ञानेश्रर महाराज प्रमुख थे। शिरडी, अहमदनगर जिले के कोपरगाँव तालुका में है। गोदावरी नदी पार करने के पश्चात मार्ग सीधा शिरडी को जाता है। आठ मील चलने पर जब नीमगाँव पहुँचेंगे तो वहाँ से शिरडी दृष्टिगोचर होने लगती है। कृष्णा नदी के तट पर अन्य तीर्थस्थान गाणगापूर, नरसिंहवाडी और औदुम्बर के समान ही शिरडी भी प्रसिदृ तीर्थ है। जिस प्रकार दामाजी ने मंगलवेढ़ा को (पंढरपुर के समीर), समर्थ रामदास ने सज्जनगढ़ को, दत्तावतार श्रीनरसिंह सरस्वती ने वाड़ी को पवित्र किया, उसी प्रकार श्री साईनाथ ने शिरडी में अवतीर्ण होकर उसे पावन बनाया। 

श्री साई बाबा का व्यक्तित्व



श्री साई बाबा के सानिध्य से शिरडी का महत्व विशेष बढ़ गया। अब हम उनके चरित्र का अवलोकन करेंगे। उन्होंने इस भवसागर पर विजय प्राप्त कर ली थी, जिसे पार करना महान् दुष्कर तथा कठिन है। शांति उनका आभूषण था तथा वे ज्ञान की साक्षात प्रतिमा थे। वैष्णव भक्त सदैव वहाँ आश्रय पाते थे। दानवीरों में वे राजा कर्ण के समान दानी थे। वे समस्त सारों के साररुप थे। ऐहिक पदार्थों से उन्हें अरुचि थी। सदा आत्मस्वरुप में निमग्न रहना ही उनके जीवन का मुख्य ध्येय था। अनित्य वस्तुओं का आकर्षण उन्हें छू भी नहीं गयी थी। उनका हृदय शीशे के सदृश उज्जवल था। उनके श्री-मुख से सदैव अमृत वर्षा होती थी। अमीर और गरीब उनके लिय दोंनो एक समान थे। मान-अपमान की उन्हें किंचितमात्र भी चिंता न थी। वे निर्भय होकर सम्भाषण करते, भाँति-भाँति के लोंगो से मिलजुलकर रहते, नर्त्तिकियों का अभिनय तथा नृत्य देखते और भजन-कव्वालियाँ भी सुनते थे। इतना सब करते हुए भी उनकी समाधि किंचितमात्र भी भंग न होती थी। अल्लाह का नाम सदा उनके ओठों पर था। जब दुनिया जागती तो वे सोते और जब दुनिया सोती तो वे जागते थे। उनका अन्तःकरण प्रशान्त महासागर की तरह शांत था। न उनके आश्रम का कोई निश्चय कर सकता था और न उनकी कार्यप्रणाली का अन्त पा सकता था। कहने के लिये तो वे एक स्थान पर निवास करते थे, परंतु विश्व के समस्त व्यवहारों व व्यापारों का उन्हें भली-भाँति ज्ञान था। उनके दरबार का रंग ही निराला था। वे प्रतिदिन अनेक किवदंतियाँ कहते थे, परंतु उनकी अखंड शांति किंचितमात्र भी विचलित न होती थी। वे सदा मसजिद की दीवार के सहारे बैठे रहते थे तथा प्रातः, मध्याहृ और सायंकील लेंडी और चावड्ड़ी की ओर वायु-सेवन करने जाते तो भी सदा आत्मस्थित ही रहते थे। स्वतः सिदृ होकर भी वे साधकों के समान आचरण करते थे। वे विनम्र, दयालु तथा अभिमान रहित थे। उन्होंने सबको सदा सुख पहुँचाया। ऐसे थे श्री साईबाबा, जिनके श्री-चरणों का स्पर्श कर शिरडी पावन बन गई। उसका महत्व असाधारण हो गया। जिस प्रकार ज्ञानेश्वर ने आलंदी और एकनाथ ने पैठण का उत्थान किया, वही गति श्री साईबाबा दृारा शिरडी को प्राप्त हुई। शिरडी के फूल, पत्ते, कंकड़ और पत्थर भी धन्य है, जिन्हें श्री साई चरणाम्बुजों का चुम्बन तथा उनकी चरण-रज मस्तक पर धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भक्तगण को शिरडी एक दूसरा पंढरीपुर, जगत्राथपुरी, दृारका, बनारस (काशी), महाकालेश्वर तथा गोकर्ण महाबलेश्वर बन गई। श्री साई का दर्शन करना ही भक्तों का वेदमंत्र था, जिसके परिणामस्वरुप आसक्ति घटती और आत्म दर्शन का पथ सुगम होता था। उनका श्री दर्शन ही योग-साधन था और उनसे वार्तालाप करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते थे। उनका पादसेवन करना ही त्रिवेणी (प्रयाग) स्नान के समान था तथा चरणामृत पान करने मात्र से ही समस्त इच्छाओं की तृप्ति होती थी। उनकी आज्ञा हमारे लिये वेद सदृश थी। प्रसाद तथा उदी ग्रहण करने से चित्त की शुदृि होती थी। वे ही हमारे राम और कृष्ण थे, जिन्होंने हमें मुक्ति प्रदान की, वे ही हमारे परब्रहमा थे। वे छन्दों से परे रहते तथा कभी निराश व हताश नहीं होते थे। वे सदा आत्म-स्थित, चैतन्यधन तथा आनन्द की मंगलमूर्ति थे। कहने को तो शिरडी उनका मुख्य केन्द्र था, परन्तु उनका कार्यक्षेत्र पंजाब, कलकत्ता, उत्तरी भारत, गुजरात, ढाका और कोकण तक विस्तृत था। श्री साईबाबा की कीर्ति दिन-प्रतिदिन चहुँ ओर फैलने लगी और जगह-जगह से उनके दर्शनार्थ आकर भक्त लाभ उठाने लगे। केवल दर्शन से ही मनुष्यों, चाहे वे शुदृ अथवा अशुदृ हृदय के हों, उनके चित्त को परम शांति मिल जाती थी। उन्हें उसी आनन्द का अनुभव होता था, जैसा कि पंढरीपुर में श्री विट्ठल के दर्शन से होता है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। दोखिये, एक भक्त ने यही अनुभव पाया है – 

गौली बुवा 



लगभग 95 वर्ष के वयोवृदृ भक्त, जिनका नाम गौली बुवा था, पंढरी के एक वारकरी थे। वे 8 मास पंढरीपुर तथा 4 मास (आषाढ़ से कार्तिक तक) गंगातट पर निवास करते थे। सामान ढोने के लिये वे एक गधे को अपने पास रखते और एक शिष्य भी सदैव उनके साथ रहता था। वे प्रतिवर्ष वारी लेकर पंढरीपुर जाते और लौटते समय श्री बाबा के दर्शनार्थ शिरडी आते थे। बाबा पर उनका अगाध प्रेम था। वे बाब की ओर एक टक निहारते और कह उठते थे कि ये तो श्री पंढरीनाथ, श्री विट्ठल के अवतार है, जो अनाथ-नाथ, दीन दयालु और दीनों के नाथ है। गौली बुवा श्री विठोबा के परम भक्त थे। उन्होंने अनेक बार पंढरी की यात्रा की तथा प्रत्यक्ष अनुभव किया कि श्री साई बाबा सचमुच में ही पंढरीनाथ हैं। 

विट्ठल स्वयं प्रकट हुए 

श्री साई बाबा की ईश्वर-चिंतन और भजन में विशेष अभिरुचि थी। वे सदैव अल्लाह मालिक पुकारते तथा भक्तों से कीर्तन-सप्ताह करवाते थे। इसे नामसप्ताह भी कहते है। एक बार उन्होंने दासगणू को कीर्तन-सप्ताह करने की आज्ञा दी। दासगणू ने बाबा से कहा कि आपकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है, परन्तु इस बात का आश्वासन मिलना चाहिये कि सप्ताह के अंत में विट्ठल भगवान् अवश्य प्रगट होंगे। बाबा ने अपना हृदय स्पर्श करते हुए कहा कि विट्ठल अवश्य प्रगट होंगे। परन्तु साथ ही भक्तों मे श्रदृा व तीव्र उत्सुकता का होना भी अनिवार्य है। ठाकुर नाथ की डंकपुरी, विट्ठल की पंढरी, पणछोड़ की दृारका यहीं तो है। किसी को दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। क्या विट्ठल कहीं बाहर से आयेंगे। वे तो यहीं विराजमान हैं। जब भक्तों में प्रेम और भक्ति का स्त्रोत प्रवारित होगा तो विट्ठल स्वयं ही यहाँ प्रगट हो जायेंगे। 

सप्ताह समाप्त होने के बाद विट्ठल भगवान इस प्रकार प्रकट हुए। काकासाहेब दीक्षित  स्नान करने के पश्चात जब ध्यान करने को बैठे तो उन्हें विट्ठल के दर्शन हुए। दोपहर के समय जब वे बाबा के दर्शनार्थ मसजिद पहुँचे तो बाबा ने उनसे पूछा क्यों विट्ठल पाटील आये थे न। क्या तुम्हें उनके दर्शन हुए। वे बहुत चंचल हैं। उनको दृढ़ता से पकड़ लो। यदि थोडी भी असावधानी की तो वे बचकर निकल जायेंगे। यह प्रातःकाल की घटना थी और दोपहर के समय उन्हें पुनः दर्शन हुए। उसी दिन एक चित्र बेचने वाला विठोबा के 25-30 चित्र लेकर वहाँ बेचने को आया। यह चित्र ठीक वैसा ही था, जैसा कि काकासाहेब दीक्षित को ध्यान में दर्शन हुए थे। चित्र देखकर और बाबा के शब्दों का स्मरण कर काकासाहेब को बड़ा विस्मय और प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक चित्र सहर्ष खरीद लिया और उसे अपने देवघर में प्रतिष्ठित कर दिया। 



ठाणा के अवकाशप्राप्त मालतदार श्री. बी.व्ही.देव ने अपने अनुसंधान के दृारा यह प्रमाणित कर दिया है कि शिरडी पंढरीपुर की परिधि में आती है। दक्षिण में पंढरीपुर श्री कृष्ण का प्रसिदृ स्थान है, अतः शिरडी ही दृारका है। (साई लीला पत्रिका भाग 12, अंक 1,2,3 के अनुसार) 

दृारका की एक और व्याख्या सुनने में आई है, जो कि के.नारायण अय्यर दृारा लिखित भारतवर्ष का स्थायी इतिहास में स्कन्दपुराण (भाग 2, पृष्ठ 90) से उदृत की गई है। वह इस प्रकार है – 

“चतुर्वर्णामपि वर्गाणां यत्र द्घराणि सर्वतः ।
अतो दृारवतीत्युक्ता विद़दि्भस्तत्ववादिभिः ।।“

जो स्थान चारों वर्णों के लोगों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिये सुलभ हो, दार्शनिक लोग उसे दृारका के नाम से पुकारते है। शिरडी में बाबा की मसजिद केवल चारों वर्णों के लिये ही नहीं, अपितु दलित, अस्पृश्य और भागोजी सिंदिया जैसे कोढ़ी आदि सब के लिये खुली थी। अतः शिरडी को दृारका कहना सर्वथा उचित है। 

भगवंतराव क्षीरसागर की कथा

श्री विट्ठल पूजन में बाबा को कितनी रुचि थी, यह भगवंतराव क्षीरसागर की कथा से सपष्ट है। भगवंतराव को पिता विठोबा के परम भक्त थे, जो प्रतिवर्ष पंढरीपुर को वारी लेकर जाते थे। उनके घर में एक विठोबा की मूर्ति थी, जिसकी वे नित्यप्रति पूजा करते थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र भगवंतराव ने वारी, पूजन श्रादृ इत्यादि समस्त कर्म करना छोड़ दिया। जब भगवंतराव शिरडी आये तो बाबा उन्हें देखते ही कहने लगे कि इनके पिता मेरे परम मित्र थे। इसी कारण मैंने इन्हें यहाँ बुलाया हैं। इन्होंने कभी नैवेध अर्पण नहीं किया तथा मुझे और विठोबा को भूखों मारा है। इसलिये मैंने इन्हें यहाँ आने को प्रेरित किया है। अब मैं इन्हें हठपूर्वक पूजा में लगा दूँगा। 

दासगणू का प्रयाग स्नान

गंगा और यमुना नदी के संगम पर प्रयाग एक प्रसिदृ पवित्र तीर्थस्थान है। हिन्दुओं की ऐसी भावना है कि वहाँ स्नानादि करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते है। इसी कारण प्रत्येक पर्व पर सहस्त्रों भक्तगण वहाँ जाते है और स्नान का लाभ उठाते है। एक बार दासगणू ने भी वहाँ जाकर स्नान करने का निश्चय किया। इस विचार से वे बाबा से आज्ञा लेने उनके पास गये। बाबा ने कहा कि इतनी दूर व्यर्थ भटकने की क्या आवष्यकता है। अपना प्रयाग तो यहीं है। मुझ पर विश्वास करो। आश्चर्य! महान् आश्चर्य! जैसे ही दासगणू बाबा के चरणों पर नत हुए तो बाबा के श्री चरणों से गंगा-यमुना की धारा वेग से प्रवाहित होने लगी। यह चमत्कार देखकर दासगणू का प्रेम और भक्ति उमड़ पड़ी। आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। उन्हें कुछ अंतःस्फूर्ति हुई और उनके मुख से श्री साई बाबा की स्त्रोतस्विनी स्वतःप्रवाहित होने लगी। 

श्री साई बाबा की शिरडी में प्रथम आगमन



श्री साई बाबा के माता पिता, उनके जन्म और जन्म-स्थान का किसी को भी ज्ञान नहीं है। इस सम्बन्ध में बहुत छानबीन की गई। बाबा से तथा अन्य लोगों से भी इस विषय में पूछताछ की गई, परन्तु कोई संतोषप्रद उत्तर अथवा सूत्र हाथ न लग सका। यथार्थ में हम लोग इस विषय में सर्वथा अनभिज्ञ हैं। नामदेव और कबीरदास जी का जन्म अन्य लोगों की भाँति नहीं हुआ था। वे बाल-रुप में प्रकृति की गोद में पाये गये थे। नामदेव भीमरथी नदी के तीर पर गोनाई को और कबीर भागीरथी नदी के तीर पर तमाल को पड़े हुए मिले थे और ऐसा ही श्री साई बाबा के सम्बन्ध में भी था। वे शिरडी में नीम-वृक्ष के तले सोलह वर्ष की तरुणावस्था में स्वयं भक्तों के कल्याणार्थ प्रकट हुए थे। उस समय भी वे पूर्ण ब्रहृज्ञानी प्रतीत होते थे। स्वप्न में भी उनको किसी लौकिक पदार्थ की इच्छा नहीं थी। उन्होंने माया को ठुकरा दिया था और मुक्ति उनके चरणों में लौटता थी। शिरडी ग्राम की एक वृदृ स्त्री नाना चोपदार की माँ ने उनका इस प्रकार वर्णन किया है - एक तरुण, स्वस्थ, फुर्तीला तथा अति रुपवान बालक सर्वप्रथम नीम वृक्ष के नीचे समाधि में लीन दिखाई पड़ा। सर्दी व गर्मी की उन्हें किंचितमात्र भी चिंता न थी। उन्हें इतनी अल्प आयु में इस प्रकार कठिन तपस्या करते देखकर लोगों को महान् आश्चर्य हुआ। दिन में वे किसी से भेंट नहीं करते थे और रात्रि में निर्भय होकर एकांत में घूमते थे। लोग आश्चर्यचकित होकर पूछते फिरते थे कि इस युवक का कहाँ से आगमन हुआ है। उनकी बनावट तथा आकृति इतनी सुन्दर थी कि एक बार देखने मात्र के ही लोग आकर्षित हो जाते थे। वे सदा नीम वृक्ष के नीचे बैठे रहते थे और किसी के दृार पर न जाते थे। यद्यपि वे देखने में युवक प्रतीत होते थे, परन्तु उनका आचरण महात्माओं के सदृश था। वे त्याग और वैराग्य की साक्षात प्रतिमा थे। एक बार एक आश्चर्यजनक घटना हुई। एक भक्त को भगवान खंडोबा का संचार हुआ। लोगों ने शंका-निवारणार्थ उनसे प्रश्न किया कि हे देव कृपया बतलाइये कि ये किस भाग्यशाली पिता की संतान है और इनका कहाँ से आगमन हुआ है। भगवान खंडोबा ने एस कुदाली मँगवाई और एक निर्दिष्ट स्थान पर खोदने का संकेत किया। जब वह स्थान पूर्ण रुप से खोदा गया तो वहाँ एक पत्थर के नीचे ईंटें पाई गई। पत्थर को हटाते ही एक दृार दिखा, जहाँ चार दीप जल रहे थे। उन दरवाजों का मार्ग एक गुफा में जाता था, जहाँ गौमुखी आकार की इमारत, लकड़ी के तखते, मालाऐं आदि दिखाई पड़ी। भगवान खंडोबा कहने लगे कि इस युवक ने इस स्थान पर बारह साल तपस्या की है। तब लोग युवक से प्रश्न करने लगे। परंतु उसने यह कहकर बात टाल दी कि यह मेरे श्री गुरुदेव की पवित्र भूमि है तथा मेरा पूज्य स्थान है और लोगों से उस स्थान की भली-भांति रक्षा करने की प्रार्थना की। तब लोगों ने उस दरवाजे को पूर्ववत् बन्द कर दिया। जिस प्रकार अश्वत्थ औदुम्बर वृक्ष पवित्र माने जाते है, उसी प्रकार बाबा ने भी इस नीम वृक्ष को उतना ही पवित्र माना और प्रेम किया। म्हालसापति तथा शिरडी के अन्य भक्त इस स्थान को बाबा के गुरु का समाधि-स्थान मानकर सदैव नमन किया करते थे। 

तीन वाडे़ 



नीम वृक्ष के आसपास की भूमि श्री हरी विनायक साठे ने मोल ली और उस स्थान पर एक विशाल भवन का निर्माण किया, जिसका नाम साठे-वाड़ा रखा गया। बाहर से आने वाले यात्रियों के लिये वह वाड़ा ही एकमात्र विश्राम स्थान था, जहाँ सदैव भीड़ रहा करती थी। नीम वृक्ष के नीचे चारों ओर चबूतरा बाँधा गया। सीढ़ियों के नीचे दक्षिण की ओर एक छोटा सा मन्दिर है, जहाँ भक्त लोग चबूतरे के ऊपर उत्तराभिमुख होकर बैठते है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि जो भक्त गुरुवार तथा शुक्रवार की संध्या को वहाँ धूप, अगरबत्ती आदि सुगन्धित पदार्थ जलाते है, वे ईश-कृपा से सदैव सुखी होंगे। यह वाड़ा बहुत पुराना तथा जीर्ण-शीर्ण स्थिति में था तथा इसके जीर्णोंदृार की नितान्त आवश्यकता थी, जो संस्थान दृारा पूर्ण कर दी गई। कुछ समय के पश्चात एक दितीय वाड़े का निर्माण हुआ, जिसका नाम दीक्षित-वाड़ा रखा गया। काकासाहेब दीक्षित, कानूनी सलाहकार जब इंग्लैंड में थे, तब वहाँ उन्हें किसी दुर्घटना से पैर में चोट आ गई थी। उन्होंने अनेक उपचार किये, परंतु पैर अच्छा न हो सका। नानासाहेब चाँदोरकर ने उन्हें बाबा की कृपा प्राप्त करने का परामर्श दिया। इसलिये उन्होंने सन् 1909 में बाबा के दर्शन किये। उन्होंने बाबा से पैर के बदले अपने मन की पंगुता दूर करने की प्रार्थना की। बाबा के दर्शनों से उन्हें इतना सुख प्राप्त हुआ कि उन्होंने स्थायी रुप से शिरडी में रहना स्वीकार कर लिया और इसी कारण उन्होंने अपने तथा भक्तों के हेतु एक वाड़े का निर्माण कराया। इस भवन का शिलान्यास दिनांक 9-12-1910 को किया गया। उसी दिन अन्य दो विशेष घटनाएँ घटित हुई – 

1. श्री दादासाहेब खापर्डे को घर वापस लौटने की अनुमति प्राप्त हो गई और 

2. चावड़ी में रात्रि को आरती आरम्भ हो गई। कुछ समय में वाड़ा सम्पूर्ण रुप से बन गया और श्रीरामनवमी (1911) के शुभ अवसर पर उसका यथाविधि उद्घाटन कर दिया गया। इसके बाद एक और वाड़ा-मानो एक शाही भवन-नागपुर के प्रसिदृ श्रीमंत बूटी ने बनवाया। इस भवन के निर्माण में बहुत धनराशि लगाई गई। उनकी समस्त निधि सार्थक हो की, क्योंकि बाबा का शरीर अब वहीं विश्रान्ति पा रहा है और फिलहाल वह समाधि मंदिर के नाम से विख्यात है इस मंदिर के स्थान पर पहले एक बगीचा था, जिसमें बाबा स्वयं पौधौ को सींचते और उनकी देखभाल किया करते थे। जहाँ पहले एक छोटी सी कुटी भी नहीं थी, वहाँ तीन-तीन वाड़ों का निर्माण हो गया। इन सब में साठे-वाड़ा पूर्वकाल में बहुत ही उपयोगी था। 

बगीचे की कथा, वामन तात्या की सहायता से स्वयं बगीचे की देखभाल, शिरडी से श्री साई बाबा की अस्थायी अनुपस्थिति तथा चाँद पाटील की बारात में पुनः शिरडी में लौटना, देवीदास, जानकीदास और गंगागीर की संगति, मोहिद्दीन तम्बोली के साथ कुश्ती, मसजिद सें निवास, श्री डेंगने व अन्य भक्तों पर प्रेम तथा अन्य घटनाओं का अगले अध्याय में वर्णन किया गया है। 

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

शनिवार, 6 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 3 | SHIRDI SAI BABA | SAI SATHCHARITH-3

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 3

श्री साईंबाबा की स्वीकृति, 
आज्ञा और प्रतीज्ञा, 
भक्तों को कार्य समर्पण, 
बाबा की लीलाएँ ज्योतिस्तंभ स्वरुप, 
मातृप्रेम–रोहिला की कथा, 
उनके मधुर अमृतोपदेश 

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श्री साईंबाबा की स्वीकृति और वचन देना 



जैसा कि गत अध्याय में वर्णन किया जा चुका है, बाबा ने सच्चरित्र लिखने की अनुमति देते हुए कहा कि सच्चरित्र लेखन के लिये मेरी पूर्ण अनुमति है। तुम अपना मन स्थिर कर, मेरे वचनों में श्रदृा रखो और निर्भय होकर कर्त्तव्य पालन करते रहो। यदि मेरी लीलाएँ लिखी गई तो अविग्न का नाश होगा तथा ध्यान व भक्तिपूर्वक श्रवण करने से, दैहिक बुदि नष्ट होकर भक्ति और प्रेम की तीव्र लहर प्रवाहित होगी और जो इन लीलाओं की अधिक गहराई तक खोज करेगा, उसे ज्ञानरुपी अमूल्य रत्न की प्राप्ति हो जायेगी । 

इन वचनों को सुनकर हेमाडपंत को अति हर्ष हुआ और वे निर्भय हो गये । उन्हें दृढ़ विश्वास हो गया कि अब कार्य अवश्य ही सफल होगा । 

बाबा ने शामा की ओर दृष्टिपात कर कहा – जो, प्रेमपूर्वक मेरा नामस्मरण करेगा, मैं उसकी समस्त इच्छायें पूर्ण कर दूँगा। उसकी भक्ति में उत्तरोत्तर वृदिृ होगी। जो मेरे चरित्र और कृत्यों का श्रदृापूर्वक गायन करेगा, उसकी मैं हर प्रकार से सदैव सहायता करुँगा। जो भक्तगण हृदय और प्राणों से मुझे चाहते है, उन्हें मेरी कथाऐं श्रवण कर स्वभावतः प्रसन्नता होगी। विश्वास रखो कि जो कोई मेरी लीलाओं का कीर्तन करेगा, उसे परमानन्द और चिरसन्तोष की उपलबि्ध हो जायेगी। यह मेरा वैशिष्टय है कि जो कोई अनन्य भाव से मेरी शरण आता है, जो श्रदृापूर्वक मेरा पूजन, निरन्तर स्मरण और मेरा ही ध्यान किया करता है, उसको मैं मुक्ति प्रदान कर देता हूँ। 

जो नित्यप्रति मेरा नामस्मरण और पूजन कर मेरी कथाओं और लीलाओं का प्रेमपूर्वक मनन करते है, ऐसे भक्तों में सांसारिक वासनाएँ और अज्ञानरुपी प्रवृत्तियाँ कैसे ठहर सकती है। मैं उन्हें मृत्यु के मुख से बचा लेता हूँ।

मेरी कथाऐं श्रवण करने से मूक्ति हो जायेगी। अतः मेरी कथाओं श्रदृापूर्वक सुनो, मनन करो तो सुख और सन्तोष-प्राप्ति का सरल मार्ग ही यही है। इससे श्रोताओं के चित्त को शांति प्राप्त होगी और जब ध्यान प्रगाढ़ और विश्वास दृढ़ हो जायगा, तब अखोड चैतन्यधन से अभिन्नता प्राप्त हो जाएगी। केवल साई साई के उच्चारणमात्र से ही उनके समस्त पाप नष्ट हो जाएगें। 

भिन्न भिन्न कार्यों की भक्तों को प्रेरणा



भगवान अपने किसी भक्त को मन्दिर, मठ, किसी को नदी के तीर पर घाट बनवाने, किसी को तीर्थपर्यटन करने और किसी को भगवत् कीर्तन करने एवं भिन्न भिन्न कार्य करने की प्रेरणा देते है। परंतु उन्होंने मुझे साई सच्चरित्र-लेखन की प्रेरणा की। किसी भी विधा का पूर्ण ज्ञान न होने के कारण मैं इस कार्य के लिये सर्वथा अयोग्य था। अतः मुझे इस दुष्कर कार्य का दुस्साहस क्यों करना चाहिये। श्री साई महाराज की यथार्थ जीवनी का वर्णन करने की सामर्थ किसे है। उनकी कृपा मात्र से ही कार्य सम्पूर्ण होना सम्भव है। इसीलिये जब मैंने लेखन प्रारम्भ किया तो बाबा ने मेरा अहं नष्ट कर दिया और उन्हेंने स्वयं अपना चरित्र रचा। अतः इस चरित्र का श्रेय उन्हीं को है, मुझे नही। 

जन्मतः ब्राहमण होते हुए भी मैं दिव्य चक्षु-विहीन था, अतः साई सच्चरित्र लिखने में सर्वथा अयोग्य था। परन्तु श्री हरिकृपा से क्या सम्भव ही है। मूक भी वाचाल हो जाता है और पंगु भी गिरिवर चढ़ जाता है। अपनी इच्छानुसार कार्य पूर्ण करने की युक्ति वे ही जानें। हारमोनियम और बंसी को यह आभास कहाँ कि ध्वनि कैसे प्रसारित हो रही है। इसका ज्ञान तो वादक को ही है। चन्द्रकांतमणि की उत्पत्ति और ज्वार भाटे का रहम्य मणि अथवा उदधि नहीं, वरन् शशिकलाओं के घटने-बढने में ही निहित है। 

बाबा का चरित्रः ज्योतिस्तंभ स्वरुप



समुद्र में अनेक स्थानों पर ज्योतिस्तंभ इसलिये बनाये जाते है, जिससे नाविक चट्टानों और दुर्घटनाओं से बच जायें और जहाज का कोई हानि न पहुँचे। इस भवसागर में श्री साई बाबा का चरित्र ठीक उपयुक्त भाँति ही उपयोगी है। वह अमृत से भी अति मधुर और सांसारिक पथ को सुगम बनाने वाला है। जब वह कानों के दृारा हृदय में प्रवेश करता है, तब दैहिक बुद्धि नष्ट हो जाती है और हृदय में एकत्रित करने से, समस्त कुशंकाएँ अदृश्य हो जाती है। अहंकार का विनाश हो जाता है तथा बौदिृक आवरण लुप्त होकर ज्ञान प्रगट हो जाता है। बाब की विशुद्ध कीर्ति का वर्णन निष्ठापूर्वक श्रवण करने से भक्तों के पाप नष्ट होंगे। अतः यह मोक्ष प्राप्ति का भी सरल साधन है। सत्ययुग में शम तथा दम, त्रेता में त्याग, दृापर में पूजन और कलियुग में भगवत्कीर्तन ही मोक्ष का साधन है। यह अन्तिम साधन, चारों वर्णों के लोगों को साध्य भी है। अन्य साधन, योग, त्याग, ध्यान-धारणा आदि आचरण करने में कठिन है, परंतु चरित्र तथा हरिकीर्तन का श्रवण और कीर्तन से इन्द्रियों की स्वाभाविक विषयासक्ति नष्ट हो जाती है और भक्त वासना-रहित होकर आत्म साक्षात्कार की ओर अग्रसर हो जाता है । इसी फल को प्रदान करने के हेतु उन्होंने सच्चरित्र का निर्माण कराया। भक्तगण अब सरलतापूर्वक चरित्र का अवलोकन करें और साथ ही उनके मनोहर स्वरुप का ध्यान कर, गुरु और भगवत्-भक्ति के अधिकारी बनें तथा निष्काम होकर आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हों। साईं सच्चरित्र का सफलतापूर्वक सम्पूर्ण होना, यह साई-महिमा ही समझें, हमें तो केवल एक निमित्त मात्र ही बनाया गया है । 

मातृप्रेम 



गाय का अपने बछडे़ पर प्रेम सर्वविदित ही है। उसके स्तन सदैव दुग्ध से पूर्ण रहते हैं और जब भुखा बछड़ा स्तन की ओर दौड़कर आता है तो दुग्ध की धारा स्वतः प्रवाहित होने लगती है। उसी प्रकार माता भी अपने बच्चे की आवश्यकता का पहले से ही ध्यान रखती है और ठीक समय पर स्तनपान कराती है। वह बालक का श्रृंगार उत्तम ढ़ंग से करती है, परंतु बालक को इसका कोई ज्ञान ही नहीं होता। बालक के सुन्दर श्रृंगारादि को देखकर माता के हर्ष का पारावार नहीं रहता। माता का प्रेम विचित्र, असाधारण और निःस्वार्थ है, जिसकी कोई उपमा नही है। ठीक इसी प्रकार सद्गगुरु का प्रेम अपने शिष्य पर होता है। ऐसा ही प्रेम बाबा का मुझ पर था और उदाहरणार्थ वह निम्न प्रकार था - 

सन् 1916 में मैने नौकरी से अवकाश ग्रहण किया। जो पेन्शन मुझे मिलती थी, वह मेरे कुटुम्ब के निर्वाह के लिये अपर्याप्त थी। उसी वर्ष ही गुरुपूर्णिमा के दिवस मैं अनाथ भक्तों के साथ शिरडी गया। वहाँ अण्णा चिंचणीकर ने स्वतः ही मेरे लिये बाबा से इस प्रकार प्रार्थना की, इनके ऊपर कृपा करो। जो पेन्शन इन्हें मिलती है, वह निर्वाह-योग्य नही हैं। कुटुम्ब में वृद्धि हो रही है। कृपया और कोई नौकरी दिला दीजिये, ताकि इनकी चिन्ता दूर हो और ये सुखपूर्वक रहें। बाबा ने उत्तर दिया कि इन्हें नौकरी मिल जायेगी, परंतु अब इन्हें मेरी सेवा में ही आनन्द लेना चाहिए। इनकी इच्छाएँ सदैव पूर्ण होंगी, इन्हें अपना ध्यान मेरी ओर आकर्षित कर, अधार्मिक तथा दुष्ट जनों की संगति से दूर रहना चाहिये। इन्हें सबसे दया और नम्रता का बर्ताव और अंतःकरण से मेरी उपासना करनी चाहिये। यदि ये इस प्रकार आचरण कर सके तो नित्यान्नद के अधिकारी हो जायेंगे। 

रोहिला की कथा 



यह कथा श्री साई बाबा के समस्त प्राणियों पर समान प्रेम की सूचक है। एक समय रोहिला जाति का एक मनुष्य शिरडी आया। वह ऊँचा, सुदृढ़ एवं सुगठित शरीर का था। बाबा के प्रेम से मुग्ध होकर वह शिरडी में ही रहने लगा। वह आठों प्रहर अपनी उच्च और कर्कश ध्वनि में कुरान शरीफ के कलमे पढ़ता और अल्लाहो अकबर के नारे लगाता था। शिरडी के अधिकांश लोग खेतों में दिन भर काम करने के पश्चात जब रात्रि में घर लौटते तो रोहिला की कर्कश पुकारें उनका स्वागत करती है। इस कारण उन्हें रात्रि में विश्राम न मिलता था, जिससे वे अधिक कष्ट असहनीय हो गया, तब उन्होंने बाबा के समीप जाकर रोहिला को मना कर इस उत्पात को रोकने की प्रार्थना की। बाबा ने उन लोगों की इस प्रार्थना पर ध्यान न दिया। इसके विपरीत गाँववालों को आड़े हाथों लेते हुये बोले कि वे अपने कार्य पर ही ध्यान दें और रोहिला की ओर ध्यान न दें। बाबा ने उनसे कहा कि रोहिला की पत्नी बुरे स्वभाव की है और वह रोहिला को तथा मुझे अधिक कष्ट पहुंचाती है, परंतु वह उसके कलमों के समक्ष उपस्थित होने का साहस करने में असमर्थ है और इसी कारण वह शांति और सुख में है। यथार्थ में रोहिला की कोई पत्नी न थी। बाबा के संकेत केवल कुविचारों की ओर था। अन्य विषयों की अपेक्षा बाबा प्रार्थना और ईश-आराधना को महत्व देते थे। अतः उन्होंने रोहिला के पक्ष का समर्थन कर, ग्रामवासियों को शांतिपूर्वक थोड़े समय तक उत्पात सहन करने का परामर्श दिया। 

बाबा के मधुर अमृतोपदेश 



एक दिन दोपहर की आरती के पश्चात भक्तगण अपने घरों को लौट रहे थे, तब बाबा ने निम्नलिखित अति सुन्दर उपदेश दिया –

तुम चाहे कही भी रहो, जो इच्छा हो, सो करो, परंतु यह सदैव स्मरण रखो कि जो कुछ तुम करते हो, वह सब मुझे ज्ञात है। मैं ही समस्त प्राणियों का प्रभु और घट-घट में व्याप्त हूँ। मेरे ही उदर में समस्त जड़ व चेतन प्राणी समाये हुए है। मैं ही समस्त ब्राहांड़ का नियंत्रणकर्ता व संचालक हूँ। मैं ही उत्पत्ति, व संहारकर्ता हूँ। मेरी भक्ति करने वालों को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता। मेरे ध्यान की उपेक्षा करने वाला, माया के पाश में फँस जाता है। समस्त जन्तु, चींटियाँ तथा दृश्यमान, परिवर्तनमान और स्थायी विश्व मेरे ही स्वरुप है। 

इस सुन्दर तथा अमूल्य उपदेश को श्रवण कर मैंने तुरन्त यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब भविष्य में अपने गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी मानव की सेवा न करुँगा। तुझे नौकरी मिल जायेगी – बाबा के इन वचनों का विचार मेरे मस्तिष्क में बारंबार चक्कर काटने लगा। मुझे विचार आने लगा, क्या सचमुच ऐसा घटित होगा। भविष्य की घटनाओं से स्पष्ट है कि बाबा के वचन सत्य निकले और मुझे अल्पकाल के लिये नौकरी मिल गई। इसके पश्चात् मैं स्वतंत्र होकर एकचित्त से जीवनपर्यन्त बाबा की ही सेवा करता रहा। 

इस अध्याय को समाप्त करने से पूर्व मेरी पाठकों से विनम्र प्राथर्ना है कि वे समस्त बाधाएँ – जैसे आलस्य, निद्रा, मन की चंचलता व इन्द्रिय-आसक्ति दूर कर और एकचित्त होकर अपना ध्यान बाबा की लीलाओं की ओर  स्वाभाविक प्रेम निर्माण कर भक्ति-रहस्य को जाने तथा अन्य साधनाओं में व्यर्थ श्रमित न हो। उन्हें केवन एक ही सुगम उपाय का पालन करना चाहिये और वह है श्री साईलीलाओं का श्रवण। इससे उनका अज्ञान नष्ट होकर मोक्ष का दृार खुल जायेगा। जिसप्रकार अनेक स्थानों में भ्रमण करता हुआ भी लोभी पुरुष अपने गड़े हुये धन के लिये सतत चिन्तित रहता है, उसी प्रकार श्री साई को अपने हृदय में धारण करो। अगले अध्याय में श्री साई बाबा के शिरडी आगमन का वर्णन होगा । 

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 2 | SHIRDI SAI BABA | SAI SATHCHARITH-2

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 2 

ग्रन्थ लेखन का ध्येय, 
कार्यारम्भ में असमर्थता और साहस, 
गरमागरम बहस, 
अर्थपूर्ण उपाधि हेमाडपन्त, 
गुरु की आवश्यकता। 

*****

गत अध्याय में ग्रन्थकार ने अपने मौलिक ग्रन्थ श्री साई सच्चरित्र में उन कारणों पर प्रकाश डाला था, जिनके दृारा उन्हें ग्रन्थरचना के कार्य को आरन्भ करने की प्रेरणा मिली। अब वे ग्रन्थ पठन के योग्य अधिकारियों तथा अन्य विषयों का इस अध्याय में विवेचन करते हैं । 

ग्रन्थ लेखन का हेतु 
  


किस प्रकार विषूचिका (हैजा) के रोग के प्रकोप को आटा पिसवाकर तथा उसको ग्राम के बाहर फेंखकर रोका तथा उसका उन्मूलन किया, बाबा की इस लीला का प्रथम अध्याय में वर्णन किया जा चुका है। मैंने और भी लीलाएँ सुनी, जिनसे मेरे हृदत को अति आनंद हुआ और यही आनंद का स्त्रोत काव्य (कविता) रुप में प्रकट हुआ। मैंने यह भी सोचा कि इन महान् आश्चर्ययुक्त लीलाओं का वर्णन बाबा के भक्तों के लिये मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद सिद्ध होगा तथा उनके पाप समूल नष्ट हो जायेंगे। इसलिये मैंने बाबा की पवित्र गाथा और मधुर उपदेशों का लेखन प्रारम्भ कर दिया। श्री साईं की जीवनी न तो उलझनपूर्ण और न संकीर्ण ही है, वरन् सत्य और आध्यात्मिक मार्ग का वास्तविक दिग्दर्शन कराती है। 

कार्य आरम्भ करने में असमर्थता और साहस 

श्री हेमाडपन्त को यह विचार आया कि मैं इस कार्य के लिये उपयुक्त पात्र नहीं हूँ। मैं तो अपने परम मित्र की जीवनी से भी भली भाँति परिचित नहीं हूँ और न ही अपनी प्रकृति से। तब फिर मुझे सरीखा मूढ़मति भला एक महान् संतपुरुष की जीवनी लिखने का दुस्साहस कैसे कर सकता है। अवतारों की प्रकृति के वर्णन में वेद भी अपनी असमर्थता प्रगट करते हैं। किसी सन्त का चरित्र समझने के लिये स्वयं को पहले सन्त होना नितांत आवश्यक है। फिर मैं तो उनका गुणगान करने के सर्वथा अयोगमय ही हूँ। संत की जीवनी लिखना एक महान् कठिन कार्य है, जिसकी तुलना में सातों समुद्र की गहराई नापना और आकाश को वस्त्र से ढकना भी सहज है। यह मुझे भली भरणति ज्ञात था कि इस कार्य का आरम्भ करने के लिये महान् साहस की आवश्यकता है और कहीं ऐसा न हो कि चार लोगों के समक्ष हास्य का पात्र बनना पड़े, इसीलिये श्री साईं बाबा की कृपा प्राप्त करने के लिये मैं ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। 



महाराष्ट्र के संतश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर महाराज के कथन है कि संतचरित्र के रचयिता से परमात्मा अति प्रसन्न होता है। तुलसीदास जी ने भी कहा है कि "साधुचरित शुभ सरिस कपासू। निरस विषद गुणमय फल जासू।। जो सहि दुःख पर छिद्र दुरावा। वंदनीय जेहि जग जस पावा"।। भक्तों को भी संतों की सेवा करने की इच्छा बनी रहती है। संतों की कार्य पूर्ण करा लेने की प्रणाली भी विचित्र ही है। यथार्थ प्रेरणा तो संत ही किया करते हैं, भक्त तो निमित्त मात्र, या कहिये कि कार्य पूर्ति के लिये एक यंत्र मात्र है। उदाहरणार्थ शक सं. 1700 में कवि महीपति को संत चरित्र लेखन की प्रेरणा हुई। संतों ने अंतःप्रेरणा की ओर कार्य पूर्ण हो गया। इसी प्रकार शक सं. 1800 में श्री दासगणू की सेवा स्वीकार हुई। महीपति ने चार काव्य रचे – भक्तविजय, संतविजय, भक्तलीलामृत और संतलीलामृत और दासगणू ने केवल दो – भक्तलीलामृत और संतकथामृत – जिसमें आधुनिक संतों के चरित्रों का वर्णन है। भक्तलीलामृत के अध्याय 31, 32, और 33 तथा संत कथामृत के 57 वें अध्याय में श्री साई बाबा की मधुर जीवनी तथा अमूल्य उपदेशों का वर्णन सुन्दर एवं रोचक ढ़ंग से किया गया है। पाठकों से इनके पठन का अनुरोध है। इसी प्रकार श्री साई बाबा की अद्भभुत लीलाओं का वर्णन एक बहुत सुन्दर छोटी सी पुस्तिका - श्री साई बाबा भजनमाला में किया गया है। इसकी रचना बान्द्रा की श्रीमती सावित्रीबाई रघुनाथ तेंडुलकर ने की है। 

श्री दासगणू महाराज ने भी श्री साई बाबा पर कई मधुर कविताओं की रचना की है। एक और भक्त अमीदास भवानी मेहता ने भी बाबा की कुथ कथाओ को गुजराती में प्रकाशित किया है। साई प्रभा नामक पत्रिका में भी कुछ लीलाएँ शिरडी के दक्षिणा भिक्षा संस्थान दृारा प्रकाशित की गई है। अब प्रश्न यह उठता हैं कि जब श्री साईनाथ महाराज के जीवन पर प्रकाश डालने वाला इतना साहित्य उपलब्ध है, फिर और एक ग्रन्थ साई सच्चरित्र रचने की आवश्यकता ही कहाँ पैदा होती है। इसका उत्तर केवल यही है कि श्री साई बाबा की जीवनी सागर के सादृश अगाध, विस्तृत और अथाह है। यति उसमें गहरे गोता लगाया जाय तो ज्ञान एवं भक्ति रुपी अमूल्य रत्नों की सहज ही प्राप्ति हो सकती है, जिनसे मुमुक्षुओं को बहुत लाभ होगा। श्री साई बाबा की जीवनी, उनके दृष्टान्त एवं उपदेश महान् आश्चर्य से परिपूर्ण है। दुःख और दुर्भाग्यग्रस्त मानवों को इनसे शान्ति और सुख प्राप्त होगा तथा लोक व परलोक मे निःश्रेयस् की प्राप्ति होगी। यदि श्री साई बाबा के उपदेशों का, जो वैदिक शिक्षा के समान ही मनोरंजक और शिक्षाप्रद है, ध्यानपूर्वक श्रवण एवं मनन किया जाये तो भक्तों को अपने मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जायेगी, अर्थात् ब्रहम से अभिन्नता, अष्टांग योग की सिदिृ और समाधि आनन्द आदि की प्राप्ति सरलता से हो जायगी। यह सोचकर ही मैंने चरित्र की कथाओं को संकलित करना प्रारम्भ कर दिया। साथ ही यह विचार भी आया कि मेरे लिये सबसे उत्तम साधना भी केवल यही है। जो भोले-भाले प्राणी श्री साई बाबा के दर्शनों से अपने नेत्र सफल करने के सौभाग्य से वंचित रहे है, उन्हें यह चरित्र अति आनन्ददायक प्रतीत होगा। अतः मैंने श्री साई बाबा के उपदेश और दृषटान्तों की खोज प्रारम्भ कर दी, जो कि उनकी असीम सहज प्राप्त आत्मानिभूतियों का निचोड़ था। मुझे बाबा ने प्रेरणा दी और मैंने भी अपना अहंकार उनके श्री चरणों पर न्योछावर कर दिया। मैने सोचा कि अब मेरा पथ अति सुगम हो गया है और बाबा मुझे इहलोक और परलोक में सुखी बना देंगे । 

मैं स्वंय बाब की आज्ञा प्राप्त करने का साहस नहीं कर सकता था। अतः मैंने श्री माधवराव उपनाम शामा से, जो कि बाब के अंतरंग भक्तों में से थे, इस हेतु प्रार्थना की। उन्होंने इस कार्य के निमित्त श्री साई बाबा से विनम्र शब्दों में इस प्रकार प्रार्थना की कि ये अण्णासाहेब आपकी जीवनी लिखने के लिये अति उत्सुक है। परन्तु आप कृपया ऐसा न कहना कि मैं तो एक फकीर हूँ तथा मेरी जीवनी लिखने की आवश्यकता ही क्या है। आपकी केवल कृपा और अनुमति से ही ये लिख सकेंगें, अथवा आपके श्री चरणों का पुण्यप्रताप ही इस कार्य को सफल बना देगा। आपकी अनुमति तथा आशीर्वाद के अभाव में कोई भी कार्य यशस्वी नहीं हो सकता। यह प्रार्थना सुनकर बाबा को दया आ गई। उन्होंने आश्वासन और उमीद देकर अपना वरद-हस्त मेरे मस्तक पर रखा और कहने लगे कि इन्हें जीवनी और दृष्टान्तों को एकत्रित कर लिपिबद्ध करने दो, मैं इनकी सहायता करुँगा। मैं स्वयं ही अपनी जीवनी लिखकर भक्तों की इच्छा पूर्ण करुँगा। परंतु इनको अपना अहं त्यागकर मेरी शरण में आना चाहिये। जो अपने जीवन में इस प्रकार आचरण करता है, उसकी मैं अत्यधिक सहायता करता हूँ। मेरी जीवन-कथाओं की बात तो हज है, मैं तो इन्हें घर बैठे अनेक प्रकार से सहायता पहुँचाता हूँ। जब इनका अहं पूर्णताः नष्ट हो जायेगा और खोजने पर लेशमात्र भी न मिलेगा, तब मैं इनके अन्तःकरण में प्रकट होकर स्वयं ही अपनी जीवनी लिखूँगा। मेरे चरित्र और उपदेशों के श्रवण मात्र से ही भक्तों के हृदय में श्रद्धा जागृत होकर सरलतापूर्वक आत्मानुभूति एवं परमानंद की प्राप्ति हो जायेगी। ग्रन्थ में अपने मत का प्रतिपादन और दूसरो का खंडन तथा अन्य किसी विषय के पक्ष या विपक्ष में व्यर्थ के वादविवाद की कुचेष्टा नहीं होनी चाहिये। 

अर्थपूर्ण उपाधि हेमाडपंत 

वादविवाद शब्द से हमको स्मरण हो आया कि मैंने पाठको को वचन दिया है कि हेमाडपंत उपाधि किस प्रकार प्राप्त हुई, इसका वर्णन करुँगा। अब मैं उसका वर्णन करता हूँ ।

श्री काकासाहेब दीक्षित व नानासाहेब चांदोरकर मेरे अति घनिष्ठ मित्रों में से थे। उन्होंने मुझसे शिरडी जाकर श्री साई बाबा के दर्शनें का लाभ उठाने का अनुरोध किया। मैंनें उन्हे वचन दिया, परन्तु कुछ बाधा आ जाने के कारण मेरी शिरडी-यात्रा स्थगित हो गई। मेरे एक घनिष्ठ मित्र का पुत्र लोनावला में रोगग्रस्त हो गया था। उन्होंने सभी सम्भव आधिभौतिक और आध्यात्मिक उपचार किये, परन्तु सभी प्रत्यन निष्फल हुए और ज्वर किसी प्रकार भी कम न हुआ। अन्त में उन्होंने अपने गुरुदेव को उसके सिरहाने ज्वर बिठलाया, परंतु परिणैस पूर्ववत् ही हुआ। यह घटना देखकर मुझे विचार आया कि जब गुरु एक बालक के प्राणों की भी रक्षा करने में असमर्थ है, तब उनकी उपयोगिता ही क्या है। और जब उनमें कोई सामर्थ ही नही, तब फिर शिरडी जाने से क्या प्रयोजन। ऐसा सोचकर मैंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी। परंतु जो होनहार है, वह तो होकर ही पडेगा और वह इस प्रकार हुआ। प्रामताधिकारी नानासाहेब चांदोरकर बसई को दौरे पर जा रहे थे। वे ठाणा से दादर पहुँचे तथा बसई जाने वाली गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसी समय बांद्रा लोकल आ पहुँची, जिसमें बैठकर वे बांद्रा पहुँचे तथा शिरडीयात्रा स्थगित करने के लिये मुझे आड़े हाथों लिया। नानासाहेब का तर्क मुझे उचित तथा सुखदायी प्रतीत हुआ और इसके फलस्वरुप मैंने उसी रात्रि शिरडी जाने का निश्चय किया और सामान बाँधकर शिरडी को प्रस्थान कर दिया। मैंनें सीधे दादर जाकर वहाँ से मनमाड की गाड़ी पकड़ने का कार्यक्रम बनाया। इस निश्चय के अनुसार मैंने दादर जाने वाली गाड़ी के डिब्बे में प्रवेश किया। गाड़ी छूटने ही वाली थी कि इतने में एक यवन मेरे डिब्बे में आया और मेरा सामान देखकर मुझसे मेरा गन्तव्य स्थान पूछने लगा। मैंनें अपना कार्यक्रम उसे बतला दिया। उसने मुझसे कहा कि मनमाड की गाड़ी दादर पर खड़ी नहीं होता, इसलिये सीधे बोरीबन्दर से होकर जाओ। यदि यह एक साधारण सी घटना घटित न हुई होती तो मैं अपने कार्यक्रम के अनुसार दूसरे दिन शिरडी न पहुँच सकने के कारण अनेक प्रकार की शंका-कुशंकाओं से घिर जाता। परंतु ऐसा घटना न था। भाग्य ने साथ दिया और दूसरे दिन 9-10 बजे के पूर्व ही मैं शिरडी पहुँच गया। यह सन् 1910 की बात है, जब प्रवासी भक्तों के ठहरने के लिये साठेवाड़ा ही एकमात्र स्थान था। ताँगे से उतरने पर मैं साईबाबा के दर्शनों के लिये बड़ा लालायित था। उसी समय भक्तप्रवर श्री तात्यासाहेब नूलकर मसजिद से लौटे ही थे। उन्होंने बतलाया कि इस समय श्री साईबाबा मसजिद की मोंडपर ही हैं। अभी केवल उनका प्रारम्भिक दर्शन ही कर लो और फिर स्नानादि से निवृत होने के पश्चात, सुविधा से भेंट करने जाना। यह सुनते ही मैं दौड़कर गया और बाबा की चरणवन्दना की। मेरी प्रसन्नता का पारावार न रहा। मुझे क्या नहीं मिल गया था। मेरा शरीर उल्लसित सा हो गया। क्षुधा और तृषा की सुधि जाती रही। जिस क्षण से उनके कमल चरणों का स्पर्श प्राप्त हुआ, मेरे जीवन के दर्शनार्थ प्रेरणा, प्रोत्साहन और सहायता पहुँचाई, उनके प्रति मेरा हृदय बारम्बार कृतज्ञता अनुभव करने लगा। मैं उनका सदैव के लिये ऋणी हो गया। उनका यह उपकार मैं कभी भूल न सकूँगा। यथार्थ में वे ही मेरे कुटुम्बी हैं और उनके ऋण से मैं कभी भी मुक्त न हो सकूँगा। मैं सदा उनका स्मरण कर उन्हें मानसिक प्रणाम किया करता हूँ। जैसा कि मेरे अनुभव में आया कि साई के दर्शन में ही यह विशेषता है कि विचार परिवर्तन तथा पिछले कर्मों का प्रभाव शीघ्र मंद पड़ने लगता है और शनैः शनैः अनासक्ति और सांसारिक भोगों से वैराग्य बढ़ता जाता है। केवल गत जन्मों के अनेक शुभ संस्कार एकत्रित होने पर ही ऐसा दर्शन प्राप्त होना सुलभ हो सकता है। पाठको, मैं आपसे शपथ पूर्वक कहता हूँ कि यदि आप श्री साईबाबा को एक दृष्टि भरकर देख लेंगे तो आपको सम्पूर्ण विश्व ही साईमय दिखलाई पड़ेगा। 

गरमागरम बहस 

शिरडी पहुंँचने के प्रथम दिन ही बालासाहेब तथा मेरे बीच गुरु की आवश्यकता पर वादविवाद छिड़ गया। मेरा मत था कि स्वतंत्रता त्यागकर पराधीन क्यों होना चाहिये तथा जब कर्म करना ही पड़ता है, तब गुरु की आवश्यकता ही कहांँ रही। प्रत्येक को पूर्ण प्रयत्न कर स्वयं को आगे बढ़ाना चाहिये। गुरु शिष्य के लिये करता ही क्या है। वह तो सुख से निद्रा का आनंद लेता है। इस प्रकार मैंने स्वतंत्रता का पक्ष लिया और बालासाहेब ने प्रारब्ध का। उन्होंने कहा कि जो विधि-लिखित है, वह घटित होकर रहेगा, इसमें उच्च कोटि के महापुरुष भी असफल हो गये हैं। कहावत है – मेरे मन कछु और है, धाता के कछु और। फिर परामर्शयुक्त शब्दों में बोले भाई साहब, यह निरी विद्वता छोड़ दो। यह अहंकार तुम्हारी कुछ भी सहायता न कर सकेगा। इस प्रकार दोनों पक्षों के खंडन-मंडन में लगभग एक घंटा व्यतीत हो गया और सदैव की भाँति कोई निष्कर्ष न निकल सका। इसीलिये तंग और विवष होकर विवाद स्थगित करना पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरी मानसिक शांति भंग हो गई तथा मुझे अनुभव हुआ कि जब तक घोर दैहिक बुद्धि और अहंकार न हो, तब तक विवाद संभव नहींं। वस्तुतः यह अहंकार ही विवाद की जड़ है। 

जब अन्य लोगों के साथ मैं मसजिद गया, तब बाबा ने काकासाहेब को संबोधित कर प्रश्न किया कि साठेबाड़ा में क्या चल रहा हैं। किस विषय में विवाद था। फिर मेरी ओर दृष्टिपात कर बोले कि इन हेमाडपंत ले क्या कहा। ये शब्द सुनकर मुझे अधिक अचम्भा हुआ। साठेबाड़ा और मसजिद में पर्याप्त अन्तर था। सर्वज्ञ या अंतर्यामि हुए बिना बाबा को विवाद का ज्ञान कैसे हो सकता था। 

मैं सोचने लगा कि बाबा हेमाडपंत के नाम से मुझे क्यों सम्बोधित करते हैं। यह शब्द तो हेमाद्रिपंत का अपभ्रंश है। हेमाद्रिपंत देवगिरि के यादव राजवंशी महाराजा महादेव और रामदेव के विख्यात मंत्री थे। वे उच्च कोटि के विदृान्, उत्तम प्रकृति और चतुवर्ग चिंतामणि (जिसमें आध्यात्मिक विषयों का विवेचन है।) और राजप्रशस्ति जैसे उत्तम काव्यों के रचयिता थे। उन्होंने ही हिसाब-किताब रखने की नवीन प्रणाली को जन्म दिया था और कहाँ मैं इसके विपरीत एक अज्ञानी, मूर्ख और मंदमति हूँ। अतः मेरी समझ में यह न आ सका कि मुझे इस विशेष उपाधि से विभूषित करने का क्या तात्पर्य हैं। गहन विचार करने पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कही मेरे अहंकार को चूर्ण करने के लिये ही तो बाबा ने इस अस्त्र का प्रयोग नहीं किया है, ताकि मैं भविष्य में सदैव के लिए निरभिमानी एवं विनम्र हो जाऊँ, अथवा कहीं यह मेरे वाक्रचातुर्य के उपलक्ष में मेरी प्रशंसा तो नहीं है । 

भविष्य पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि बाबा के दृारा हेमाडपंत की उपाधि से विभूषित करना कितना अर्थपूर्ण और भविष्यगोचर था। सर्वविदित है कि कालान्तर में दाभोलकर ने श्री साईंबाबा संस्थान का प्रबन्ध कितने सुचारु एवं विद्धतापूर्ण ढ़ग से किया था। हिसाब-किताब आदि कितने उत्तम प्रकार से रखे तथा साथ ही साथ महाकाव्य साई सच्चरित्र की रचना भी की। इस ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण और आध्यात्मिक विषयों जैसे ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, शरणागति व आत्मनिवेदन आदि का समावेश है। 


गुरु की आवश्यकता 

इस विषय में बाबा ने क्या उद्गगार प्रकट किये, इस पर हेमाडपंत दृारा लिखित कोई लेख या स्मृतिपत्र प्राप्त नहीं है। परंतु काकासाहेब दीक्षित ने इस विषय पर उनके लेख प्रकाशित किये हैं। बाबा से भेंट करने के दूसरे दिन हेमाडपंत और काकासाहेब ने मसजिद में जाकर गृह लौटने की अनुमति माँगी। बाबा ने स्वीकृति दे दी। 

किसी ने प्रश्न किया – बाबा, कहाँ जायें। उत्तर मिला – ऊपर जाओ। प्रश्न – मार्ग कैसा है ।

बाबा – अनेक पंथ है। यहाँ से भी एक मार्ग है। परंतु यह मार्ग दुर्गम है तथा सिंह और भेड़िये भी मिलते है। 


काकासाहेब – यदि पथ प्रदर्शक भी साथ हो तो।

बाबा – तब कोई कष्ट न होगा। मार्ग-प्रदर्शक तुम्हारी सिंह और भेड़िये और खन्दकों से रक्षा कर तुम्हें सीधे निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देगा। परंतु उसके अभाव में जंगल में मार्ग भूलने या गड्ढे में गिर जाने की सम्भावना है। 

दाभोलकर भी उपर्युक्त प्रसंग के अवसर पर वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने सोचा कि जो कुछ बाबा कह रहे है, वह गुरु की आवश्यकता क्यों है। इस प्रश्न का उत्तर है (साईलीला भाग 1, संख्या 5 व पृष्ठ 47 के अनुसार)। उन्होंने सदा के लिये मन में यह गाँठ बाँध ली कि अब कभी इस विषय पर वादविवाद नहीं करेंगे कि स्वतंत्र या परतंत्र व्यक्ति आध्यात्मिक विषयों के लिये कैसा सिदृ होगा। प्रत्युत इसके विपरीत यथार्थ में परमार्थ लाभ केवल गुरु के उपदेश में किया गया है, जिसमें लिखा है कि राम और कृष्ण महान् अवतारी होते हुए भी आत्मानुभूति के लिये राम को अपने गुरु वसिष्ठ और कृष्ण को अपने गुरु सांदीपनि की शरण में जाना पड़ा था। इस मार्ग में उन्नति प्राप्त करने के लिये केवल श्रदृा और धैर्य ये ही दो गुण सहायक हैं। 

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।। 

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 1 (SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-1)

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 1

गेहूँ पीसने वाला एक अद्भभुत सन्त वन्दना – गेहूँ पीसने की कथा तथा उसका तात्पर्य। 


पुरातन पद्धत्ति के अनुसार श्री हेमाडपंत...... श्री साई सच्चरित्र का आरम्भ वन्दना करते हैं।

प्रथम श्री गणेश को साष्टांग नमन करते हैं, जो कार्य को निर्विग्न समाप्त कर उस को यशस्वी बनाते हैं कि साई ही गणपति हैं।

फिर भगवती सरस्वती को, जिन्होंने काव्य रचने की प्रेरणा दी और कहते हैं कि साई भगवती से भिन्न नहीं हैं, जो कि स्वयं ही अपना जीवन संगीत बयान कर रहे हैं।

फिर ब्रहा, विष्णु, और महेश को, जो क्रमशः उत्पत्ति, सि्थति और संहारकर्ता हैं और कहते हैं कि श्री साई और वे अभिन्न हैं। वे स्वयं ही गुरू बनकर भवसागर से पार उतार देंगें।

फिर अपने कुलदेवता श्री नारायण आदिनाथ की वन्दना करते हैं जो कि कोकण में प्रकट हुए। कोकण वह भूमि है, जिसे श्री परशुरामजी ने समुद्र से निकालकर स्थापित किया था। तत्पश्चात् वे अपने कुल के आदिपुरूषों को नमन करते हैं । 

फिर श्री भारद्वाज मुनि को, जिनके गोत्र में उनका जन्म हुआ। पश्चात् उन ऋषियों को जैसे-याज्ञवल्क्य, भृगु, पाराशर, नारद, वेदव्यास, सनक-सनंदन, सनत्कुमार, शुक, शौनक, विश्वामित्र, वसिष्ठ, वाल्मीकि, वामदेव, जैमिनी, वैशंपायन, नव योगींद्, इत्यादि तथा आधुनिक सन्त जैसे-निवृति, ज्ञानदेव, सोपान, मुक्ताबाई, जनार्दन, एकनाथ, नामदेव, तुकाराम, कान्हा, नरहरि आदि को नमन करते हैं। 



फिर अपने पितामह सदाशिव, पिता रघुनाथ और माता को, जो उनके बचपन में ही गत हो गई थीं। फिर अपनी चाची को, जिन्होंने उनका भरण-पोषण किया और अपने प्रिय ज्येष्ठ भ्राता को नमन करते हैं । 

फिर पाठकों को नमन करते हैं, जिनसे उनकी प्रार्थना हैं कि वे एकाग्रचित होकर कथामृत का पान करें।

अन्त में श्री सच्चिददानंद सद्रगुरू श्री साईनाथ महाराज को, जो कि श्री दत्तात्रेय के अवतार और उनके आश्रयदाता हैं और जो ब्रहा सत्यं जगनि्मथ्या का बोध कराकर समस्त प्राणियों में एक ही ब्रहा की  व्याप्ति की अनुभूति कराते हैं। 

श्री पाराशर, व्यास, और शांडिल्य आदि के समान भक्ति के प्रकारों का संक्षेप में वर्णन कर अब ग्रंथकार महोदय निम्नलिखित कथा प्रारम्भ करते हैं । 

गेहूँ पीसने की कथा 

सन् 1910 में मैं एक दिन प्रातःकाल श्री साई बाबा के दर्शनार्थ मसजिद में गया। वहाँ का विचित्र दृश्य देख मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि साई बाबा मुँह हाथ धोने के पश्चात चक्की पीसने की तैयारी करने लगे। उन्होंने फर्श पर एक टाट का टुकड़ा बिछा, उस पर हाथ से पीसने वाली चक्की में गेहूँ डालकर उन्हें पीसना आरम्भ कर किया। 



मैं सोचने लगा कि बाबा को चक्की पीसने से क्या लाभ है। उनके पास तो कोई है भी नही और अपना निर्वाह भी भिक्षावृत्ति दृारा ही करते है। इस घटना के समय वहाँ उपसि्थत अन्य व्यक्तियों की भी ऐसी ही धारणा थी। परंतु उनसे पूछने का साहस किसे था। बाबा के चक्की पीसने का समाचार शीघ्र ही सारे गाँव में फैल गया और उनकी यह विचित्र लीला देखने के हेतु तत्काल ही नर-नारियों की भीड़ मसजिद की ओर दौड़ पडी़। 

उनमें से चार निडर स्त्रीयाँ भीड़ को चीरता हुई ऊपर आई और बाबा को बलपूर्वक वहाँ से हटाकर हाथ से चक्की का खूँटा छीनकर तथा उनकी लीलाओं का गायन करते हुये उन्होंने गेहूँ पीसना प्रारम्भ कर दिया । 

पहले तो बाबा क्रोधित हुए, परन्तु फिर उनका भक्ति भाव देखकर वे शान्त होकर मुस्कराने लगे। पीसते-पीसते उन स्त्रीयों के मन में ऐसा विचार आया कि बाबा के न तो घरदृार है और न इनके कोई बाल-बच्चे है तथा न कोई देखरेख करने वाला ही है। वे स्वयं भिक्षावृत्ति दृारा ही निर्वाह करते हैं, अतः उन्हें भोजनाआदि के लिए आटे की आवश्यकता ही क्या हैं। बाबा तो परम दयालु है। हो सकता है कि यह आटा वे हम सब लोगों में ही वितरण कर दें। इन्हीं विचारों में मग्न रहकर गीत गाते-गाते ही उन्होंने सारा आटा पीस डाला। तब उन्होंने चक्की को हटाकर आटे को चार समान भागों में विभक्त कर लिया और अपना-अपना भाग लेकर वहाँ से जाने को आज्ञा दी। अभी तक शान्त मुद्रा में निमग्न बाब तत्क्षण ही क्रोधित हो उठे और उन्हें अपशब्द कहने लगे- स्त्रीयों क्या तुम पागल हो गई हो। तुम किसके बाप का माल हडपकर ले जा रही हो। क्या कोई कर्जदार का माल है, जो इतनी आसानी से उठाकर लिये जा रही हो। अच्छा, अब एक कार्य करो कि इस आटे को ले जाकर गाँव की मेंड़ (सीमा) पर बिखेर आओ। 

मैंने शिरडीवासियों से प्रश्न किया कि जो कुछ बाबा ने अभी किया है, उसका यथार्थ में क्या तात्पर्य है। उन्होने मुझे बतलाया कि गाँव में विषूचिका (हैजा) का जोरो से प्रकोप है और उसके निवारणार्थ ही बाबा का यह उपचार है। अभी जो कुछ आपने पीसते देखा था, वह गेहूँ नहीं, वरन विषूचिका (हैजा) थी, जो पीसकर नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई है। इस घटना के पश्चात सचमुच विषूचिका की संक्रामतकता शांत हो गई और ग्रामवासी सुखी हो गये। 


यह जानकर मेरी प्रसन्नता का पारावार न रहा। मेरा कौतूहल जागृत हो गया। मै स्वयं से प्रश्न करने लगा कि आटे और विषूचिका (हैजा) रोग का भौतिक तथा पारस्परिक क्या सम्बंध है। इसका सूत्र कैसे ज्ञात हो। घटना बुद्धिगम्य सी प्रतीत नहीं होती। अपने हृदय की सन्तुष्टि के हेतु इस मधुर लीला का मुझे चार शब्दों में महत्व अवश्य प्रकट करना चाहिये। लीला पर चिन्तन करते हुये मेरा हृदय प्रफुलित हो उठा और इस प्रकार बाब का जीवन-चरित्र लिखने के लिये मुझे प्रेरणा मिली। यह तो सब लोगों को विदित ही है कि यह कार्य बाबा की कृपा और शुभ आशीर्वाद से सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया । 

आटा पीसने का तात्पर्य 

शिरडीवासियों ने इस आटा पीसने की घटना का जो अर्थ लगाया, वह तो प्रायः ठीक ही है, परन्तु उसके अतिरिक्त मेरे विचार से कोई अन्य भी अर्थ है। बाब शिरड़ी में 60 वर्षों तक रहे और इस दीर्घ काल में उन्होंने आटा पीसने का कार्य प्रायः प्रतिदिन ही किया। पीसने का अभिप्राय गेहूँ से नहीं, वरन् अपने भक्तों के पापो, दुर्भागियों, मानसिक तथा शाशीरिक तापों से था। उनकी चक्की के दो पाटों में ऊपर का पाट भक्ति तथा नीचे का कर्म था। चक्की का मुठिया जिससे कि वे पीसते थे, वह था ज्ञान। बाबा का दृढ़ विश्वास था कि जब तक मनुष्य के हृदय से प्रवृत्तियाँ, आसक्ति, घृणा तथा अहंकार नष्ट नहीं हो जाते, जिनका नष्ट होना अत्यन्त दुष्कर है, तब तक ज्ञान तथा आत्मानुभूति संभव नहीं हैं। 

यह घटना कबीरदास जी की उसके तदनरुप घटना की स्मृति दिलाती है। कबीरदास जी एक स्त्री को अनाज पीसते देखकर अपने गुरू निपतिनिरंजन से कहने लगे कि मैं इसलिये रुदन कर रहा हूँ कि जिस प्रकार अनाज चक्की में पीसा जाता है, उसी प्रकार मैं भी भवसागर रुपी चक्की में पीसे जाने की यातना का अनुभव कर रहा हूँ। उनके गुरु ने उत्तर दिया कि घबड़ाओ नही, चक्की के केन्द्र में जो ज्ञान रुपी दंड है, उसी को दृढ़ता से पकड़ लो, जिस प्रकार तुम मुझे करते देख रहे हो  उससे दूर मत जाओ, बस, केन्द्र की ओर ही अग्रसर होते जाओ और तब यह निशि्चत है कि तुम इस भवसागर रुपी चक्की से अवश्य ही बच जाओगे। 



।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।