रविवार, 3 अप्रैल 2016

रहस्यवाद (कबीरदास)

कबीर का रहस्यवाद


रहस्यवाद शब्द का प्रयोग चाहे जितना नया हो, रहस्यमयी सत्ता की प्रतीति और उसे मानवीय अनुभव की परिधि में लाकर उसके मधुरतम व्यक्तित्व की कल्पना तथा उससे आत्मिक सम्बंध स्थापना की प्रवृत्ति विश्व के सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में पाई जाती है। इसी धरातल को रहस्यवाद स्वरूप ग्रहण करता है।

कबीर भक्त पहले थे, ज्ञानी बाद में। कबीर की मूल अनुभूति अव्दैत की है, लेकिन कबीर ने उसे रहस्यवाद के रूप में व्यक्त किया है। कबीर वेदांत के अव्दैत से रहस्यवाद की भूमि पर आए है। उनका रहस्यवाद उपनिषदों के ऋषियों के समान रहस्यवाद हैं, जो अव्दैत के अंतर्विरोधों में समन्वय करने वाली अनुभूति है। वे सगुण की अपेक्ष निर्गुण ब्रह्म के उपासक हैं। इस कारण उनका भगवत-प्रेम रहस्यवाद कहलाया। कबिर ने अव्दैत ज्ञान, प्रेममूलक भक्ति और रहस्यवाद के मिश्रण से निर्गुण भक्ति में मौलिक स्थापना की। रहस्यवादी प्रेम को अपनाने के कारण उनकी भक्ति में सुगण भक्ति जैसी सरसता आ गई।

कबीर ने जीवात्मा-परमात्मा के प्रेम का सीधा-सीधा चित्रण किया है। उन्हेंने इसके लिए सूफी कवियों के समान कथा–रुपकों का प्रयोग नहीं किया है। परमात्मा से प्रेम को साकार व अनुभवजनित रूप देने के लिए कबिर को प्रतीकों, रूपकों व अन्योक्तियों का अवश्य आश्रय लेना पडा । ये प्रतीक कबीर के आध्यात्मिक प्रेम को व्यक्त करते हैं। इनमें कहीं भी लौकिक पक्ष का समावेश नहीं हुआ है। गुरु की कृपा से उनके भीतर ईश्वर के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। इससे उनके ह्रदय-चक्षु भुल जाते हैं तथा उन्हें उस परमात्मा सत्ता के दर्शन होते हैं। तब कबीर अत्यंत आनंदित हो जाते हैं। इस आनंद की वर्षा में उनका अंग-प्रत्यंग भीग जाता है।

“कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आय।
अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराय।।“

प्रेम की इस प्रचंड अनुभूति से सारा विश्व चेतन स्वरूप व आनंद रस में डूबा दिखाई पडता है। तन साधक संसार से विरक्ति हो जाती है। जगत विषय-भोगों का मकड़जाल अनुभव होता है। इससे मुक्ति का एकमात्र उपाय ईश्वर का पावन स्मरण ही है।

कबीर के ह्रदय में प्रभु-मिलन का असीम उत्कंठा जागृत होती है। इससे उनके भीतर की वेदना और गहरा जाती है। उनकी आत्मा न तो परमात्मा को बुला ही पाती है और न ही वहाँ परमात्मा तक पहुँच पाती है ---

“आइ न सकौ तुझ पै, सकूं न बुझ बुलाइ।
जियश यौ ही लेहुंगे, विरह तपाइ तपाई।।“

कबीर की विरह-व्यथा अत्यंत तीव्र व्यथा है। यह व्यथा चरम सीमा तक पहुंच जाती है और जीवात्मा अपने स्व को मिटाकर अपने प्रियतम के दर्शन करना चाहती है। परमात्मा को पाने के लिए कबीर बहुत भटकते हैं, वे उन्हें फिर भी पा नहीं पाते।

कबीर के काव्य में अनुभव की अत्यंत तीव्रता है। कबीर ने जीवात्मा और परमात्मा के इस प्रेम को पति-पत्नी के रूप में चित्रित किया है। कबीर ने कई बार पत्नी के रूपक में तो अधिकांश साखियाँ ऐसी कही हैं, जिनमें पुल्लिंग का प्रयोग जीवात्मा के लिए किया है। कहीं- कहीं कबीर ने इसे अन्य संबंधों के रूप में भी माना है। कबीर ने पिता-पुत्र के संबंध के माध्यम से भी इस प्रेम का चित्रण किया है ---

“पूत पियारो जगत् को, गौहनि लागा धाइ।
लोभ मिठाई हाथ दै, आपण गया भुलाइ।।“

जैसे-जैसे जीवात्मा और परमात्मा के मिलन की प्रगाढ़ता बढ़ती है। परिचय और मिलन की अनुभूति में परमात्मा व जीवात्मा की व्दैतता मिटती जाती है। रहस्यवादी की दृष्टि में इन अवस्थाओं में ससीम जीवात्मा का असीम परमात्मा में विलय हो जाता है और ऐसी स्थिति में रहस्यवादी कबीर की पूर्ण निष्ठा अव्दैत में ही होती है।

कबीर की साखियाँ “परचौ कौ अंग” में ऐसी साखियाँ हैं, जो एक ओर कबीर के भावनात्मक रहस्यवादी स्वरूप को स्पष्ट करती हैं, तो दूसरी ओर उनके आत्मज्ञानी स्वरूप को इस अनुभूति का आधार अव्दैत वेदांत है। कबीर ने जीवात्मा के परमतत्व के रूप में परिणत हो जाने की अनुभूति के साक्षात्कार को पानी और हिम के उदाहरण व्दारा समझाया है -----

“पानी ही ते हिम भया, हिम हू गया बिलाय।
कबिरा जो था सोई भया, अब कछु कहा न जाय।।“

इस अवस्था में “मै” और “तू” का अंतर नहीं रहता है। धीरे – धीरे यह “मैं” “तू” में समा जाता है। यह बूँद के समुद्र में समाने और समुद्र के बूँद में समाने की प्रक्रिया है। मन का भ्रम दूर हो जाने पर कबीर को परब्रह्म का साक्षात्कार होता है। कबीर इस परब्रह्म स्वरूप में समा जाते हैं। इस अवस्था में आने के पश्यात् रहस्यवादी के लिए संसार की समस्त विषमताएँ आनंददायक हो जाती हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि कबीर पाश्यात्य या सूफी परंपरा के रहस्यवादी मात्र नहीं थे, बल्कि उनमें भारतीय तत्व भी है। जैसे अव्दैत वेदांती का ज्ञान, वैष्णवों का अनन्य प्रेम, रहस्यवादियों की भावनात्मक एकता एवं योगियों का साधना से प्राप्त परमानंद। कबीर ने रहस्यवादी साधना के मार्ग पर चलकर निर्गुण व निराकार ईश्वर की भक्ति का वह रूखापन दूर किया, जिसके कारण व्यक्ति इससे अधिक निकटता अनुभव नहीं करते थे । ऐसा करके कबीर ने निर्गुण की साधना व उपासना में भी मिठास लाया है।

पद्मावत में रूपक–तत्व (जायसी)

जायसी-पद्मावत में रूपक–तत्व


पद्मावत की कथा समाप्त करते हुए उपसंहार में जायसी ने रूपक का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है –

“तन चितउर, मन राजा कीन्हा हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा।
गुरू सुआ जेई पन्थ देखावा बिनु गुरू जगत को निरगुन पावा?
नागमती यह दुनिया–धंधा।बाँचा सोइ न एहि चित बंधा।।
राघव दूत सोई सैतानू।माया अलाउदीं सुलतानू”।।

इस प्रकार कवि ने सम्पूर्ण कथा को रूपक बतलाया है। कथा में उल्लिखित विभिन्न पात्रों को उसने मनुष्य की मानसिक शक्तियों का प्रतीक अथवा प्रतिरूप माना है और इस दार्शनिक मत की ओर संकेत किया है कि जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है । उपर्युक्त वर्णन के अनुसार तन चित्तौड है, संकल्प–विकल्पात्मक मन रत्नसेन है, रागात्मक हृदय सिंहल है, शुद्द बुद्दि पद्मावती है, हीरामन तोता गुरू है, नागमती संसारिक मोह है, राघवचेतन जीवात्म को पथभ्रष्ट करने वाला शैतान है। इस प्रकार सभी पात्र विभिन्न संकेतार्थ रखते है ।

समालोचकों की दृष्टि में पद्मावत का रूपक कथा को विकृत करता है और पद्मावत की कथा रूपक का मजाक उडाती है । कथा और रूपक एक दूसरे के नितांत अनुपयुक्त हैं। उनका यह कथन पर्थाप्त अशों में सत्य है क्योंकि रूपक में कई त्रुटियाँ पाई जाती है ।

रामचंद्र शुक्ल के अनुसार रतनसेन आत्मा का, पद्मावत सात्विक बुद्दि के अलाव परमात्मा का प्रतीक माना। इस से आत्मा और परमात्मा के बाद रूपक आगे नहीं बढ पाता। रूपक पद्मावत के पूर्वार्द्ध पर ही लागू होता है, उत्तरार्द्ध पर नहीं।

डॉ. पीताम्बर दत्त बडथ्वाल के अनुसार रूपक कल्पना की तीन बातें खटकती है।

1. कवि ने कथा के प्रकरणों में रूपक का एक समान निर्वाह नहीं किया है।

2. कुछ प्रस्तुतों एवं अप्रस्तुतों में रूप, गुण और प्रभाव का साम्य नहीं दिखाई देता । 

3. अप्रस्तुतों के जो पारस्परिक सम्बंध और कार्य–व्यापार है,वह प्रस्तुतों के पारस्परिक सम्बन्धों एवं कृत्यों को न तो पूर्णतः प्रकट करते हैं और न उनके अनुकूल है ।


पद्मावत की विशोषता रूपक का निर्वाह करने में नहीं, कथा प्रस्तुत करने में है, बीच–बीच में अत्यन्त मनोहर रहस्यात्मक संकेतों का सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है, परन्तु पकड में नही आता ---

“सरवर देख एक में सोई।
रहा पानि, पै पान न होई”।।

सारांश यह है कि रूपक जायसी की प्रबन्ध–रचना का आधार या अनिवार्य अंग नही है, जो कुछ आध्यात्मिक संकेत बीच–बीच में प्राप्त होते है, वह उनके दार्शनिक संत स्वभाव के कारण। यदि पद्मावत रूपक–काव्य सिद्द नही होता , तो इससे जायसी की कीर्ति और पद्मावत के काव्य–सौंदर्य को कोई क्षति नही पहुँचती । पद्मावत सफल प्रबन्ध–काव्य के रूप में ही देखना चाहिए।

सौंदर्य दृष्टि (जायसी)

जायसी–सौंदर्य दृष्टि 


जायसी के अनुसार प्रेम ही वह तत्व है जो सौंदर्य की सृष्टि करता है, इस सृष्टि में जो सौंदर्य है वह प्रेम के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं।
“तीन लोक चौदह खंड, सबै परै मोहि सूझि। 
प्रेम छाँडि किछु और न लेना, जौ देखौं मन बूझि”। 

सौंदर्य जीवात्मा में स्थित प्रेम को जागृत करके उसे अपनी ओर आकर्षित करता है। परमात्मा परम सुन्दर है। समस्त जगत् दर्पण है, जिस में उस परम सौंदर्यमय का प्रतिबिम्ब पडता है, अतएव समस्त जगत में जहाँ-जहाँ आकर्षण हो वहाँ–वहाँ उसी के सौंदर्य की छाया है। जायसी के शब्दों में.... 

“सबै जगत दरपन के लेखा। 
आपुहिं दरपन आपुहि देखा”।। 

सौंदर्य एक मुक्ता–बिन्दु है, जिसे प्रेमी साधक के नेत्र–कौडिया अनायास उसके हृदय–समुद्र से चुगते रहते हैं, जब वह आन्दोलित होकर उमडता है.......... 

“सरग सीस धर धरती हिया सो प्रेम समुंद। 
नैन कौडिया होर रहे लै लै उठहिं सो बुंदा”। 

सौंदर्य का क्षेत्र यह हृदय-कमल देखने में भले ही विकट ज्ञात होता है किन्तु इसे प्राप्त करना दृष्कर है.......... 

“अहुठ हाथ तन सरवर हिया कँवल तेहि माँह। 
नैनन्हि जानहु निअरें कर पहुँचत अवगाह”। 

रतनसेन तोते से पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन सुनकर प्रेम–विहृल होकर मूर्छित हो जाता है। सौंदर्य प्रेम का जनक है। 

“परा सो पेम समुंद अपारा। 
लहरहिं लहर होइ बिसंभारा”।। 

पद्मावती के सौंदर्य का निरूपण कवि ने “नख-शिख वर्णन” की परम्परा के निर्वाह के रूप में भी किया है। सौंदर्य की दिव्यता व्यंजित करने के लिए कवि ने कही-कही फलोत्प्रेक्षा के सहारे ऐसे प्रसंगों की अवतारणा की है जिनमें साधना की पावनता प्रतिष्ठित है, जैसे एक स्थल पर कवि कहता है तपस्वी करपत्र साधना कर अपने को बलि कर देते हैं ताकि पद्मावती रूपी आराध्य उनके खून को माँग में भरे अर्थात उनका रक्त आराध्य के मस्तक तक पहुँच जाय और उनकी साधना सार्थक हो जाय। पद्मावती के सौंदर्य–वर्णन में कवि ने यत्र-तत्र आध्यात्मिक अर्थ का समावेश करने की चेष्टा की है। जैसे......... 

“रवि ससि नखत दीन्ह ओहि जोती। 
रतन पदारथ मानिक मोती”।। 

इससे स्पष्ट है कि कवि पद्मावती के रूप में अलौकिकता का समावेश कर उसे आध्यत्मिक स्वरूप देने के प्रति आग्रहशील है।