सोमवार, 18 सितंबर 2023

कारतूस | हबीब तनवीर | कक्षा – दसवीं | स्पर्श (भाग-२) | एकांकी | kartoos | habib tanveer | cbse | hindi | class 10

 

इकाई पाठयोजना

·         कक्षादसवीं

·         पुस्तक स्पर्श (भाग-)

·         विषय-वस्तुएकांकी

·         प्रकरणकारतूस


शिक्षण- उद्देश्य :-

(क)             ज्ञानात्मक(१)  मनुष्य-मात्र के स्वभाव एवं व्यवहार की जानकारी देना।

(२)            पाठ में वर्णित घटनाओं की सूची बनाना।

(३)            एकांकी की विषयवस्तु को पूर्व में पढ़ी हुई एकांकी से संबद्ध करना।

(४)            नए शब्दों के अर्थ समझकर अपने शब्द- भंडार में वृद्धि करना।

(५)            साहित्य के गद्यविधा (एकांकी) की जानकारी देना।

(६)            छात्रों को अपने देश की आजा़दी की लड़ाई के बारे में जानकारी देना।

(७)            नैतिक मूल्यों की ओर प्रेरित करना।           

(८)            देश के प्रति भक्ति, प्रेम आदि की भावनाएँ जागृत करना।


(ख)             कौशलात्मक

           (क)   अपनी कल्पना –शक्ति से स्वतंत्रता संग्राम की वास्तविकता का अनुभव करते हुए कोई एकांकी या लेख लिखना।

  (ख)  स्वयं एकांकी लिखने की योग्यता का विकास करना।

 

(ग)              बोधात्मक(१)               एकांकी के नायक के चरित्र को समझाना

(२)               रचनाकार के उद्देश्य को स्पष्ट करना।

(३)               एकांकी में आए संवेदनशील स्थलों का चुनाव  करना।

(४)               देश की आंतरिक एवं बाह्य समस्याओं को समझाने का प्रयास करना

(घ)                 प्रयोगात्मक (१)               एकांकी को अपने दैनिक जीवन के संदर्भ में जोड़कर देखना।

(२)                  एकांकी के मुख्य - पात्र का चरित्र-चित्रण करना

(३)                  पाठ का सारांश अपने शब्दों में लिखना।

(४)                  एकांकी की घटनाओं का वर्णन संक्षेप में अपने शब्दों में करना।

(५)                  एकांकी को मंचस्थ करना।

सहायक शिक्षणसामग्री:-(१)               चाक , डस्टर आदि।

(२)               पावर प्वाइंट के द्वारा पाठ की प्रस्तुति।

पूर्व ज्ञान:-(१)               देश की आजा़दी की लड़ाई  के बारे में ज्ञान है।

(२)               शासन-व्यवस्था के बारे में ज्ञान है।

(३)               एकांकी-कला का अपेक्षित ज्ञान है।

(४)               साहित्यिक-भाषा की थोड़ी-बहुत जानकारी है।

(५)               अंग्रेजो़ं की शासन-व्यवस्था की थोड़ी-बहुत जानकारी है

(६)               मानवीय स्वभाव की जानकारी है।

 

प्रस्तावनाप्रश्न :-

(१)               बच्चो! क्या आपने अंग्रेज़ी-शासन-व्यवस्था का इतिहास पढ़ा है?

(२)               क्या आप किसी देश-भक्त के बारे में जानते हैं? की जीवनी के बारे में कुछ पंक्तियाँ बताइए।

(३)               हमारे देश की शासन-व्यवस्था कैसी है और कैसी होनी चाहिए?

(४)               मनुष्य की स्वभावगत विशेषताएँ बताइए।

(५)               एकांकी-लेखन की कुछ विशेषताएँ बताइए।

उद्देश्य कथन :- बच्चो! आज हम लेखकहबीब तनवीरके द्वारा रचितकारतूसका अध्ययन करेंगे।

पाठ की इकाइयाँ

                        प्रथम अन्विति (वजी़र अली के प्रवेश से पहले)

·         कर्नल और लेफ़्टीनेंट के बीच बातचीत

·         वज़ीर अली की आज़ादी से चिंतित

·         अचानक वज़ीर अली(घुड़्सवार) को आते देखकर परेशान

द्वितीय अन्विति :- ( वज़ीर अली के प्रवेश के बाद)

·         घुड़सवार(वज़ीर अली) का दिलेरी के साथ प्रवेश

·         कर्नल का हक्का-बक्का रह जाना

·         वज़ीर अली के द्वारा धमकी देना

·         कर्नल के द्वारा वज़ीर अली की प्रशंसा किया जाना

 

 

शिक्षण विधि :-

क्रमांक

अध्यापक - क्रिया

छात्र - क्रिया

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कांकी का  सारांश :-

प्रस्तुत एकांकी में एक ऐसे जाँबाज़ के कारनामों का वर्णन है जिसका एक मात्र लक्ष था –अंग्रेज़ों को इस देश से बाहर करना। यह सन १७९९ की घटना है। पहला दृश्य गोरखपुर के जंगल में कर्नल कालिंज़ के खेमे का अंदरूनी हिस्सा है जहाँ कर्नल कालिंज़ और लेफ़्टीनेंट जंगलों की जि़न्दगी और वज़ीर अली के बारे में बात कर रहे हैं। कर्नल वज़ीर अली के जीवन से संबंधित कुछ बातें लेफ़्टीनेंट को बताता है। उसकी तुलना राबिन हुड से करता है। उसे सिंहासन से पदच्युत करने के बाद वह वकील से परेशान होकर उसका क़त्ल कर देता है और जंगलों में छिप जाता है। उसे पकड़ने के लिए कर्नल पानी फ़ौज़ के साथ जंगल में तम्बू लगाए हुए है। बातचीत के दौरान उन्हें एक घुड़सवार आता दिखाई देता है। घुड़सवार स्वयं वजी़र अली है, किन्तु कर्नल उसे पहचान नहीं पाता है। घुड़सवार उन्हें धमकाकर कारतूस माँगता है और अंत में उन्हें अपना परिचय देकर चला जाता है। कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। कर्नल हक्का-बक्का रह जाता है। अंत में , वह वज़ीर अली की बहादुरी की प्रशंसा करता है।

एकांकी  को ध्यानपूर्वक सुनना और समझने का प्रयास करना। नायक के चरित्र पर तथा अंग्रेज़ी शासन पर अपने विचार प्रस्तुत करना।

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लेखक-परिचय :- ‘ हबीब तनवीर ’(जन्म-१९२३) एक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं जिन्होंनेनाट्यकला’ के क्षेत्र में अद्वितीय सफलता प्राप्त की है। उनके कई नाटकों पर उन्हें कई पुरस्कारों,फ़ेलोशिप, और पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है। उनके  नाटक इतिहास तथा जीवन के काफ़ी करीब हैं उनके  प्रमुख नाटकाअगरा बाज़ार, चरनदास चोर, देख रहे हैं नैन, हिरमा की अमर कहानी आदि हैं। उन्होंने बसंत ऋतु का सपना, शाजापुर की शांता बाई, मिट्टी की गाड़ी और मुद्रा राक्षस नाटकों का आधुनिक रूपांतर भी किया।

लेखक के बारे में आवश्यक जानकारियाँ अपनी अभ्यासपुस्तिका में लिखना।

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शिक्षक के द्वारा पाठ का उच्च स्वर में पठन करना।

उच्चारण एवं पठनशैली को ध्यान से सुनना।

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पाठ के अवतरणों की व्याख्या करना।

पाठ को हॄदयंगम करने की क्षमता को विकसित करने के लिए पाठ को ध्यान से सुनना। पाठ से संबधित अपनी जिज्ञासाओं का निराकरण करना।

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कठिन शब्दों के अर्थ :-

            खेमा- डेरा     हुकुमत- शासन

तख़्त – सिंहासन     मसलेहत – रहस्य

जाँबाज़ – ज़ान की बाज़ी लगाने वाला

दमखम – शक्ति और दृढ़्ता

वज़ीफ़ा – परवरिश के लिए दी जाने वाली राशि ,   मुकर्रर – तय करना

तलब किया – याद किया

हुकमरां – शासन ,   हिफ़ाज़त – सुरक्षा

काफ़िला – यात्रियों का समूह

तन्हाई – एकांत ,  मुकाम – पड़ाव

गर्द – धूल ,   शुबहे – संदेह

कारतूस – बन्दूक की गोली

                       

 

 

 

छात्रों द्वारा अपनी अभ्यास- पुस्तिका में लिखना।

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छात्रों द्वारा पठित अनुच्छेदों में होने वाले उच्चारण  संबधी अशुद्धियों को दूर करना।

छात्रों द्वारा पठन।

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पाठ में आए व्याकरण का व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करना।

·         विराम चिह्न

·         उर्दू शब्दों के हिन्दी पर्याय

·         मुहावरों का वाक्य-प्रयोग

व्याकरण के इन अंगों के नियम, प्रयोग एवं उदाहरण को अभ्यास-पुस्तिका में लिखना।

गृहकार्य :-

(१)               पाठ का सही उच्चारण के साथ उच्च स्वर मेँ पठन करना।

(२)               पाठ के प्रश्नअभ्यास करना।

(३)               एकांकी की प्रमुख घटनाओं की संक्षेप में सूची तैयार करना।

(४)               पाठ में आए कठिन शब्दों का अपने वाक्यों में प्रयोग करना।

परियोजना कार्य :-

(१)               कारतूस’ जैसी एकांकियाँ पुस्तकालय आदि से संग्रह करना।

(२)               समाज में व्याप्त किसी समस्या पर आधारित  कोई एकांकी लिखना।

मूल्यांकन :-

निम्न विधियों से मूल्यांकन किया जाएगा :-

१.      पाठ्य-पुस्तक के बोधात्मक प्रश्न

Ø  कर्नल कालिंज़ का खेमा जंगल में क्यों लगा हुआ था?

Ø  वज़ीर अली के अफ़साने सुनकर राबिनहुड की याद क्यों आ जाती थी?

Ø  कंपनी के वकील का कत्ल करने के बाद वज़ीर अली ने अपनी हिफ़ाजत कैसे की?

Ø  वज़ीर अली एक ज़ाँबाज़ सिपाही था, कैसे? स्पष्ट कीजिए।

Ø  वज़ीर अली ने कंपनी के वकील का क़त्ल क्यों किया?

२.      इकाई परीक्षाएँ

३.      गृह – कार्य

४.      परियोजना - कार्य

 

 

 

मीरा के पद | कक्षा – दसवीं | स्पर्श (भाग-२) | इकाई पाठ-योजना | meerabai | cbse | hindi | class 10

मीरा के पद | कक्षा – दसवीं | स्पर्श (भाग-२)

इकाई पाठ-योजना










गुरुवार, 7 सितंबर 2023

मिठाईवाला | भगवती प्रसाद वाजपेयी | MITHAIWALA | BHAGWATI PRASAD VAJPAY | HINDI STORY

मिठाईवाला - भगवती प्रसाद वाजपेयी 

बहुत ही मीठे स्वरों के साथ वह गलियों में घूमता हुआ कहता- "बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।”

इस अधूरे वाक्य को वह ऐसे विचित्र. किंतु मादक-मधुर ढंग से गाकर कहता कि सुननेवाले एक बार अस्थिर हो उठते। उसके स्नेहाभिषिक्त कंठ से फूटा हुआ गान सुनकर निकट के मकानों में हलचल मच जाती। छोटे-छोटे बच्चों को अपनी गोद में लिए युवतियाँ चिकों को उठाकर छज्जों पर नीचे झाँकने लगतीं। गलियों और उनके अंतर्व्यापी छोटे-छोटे उद्यानों में खेलते और इठलाते हुए बच्चों का झुंड उसे घेर लेता और तब वह खिलौनेवाला वहीं बैठकर खिलौने की पेटी खोल देता।

बच्चे खिलौने देखकर पुलकित हो उठते। वे पैसे लाकर खिलौने का मोलभाव करने लगते। पूछते-“इछका दाम क्या है? औल इछका? औल इछका?" खिलौनेवाला बच्चों को देखता और उनकी नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से पैसे ले लेता और बच्चों की इच्छानुसार उन्हें खिलौने दे देता। खिलौने लेकर फिर बच्चे उछलने-कूदने लगते और तब फिर खिलौनेवाला उसी प्रकार गाकर कहता-“बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला"। सागर की हिलोर की भाँति उसका यह मादक गान गलीभर के मकानों में इस ओर से उस ओर तक, लहराता हुआ पहुँचता और खिलौनेवाला आगे बढ़ जाता।

राय विजयबहादुर के बच्चे भी एक दिन खिलौने लेकर घर आए। वे दो बच्चे थे चुन्नू और मुन्नू! चुन्नू जब खिलौने ले आया तो बोला “मेला घोला कैछा छंदल ऐ!"

मुन्नू बोला “औल देखो, मेला कैछा छंदल ऐ!"

दोनों अपने हाथी-घोड़े लेकर घरभर में उछलने लगे। इन बच्चों की माँ रोहिणी कुछ देर तक खड़े-खड़े उनका खेल निरखती रही। अंत में दोनों बच्चों को बुलाकर उसने पूछा-" अरे ओ चुन्नू-मुन्नू, ये खिलौने तुमने कितने में लिए हैं?"

मुन्नू बोला- “दो पैछे में। खिलौनेवाला दे गया ऐ।”

रोहिणी सोचने लगी-इतने सस्ते कैसे दे गया है? कैसे दे गया है, यह तो वही जाने। लेकिन दे तो गया ही है, इतना तो निश्चय है!

एक ज़रा सी बात ठहरी। रोहिणी अपने काम में लग गई। फिर कभी उसे इस पर विचार करने की आवश्यकता भी भला क्यों पड़ती!

छः महीने बाद -

नगरभर में दो-चार दिनों से एक मुरलीवाले के आने का समाचार फैल गया। लोग कहने लगे-“ भाई वाह! मुरली बजाने में वह एक ही उस्ताद है। मुरली बजाकर, गाना सुनाकर वह मुरली बेचता भी है, सो भी दो-दो पैसे में। भला, इसमें उसे क्या मिलता होगा? मेहनत भी तो न आती होगी!” be

एक व्यक्ति ने पूछ लिया-"कैसा है वह मुरलीवाला, मैंने तो उसे नहीं देखा !" उत्तर मिला-"उम्र तो उसकी अभी अधिक न होगी, यही तीस-बत्तीस का होगा। दुबला-पतला गोरा युवक है, बीकानेरी रंगीन साफ़ा बाँधता है।" "वही तो नहीं; जो पहले खिलौने बेचा करता था?"

'क्या वह पहले खिलौने भी बेचा करता था?"

"हाँ, जो आकार-प्रकार तुमने बतलाया, उसी प्रकार का वह भी था।"

"तो वही होगा। पर भई, है वह एक उस्ताद।"

प्रतिदिन इसी प्रकार उस मुरलीवाले की चर्चा होती। प्रतिदिन नगर की प्रत्येक गली में उसका मादक, मृदुल स्वर सुनाई पड़ता-“बच्चों को बहलानेवाला, मुरलिया वाला।"

रोहिणी ने भी मुरलीवाले का यह स्वर सुना। तुरंत ही उसे खिलौनेवाले का स्मरण हो आया। उसने मन-ही-मन कहा-खिलौनेवाला भी इसी तरह गा-गाकर खिलौने बेचा करता था।

रोहिणी उठकर अपने पति विजय बाबू के पास गई- “ज़रा उस मुरलीवाले को बुलाओ तो, चुन्नू -मुन्नू के लिए ले लूँ। क्या पता यह फिर इधर आए, न आए। वे भी, जान पड़ता है, पार्क में खेलने निकल गए हैं।'

विजय बाबू एक समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उसी तरह उसे लिए हुए वे दरवाज़े पर आकर मुरलीवाले से बोले-“क्यों भई, किस तरह देते हो मुरली?"

किसी की टोपी गली में गिर पड़ी। किसी का जूता पार्क में ही छूट गया, और किसी की सोथनी (पाजामा) ही ढीली होकर लटक आई है। इस तरह दौड़ते हाँफते हुए बच्चों का झुंड आ पहुँचा। एक स्वर से सब बोल उठे-“अम बी लेंदे मुल्ली और अम वी लेंदे मुल्ली।"

मुरलीवाला हर्ष-गद्गद हो उठा। बोला-“सबको देंगे भैया! लेकिन ज़रा रुको, ठहरो, एक-एक को देने दो। अभी इतनी जल्दी हम कहीं लौट थोड़े ही जाएँगे।

बेचने तो आए ही हैं और हैं भी इस समय मेरे पास एक-दो नहीं, पूरी सत्तावन। ....हाँ, बाबू जी, क्या पूछा था आपने, कितने में दीं!दीं तो वैसे तीन-तीन पैसे के हिसाब से हैं, पर आपको दो-दो पैसे में ही दे दूँगा।"

विजय बाबू भीतर-बाहर दोनों रूपों में मुसकरा दिए। मन-ही-मन कहने लगे कैसा है! देता तो सबको इसी भाव से है, पर मुझ पर उलटा एहसान लाद रहा है। फिर बोले-“तुम लोगों की झूठ बोलने की आदत होती है। देते होगे सभी को दो-दो पैसे में, पर एहसान का बोझा मेरे ही ऊपर लाद रहे हो।"

मुरलीवाला एकदम अप्रतिभ हो उठा। बोला “आपको क्या पता बाबू जी कि इनकी असली लागत क्या है। यह तो ग्राहकों का दस्तर होता है कि दुकानदार चाहे हानि उठाकर चीज क्यों न बेचे, पर ग्राहक यही समझते हैं-दुकानदार मुझे लूट रहा है। आप भला काहे को विश्वास करेंगे? लेकिन सच पूछिए तो बाबू जी, असली दाम दो ही पैसा है। आप कहीं से दो पैसे में ये मुरली नहीं पा सकते। मैंने तो पूरी एक हज़ार बनवाई थीं, तब मुझे इस भाव पड़ी हैं। "

विजय बाबू बोले-"अच्छा. मुझे ज़्यादा वक्त नहीं, जल्दी से दो ठो निकाल दो।"

दो मुरलियाँ लेकर विजय बाबू फिर मकान के भीतर पहुँच गए। मुरलीवाला देर तक उन बच्चों के झुंड में मुरलियाँ बेचता रहा! उसके पास कई रंग की मुरलियाँ थीं। बच्चे जो रंग पसंद करते. मुरलीवाला उसी रंग की मुरली निकाल देता।

'यह बड़ी अच्छी मुरली है। तुम यही ले लो बाबू, राजा बाबू तुम्हारे लायक 44 तो बस यह है। हाँ भैये, तुमको वही देंगे। ये लो। ...तुमको वैसी न चाहिए, यह नारंगी रंग की, अच्छा, वही लो। ...ले आए पैसे? अच्छा, ये लो तुम्हारे लिए मैंने पहले ही से यह निकाल रखी थी...! तुमको पैसे नहीं मिले। तुमने अम्मा से ठीक तरह माँगे न होंगे। धोती पकड़कर पैरों में लिपटकर, अम्मा से पैसे माँगे जाते हैं। बाबू! हाँ, फिर जाओ। अबकी बार मिल जाएँगे...। दुअन्नी है? तो क्या हुआ, ये लो पैसे वापस लो। ठीक हो गया न हिसाब? ....मिल गए पैसे? देखो, मैंने तरकीब बताई! अच्छा अब तो किसी को नहीं लेना है? सब ले चुके? तुम्हारी माँ के पास पैसे नहीं हैं? अच्छा, तुम भी यह लो। अच्छा, तो अब मैं चलता हूँ।” इस तरह मुरलीवाला फिर आगे बढ़ गया।

आज अपने मकान में बैठी हुई रोहिणी मुरलीवाले की सारी बातें सुनती रही। आज भी उसने अनुभव किया, बच्चों के साथ इतने प्यार से बातें करनेवाला फेरीवाला पहले कभी नहीं आया। फिर वह सौदा भी कैसा सस्ता बेचता है! भला आदमी जान पड़ता है। समय की बात है, जो बेचारा इस तरह मारा-मारा फिरता है। पेट जो न कराए, सो थोड़ा!

इसी समय मुरलीवाले का क्षीण स्वर दूसरी निकट की गली से सुनाई पड़ा-" बच्चों को बहलानेवाला, मुरलियावाला! " रोहिणी इसे सुनकर मन-ही-मन कहने लगी-और स्वर कैसा मीठा है इसका! बहुत दिनों तक रोहिणी को मुरलीवाले का वह मीठा स्वर और उसकी बच्चों के प्रति वे स्नेहसिक्त बातें याद आती रहीं। महीने-के-महीने आए और चले गए। फिर मुरलीवाला न आया। धीरे-धीरे उसकी स्मृति भी क्षीण हो गई।

आठ मास के बाद -

सरदी के दिन थे। रोहिणी स्नान करके मकान की छत पर चढ़कर आजानुलंबित केश-राशि सुखा रही थी। इस समय नीचे की गली में सुनाई पड़ा-"बच्चों को बहलानेवाला, मिठाईवाला।"

मिठाईवाले का स्वर उसके लिए परिचित था, झट से रोहिणी नीचे उतर आई। उस समय उसके पति मकान में नहीं थे। हाँ, उनकी वृद्धा दादी थीं। रोहिणी उनके निकट आकर बोली-“दादी, चुन्नू-मुन्नू के लिए मिठाई लेनी है। ज़रा कमरे में चलकर ठहराओ। मैं उधर कैसे जाऊँ, कोई आता न हो। ज़रा हटकर मैं भी चिक की ओट में बैठी रहूँगी।"

दादी उठकर कमरे में आकर बोलीं- “ए मिठाईवाले, इधर आना।"

मिठाईवाला निकट आ गया। बोला-“कितनी मिठाई दूँ माँ? ये नए तरह की मिठाइयाँ हैं-रंग-बिरंगी, कुछ-कुछ खट्टी कुछ-कुछ मीठी, जायकेदार, बड़ी देर तक मुँह में टिकती हैं। जल्दी नहीं घुलतीं। बच्चे बड़े चाव से चूसते हैं। इन गुणों के सिवा ये खाँसी भी दूर करती हैं! कितनी दूँ? चपटी, गोल. पहलदार गोलियाँ हैं। पैसे की सोलह देता हूँ।"

दादी बोलीं- "सोलह तो बहुत कम होती हैं, भला पचीस तो देते।” मिठाईवाला–“नहीं दादी, अधिक नहीं दे सकता। इतना भी देता हूँ, यह अब मैं तुम्हें क्या... खैर, मैं अधिक न दे सकूँगा।"

रोहिणी दादी के पास ही थी। बोली-"दादी, फिर भी काफ़ी सस्ता दे रहा है। चार पैसे की ले लो। यह पैसे रहे।"

मिठाईवाला मिठाइयाँ गिनने लगा।

“तो चार की दे दो। अच्छा, पच्चीस नहीं सही, बीस ही दो। अरे हाँ, मैं बूढ़ी हुई मोलभाव अब मुझे ज़्यादा करना आता भी नहीं।"

कहते हुए दादी के पोपले मुँह से ज़रा सी मुसकराहट फूट निकली।

रोहिणी ने दादी से कहा-“दादी, इससे पूछो. तुम इस शहर में और कभी भी आए थे या पहली बार आए हो? यहाँ के निवासी तो तुम हो नहीं।"

दादी ने इस कथन को दोहराने की चेष्टा की ही थी कि मिठाईवाले ने उत्तर दिया “पहली बार नहीं और भी कई बार आ चुका हूँ।"

रोहिणी चिक की आड़ ही से बोली-"पहले यही मिठाई बेचते हुए आए थे या और कोई चीज़ लेकर?"

मिठाईवाला हर्ष, संशय और विस्मयादि भावों में डूबकर बोला-"इससे पहले मुरली लेकर आया था और उससे भी पहले खिलौने लेकर।”

रोहिणी का अनुमान ठीक निकला। अब तो वह उससे और भी कुछ बातें पूछने के लिए अस्थिर हो उठी। वह बोली-"इन व्यवसायों में भला तुम्हें क्या मिलता होगा?"

वह बोला, “मिलता भला क्या है! यही खानेभर को मिल जाता है। कभी नहीं भी मिलता है। पर हाँ; संतोष, धीरज और कभी-कभी असीम सुख ज़रूर मिलता है और यही मैं चाहता भी हूँ।"

“सो कैसे? वह भी बताओ।"

'अब व्यर्थ उन बातों की क्यों चर्चा करूँ? उन्हें आप जाने ही दें। उन बातों को सुनकर आपको दुख ही होगा।"

'जब इतना बताया है, तब और भी बता दो। मैं बहुत उत्सुक हूँ। तुम्हारा हरजा न होगा। मिठाई मैं और भी ले लूँगी।”

अतिशय गंभीरता के साथ मिठाईवाले ने कहा - "मैं भी अपने नगर का एक प्रतिष्ठित आदमी था। मकान, व्यवसाय, गाड़ी-घोड़े, नौकर-चाकर सभी कुछ था। स्त्री थी, छोटे-छोटे दो बच्चे भी थे। मेरा वह सोने का संसार था। बाहर संपत्ति का वैभव था, भीतर सांसारिक सुख था। स्त्री सुंदरी थी, मेरी प्राण थी। बच्चे ऐसे सुंदर थे, जैसे सोने के सजीव खिलौने। उनकी अठखेलियों के मारे घर में कोलाहल मचा रहता था। समय की गति! विधाता की लीला। अब कोई नहीं है। दादी, प्राण निकाले नहीं निकले। इसलिए अपने उन बच्चों की खोज में निकला हूँ। वे सब अंत में होंगे, तो यहीं कहीं। आखिर, कहीं न जनमे ही होंगे। उस तरह रहता, घुल-घुलकर मरता। इस तरह सुख-संतोष के साथ मरूँगा। इस तरह के जीवन में कभी-कभी अपने उन बच्चों की एक झलक-सी मिल जाती है। ऐसा जान पड़ता है, जैसे वे इन्हीं में उछल-उछलकर हँस खेल रहे हैं। पैसों की कमी थोड़े ही है, आपकी दया से पैसे तो काफ़ी हैं। जो नहीं है, इस तरह उसी को पा जाता हूँ।"

रोहिणी ने अब मिठाईवाले की ओर देखा उसकी आँखें आँसुओं से तर हैं। इसी समय चुन्नू मुन्नू आ गए। रोहिणी से लिपटकर, उसका आँचल पकड़कर बोले-“अम्माँ, मिठाई!'

"मुझसे लो।" यह कहकर, तत्काल कागज़ की दो पुड़ियाँ, मिठाइयों से भरी, मिठाईवाले ने चुन्नू-मून्नू को दे दीं।

रोहिणी ने भीतर से पैसे फेंक दिए।

मिठाईवाले ने पेटी उठाई और कहा-“ अब इस बार ये पैसे न लूँगा।”

दादी बोली - "अरे-अरे, न न अपने पैसे लिए जा भाई!"

तब तक आगे फिर सुनाई पड़ा उसी प्रकार मादक-मृदुल स्वर में-" बच्चों को बहलानेवाला मिठाईवाला।”

   - भगवतीप्रसाद वाजपेयी