मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

गिल्लू | महादेवी वर्मा | GILLU | MAHADEVI VERMA | HINDI STORY

गिल्लू
महादेवी वर्मा

पाठ का आशय : कौन कह सकता है कि पशु-पक्षी भावहीन प्राणी हैं? वे भी हमारी तरह कभी-कभी हमसे भी अधिक भावानुकूल, विचारयान् और सहृदय व्यवहार करते हैं। महादेवी वर्मा ने एक छोटा-सा जीप, गिलहरी के बच्चे का रेखांकन कर प्राणी-जगत् की मानव-सहज जीवन शैली का प्रभावशाली चित्रण किया है। आज के संदर्भ में जहाँ मानय के स्वार्थ के कारण पशु-पक्षी की जातियाँ लुप्त होती जा रही है, यहाँ महादेवी वर्मा जी का यह 'संस्मरण' उनकी रक्षा करने और उनके प्रति प्रेमभाव जगाने की दिशा में एक सार्थक प्रयत्न सिद्ध होता है।
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इस पाठ से लेहमाव तथा प्राणी-दया की सीख मिलती है । पशु-पक्षियों के स्वभाव और उनकी जीवन-शैली के साथ-साथ उनके प्रति महादेवी वर्मा के प्रेम से परिचित होते हैं। 
अचानक एक दिन सवेरे कमरे से बरामदे में आकर मैंने देखा दो कौए एक गमले के चारों ओर चोंचों से छुआ-छुऔवल जैसा खेल खेल रहे हैं। यह काकभुशुण्डि भी विचित्र पक्षी है - एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, अति अवमानित। हमारे वेचारे पुरखे न गल्ड के रूप में आ सकते हैं, न मयूर के, न हंस के। उन्हें पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए काक बनकर ही अवतीर्ण होना पड़ता है। इतना नहीं, हमारे दूरस्थ प्रियजनों को भी आने का मधुर संदेश इनके कर्कश स्वर में ही देना पड़ता है। दूसरी ओर हम कौआ और कांव-कांय करने को अवमानना के अर्थ में ही प्रयुक्त करते है।

मेरे काकपुराण के विवेचन में अचानक बाधा आ पड़ी, क्योंकि गमले और दीपार की संधि में छिपे एक छोटे-से जीव पर मेरी पृष्टि रुक गयी। निकट जाकर देखा, गिलहरी का एक छोटा-सा बच्चा है, जो सम्भवतः घोसले से गिर पड़ा है और अब कौए जिसमें सुलभ आहार खोज रहे हैं। काकद्वय की चोंचों के दो घाव उस लघुप्राण के लिए बहुत थे, अतः वह निश्चेष्ट-सा गमले से चिपका पड़ा था। सबने कहा, कौए की चोंच का पाय लगने के बाद यह बच नहीं सकता, अतः इसे ऐसे ही रहने दिया जाये। परन्तु मन नहीं माना - उसे हौले से उठाकर अपने कमरे में लायी, फिर रुई से रक्त पोंछकर घावों पर पेन्सिलिन का मरहम लगाया। कई घंटे के उपचार के उपरान्त उसके मुह में एक बूंद पानी टपकाया जा सका। तीसरे दिन यह इतना अच्छा और आश्वस्त हो गया कि मेरी उंगली अपने दो नन्हें पंजों से पकड़कर, नीले कांच के मोतियों जैसी आँखों से इधर-उधर देखने लगा। तीन-चार मास में उसके स्निग्ध रोयें, झब्बेदार पूंछ और चंचल-चमकीली आंखें सबको विस्मित करने लगीं। हम उसे गिल्लू कहकर बुलाने लगे। मैंने फूल रखने की एक हल्की इलिया में रुई बिछाकर उसे तार खिड़की पर लटका दिया। वर्ष वही गिल्लू का घर रहा। वह स्वयं हिलाकर अपने घर और अपनी कांच के मनकों-सी आंखों से कमरे के भीतर और खिड़की से बाहर न जाने क्या देखता-समझता रहता था। परन्तु उसकी समझदारी और कार्य कलाप पर सबको आश्चर्य होता था। जन में लिखने बैठती तव अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करने की उसे इतनी तीव्र इच्छा होती थी कि उसने एक अच्छा उपाय खोज निकाला।

वह मेरे पैर तक आकर सर्र से परदे पर चढ़ जाता और फिर उसी तेजी से उतरता। उसका यह दौड़ने का क्रम तब तक चलता, जब तक मैं उसे पकड़ने के लिए न उठती। कभी मैं गिल्लू को पकड़कर एक लंबे लिफ़ाफ़े में इस प्रकार रख देती कि उसके अगले दो पंजों और सिर के अतिरिक्त सारा लघु गात लिफाफे के भीतर बंद रहता। इस अद्भुत स्थिति में कभी-कभी घंटों मेज़ पर दीवार के सहारे खड़ा रहकर वह अपनी चमकीली आंखों से मेरा कार्य-कलाप देखा करता। भूख लगने पर चिक-चिक करके मानो वह मुझे सूचना देता और काजू या बिस्कुट मिल जाने पर उसी स्थिति में लिफ़ाफ़े से बाहरवाले पंजों से पकड़कर उसे कुतरता रहता। फिर गिल्लू के जीवन का प्रथम वसंत आया। बाहर की गिलहरियां खिड़की की जाली के पास आकर चिक-चिक करके न जाने क्या कहने लगीं। गिल्लू को जाली के पास बैठकर अपनेपन से बाहर झांकते देखकर मुझे लगा कि इसे मुक्त करना आवश्यक है। मैने कीलें निकालकर जाली का एक कोना खोल दिया और इस मार्ग से गिल्लू ने बाहर जाने पर सचमुच ही मुक्ति की सांस ली। इतने छोटे जीव को घर में पले कुत्ते-विल्लियों से बचाना भी एक समस्या ही थी। कमरे से बाहर जाने पर वह भी खिड़की की खुली जाली की राह वाहर चला जाता और दिन भर गिलहरियों के झुण्ड का नेता बना, हर डाल पर उछलता-कूदता रहता और ठीक चार बजे वह खिड़की से भीतर आकर अपने झूले में झूलने लगता। मुझे चौंकाने की इच्छा उसमें न जाने कब और कैसे उत्पन्न हो गयी थी। कभी फूलदान के फूलों में छिप जाता, कभी परदे की चुप्तट में और कभी सोनजुही की पत्तियों में।

मेरे पास बहुत से पशु-पक्षी हैं और उनका मुझसे लगाव भी कम नहीं है। परन्तु उनमें से किसी को मेरे साथ मेरी थाली में खाने की हिमत छु  है, ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता। गिल्लू इनमें अपवाद था। में जैसे ही खाने के कमरे में पहुंचती, यह खिड़की से निकलकर आंगन की दीवार बरामदा पार करके मेज पर पहुंच जाता और मेरी थाली में बैठ जाना चाहता। बड़ी कठिनाई से मैंने उसे थाली के पास बैठना सिखाया, जहां बैठकर यह मेरी थाली में से एक-एक चावल उठाकर बड़ी सफाई से खाता रहता। काजू उसका प्रिय खाद्य था और कई दिन काजू न मिलने पर यह अन्य खाने की चीजें या तो लेना बंद कर देता था या भूले से नीचे फेंक देता था। उसी बीच मुझे मोटर-दुर्घटना में आहत होकर कुछ दिन अस्पताल में रहना पड़ा। उन दिनों जब मेरे कमरे का दरवाज़ा खोला जाता, गिल्लू अपने झूले से उतरकर दौड़ता और फिर किसी दूसरे को देखकर तेजी से अपने घोंसले में जा बैठता। सब उसे काजू दे जाते, परंतु अस्पताल से लौटकर जब मैंने उसके झूले की सफाई की तो उसमें काजू भरे मिले, जिनसे ज्ञात होता था कि यह उन दिनों अपना प्रिय खाद्य कितना कम खाता रहा। मेरी अस्वस्थता में वह तकिये पर सिरहाने बैठकर अपने नन्हे-नन्हे पंजों से मेरे सिर और बालों को हौले-हौले सहलाता रहता।

गर्मियों में जब मैं दोपहर में काम करती रहती तो गिल्लू न बाहर जाता, न अपने झूले में बैठता। यह मेरे पास रखी सुराही पर लेट जाता और इस प्रकार समीप भी रहता और ठंडक में भी रहता। गिलहरियों के जीवन की अवधि दो वर्ष से अधिक नहीं होती, अतः गिल्लू की जीवन-यात्रा का अंत आ ही गया। दिन भर उसने न कुछ खाया, न वह बाहर गया। पंजे इतने ठंडे हो रहे थे कि मैने जागकर हीटर जलाया और उसे उष्णता देने का प्रयत्न किया। परन्तु प्रभात की प्रथम किरण के साथ ही यह चिर निद्रा में सो गया। उसका झूला उतारकर रख दिया गया है और खिड़की की जाली बंद कर दी गई है, परन्तु गिलहरियों की नयी पीढ़ी जाली के उस पार चिक-चिक करती ही रहती है और सोनजुही खिलती ही रहती है। सोनजुही की लता के नीचे गिल्लू की समाधि है। इसलिए भी कि उसे वह लता सबसे अधिक प्रिय थी, इसलिए भी कि उस लघु गात का, किसी वासन्ती दिन, जुही के पीताभ छोटे फूल के रूप में खिल जाने का विश्वास, मुझे संतोष देता है। 
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महादेवी वर्मा जी विश्व स्तर की कवयित्री हैं। उन्हें 'आधुनिक मीरा' भी कहा जाता है। उनका जन्म 24 मार्च, 1907 को फरुखाबाद में हुआ। उनके पिता गोविंद प्रसाद वर्मा और माता हेमारानी थीं। उन्होंने प्रयाग के विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. उपाधि प्राप्त कर प्रयाग के महिला विद्यापीठ में प्रधानाध्यापिका का पद संभाला। महादेवी वर्मा जी ने गन्य और की रचना की है। इनकी प्रमुख रचनाएं हैं : यामा, सांध्यगीत, दीपशिखा, नीरजा, नीहार, अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, मेरा परिवार, श्रृंखला की कड़ियां आदि। महादेवी वर्मा जी को सेक्सरिया, मंगल प्रसाद, द्विवेदी पदक आदि अनेक पुरस्कार प्राप्त हैं। उनकी 'यामा' के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त है। इस महान् रचनाकार का निधन सितंबर , सन् 1987 को हुआ।

सोमवार, 6 दिसंबर 2021

कोई नहीं पराया | श्री गोपाल दास ’नीरज‘ | GOPALDAS NEERAJ

कोई नहीं पराया 
श्री गोपाल दास ’नीरज‘ 

प्रस्तुत कविता मनुष्य-मनुष्य के बीच के बंटवारे, विभेद, जाति, लिंग, धर्म, रंग, वर्ण जनित विभिन्न तरह की संकीर्णताओं पर मन में सवाल खड़ा करता है। कवि प्रस्तुत कविता के जरिए धर्म और जाति से जुड़ी तमाम नफरत की दीवारों को गिराने का आह्वान करते हैं। कवि एकता का संदेश देते हुए कहते हैं कि उसका आराध्य मनुष्य मात्र है और उसके लिए देवालय हर इंसान का घर है। कवि स्पष्ट कहते हैं कि इस संसार में कोई पराया नहीं है सब ईश्वर की संतान हैं।

ईश्वर को लोग अपनी समझ और सन्दर्भ से अल्लाह, गॉड, राम, रहीम कहते हैं। जिस तरह से फूल, बाग की शोभा पहले है, डाल की शोभा बाद में है, वैसे ही मनुष्य जाति, धर्म, प्रान्त अथवा राष्ट्र की शोभा बाद में है, पहले विश्व की शोभा है। इस तरह से कवि “वसुधैव कुटुम्बकम” के सहज संदेश को कविता के जरिए सम्प्रेषित करते हैं।

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।

मैं न बँधा हूँ, देश-काल की जंग लगी जंजीर में,

मैं न खड़ा हूँ जात-पाँत की ऊँची-नीची भीड़ में,

मेरा धर्म न कुछ स्याही-शब्दों का सिर्फ गुलाम है,

मैं बस कहता हूँ कि प्यार है तो घट-घट में राम है,

मुझसे तुम न कहो मंदिर-मस्जिद पर सर मैं टेक दूँ,

मेरा तो आराध्य आदमी, देवालय हर द्वार है।

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।।


कहीं रहे कैसे भी मुझको प्यारा यह इंसान है,

मुझको अपनी मानवता पर बहुत-बहुत अभिमान है,

अरे नहीं देवत्व, मुझे तो भाता है मनुजत्व ही,

और छोड़कर प्यार नहीं स्वीकार, सकल अमरत्व भी,

मुझे सुनाओ तुम न स्वर्ग-सुख की सुकुमार कहानियाँ,

मेरी धरती सौ-सौ स्वर्गों से ज्यादा सुकुमार है।

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।।


मैं सिखलाता हूँ कि जिओ और जीने दो संसार को,

जितना ज्यादा बाँट सको तुम बाँटो अपने प्यार को,

हँसो इस तरह, हँसे तुम्हारे साथ दलित यह धूल भी,

चलो इस तरह कुचल न जाए पग से कोई फूल भी,

सुख न तुम्हारा सुख, केवल जग का भी इसमें भाग है,

फूल डाल का पीछे, पहले उपवन का शृंगार है। 

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।।

कुछ और भी दूँ | श्री रामावतार त्यागी | RAMAVTAR TYAGI

कुछ और भी दूँ 
श्री रामावतार त्यागी 

राष्ट्रीय भावों से ओत.प्रोत यह कविता बच्चों के कोमल मन में स्वदेश प्रेम की भावना को सहज ही जागृत करती है। कवि देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने का प्रस्ताव रखा पर इतने से ही उनका मन संतुष्ट नहीं होता। कवि.मन में हर पल राष्ट्र के लिए कुछ और भी अर्पित करने की उत्कट चाहता है। स्वयं को अकिंचन मानते हुए भी कवि अपने हर भावए चाहत और अपनी हर चेष्टा को राष्ट्र माता के चरणों में समर्पित करने को कृत संकल्पित है और देशवासियो को भी प्रेरित करते हैं।

मन समर्पित, तन समर्पित,

और यह जीवन समर्पित,

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

माँ, तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,

किन्तु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन

थाल में लाऊँ सजाकर भाल जब,

कर दया स्वीकार लेना वह समर्पण,

गान अर्पित, प्राण अर्पित,

रक्त का कण-कण समर्पित

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

भाँज दो तलवार को लाओ न देरी,

बाँध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,

भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी,

शीश पर आशीष की छाया घनेरी,

स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित,

आयु का क्षण-क्षण समर्पित,

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,

गाँव मेरे, द्वार-घर-आँगन क्षमा दो,

आज सीधे हाथ में तलवार दे दो,

और बायें हाथ में ध्वज को थमा दो।

ये सुमन लो, यह चमन लो,

नीड़ का तृण-तृण समर्पित,

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

वर्षा-बहार | श्री मुकुटधर पांडेय | MUKUTDHAR PANDEY

वर्षा-बहार - श्री मुकुटधर पांडेय 

छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध और प्रकृति के चितेरे कवि श्री मुकुटधर पाण्डेय जी की प्रस्तुत कविता वर्षा बहार, वर्षा ऋतु के मनोरम दृश्यों और भावों को सहज रूपों में अभिव्यक्त करती है। वर्षा के कारण संपूर्ण प्राकृतिक परिवेश में जिस तरह के मोहक और आकर्षक परिवर्तन को कवि देखते और महसूस करते हैं उसे सरल भाव-लय में कविता में व्यक्त करते चलते हैं। कवि की दृष्टि मेघमय आसमान से लेकर हवा, पानी बादल, बिजली, जीव, जलचर, सौरभ, सुगीत, हंस, किसान सभी पर पडती चलती है। अंत में कवि का आतुर मन गा उठता है-“इस भाँति है अनोखी, वर्षा बहार भू पर, सारे जगत की शोभा है, निर्भर है इसके ऊपर”।

वर्षा बहार सबके, मन को लुभा रही है

नभ में छटा अनूठी, घनघोर छा रही है।

बिजली चमक रही है, बादल गरज रहे हैं

पानी बरस रहा है, झरने भी बह रहे हैं।

चलती हवा है ठंडी, हिलती हैं डालियाँ सब,

बागों में गीत सुंदर, गाती हैं मालिनें अब।

तालों में जीव जलचर, अति हैं प्रसन्न होते,

फिरते लाखो पपीहे, हैं ग्रीष्म ताप खोते।

करते हैं नृत्य वन में, देखो ये मोर सारे,

मेंढक लुभा रहे हैं, गाकर सुगीत प्यारे।

खिलता गुलाब कैसा, सौरभ उड़ा रहा है,

बागों में खूब सुख से, आमोद छा रहा है।

चलते कतार बाँधे, देखो ये हंस सुंदर,

गाते हैं गीत कैसे, लेते किसान मनहर।

इस भाँति है अनोखी, वर्षा बहार भू पर, 

सारे जगत की शोभा, निर्भर है इसके ऊपर।

मातृभूमि | भगवतीचरण वर्मा | MATHRUBHUMI | BHAGWATI CHARAN VERMA

मातृभूमि - भगवतीचरण वर्मा 

भगवतीचरण वर्मा के नाम को हिन्दी साहित्य में आदर के साथ लिया जाता है। प्रस्तुत कविता में कवि के देशप्रेम की झलक दिखायी देती है। वे मातृभूमि को प्रणाम करते हुए उसमें विद्यमान अपार वन-संपदा, खनिज संपत्ति का वर्णन करते हुए भारत के महान् विभूतियों का स्मरण करते हैं। इस कविता से भारत की महानता का परिचय प्राप्त होता है।

इस कविता के द्वारा कवि मातृभूमि की विशेषता का परिचय देते हुए छात्रों के मन में देशप्रेम का भाव जगाना चाहते हैं।

मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम!

अमरों की जननी, तुमको शत-शत बार प्रणाम!

मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम!

तेरे उर में शायित गांधी, वुद्ध और राम,

मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

हरे-भरे हैं खेत सुहाने, फल-फूलों से युत वन-उपवन,

तेरे अंदर भरा हुआ है। खनिजों का कितना व्यापक धन।

मुक्त-हस्त तू बांट रही है सुख-संपत्ति, धन-धाम,

मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम।

एक हाथ में न्याय- पताका, शान-दीप दूसरे हाथ में,

जग का रूप बदल दे, हे माँ, कोटि-कोटि हम आज साथ में।

गूंज उठे जय-हिंद नाद से सकल नगर और ग्राम,

मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।