शनिवार, 4 दिसंबर 2021

महात्मा गाँधी | श्री सत्यकाम विद्यालंकार | MAHATMA GANDHI

महात्मा गाँधी 
श्री सत्यकाम विद्यालंकार 

(आशय: अपने जीवन के कष्टों को झेलने पर भी सत्य, अहिंसा, कर्तव्य आदि के पथ से विचलित न होकर, शांति का उपदेश देनेवाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी का संक्षिप्त परिचय पाना इस पाठ का आशय है।)

“एक विशाल काया-मूर्ति की तरह बापू भारत के इतिहास की आधी शताब्दी में पांव फैलाए खड़े हैं। यह मूर्ति भौतिक नहीं, आत्मिक है...

यह समय विश्व में युद्धों और क्रांतियों का रहा है। किन्तु हमारे देश की घटनाएँ उनसे बिलकुल अलग और स्पष्ट दिखाई देती हैं, क्योंकि उनकी रचना दूसरे ही धरातल पर हुई थी। इस युग में भारत के विषय में केवल यही आश्चर्य की बात नहीं थी कि सारे देश ने दुनिया के रास्ते से अलग चलकर, सबसे भिन्न और ऊंचे स्तर पर काम किया, बल्कि यह भी कि इतने लम्बे समय तक किया। यह एक चमत्कार से कम नहीं था। कि इतने इस चमत्कार के रहस्य को तब तक कोई नहीं समझ सकता, जब तक हम उस महान् पुरुष के चमत्कारी जीवन पर दृष्टि नहीं डालते, जिसने अपने हाथों इस युग को बनाया था। यही महान् पुरुष महात्मा गांधी थे।

उनके कठिन कार्यों, संघर्षों, विषम साहसों से परिपूर्ण दीर्घ जीवन में कोई भी ऐसा स्वर नहीं निकला, जो बेसुरा लगे। उनकी समस्त विविध प्रवृत्तियों में आश्चर्यजनक एकरसता भरी थी, जिसमें उनके मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द और उनका प्रत्येक कार्य ठीक प्रकार से सज जाता था। इस प्रकार बिना जाने ही वे पूर्ण कलाकार बन गए थे, क्योंकि उन्होंने जीने की कला का अभ्यास किया था। यह दुनिया के जीने की कला से सर्वथा भिन्न थी - फिर भी दुनिया उन्हें मानती थी।

जैसे-जैसे वृद्ध होते गए, उनका शरीर उनके भीतर की शक्तिशाली आत्मा का वाहन-मात्र दिखाई देने लगा। उनकी बात सुनते हुए या उन्हें देखते हुए लोग उनके बाह्य शरीर को देखना ही भूल जाते थे। इसलिए, “जहाँ वे बैठते थे, वह स्थान मन्दिर के समान पवित्र बन जाता था और जहां वे चलते थे, वह मार्ग पूजा की जगह बन जाता था।"

ये उद्गार हैं, जो नेहरु ने गांधीजी की मृत्यु के बाद उनके प्रति व्यक्त किए थे। इनसे हम गांधीजी के विशाल व्यक्तित्व का कुछ अनुमान लगा सकते हैं। फिर भी हम उनके इतने निकट हैं कि उनकी महानता को हमारी आंखें स्पष्ट रुप से नहीं देख पातीं। आनेवाली पीढ़ियाँ शायद उन्हें और अधिक स्पष्ट रुप से देख सकेंगी और विश्व वैज्ञानिक आइन्स्टाइन के शब्दों में : "उन्हें आश्चर्य होगा कि ऐसा विलक्षण व्यक्ति सदेह रूप में कभी पृथ्वी पर रहता था।"

हमारे देश को यह सौभाग्य प्राप्त है कि उसने एक ऐसी महान् आत्मा को जन्म दिया, जिसकी गणना शताब्दियों तक संसार के श्रेष्ठतम महापुरुषों में होगी।

गांधीजी का वास्तविक नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। इनके पिता राजकोट के दीवान थे। सन् 1869 की 2 अक्तूबर को, पोरबन्दर नामक नगर में गाँधीजी का जन्म हुआ। धर्मभीरु माता-पिता के आचार-विचारों का प्रभाव गांधीजी पर भी पड़ा और वे बचपन से ही सत्य के पुजारी बन गए ।

पिता के देहान्त के बाद गांधीजी 4 सितम्बर, 1888 बैरिस्टरी की परीक्षा के लिए विलायत गए। जाने से पूर्व गांधीजी अपनी माता से यह प्रतिज्ञा कर गए थे कि वे मांस-मदिरा आदि सब व्यसनों से दूर रहेंगे। इस प्रतिज्ञा ने आपको बड़ा आत्मिक बल दिया। इंग्लैंड के उत्तेजक वातावरण का आकर्षण भी आपको अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर सका। फैशन की ओर थोड़ा-सा झुकाव हुआ था, किन्तु माँ को दी गई प्रतिज्ञा ने उन्हें फिर सादे जीवन की ओर झुका दिया। इंग्लैंड में आपने 'टालस्टाय' और 'रस्किन' की पुस्तकों का भी अध्ययन किया। इनके अध्ययन तथा गीता-बाइबल आदि के चिन्तन-मनन ने आपके धार्मिक भावों को और भी दृढ़ कर दिया।

तीन साल की पढ़ाई के बाद सन् 1891 में गांधीजी बैरिस्टर बनकर भारत वापस आ गए और राजकोट में वकालत शुरु कर दी। यहाँ वकालत कर ही रहे थे कि पोरबंदर की एक बड़ी व्यापारी संस्था ‘अब्दुल्ला एण्ड कम्पनी' के मुकदमें की पैरवी के लिए आपको दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा।

दक्षिण अफ्रीका से ही गांधीजी का वास्तविक जीवन शुरु होता है। अब तक जो संस्कार उनके मन में थे, उनकी परीक्षा का समय आ गया।

दक्षिण अफ्रीका में उन दिनों भारतीयों के साथ बड़ा बुरा व्यवहार किया जाता था। आपका मन इस व्यवहार से विद्रोही हो उठा। अदालत में जब आप अपने केस की पैरवी करने गए, तो जज ने आपसे पगड़ी उतारने को कहा। आपने इसे अपना अपमान समझा और आप बिना पगड़ी उतारे बाहर चले आए। यह घटना अखबारों में छपी। दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों का ध्यान आपकी ओर खिंच गया। इसके कुछ दिनों और घटना हो गई। आप रेलगाड़ी के प्रथम दर्जे के डिब्बे में यात्रा कर रहे थे। एक अंग्रेज ने आकर आपको उतारना चाहा। आपने उसे टिकट दिखाया। अंग्रेज ने टिकट की परवाह किए बिना उन्हें धकेलकर नीचे उतार दिया। वहाँ अंग्रेजों द्वारा उनका कई बार अपमान हुआ। इन अपमानों के बाद गांधीजी उद्विग्न रहने लगे।

अन्त में अपने मुवक्किल के केस का फैसला अदालत की सहायता के बिना करवाकर आप दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों का संगठन करने के काम में लग गए। गांधीजी चाहते थे कि वे अंग्रेजों के अपमानपूर्ण व्यवहार का सामूहिक रूप से उत्तर दे सकें। गांधीजी ने उसी उद्देश्य से वहाँ 'नेटाल इण्डियन कांग्रेस' की स्थापना की। इस संस्था द्वारा वहाँ के भारतीयों ने आत्मसम्मान का पाठ सीखा।

संगठन के इन प्रयत्नों ने वहाँ के अंग्रेजों को गांधीजी का शत्रु बना दिया। कई बार उन्होंने गांधीजी की हत्या के प्रयत्न किए किन्तु गांधीजी हर बार बच गए। हत्यारों की इन चेष्टाओं का जिक्र पार्लियामेंट में भी हुआ। ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार को हत्या की चेष्टा करनेवालों पर मुकदमा चलाने को भी लिखा, किन्तु गांधीजी ने किसी पर मुकदमा चलाने से इनकार कर दिया।

अंग्रेज़ों के दुर्व्यवहार होते हुए भी गांधीजी ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध अफ्रीका के आदिम निवासी 'बोअर' लोगों के युद्ध में अंग्रेज़ों को सहायता के दी। घायलों की सेवा का काम आपने अपने हाथों में ले लिया। इस सेवा-कार्य से अंग्रेज़ तथा भारतीय दोनों गांधीजी को मानने लगे।

दक्षिण अफ्रीका से लौटकर आपने बम्बई में वकालत प्रारम्भ कर दी, किन्तु कुछ ही महीनों बाद दक्षिण अफ्रीका के लोगों का बुलावा आ गया। आप फिर दक्षिण अफ्रीका पहुँचे। वहाँ आपने भारतीयों के लिए अपमानजनक कानून के प्रति विरोध प्रदर्शित करने के लिए सत्याग्रह आरम्भ कर दिया। सत्याग्रह का यह सबसे पहला प्रयोग जनरल स्मट्स ने गांधीजी को बुलाकर उन्हें कानून रद्द करने का वचन दिया, किन्तु स्मट्स ने अपना वचन पूरा नहीं किया। गांधीजी का फिर सत्याग्रह करना पड़ा। इसकी चर्चा अफ्रीका के बाहर के देशों में भी हुई। सत्याग्रह का यह युद्ध कई वर्ष चला। अन्त में स्मट्स को उक्त कानून में सुधार करने पड़े, की यह पहली जीत थी।

सत्याग्रह ग्यारह वर्ष दक्षिण अफ्रीका में रहने के बाद गांधीजी भारत लौटे। ग्यारह वर्षों में उन्होंने दो व्रत लिए थे; पहला यह कि भविष्य में वे ब्रह्मचारी रहेंगे, दूसरा यह कि उनका शेष जीवन लोकसेवा में व्यतीत होगा। गांधीजी का शेष सारा जीवन इन दो व्रतों की साधना का इतिहास है।

भारत आते ही आपने गोखले की सलाह मानकर भारत का भ्रमण आरम्भ कर दिया। वीरमगाम में जकात के सम्बन्ध में जनता बड़ी दुःखी थी। आपने उनका दुःख वायसराय के सामने रखा। वायसराय ने इन शिकायतों पर उचित ध्यान दिया। इससे काठियावाड़ तथा भारत की जनता आपकी ओर आकृष्ट हुई।

वर्ष-भर देश का दौरा करने के बाद आप अहमदाबाद लौट आए यहाँ आकर आपने साबरमती नदी के किनारे 'सत्याग्रह आश्रम' की नींव रखी। किन्तु देश के दुःखी किसानों की पुकार ने आपको चैन से नहीं बैठने दिया। सबसे पहले बिहार के चम्पारन जिले के किसानों ने आकर गांधीजी से शिकायत की कि वहाँ के अंग्रेज़ ज़मींदार उन पर बड़ा अत्याचार करते हैं। आपने स्वयं चम्पारन जांच की और किसानों की शिकायतें सरकार के सामने रखीं। पहले तो सरकार ने ध्यान नहीं दिया, किन्तु जब सत्याग्रहियों के जत्थे जेलों में भरने लगे तो सरकार को गांधीजी के सुझाव मानने पड़े। जे गांधीजी का यश देश-भर में फैला दिया ।

चम्पारने से आपको अहमदाबाद की मिलों के मालिकों व मज़दूरों का झगड़ा निबटाने के लिए आना पड़ा। आपने मिल-मालिकों को समझाने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु वे नहीं माने। तब आपने मज़दूरों को हड़ताल करने की सलाह दी। हड़ताल का आन्दोलन कुछ मन्द होने लगा, तो आपने उपवास की घोषणा की। यह आपके जीवन का पहला सार्वजनिक उपवास था। तीन दिन के उपवास के बाद ही मिल-मालिकों ने मज़दूरों से समझौता कर लिया।

सन् 1914 में जब पहला महायुद्ध आरम्भ हुआ तो गांधीजी ने धन और जन से अंग्रेज़ों की सहायता की। उस समय आपको अंग्रेज़ों की सच्चाई में विश्वास था। अंग्रेज़ों ने युद्ध में विजयी होने के बाद भारत को स्वतंत्रता देने का वचन दिया था, किंतु युध्द समाप्त होने पर भारत को स्वतन्त्रता के स्थान पर दमनकारी ‘रौलट एक्ट' का कानून भेंट किया गया। अंग्रेज़ों की इस कृतघ्नता पर आपको बड़ा दुःख हुआ। रौलट एक्ट के विरोध में आपने असहयोग और सत्याग्रह करने का निश्चय किया। 30 मार्च, सन् 1919 से यह आन्दोलन शुरू हो गया। सरकार ने निःशस्त्र जनता पर लाठियों और गोलियों की बौछार की| अमृतसर के जलियांवाला बाग में सैकड़ों निर्दोष नर-नारी गोलियों से भून दिए गए। आपने इस घटना की जाँच के कांग्रेस की ओर से एक कमिटी बनाई। गाँव-गाँव में भ्रमण किय रिपोर्ट ने दुनिया की आंखें खोल दी।

अमृतसर की कांग्रेस में आपने देश के सामने असहयोग की योजना रखी। कुछ महीने बाद कलकत्ता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन बुलाया गया। उसमें असहयोग का प्रस्ताव स्वीकार हो समस्त देश की जनता ने पहली बार गांधीजी का नेतृत्व मान लिया। गांधीजी ने देश की बागडोर अपने हाथों से की भारत में अपने का यह पहला आन्दोलन था। हज़ारों शिक्षित, वकील, विद्यार्थी, व्यापारी अपने काम-धन्धे छोड़कर जेल की यात्रा को तैयार हो गए। जेलें भर गईं। किसानों ने भी जत्थे बनाकर जेल यात्रा शुरु कर दी। किन्तु बीच में ही चौरी-चौरा का कांड हो गया। कुछ कष्ट पीड़ित किसानों ने सिपाहियों को जिन्दा जला दिया था। इस घटना से दुःखी होकर गांधीजी ने अपना आन्दोलन वापस ले लिया। अहिंसा उनके आन्दोलन की पहली शर्त थी। अहिंसात्मक रीति से ही वे सत्य का युद्ध करते थे।

सत्याग्रह स्थगित हो गया, किंतु देश को अपने धर्मयुद्ध के लिए तैयार करने का काम चलता रहा। रचनात्मक कार्यों में आपने अपनी सारी शक्ति लगा दी, किन्तु सरकार को यह भी सह्य नहीं था। आपको छः साल की सज़ा दे दी गई। आपके जेल जाने के बाद साम्प्रदायिक दंगों का आरम्भ हुआ। देश-भर में हिन्दू-मुस्लिम उपद्रवों का दौर शुरू हो गया। जेल से छूटकर आपने इन दंगों को सदा के लिए शांत करने के निमित्त इक्कीस दिन के उपवास की घोषणा की। इस घोषणा ने दोनों जातियों के नेताओं का ध्यान साम्प्रदायिक शान्ति की ओर आकृष्ट किया।

सन् 1924 में आप पहली बार बेलगांव कांग्रेस के प्रधान अध्यक्ष बनने के बाद आपने फिर देश का भ्रमण किया। इस भ्रमण में उन्हें यह अनुभव हुआ कि देश के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता भी अधिक आवश्यक कार्य हरिजनों के उद्धार का है। उन्हें भी अन्य वर्गों के समान अधिकार मिलने चाहिए। खादी की कल्पना ने भी इसी दौरे में महत्त्व पकड़ा। परिणाम स्वरूप आपने 'हरिजन संघ की स्थापना की और इन दोनों कार्यों का समावेश भी कांग्रेस के कार्यों में कर दिया। इसके अतिरिक्त मद्यनिषेध, हिंदी-प्रचार, शिक्षा-सुधार आदि रचनात्मक कार्यों में भी आपने पथ-प्रदर्शक का काम किया।

सन् 1930 में गांधीजी ने दूसरे सत्याग्रह युद्ध का आरम्भ किया। इसका आरम्भ 12 मार्च, सन् 1930 के दिन साबरमती आश्रम से दांडी के लिए प्रस्थान करके किया गया था । नमक-कानून तोड़ना इस प्रस्थान का तात्कालिक ध्येय था। ६ अप्रैल को गांधीजी ने दांडी पहुंचकर स्वयं नमक तैयार किया। अगले ही दिन सरकार ने आपको गिरफ्तार कर लिया। गांधीजी की गिरफ्तारी ने आंदोलन की आग में घी का काम किया। हज़ारों सत्याग्रही जेलों में गए। अन्त में सरकार ने लंदन में गोलमेज़ परिषद बुलाई। गांधीजी भी उसमें भाग लेने के लिए लंदन पहुंचे। इस परिषद् से गांधीजी को बहुत निराशा हुई। वे निराश लौटे और लौटते ही 4 जनवरी, सन् 1932 को गिरफ्तार कर लिए गए।

जिन दिनों आप जेल में थे, सरकार ने देश को निर्बल बनाने के लिए एक नई चाल चली। हरिजनों को हिन्दुओं से अलग करने के लिए सरकार ने धारा-सभा में उनको पृथक् प्रतिनिधित्व देने का विचार किया। गांधीजी ने इस निश्चय के विरोध में जेल में ही उपवास शुरु कर दिया। इस उपवास ने सरकार को हिला दिया और उसे अपना निश्चय बदलना पड़ा। इसके बाद ३० अप्रैल, सन् 1933 को गांधीजी ने आत्मशुद्धि के लिए इक्कीस दिन उपवास किया। इस उपवास में आपकी मृत्यु इतनी निकट आ गई थी कि देश-भर में शोक छा गया। किन्तु किसी दिव्य शक्ति ने उनके जीवन की रक्षा कर ली। इक्कीस दिन कार उपवास भी सफलतापूर्वक समाप्त हुआ। हरिजनों को पृथक् प्रतिनिधित्व देने के विरुद्ध अनशन करने के बाद आपने हरिजनों की सेवा का दृढ़ संकल्प किया। 7 नवम्बर, सन् 1033 को आप हरिजन सेवा के लिए धन-संग्रह करने के निमित्त देश के दौरे पर निकल पड़े। इस दौरे में आपको आशातीत सफलता मिली। कुछ ही दिनों में आठ लाख रुपये एकत्र हो गए। 'हरिजन सेवा संघ' स्थापित करके आपने हरिजनों को सेवा का केन्द्र बना दिया।

महायुद्ध ने आपका ध्यान फिर देश की राजनीति की ओर मोड़ा। भारत की जनता से बिना पूछे भारत सरकार ने विश्वयुद्ध में जब जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, तो आपने सरकार के इस कार्य को भारतीय जनता और जन के चुने हुए प्रतिनिधियों का अपमान समझा। इस अपमान का प्रतिकार यही था कि कांग्रेस के मंत्री और व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्य अपने पदों से इस्तीफे दे दें।

इस्तीफे दे दिए गए। गांधीजी ने फिर पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग पेश की। सरकार की ओर से इस मांग का अपमानपूर्ण उत्तर मिलने के बाद आपने देश के सामने 'भारत छोड़ो' का प्रस्ताव रखा । 9 अगस्त, सन् 1942 के ऐतिहासिक दिन वह प्रस्ताव पास हो गया। सरकार ने उसी दिन सब नेताओं के साथ गांधीजी को भी गिरफ्तार कर लिया।

जेल में आपको अनेक कष्ट सहने पड़े। जेलयात्रा के प्रथम सप्ताह में ही श्री महादेव देसाई के स्वर्गवास और कुछ महीने बाद कस्तूरबा की विदाई ने आपको दुःखी कर दिया। आपका स्वास्थ्य भी बहुत गिर गया । सन् १९४४ के मई महीने में सरकार ने आपको मुक्त कर दिया। जेल से छूटने के बाद आपने मुस्लिम लीग के नेता मि. जिन्ना से मिलकर देश को अविभक्त रखने का यत्न किया, किन्तु मि. जिन्ना अपनी जिद पर अड़े रहे।

15 अगस्त, 1947 के दिन, जब भारत के शहरों की अट्टालिकाएं अगणित दीपों से जगमगा रही थीं, भारत का भाग्य निर्माता बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम दुःखी जनों के साथ आंसू बहा रहा था।

वहाँ से दिल्ली की आग को बुझाने के लिए आप वहाँ पहुंचे। प्रतिदिन शाम को प्रार्थना सभा में शान्ति का उपदेश देते रहे। रक्तपात शान्त न हुआ तो आपने अनशन व्रत ले लिया। तीन-चार दिन के अनशन ने जादू का काम किया। उपद्रव शान्त हो गया।

किन्तु कुछ धर्मान्ध हिन्दू युवकों का खून शान्त नहीं हुआ था। उनके मन में यह धारणा समा गई थी कि गांधीजी मुसलमानों का पक्ष लेते हैं। वे युवक गांधीजी के शत्रु हो गए। उनमें से एक युवक नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, सन् 1948 की शाम को छः बजे प्रार्थना सभा में जाकर गांधीजी को रिवाल्वर की गोलियों का निशाना बना दिया। तीन बार 'राम', 'राम', 'राम' कहने के बाद गांधीजी ने प्राण छोड़ दिए। गांधीजी की देह अग्नि के अर्पण हो गई, किन्तु उनकी आत्मा आज भी भारत का पथ-प्रदर्शन कर रही है।

सारे जहाँ से अच्छा | डॉ. इकबाल | MUHAMMAD IQBAL | महम्मद इकबाल नूरमहम्मद शेख

सारे जहाँ से अच्छा...
डॉ. इकबाल


कवि परिचय : डॉ. इकबाल (१८७३-१९३८)

इस गीत के रचयिता है उर्दू साहित्य के श्रेष्ठ कवि डॉ. इकबाल। आपका पूरा नाम महम्मद इकबाल नूरमहम्मद शेख है। आप लंदन के केंब्रिज विश्वविद्यालय के कला स्नातक थे और आपने वहीं से स्नातकोत्तर पदवी भी प्राप्त की। फिर विधि पदवी प्राप्त कर के बैरिस्टर बने। जर्मनी के म्यूनिक विश्वविद्यालय से आपने पीएच.डी. की उपाधि भी प्राप्त की। आपकी अप्रतिम काव्य-प्रतिभा के लिए आपको "अल्लामा" उपाधि से सम्मानित किया गया। आज आपको अल्लामा (महान् पंडित) डॉ. इकबाल के नाम से जाना जाता है।

इस प्यारी सी कविता में कवि ने अपने देश का, अर्थात् भारत बखान किया है। अमिट देशप्रेम का यह एक उत्कृष्ट अभिव्यंजन है। स्वर्ग भी ईर्ष्या करे ऐसा प्राकृतिक सौंदर्य यहां का है। यहां के लोग बहुधर्मीय होने भी, बड़े स्नेह के साथ रहते हैं।

सारे जहाँ से अच्छा हिंदोसताँ हमारा

हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसिताँ हमारा।

गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में

समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा।

परबत वो सब से ऊँचा, हमसाया आसमाँ का

वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा।

गोदी में खेलती हैं इसकी हज़ारों नदियाँ

गुलशन है जिनके दमसे रशके जिनाँ हमारा।

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोसताँ हमारा।

कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती | सोहनलाल दि्ववेदी | SOHAN LAL DWIVEDI

कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती 
सोहनलाल दि्ववेदी

इस कविता में कोशिश करने से सफलता प्राप्त करने का संदेश मिलता है। कवि कहते हैं कि जीवन की प्रतियोगिता में असफलता से विमुख न होते हुए अपनी कमियों को खुद पहचानकर स्वप्रयत्न से लगातार आगे बढ़ने से हार कभी नहीं होती है।

इस कविता में कवि ने यह संदेश दिया है कि सतत प्रयत्नशील व्यक्ति की निश्चित रूप से जीत होती है। समस्याओं से मुँह न मोड़कर आगे बढ़ना चाहिए।

लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती,

कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,

चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है।

मन का विश्वास रंगों में साहस भरता है,

चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।

आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,

कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियाँ सिंधु में गोताखोर लगाता है,

जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है।

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।

मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,

कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,

क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।

जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,

संघर्ष का मैदान छोड़कर मत भागो तुम।

कुछ किए बिना ही जय-जयकार नहीं होती,

कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती।

पिछड़ा आदमी | सर्वेश्वरदयाल सक्सेना | PECHDA AADMI

पिछड़ा आदमी 
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 

वह आदमी सचमुच ही पिछड़ा था क्योंकि सब बोलते तो वह चुप रहता, सब चलते तो वह पीछे रहता और जब सब पेटुओं की तरह खाते तब वह अलग सबसे दूर बैठा आहिस्ता से थोड़ा सा खाता था। लेकिन जब सारी दुनिया थकान से गहरी नींद में लीन हो जाती तब वह अकेले आकाश में टकटकी लगाये रहता था अर्थात् चिन्तामग्न रहता था। हर कार्य में पीछे रहने वाला यह पिछड़ा आदमी देश की आजादी के लिए गोली झेलने के सबसे आगे रहा और मारा गया।

जब सब बोलते थे

वह चुप रहता था,

जब सब चलते थे

वह पीछे हो जाता था,

जब सब खाने पर टूटते थे

वह अलग बैठा दूंगता रहता था,

जब सब निढाल हो सोते थे

वह शून्य में टकटकी लगाये रहता था,

लेकिन जब गोली चली

तब सबसे पहले

वही मारा गया।

गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

लोकगीत - भगवतशरण उपाध्याय | FOLK MUSIC | आदिवासियों का संगीत | पहाड़ी | ढोला-मारू | भतियाली | बाउल | बिदेसिया | गरबा

लोकगीत - भगवतशरण उपाध्याय


(आशय: लोकगीतों को आम जनता का संगीत माना जाता है। भारत लोकगीतों का अपना ही महत्वपूर्ण स्थान है। प्रस्तुत पाठ में लेखक ने कई स्थानों में प्रचलित लोकगीतों का परिचय हमारे सामने रखा है।)

लोकगीत अपनी लोच, ताशगी और लोकप्रियता शास्त्रीय संगीत से भिन्न हैं। लोकगीत जनता के संगीत हैं। घर, गाँव और नगर की जनता के गीत हैं ये। इनके लिए की ज़रूरत नहीं होती। त्योहारों और विशेष अवसरों पर ये गाए जाते हैं। सदा से ये गाए जाते रहे हैं और इनके रचने वाले भी अधिकतर गाँव के लोग ही हैं। स्त्रियों ने भी इनकी रचना में विशेष भाग लिया है। ये गीत बाजों की मदद के बिना ही या साधारण ढोलक, झाँझ, करताल, बाँसुरी आदि की मदद से गाए जाते हैं।

एक समय था जब शास्त्रीय संगीत के सामने इनको हेय समझा जाता था। अभी हाल तक इनकी बड़ी उपेक्षा की जाती थी। पर इधर साधरण जनता की ओर जो लोगों की नज़र फिरी है तो साहित्य और कला के क्षेत्र में भी परिवर्तन हुआ है। अनेक लोगों ने विविध बोलियों के लोक-साहित्य और लोकगीतों के संग्रह पर कमर बाँधी है और इस प्रकार के अनेक संग्रह अब तक प्रकाशित भी हो गए हैं।

लोकगीतों के कई प्रकार हैं। इनका एक प्रकार तो बड़ा ही ओजस्वी और सजीव है। यह इस देश के आदिवासियों का संगीत है। मध्य प्रदेश, दकन, छोटा नागपुर में गोंड-खांड, ओराँव-मुंडा, भील में संथाल आदि फैले हुए हैं, जिनमें आज भी जीवन नियमों की जकड़ में बँध न सका और निर्दृद्व लहराता है। इनके गीत और नाच अधिकतर साथ-साथ और बड़े-बड़े दलों में गाए और नाचे जाते हैं। बीस-बीस तीस-तीस आदमियों और औरतों के दल एक साथ या एक-दूसरे जवाब में गाते हैं, दिशाएँ गूंज उठती हैं। पहाड़ियों के अपने-अपने गीत हैं। उनके अपने-अपने भिन्न रूप होते हुए भी अशास्त्रीय होने के कारण उनमें अपनी एक समान भूमि है। गढ़वाल, किन्नौर, काँगड़ा आदि के अपने-अपने गीत और उन्हें गाने की अपनी-अपनी विधियाँ हैं। उनका अलग नाम ही पहाड़ी' पड़ गया है।

वास्तविक लोकगीत देश के गाँवों और देहातों में है। इनका संबंध देहात की जनता से है। बड़ी जान होती है इनमें। चैता, कजरी, संबंध देहात की जनता से है। बड़ी बात होती है इनमें। चैता, कजरी, बारहमासा, सावन आदि बनारस और उत्तर प्रदेश के अन्य पूरबी और बिहार के पश्चिमी जिलों में गाए जाते हैं। बाउल और भतियाली बंगाल के लोकगीत हैं। पंजाब में माहिया आदि इसी प्रकार के हैं। हीर-राँझा, सोहनी-महीवाल संबंधी गीत पंजाबी में और ढोला-मारू आदि के गीत राजस्थानी में बड़े चाव से गाए जाते हैं।

इन देहाती गीतों के रचयिता कोरी कल्पना को इतना मान न देकर अपने गीतों के विषय रोजमर्रा के बहते जीवन से लेते हैं, जिससे वे सीधे मर्म को छू लेते हैं। उनके राग भी साधरणत: पीलू, सारंग, दुर्गा, सावन, सोरठ आदि हैं। कहरवा, बिरहा, धोबिया आदि देहात में बहुत गाए जाते हैं और बड़ी भीड़ आकर्षित करते हैं।

इनकी भाषा के संबंध में कहा जा चुका है कि ये सभी लोकगीत गाँवों और इलाकों की बोलियों में गाए जाते हैं। इसी कारण ये बड़े आह्लादकर और आनंददायक होते हैं। राग तो इन गीतों के आकर्षक होते ही हैं, इनकी समझी जा सकने वाली भाषा भी इनकी सफलता का कारण है।

भोजपुरी में करीब तीस-चालीस बरसों से 'बिदेसिया' का प्रचार हुआ है। गाने वालों के अनेक समूह इन्हें गाते हुए देहात में फिरते हैं। उधर के जिलों में विशेषकर बिहार में बिदेसिया से बढ़कर दूसरे गाने लोकप्रिय नहीं हैं। इन गीतों में अधिकतर रसिकप्रियों और प्रियाओं की बात रहती है, परदेशी प्रेमी की और इनसे करुणा और विरह का रस बरसता है।

जंगल की जातियों आदि के दल-गीत होते हैं जो अधिकतर भी दुलमी बिरहा आदि में पाए जाते हैं। पुरुष एक ओर और स्त्रियाँ दूसरी ओर एक-दूसरे के जवाब के रूप में दल बाँधकर गाते हैं और दिशाएँ गुंजा देते हैं। पर इधर कुछ काल से इस प्रकार के दलीय गायन का ह्रास हुआ है। एक दूसरे प्रकार के बड़े लोकप्रिय गाने आल्हा के हैं। अधिकतर ये बुंदेलखंडी में गाए जाते हैं। आरंभ तो इसका चंदेल राजाओं के राजकवि जगनिक से माना जाता है जिसने आल्हा-ऊदल की वीरता का अपने म हाकाव्य में बखान किया, पर निश्चय ही उसके छंद को लेकर जनबोली में उसके विषय को दूसरे देहाती कवियों ने भी समय-समय पर अपने गीतों में उतारा और ये गीत हमारे गाँवों में आज भी बहुत प्रेम से गाए जाते हैं। इन्हें गाने वाले गाँव-गाँव ढोलक लिए गाते फिरते हैं। इसी की सीमा पर उन गीतों का भी स्थान है जिन्हें नट रस्सियों पर खेल करते हुए गाते हैं। अधिकतर ये गद्य-पद्यात्मक हैं और इनके अपने बोल हैं। अनंत संख्या अपने देश में स्त्रियों के गीतों की है। हैं तो ये गीत भी लोकगीत ही, पर अधिकतर इन्हें औरतें ही गाती हैं। इन्हें सिरजती भी अधिकतर वही हैं। वैसे नाचने वाले या गाने वाले मर्दों की भी कमी नहीं है पर इन गीतों का संबंध विशेषतः स्त्रियों से है। इस भारत इस दिशा में सभी देशों से भिन्न है क्योंकि संसार के देशों में स्त्रियों के अपने गीत मर्दों या जनगीतों से अलग और भिन्न नहीं हैं, मिले-जुले ही हैं।

त्योहारों पर नदियों में नहाते समय के, नहाने जाते हुए राह के, विवाह के, मटकोड़, ज्यौनार के संबंधियों के लिए प्रेमयुक्त गाली TB के, जन्म आदि सभी अवसरों के अलग-अलग गीत हैं, जो स्त्रियाँ गाती रही हैं। महाकवि कालिदास आदि ने भी अपने ग्रंथों में उनके गीतों का हवाला दिया है। सोहर, बानी, सेहरा आदि उनके अनंत गानों में से कुछ हैं। वैसे तो बारहमासे पुरुषों के साथ नारियाँ भी गाती हैं। एक विशेष बात यह है कि नारियों के गाने साधरणत: अकेले नहीं गाए जाते, दल बाँधकर गाए जाते हैं। अनेक कंठ एक साथ फूटते हैं यद्यपि अधिकतर उनमें मेल नहीं होता, फिर भी त्योहारों और शुभ अवसरों पर वे बहुत ही भले लगते हैं। गाँवों और नगरों में गायिकाएँ भी होती हैं जो विवाह, जन्म आदि के अवसरों पर गाने के लिए बुला ली जाती हैं। सभी ऋतुओं में स्त्रियाँ उल्लसित होकर दल बाँधकर गाती हैं। पर होली, बरसात की कजरी आदि तो उनकी अपनी चीज़ है, जो सुनते ही बनती है। पूरब की बोलियों में अधिकतर मैथिल-कोकिल विद्यापति के गीत गाए जाते हैं। पर सारे देश के कश्मीर से कन्याकुमारी-केरल तक और काठियावाड़-गुजरात-राजस्थान से उड़ीसा-आंध्र तक अपने अपने विद्यापति हैं।

स्त्रियाँ ढोलक की मदद से गाती हैं। अधिकतर उनके गाने साथ नाच का भी पुट होता है। गुजरात का एक प्रकार का दलीय गायन 'गरबा' है जिसे विशेष विधि से घेरे में घूम-घूमकर औरतें गाती हैं। साथ ही लकड़ियाँ भी बजाती जाती हैं जो बाजे का काम करती हैं। इसमें नाच-गान साथ चलते वस्तुत: यह नाच ही है। सभी प्रांतों में यह लोकप्रिय हो चला है। इसी प्रकार होली के अवसर पर ब्रज में रसिया चलता है जिसे दल के दल लोग गाते हैं, स्त्रियाँ विशेष तौर पर। गाँव के गीतों के वास्तव में अनंत प्रकार हैं। जीवन जहाँ इठला-इठलाकर लहराता है वहीं भला आनंद के स्रोतों की कमी हो सकती है? उद्दाम जीवन के ही वहाँ के अनंत संख्यक गाने प्रतीक हैं।