शनिवार, 20 नवंबर 2021

आचार्य चाणक्य | ACHARYA CHANAKYA | विष्णु गुप्त | कौटिल्य | अर्थशास्त्र'

आचार्य चाणक्य 
ACHARYA CHANAKYA 


मित्र इस कुश को खोदकर उसमें मट्ठा क्यां डाल रहे हो? 'इसका काँटा मेरे पैर में घुस गया। मैंने काँटा तो निकाल लिया, किन्तु यह फिर किसी के पैर में न चुभे इसलिए इसे जड़ से नष्ट करना चाहिए।' - यह वार्तालाप चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य के बीच का है। भारतीय इतिहास और राजनीति में चाणक्य का विशिष्ट स्थान है। शासन के विविध पहलुओं का जैसा सारगर्भित विवेचन उनके ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र' में है वैसा सम्भवतः विश्व के पराचीन और आधुनिक किसी भी राजनीतिशास्त्र के विचारक ने नहीं किया है। अतः चाणक्य की गिनती विश्व के राजनीतिशास्त्र के महानतम चिन्तकों में की जाती है

चन्द्रगुप्त के मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ चाणक्य का नाम जुड़ा है। चाणक्य की सहायता, परामर्श एवं राजनीतिक कूटनीति से चन्द्रगुप्त अपने साम्राज्य का विस्तार करने में सफल हुआ। चाणक्य का पूरा नाम 'विष्णु गुप्त चाणक्य’ था। उन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है। चाणक्य तक्षशिला के एक ब्राह्मण के पुत्र थे। बाल्यकाल में ही पिता की मृत्यु हो जाने पर चाणक्य का पालन-पोषण उनकी माता ने किया। तक्षशिला में रहकर उन्हों ने ज्ञानार्जन के साथ-साथ दर्शन का भी अध्ययन किया। चाणक्य परम विद्वान थे परन्तु बहुत क्रोधी एवं उग्र स्वभाव के थे।

युवा होने पर चाणक्य जीविकोपार्जन के लिये मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र पहुँचे। वहाँ मगध के नन्दवंशीय शासक घनानन्द से उनकी भेंट हुई। सम्राट ने चाणक्य को पाटलिपुत्र की दानशाला का प्रबन्धक नियुक्त किया। कटु और उग्र स्वभाव होने के कारण चाणक्य को वहाँ से पदच्युत कर दिया गया। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा और सम्राट घनानन्द तथा नन्द वंश के विनाश करने की प्रतिज्ञा ली। वह सदैव इस खोज में रहते कि प्रतिज्ञा कैसे पूरी करें। उसी समय उनकी भेंट चन्द्रगुप्त से हुई। चन्द्रगुप्त मगध राज्य में राज्याधिकारी और सेनानायक था। वह बहुत महत्वाकांक्षी था। वह मगद्द साम्राज्य पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। चन्द्रगुप्त और चाणक्य की भेंट रास्ते में हुई। कुश में मट्ठा डाल रहे चाणक्य को देखकर चन्द्रगुप्त उनके निश्चय से प्रभावित हुए और उन्होंने चाणक्य को अपना सहयोगी बना लिया। इस मित्रता ने भारतीय इतिहास को एक नवीन दिशा की ओर मोड़ दिया। चन्द्रगुप्त में बल था और चाणक्य में वृद्धि बल और बुद्धि का यह संयोग भारतीय इतिहास में युग परिवर्तन की घटना सिद्ध हुआ।

चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने मिलकर पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया। घनानन्द की प्रबल सैन्य शक्ति के कारण वे पराजित हुए। साम्राज्य की शक्ति सदैव केन्द्र में स्थित रहती है और सीमान्त क्षेत्र में क्षीण। चन्द्ररगुप्त और चाणक्य ने अपनी रणनीति में परिवर्तन करके यह निर्णय लिया कि पहले मगध राज्य के सीमान्त क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की जाय तत्पश्चात मगध राज्य पर आक्रमण करना उचित होगा।

इस नवीन योजना के अनुसार चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने पंजाब पर आक्रमण किया और विजय प्राप्त की। इसके पश्चात चन्द्रगुप्त एक विशाल सेना लेकर पाटलिपुत्र पहुँचा। इस युद्ध में घनानन्द मारा गया। चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सहायता से मगध पर अधिकार प्राप्त कर लिया। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का विधिवत राज्याभिषेक कर 321 ई.पू. में उसे मगध का सम्राट घोषित कर दिया। चाणक्य की बुद्धिमत्ता और कूटनीति के कारण चन्द्रगुप्त ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री और प्रमुख परामर्शदाता नियुक्त कर लिया। चाणक्य ने जीवन के अन्तिम समय तक मौर्य सामराज्य की सेवा की।

चाणक्य ने राजतंत्र को एक सर्वाधिक उपयोगी संस्था माना है। उनके अनुसार राजा को धर्मनिष्ठ, सत्यवादी, कृतंज्ञ, बलशाली, वृद्धों का सम्मान करने वाला, उत्साही, विनयशील, विवेकी, निर्भीक, न्यायप्रिय, मृदुभाषी तथा कार्य निपुण होना चाहिए। उसे काम-क्रोध, मद-मोह, अहंकार ईर्ष्या-द्वेष आदि दुर्गुणों से दूर रहना चाहिए। इस प्रकार राजा में न केवल राजा के ही गुण वरन् श्रेष्ठ व्यक्तियों के सभी गुण होने चाहिए।

चाणक्य के अनुसार राज्य का यह कर्तव्य है कि आकस्मिक और प्राकृतिक आपदाओं से नागरिक की रक्षा करे। राज्य को अपंग, शक्तिहीन, वृद्ध, रोगी और दीन-दुखियों का पालन-पोषण करना चाहिए। राज्य को शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। राज्य का यह कार्य है कि साहूकार, व्यापारी, जादूगर, शिल्पी, नट, शासकीय अधिकारी और कर्मचारी आदि के शोषण-उत्पीड़न से प्रजा की भली-भाँति रक्षा करे। व्यापारी अनुपयुक्त दर से क्रय-विक्रय न कर सकें, इसके लिये राज्य को चाहिये कि वे नियम निर्धारित करे।

राज्य के इन कार्यों से विदित होता है, कि चाणक्य ने आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना कर ली थी। उन्होंने प्रजाहित को राज्य का लक्ष्य मान लिया था। वे स्वयं वर्षा न होने के कारण अकाल के समय सैकड़ों साधुओं को नित्य भोजन कराते थे। चाणक्य एक व्यवहार कुशल राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने नीति पर भी एक पुस्तक लिखी है। उसमें उनकें ऐसे विचार हैं, जिनसे पता चलता है कि मौर्य साम्राज्य के निर्माता के रूप में वे सफल रहे। उन्होंने राजतंत्र के समर्थक होते हुए भी, निरंकुश स्वेच्छाचारी शासन का विरोध किया।

चाणक्य आज भी आधुनिक राजनीतिज्ञ, विचारकों, चिन्तकों में अग्रणी माने जाते हैं।

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

महर्षि अरविन्द | SRI AUROBINDO | दिव्य जीवन | THE LIFE DIVINE

महर्षि अरविन्द (SRI AUROBINDO) 

बहुत समय पहले एक अहंकारी और आडम्बरी राजा ने एक सभा बुलवाई। सभा में उस राजा ने प्रश्न किया“ कौन महान है, ईश्वर या मैं?”

प्रश्न अद्भुत था, लम्बे और उलझन भरे मौन के बाद विद्वानों में एक वृद्ध ने सिर झुकाकर आदर सहित कहा, “महाराज आप सबसे महान हैं।" इस बात पर सभा में असहमति के हल्के स्वर उठने लगे। इस पर विद्वान ने स्पष्ट किया, “आप हमें अपने राज्य से निकाल सकते हैं, पर ईश्वर नहीं क्योंकि उसका तो सम्पूर्ण पृथ्वी पर राज्य है। उससे अलग कोई कहाँ जा सकता है। सब कुछ वही है।"

श्री अरविन्द द्वारा कहे गए 'ईश्वर ही सब कुछ है' इस ज्ञान ने राजा के जीवन की दिशा बदल दी। वे अरविन्द के अनुयायी हो गए।

अरविन्द का जन्म 15 अगस्त सन् 1872 ई. में कोलकाता में हुआ। इनके पिता डॉक्टर कृष्णधन घोष और माता स्वर्णलता देवी थीं। पिता कृष्णधन घोष पूरी तरह पाश्चात्य विचारधारा में रंगे हुए थे जिसके कारण उन्होंने निश्चय किया कि वे अरविन्द को भी अंग्रेजी शिक्षा दिलाएंगे और किसी भी प्रकार के भारतीय प्रभाव से मुक्त रखेंगे।

पिता ने ‘अंग्रेज बनों' की विचारधारा के साथ पाँच वर्ष की उम्र में ही अरविन्द को पढ़ाई के लिए दार्जिलिंग भेज दिया। दो वर्ष बाद उन्हें शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया। अरविन्द के माता-पिता अध्यापकों को यह निर्देश देते हुए भारत लौट आए कि किसी भी दशा में अरविन्द को भारतीयों से न मिलने दिया जाय। इतने प्रतिबन्धों के बावजूद यह व्यक्ति आगे चलकर एक क्रांतिकारी, एक स्वतंत्रता सेनानी, एक महान भारतीय राजनैतिक, दार्शनिक तथा वैदिक पुस्तकों का व्याख्याता बना।

इंग्लैण्ड में अरविन्द ने उच्च शिक्षा प्राप्त की। वहाँ रहते हुए उनके दिमाग में अपने देश की स्वतंत्रता का विचार उथल-पुथल मचाने लगा। बचपन से ही देश से बाहर रहने के कारण वे भारतीयों के बारे में जानने को उत्सुक होने लगे। उन्होंने भारत लौटने का निश्चय किया।

यह वर्ष 1893 की घटना है जब अरविन्द ने भारत लौटने का निश्चय किया। यह वर्ष भारत में नव जागरण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था।

इसी वर्ष (1893) में..........

स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन के मंच से भारतीय संस्कृति के गौरव का उद्घोष किया।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने के लिए गणपति उत्सव का शुभारम्भ किया।

एनी बेसेण्ट भारत आयीं और उन्होंने भारतवासियों में अपने प्राचीन धर्म के प्रति स्वाभिमान जगाने का प्रयास प्रारम्भ किया।

गाँधी जी रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका पहुँचे।

यह अद्भुत संयोग था कि इसी वर्ष श्री अरविन्द घोष भारत वापस लौटे। इस समय उनकी आयु इक्कीस वर्ष थी। उन्हें न तो पश्चिमी देशों की सभ्यता और न ही धन-धान्य की लालसा सम्मोहित कर पाई। उनके अन्दर एक ओर अपने देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने की आकुलता थी, दूसरी ओर भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने की तीवर लालसा।

भारत लौटने पर नवयुवक अरविन्द बड़ौदा (बड़ोदरा) महाराज के आग्रह पर वहाँ के एक कालेज में प्रधानाचार्य के पद पर कार्य करने लगे। जिस समय वे शिक्षा के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त कर रहे थे उस समय तक भारतीय राजनीति में भी उनका हस्तक्षेप शुरू हो गया था। वे लेखन द्वारा अपने विचारों को प्रकट करने लगे। इसके लिए उन्होंने कई भारतीय भाषाएँ सीखीं।

सन् 1901 में उनका विवाह मृणालिनी से हुआ। मृणालिनी को लिखे पत्रों में अरविन्द के विचारों की झलक मिलती है। उन्होंने लिखा था “दूसरे लोग भारत को देश के बजाय एक जड़ पदार्थ, खेत-खलिहान, मैदान, जंगल और नदी के अतिरिक्त कुछ नहीं देखते, पर मुझे तो वे अपनी माँ के रूप में दिखाई देता है।” वास्तव में अरविन्द के लिए मातृभूमि ही सब कुछ थी। उन्हें यह बिल्कुल सहन नहीं होता था कि मातृभूमि गुलामी के बंधनों में जकड़ी यातना सह रही हो। वे जानते थे कि लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग अत्यन्त टेढ़ा-मेढ़ा, कँटीला और खतरों से भरा है? फिर भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे अपने जीवन को भी न्योछावर करने को तैयार थे।

लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अरविन्द का पहला कदम था लेखन के द्वारा जनमत तैयार करना। उन्होंने विभिन्न पत्रों के लिए लिखना प्रारम्भ कर दिया। बाद में उन्होंने 'वन्दे मातरम्' नामक पत्र का संपादन भी किया। वे चाहते थे कि भारत के युवा उस समय सिर्फ भारत माँ के बारे में ही सोचे बाकी सब कुछ भुला दें। उन्होंने लिखा, "हमारी मातृभूमि के लिए ऐसा समय आ गया है अब उसकी सेवा से अधिक प्रिय कुछ नहीं। अगर तुम अध्ययन करो तो मातृभूमि के लिए करो। अपने शरीर मन और आत्मा को उसकी सेवा के लिए प्रशिक्षित करो ताकि वे समृद्ध हो, कष्ट सहो ताकि वे प्रसन्न रह सके।"

उन्होंने युवाओं को काम करना सीखने के लिए अवसर का लाभ उठाने का आह्वान किया। उन्होंने उनसे कार्य, ईमानदारी, अनुशासन, एकता, धैर्य और सहिष्णुता द्वारा निष्ठा विकसित करने को कहा।

1903 में उन्होंने बंगाल के क्रान्तिकारियों से सम्पर्क किया और सक्रिय रूप से क्रान्तिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए। अरविन्द की क्रान्तिकारी गतिविधियों से भयभीत होकर अंग्रेजों ने 1908 में उन्हें और उनके भाई वारीन घोष को 'अलीपुर बम केस' के मामले में गिरफ्तार कर लिया। अलीपुर जेल में उन्हें 'दिव्य अनुभूति' हुई जिसे उन्होंने ‘काशकाहिनी’ नामक रचना में व्यक्त किया। जेल में रहते हुए उन्होंने अपने क्रान्तिकारी विचारों को कविताओं में स्पष्ट किया। जेल से छूटकर अरविंन्द ने अंग्रेजी भाषा में 'कर्मयोगी' तथा बंगला भाषा में 'धर्म' नामक पत्रिकाओं का संपादन किया।

1912 तक श्री अरविन्द ने देश की सक्रिय राजनीति में भाग लिया। चालीस वर्ष की आयु के बाद उनकी रुचि पूर्णतया गीता, उपनिषद तथा वेदों की ओर हो गयी। उन्होंने पूर्व तथा पश्चिम के दर्शनशास्त्रों का अध्ययन कर अनेक पुस्तकें लिखी। भारतीय संस्कृति उनका प्रिय विषय था। भारतीय संस्कृति के बारे में उन्होंने 'फाउण्डेशन आफ इण्डियन कल्चर' तथा 'एक डिफेन्स आफ इण्डियन कल्चर' नामक प्रसिद्ध रचनाएँ प्रस्तुत की। उनके द्वारा रचा गया काव्य 'सावित्री' साहित्य जगत की अनमोल धरोहर है।

1926 से लेकर अपने निर्वाण (1950) तक श्री अरविन्द साधना और तपस्या में लगे रहे। सार्वजनिक सभाओं तथा भाषणों से दूर वे पॉण्डिचेरी में अपने आश्रम में मानव कल्याण के लिए निरन्तर चिन्तन शील रहे। वर्षों की तपस्या के बाद उनकी अनूठी कृति 'लाइफ डिवाइन (दिव्य जीवन)' प्रकाशित हुई। इस पुस्तक की गणना विश्व की महान कृतियों में की जाती है।

श्री अरविन्द अपने देश और संस्कृति के उत्थान के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे। पॉण्डिचेरी स्थित आश्रम उनकी तपोभूमि थी। यहीं पर उनकी समाधि बनाई गई। यह आश्रम आज भी अध्यात्मज्ञान का तीर्थस्थल माना जाता है जहाँ भारत ही नहीं वरन विश्व के अनेक देशों के लोग अपनी ज्ञान-पिपासा शान्त करने के लिए आते हैं।

सरोजिनी नायडू | SAROJINI NAIDU | द गोल्डेन थरेश होल्ड | द ब्रोकेन विंग | द सेप्टर्ड फ्लूट

सरोजिनी नायडू 

”माँ मैंने एक कविता लिखी है सुनोगी?“ माता ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा, “लेकिन तुम तो गणित का प्रश्न हल कर रही थी। हाँ कर रही थी पर वह समझ में नहीं आया। अभी तो एक कविता लिखी है।” बेटी के बार-बार कहने पर माँ उनकी कविता सुनने बैठ गयीं उसी समय सरोजिनी के पिता भी आ गए। ग्यारह वर्ष की बिटिया के मुख से इतनी सुन्दर, सुरीली कविता सुनकर माता-पिता गद्गद हो गए। बेटी को शाबाशी देते उन्होंने कहा, “अरे तू तो गाने वाली चिडिया जैसी है। माता-पिता की यह बात सच हुई। आगे चल कर सरोजिनी “भारत कोकिला” के नाम से प्रसिद्ध हुई।

सरोजिनी का जन्म 13 फरवरी 1879 ई. को हैदराबाद में हुआ था। पिता अघोर नाथ चट्टोपाध्याय तथा माता वरदासुन्दरी की कविता लेखन में विशेष रुचि थी। सरोजिनी को अपने माता-पिता से कविता सृजन की प्रेरणा मिली।

बारह साल की उम्र में सरोजिनी ने मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उच्च शिक्षा के लिए उन्हें इंग्लैण्ड भेजा गया। इंग्लैण्ड में सरोजिनी का परिचय साहित्यकार एडमंड गॉस से हुआ। सरोजिनी की कविता लिखने में रुचि देखकर उन्होंने भारतीय समाज को ध्यान में रखकर लिखने का सुझाव दिया। इंग्लैण्ड में सरोजिनी के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए।

1. द गोल्डेन थरेश होल्ड

2. द ब्रोकेन विंग

3. द सेप्टर्ड फ्लूट

द गोल्डेन थ्रेश होल्ड की कुछ पंक्तियाँ “लिए बाँसुरी हाथों में हम घूमे गाते-गाते मनुष्य सब हैं बन्धु हमारे, जग सारा अपना है”

गोपाल कृष्ण गोखले तथा महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आने के बाद सरोजिनी नायडू राष्ट्रप्रेम तथा मातृभूमि को सम्बोधित कर कवितायें लिखने लगीं।

“श्रम करते हैं हम कि समृद्ध हो तुम्हारी जागृति का क्षण हो चुका जागरण अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल!"..

इंग्लैंड से वापस आने पर सरोजिनी का विवाह गोविन्दराजुल नायड़ के साथ हुआ। गोविन्दराजुल नायड़ हैदराबाद के रहने वाले थे और सेना में डॉक्टर थे।

सरोजिनी नायडू की भेंट गाँधी जी से हुई। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में स्वयं सेवक के रूप में काम किया।

गोपाल कृष्ण गोखले सरोजिनी नायडू के अच्छे मित्र थे। वे उस समय भारत को अंग्रेजी सरकार से मुक्त कराने का कार्य कर रहे थे। सरोजिनी नायडू गोपाल कृष्ण गोखले के कार्य से प्रभावित हुई। उन्हों ने कहा, “देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा देखकर कोई भी ईमानदार व्यक्ति बैठकर केवल गीत नहीं गुनगुना सकता। कवयित्री होने की सार्थकता इसी में है कि संकट की घड़ी में, निराशा और पराजय के क्षणों में आशा का सन्देश दे सकूँ।" सरोजिनी नायडू का ज्यादातर समय राजनीतिक कार्यों में व्यतीत होता था। वे कांग्रेस की प्रवक्ता बन गयीं। उन्होंने देश भर में घूम-घूम कर स्वाधीनता का सन्देश फैलाया।

सरोजिनी नायडू ने हिन्दू मुस्लिम एकता पर जोर दिया। उन्होंने अशिक्षा, अज्ञानता और अन्धविश्वास को दूर करने के लिए लोगों से निवेदन की। उनका कहना था कि “देश की उन्नति के लिए रूढ़ियों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों के बोझ को उतार फेंकना होगा।"

1925 ई. में जब वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं तो गाँधी जी ने उत्साह भरे शब्दों में उनका स्वागत किया और कहा “पहली बार एक भारतीय महिला को देश की सबसे बड़ी सौगात मिली है।"

हृदय रोग से पीड़ित होते हुए भी सरोजिनी नायड़ ने इंग्लैण्ड, अमेरिका आदि देशों का दौरा किया।

“नमक कानून तोड़ो आन्दोलन" में गाँधी जी की डांडी यात्रा में उनके साथ रहीं।

सरोजिनी नायडू अद्भुत वक्ता थीं। वे बोलना शुरू करतीं तो लोग उनके धारा परवाह भाषण को मन्त्र-मुग्ध होकर सुनते थे। उनके भाषण स्वतंत्रता की चेतना जगाने में जादू का काम करते थे।

1942 में गाँधी जी के भारत छोड़ो आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया। आजादी की लड़ाई में उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। अन्ततः भारत को पूर्ण स्वतंत्रता मिली। सरोजिनी नायड़ उत्तर प्रदेश की राज्यपाल बनीं।

सरोजिनी नायडू जानती थीं कि नारी अपने परिवार, देश के लिए कितना महान कार्य कर सकती है। नारी विकास को ध्यान में रखकर वे अखिल भारतीय महिला परिषद् (आल इण्डिया वूमेन कांफ्रेस) की सदस्य बनीं। विजय लक्ष्मी पंडित, कमला देवी चट्टोपाध्याय, लक्ष्मी मेनन, हंसाबेन मेहता आदि महिलायें इस संस्था से जुड़ी थीं।

सरोजिनी नायडू का व्यवहार बहुत सामान्य था। वे राजनीतिक एवं सामाजिक जिम्मेदारियों के बावजूद भी गीत और चुटकलों में आनन्द लिया करती थीं। युवा वर्ग की सुविधाओं की ओर उनका विशेष ध्यान था। सरोजिनी नायडू का विश्वास था कि सुदृढ, सुयोग्य युवा पीढ़ी राष्ट्र की अमूल्य निधि हैं। सरोजिनी बहुत ही स्नेहमयी थीं। प्रकृति मैं उन्हें विशेष प्रेम था।

30 जनवरी 1948 ई. को गाँधी जी की मृत्यु पर जब देश भर में उदासी छायी थी, सरोजिनी नायुड़ ने अपनी श्रद्धाजलि में कहा, मेरे गुरु, मेरे नेता, मेरे पिता की आत्मा शान्त होकर विश्राम न करे बल्कि उनकी राख गतिमान हो उठे। चन्द्रन की राख उनकी अस्थियाँ इस प्रकार जीवन्त हो जायें और उत्साह से परिपूर्ण हो जायें कि समस्त भारत उनकी मृत्यु के बाद वास्तविक स्वतंत्रता पाकर पुनर्जीवित हो उठे।"

“मेरे पिता विश्राम मत करो, न हमें विश्राम करने दो। हमें अपना वचन पूरा करने की क्षमता दो। हमें अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने की शक्ति दो। हम तुम्हारे उत्तराधिकारी हैं, सन्तान हैं, सेवक हैं तुम्हारे स्वप्न रक्षक हैं। भारत के भाग्य के निर्माता है, तुम्हारा जीवनकाल हम पर प्रभावी रहा है। अब तुम मृत्यु के बाद भी हम पर प्रभाव डालते रहो"।

मार्च 1949 को जब वे बीमार थी, तब उसकी सेवा कर रही नर्स से सरोजिनी नायड़ ने गीत सुनाने का आग्रह किया। नसे का मधुर गीत सुनते-सुनते वे चिरनिद्रा में सो गयीं। मार्च 1949 को भारत कोकिला सदा के लिए मौन हो गयीं।

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें श्रद्धा॰जलि देते समय कहा था “सरोजिनी नायडू ने अपनी जिन्दगी एक कवयित्री के रूप में शुरू की थी। कागज और कलम से उन्होंने कुछ कवितायें ही लिखी थीं लेकिन उनकी पूरी जिन्दगी एक कविता, एक गीत थी सुन्दर मधुर कल्याणमयी”।

गुरुवार, 11 नवंबर 2021

महर्षि दयानन्द सरस्वती | DAYANANDA SARASWATI |(सत्यार्थप्रकाश)

महर्षि दयानन्द सरस्वती 

जन्म- 1824 ई.

जन्म स्थान : गुजरात का टंकारा गांव

देहान्त : 1883 ई

शिवरात्रि का पर्व है। गाँव की सीमा पर स्थित शिवालय में आज भक्तों की बहुत भीड़ है। दीपकों के प्रकाश से सारा देवालय जगमगा रहा है। भक्तां की मण्डली भाव विभोर होकर भजन-कीर्तन में निमग्न है। लोगों का विश्वास है कि आज दिन भर निराहार रहकर रात्रि जागरण करने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।

कुछ समय तक भजन-कीर्तन का क्रम चलता रहा परन्तु जैसे-जैसे रात्रि बीतने लगी लोगों का उत्साह ठंडा पड़ने लगा। कुछ उठकर अपने घरों को चले गए, जो रह गए वे भी अपने आपको सँभाल न सके। आधी रात होते-होते वहीं सो गए। ढोल-मंजीरे शान्त हो गए। निस्तब्ध सन्नाटे में एक बालक अभी भी जाग रहा था। उसकी आँखों में नींद कहाँ अपलक दृष्टि से वह अब भी शिव-प्रतिमा को निहार रहा था। तभी उसकी दृष्टि एक चूहे पर पड़ी जो बड़ी सतर्कतापूर्वक इधर-उधर देखते हुए शिवलिंग की ओर बढ़ रहा था। शिवलिंग के पास पहुँचकर पहले तो वह उस पर चढ़ायी गयी भोग की वस्तुओं को खाता रहा, फिर सहसा मूर्ति के ऊपर चढ़कर आनन्दपूर्वक घूमने लगा जैसे हिमालय की चोटी पर पहुँच जाने का गौरव प्राप्त हो गया हो।

पहले तो बालक का मन हुआ कि वह चूहे को डराकर दूर भगा दे परन्तु दूसरे ही क्षण उनके अन्तर्मन को एक झटका सा लगा, श्रद्धा और विश्वास के सारे तार झनझनाकर जैसे एक साथ टूट गए। इस विचार ने बालक के जीवन दर्शन को ही बदल डाला। उसने ईश्वर की खोज का संकल्प लिया। यह बालक था मूलशंकर आगे चलकर यही बालक महर्षि दयानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

मूलशंकर के पिता का नाम कर्षन जी त्रिवेदी और माता का नाम शोभाबाई था। उनके पिता की इच्छा थी कि उनका पुत्र पढ़-लिखकर सद्गृहस्थ बने और जमींदारी तथा लेन देन में उनकी मदद करे। परन्तु मूलशंकर का मन अध्ययन और एकान्त चिन्तन में लगता था। मूलशंकर की प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत में हुई। कुशाग्र बुद्धि तथा विलक्षण स्मरण शक्ति के कारण थोड़े ही दिनों में उन्हें संस्कृत के बहुत से स्तोत्र-मन्त्र और श्लोक याद हो गए।

जब वे सोलह वर्ष के थे तभी उनके जीवन में दो ऐसी घटनाएँ घटीं जिसने मूलशंकर के मन में वैराग्य-भावना को दृढ़ बना दिया। उनकी छोटी बहन की हैजा से मृत्यु हो गई। मूलशंकर डबडबायी आँखों से अपनी प्यारी बहन को मृत्यु के मुँह में जाते असहाय देखते रहे। उन्हें लगा कि जीवन कितना निरुपाय है! संसार कितना मिथ्या!

तीन वर्ष पश्चात् सन् 1843 में मूलशंकर के चाचा की मृत्यु हो गई। मूलशंकर को चाचा से अपार स्नेह था परन्तु मृत्यु ने आज उनके इस स्नेह-बन्धन को भी तोड़ दिया। संसार की निस्सारता ने एक बार फिर उन्हें झकझोर दिया। वैराग्य का नन्हा पौधा बढ़कर एक विशाल वृक्ष बन गया।

उन्होंने उसी समय दृढ़ संकल्प किया कि मैं घर-गृहस्थी के बन्धन में नहीं पड़ेगा और एक दिन मूलशंकर घर के सभी लोगों की दृष्टि बचाकर चुपचाप घर से निकल पड़े। इस समय उनकी अवस्था मात्र 21 वर्ष की थी। चलते-चलते कई दिनों के बाद वे सायले (अहमदाबाद) गाँव में पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक ब्रह्मचारी जी से दीक्षा ग्रहण की और अब वे मूलशंकर से शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी बन गये। कुछ दिन यहाँ रह कर वे साधुओं से योग क्रियाएँ सीखते रहे किन्तु अनन्त सत्य की खोज में निकले शुद्ध चैतन्य का मन सायले गाम में बंधकर न रह सका। युवा संन्यासी की ज्ञान पिपासा उन्हें नर्मदा के किनारे-किनारे दूर तक ले गयी। एक दिन उनकी भेंट दण्डी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से हुई। वे बहुत विद्वान एवं उच्च कोटि के संन्यासी थे। शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी उनके पास पहुँच गये और उनसे संन्यास की दीक्षा देने का अनुरोध किया। पहले तो गुरु ने अपने शिष्य की युवावस्था को देखते हुए संन्यास की दीक्षा देने से इनकार किया किन्तु दूसरे ही क्षण उन्होंने शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी की आँखों में झाँककर उनकी वैराग्य भावना को पहचान लिया। उन्होंने विधिवत् उन्हें संन्यास की दीक्षा दी। अब मूलशंकर शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी से संन्यासी बनकर दयानन्द सरस्वती हो गये।

दीक्षा के उपरान्त स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपना सारा समय विद्याध्ययन और योगाभ्यास में लगाया। अहंकार को त्यागकर शिष्य भाव से उन्हें जिससे जो कुछ भी प्राप्त हुआ उसे बड़ी कृतज्ञता से ग्रहण किया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने द्वारिका के स्वामी महात्मा शिवानन्द से योग विद्या का ज्ञान प्राप्त किया। मथुरा के स्वामी विरजानन्द के विमल यश और पाण्डित्य की चर्चा सुनकर वे मथुरा जा पहुंचे। स्वामी विरजानन्द के चरणों में बैठकर दयानन्द ने 'अष्टाध्यायी महाभाष्य' ‘वेदान्त सूत्र' आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया। जब वे पढ़ने बैठते तो तर्कयुक्त प्रश्नों की झड़ी लगा देते थे। उनकी लगन और निष्ठा से प्रभावित होकर गुरु विरजानन्द ने कहा -

दयानन्द! आज तक मैंने सैकड़ों विद्यार्थियों को पढ़ाया पर जैसा आनन्द और जो उत्साह मुझे तुम्हें पढ़ाने में मिलता है वह कभी नहीं मिला। तुम्हारी तर्कशक्ति, अप्रतिम और स्मरणशक्ति अलौकिक है। तुम्हारी योग्यता, तुम्हारी प्रतिभा का लाभ देश के जन को मिले यही मेरी आकांक्षा और शुभकामना है।

स्वामी दयानन्द ने गुरु की इस आकांक्षा को जीवन भर गाँठ बाँधकर रखा। उन्हें गुरु के वे आदेश वाक्य भी प्रतिक्षण सुनायी देते रहे जो उन्होंने विद्याध्ययन की समाप्ति पर उन्हें अपने आश्रम से विदा करते समय कहे थे। उनका आदेश था - वत्स दयानन्द! संसार से भागकर जंगलों में जाकर एकान्त साधना करने में संन्यास की पूर्णता नहीं है। संसार के बीच रह कर दीन-दुखियों की सेवा करना, अशान्त जीवन में शान्ति का विस्तार करते हुए दोष मुक्त जीवन को बिताना ही सच्ची साधु प्रवृत्ति है। जाओ, समाज के बीच रहकर अनेक कुसंस्कारों और अंधविश्वासों से खण्ड-खण्ड हो रहे। समाज का उद्धार करो, उसे नयी चेतना दो, नया जीवन दो।

स्वामी दयानन्द ने आडम्बरों का जीवन भर विरोध किया। इस संदर्भ में उन्होंने एक महान धर्मग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' लिखा। जिसमें धर्म, समाज, राजनीति, नैतिकता एवं शिक्षा पर उनके संक्षिप्त विचार दिये गये हैं। स्वामी दयानन्द के दृष्टिकोण एवं जीवन दर्शन को संक्षेप में इस उद्धरण से समझा जा सकता है।

कोई भी सद्गुण सत्य से बड़ा नहीं है। कोई भी पाप झूठ से अधम नहीं है। कोई ज्ञान भी सत्य से बड़ा नहीं है इसलिए मनुष्य को सदा सत्य का पालन करना चाहिए।

धर्म के नाम पर मानव समाज का भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में बँटा होना उन्हें ईश्वरीय नियम के प्रतिकूल लगता था। लोगों को उपदेश देते हुए प्राय: कहा करते थे, परमात्मा के रचे पदार्थ सब प्राणी के लिए एक से हैं। सूर्य और चन्द्रमा सब के लिए समान प्रकाश देते हैं। वायु और जल आदि वस्तुएँ सबको एक सी ही दी गयी हैं। जैसे ये पदार्थ ईश्वर की ओर से सब प्राणियों के लिए एक से हैं और समान रूप से लाभ पहुँचाते हैं वैसे ही परमेश्वर प्रदत्त धर्म भी सब मनुष्यों के लिए एक ही होना चाहिए।

भारतीय समाज को वेद के आदर्शों के अनुरूप लाने एवं भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने हेतु उन्होंने 1875 में आर्य समाज की मुम्बई में स्थापना की। आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य सभी मनुष्यों के शारीरिक, आध्यात्मिक और सामाजिक स्तर को ऊपर उठाना था।

स्वामी दयानन्द ने प्राचीन संस्कृति और सभ्यता की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने वेदों और संस्कृत साहित्य के अध्ययन पर बल दिया। तत्कालीन समाज में महिलाओं की गिरती हुई स्थिति का कारण उन्हें उनका अशिक्षित होना लगा। फलत: उन्होंने नारी शिक्षा पर विशेष बल दिया।

स्वामी दयानन्द ने पर्दा प्रथा तथा बाल विवाह जैसी कुरीतियों का घोर विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह और पुनर्विवाह की प्रथा का समर्थन किया। समाज में व्याप्त वर्ण भेद, असमानता और छुआ-छूत की भावना का भी खुलकर विरोध करते हुए कहा. -

“जन्म से मनुष्य किसी जाति विशेष का नहीं होता बल्कि कर्म के आधार पर होता है।”

स्वामी दयानन्द ने हिन्दी भाषा को राज भाषा के रूप में मान्यता दिलाने का पूरा प्रयास किया। यद्यपि वे संस्कृत के विद्वान थे किन्तु उन्होंने हिन्दी में पुस्तकें लिखीं। संस्कृत भाषा और धर्म को ऊँचा स्थान दिलाने के लिए उन्होंने हिन्दी भाषा को प्रतिष्ठित किया। कोई चाहे कुछ भी करे, देशी राज्य ही सर्वश्रेष्ठ है। विदेशी सरकार सम्पूर्ण रूप से लाभकारी नहीं हो सकती, फिर चाहे वे धार्मिक पूर्वाग्रह और जातीय पक्षपात से मुक्त तथा पैतृक न्याय और दया से अनुप्राणित ही क्यों न हो।

- दयानन्द सरस्वती (सत्यार्थप्रकाश)

स्वामी दयानन्द समाज सुधारक और आर्य संस्कृति के रक्षक थे। मनुष्य मात्र के कल्याण की कामना करने वाले महर्षि दयानन्द का जीवनदीप सन् 1883 की कार्तिक अमावस्या को सहसा बुझ गया किन्तु उस दीपक का प्रकाश उनके कार्यों और विचारों के रूप में आज भी फैला है।

स्वामी दयानन्द के विषय में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था -

स्वामी दयानन्द 19वीं शताब्दी में भारत के पुनर्जागरण के प्रेरक व्यक्ति थे। उन्होंने भारतीय समाज के लिए एक ऐसा मार्ग प्रशस्त किया जिस पर चलकर भारतीय समाज समुन्नत किया जा सकता है।

राजा राममोहन राय | RAJA RAM MOHAN ROY

राजा राममोहन राय 
RAJA RAM MOHAN ROY


श्मशान घाट पर चिता सजाई जा चुकी थी। एक स्त्री, जिसके पति का निधन हो गया था, उस चिता पर जीवित जलने के लिए तैयार की जा रही थी। उस स्त्री के देवर ने उपस्थित लोगों का विरोध किया कि यह गलत हो रहा है। उसने कहा यह कहाँ की समझदारी है कि पति के मरने पर उसकी पत्नी जीवित चिता में जल जाये या आप लोगों द्वारा जलने के लिए मजबूर कर दी जाये। यह कुरीति है.... अन्याय है और सरासर अत्याचार है।"

पर उस युवक की किसी ने नहीं सुनी। अन्ततः वही हुआ जो समाज चाहता था। स्त्री चिता पर कूद पड़ी और जीवित जल मरी। इस घटना ने युवक के हृदय को पीड़ा से झकझोर दिया। यहीं से इस युवक ने इस कुरीति को समाप्त करने का बीड़ा उठा लिया। यह दृढ़ निश्चयी, साहसी और समाज सुधारक युवक राममोहन राय था।

जन्म:- 22 मई 1772 ई. को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के गांव राधानगर

पिता:- रामकान्त राय

माता:- तारिणी देवी

मृत्युः- 27 सितम्बर 1833 ई. इंग्लैण्ड के बिरस्टल नगर

राम मोहन राय के समाज सुधार सम्बन्धी कार्य।

सती प्रथा का विरोध, अन्धविश्वासों का विरोध. बहुविवाह विरोध, बाल विवाह विरोध, जाति प्रथा का विरोध, विधवाओं का पुनर्विवाह पुत्रियों को पिता की सम्पत्ति का भाग दिलवाना, धार्मिक सुधार ईश्वर एक है, स्त्री पुरुष को बराबरी के अधिकार।

राममोहन की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही बंगला भाषा में हुई। बाद में एक साहब द्वारा भी उन्हें शिक्षा दी गई। इनकी माँ संस्कृत की विदुषी थीं। मौलवी राममोहन राय ने पटना में अरबी तथा फारसी की उच्च शिक्षा पराप्त की। काशी में इन्हीं ने संस्कृत का भी अध्ययन किया, इन्होंने अंग्रेजी भाषा को भी मन लगाकर पढ़ा। इन पर एक तरफ तो सूफी मत का प्रभाव था, तो दूसरी तरफ वेदान्त और उपनिषदों के प्रभाव से इनका व्यक्तित्व उदारवादी विचारों से ओत-परोत हो गया।

बीच में कुछ समय के लिए राम मोहन राय तिब्बत भी गये। वहीं उन्होंने बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। इन्होंने जैन धर्म और उसके कल्प स्तर का भी अध्ययन किया।

पिता के बुलावे पर ये तिब्बत से वापस आये थोड़े दिन बाद इनका विवाह कर दिया गया। पारिवारिक जीवन के निर्वाह के लिए इन्हीं ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन क्लर्क के पद पर नौकरी कर ली। अपनी मेहनत एवं ईमानदारी के बल पर ये दीवान जैसे उच्च पद पर पहुँच गये। नौकरी में रहते हुए ही इन्होंने अंग्रेजी, लेटिन व ग्रीक आदि भाषाओं को अच्छी तरह सीख लिया।

राम मोहन राय की आयु अभी 40 वर्ष की थी, इन्होंने नौकरी छोड़ दी। इन्होंने कोलकाता में एक कोठी खरीदी और वहीं से समाज सेवा के कार्य करते रहे।

राममोहन राय ने उदारवादी विचार धारा के लोगों को लेकर 'आत्मीय सभा' बनाई। इसका प्रमुख उद्देश्य इस बात का प्रचार करना था 'ईश्वर एक है।' पर उनके इस कथन से कट्टरपन्थी लोग नाराज हो गये। वे उनके विरुद्ध तर्क-वितर्क करते थे। राम मोहन राय उनकी शंकाओं के समाधान के लिए लेख लिखते और उदारवादी दृष्टिकोण के प्रति उन्हें सहमत करते। राममोहन राय ने 'ईश्वर एक है' की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए ब्रह्मसभा की स्थापना की। इसका नाम बाद में बदलकर 'ब्रह्म समाज' कर दिया गया। इसमें भी धर्मों की अच्छी व उदार बातों का समावेश किया गया था।

राममोहन राय ने अपने विचारों को फैलाने के लिए सन् 1821 में 'संवाद कौमुदी' बंगला साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने 1882 ई. में फारसी में मिरा ए-तुल अखबार भी प्रकाशित किया। वे अंग्रेजी शिक्षा के पक्षधर थे। उनका मानना था कि पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान भी भारतीयों के लिए लाभकारी है। उन्होंने 1825 ई. में वेदान्त कालेज की स्थापना की, जिसमें भारतीय विद्या के अलावा सामाजिक एवं भौतिक विज्ञान की भी पढ़ाई होती थी।

भारतीय नव जागरण के अग्रदूत के रूप में राजा राममोहन राय की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। इन्होंने भारतीय धर्म और सभ्यता को अन्धविश्वासों से मुक्त कराने का प्रयास किया। उनका कहना था -

मैं केवल अन्धविश्वासों की आलोचना करता हूँ न कि धर्म की।

राजा की उपाधि कैसे मिली?

राममोहन राय के समय मुगल शासक कम्पनी से मिलने वाले धन से सन्तुष्ट नहीं था। उसने राम मोहन राय को अपना प्रतिनिधि बनाकर इंग्लैण्ड के शासक के पास भेजा।

इसी अवसर पर मुगल सम्राट ने उनको 'राजा' की उपाधि दी।

स्वातन्त्र्य प्रेमी राजा राममोहन राय की राजनीति का आधारभूत सिद्धान्त उनका यह विश्वास था कि शासन की क्षमता भारतीयों में किसी से कम नहीं है। उन्होंने प्रशासन में सुधार के लिए आन्दोलन किए। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध शिकायत लेकर राममोहन राय 8 अप्रैल 1831 ई. को इंग्लैण्ड पहुँचे। वहीं से वे फ्रांस की राजधानी पेरिस गये। वे फिर इंग्लैण्ड वापस आये। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य खराब होता गया। इंग्लैण्ड के ब्रिस्टल नगर में 62 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। ब्रिस्टल नगर में आज भी उनका स्मारक बना हुआ है।