रविवार, 21 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 43 - 44 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 43 - 44

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 43 - 44

महासमाधि की ओर

पूर्व तैयारी-समाधि मन्दिर, 
ईट का खंडन, 
72 घण्टे की समाधि, 
जोग का सन्यास, 
बाबा के अमृततुल्य वचन।

इन 43 और 44 अध्यायों में बाबा के निर्वाण का वर्णन किया गया है, इसलिये वे यहाँ संयुक्त रुप से लिखे जा रहे है।

पूर्व तैयारी-समाधि मन्दिर

हिन्दुओं में यह प्रथा प्रचलित है कि जब किसी मनुष्य का अन्तकाल निकट आ जाता है तो उसे धार्मिक ग्रन्थ आदि पढ़कर सुनाये जाते है। इसका मुख्य कारण केवल यही है कि जिससे उसका मन सांसारिक झंझटों से मुक्त होकर आध्यात्मिक विषयों में लग जाय और वह प्राणी कर्मवश अगले जन्म में जिस योनि को धारण करे, उसमें उसे सदगति प्राप्त हो। सर्वसाधारण को यह विदित ही है कि जब राजा परीक्षित को एक ब्रहृर्षि पुत्र ने शाप दिया और एक सप्ताह के पश्चात् ही उनका अन्तकाल निकट आया तो महात्मा शुकदेव ने उन्हें उस सप्ताह में श्रीमदभागवत पुराण का पाठ सुनाया, जिससे उनको मोक्ष की प्राप्ति हुई। यह प्रथा अभी भी अपनाई जाती है। महानिर्वाण के समय गीता, भागवत और अन्य ग्रन्थों का पाठ किया जाता है। बाबा तो स्वयं अवतार थे, इसलिये उन्हें बाहृ साधनों की आवश्यकता नहीं थी, परन्तु केवल दूसरों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करने के हेतु ही उन्होंने इस प्रथा की उपेक्षा नहीं की। जब उन्हें विदित हो गया कि मैं अब शीघ्र इस नश्वर देह को त्याग करुँगा, तब उन्होंने श्री. वझे को रामविजय प्रकरण सुनाने की आज्ञा दी। श्री. वझे ने एक सप्ताह प्रतिदिन पाठ सुनाया। तत्पश्चात ही बाबा ने उन्हें आठों प्रहर पाठ करने की आज्ञा दी। श्री. वझे ने उस अध्याय की द्धितीय आवृति तीन दिन में पूर्ण कर दी और इस प्रकार 11 दिन बीत गये। फिर तीन दिन और उन्होंने पाठ किया। अब श्री. वझे बिल्कुल थक गये। इसलिये उन्हें विश्राम करने की आज्ञा हुई। बाबा अब बिलकुल शान्त बैठ गये और आत्मस्थित होकर वे अन्तिम श्रण की प्रतीक्षा करने लगे। दो-तीन दिन पूर्व ही प्रातःकाल से बाबा ने भिक्षाटन करना स्थगित कर दिया और वे मसजिद में ही बैठे रहने लगे। वे अपने अन्तिम क्षण के लिये पूर्ण सचेत थे, इसलिये वे अपने भक्तों को धैर्य तो बँधाते रहते, पर उन्होंने किसी से भी अपने महानिर्वाण का निश्चित समय प्रगट न किया। इन दिनों काकासाहेब दीक्षित और श्रीमान् बूटी बाबा के साथ मसजिद में नित्य ही भोज करते थे। महानिर्वाण के दिन (15 अक्टूबर को) आरती समाप्त होने के पश्चात् बाबा ने उन लोगों को भी अपने निवासस्थान पर ही भोजन करके लौटने को कहा। फिर भी लक्ष्मीबाई शिंदे, भागोजी शिंदे, बयाजी, लक्ष्मण बाला शिम्पी और नानासाहेब निमोणकर वहीं रह गये। शामा नीचे मसजिद की सीढ़ियों पर बैठे थे। लक्ष्मीबाई शिन्दे को 9 रुपये देने के पश्चात् बाबा ने कहा कि मुझे मसजिद में अब अच्छा नहीं लगता है, इसलिये मुझे बूटी के पत्थर वाड़े में ले चलो, जहाँ मैं सुखपूर्वक रहूँगा। ये ही अन्तिम शब्द उनके श्रीमुख से निकले। इसी समय बाबा बयाजी के शरीर की ओर लटक गये और अन्तिम श्वास छोड़ दी। भागोजी ने देखा कि बाबा की श्वास रुक गई है, तब उन्होंने नानासाहेब निमोणकर को पुकार कर यह बात कही। नानासाहेब ने कुछ जल लाकर बाबा के श्रीमुख में डाला, जो बाहर लुढ़क आया। तभी उन्होंने जोर से आवाज लाई अरे। देवा। तब बाबा ऐसे दिखाई पड़े, जैसे उन्होंने धीरे से नेत्र खोलकर धीमे स्वर में ओह कहा हो। परन्तु अब स्पष्ट विदित हो गया कि उन्होंने सचमुच ही शरीर त्याग दिया है।

बाबा समाधिस्थ हो गये – यह हृदयविदारक दुःसंवाद दावानल की भाँति तुरन्त ही चारों ओर फैल गया। शिरडी के सब नर-नारी और बालकगण मसजिद की ओर दौड़े। चारों ओर हाहाकार मच गया। सभी के हृदय पर वज्रपात हुआ। उनके हृदय विचलित होने लगे। कोई जोर-जोर से चिल्लाकर रुदन करने लगा। कोई सड़कों पर लोटने लगा और बहुत से बेसुध होकर वहीं गिर पड़े। प्रत्येक की आँखों से झर-जर आँसू गिर रहे थे। प्रलय काल के वातावरण में तांडव नृत्य का जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है, वही गति शिरडी के नर-नारियों के रुदन से उपस्थित हो गई। उनके इस महान् दुःख में कौन आकर उन्हें धैर्य बँधाता, जब कि उन्होंने साक्षात् सगुण परब्रहृ का सानिध्य खो दिया था। इस दुःख का वर्णन भला कर ही कौन सकता है।

अब कुछ भक्तों को श्री साई बाबा के वचन याद आने लगे। किसी ने कहा कि महाराज (साई बाबा) ने अपने भक्तों से कहा था कि भविष्य में वे आठ वर्ष के बालक के रुप में पुनः प्रगट होंगे। ये एक सन्त के वचन है और इसलिये किसी को भी इन पर सन्देह नहीं करना चाहिये, क्योंकि कृष्णावतार में भी चक्रपाणि (भगवान विष्णु) ने ऐसी ही लीला की थी। श्रीकृष्ण माता देवकी के सामने आठ वर्ष की आयु वाले एक बालक के रुप में प्रगट हुये, जिनका दिव्य तेजोमय स्वरुप था और जिनके चारों हाथों में आयुध (शंख, चक्र, गटा और पदम) सुशोभित थे। अपने उस अवतार में भगवान श्रीकृष्ण ने भू-भार हलका किया था। साई बाबा का यह अवतार अपने बक्तों के उत्थान के लिये हुआ था। तब फिर संदेह की गुंजाइश ही कहाँ रह जाती है। सन्तों की कार्यप्रणाली अगम्य होती है। साई बाबा का अपने भक्तों के साथ यह संपर्क केवल एक ही पीढ़ी का नहीं, बल्कि यह उनका पिछले 72 जन्मों का संपर्क है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार का प्रेम-सम्बन्ध विकसित करके महाराज (श्रीसाईबाबा) दौरे पर चले गये और भक्तों को दृढ़ विश्वास है कि वे शीघ्र ही पुनः वापस आ जायेंगें।

अब समस्या उत्पन्न हुई कि बाबा के शरीर की अन्तिम क्रिया किस प्रकार की जाय। कुछ यवन लोग कहने लगे कि उनके शरीर को कब्रिस्तान में दफन कर उसके ऊपर एक मकबरा बना देना चाहिये। खुशालचन्द और अमीर शक्कर की भी यही धारणा थी, परन्तु ग्राम्य अधिकारी श्री. रामचन्द्र पाटील ने दृढ़ और निश्चयात्मक स्वर में कहा कि तुम्हारा निर्णय मुझे मान्य नहीं है। शरीर को वाड़े के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी नहीं रखा जायेगा। इस प्रकार लोगों में मतभेद उत्पन्न हो गया और वह वादविवाद 36 घण्टों तक चलता रहा।

बुधवार के दिन प्रातःकाल बाबा ने लक्ष्मण मामा जोशी को स्वप्न दिया और उन्हें अपने हाथ से खींचते हुए कहा कि शीघ्र उठो, बापूसाहेब समझता है कि मैं मृत हो गया हूँ। इसलिये वह तो आयेगा नहीं। तुम पूजन और कांकड़ आरती करो। लक्ष्मण मामा ग्राम के ज्योतिषी, शामा के मामा तथा एक कर्मठ ब्राहृमण थे। वे नित्य प्रातःकाल बाबा का पूजन किया करते, तत्पश्चात् ही ग्राम देवियों और देवताओं का। उनकी बाबा पर दृढ़ निष्ठा थी, इसलिये इस दृष्टांत के पश्चात् वे पूजन की समस्त सामग्री लेकर वहाँ आये और ज्यों ही उन्होंने बाबा के मुख का आवरण हटाया तो उस निर्जीव अलौकिक महान् प्रदीप्त प्रतिभा के दर्शन कर वे स्तब्ध रह गये, मानो हिमांशु ने उन्हें अपने पाश में आबदृ करके जड़वत् बना दिया हो। स्वप्न की स्मृति ने उन्हें अपना कर्तव्य करने को प्रेरित कर दिया। फिर उन्होंने मौलवियों के विरोध की कुछ भी चिंता न कर विधिवत् पूजन और कांकड़ आरती की। दोपहर को बापूसाहेब भी अन्य भक्तों के साथ आये और सदैव की भांति मध्याहृ की आरती की। बाबा के अन्तिम श्री-वचनों को आदरपूर्वक स्वीकार करके लोगों ने उनके शरीर को बूटी वाड़े में ही रखने का निश्चय किया और वहाँ का मध्य भाग खोदना आरम्भ कर दिया। मंगलवार की सन्ध्या को राहाता से सब-इन्स्पेक्टर और भिन्न-भिन्न स्थानो से अनेक लोग वहाँ आकर एकत्र हुए। सब लोगों ने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन प्रातःकाल बम्बई से अमीर भाई और कोपरगाँव से मामलेदार भी वहां आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि लोग अभी भी एकमत नहीं है। तब उन्होंने मतदान करवाया और पाया कि अधिकांश लोगों का बहुमत वाड़े के पक्ष में ही है। फिर भी वे इस विषय में कलेक्टर की स्वीकृति अति आवश्यक समझते थे। तब काकासाहेब स्वयं अहमदनगर जाने को उघत् हो गये, परन्तु बाबा की प्रेरणा से विरक्षियों ने भी प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन सबने मिलकर अपना मत भी वाड़े के ही पक्ष में दिया। अतः बुधवार की सन्ध्या को बाबा का पवित्र शरीर बड़ी धूमधाम और समारोह के साथ वाड़े मे लाया गया और विधिपूर्वक उस स्थान पर समाधि बना दी गई, जहाँ मुरलीधर की मूर्ति स्थापित होने को थी। सच तो यह है कि बाबा मुरलीधर बन गये और वाड़ा समाधि-मन्दिर तथा भक्तों का एक पवित्र देवस्थान, जहाँ अनेको भक्त आया जाया करते थे और अभी भी नित्य-प्रति वहाँ आकर सुख और शान्ति प्राप्त करते है। बालासाहेब भाटे और बाबा के अनन्य भक्त श्री. उपासनी ने बाबा की विधिवत् अन्तिम क्रिया की।

जैसा प्रोफेसर नारके को देखने में आया, यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि बाबा का शरीर 36 घण्टे के उपरांत भी जड़ नहीं हुआ और उनके शरीर का प्रत्येक अवयव लचीला (Elastic) बना रहा, जिससे उनके शरीर पर से कफनी बिना चीरे हुए सरलता से निकाली जा सकी।

ईंट का खण्डन

बाबा के निर्वाण के कुछ समय पूर्व एक अपशकुन हुआ, जो इस घटना की पूर्वसूचना-स्वरुप था। मसजिद में एक पुरानी ईंट थी, जिस पर बाबा अपना हाथ टेककर रखते थे। रात्रि के समय बाबा उस पर सिर रखकर शयन करते थे। यह कार्यक्रम आने वर्षों तक चला। एक दिन बाबा की अनुपस्थिति में एक बालक ने मसजिद में झाड़ू लगाते समय वह ईंट अपने हाथ में उठाई। दुर्भाग्यवश वह ईंट उसके हाथ से गिर पड़ी और उसके दो टुकड़े हो गये। जब बाबा को इस बात की सूचना मिली तो उन्हें उसका बड़ा दुःख हुआ और वे कहने लगे कि यह ईंट नहीं फूटी है, मेरा भाग्य ही फूटकर छिन्न-भिन्न हो गया है। यह तो मेरी जीवनसंगिनी थी और इसको अपने पास रखकर मैं आत्म-चिंतन किया करता था। यह मुझे अपने प्राणों के समान प्रिय थी और उसने आज मेरा साथ छोड़ दिया है। कुछ लोग यहाँ शंका कर सकते है कि बाबा को ईंट जैसी एक तुच्छ वस्तु के लिये इतना शोक क्यों करना चाहिये। इसका उत्तर हेमाडपंत इस प्रकार देते है कि सन्त जगत के उद्धार तथा दीन और अनाक्षितों के कल्याणार्थ ही अवतीर्ण होते है। जब वे नरदेह धारण करते है और जनसम्पर्क में आते है तो वे इसी प्रकार आचरण किया करते है, अर्थात् बाहृ रुप से वे अन्य लोगों के समान ही हँसते, खेलते और रोते है, परन्तु आन्तरिक रुप से वे अपने अवतार-कार्य और उसके ध्येय के लिये सदैव सजग रहते है।

72 घण्टे की समाधि

इसके 32 वर्ष पूर्व भी बाबा ने अपनी जीवन-रेखा पार करने का एक प्रयास किया था। 1886 में मार्गशीर्ष को पूर्णिमा के दिन बाबा कोदमा से अधिक पीड़ा हुई और इस व्याधि से छुटकारा पाने के लिये उन्होंने अपने प्राण ब्रहृमांड में चढ़ाकर समाधि लगाने का विचार किया। अतएव उन्होंने भगत म्हालसापति से कहा कि तुम मेरे शरीर की तीन दिन तक रक्षा करना और यदि मैं वापस लौट आया तो ठीक ही है, नहीं तो उस स्थान (एक स्थान को इंगित करते हुए) पर मी समाधि बना देना और दो ध्वजायें चिन्ह स्वरुप फहरा देना। ऐसा कहकर बाबा रात में लगभग दस बजे पृथ्वी पर लेट गये। उनका श्वासोच्छवास बन्द हो गया और ऐसा दिखाई देने लगा कि जैसे उनके शरीर में प्राण ही न हो। सभी लोग, जिनमें ग्रामवासी भी थे, वहाँ एकत्रित हुए और शरीर परीक्षण के पश्चात शरीर को उनके द्धारा बताये हुए स्थान पर समाधिस्थ कर देने का निश्चय करने लगे। परन्तु भगत म्हालसापति ने उन्हें ऐसा करने से रोका और उनके शरीर को अपनी गोद में रखकर वे तीन दिन तक उसकी रक्षा करते रहे। तीन दिन व्यतीत होने पर रात को लगभग तीन बजे प्राण लौटने के चिन्ह दिखलाई पड़ने लगे। श्वसोच्छ्वास पुनः चालू हो गया और उनके अंग-प्रत्यंग हिलने लगे। उन्होंने नेत्र खोल दिये और करवट लेते हुए वे पुनः चेतना में आ गये।

इस प्रसंग तथा अन्य प्रसंगों पर दृष्टिपात कर अब हम यह पाठकों पर छोड़ते है कि वे ही इसका निश्चय करें कि क्या बाबा अन्य लोगों की भाँति ही साढ़े तीन हाथ लम्बे एक देहधारी मानव थे, जिस देह को उन्होंने कुछ वर्षों तक धारण करने के पश्चात् छोड़ दिया, या वे स्वयं आत्मज्योतिस्वरुप थे। पंच महाभूतों से शरीर निर्मित होने के कारण उसका नाश और अन्त तो सुनिश्चित है, परन्तु जो सद्धस्तु (आत्मा) अन्तःकरण में है, वही यथार्थ में सत्य है। उसका न रुप है, न अंत है और न नाश। यही शुदृ चैतन्य धन या ब्रहृ – इन्द्रियों और मन पर शासन और नियंत्रण रखने वाला जो तत्व है, वही साई है, जो संसार के समस्त प्राणियों में विद्यमान है और जो सर्वव्यापी है। अपना अवतार-कार्य पूर्ण करने के लिये ही उन्होंने देह-धारण किया था और वह कार्य पूर्ण होने पर उन्होंने उसे त्याग कर पुनः अपना शाश्वत और अनंत स्वरुप धारण कर लिया। श्री दत्तात्रेय के पूर्ण अवतार-गाणगापुर के श्रीनृसिंह सरस्वती के समान श्री साई भी सदैव वर्तमान है। उनका निर्वाण तो एक औपचारिक बात है। वे जड़ और चेतन सभी पदार्थों में व्याप्त है तथा सर्व भूतों के अन्तःकरण के संचालक और नियंत्रणकर्ता है। इसका अभी भी अनुभव किया जा सकता है और अनेकों के अनुभव में आ भी चुका है, जो अनन्य भाव से उनके शरणागत हो चुके है और जो पूर्ण अंतःकरण से उनके उपासक है।

यद्यपि बाबा का स्वरुप अब देखने को नहीं मिल सकता है, फिर भी यदि हम शिरडी को जाये तो हमें वहाँ उनका जीवित-सदृश चित्र मसजिद (द्धारकामाई) को शोभायमान करते हुए अब भी देखने में आयेगा। यह चित्र बाबा के एक प्रसिदृ भक्त-कलाकार श्री. शामराव जयकर ने बनाया था। एक कल्पनाशील और भक्त दर्शक को यह चित्र अभी भी बाबा के दर्शन के समान ही सन्तोष और सुख पहुँचाता है। बाबा अब देह में स्थित नहीं है, परन्तु वे सर्वभूतों में व्याप्त है और भक्तों का कल्याण पूर्ववत् ही करते रहे है, करते रहेंगे, जैसा कि वे सदेह रहकर किया करते थे। बाबा सन्तों के समान अमर है, चाहे वे नरदेह धारण कर ले, जो कि एक आवरण मात्र है, परन्तु वे तो स्वयं भगवान श्री हरि है, जो समय-समय पर भूतल पर अवतीर्ण होते है।

बापूसाहेब जोग का सन्यास

जोग के सन्यास की चर्चा कर हेमाडपंत यह अध्याय समाप्त करते है। श्री. सखाराम हरी उर्फ बापूसाहेब जोग पूने के प्रसिदृ वारकरी विष्णु बुवा जोग के काका थे। वे लोक कर्म विभाग में पर्यवेक्षक थे। सेवानिवृति के पश्चात वे सपत्नीक शिरडी में आकर रहने लगे। उनके कोई सन्तान न थी। पति और पत्नी दोनों की ही साई चरणों में श्रद्धा थी। वे दोनों अपने दिन उनकी पूजा और सेवा करने में ही व्यतीत किया करते थे। मेघा की मृत्यु के पश्चात बापूसाहेब जोग ने बाबा की महासमाधि पर्यन्त मसजिद और चावड़ी में आरती की। उनको साठे बाड़ा में श्री ज्ञानेश्वरी और श्री एकनाथी भागवत का वाचन तथा उसका भावार्थ श्रोताओं को समझाने का कार्य भी दिया गया था। इस प्रकार अनेक वर्षों तक सेवा करने के पश्चात उन्होंने एक बार बाबा से प्रार्थना की कि – हे मेरे जीवन के एकमात्र आधार। आपके पूजनीय चरणों का दर्शन कर समस्त प्राणियों को परम शांति का अनुभव होता है। मैं इन श्री चरणों की अनेक वर्षों से निरंतर सेवा कर रहा हूँ, परन्तु क्या कारण है कि आपके चरणों की छाया के सन्निकट होते हुए भी मैं उनकी शीतलता से वंचित हूँ। मेरे इस जीवन में कौन-सा सुख है, यदि मेरा चंचल मन शान्त और स्थिर बनकर आपके श्रीचरणों में मग्न नहीं होता। क्या इतने वर्षों का मेरा सन्तसमागम व्यर्थ ही जायेगा। मेरे जीवन में वह शुभ घड़ी कब आयेगी, जब आपकी मुझ पर कृपा दृष्टि होगी।

भक्त की प्रार्थना सुनकर बाबा को दया आ गई। उन्होंने उत्तर दिया कि थोड़े ही दिनों में अब तुम्हारे अशुभ कर्म समाप्त हो जायेंगे तथा पाप और पुण्य जलकर शीघ्र ही भस्म हो जायेंगे। मैं तुम्हें उस दिन ही भाग्यशाली समझूँगा, जिस दिन तुम ऐन्द्रिक-विषयों को तुच्छ जानकर समस्त पदार्थों से विरक्त होकर पूर्ण अनन्य भाव से ईश्वर भक्ति कर सन्यास धारण कर लोगे। कुछ समय पश्चात् बाबा के वचन सत्य सिदृ हुये। उनकी स्त्री का देहान्त हो जाने पर उनकी अन्य कोई आसक्ति शेष न रही। वे अब स्वतंत्र हो गये और उन्होंने अपनी मृत्यु के पूर्व सन्यास धारण कर अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लिया।

बाबा के अमृततुल्य वचन

दयानिधि कृपालु श्री साई समर्थ ने मस्जिद (द्धारिकामाई) में अनेक बार निम्नलिखित सुधोपम वचन कहे थे -


जो मुझे अत्यधिक प्रेम करता है, वह सदैव मेरा दर्शन पाता है। उसके लिये मेरे बिना सारा संसार ही सूना है। वह केवल मेरा ही लीलागान करता है। वह सतत मेरा ही ध्यान करता है और सदैव मेरा ही नाम जपता है। जो पूर्ण रुप से मेरी शरण में आ जाता है और सदा मेरा ही स्मरण करता है, अपने ऊपर उसका यह ऋण मैं उसे मुक्ति (आत्मोपलब्घि) प्रदान करके चुका दूँगा। जो मेरा ही चिन्तन करता है और मेरा प्रेम ही जिसकी भूख-प्यास है और जो पहले मुझे अर्पित किये बिना कुछ भी नहीं खाता, मैं उसके अधीन हूँ। जो इस प्रकार मेरी शरण में आता है, वह मुझसे मिलकर उसकी तरह एकाकार हो जाता है, जिस तरह नदियाँ समुद्र से मिलकर तदाकार हो जाती है। अतएव महत्ता और अहंकार का सर्वथा परित्याग करके तुम्हें मेरे प्रति, जो तुम्हारे हृदय में आसीन है, पूर्ण रुप से समर्पित हो जाना चाहिये।

यह मैं कौन है।

श्री साईबाबा ने अनेक बार समझाया कि यह मैं कौन है। इस मैं को ढ़ूँढने के लिये अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे नाम और आकार से परे मैं तुम्हारे अन्तःकरण और समस्त प्राणियों में चैतन्यधन स्वरुप में विद्यमान हूँ और यहीं मैं का स्वरुप है। ऐसा समझकर तुम अपने तथा समस्त प्राणियों में मेरा ही दर्शन करो। यदि तुम इसका नित्य प्रति अभ्यास करोगे तो तुम्हें मेरी सर्वव्यापकता का अनुभव शीघ्र हो जायेगा और मेरे साथ अभिन्नता प्राप्त हो जायेगी।

अतः हेमाडपन्त पाठकों को नमन कर उनसे प्रेम और आदरपूर्वक विनम्र प्रार्थना करते है कि उन्हें समस्त देवताओं, सन्तों और भक्तों का आदर करना चाहिये। बाबा सदैव कहा करते थे कि जो दूसरों को पीड़ा पहुँचाता है, वह मेरे हृदय को दुःख देता है तथा मुझे कष्ट पहुँचाता है। इसके विपरीत जो स्वयं कष्ट सहन करता है, वह मुझे अधिक प्रिय है। बाबा समस्त प्राणयों में विद्यमान है और उनकी हर प्रकार से रक्षा करते है। समस्त जीवों से प्रेम करो, यही उनकी आंतरिक इच्छा है। इस प्रकार का विशुद्ध अमृतमय स्त्रोत उनके श्री मुख से सदैव झरता रहता था। अतः जो प्रेमपूर्वक बाबा का लीलागान करेंगे या उन्हें भक्तिपूर्वक श्रवण करेंगे, उन्हें साई से अवश्य अभिन्नता प्राप्त होगी।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

शनिवार, 20 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-42 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 42

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-42

महासमाधि की ओर

भविष्य की आगाही – रामचन्द्र दादा पाटील और तात्या कोते पाटील की मृत्यु टालना – लक्ष्मीबाई शिन्दे को दान – अन्तिम क्षण।

बाबा ने किस प्रकार समाधि ली, इसका वर्णन इस अध्याय में किया गया है।

प्रस्तावना


गत अध्यायों की कथाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि गुरुकृपा की केवल एक किरण ही भवसागर के भय से सदा के लिये मुक्त कर देती है तथा मोक्ष का पथ सुगम करके दुःख को सुख में परिवर्तित कर देती है। यदि सदगुरु के मोहविनाशक पूजनीय चरणों का सदैव स्मरण करते रहोगे तो तुम्हारे समस्त कष्टों और भवसागर के दुःखों का अन्त होकर जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा हो जायेगा। इसीलिये जो अपने कल्याणार्थ चिन्तित हो, उन्हें साई समर्थ के अलौकिक मधुर लीलामृत का पान करना चाहिये। ऐसा करने से उनकी मति शुद्ध हो जायेगी। प्रारम्भ में डॉक्टर पंडित का पूजन तथा किस प्रकार उन्होंने बाबा को त्रिपुंड लगाया, इसका उल्लेख मूल ग्रन्थ में किया गया है। इस प्रसंग का वर्णन 11वें अध्याय में किया जा चुका है, इसलिये यहाँ उसका दुहराना उचित नहीं है।

भविष्य की आगाही

पाठको! आपने अभी तक केवल बाबा के जीवन-काल की ही कथायें सुनी है। अब आप ध्यानपूर्वक बाबा के निर्वाणकाल का वर्णन सुनिये। 28 सितम्बर, सन् 1918 को बाबा को साधारण-सा ज्वर आया। यह ज्वर 2-3 दिन तक रहा। इसके उपरान्त ही बाबा ने भोजन करना बिलकुल त्याग दिया। इससे उनका शरीर दिन-प्रतिदिन क्षीण एवं दुर्बल होने लगा। 17 दिनों के पश्चात् अर्थात् 18 अक्टूबर, सन् 1918 को 2 बजकर 30 मिनट पर उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। (यह समय प्रो. जी. जी. नारके के तारीख 5-11-1918 के पत्र के अनुसार है, जो उन्होंने दादासाहेब खापर्डे को लिखा था और उस वर्ष की साईलीलापत्रिका के 7-8 पृष्ठ (प्रथम वर्ष) में प्रकाशित हुआ था। इसके दो वर्ष पूर्व ही बाबा ने अपने निर्वाण के दिन का संकेत कर दिया था, परन्तु उस समय कोई भी समझ नहीं सका। घटना इस प्रकार है। विजया दशमी के दिन जब लोग सन्ध्या के समय सीमोल्लंघन से लौट रहे थे तो बाबा सहसा ही क्रोधित हो गये। सिर पर का कपड़ा, कफनी और लँगोटी निकालकर उन्होंने उसके टुकड़े-टुकड़े करके जलती हुई धूनी में फेंक दिये। बाबा के द्धारा आहुति प्राप्त कर धूनी द्धिगुणित प्रज्वलित होकर चमकने लगी और उससे भी कहीं अधिक बाबा के मुख-मंडल की कांति चमक रही थी। वे पूर्ण दिगम्बर खड़े थे और उनकी आँखें अंगारे के समान चमक रही थी। उन्होंने आवेश में आकर उच्च स्वर में कहा कि लोगो... यहाँ आओ, मुझे देखकर पूर्ण निश्चय कर लो कि मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान। सभी भय से काँप रहे थे। किसी को भी उनके समीप जाने का साहस न हो रहा था। कुछ समय बीतने के पश्चात् उनके भक्त भागोजी शिन्दे, जो महारोग से पीड़ित थे, साहस कर बाबा के समीप गये और किसी प्रकार उन्होंने उन्हें लँगोटी बाँध दी और उनसे कहा कि बाबा। यह क्या बात है। देव आज दशहरा (सीमोल्लंघन) का त्योहार है। तब उन्होंने जमीन पर सटका पटकते हुए कहा कि यह मेरा सीमोल्लंघन है। लगभग 11 बजे तक भी उनका क्रोध शान्त न हुआ और भक्तों को चावड़ी जुलूस निकलने में सन्देह होने लगा। एक घण्टे के पश्चात् वे अपनी सहज स्थिति में आ गये और सदी की भांति पोशाक पहनकर चावड़ी जुलूस में सम्मिलित हो गये, जिसका वर्णन पूर्व में ही किया जा चुका है। इस घटना द्धारा बाबा ने इंगित किया कि जीवन-रेखा पार करने के लिये दशहरा ही उचित समय है। परन्तु उस समय किसी को भी उसका असली अर्थ समझ में न आया। बाबा ने और भी अन्य संकेत किये, जो इस प्रकार है -

रामचन्द्र दादा पाटील की मृत्यु टालना



कुछ समय के पश्चात् रामचन्द्र पाटील बहुत बीमार हो गये। उन्हें बहुत कष्ट हो रहा था। सब प्रकार के उपचार किये गये, परन्तु कोई लाभ न हुआ और जीवन से हताश होकर वे मृत्यु के अंतिम क्षणों की प्रतीक्षा करने लगे। तब एक दिन मध्याहृ रात्रि के समय बाबा अनायास ही उनके सिरहाने प्रगट हुए। पाटील उनके चरणों से लिपट कर कहने लगे कि मैंने अपने जीवन की समस्त आशायें छोड़ दी है। अब कृपा कर मुझे इतना तो निश्चित बतलाइये कि मेरे प्राण अब कब निकलेंगे। दया-सिन्धु बाबा ने कहा कि घबराओ नहीं। तुम्हारी हुँण्डी वापस ले ली गई है और तुम शीघ्र ही स्वस्थ हो जाओगे। मुझे तो केवल तात्या का भय है कि सन् 1918 में विजया दशमी के दिन उसका देहान्त हो जायेगा। किन्तु यह भेद किसी से प्रगट न करना और न ही किसी को बतलाना। अन्यथा वह अधिक भयभीत हो जायेगा। रामचन्द्र अब पूर्ण स्वस्थ हो गये, परन्तु वे तात्या के जीवन के लिये निराश हुए। उन्हें ज्ञात था कि बाबा के शब्द कभी असत्य नहीं निकल सकते और दो वर्ष के पश्चात ही तात्या इस संसर से विदा हो जायेगा। उन्होंने यह भेद बाला शिंपी के अतिरिक्त किसी से भी प्रगट न किया। केवल दो ही व्यक्ति – रामचन्द्र दादा और बाला शिंपी तात्या के जीवन के लिये चिन्ताग्रस्त और दुःखी थे।

रामचन्द्र ने शैया त्याग दी और वे चलने-फिरने लगे। समय तेजी से व्यतीत होने लगा। शके 1840 (सन् 1918) का भाद्रपद समाप्त होकर आश्विन मास प्रारम्भ होने ही वाला था कि बाबा के वचन पूर्णतः सत्य निकले। तात्या बीमार पड़ गये और उन्होंने चारपाई पकड़ ली। उनकी स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि अब वे बाबा के दर्शनों को भी जाने में असमर्थ हो गये। इधर बाबा भी ज्वर से पीड़ित थे। तात्या का पूर्ण विश्वास बाबा पर था और बाबा का भगवान श्री हरि पर, जो उनके संरक्षक थे। तात्या की स्थिति अब और अधिक चिन्ताजनक हो गई। वह हिलडुल भी न सकता था और सदैव बाबा का ही स्मरण किया करता था। इधर बाबा की भी स्थिति उत्तरोत्तर गंभीर होने लगी। बाबा द्धारा बतलाया हुआ विजया-दसमी का दिन भी निकट आ गया। तब रामचन्द्र दादा और बाला शिंपी बहुत घबरा गये। उनके शरीर काँप रहे थे, पसीने की धारायें प्रवाहित हो रही थी, कि अब तात्या का अन्तिम साथ है। जैसे ही विजया-दशमी का दिन आया, तात्या की नाड़ी की गति मन्द होने लगी और उसकी मृत्यु सन्निकट दिखलाई देने लगी। उसी समय एक विचित्र घटना घटी। तात्या की मृत्यु टल गई और उसके प्राण बच गये, परन्तु उसके स्थान पर बाबा स्वयं प्रस्थान कर गये और ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे कि परस्पर हस्तान्तरण हो गया हो। सभी लोग कहने लगे कि बाबा ने तात्या के लिये प्राण त्यागे। ऐसा उन्होंने क्यों किया, यह वे ही जाने, क्योंकि यह बात हमारी बुद्धि के बाहर की है। ऐसी भी प्रतीत होता है कि बाबा ने अपने अन्तिम काल का संकेत तात्या का नाम लेकर ही किया था।

दूसरे दिन 16 अक्टूबर को प्रातःकाल बाबा ने दासगणू को पंढरपुर में स्वप्न दिया कि मसजिद अर्रा करके गिर पड़ी है। शिरडी के प्रायः सभी तेली तम्बोली मुझे कष्ट देते थे। इसलिये मैंने अपना स्थान छोड़ दिया है। मैं तुम्हें यह सूचना देने आया हूँ कि कृपया शीघ्र वहाँ जाकर मेरे शरीर पर हर तरह के फूल इकट्ठा कर चढ़ाओ। दासगणू को शिरडी से भी एक पत्र प्राप्त हुआ और वे अपने शिष्यों को साथ लेकर शिरडी आये तथा उन्होंने बाबा की समाधि के समक्ष अखंड कीर्तन और हरिनाम प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने स्वयं फूलो की माला गूँथी और ईश्वर का नाम लेकर समाधि पर चढ़ाई। बाबा के नाम पर एक वृहद भोज का भी आयोजन किया गया।

लक्ष्मीबाई को दान

विजयादशमी का दिन हिन्दुओं को बहुत शुभ है और सीमोल्लंघन के लिये बाबा द्धारा इस दिन का चुना जाना सर्वथा उचित ही है। इसके कुछ दिन पूर्व से ही उन्हें अत्यन्त पीड़ा हो रही थी, परन्तु आन्तरिक रुप में वे पूर्ण सजग थे। अन्तिम क्षण के पूर्व वे बिना किसी की सहायता लिये उठकर सीधे बैठ गये और स्वस्थ दिखाई पड़ने लगे। लोगों ने सोचा कि संकट टल गया और अब भय की कोई बात नहीं है तथा अब वे शीघ्र ही नीरोग हो जायेंगे। परन्तु वे तो जानते थे कि अब मैं शीघ्र ही विदा लेने वाला हूँ और इसलिये उन्होंने लक्ष्मीबाई शिन्दे को कुछ दान देने की इच्छा प्रगट की।

समस्त प्राणियों में बाबा का निवास

लक्ष्मीबाई एक उच्च कुलीन महिला थी। वे मसजिद में बाबा की दिन-रात सेवा किया करती थी। केवल भगत म्हालसापति तात्या और लक्ष्मीबाई के अतिरिक्त रात को मसजिद की सीढ़ियों पर कोई नहीं चढ़ सकता था। एक बार सन्ध्या समय जब बाबा तात्या के साथ मसजिद में बैठे हुए थे, तभी लक्ष्मीबाई ने आकर उन्हे नमस्कार किया। तब बाबा कहने लगे कि अरी लक्ष्मी, मैं अत्यन्त भूखा हूँ। वे यह कहकर लौट पड़ी कि बाबा, थोड़ी देर ठहरो, मैं अभी आपके लिये रोटी लेकर आती हूँ। उन्होंने रोटी और साग लाकर बाबा के सामने रख दिया, जो उन्होंने एक भूखे कुत्ते को दे दिया। तब लक्ष्मीबाई कहने लगी कि बाबा यह क्या। मैं तो शीघ्र गई और अपने हाथ से आपके लिये रोटी बना लाई। आपने एक ग्रास भी ग्रहण किये बिना उसे कुत्ते के सामने डाल दिया। तब आपने व्यर्थ ही मुझे यह कष्ट क्यों दिया। बाबा न उत्तर दिया कि व्यर्थ दुःख न करो। कुत्ते की भूख शान्त करना मुझे तृप्त करने के बराबर ही है। कुत्ते की भी तो आत्मा है। प्राणी चाहे भले ही भिन्न आकृति-प्रकृति के हो, उनमें कोई बोल सकते है और कोई मूक है, परन्तु भूख सबकी एक सदृश ही है। इसे तुम सत्य जानो कि जो भूखों को भोजन कराता है, वह यथार्थ में मुझे ही भोजन कराता है। यह एक अक्षर सत्य है। इस साधारम-सी घटना के द्धारा बाबा ने एक महान् आध्यात्मिक सत्य की शिक्षा प्रदान की कि बिना किसी की भावनाओं को कष्ट पहुँचाये किस प्रकार उसे नित्य व्यवहार में लाया जा सकता है। इसके पश्चात् ही लक्ष्मीबाई उन्हें नित्य ही प्रेम और भक्तिपूर्वक दूध, रोटी व अन्य भोजन देने लगी, जिसे वे स्वीकार कर बड़े चाव से खाते थे। वे उसमें से कुछ खाकर शेष लक्ष्मीबाई के द्धारा ही राधाकृष्ण माई के पास भेज दिया करते थे। इस उच्छिष्ट अन्न को वे प्रसाद स्वरुप समझ कर प्रेमपूर्वक खाती थी। इस रोटी की कथा को असंबन्ध नहीं समझा चाहिये। इससे सिदृ होता है कि सभी प्राणियों में बाबा का निवास है, जो सर्वव्यापी, जन्म-मृत्यु से परे और अमर है।

बाबा ने लक्ष्मीबाई की सेवाओं को सदैव स्मरण रखा। बाबा उनको भुला भी कैसे सकते थे। देह-त्याग के बिल्कुल पूर्व बाबा ने अपनी जेब में हाथ डाला और पहले उन्होंने लक्ष्मी को पाँच रुपये और बाद में चार रुपये, इस प्रकार कुल नौ रुपये दिये। यह नौ की संख्या इस पुस्तक के अध्याय 21 में वर्णित नव विधा भक्ति की धोतक है अथवा यह सीमोल्लंघन के समय दी जाने वाली दक्षिणा भी हो सकती है। लक्ष्मीबाई एक सुसंपन्न महिला थी। अतएव उन्हें रुपयों की कोई आवश्यकता नहीं थी। इस कारण संभव है कि बाबा ने उनका ध्यान प्रमुख रुप से श्री मदभागवत के स्कन्ध 11, अध्याय 10 के श्लोंक सं. 6 की ओर आकर्षित किया हो, जिसमे उत्कृष्ट कोटि के भक्त के नौ लक्षणों का वर्णन है, जिनमें से पहले 5 और बाद मे 4 लक्षणों का क्रमशः प्रथम और द्धितीय चरणों में उल्लेख हुआ है। बाबा ने भी उसी क्रम का पालन किया (पहले 5 और बाद में 4, कुल 9) केवल 9 रुपये ही नहीं बल्कि नौ के कई गुने रुपये लक्ष्मीबाई के हाथों में आये-गये होंगे, किन्तु बाबा के द्धारा प्रद्त्त यह नौ (रुपये) का उपहार वह महिला सदैव स्मरण रखेगी।

अंतिम क्षण


बाबा सदैव सजग और चैतन्य रहते थे और उन्होंने अन्तिम समय भी पूर्ण सावधानी से काम लिया। अपने भक्तों के प्रति बाबा का हृदय प्रेम, ममता या मोह से ग्रस्त न हो जाय, इस कारण उन्होंने अन्तिम समय सब को वहाँ से चले जाने का आदेश दिया। चिन्तमग्न काकासाहेब दीक्षित, बापूसाहेब बूटी और अन्य महानुभाव, जो मसजिद में बाबा की सेवा में उपस्थित थे, उनको भी बाबा ने वाड़े में जाकर भोजन करके लौट आने को कहा। ऐसी स्थिति में वे बाबा को अकेला छोड़ना तो नहीं चाहते थे, परन्तु उनकी आज्ञा का उल्लंघन भी तो नहीं कर सकते थे। इसलिये इच्छा ना होते हुए भी उदास और दुःखी हृदय से उन्हें वाड़े को जाना पड़ा। उन्हें विदित था कि बाबा की स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है और इस प्रकार उन्हें अकेले छोड़ना उचित नहीं है वे भोजन करने के लिये बैठे तो, परन्तु उनके मन कहीं और (बाबा के साथ) थे। अभी भोजन समाप्त भी न हो पाया था कि बाबा के नश्वर शरीर त्यागने का समाचार उनके पास पहुँचा और वे अधपेट ही अपनी अपनी थाली छोड़कर मसजिद की ओर भागे और जाकर देखा कि बाबा सदा के लिये बयाजी आपा कोते की गोद में विश्राम कर रहे है। न वे नीचे लुढ़के और न शैया पर ही लेटे, अपने ही आसन पर शान्तिपूर्वक बैठे हुए और अपने ही हाथों से दान देते हुए उन्होंने यह मानव-शरीर त्याग दिया। सन्त स्वयं ही देह धारण करते है तथा कोई निश्चित ध्येय लेकर इस संसार में प्रगट होते है और जब देह पूर्ण हो जाता है तो वे जिस सरलता और आकस्मिकता के साथ प्रगट होते है, उसी प्रकार लुप्त भी हो जाया करते है।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

शुक्रवार, 19 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-41 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 41

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-41

चित्र की कथा
चिंदियों की चोरी और ज्ञानेश्वरी के पठन की कथा।

गत अध्याय में वर्णित घटना के नौ वर्ष पश्चात् अली मुहम्मद हेमाडपंत से मिले और वह पिछली कथा निम्निखित रुप में सुनाई।

एक दिन बम्बई में घूमते-फिरते मैंने एक दुकानदार से बाबा का चित्र खरीदा। उसे फ्रेम कराया और अपने घर (मध्य बम्बई की बस्ती में) लाकर दीवाल पर लगा दिया। मुझे बाबा से स्वाभाविक प्रेम था। इसलिये मैं प्रतिदिन उनका श्री दर्शन किया करता था। जब मैंने आपको (हेमाडपंत को) वह चित्र भेंट किया, उसके तीन माह पूर्व मेरे पैर में सूजन आने के कारण शल्यचिकित्सा भी हुई थी। मैं अपने साले नूर मुहम्मद के यहाँ पड़ा हुआ था। खुद मेरे घर पर तीन माह से ताला लगा था और उस समय वहाँ पर कोई न था। केवल प्रसिदृ बाबा अब्दुल रहमान, मौलाना साहेब, मुहम्मद हुसेन, साई बाबा ताजुद्दीन बाबा और अन्य सन्त चित्रों के रुप में वही विराजमान थे, परन्तु कालचक्र ने उन्हें भी वहाँ न छोड़ा। मैं वहाँ (बम्बई) बीमार पड़ा हुआ था तो फिर मेरे घर में उन लोगों (फोटो) को कष्ट क्यों हो। ऐसा समझ में आता है कि वे भी आवागमन (जन्म और मृत्यु) के चक्कर से मुक्त नहीं है। अन्य चित्रों की गति तो उनके ओभाग्यनुसार ही हुई, परन्तु केवल श्री साईबाबा का ही चित्र कैसे बच निकला, इसका रहस्योदघाटन अभी तक कोई नहीं कर सका है। इससे श्री साईबाबा की सर्वव्यापकता और उनकी असीम शक्ति का पता चलता है।

कुछ वर्ष पूर्व मुझे मुहम्मद हुसेन थारिया टोपण से सन्त बाबा अब्दुल रहमान का चित्र प्राप्त हुआ था, जिसे मैंने अपने साले नूर मुहम्मद पीरभाई को दे दिया, जो गत आठ वर्षों से उसकी मेज पर पड़ा हुआ था। एक दिन उसकी दृष्टि इस चित्र पर पड़ी, तब उसने उसे फोटोग्राफर के पास ले जाकर उसकी बड़ी फोटो बनवाई और उसकी कापियाँ अपने कई रिश्तेदारों और मित्रों में वितरित की। उनमें से एक प्रति मुझे भी मिली थी, जिसे मैंने अपने घर की दीवाल पर लगा रखा था। नूर मुहम्मद सन्त अब्दुल रहमान के शिष्य थे। जब सन्त अब्दुल रहमान साहेब का आम दरबार लगा हुआ था, तभी नूर मुहम्मद उन्हें वह फोटो भेंट करने के हेतु उनके समक्ष उपस्थित हुए। फोटो को देखते ही वे अति क्रोधित हो नूर मुहम्मद को मारने दौड़े तथा उन्हें बाहर निकाल दिया। तब उन्हें बड़ा दुःख और निराशा हुई। फिर उन्हें विचार आया कि मैंने इतना रुपया व्यर्थ ही खर्च किया, जिसका परिणाम अपने गुरु के क्रोध और अप्रसन्नता का कारण बना। उनके गुरु मूर्ति पूजा के विरोधी थे, इसलिये वे हाथ में फोटो लेकर अपोलो बन्दर पहुँचे और एक नाव किराये पर लेकर बीच समुद्र में वह फोटो विसर्जित कर आये। नूर मुहम्मद ने अपने सब मित्रों और सम्बन्धियों से भी प्रार्थना कर सब फोटो वापस बुला लिये (कुल छः फोटो थे) और एक मछुए के हाथ से बांद्रा के निकट समुद्र में विसर्जित करा दिये।

इस समय मैं अपने साले के घर पर ही था। तब नूर मुहम्मद ने मुझसे कहा कि यदि तुम सन्तों के सब चित्रों को समुद्र में विसर्जित करा दोगे तो तुम शीघ्र स्वस्थ हो जाओगे। यह सुनकर मैंने मैनेजर मैहता को अपने घर भेजा और उसके द्धारा घर में लग हुए सब चित्रों को समुद्र में फिकवा दिया। दो माह पश्चात जब मैं अपने घर वापस लौटा तो बाबा का चित्र पूर्ववत् लगा देखकर मुझे महान् आश्चर्य हुआ। मैं समझ न सका कि मेहता ने अन्य सब चित्र तो निकालकर विसर्जित कर दिये, पर केवल यही चित्र कैसे बच गया। तब मैंने तुरन्त ही उसे निकाल लिया और सोचने लगा कि कहीं मेरे साले की दृष्टि इस चित्र पर पड़ गई तो वह इसकी भी इति श्री कर देगा। जब मैं ऐसा विचार कर ही रहा था कि इस चित्र को कौन अच्छी तरह सँभाल कर रख सकेगा, तब स्वयं श्री साईबाबा ने सुझाया कि मौलाना इस्मू मुजावर के पास जाकर उनसे परामर्श करो और उनकी इच्छानुसार ही कार्य करो। मैंने मौलाना साहेब से भेंट की और सब बाते उन्हें बतलाई। कुछ देर विचार करने के पस्चात् वे इस निर्णय पर पहुँचे कि इस चित्र को आपको (हेमाडपंत) ही भेंट करना उचित है, क्योकि केवल आप ही इसे उत्तम प्रकार से सँभालने के लिये सर्वथा सत्पात्र है। तब हम दोनों आप के घर आये और उपयुक्त समय पर ही यह चित्र आपको भेंट कर दिया। इस कथा से विदित होता है कि बाबा त्रिकालज्ञानी थे और कितनी कुशलता से समस्या हल कर भक्तों की इच्छायें पूर्ण किया करते थे। निम्नलिखित कथा इस बात का प्रतीक है कि आध्यात्मिक जिज्ञासुओं पर बाबा किस प्रकार स्नेह रखते तथा किस प्रकार उनके कष्ट निवारण कर उन्हें सुख पहुँचाते थे।

चिन्दियों की चोरी और ज्ञानेश्वरी का पठन

श्री. बी. व्ही. देव, जो उस समय डहाणू के मामलेदार थे, उसको दीर्घकाल से अन्य धार्मिक ग्रन्थों के साथ-साथ ज्ञानेश्वरी के पठन की तीव्र इच्छा थी। (ज्ञानेश्वरी भगवदगीता पर श्री ज्ञानेश्वर महाराज द्घारा रचित मराठी टीका है ।) वे भगवदगीता के एक अध्याय का नित्य पाठ करते तथा थोड़े बहुत अन्य ग्रन्थों का भी अध्ययन करते थे। परन्तु जब भी वे ज्ञानेश्वरी का पाठ प्रारम्भ करते तो उनके समक्ष अनेक बाधाएँ उपस्थित हो जाती, जिससे वे पाठ करने से सर्वथा वंचित रह जाया करते थे। तीन मास की छुट्टी लेकर वे शिरडी पधारे और तत्पश्चात वे अपने घर पौड में विश्राम करने के लिये भी गये। अन्य ग्रन्थ तो वे पढ़ा ही करते थे, परन्तु जब ज्ञानेश्वरी का पाठ प्रारम्भ करते तो नाना प्रकार के कलुषित विचार उन्हें इस प्रकार घेर लेते कि लाचार होकर उसका पठन स्थगित करना पड़ता था। बहुत प्रयत्न करने पर भी जब उनको केवल दो चार ओवियाँ पढ़ना भी दुष्कर हो गया, तब उन्होंने यह निश्चय किया कि जब दयानिधि श्री साई ही कृपा करके इस ग्रन्थ के पठन की आज्ञा देंगे, तभी उसकी श्रीगणेश करुँगा। सन् 1914 के फरवरी मास में वे सहकुटुम्ब शिरडी पधारे। तभी श्री. जोग ने उनसे पूछा कि क्या आप ज्ञानेश्वरी का नित्य पठन करते है। श्री. देव ने उत्तर दिया कि मेरी इच्छा तो बहुत है, परन्तु मैं ऐसा करने में सफलता नहीं पा रहा हूँ। अब तो जब बाबा की आज्ञा होगी, तभी प्रारम्भ करुँगा। श्री, जोग ने सलाह दी कि ग्रन्थ की एक प्रति खरीद कर बाबा को भेंट करो और जब वे अपने करकमलों से स्पर्श कर उसे वापस लौटा दे, तब उसका पठन प्रारम्भ कर देना। श्री. देव ने कहा कि मैं इस प्रणाली को श्रेयस्कर नहीं समझता, क्योंकि बाबा तो अन्तर्यामी है और मेरे हृदय की इच्छा उनसे कैसे गुप्त रह सकती है। क्या वे स्पष्ट शब्दों में आज्ञा देकर मेरी मनोकामना पूर्ण न करेंगें।

श्री. देव ने जाकर बाबा के दर्शन किये और एक रुपया दक्षिणा भेंट की। तब बाबा ने उनसे बीस रुपये दक्षिणा और माँगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दिया। रात्रि के समय श्री. देव ने बालकराम से भेंट की और उनसे पूछा आपने किस प्रकार बाबा की भक्ति तथा कृपा प्राप्त की है। बालकराम ने कहा मैं दूसरे दिन आरती समाप्त होने के पश्चात् आपको पूर्ण वृतान्त सुनाऊँगा। दूसरे दिन जब श्री. देवसाहब दर्शनार्थ मसजिद में आये तो बाबा ने फिर बीस रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने सहर्ष भेंट कर दी। मसजिद में भीड़ अधिक होने के कारण वे एक ओर एकांत में जाकर बैठ गये। बाबा ने उन्हें बुलाकर अपने समीप बैठा लिया। आरती समाप्त होने के पश्चात जब सब लोग अपने घर लौट गये, तब श्री. देव ने बालकराम से भेंट कर उनसे उनका पूर्व इतिहास जानने की जिज्ञासा प्रगट की तथा बाबा द्धारा प्राप्त उपदेश और ध्यानादि के संबंध में पूछताछ की। बालकराम इन सब बातों का उत्तर देने ही वाले थे कि इतने में चन्द्रू कोढ़ी ने आकर कहा कि श्री. देव को बाबा ने याद किया है। जब देव बाबा के पास पहुँचे तो उन्होंने प्रश्न किया कि वे किससे और क्या बातचीत कर रहे थे। श्री. देव ने उत्तर दिया कि वे बालकराम से उनकी कीर्ति का गुणगान श्रवण कर रहे थे। तब बाबा ने उनसे पुनः 25 रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने सहर्ष दे दी। फिर बाबा उन्हें भीतर ले गये और अपना आसन ग्रहण करने के पश्चात् उन पर दोषारोपण करते हुए कहा कि मेरी अनुमति के बिना तुमने मेरी चिन्दियों की चोरी की है। श्री. देव ने उत्तर दिया भगवन। जहाँ तक मुझे स्मरण है, मैंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है। परन्तु बाबा कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने अच्छी तरह ढँढ़ने को कहा। उन्होंने खोज की, परन्तु कहीं कुछ भी न पाया। तब बाबा ने क्रोधित होकर कहा कि तुम्हारे अतिरिक्त यहाँ और कोई नहीं हैं। तुम्ही चोर हो। तुम्हारे बाल तो सफेद हो गये है और इतने वृदृ होकर भी तुम यहां चोरी करने को आये हो। इसके पश्चात् बाबा आपे से बाहर हो गये और उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गई। वे बुरी तरह से गालियाँ देने और डाँटने लगे। देव शान्तिपूर्वक सब कुछ सुनते रहे। वे मार पड़ने की भी आशंका कर रहे थे कि एक घण्टे के पश्चात् ही बाबा ने उनसे वाड़े में लौटने को कहा। वाड़े को लौटकर उन्होंने जो कुछ हुआ था, उसका पूर्ण विवरण जोग और बालकराम को सुनाया। दोपहर के पश्चात बाबा ने सबके साथ देव को भी बुलाया और कहने लगे कि शायद मेरे शब्दों ने इस वृदृ को पीड़ा पहुँचाई होगी। इन्होंने चोरी की है और इसे ये स्वीकार नहीं करते है। उन्होंने देव से पुनः बारह रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्होंने एकत्र करके सहर्ष भेंट करते हुए उन्हें नमस्कार किया। तब बाबा देव से कहने लगे कि तुम आजकल क्या कर रहे हो। देव ने उत्तर दिया कि कुछ भी नहीं। तब बाबा ने कहा प्रतिदिन पोथी (ज्ञानेश्वरी) का पाठ किया करो। जाओ, वाडें में बैठकर क्रमशः नित्य पाठ करो और जो कुछ भी तुम पढ़ो, उसका अर्थ दूसरों को प्रेम और भक्तिपूर्वक समझाओ। मैं तो तुम्हें सुनहरा शेला (दुपट्टा) भेंट देना चाहता हूँ, फिर तुम दूसरों के समीप चिन्दियों की आशा से क्यों जाते हो। क्या तुम्हें यह शोभा देता है।

पोथी पढ़ने की आज्ञा प्राप्त करके देव अति प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा कि मुझे इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो गई है और अब मैं आनन्दपूर्वक पोथी (ज्ञानेश्वरी) पढ़ सकूँगा। उन्होंने पुनः साष्टांग नमस्कार किया और कहा कि हे प्रभु। मैं आपकी शरण हूँ। आपका अबोध शिशु हूँ। मुझे पाठ में सहायता कीजिये। अब उन्हें चिन्दियों का अर्थ स्पष्टतया विदित हो गया था। उन्होंने बालकराम से जो कुछ पूछा था, वह चिन्दी स्वरुप था। इन विषयों में बाबा को इस प्रकार का कार्य रुचिकर नहीं था। क्योंकि वे स्वंय प्रत्येक शंका का समाधान करने को सदैव तैयार रहते थे। दूसरों से निरर्थक पूछताछ करना वे अच्छा नहीं समझते थे, इसलिये उन्होंने डाँटा और क्रोधित हुए। देव ने इन शब्दों को बाबा का शुभ आर्शीवाद समझा तथा वे सन्तुष्ट होकर घर लौट गये।


यह कथा यहीं समाप्त नहीं होती। अनुमति देने के पश्चात् भी बाबा शान्त नहीं बैठे तथा एक वर्ष के पश्चात ही वे श्री. देव के समीप गये और उनसे प्रगति के विषय में पूछताछ की। 2 अप्रैल, सन् 1914 गुरुवार को सुबह बाबा ने स्वप्न में देव से पूछा कि क्या तुम्हें पोथी समझ में आई। जब देव ने स्वीकारात्मक उत्तर न दिया तो बाबा बोले कि अब तुम कब समझोगे। देव की आँखों से टप-टप करके अश्रुपात होने लगा और वे रोते हुए बोले कि मैं निश्चयपूर्वक कह रहा हूँ कि हे भगवान्। जब तक आपकी कृपा रुपी मेघवृष्टि नहीं होती, तब तक उसका अर्थ समझना मेरे लिये सम्भव नहीं है और यह पठन तो भारस्वरुप ही है। तब वे बोले कि मेरे सामने मुझे पढ़कर सुनाओ। तुम पढ़ने में अधिक शीघ्रता किया करते हो। फिर पूछने पर उन्होंने अध्यात्म विषयक अंश पढ़ने को कहा। देव पोथी लाने गये और जब उन्होंने नेत्र खोले तो उनकी निद्रा भंग हो गई थी। अब पाठक स्वयं ही इस बात का अनुमान कर लें कि देव को इस स्वप्न के पश्चात् कितना आनंद प्राप्त हुआ होगा।

(श्री. देव अभी (सन् 1944) जीवित है और मुझे गत 4-5 वर्षों के पूर्व उनसे भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जहाँ तक मुझे पता चला है, वह यही है कि वे अभी भी ज्ञानेश्वरी का पाठ किया करते है। उनका ज्ञान अगाध और पूर्ण है। यह उनके साई लीला के लेख से स्पष्ट प्रतीत होता है)। (ता. 19.10.1944)

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

गुरुवार, 18 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-40 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 40

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-40

श्री साईबाबा की कथाएँ

1. श्री. बी. व्ही. देव की माता के उद्यापन उत्सव में सम्मिलित होना, और

2. हेमाडपंत के भोजन-समारोह में चित्र के रुप में प्रगट होना।

इस अध्याय में दो कथाओं का वर्णन है

1. बाबा किस प्रकार श्रीमान् देव की माँ के यहाँ उद्यापन में सम्मिलित हुए। और

2. बाबा किस प्रकार होली त्यौहार के भोजन समारोह के अवसर पर बाँद्रा में हेमाडपंत के गृह पधारे।

प्रस्तावना

श्री साई समर्थ धन्य है, जिनका नाम बड़ा सुन्दर है। वे सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों ही विषयों में अपने भक्तों को उपदेश देते है और भक्तों को अपनी जीवनध्येय प्राप्त करने में सहायता प्रदान कर उन्हें सुखी बनाते है। श्री साई अपना वरद हस्त भक्तों के सिर पर रखकर उन्हें अपनी शक्ति प्रदान करते है। वे भेदभाव की भावना को नष्ट कर उन्हें अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति कराते है। भक्त लोग साई के चरणों पर भक्तिपूर्वक गिरते है और श्री साईबाबा भी भेदभावरहित होकर प्रेमपूर्वक भक्तों को हृदय से लगाते है। वे भक्तगण में ऐसे सम्मिलित हो जाते है, जैसे वर्षाऋतु में समुद्र नदियों से मिलता तथा उन्हें अपनी शक्ति और मान देता है। इससे यह सिदृ होता है कि जो भक्तों की लीलाओं का गुणगान करते है, वे ईश्वर को उन लोगों से अपेक्षाकृत अधिक प्रिय है, जो बिना किसी मध्यस्थ के ईश्वर की लीलाओं का वर्णन करते है।

श्रीमती देव का उद्यापन उत्सव

श्री. बी. व्ही. देव डहाणू (जिला ठाणे) में मामलतदार थे। उनकी माता ने लगभग पच्चीस या तीस व्रत लिये थे, इसलिये अब उनका उद्यापन करना आवश्यक था। उद्यापन के साथ-साथ सौ-दो सौ ब्राहम्णों का भोजन भी होने वाला था। श्री देव ने एक तिथि निश्चित कर बापूसाहेब जोग को एक पत्र शिरडी भेजा। उसमें उन्होंने लिखा कि तुम मेरी ओर से श्री साईबाबा को उद्यापन और भोजन में सम्मिलित होने का निमंत्रण दे देना और उनसे प्रार्थना करना कि उनकी अनुपस्थिति में उत्सव अपूर्ण ही रहेगा। मुझे पूर्ण आशा है कि वे अवश्य डहाणू पधार कर दास को कृतार्थ करेंगे। बापूसाहेब जोग ने बाबा को वह पत्र पढ़कर सुनाया। उन्होंने उसे ध्यानपूर्वक सुना और शुदृ हृदय से प्रेषित निमंत्रण जानकर वे कहने लगे कि जो मेरा स्मरण करता है, उसका मुझे सदैव ही ध्यान रहता है। मुझे यात्रा के लिये कोई भी साधन – गाड़ी, ताँगा या विमान की आवश्यकता नहीं है। मुझे तो जो प्रेम से पुकारता है, उसके सम्मुख मैं अविलम्ब ही प्रगट हो जाता हूँ। उसे एक सुखद पत्र भेज दो कि मैं और दो व्यक्तियों के साथ अवश्य आऊँगा। जो कुछ बाबा ने कहा था, जोग ने श्री. देव को पत्र में लिखकर भेज दिया। पत्र पढ़कर देव को बहुत प्रसन्नता हुई, परन्तु उन्हें ज्ञात था कि बाबा केवल राहाता, रुई और नीमगाँव के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं जाते है। फिर उन्हें विचार आया कि उनके लिये क्या असंभव है। उनकी जीवनी अपार चमत्कारों से भरी हुई है। वे तो सर्वव्यापी है। वे किसी भी वेश में अनायास ही प्रगट होकर अपना वचन पूर्ण कर सकते है।

उद्यापन के कुछ दिन पूर्व एक सन्यासी डहाणू स्टेशन पर उतरा, जो बंगाली सन्यासियों के समान वेशभूषा धारण किये हुए था। दूर से देखने में ऐसा प्रतीत होता था कि वह गौरक्षा संस्था का स्वंयसेवक है। वह सीधा स्टेशनमास्टर के पास गया और उनसे चंदे के लिये निवेदन करने लगा। स्टेशनमास्टर ने उसे सलाह दी कि तुम यहाँ के मामलेदार के पास जाओ और उनकी सहायता से ही तुम यथेष्ठ चंदा प्राप्त कर सकोगे। ठीक उसी समय मामलेदार भी वहाँ पहुँच गये। तब स्टेशन मास्टर ने सन्यासी का परिचय उनसे कराया और वे दोनों स्टेशन के प्लेटफाँर्म पर बैठे वार्तालाप करते रहे। मामलेदार ने बताया कि यहाँ के प्रमुख नागरिक श्री. रावसाहेब नरोत्तम सेठी ने धर्मार्थ कार्य के निमित्त चन्दा एकत्र करने की एक नामावली बनाई है। अतः अब एक और दूसरी नामावली बनाना कुछ उचित सा प्रतीत नहीं होता। इसलिये श्रेयस्कर तो यही होगा कि आप दो-चार माह के पश्चात पुनः यहाँ दर्शन दे। यह सुनकर सन्यासी वहाँ से चला गया और एक माह पश्चात श्री. देव के घर के सामने ताँगे से उतरा। तब उसे देखकर देव ने मन ही मन सोचा कि वह चन्दा माँगने ही आया है।

उसने श्री. देव को कार्यव्यस्त देखकर उनसे कहा श्रीमान्। मैं चन्दे के निमित्त नही, वरन् भोजन करने के लिये आया हूँ।

देव ने कहा बहुत आनन्द की बात है, आपका सहर्ष स्वागत है।

सन्यासी – मेरे साथ दो बालक और है।

देव – तो कृपया उन्हें भी साथ ले आइये।

भोजन में अभी दो घण्टे का विलम्ब था। इसलिये देव ने पूछा – यदि आज्ञा हो तो मैं किसी को उनको बुलाने को भेज दूँ।

सन्यासी – आप चिंता न करें, मैं निश्चित समय पर उपस्थित हो जाऊँगा।

देव ने उन्हें दोपहर में पधारने की प्रार्थना की। ठीक 12 बजे दोपहर को तीन मूर्तियाँ वहाँ पहुँची और भोज में सम्मिलित होकर भोजन करके वहाँ से चली गई।

उत्सव समाप्त होने पर देव ने बापूसाहेब जोग को पत्र में उलाहना देते हुए बाबा पर वचन-भंग करने का आरोप लगाया। जोग वह पत्र लेकर बाबा के पास गये, परन्तु पत्र पढ़ने के पूर्व ही बाबा उनसे कहने लगे – अरे। मैंने वहाँ जाने का वचन दिया था तो मैंने उसे धोखा नहीं दिया। उसे सूचित करो कि मैं अन्य दो व्यक्तियों के साथ भोजन में उपस्थित था, परन्तु जब वह मुझे पहचान ही न सका, तब निमंत्रण देने का कष्ट ही क्यों उठाया था। उसे लिखो कि उसने सोचा होगा कि वह सन्यासी चन्दा माँगने आया है। परन्तु क्या मैंने उसका सन्देह दूर नहीं कर दिया था कि दो अन्य व्यक्तियों के साथ मैं भोजन के लिये आऊँगा और क्या वे त्रिमूर्तियाँ ठीक समय पर भोजन में सम्मिलित नहीं हुई देखो। मैं अपना वचन पूर्ण करने के लिये अपना सर्वस्व निछावर कर दूँगा। मेरे शब्द कभी असत्य न निकलेंगें। इस उत्तर से जोग के हृदय में बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने पूर्ण उत्तर लिखकर देव को भेज दिया। जब देव ने उत्तर पढ़ा तो उनकी आँखों से अश्रुधाराएँ प्रवाहित होने लगी। उन्हें अपने आप पर बड़ा क्रोध आ रहा था कि मैंने व्यर्थ ही बाबा पर दोषारोपण किया। वे आश्चर्यचकित से हो गये कि किस तरह मैंने सन्यासी की पूर्व यात्रा से धोखा खाया, जो कि चन्दा माँगने आया था और सन्यासी के शब्दों का अर्थ भी न समझ पाया कि अन्य दो व्यक्तियों के साथ मैं भोजन को आऊँगा।

इस कथा से विदित होता है कि जब भक्त अनन्य भाव से सदगुरु की शरण में आता है, तभी उसे अनुभव होने लगता है कि उसके सब धार्मिक कृत्य उत्तम प्रकार से चलते और निर्विघ्र समाप्त होते रहते है।

हेमाडपन्त का होली त्यौहार पर भोजन-समारोह

अब हम एक दूसरी कथा ले, जिसमें बतलाया गया है कि बाबा ने किस प्रकार चित्र के रुप में प्रगट हो कर अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण की।

सन् 1917 में होली पूर्णिमा के दिन हेमाडपंत को एक स्वप्न हुआ। बाबा उन्हें एक सन्यासी के वेश में दिखे और उन्होंने हेमाडपंत को जगाकर कहा कि मैं आज दोपहर को तुम्हारे यहाँ भोजन करने आऊँगा। जागृत करना भी स्वप्न का एक भाग ही था। परन्तु जब उनकी निद्रा सचमुच में भंग हुई तो उन्हें न तो बाबा और न कोई अन्य सन्यासी ही दिखाई दिया। वे अपनी स्मृति दौड़ाने लगे और अब उन्हें सन्यासी के प्रत्येक शब्द की स्मृति हो आई। यद्यपि वे बाबा के सानिध्य का लाभ गत सात वर्षों से उठा रहे थे तथा उन्हीं का निरन्तर ध्यान किया करते थे, परन्तु यह कभी भी आशा न थी कि बाबा भी कभी उनके घर पधार कर भोजन कर उन्हें कृतार्थ करेंगे। बाबा के शब्दों से अति हर्षित होते हुए वे अपनी पत्नी के समीप गये और कहा कि आज होली का दिन है। एक सन्यासी अतिथि भोजन के लिये अपने यहाँ पधारेंगे। इसलिये भात थोड़ा अधिक बनाना। उनकी पत्नी ने अतिथि के सम्बन्ध में पूछताछ की। प्रत्युत्तर में हेमाडपंत ने बात गुप्त न रखकर स्वप्न का वृतान्त सत्य-सत्य बतला दिया। तब वे सन्देहपूर्वक पूछने लगी कि क्या यह भी कभी संभव है कि वे शिरडी के उत्तम पकवान त्यागकर इतनी दूर बान्द्रा में अपना रुखा-सूका भोजन करने को पधारेंगे। हेमाडपंत ने विश्वास दिलाया कि उनके लिये क्या असंभव है। हो सकता है, वे स्वयं न आयें और कोई अन्य स्वरुप धारण कर पधारे। इस कारण थोड़ा अधिक भात बनाने में हानि ही क्या है। इसके उपरान्त भोजन की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई। दो पंक्तियाँ बनाई गई और बीच मे अतिथि के लिये स्थान छोड़ दिया गया। घर के सभी कुटुम्बी-पुत्र, नाती, लड़कियाँ, दामाद इत्यादि ने अपना-अपना स्थान ग्रहम कर लिया और भोजन परोसना भी प्रारम्भ हो गया। जब भोजन परोसा जा रहा था तो प्रत्येक व्यक्ति उस अज्ञात अतिथि की उत्सुकतापूर्वक राह देख रहा था। जब मध्याहृ भी हो गया और कोई भी न आया, तब द्धार बन्द कर साँकल चढ़ा दी गई। अन्न शुद्धि के लिये घृत वितरण हुआ, जो कि भोजन प्रारम्भ करने का संकेत है। वैश्वदेव (अग्नि) को औपचारिक आहुति देकर श्रीकृष्ण को नैवेध अर्पण किया गया। फिर सभी लोग जैसे ही भोजन प्रारम्भ करने वाले थे कि इतने में सीढ़ी पर किसी के चढ़ने की आहट स्पष्ट आने लगी।


हेमाडपंत ने शीघ्र उठकर साँकल खोली और दो व्यक्तियों

1. अली मुहम्मद और
2. मौलाना इस्मू मुजावर को द्गार पर खड़े हुए पाया।

इन लोगों ने जब देखा कि भोजन परोसा जा चुका है और केवल प्रारम्भ करना ही शेष है तो उन्होंने विनीत भाव में कहा कि आपको बड़ी असुविधा हुई, इसके लिये हम क्षमाप्रार्थी है। आप अपनी थाली छोड़कर दौड़े आये है तथा अन्य लोग भी आपकी प्रतीक्षा में है, इसलिये आप अपनी यह संपदा सँभालिये। इससे सम्बन्धित आश्चर्यजनक घटना किसी अन्य सुविधाजनक अवसर पर सुनायेंगें – ऐसा कहकर उन्होंने पुराने समाचार पत्रों में लिपटा हुआ एक पैकिट निकालकर उसे खोलकर मेज पर रख दिया। कागज के आवरण को ज्यों ही हेमाडपंत ने हटाया तो उन्हें बाबा का एक बड़ा सुन्दर चित्र देखकर महान् आश्चर्य हुआ। बाबा का चित्र देखकर वे द्रवित हो गये। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी और उनके समूचे शरीर में रोमांच हो आया। उनका मस्तक बाबा के श्री चरणों पर झुक गया। वे सोचने लगे कि बाबा ने इस लीला के रुप में ही मुझे आर्शीवाद दिया है। कौतूहलवश उन्होंने अली मुहम्मद से प्रश्न किया कि बाबा का यह मनोहर चित्र आपको कहाँ से प्राप्त हुआ। उन्होंने बताया कि मैंने इसे एक दुकान से खरीदा था। इसका पूर्ण विवरण मैं किसी अन्य समय के लिये शेष रखता हूँ। कृपया आप अब भोजन कीजिए, क्योंकि सभी आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे है। हेमाडपंत ने उन्हें धन्यवाद देकर नमस्कार किया और भोजन गृह में आकर अतिथि के स्थान पर चित्र को मध्य में रखा तथा विधिपूर्वक नैवेध अर्पण किया। सब लोगों ने ठीक समय पर भोजन प्रारम्भ कर दिया। चित्र में बाबा का सुन्दर मनोहर रुप देखकर प्रत्येक व्यक्ति को प्रसन्नता होने लगी और इस घटना पर आश्चर्य भी हुआ कि वह सब कैसे घटित हुआ। इस प्रकार बाबा ने हेमाडपंत को स्वप्न में दिये गये अपने वचनों को पूर्ण किया।

इस चित्र की कथा का पूर्ण विवरण, अर्थात् अली मुहम्मद को चित्र कैसे प्राप्त हुआ और किस कारण से उन्होंने उसे लाकर हेमा़डपंत को भेंट किया, इसका वर्णन अगले अध्याय में किया जायेगा ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

बुधवार, 17 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-39 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 39

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-39

गीता के एक श्लोक की बाबा द्धारा टीका, 
समाधि मन्दिर का निर्माण।

इस अध्याय में बाबा ने गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाया है। कुछ लोगों की ऐसी धारणा थी कि बाबा को संस्कृत भाषा का ज्ञान न था और नानासाहेब की भी उनके प्रति ऐसी ही धारणा थी। इसका खंडन हेमाडपंत ने मूल मराठी ग्रंथ के 50वें अध्याय में किया है। दोनों अध्यायों का विषय एक सा होने के कारण वे यहाँ सम्मिलित रुप में लिखे जाते है।

प्रस्तावना

शिरडी के सौभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है। श्री द्धारिकामाई भी धन्य है, जहाँ श्री साई ने आकर निवास किया और वहीं समाधिस्थ हुए।

शिरडी के नरनारी भी धन्य है, जिन्हें स्वयं साई ने पधारकर अनुगृहीत किया और जिनके प्रेमवश ही वे दूर से चलकर वहाँ आये। शिरडी तो पहले एक छोटा सा ग्राम था, परन्तु श्री साई के सम्पर्क से विशेष महत्त्व पाकर वह एक तीर्थ-क्षेत्र में परिणत हो गया।

शिरडी की नारियां भी परम भाग्यशालिनी है, जिनका उनपर असीम और अभिन्न विश्वास के परे है। आठों पहर-स्नान करते, पीसते, अनाज निकालते, गृहकार्य करते हुये वे उनकी कीर्ति का गुणगान किया करती थी। उनके प्रेम की उपमा ही क्या हो सकती है। वे अत्यन्त मधुर गायन करती थी, जिससे गायकों और श्रोतागण के मन को परम शांति मिलती थी।

बाबा द्धारा टीका

किसी को स्वप्न में भी ज्ञात न था कि बाबा संस्कृत के भी ज्ञाता है। एक दिन नानासाहेब चाँदोरकर को गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाकर उन्होंने लोगों को विस्मय में डाल दिया। इसका संक्षिप्त वर्णन सेवानिवृत्त मामलतदार श्री. बीय व्ही. देव ने मराठी साईलीला पत्रिका के भाग 4, (स्फुट विषय पृष्ठ 563) में छपवाया है। इसका संक्षिप्त विवरण Sai Baba’s Charters and Sayings पुस्तक के 61वें पृष्ठ पर और The Wonderous Saint Sai Baba के पृष्ठ 36 पर भी छपा है। ये दोनों पुस्तकें श्री. बी. व्ही. नरसिंह स्वामी द्धारा रचित है। श्री. बी. व्ही. देव ने अंग्रेजी में तारीख 27-9-1936 को एक वत्तक्व्य दिया है, जो कि नरसिंह स्वामी द्धारा रचित पुस्तक के भक्तों के अनुभव, भाग 3 में छापा गया है। श्री. देव को इस विषय की प्रथम सूचना नानासाहेब चाँदोरकर वेदान्त के विद्धान विथार्थियों में से एक थे। उन्होंने अनेक टीकाओं के साथ गीता का अध्ययन भी किया था तथा उन्हें अपने इस ज्ञान का अहंकार भी था। उनका मत था कि बाबा संस्कृत भाषा से सर्वथा अनभिज्ञ है। इसीलिये बाबा ने उनके इस भ्रम का निवारण करने का विचार किया। यह उस समय की बात है, जब भक्तगण अल्प संख्या में आते थे। बाबा भक्तों से एकान्त में देर तक वार्तालाप किया करते थे। नानासाहेब इस समय बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे और अस्पष्ट शब्दों में कुछ गुनगुना रहे थे।

बाबा – नाना, तुम धीरे-धीरे क्या कह रहे हो।

नाना – मैं गीता के एक श्लोक का पाठ कर रहा हूँ।

बाबा – कौन सा श्लोक है वह।

नाना – यह भगवदगीता का एक श्लोक है।

बाबा – जरा उसे उच्च स्वर में कहो।

तब नाना भगवदगीता के चौथे अध्याय का 34वाँ श्लोक कहने लगे -


“तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः।।“

बाबा – नाना, क्या तुम्हें इसका अर्थ विदित है।

नाना – जी, महाराज।

बाबा – यदि विदित है तो मुझे भी सुनाओ।

नाना – इसका अर्थ है – तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों को भली प्रकार दंडवत् कर, सेवा और निष्कपट भाव से किये गये प्रश्न द्धारा उस ज्ञान को जान। वे ज्ञानी, जिन्हें सद्धस्तु (ब्रहम्) की प्राप्ति हो चुकी है, तुझे ज्ञान का उपदेश देंगें।

बाबा – नाना, मैं इस प्रकार का संकुल भावार्थ नहीं चाहता। मुझे तो प्रत्येक शब्द और उसका भाषांतरित उच्चारण करते हुए व्याकरणसम्मत अर्थ समझाओ।

अब नाना एक-एक शब्द का अर्थ समझाने लगे।

बाबा – नाना, क्या केवल साष्टांग नमस्कार करना ही पर्याप्त है।

नाना – नमस्कार करने के अतिरिक्त मैं प्रणिपात का कोई दूसरा अर्थ नहीं जानता।

बाबा – परिप्रश्न का क्या अर्थ है।

नाना – प्रश्न पूछना ।

बाबा – प्रश्न का क्या अर्थ है।

नाना – वही (प्रश्न पूछना) ।

बाबा – यदि परिप्रश्न और प्रश्न दोनों का अर्थ एक ही है, तो फिर व्यास ने परिउपसर्ग का प्रयोग क्यों किया क्या व्यास की बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी।

नाना – मुझे तो परिप्रश्न का अन्य अर्थ विदित नहीं है।

बाबा – सेवा। किस प्रकार की सेवा से यहाँ आशय है।

नाना – वही जो हम लोग सदा आपकी करते रहते है।

बाबा – क्या यह सेवा पर्याप्त है।

नाना – और इससे अधिक सेवा का कोई विशिष्ट अर्थ मुझे ज्ञात नही है।

बाबा – दूसरी पंक्ति के उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानं में क्या तुम ज्ञान शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग कर इसका अर्थ कह सकते हो।

नाना – जी हाँ ।

बाबा – कौन सा शब्द।

नाना – अज्ञानम् ।

बाबा – ज्ञानं के बजाय उस शब्द को जोड़कर क्या इस श्लोक का अर्थ निकलता है।

नाना - जी नहीं, शंकर भाष्य में इस प्रकार की कोई व्याख्या नहीं है।

बाबा – नहीं है, तो क्या हुआ। यदि अज्ञान शब्द के प्रयोग से कोई उत्तम अर्थ निकल सकता है तो उसमें क्या आपत्ति है।

नाना – मैं नहीं जानता कि उसमें अज्ञान शब्द का किस प्रकार प्रयोग होगा।

बाबा – कृष्ण ने अर्जुन को क्यों ज्ञानियों या तत्वदर्शियों को नमस्कार करने, उनसे प्रश्न पूछने और सेवा करने का उपदेश किया था । क्या स्वयं कृष्ण तत्वदर्शी नहीं थे। वस्तुतः स्वयं ज्ञान स्वरुप।

नाना – जी हाँ, वे ज्ञानावतार थे। परन्तु मुझे यह समझ में नहीं आता कि उन्होंने अर्जुन से अन्य ज्ञानियों के लिये क्यों कहा।

बाबा – क्या तुम्हारी समझ में नहीं आया।

अब नाना हतभ्रत हो गये। उनका घमण्ड चूर हो चुका था। तब बाबा स्वयं इस प्रकार अर्थ समझाने लगे।

1. ज्ञानियों को केवल साष्टांग नमस्कार करना पर्याप्त नहीं है। हमें सदगुरु के प्रति अनन्य भाव से शरणागत होना चाहिये।

2. केवल प्रश्न पूछना पर्याप्त नहीं। किसी कुप्रवृत्ति या पाखंड, या वाक्य-जाल में फँसाने, या कोई त्रुटि निकालने की भावना से प्रेरित होकर प्रश्न नहीं करना चाहिये, वरन् प्रश्न उत्सुतकापूर्वक केवल मोक्ष या आध्यात्मिक पथ पर उन्नति प्राप्त करने की भावना से ही प्रेरित होकर करना चाहिये।

3. मैं तो सेवा करने या अस्वीकार करने में पूर्ण स्वतंत्र हूँ, जो ऐसी भावना से कार्य करता है, वह सेवा नहीं कही जा सकती। उसे अनुभव करना चाहिये कि मुझे अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं है। इस शरीर पर तो गुरु का ही अधिकार है और केवल उनकी सेवा के निमित्त ही वह विद्यमान है।

इस प्रकार आचरण करने से तुम्हें सदगुरु द्धारा ज्ञान की प्राप्ति हो जायेगी, जैसा कि पूर्व श्लोक में बताया गया है।

नाना को यह समझ में नहीं आ सका कि गुरु किस प्रकार अज्ञान की शिक्षा देते है।

बाबा – ज्ञान का उपदेश कैसा है। अर्थात् भविष्य में प्राप्त होने वाली आत्मानुभूति की शिक्षा। अज्ञान का नाश करना ज्ञान है। (गीता के श्लोक 18-66 पर ज्ञानेश्वरी भाष्य की ओवी 1396 में इस प्रकार वर्णन है – हे अर्जुन। यदि तुम्हारी निद्रा और स्वप्न भंग हो, तब तुम स्वयं हो। वह इसी प्रकार है। गीता के अध्याय 5-16 के आगे टीका में लिखा है – क्या ज्ञान में अज्ञान नष्ट करने के अतिरिक्त कोई और भेद भी है )। अंधकार नष्ट करने का अर्थ प्रकाश है। जब हम द्धैत नष्ट करने की चर्चा करते है, तो हम अद्धैत की बात करते है। जब हम अंधकार नष्ट करने की बात करते है तो उसका अर्थ है कि प्रकाश की बात करते है। यदि हम अद्धैत की स्थिति का अनुभव करना चाहते है तो हमें द्धैत की भावना नष्ट करनी चाहिये। यही अद्धैत स्थिति प्राप्त होने का लक्षण है। द्धैत में रहकर अद्धैत की चर्चा कौन कर सकता है। जब तक वैसी स्थिति प्राप्त न हो, तब तक क्या उसका कोई अनुभव कर सकता है।


शिष्य श्री सदगुरु के समान ही ज्ञान की मूर्ति है। उन दोनों में केवल अवस्था, उच्च अनुभूति, अदभुत अलौकिक सत्य, अद्धितीय योग्यता और ऐश्वर्य योग में भिन्नता होती है। सदगुरु निर्गुण निराकार सच्चिदानंद है। वस्तुतः वे केवल मनुष्य जाति और विश्व के कल्याण के निमित्त स्वेच्छापूर्वक मानव शरीर धारण करते है, परन्तु नर-देह धारण करने पर भी उनकी सत्ता की अनंतता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। उनकी आत्मोपलब्धि, लाभ, दैविक शक्ति और ज्ञान एक-से रहते है। शिष्य का भी तो यथार्थ में वही स्वरुप है, परन्तु अनगिनत जन्मों के कारण उसे अज्ञान उत्पन्न हो जाता है और उसी के वशीभूत होकर उसे भ्रम हो जाता है तथा अपने शुदृ चैतन्य स्वरुप की विस्मृति हो जाती है। गीता का अध्याय 5 देखो। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुहृन्ति जन्तवः। जैसा कि वहाँ बतलाया गया है, उसे भ्रम हो जाता है कि मैं जीव हूँ, एक प्राणी हूँ, दुर्बल और अस्सहाय हूँ। गुरु इस अज्ञानरुपी जड़ को काटकर फेंक देता है और इसीलिये उसे उपदेश करना पड़ता है। ऐसे शिष्य को जो जन्म-जन्मांतरों से यह धारणा करता आया है कि मैं तो जीव, दुर्बल और असहाय हूँ, गुरु सैकड़ों जन्मों तक ऐसी शिक्षा देते है कि तुम ही ईश्वर हो, सर्वशक्तिमान् और समर्थ हो, तब कहीं जाकर उसे किंचित मात्र भास होता है कि यथार्थ में मैं ही ईश्वर हूँ। सतत भ्रम में रहने के कारण ही उसे ऐसा भास होता है कि मैं शरीर हूँ, एक जीव हूँ, तथा ईश्वर और यह विश्व मुझ से एक भिन्न वस्तु है। यह तो केवल एक भ्रम मात्र है, जो अनेक जन्म धारण करने के कारण उत्पन्न हो गया है। कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी को सुखःदुख की प्राप्ति होती है। इस भ्रम, इस त्रुटि और इस अज्ञान की जड़ को नष्ट करने के लिये हमें स्वयं अपने से प्रश्न करना चाहिये कि यह अज्ञान कैसे पैदा हो गया। वह अज्ञान कहाँ है और इस त्रुटि का दिग्दर्शन कराने को ही उपदेश कहते है।

अज्ञान के नीचे लिखे उदाहरण है –

1. मैं एक जीव (प्राणी) हूँ।

2. शरीर ही आत्मा है। (मैं शरीर हूँ)

3. ईश्वर, विश्व और जीव भिन्न-भिन्न तत्व है।

4. मैं ईश्वर नहीं हूँ।

5. शरीर आत्मा नहीं है, इसका अबोध।

6. इसका ज्ञान न होना कि ईश्वर, विश्व और जीव सब एक ही है।


जब तक इन त्रुटियों का उसे दिग्दर्शन नहीं कराया जाता, तब तक शिष्य को यह कभी अनुभव नहीं हो सकता कि ईश्वर, जीव और शरीर क्या है, उनमें क्या अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है तथा वे परस्पर भिन्न है या अभिन्न है अथवा एक ही है। इस प्रकार की शिक्षा देना और भ्रम को दूर करना ही अज्ञान का ज्ञानोपदेश कहलाता है। अब प्रश्न यह है कि जीव जो स्वयं ज्ञान-मूर्ति है, उसे ज्ञान की क्या आवश्यकता है। उपदेश का हेतु तो केवल त्रुटि को उसकी दृष्टि में लाकर अज्ञान को नष्ट करना है। बाबा ने आगे कहा –

1. प्रणिपात का अर्थ है शरणागति।

2. शरणागत होना चाहिये तन, मन, धन से (अर्थात् अनन्य भाव से)।

3. कृष्ण अन्य ज्ञानियों की ओर क्यों संकेत करते है। सदभक्त के लिये तो प्रत्येक तत्व वासुदेव है। (भगवदगीता अ. 7-19 अर्थात् कोई भी गुरु अपने भक्त के लिये कृष्ण है) और गुरु शिष्य को वासुदेव मानता है और कृष्ण इन दोनों को अपने प्राण और आत्मा।

(भगवदगीता अ. 7-18 पर ज्ञानदेव की टीका) चूँकि श्रीकृष्ण को विदित था कि ऐसे अनेक भक्त और गुरु विद्यमान है, इसलिये उनका महत्व बढ़ाने के लिये ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से ऐसा उल्लेख किया।

समाधि-मन्दिर का निर्माण

बाबा जो कुछ करना चाहते थे, उसकी चर्चा वे कभी नहीं करते थे, प्रत्युत् आसपास ऐसा वातावरण और परिस्थिति निर्माण कर देते थे कि लोगों को उनका मंथर, परन्तु निश्चित परिणाम देखकर बड़ा अचम्भा होता था। समाधि-मन्दिर इस विषय का उदाहरण है। नागपुर के प्रसिद्ध लक्षाधिपति श्रीमान् बापूसाहेब बूटी सहकुटुम्ब शिरडी में रहते थे। एक बार उन्हें विचार आया कि शिरडी में स्वयं का एक वाड़ा होना चाहिए। कुछ समय के पश्चात जब वे दीक्षित वाड़े में निद्रा ले रहे थे तो उन्हें एक स्वप्न हुआ। बाबा ने स्वप्न में आकर उनसे कहा कि तुम अपना एक वाड़ा और एक मन्दिर बनवाओ। शामा भी वहीं शयन कर रहा था और उसने भी ठीक वैसा ही स्वप्न देखा। बापूसाहेब जब उठे तो उन्होंने शामा को रुदन करते देखकर उससे रोने का कारण पूछा। तब शामा कहने लगा –

अभी-अभी मुझे एक स्वप्न आया था कि बाबा मेरे बिलकुल समीप आये और स्पष्ट शब्दों में कहने लगे कि मन्दिर के साथ वाड़ा बनवाओ। मैं समस्त भक्तों की इच्छाएँ पूर्ण करुँगा। बाबा के मधुर और प्रेमपूर्ण शब्द सुनकर मेरा प्रेम उमड़ पड़ा तथा गला रुँध गया और मेरी आँखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। इसलिये मैं जोर से रोने लगा। बापूसाहेब बूटी को आश्चर्य हुआ कि दोनों के स्वप्न एक से ही है। धनाढ्य तो वे थे ही, उन्होंने वाड़ा निर्माण करने का निश्चय कर लिया और शामा के साथ बैठकर एक नक्शा खींचा। काकासाहेब दीक्षित ने भी उसे स्वीकृत किया और जब नक्शा बाबा के समक्ष प्रस्तुत किया गया तो उन्होंने भी तुरंत स्वीकृति दे दी। तब निर्माण कार्य प्रारम्भ कर दिया गया और शामा की देखरेख में नीचे मंजिल, तहखाना और कुआँ बनकर तैयार हो गया। बाबा भी लेंडी को आते-जाते समय परामर्श दे दिया करते थे। आगे यह कार्य बापूसाहेब जोग को सौंप दिया गया। जब कार्य इसी तरह चल ही रहा था, उसी समय बापूसाहेब जोग को एक विचार आया कि कुछ खुला स्थान भी अवश्य होना चाहिये, बीचोंबीच मुरलीधर की मूर्ति की भी स्थापना की जाय। उन्होंने अपना विचार शामा को प्रकट किया तथा बाबा से अनुमति प्राप्त करने को कहा। जब बाबा वाड़े के पास से जा रहे थे, तभी शामा ने बाबा से प्रश्न कर दिया। शामा का प्रश्न सुनकर बाबा ने स्वीकृति देते हुए कहा कि जब मन्दिर का कार्य पूर्ण हो जायेगा, तब मैं स्वयं वहाँ निवास करुँगा, और वाड़े की ओर दृष्टिपात करते हुए कहा जब वाड़ा सम्पूर्ण बन जायेगा, तब हम सब लोग उसका उपभोग करेंगे। वहीं रहेंगे, घूमेंगे, फिरेंगे और एक दूसरे को हृदय से लगायेंगे तथा आनन्दपूर्वक विचरेंगे। जब शामा ने बाबा से पूछा कि क्या यह मूर्ति के मध्य कक्ष की नींव के कार्य आरम्भ का शुभ मुहूर्त्त है। तब उन्होंने स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया। तभी शामा ने एक नारियल लाकर फोड़ा और कार्य प्रारम्भ कर दिया। ठीक समय में सब कार्य पूर्ण हो गया और मुरलीधर की एक सुन्दर मूर्ति बनवाने का प्रबन्ध किया गया। अभी उसका निर्माण कार्य प्रारम्भ भी न हो पाया था कि एक नवीन घटना घटित हो गई। बाबा की स्थिति चिंताजक हो गई और ऐसा दिखने लगा कि वे अब देह त्याग देंगे। बापूसाहेब बहुत उदास और निराश से हो गये। उन्होंने सोचा कि यदि बाबा चले गये तो बाड़ा उनके पवित्र चरण-स्पर्श से वंचित रह जायेगा और मेरा सब (लगभग एक लाख) रुपया व्यर्थ ही जायेगा, परन्तु अंतिम समय बाबा के श्री मुख से निकले हुए वचनों ने (मुझे बाड़े में ही रखना) केवल बूटीसाहेब को ही सान्त्वना नहीं पहुँचाई, वरन् अन्य लोगों को भी शांति मिली। कुछ समय के पश्चात् बाबा का पवित्र शरीर मुरलीधर की मूर्ति के स्थान पर रख दिया गया। बाबा स्वयं मुरलीधर बन गये और वाड़ा साईबाबा का समाधि मंदिर।

उनकी अगाध लीलाओं की थाह कोई न पा सका। श्री. बापूसाहेब बूटी धन्य है, जिनके वाड़े में बाबा का दिव्य और पवित्र पार्थिव शरीर अब विश्राम कर रहा है।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।