मंगलवार, 16 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-38 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 38

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-38

बाबा की हंड़ी, 
नानासाहेब द्धारा देव-मूर्ति की उपेक्षा, 
नैवेध वितरण, 
छाँछ का प्रसाद।

गत अध्याय में चावड़ी के समारोह का वर्णन किया गया है। अब इस अध्याय में बाबा की हंडी तथा कुछ अन्य विषयों का वर्णन होगा।

प्रस्तावना

हे सदगुरु साई। तुम धन्य हो। हम तुम्हें नमन करते है। तुमने विश्व को सुख पहुँचाया और भक्तों का कल्याण किया। तुम उदार हृदय हो। जो भक्तगण तुम्हारे अभय चरण-कमलों में अपने को समर्पित कर देते है, तुम उनकी सदैव रक्षा एवं उद्धार किया करते हो। भक्तों के कल्याण और परित्राण के निमित्त ही तुम अवतार लेते हो। ब्रहम के साँचे में शुद्ध आत्मारुपी द्रव्य डाला गया और उसमें से ढलकर जो मूर्ति निकली, वही सन्तों के सन्त श्री साईबाबा है। साई स्वयं ही आत्माराम और चिरआनन्द धाम है। इस जीवन के समस्त कार्यों को नश्वर जानकर उन्होंने भक्तों को निष्काम और मुक्त किया।

बाबा की हंड़ी

मानव धर्म-शास्त्र में भिन्न-भिन्न युगों के लिये भिन्न-भिन्न साधनाओं का उल्लेख किया गया है। सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्धापर में यज्ञ और कलियुग में दान का विशेष माहात्म्य है। सर्व प्रकार के दानों में अन्नदान श्रेष्ठ है। जब मध्याहृ के समय हमें भोजन प्राप्त नहीं होता, तब हम विचलित हो जाते है। ऐसी ही स्थिति अन्य प्राणियों की अनुभव कर जो किसी भिक्षुक या भूखे को भोजन देता है, वही श्रेष्ठ दानी है। तैत्तिरीयोपनिषद् में लिखा है कि अन्न ही ब्रहमा है और उसी से सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है तथा उस से ही वे जीवित रहते है और मृत्यु के उपरांत उसी में लय भी हो जाते है। जब कोई अतिथि दोपहर के समय अपने घर आता है तो हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम उसका अभिन्नदन कर उसे भोजन करावे। अन्य दान जैसे-धन, भूमि और वस्त्र इत्यादि देने में तो पात्रता का विचार करना पड़ता है, परन्तु अन्न के लिये विशेष सोच विचार की आवश्यकता नहीं है। दोपहर के समय कोई भी अपने द्धार पर आवे, उसे शीघ्रभोजन कराना हमारा परम कर्त्व्य है। प्रथमतः लूले, लंगड़े, अन्धे या रुग्ण भिखारियों को, फिर उन्हें, जो हाथ पैर से स्वस्थ है और उन सभी के बाद अपने संबन्धियों को भोजन कराना चाहिये। अन्य सभी की अपेक्षा पंगुओं को भोजन कराने का मह्त्व अधिक है। अन्नदान के बिना अन्य सब प्रकार के दान वैसे ही अपूर्ण है, जैसे कि चन्द्रमा बिना तारे, पदक बिना हार, कलश बिना मन्दिर, कमलरहित तालाब, भक्तिरहित भजन, सिन्दूररहित सुहागिन, मधुर स्वरविहीन गायन, नमक बिना पकवान। जिस प्रकार अन्य भोज्य पदार्थों में दाल उत्तम समझी जाती है, उसी प्रकार समस्त दानों में अन्नदान श्रेष्ठ है। अब देखें कि बाबा किस प्रकार भोजन तैयार कराकर उसका वितरण किया करते थे।

हम पहले ही उल्लेख कर चुके है कि बाबा अल्पाहारी थे और वे थोड़ा बहुत जो कुछ भी खाते थे, वह उन्हें केवल दो गृहों से ही भिक्षा में उपलब्ध हो जाया करता था। परन्तु जब उनके मन में सभी भक्तों को भोजन कराने की इच्छा होती तो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक संपूर्ण व्यवस्था वे स्वयं किया करते थे। वे किसी पर निर्भर नहीं रहते थे और न ही किसी को इस संबंध में कष्ट ही दिया करते थे। प्रथमतः वे स्वयं बाजार जाकर सब वस्तुएँ – अनाज, आटा, नमक, मिर्ची, जीरा खोपरा और अन्य मसाले आदि वस्तुएँ नगद दाम देकर खरीद लाया करते थे। यहाँ तक कि पीसने का कार्य भी वे स्वयं ही किया करते थे। मसजिद के आँगन में ही एक भट्टी बनाकर उसमें अग्नि प्रज्वलित करके हंडी के ठीक नाप से पानी भर देते थे। हंडी दो प्रकार की थी – एक छोटी और दूसरी बड़ी। एक में सौ और दूसरी में पाँच सौ व्यक्तियों का भोजन तैयार हो सकता था। कभी वे मीठे चावल बनाते और कभी मांसमिश्रित चावल (पुलाव) बनाते थे। कभी-कभी दाल और मुटकुले भी बना लेते थे। पत्थर की सिल पर महीन मसाला पीस कर हंडी में डाल देते थे। भोजन रुचिकर बने, इसका वे भरसक प्रयत्न किया करते थे। ज्वार के आटे को पानी में उबाल कर उसमें छाँछ मिलाकर अंबिल (आमर्टी) बनाते और भोजन के साथ सब भक्तों को समान मात्रा में बाँट देते थे। भोजन ठीक बन रहा है या नहीं, यह जानने के लिये वे अपनी कफनी की बाँहें ऊपर चढ़ाकर निर्भय हो उतबलती हंडी में हाथ डाल देते और उसे चारों ओर घुमाया करते थे। ऐसा करने पर भी उनके हाथ पर न कोई जलन का चिन्ह और न चेहरे पर ही कोई व्यथा की रेखा प्रतीत हुआ करती थी। जब पूर्ण भोजन तैयार हो जाता, तब वे मसजिद सम बर्तन मँगाकर मौलवी से फातिहा पढ़ने को कहते थे, फिर वे म्हालसापति तथा तात्या पाटील के प्रसाद का भाग पृथक् रखकर शेष भोजन गरीब और अनाथ लोगों को खिलाकर उन्हें तृप्त करते थे। सचमुच वे लोग धन्य थे। कितने भाग्यशाली थे वे, जिन्हें बाबा के हाथ का बना और परोसा हुआ भोजन खाने को प्राप्त हुआ।

यहाँ कोई यह शंका कर सकता है कि क्या वे शाकाहारी और मांसाहारी भोज्य पदार्थों का प्रसाद सभी को बाँटा करते थे। इसका उत्तर बिलकुल सीधा और सरल है। जो लोग मांसाहारी थे, उन्हें हण्डी में से दिया जाता था तथा शाकाहारियों को उसका स्पर्श तक न होने देते थे। न कभी उन्होंने किसी को मांसाहार का प्रोत्साहन ही दिया और न ही उनकी आंतरिक इच्छा थी कि किसी को इसके सेवन की आदत लग जाये। यह एक अति पुरातन अनुभूत नियम है कि जब गुरुदेव प्रसाद वितरण कर रहे हो, तभी यदि शिष्य उसके ग्रहण करने में शंकित हो जाय तो उसका अधःपतन हो जाता है। यह अनुभव करने के लिये कि शिष्य गण इस नियम का किस अंश तक पालन करते है, वे कभी-कभी परीक्षा भी ले लिया करते थे। उदाहरँणार्थ एक एकादशी के दिन उन्होंने दादा केलकर को कुछ रुपये देकर कुछ मांस खरीद लाने को कहा। दादा केलकर पूरे कर्मकांडी थे और प्रायः सभी नियमों का जीवन में पालन किया करते थे। उनकी यह दृढ़ भावना थी कि द्रव्य, अन्न और वस्त्र इत्यादि गुरु को भेंट करना पर्याप्त नहीं है। केवल उनकी आज्ञा ही शीघ्र कार्यान्वित करने से वे प्रसन्न हो जाते है। यही उनकी दक्षिणा है। दादा शीघ्र कपडे पहिन कर एक थैला लेकर बाजार जाने के लिये उघत हो गये। तब बाबा ने उन्हें लौटा लिया और कहा कि तुम न जाओ, अन्य किसी को भेज दो। दादा ने अपने नौकर पाण्डू को इस कार्य के निमित्त भेजा। उसको जाते देखकर बाबा ने उसे भी वापस बुलाने को कहकर यह कार्यक्रम स्थगित कर दिया।

ऐसे ही एक अन्य अवसर पर उन्होंने दादा से कहा कि देखो तो नमकीन पुलाव कैसा पका है। दादा ने यों ही मुंह देखी कह दिया कि अच्छा है। तब वे कहने लगे कि तुमने न अपनी आँखों से ही देखा है और न जिहा से स्वाद लिया, फिर तुमने यह कैसे कह दिया कि उत्तम बना है। थोड़ा ढक्कन हटाकर तो देखो। बाबा ने दादा की बाँह पकड़ी और बलपूर्वक बर्तन में डालकर बोले – थोड़ासा इसमें से निकालो और अपना कट्टरपन छोड़कर चख कर देखो। जब माँ का सच्चा प्रेम बच्चे पर उमड़ आता है, तब माँ उसे चिमटी भरती है, परन्तु उसका चिल्लाना या रोना देखकर वह उसे अपने हृदय से लगाती है। इसी प्रकार बाबा ने सात्विक मातृप्रेम के वश हो दादा का इस प्रकार हाथ पकड़ा। यथार्थ में कोई भी सन्त या गुरु कभी भी अपने कर्मकांडी शिष्य को वर्जित भोज्य के लिये आग्रह करके अपनी अपकीर्ति कराना पसन्द न करेगा।


इस प्रकार यह हंडी का कार्यक्रम सन् 1910 तक चला और फिर स्थगित हो गया। जैसा पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, दासगणू ने अपने कीर्तन द्धारा समस्त बम्बई प्रांत में बाबा की अधिक कीर्ति फैलाई। फलतः इस प्रान्त से लोगों के झुंड के झुंड शिरडी को आने लगे और थोड़े ही दिनों में शिरडी पवित्र तीर्थ-क्षेत्र बन गया। भक्तगण बाबा को नैवेध अर्पित करने के लिये नाना प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थ लाते थे, जो इतनी अधिक मात्रा में एकत्र हो जाता था कि फकीरों और भिखारियों को सन्तोषपूर्वक भोजन कराने पर भी बच जाता था। नैवेध वितरण करने की विधि का वर्णन करने से पूर्व हम नानासाहेब चाँदोरकर की उस कथा का वर्णन करेंगे, जो स्थानीय देवी-देवताओं और मूर्तियों के प्रति बाबा की सम्मान-भावना की धोतक है।

नानासाहेब द्धारा देव-मूर्ति की उपेक्षा

कुछ व्यक्ति अपनी कल्पना के अनुसार बाबा को ब्राहमण तथा कुछ उन्हें यवन समझा करते थे, परन्तु वास्तव में उनकी कोई जाति न थी। उनकी और ईश्वर की केवल एक जाति थी। कोई भी निश्चयपूर्वक यह नहीं जानता कि वे किस कुल में जन्में और उनके मातापिता कौन थे। फिर उन्हें हिन्दू या यवन कैसे घोषित किया जा सकता है। यदि वे यवन होते तो मसजिद में सदैव धूनी और तुलसी वृन्दावन ही क्यों लागते और शंख, घण्टे तथा अन्य संगीत वाध क्यों बजने देते। हिन्दुओं की विविध प्रकार की पूजाओं को क्यों स्वीकार करते। यदि सचमुच यवन होते तो उनके कान क्यों छिदे होते तथा वे हिन्दू मन्दिरों का स्वयं जीर्णोद्धार क्यों करवाते। उन्होंने हिन्दुओं की मूर्तियों तथा देवी-देवताओ की जरा सी उपेक्षा भी कभी सहन नहीं की।

एक बार नानासाहेब चाँदोरकर अपने साढू (साली के पति) श्री बिनीवले के साथ शिरडी आये। जब वे मसजिद में पहुँचे, बाबा वार्तालाप करते हुए अनायास ही क्रोधित होकर कहने लगे कि तुम दीर्घकाल से मेरे सान्ध्य में हो, फिर भी ऐसा आचरण क्यों करते हो। नानासाहेब प्रथमतः इन शब्दों का कुछ भी अर्थ न समझ सके। अतः उन्होंने अपना अपराध समझाने की प्रार्थना की। प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा कि तुम कब कोपरगाँव आये और फिर वहाँ से कैसे शिरडी आ पहुँचे। तब नानासाहेब को अपनी भूल तुरन्त ही ज्ञात हो गयी। उनका यह नियम था कि शिरडी आने से पूर्व वे कोपरगाँव में गोदावरी के तट पर स्थित श्री दत्त का पूजन किया करते थे। परन्तु रिश्तेदार के दत-उपासक होने पर भी इस बार विलम्ब होने के भय से उन्होंने उनको भी दत्त मंदिर में जाने से हतोत्साहित किया और वे दोनों सीधे शिरडी चले आये थे। अपना दोष स्वीकार कर उन्होंने कहा कि गोदावरी स्नान करते समय पैर में एक बड़ा काँटा चुभ जाने के कारण अधिक कष्ट हो गया था। बाबा ने कहा कि यह तो बहुत छोटा सा दंड था और उन्हें भविष्य में ऐसे आचरण के लिये सदैव सावधान रहने की चेतावनी दी।

नैवेध -वितरण

अब हम नैवेघ-वितरण का वर्णन करेंगे। आरती समाप्त होने पर बाबा से आर्शीवाद तथा उदी प्राप्त कर जब भक्तगण अपने-अपने घर चले जाते, तब बाबा परदे के पीछे प्रवेश कर निम्बर के सहारे पीठ टेककर भोजन के लिये आसन ग्रहण करते थे। भक्तों की दो पंक्तियाँ उनके समीप बैठा करती थी। भक्तगण नाना प्रकार के नैवेध, पीरी, माण्डे, पेड़ा बर्फी, बांसुदीउपमा (सांजा) अम्बे मोहर (भात) इत्यादि थाली में सजा-सजाकर लाते और जब तक वे नैवेध स्वीकार न कर लेते, तब तक भक्तगण बाहर ही प्रतीक्षा किया करते थे। समस्त नैवेध एकत्रित कर दिया जाता, तब वे स्वयं ही भगवान को नैवेध अर्पण कर स्वयं ग्रहण करते थे। उसमें से कुछ भाग बाहर प्रतीक्षा करने वालों को देकर शेष भीतर बैठे हुए भक्त पा लिया करते थे। जब बाबा सबके मध्य में आ विराजते, तब दोनों पंक्तियों में बैठे हुए भक्त तृप्त होकर भोजन किया करते थे। बाबा प्रायः शामा और निमोणकर से भक्तों को अच्छी तरह भोजन कराने और प्रत्येक की आवश्यकता का सावधानीपूर्वक ध्यान रखने को कहते थे। वे दोनों भी इस कार्य को बड़ी लगन और हर्ष से करते थे। इस प्रकार प्राप्त प्रत्येक ग्रास भक्तों को पोषक और सन्तोषदायक होता था। कितना मधुर, पवित्र, प्रेमरसपूर्ण भोजन था। वह सदा मांगलिक और पवित्र।

छाँछ (मठ्ठा) का प्रसाद

इस सत्संग में बैठकर एक दिन जब हेमाडपंत पूर्णतः भोजन कर चुके, तब बाबा ने उन्हें एक प्याला छाँछ पीने को दिया। उसके श्वेत रंग से वे प्रसन्न तो हुए, परन्तु उदर में जरा भी गुंजाइश न होने के कारण उन्होंने केवल एक घूँट ही पिया। उनका यह उपेक्षात्मक व्यवहार देखकर बाबा ने कहा कि सब पी जाओ। ऐसा सुअवसर अब कभी न पाओगे। तब उन्होंने पूरी छाँछ पी ली, किन्तु उन्हे बाबा के सांकेतिक वचनों का मर्म शीघ्र ही विदित हो गया, क्योंकि इस घटना के थोड़े दिनों के पश्चात् ही बाबा समाधिस्थ हो गये।

पाठकों। अब हमें अवश्य ही हेमाडपंत के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये, क्योंकि उन्होंने तो छाँछ का प्याला पिया, परन्तु वे हमारे लिये यथेष्ठ मात्रा में श्री साई-लीला रुपी अमृत दे गये। आओ, हम उस अमृत के प्याले पर प्याले पीकर संतुष्ट और सुखी हो जाये।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

रविवार, 14 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-37 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 37

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-37

चावड़ी का समारोह

इस अध्याय में हम कुछ थोड़ी सी वेदान्तिक विषयों पर प्रारम्भिक दृष्टि से समालोचना कर चावड़ी के भव्य समारोह का वर्णन करेंगे।

प्रारम्भ

धन्य है श्रीसाई, जिनका जैसा जीवन था, वैसी ही अवर्णनीय गति और क्रियाओं से पूर्ण नित्य के कार्यक्रम भी। कभी तो वे समस्त सांसारिक कार्यों से अलिप्त रहकर कर्मकाण्डी से प्रतीत होते और कभी ब्रहमानंद और कभी आत्मज्ञान में निमग्न रहा करते थे। कभी वे अनेक कार्य करते हुए भी उनसे असंबन्ध रहते थे। यद्यपि कभी-कभी वे पूर्ण निष्क्रिय प्रतीत होते, तथापि वे आलसी नहीं थे। प्रशान्त महासागर की नाईं सदैव जागरुक रहकर भी वे गंभीर, प्रशान्त और स्थिर दिखाई देते थे। उनकी प्रकृति का वर्णन तो सामर्थ्य से परे है।

यह तो सर्व विदित है कि वे बालब्रहमचारी थे। वे सदैव पुरुषों को भ्राता तथा स्त्रियों को माता या बहिन सदृश ही समझा करते थे। उनकी संगति द्धारा हमें जिस अनुपम त्रान की उपलब्धि हुई है, उसकी विस्मृति मृत्युपर्यन्त न होने पाये, ऐसी उनके श्रीचरणों में हमारी विनम्र प्रार्थना है। हम समस्त भूतों में ईश्वर का ही दर्शन करें और नाम स्मरण की रसानुभूति करते हुए हम उनके मोहविनाशक चरणों की अनन्य भाव से सेवा करते रहे, यही हमारी आकांक्षा है।

हेमाडपंत ने अपने दृष्टिकोण द्धारा आवश्यकतानुसार वेदान्त का विवरण देकर चावड़ी के समारोह का वर्णन निम्न प्रकार किया है -

चावड़ी का समारोह

बाबा के शयनागार का वर्णन पहले ही हो चुका है। वे एक दिन मसजिद में और दूसरे दिन चावड़ी में विश्राम किया करते थे और यह कार्यक्रम उनकी महासमाधि पर्यन्त चालू रहा। भक्तों ने चावड़ी में नियमित रुप से उनका पूजन-अर्चन 10 दिसम्बर, सन् 1909 से आरम्भ कर दिया था।

अब उनके चरणाम्बुजों का ध्यान कर, हम चावड़ी के समारोह का वर्णन करेंगे। इतना मनमोहक दृश्य था वह कि देखने वाले ठिठक-ठिठक कर रह जाते थे और अपनी सुध-बुध भूल यही आकांक्षा करते रहते थे कि यह दृश्य कभी हमारी आँखों से ओझल न हो। जब चावड़ी में विश्राम करने की उनकी नियमित रात्रि आती तो उस रात्रि को भक्तों का अपार जन-समुदाय मसजिद के सभा मंडप में एकत्रित होकर घण्टों तक भजन किया करता था। उस मंडप के एक ओर सुसज्जित रथ रखा रहता था और दूसरी ओर तुलसी वृन्दावन था। सारे रसिक जन सभा-मंडप मे ताल, चिपलिस, करताल, मृदंग, खंजरी और ढोल आदि नाना प्रकार के वाद्य लेकर भजन करना आरम्भ कर देते थे। इन सभी भजनानंदी भक्तों को चुम्बक की नाई आकर्षित करने वाले तो श्री साईबाबा ही थे।

मसजिद के आँगन को देखो तो भक्त-गण बड़ी उमंगों से नाना प्रकार के मंगल-कार्य सम्पन्न करने में संलग्न थे। कोई तोरण बाँधकर दीपक जला रहे थे, तो कोई पालकी और रथ का श्रृंगार कर निशानादि हाथों में लिये हुए थे। कही-कही श्री साईबाबा की जयजयकार से आकाशमंडल गुंजित हो रहा था। दीपों के प्रकाश से जगमगाती मसजिद ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो आज मंगलदायिनी दीपावली स्वयं शिरडी में आकर विराजित हो गई हो। मसजिद के बाहर दृष्टिपात किया तो द्धार पर श्री साईबाबा का पूर्ण सुसज्जित घोड़ा श्यामसुंदर खड़ा था। श्री साईबाबा अपनी गादी पर शान्त मुद्रा में विराजित थे कि इसी बीच भक्त-मंडलीसहित तात्या पटील ने आकर उन्हें तैयार होने की सूचना देते हुए उठने में सहायता की। घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण तात्या पाटील उन्हें मामा कहकर संबोधित किया करते थे। बाबा सदैव की भाँति अपनी वही कफनी पहिन कर बगल में सटका दबाकर चिलम और तम्बाखू संग लेकर धन्धे पर एक कपड़ा डालकर चलने को तैयार हो गये। तभी तात्या पाटील ने उनके शीश पर एक सुनहरा जरी का शेला डाल दिया। इसके पश्चात् स्वयं बाबा ने धूनी को प्रज्वलित रखने के लिये उसमें कुछ लकड़ियाँ डालकर तथा धूनी के समीप के दीपक को बाँयें हाथ से बुझाकर चावड़ी को प्रस्थान कर दिया। अब नाना प्रकार के वाघ बजने आरम्भ हो गये और उनसे भाँति-भाँति के स्वर निकलने लगे। सामने रंग-बिरंगी आतिशबाजी चलने लगी और नर-नारी भाँति-भाँति के वाघ बजाकर उनकी कीर्ति के भजन गाते हुए आगे-आगे चलने लगे। कोई आनंद-विभोर हो नृत्य करने लगा तो कोई अनेक प्रकार के ध्वज और निशान लेकर चलने लगे। जैसे ही बाबा ने मसजिद की सीढ़ी पर अपने चरण रखे, वैसे ही भालदार ने ललकार कर उनके प्रस्थान की सूचना दी। दोनों ओर से लोग चँवर लेकर खड़े हो गये और उन पर पंखा झलने लगे। फिर पथ पर दूर तक बिछे हुए कपड़ो के ऊपर से समारोह आगे बढ़ने लगा। तात्या पाटील उनका बायाँ तथा म्हालसापति दायाँ हाथ पकड़ कर तथा बापूसाहेब जोग उनके पीछे छत्र लेकर चलने लगे। इनके आगे-आगे पूर्ण सुसज्जित अश्व श्यामसुंदर चल रहा था और उनके पीछे भजन मंडली तथा भक्तों का समूह वाघों की ध्वनि के संग हरि और साई नाम की ध्वनि, जिससे आकाश गूँज उठता था, उच्चारित करते हुए चल रहा था। अब समारोह चावड़ी के कोने पर पहुँचा और सारा जनसमुदाय अत्यन्त आनंदित तथा प्रफुल्लित दिखलाई पड़ने लगा। जब कोने पर पहुँचकर बाबा चावड़ी के सामने खड़े हो गये, उस समय उनके मुख-मंडल की दिव्यप्रभा बड़ी अनोखी प्रतीत होने लगी और ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो अरुणोदय के समय बाल रवि क्षितिज पर उदित हो रहा हो। उत्तराभिमुख होकर वे एक ऐसी मुद्रा में खड़े गये, जैसे कोई किसी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा हो। वाघ पूर्ववत ही बजते रहे और वे अपना दाहिना हाथ थोड़ी देर ऊपर-नीचे उठाते रहे। वादक बड़े जोरों से वाघ बजाने लगे और इसी समय काकासाहेब दीक्षित गुलाल और फूल चाँदी की थाली में लेकर सामने आये और बाबा के ऊपर पुष्प तथा गुलाल की वर्षा करने लगे। बाबा के मुखमंडल पर रक्तिम आभा जगमगाने लगी और सब लोग तृप्त-हृदय हो कर उस रस-माधुरी का आस्वादन करने लगे। इस मनमोहक दृश्य और अवसर का वर्णन शब्दों में करने में लेखनी असमर्थ है। भाव-विभोर होकर भक्त म्हालसापति तो मधुर नृत्य करने लगे, परन्तु बाबा की अभंग एकाग्रता देखकर सब भक्तों को महान् आश्चर्य होने लगा। एक हाथ में लालटेन लिये तात्या पाटील बाबा के बाँई ओर और आभूषण लिये म्हालसापति दाहिनी ओर चले। देखो तो, कैसे सुन्दर समारोह की शोभा तथा भक्ति का दर्शन हो रहा है। इस दृश्य की झाँकी पाने के लिये ही सहस्त्रों नर-नारी, क्या अमीर और क्या फकी, सभी वहाँ एकत्रित थे। अब बाबा मंद-मंद गति से आगे बढ़ने लगे और उनके दोनों ओर भक्तगम भक्तिभाव सहित, संग-संग चले लगे और चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण दिखाई पड़ने लगा। सम्पूर्ण वायुमंडल भी खुशी से झूम उठा और इस प्रकार समारोह चावड़ी पहुँचा। अब वैसा दृश्य भविष्य में कोई न देख सकेगा । अब तो केवल उसकी याद करके आँखों के सम्मुख उस मनोरम अतीत की कल्पना से ही अपने हृदय की प्यास शान्त करनी पड़ेगी।

चावड़ी की सजावट भी अति भी अति उत्तम प्रकार से की गई थी। उत्तम बढ़िया चाँदनी, शीशे और भाँति-भाँति के हाँड़ी-लालटेन (गैस बत्ती) लगे हुए थे। चावड़ी पहुँचने पर तात्या पाटील आगे बढ़े और आसन बिछाकर तकिये के सहारे उन्होंने बाबा को बैठाया। फिर उनको एक बढ़िया अँगरखा पहिनाया और भक्तों ने नाना प्रकार से उनकी पूजा की, उन्हें स्वर्ण-मुकुट धारण कराया, तथा फूलों और जवाहरों की मालाएँ उनके गले में पहिनाई। फिर ललाट पर कस्तूरी का वैष्णवी तिलक तथा मध्य में बिन्दी लगाकर दीर्घ काल तक उनकी ओर अपलक निहारते रहे। उनके सिर का कपड़ा बदल दिया गया और उसे ऊपर ही उठाये रहे, क्योंकि सभी शंकित थे कि कहीं वे उसे फेक न दे, परन्तु बाबा तो अन्तर्यामी थे और उन्होंने भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही पूजन करने दिया। इन आभूषणों से सुसज्जित होने के उपरान्त तो उनकी शोभा अवर्णनीय थी।

नानासाहेब निमोणकर ने वृत्ताकार एक सुन्दर छत्र लगाया, जिसके केंद्र में एक छड़ी लगी हुई थी। बापूसाहेब जोग ने चाँदी की एक सुन्दर थाली में पादप्रक्षालन किया और अघ्र्य देने के पश्चात् उत्तम विधि से उनका पूजन-अर्चन किया और उनके हाथों में चन्दन लगाकर पान का बीड़ा दिया। उन्हें आसन पर बिठलाया गया। फिर तात्या पाटील तथा अन्य सब भक्त-गण उनके श्री-चरणों पर अपने-अपने शीश झुकाकर प्रणाम करने लगे। जब वे तकिये के सहारे बैठ गये, तब भक्तगण दोनों ओर से चँवर और पंखे झलने लगे। शामा ने चिलम तैयार कर तात्या पाटील को दी। उन्होंने एक फूँक लगाकर चिलम प्रज्वलित की और उसे बाबा को पीने को दिया। उनके चिलम पी लेने के पश्चात फिर वह भगत म्हालसापति को तथा बाद में सब भक्तों को दी गई। धन्य है वह निर्जीव चिलम। कितना महान् तप है उसका, जिसने कुम्हार द्धारा पहिले चक्र पर घुमाने, धूप में सुखाने, फिर अग्नि में तपाने जैसे अनेक संस्कार पाये। तब कहीं उसे बाबा के कर-स्पर्श तथा चुम्बन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। जब यह सब कार्य समाप्त हो गया, तब भक्तगण ने बाबा को फूलमालाओं से लाद दिया और सुगन्धित फूलों के गुलदस्ते उन्हें भेंट किये। बाबा तो वैराग्य के पूर्ण अतार थे और वे उन हीरे-जवाहरात व फूलों के हारों तथा इस प्रकार की सजधज में कब अभिरुचि लेने वाले थे। परन्तु भक्तों के सच्चे प्रेमवश ही, उनके इच्छानुसार पूजन करने में उन्होंने कोई आपत्ति न की। अन्त में मांगलिक स्वर में वाघ बजने लगे और बापूसाहेब जोग ने बाबा की यथाविधि आरती की। आरती समाप्त होने पर भक्तों ने बाबा को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा लेकर सब एक-एक करके अपने घर लौटने लगे। तब तात्या पाटील ने उन्हें चिनम पिलाकर गुलाब जल, इत्र इत्यादि लगाया और विदा लेते समय एक गुलाब का पुष्प दिया। तभी बाबा प्रेमपूर्वक कहने लगे के तात्या, मेरी देखभाल भली भाँति करन। तुम्हें घर जाना है तो जाओ, परन्तु रात्रि में कभी-कभी आकर मुझे देख भी जाना। तब स्वीकारात्मक उत्तर देकर तात्या पाटील चावड़ी से अपने घर चले गये। फिर बाबा ने बहुत सी चादरें बिछाकर स्वयं अपना बिस्तर लगाकर विश्राम किया।

अब हम भी विश्राम करें और इस अध्याय को समाप्त करते हुये हम पाठकों से प्रार्थना करते है कि वे प्रतिदिन शयन के पूर्व श्री साईबाबा और चावड़ी समारोह का ध्यान अवश्य कर लिया करें।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

शनिवार, 13 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-36 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 36

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-36
आश्चर्यजनक कथायें,
गोवा के दो सज्जन और श्रीमती औरंगाबादकर।

इस अध्याय में गोवा के दो महानुभावों और श्रीमती औरंगाबादकर की अदभुत कथाओं का वर्णन है।

गोवा के दो महानुभाव

एक समय गोवा से दो महानुभाव श्री साईबाबा के दर्शनार्थ शिरडी आये। उन्होंने आकर उन्हें नमस्कार किया। यद्यपि वे दोनों एक साथ ही आये थे, फिर भी बाबा ने केवल एक ही व्यक्ति से पन्द्रह रुपये दक्षिणा माँगी, जो उन्हें आदर सहित दे दी गई। दूसरा व्यक्ति भी उन्हें सहर्ष 35 रुपये दक्षिणा देने लगा तो उन्होंने उसकी दक्षिणा लेना अस्वीकार कर दिया। लोगों को बड़ा आर्श्चय हुआ। उस समय शामा भी वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने कहा कि देवा... यह क्या, ये दोनों एक साथ ही तो आये है। इनमें से एक की दक्षिणा तो आप स्वीकार करते है और दूसरा जो अपनी इच्छा से भेंट दे रहा है, उसे अस्वीकृत कर रहे है। यह भेद क्यों। तब बाबा ने उत्तर दिया कि शामा। तुम नादान हो। मैं किसी से कभी कुछ नहीं लेता। यह तो मसजिद माई ही अपना ऋण माँगती है और इसलिये देने वाला अपना ऋण चुकता कर मुक्त हो जाता है। क्या मेरे कोई घर, सम्पत्ति या बाल-बच्चे है, जिनके लिये मुझे चिन्ता हो। मुझे तो किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। मैं तो सदा स्वतंत्र हूँ। ऋण, शत्रुता तथा हत्या इन सबका प्रायश्चित अवश्य करना पड़ता है और इनसे किसी प्रकार भी चुटकारा संभव नहीं है। तब बाबा अपने विशेष ठंग से इस प्रकार कहने लगे।


अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में ये महाशय निर्धन थे। इन्होंने ईश्वर से प्रतिज्ञा की थी कि यदि मुझे नौकरी मिल गई तो मैं एक माह का वेतन तुम्हें अर्पण करुँगा। इन्हें 15 रुपये माहवार की एक नौकरी मिल गई। फिर उत्तरोत्तर उन्नति होते होते 30, 60, 100, 200 और अन्त में 700 रुपये तक मासिक वेतन हो गया। परन्तु समृद्धि पाकर ये अपना वचन भूल गये और उसे पूरा न कर सके। अब अपने शुभ कर्मों के ही प्रभाव से इन्हें यहाँ तक पहुँचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। अतः मैंने इनसे केवल पन्द्रह रुपये ही दक्षिणा माँगी, जो इनके पहले माह की पगार थी।

दूसरी कथा


समुद्र के किनारे घूमते-घूमते मैं एक भव्य महल के पास पहुँचा और उसकी दालान में विश्राम करने लगा। उस महल के ब्राहमण स्वामी ने मेरा यथोचित स्वागर कर मुझे बढ़िया स्वादिष्ट पदार्थ खाने को दिये। भोजन के उपरान्त उसने मुझे आलमारी के समीप एक स्वच्छ स्थान शयन के लिये बतला दिया और मैं वहीं सो गया। जब मैं प्रगाढ़ निद्रा में था तो उस व्यक्ति ने पत्थर खिसकाकर दीवाल में सेंध डाली और उसके द्धारा भीतर घुसकर उसने मेरी खीसा कतर लिया। निद्रा से उठने पर मैंने देखा कि मेरे तीस हजार रुपये चुरा लिये है। मैं बड़ी विपत्ति में पड़ गया और दुःखित होकर रोता बैठ गया। केवल नोट ही नोट चुरा लिये थे, इसलिये मैंने सोचा कि यह कार्य उस ब्राहमण के अतिरिक्त और किसी का नहीं है। मुझे खाना-पीना कुछ भी अच्छा न लगा और मैं एक पखवाड़े तक दालान में ही बैठे बैठे चोरी का दुःख मनाता रहा। इस प्रकार पन्द्रह दिन व्यतीत होने पर रास्ते से जाने वाले एक फकीर ने मुझे दुःख से बिलकते देखकर मेरे रोने का कारण पूछा। तब मैंने सब हाल उससे कह सुनाया। उसने मुझसे कहा कि यदि तुम मेरे आदेशानुसार आचरण करोगे तो तुम्हारा चुराया धन वापस मिल जायेगा मैं एक फकीर का पता तुम्हें बताता हूँ। तुम उसकी शरण में जाओ और उसकी कृपा से तुम्हें तुम्हारा धन पुनः मिल जायेगा। परन्तु जब तक तुम्हें अपना धन वापस नहीं मिलता, उस समय तक तुम अपना प्रिय भोजन त्याग दो। मैंने उस फकीर का कहना मान लिया और मेरा चुराया धन मिल गया। तब मैं समुद्र तट पर आया, जहाँ एक जहाज खड़ा था, जो यात्रियों से ठसाठस भर चुक था। भाग्यवश वहाँ एक उदार प्रकृति वाले चपरासी की सहायता से मुझे एक स्थान मिल गया। इस प्रकार मैं दूसरे किनारे पर पहुँचा और वहाँ से मैं रेलगाड़ी में बैठकर मसजिद माई आ पहुँचा।

कथा समाप्त होते ही बाबा ने शामा से इन अतिथियों को अपने साथ ले जाने और भोजन का प्रबन्ध करने को कहा। तब शामा उन्हें अपने घर लिवा ले गया और उन्हें भोजन कराया। भोजन करते समय शामा ने उनसे कहा कि बाबा की कहानी बड़ी ही रहस्यपूर्ण है, क्योंकि न तो वे कभी समद्र की ओर गये है और न उनके पास तीस हजार रुपये ही थे। उन्होंने न कहीं भी यात्रा ही की, न उनकी कोई रकम ही चुरायी गई और न वापस आई। फिर शामा ने उन लोगों से पूछा कि आप लोगों को कुछ समझ में आया कि इसका अर्थ क्या था। दोनों अतिथियों की घिग्घियाँ बँध गई और उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। उन्होंने रोते-रोते कहा कि बाबा तो सर्वव्यापी, अनन्त और परब्रहमा स्वरुप है। जो कथा उन्होंने कही है, वह बिलकुल हमारी ही कहानी है और वह मेरे ऊपर बीत चुकी है। यह महान् आश्र्य है कि उन्हें यह सब कैसे ज्ञात हो गया। भोजन के उपरान्त हम इसका पूर्ण विवरण आपको सुनायेंगे।

भोजन के पश्चात् पान खाते हुये उन्होंने अपनी कथा सुनाना प्रारम्भ कर दिया। उनमें से एक कहने लगा –

घाट में एक पहाड़ी स्थान पर हमारा निवास-स्थान है। मैं अपने जीवन-निर्वाह के लिये नौकरी ढूँढने गोवा आया था। तब मैंने भगवान दत्तात्रेय को वचन दिया था कि यदि मुझे नौकरी मिल गई तो मैं तुम्हें एक माह की पगार भेंट चढ़ाऊँगा। उनकी कृपा से मुझे 15 रुपये मासिक की नौकरी मिल गई और जैसा कि बाबा ने कहा, उसी प्रकार मेरी उन्नति हुई। मैं अपना वचन बिलकुल भूल गया था। बाबा ने उसकी स्मृति दिलायी और मुझसे 15 रुपये वसूल कर लिये। आप लोग इसे दक्षिणा न समझे। यह तो एक पुराने ऋण का भुगतान है तथा दीर्घकाल से भूली हुई प्रतिज्ञा आज पूर्ण हुई है।

शिक्षा


यथार्थ में बाबा ने कभी किसी से पैसा नहीं माँगा और न ही अपने भक्तों को ही माँगने दिया। वे आध्यात्मिक उन्नति में कांचन को बाधक समझते थे और भक्तों को उसके पाश से सदैव बचाते रहते थे। भगत म्हालसापति इसके उदाहरणस्वरुप है। वे बहुत निर्धन थे और बड़ी कठिनाई से ही अपनी जीवन बिताते थे। बाबा उन्हें कभी पैसा माँगने नहीं देते थे और न ही वे अपने पास की दक्षिणा में से उन्हें कुछ देते थे। एक बार एक दयालु और सहृदय व्यापारी हंसराज ने बाबा की उपस्थिति में ही एक बड़ी रकम म्हालसापति को दी, परन्तु बाबा ने उनसे उसे अस्वीकार करने को कह दिया।


अब दूसरा अतिथि अपनी कहानी सुनाने लगा। मेरे पास एक ब्राहमण रसोइया था, जो गत 35 वर्षों से ईमानदारी से मेरे पास काम करता आया था। बुरी लतों में पड़कर उसका मन पलट गया और उसने मेरे सब रुपये चोरी कर लिये। मेरी आलमारी दीवाल में लगी थी और जिस समय हम लोग गहरी नींद में थे, उसने पीछे से पत्थर हटाकर मेरे सब तीस हजार रुपयों के नोट चुरा लिये। मैं नही जानता कि बाबा को यह ठीक-ठीक धन-राशि कैसे ज्ञात हो गई। मैं दिन-रात रोता और दुःखी रहता था। एक दिन जब मैं इसी प्रकार निराश और उदास होकर बरामदे में बैठा था, उसी समय रास्ते से जाने वाले एक फकीर ने मेरी स्थिति जानकर मुझसे इसका कारण पूछा। मैंने उसे सब हाल सुनाया। तब उसने बताया कि कोपरगाँव तालुके के शिरडी ग्राम में श्री साईबाबा नाम के एक औलिया रहते है। उन्हें वचन दो तथा अपना रुचिकर भोज्य पदार्थ त्याग, मन में कहो कि जब तक मैं तुम्हारा दर्शन न कर लूँगा, उस पदार्थ को कदापि न खाऊँगा। तब मैंने चावल खाना छोड़ दिया और बाब को वचन दिया, बाबा। जब तक मुझे तुम्हारे दर्शन नहीं होते तथा मेरी चुराई गई धन राथि नहीं मिलती, तब तक मैं चावल ग्रहण न करुँगा। इस प्रकार जब पन्द्रह दिन बीत गये, तब वह ब्राहमण स्वयं ही आया और सब धनराशि लौटाकर क्षमायाचनापूर्वक कहने लगा कि मेरी मति ही भ्रष्ट हो गयी थी, जो मुझसे आपका ऐसा अपराध बन गया है। मैं आपके पैर पड़ता हूँ। मुझे क्षमा करें। इस प्रकार सब ठीक-ठाक हो गया। जिस फकीर से मेरी भेंट हुई थी तथा जिसने मुझे सहायता पहुँचाई थी, वह फकीर फिर मेरे देखने में कभी नहीं आया। मेरे मन में श्रीसाईबाबा के दर्शन की, जिनके लिये फकीर ने मुझसे कहा था, बड़ी तीव्र उत्कंठा हुई। मैंने सोचा कि जो फकीर मेरे घर पर आया था, वह साईबाबा के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हो सकता। जिन्होंने मुझे कृपाकर दर्शन दिये और मेरी इस प्रकार सहायता की। उन्हें 35 रुपये का लालच कैसे हो सकता था। इसके विपरीत वे अहेतुक ही आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर ले जाने का पूरा प्रत्यन करते है।

जब चोरी गई राशि मुझे पुनः प्राप्त हो गई, तब मेरे हर्ष का पारावार न रहा। मरी बुद्धि भ्रमित हो गई और मैं अपना वचन भूल गया। कुलाबा मे एक रात्रि को मैंने साईबाबा को स्वप्न में देखा। तभी मुझे अपनी शिरडी यात्रा के वचन की स्मृति हो आई। मैं गोवा पहुँचा और वहाँ से एक स्टीमर द्धारा बम्बई पहुँच कर शिरडी जाना चाहता था। परन्तु जब मैं किनारे पर पहुँचा तो देखा कि स्टीममर खचाखच भर चुका है और उसमें बिलकुल भी जगह नहीं है। कैप्टन ने तो मुझे चढ़ने न दिया, परन्तु एक अपरिचित चपरासी के कहने पर मुझे स्टीमर में बैठने की अनुमति मिल गयी और मैं इस प्रकार बम्बई पहुँचा। फिर रेलगाड़ी में बैठकर यहाँ पहुँच गया। बाबा के सर्वव्यापी और सर्वज्ञ होने में मुझे कोई शंका नहीं है। देखो तो, हम कौन है और कहाँ हमारा घर। हमारे भाग्य कितने अच्छे है कि बाबा हमारी चुराई गई राशि वापस दिलाकर हमें यहाँ खींच कर लाये। आप शिरडीवासी हम लोगों की अपेक्षा सहस्त्रगुने श्रेष्ठ और भाग्यशाली है, जो बाबा के साथ हँसते-खेलते, मधुर भाषण करते और कई वर्षों से उनके समीप रहते हो। यह आप लोगों के गत जन्मों के शुभ संस्कारों का ही प्रभाव है, जो कि बाबा को यहाँ खींच लाया है। श्री साई ही हमारे लिये दत्त है। उन्होंने ही हमसे प्रतिज्ञा कराई तथा जहाज में स्थान दिलाया और हमें यहाँ लाकर अपनी सर्वव्यापकता और सर्वज्ञता का अनुभव कराया।

श्रीमती औरंगाबादकर

सोलापुर के सखाराम औरंगाबादकर की पत्नी 27 वर्ष की दीर्घ अवधि के पश्चात भी निःसन्तान ही थी। उन्होंने सन्तानप्राप्ति के निमित्त देवी और देवताओं की बहुत मानतायें की, परन्तु फिर भी उनकी मनोकामना सिदृ न हुई। तब वे सर्वथा निराश होकर अन्तिम प्रयत्न करने के विचार से अपने सौतेले पुत्र श्री विश्वनाथ को साथ ले शिरडी आई और वहाँ बाबा की सेवा कर, दो माह रुकी। जब भी वे मसजिद को जाती तो बाबा को भक्त-गण से घिरे हुये पाती। उनकी इच्छा बाबा से एकान्त में भेंट कर सन्तानप्राप्ति के लिये प्रार्थना करने की थी, परन्तु कोई योग्य अवसर उनके हाथ न लग सका। अन्त मे उन्होंने शामा से कहा कि, जब बाबा एकान्त में हो तो मेरे लिये प्रार्थना कर देना। शामा ने कहा कि बाबा का तो खुला दरबार है। फिर भी यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो मैं अवश्य प्रयत्न करुँगा, परन्तु यश देना तो ईश्वर के ही हाथ है। भोजन के समय तुम आँगन में नारियल और उदबत्ती लेकर बैठना और जब मैं संकेत करुँ तो कड़ी हो जाना। एक दिन भोजन के उपरान्त जब शामा बाबा के गीले हाथ तौलिये से पोंछ रहे थे, तभी बाबा ने उनके गालपर चिकोटी काट ली। तब शामा क्रोधित होकर कहने लगे कि देवा। यह क्या आपके लिये उचित है कि आप इस प्रकार मेरे गाल पर चिकोटी कांटे। मुझे ऐसे शरारती देव की बिलकुल आवश्यकता नही, जो इस प्रकार का आचरण करें। हम आप पर आश्रित है, तब क्य यही हमारी घनिष्ठता का फल है। बाबा ने कहा, अरे। तुम तो 72 जन्मों से मेरे साथ हो। मैंने अब तक तुम्हारे साथ ऐसा कभी नहीं किया। फिर अब तुम मेरे स्र्पर्श को क्यों बुरा मानते हो। शामा बोले कि मुझे तो ऐसा देव चाहये, जो हमें सदा प्यार करे और नित्य नया-नया मिष्ठान खाने को दे। मैं तुमसे किसी प्रकार के आदर की इच्छा नहीं रखता और न मुझे स्वर्ग आदि ही चाहिये। मेरा तो विश्वास तुम्हारे चरणों में ही जागृत रहे, यही मेरी अभिलाषा है। तब बाबा बोले कि हाँ, सचमुच मैं इसीलिये यहाँ आया हूँ, मैं सदैव तुम्हारा पालन और उदरपोषण करता आया हूँ, इसीलिये मुझे तुमसे अधिक स्नेह है।



जब बाबा अपनी गादीपर विराजमान हो गये, तभी शामा ने उस स्त्री को संकेत किया। उसने ऊपर आकर बाबा को प्रणाम कर उन्हें नारियल और ऊदबत्ती भेंट की। बाबा ने नारियल हिलकार देखा तो वह सूखा था और बजता था। बाबा ने शामा से कहा कि यह तो हिल रहा है। सुनो, यह क्या कहता है। तभी शामा ने तुरन्त कहा कि यह बाई प्रार्थना करती है कि ठीक इसी प्रकार इनके पेट में भी बच्चा गुड़गुड़ करे, इसलिये आर्शीवाद सहित यह नारियल इन्हें लौटा दो। तब फिर बाबा बोले कि क्या नारियल से भी सन्तान की उत्पत्ति होती है। लोग कैसे मूर्ख है, जो इस प्रकार की बाते गढ़ते है, शामा ने कहा कि मैं आपके वचनों और आशीष की शक्ति से पूर्ण अवगत हूँ और आपके एक शब्द मात्र से ही इस बाई को बच्चों का ताँता लग जायेगा। आप तो टाल रहे है और आर्शीवाद नहीं दे रहे है। इस प्रकार कुछ देर तक वार्तालाप चलता रहा। बाबा बार-बार नारियल फोड़ने को कहते थे, परन्तु शामा बार-बार यही हठ पकड़े हुये थे कि इसे उस बाई को दे दे। अन्त में बाबा ने कह दिया कि इसको पुत्र की प्राप्ति हो जायेगी। तब शामा ने पूछा कि कब तक बाबा ने उत्तर दिया कि 12 मास में। अब नारियल को फोड़कर उसके दो टुकड़े किये गये। एक भाग तो उन दोनों ने खाया और दूसरा भाग उस स्त्री को दिया गया।

तब शामा ने उस बाई से कहा कि प्रिय बहिन। तुम मेरे वचनों की साक्षी हो। यदि 12 मास के भीतर तुमको सन्तान न हुई तो मैं इस देव के सिर पर ही नारियल फोड़कर इसे मसजिद से निकाल दूँगा और यदि मैं इसमें असफल रहा तो मैं अपनो को माधव नहीं कहूँगा। जो कुछ भी मैं कह रहा हूँ, इसकी सार्थकता तुम्हें शीघ्र ही विदित हो जायेगी।

एक वर्ष में ही उसे पुत्ररत्न की प्राप्त हुई और जब वह बालक पाँच मास का था, उसे लेकर वह अपने पतिसहित बाबा के श्री चरणों में उपस्थित हुई। पति-पत्नी दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और कृतज्ञ पिता (श्रीमान् औरंगाबादकर) ने पाँच सौ रुपये भेंट किये, जो बाबा के घोड़े श्याम कर्ण के लिये छत बनाने के काम आये।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु ।।


शुक्रवार, 12 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-35 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 35

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-35

परीक्षा में असफल

काका महाजनी के मित्र और सेठ, निर्बीज मुनक्के, बान्द्रा निवासी एक गृहस्थ की नींद न आने की घटना, बालाजी पाटील नेवासकर, बाबा का सर्प के रुप में प्रगट होना।

इस अध्याय में भी उदी का माहात्म्य ही वर्णित है। इसमें ऐसी दो घटनाओं का उल्लेख है कि परीक्षा करने पर देखा गया कि बाबा ने दक्षिणा अस्वीकार कर दी। पहले इन घटनाओं का वर्णन किया जायेगा।

आध्यात्मिक विषयों में सामप्रदायिक प्रवृत्ति उन्नति के मार्ग में एक बड़ा रोड़ा है। निराकरावादियों से कहते सुना जाता है कि ईश्वर की सगुण उपासना केवल एक भ्रम ही है और संतगण भी अपने सदृश ही सामान्य पुरुष है। इस कारण उनकी चरण वन्दना कर उन्हें दक्षिणा क्यों देनी चाहिये। अन्य पन्थों के अनुयायियों का भी ऐसा ही मत है कि अपने सदगुरु के अतिरिक्त अन्य सन्तों को नमन तथा उनकी भक्ति न करनी चाहिए। इसी प्रकार की अनेक आलोचनायें साईबाबा के सम्बन्ध में पहले सुनने में आया करती थी तथा अभी भी आ रही है। किसी का कथन था कि जब हम शरिडी को गये तो बाबा ने हमसे दक्षिणा माँगी। क्या इस भाँति दक्षिणा ऐठना एक सन्त के लिये शोभनीय था। जब वे इस प्रकार आचरण करते है तो फिर उनका साधु-धर्म कहाँ रहा। परन्तु ऐसी भी कई घटनाएँ अनुभव में आई है कि जिन लोगों ने शिरडी जाकर अविश्वास से बाब के दर्शन किये, उन्होंने ही सर्वप्रथम बाबा को प्रणाम कर प्रार्थना भी की। ऐसे ही कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते है।

काका महाजनी के मित्र


काका महाजनी के मित्र निराकारवादी तथा मूर्ति-पूजा के सर्वथा विरुदृ थे। कौतुहलवश वे काका महाजनी के साथ दो शर्तों पर शिरडी चलने को सहमत हो गये कि -

1. बाबा को नमस्कार न करेंगे और

2. न कोई दक्षिणा ही उन्हें देंगे ।

जब काका ने स्वीकारात्मक उत्तर दे दिया, तब फिर शनिवार की रात्रि को उन दोनों ने बम्बई से प्रस्थान कर दिया और दूसरे ही दिन प्रातःकाल शिरडी पहुँच गये। जैसे ही उन्होंने मसजिद में पैर रखा, उसी समय बाबा ने उनके मित्र की ओर थोड़ी देर देखकर उनसे कहा कि अरे आइये, श्रीमान् पधारिये। आपका स्वागत है। इन शब्दों का स्वर कुछ विचित्र-सा था और उनकी ध्वनि प्रायः उन मित्र के पिता के बिलकुल अनुरुप ही थी। तब उन्हें अपने कैलासवासी पिता की स्मृति हो आई और वे आनन्द विभोर हो गये। क्या मोहिनी थी उस स्वर में। आश्यर्ययुक्त स्वर में उनके मित्र के मुख से निकल पड़ा कि निस्संदेह यह स्वर मेरे पिताजी का ही है। तब वे शीघ्र ही ऊपर दौड़कर गये और अपनी सब प्रतिज्ञायें भूलकर उन्होंने बाबा के श्री-चरणों पर अपना मस्तक रख दिया।

बाबा ने काकासाहेब से तो दोपहर में तथा विदाई के समय दो बार दक्षिणा माँगी, परन्तु इनके मित्र से एक शब्द भी न कहा। उनके मित्र ने फुसफुसाते हुए कहा कि भाई। देखो, बाबा ने तुमसे तो दो बार दक्षिणा माँगी, परन्तु मैं भी तो तुम्हारे साथ हूँ, फिर वे मेरी इस प्रकार उपेक्षा क्यों करते है। काका ने उत्तर दिया कि उत्तम तो यह होगा कि तुम स्वयं ही बाबा से यह पूछ लो। बाबा ने पूछा कि यह क्या कानाफूसी हो रही है। तब उनके मित्र ने कहा कि क्या मैं भी आपको दक्षिणा दूँ। बाबा ने कहा कि तुम्हारी अनिच्छा देखकर मैंने तुमसे दक्षिणा नहीं माँगी, परन्तु यदि तुम्हारी इच्छा ऐसी ही है तो तुम दक्षिणा दे सकते हो। तब उन्होंने सत्रह रुपये भेंट किये, जितने काका ने दिये थे। तब बाबा ने उन्हें उपदेश दिया कि अपने मध्य जो तेली की दीवाल (भेदभाव) है, उसे नष्ट कर दो, जिससे हम परस्पर देखकर अपने मिलन का पथ सुगम बना सकें। बाबा ने उन्हें लौटने की अनुमति देते हुए कहा कि तुम्हारी यात्रा सफल रहेगी। यद्यपि आकाश में बादल छाये हुए थे और वायु वेग से चल रही थी तो भी दोनों सकुशल बम्बई पहुँच गये। घर पहुँचकर जब उन्होंने द्धार तथा खिड़कियाँ खोलीं तो वहाँ दो मृत चमगादड़ पड़े देखे। एक तीसरा उनके सामने ही फुर्र करके खिड़की में से उड़ गया। उन्हें विचार आया कि यदि मैंने खिड़की खुली छोड़ी होती तो इन जीवों के प्राण अवश्य बच गये होते, परन्तु फिर उन्हें विचार आया कि यह उनके भाग्यानुसार ही हुआ है और बाबा ने तीसरे की प्राण-रक्षा के हेतु हमें शीघ्र ही वहाँ से वापस भेज दिया है।


काका महाजनी के सेठ

बम्बई में ठक्कर धरमसी जेठाभाई साँलिसिटर (कानूनी सलाहकार) की एक फर्म थी। काका इस फर्म के व्यवस्थापक थे। सेठ और व्यवस्थापक के सम्बन्ध परस्पर अच्छे थे। श्री मान् ठक्कर को ज्ञात था कि काका बहुधा शिरडी जाया करते है और वहाँ कुछ दिन ठहरकर बाबा की अनुमति से ही वापस लौटते है। कौतूहलवश बाबा की परीक्षा करने के विचार से उन्होंने भी होलिकोत्सब के अवसर पर काका के साथ ही शिरडी जाने का निश्चय किया। काका का शिरडी से लौटना सदैव अनिश्चत सा ही रहता था, इसलिये अपने अपने साथ एक मित्र को लेकर वे तीनों रवाना हो गये। मार्ग में काका ने बाबा को अर्पित करने के हेतु दो सेर मुनक्का मोल ले लिये। ठीक समय पर शिरडी पहुंच कर वे उनके दर्नार्थ मसजिद में गये। बाबा साहेब तर्खड भी तब वहीं पर थे। श्री. ठक्कर ने उनसे आने का हेतु पूछा। तर्खड ने उत्तर दिया कि मैं तो दर्शनों के लिये ही आया हूँ। मुझे चमत्कारों से कोई प्रयोजन नहीं। यहाँ तो भक्तों की हार्दिक इच्छाओं की पूर्ति होती है। काका ने बाबा को नमस्कार कर उन्हें मुनक्के अर्पित किये। तब बाबा ने उन्हें वितरित करने की आज्ञा दे दी। श्री मान् ठक्कर को भी कुछ मुनक्के मिले। एक तो उन्हें मुनक्का रुचिकर न लगता था, दूसरे इस प्रकार अस्वच्छा खाने की डॉक्टर ने मनाही कर दी थी। इसलिये वे कुछ निश्चय न कर सके और अनिच्छा होते हुए भी उन्हें ग्रहण करना पड़ा और फिर दिखावे मात्र के लिये ही उन्होंने मुँह में डाल लिया। अब समझ में न आता था कि उनके बीजों का क्या करें। मसजिद की फर्श पर तो थूका नहीं जा सकता था, इसलिये उन्होंने वे बीज अपनी इच्छा के विरुदृ अपने खीसे में डाल लिये और सोचने लगे कि जब बाबा सन्त है तो यह बात उन्हें कैसे अविदित रह सकती है कि मुझे मुनक्कों से घृणा है। फिर क्या वे मुझे इसके लिये लाचार कर सकते है। जैसे ही यह विचार उनके मन में आया, बाबा ने उन्हें कुछ और मुनक्के दिये, पर उन्होंने खाया नहीं और अपने हाथ में ले लिया। तब बाबा ने उन्हें खा लेने को कहा। उन्होंने आज्ञा का पालन किया और चबाने पर देखा कि वे सब निर्बीज है। वे चमत्कार की इच्छा रखते थे, इसलिये उन्हें देखने को भी मिल गया। उन्होंने सोचा कि बाबा समस्त विचारों को तुरन्त जान लेते है और मेरी इच्छानुसार ही उन्होंने उन्हें बीजरहित बना दिया है। क्या अदभुत शक्ति है उनमें। फिर शंका-निवारणार्थ उन्होंने तर्खड से, जो समीप ही बैठे हुये थे और जिन्हें भी थोड़े मुनक्के मिले थे, पूछा कि किस किस के मुनक्के तुम्हें मिले। उत्तर मिला अच्छे बीजों वाले। श्रीमान् ठक्कर को तब और भी आश्र्चर्य हुआ। अब उन्होंने अपने अंकुरित विश्वास को दृढ़ करने के लिये मन में निश्चय किया कि यदि बाबा वास्तव में संत है तो अब सर्वप्रथम मुनक्के काका को ही दिये जाने चाहिये। इस विचार को जानकर बाबा ने कहा कि अब पुनः वितरण काका से ही आरम्भ होना चाहिये। यह सब प्रमाण श्री. ठक्कर के लिये पर्याप्त ही थे।

फिर शामा ने बाबा से परिचय कराय कि आप ही काका के सेठ है। बाबा कहने लगे कि ये उनके सेठ कैसे हो सकते है। इनके सेठ तो बड़े विचित्र है। काका इस उत्तर से सहमत हो गये। अपनी हठ छोड़कर ठक्कर ने बाबा को प्रणाम किया और वाड़े को लौट आये। मध्याह की आरती समाप्त होने के उपरान्त वे बाबा से प्रस्थान करने की अनुमति प्राप्त करने के लिये मसजिद में आये। शामा ने उनकी कुछ सिफारिश की, तब बाबा इस प्रकार बोले:

एक सनकी मस्तिष्क वाला सभ्य पुरुष था, जो स्वस्थ और धनी भी था। शारीरिक तथा मानसिक व्यथाओं से मुक्त होने पर भी वह स्वतःही अनावश्यक चिंताओं में डूबा रहता और व्यर्थ ही यहाँ-वहाँ भटक कर अशान्त बना रहता था। कभी वह स्थिर और कभी चिन्तित रहता था। उसकी ऐसी स्थिति देखकर मुझे दया आ गई और मैने उससे कहा कि कृपया अब आप अपना विश्वास एक इच्छित स्थान पर स्थिर कर लें। इस प्रकार व्यर्थ भटकने से कोई लाभ नहीं।

शीघ्र ही एक निर्दिष्ट स्थान चुन लो – इन शब्दों से ठक्कर की समझ में तुरन्त आ गया कि यह सर्वथा मेरी ही कहानी है। उनकी इच्छा थी कि काका भी हमारे साथ ही लौटें। बाबा ने उनका ऐसा विचार जानकर काका को सेठ के साथ ही लौटने की अनुमति दे दी। किसी को विश्वसा न था कि काका इतने शीघ्र शिरडी से प्रस्थान कर सकेंगे। इस प्रकार ठक्कर को बाबा की विचार जानने की कला का एक और प्रमाण मिल गया।

तब बाबा ने काका से 15 रुपये दक्षिणा माँगी और कहने लगे कि यदि मैं किसी से एक रुपया दक्षिणा लेता हूँ तो उसे दसगुना लौटाया करता हूँ। मैं किसी की कोई वस्तु बिना मूल्य नहीं लेता और न तो प्रत्येक से माँगता हूँ। जिसकी ओर फकीर (मेरे गुरु) इंगित करते है, उससे ही मैं माँगता हूँ और जो गत जन्म का ऋणी होता है, उसकी ही दक्षिणा स्वीकार हो जाती है। दानी देता है और भविष्य में सुन्दर उपज का बीजारोपण करता है। धन का उपयोग धनोर्पाजन के ही निमित्त होना चाहिये। यदि धन व्यक्तिगत आवश्यकताओं में व्यय किया गया तो यह उसका दुरुपयोग है। यदि तुमने पूर्व जन्मों में दान नहीं दिया है तो इस जन्म में पाने की आशा कैसे कर सकते हो। इसलिये यदि प्राप्ति की आशा रखते हो तो अभी दान करो। दक्षिणा देने से वैराग्य की वृद्धि होती है और वैराग्य प्राप्ति से भक्ति और ज्ञान बढ़ जाते है। एक दो और दस गुना लो।

इन शब्दों को सुनकर श्री. ठक्कर ने भी अपना संकल्प भूलकर बाब को 15 रुपये भेंट किये। उन्होंने सोचा कि अच्छा ही हुआ, जो मैं शिरडी आ गया। यहाँ मेरे सब सन्देह नष्ट हो गये और मुझे बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त हो गई।

ऐसे विषयों में बाबा की कुशलता बड़ी अद्धितीय थी। यद्यपि वे सब कुछ करते थे, फिर भी वे इन सबसे अलिप्त रहते थे। नमस्कार करने या न करने वाले, दक्षिणा देने या न देने वाले, दोनों ही उनके लिये एक समान थे। उन्होंने कभी किसी का अनादर नहीं किया। यदि भक्त उनका पूजन करते तो इससे उन्हें कोई प्रसन्नता होती और यदि कोई उनकी उपेक्षा करता तो न कोई दुःख ही होता। वे सुख और दुःख की भावना से परे हो चुके थे।

अनिद्रा

बान्द्रा के एक महाशय कायस्थ प्रभु बहुत दिनों से नींद न आने के कारण अस्वस्थ थे। जैसे ही वे सोने लगते, उनके स्वर्गवासी पिता स्वप्न में आकर उन्हें बुरी तरह गालियाँ देते दिखने लगते थे। इससे निद्रा भंग हो जाती और वे रात्रिभर अशांति महसूस करते थे। हर रात्रि को ऐसी ही होता था, जिससे वे किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गये। एक दिन बाब के एक भक्त से उन्होंने इस विषय मे परामर्श किया। उसने कहा कि मैं तो संकटमोचन सर्व-पीड़ा-निवारिणी उदी को ही इसकी रामबाण औषधि मानता हूँ, जो शीघ्र ही लाभदायक सिदृ होगी। उन्होंने एक उदी की पुड़िया देकर कहा कि इसे शयन के पूर्व माथे पर लगाकर अपने सिरहाने रखो। फिर तो उन्हें निर्विघ्र प्रगाढ़ निद्रा आने लगी। यह देखकर उन्हें महान् आश्चर्य और आनन्द हुआ। यह क्रम चालू रखकर वे अब साईबाबा का ध्यान करने लगे। बाजार से उनका एक चित्र लाकर उन्होंने अपने सिरहाने के पास लगाकर उनका नित्य पूजन करना प्रारम्भ कर दिया। प्रत्येक गुरुवार को वे हार और नैवेध अर्पण करने लगे। वे अब पूर्ण स्वस्थ हो गये और पहले के सारे कष्टों को भूल गये।


बालाजी पाटील नेवासकर

ये बाबा के परम भक्त थे। ये उनकी निष्काम सेवा किया करते थे। दिन में जिन रास्तों से बाबा निकलते थे, उन्हें वे प्रातःकाल ही उठकर झाडू लगाकर पूर्ण स्वच्छ रखते थे। इनके पश्चात यह कार्य बाबा की एक परमभक्त महिला राधाकृष्ण माई ने किया और फिर अब्दुल ने। बालाजी जब अपनी फसल काटकर लाते तो वे सब अनाज उन्हें भेंट कर दिया करते थे। उसमें से जो कुछ बाबा उन्हें लौटा देते, उसी से वे अपने कुटुम्ब का भरणपोषण किया करते थे, यह क्रम अनेक वर्षों तक चला और उनकी मृत्यु के पश्चात भी उनके पुत्र ने इसे जारी रखा।

उदी की शक्ति और महत्व

एक बार बालाजी के श्रादृ दिवस की वार्षिक (बरसी) के अवसर पर कुछ व्यक्ति आमंत्रित किये गये। जितने लोगों के लिये भोजन तैयार किया गया, उससे कहीं तिगुने लोग भोजन के समय एकत्रित हो गये। यह देख श्रीमती नेवासकर किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गई। उन्होंने सोचा कि यह भोजन सबके लिये पर्याप्त न होगा और कहीं कम पड़ गया तो कुटुम्ब की भारी अपकीर्ति होगी। तब उनकी सास ने उनसे सांत्वना-पूर्ण शब्दों में कहा कि चिन्ता न करो। यह भोजन-सामग्री हमारी नही, यह तो श्री साईबाबा की है। प्रत्येक बर्तन में उदी डालकर उन्हें वस्त्र से ढँक दो और बिना वस्त्र हटाये सबको परोस दो। वे ही हमारी लाज बचायेंगे। परामर्श के अनुसार ही किया गया। भोजनार्थियों के तृप्तिपूर्वक भोजन करने के पश्चात् भी भोजन सामग्री यथेष्ठ मात्रा मे शेष देखकर उन लोगों को महान् आश्चर्य और प्रसन्नता हुई। यथार्थ में देखा जाये तो जैसा जिसका भाव होता है, उसके अनुकूल ही अनुभव प्राप्त होता है। ऐसी ही घटना मुझे प्रथम श्रेणी के उपन्यायाधीश तथा बाबा के परम भक्त श्री बी.ए. चौगुले ने बतलाई। फरवरी, सन् 1943 में करजत (जिला अहमदनगर) में पूजा का उत्सव हो रहा था, तभी इस अवसर पर एक बृहत् भोज का आयोजन हुआ। भोजन के समय आमंत्रित लोगों से लगभग पाँच गुने अधिक भोजन के लिये आये, फिर भी भोजन सामग्री कम नहीं हुई। बाबा की कृपा से सबको भोजन मिला, यह देख सबको आश्चर्य हुआ।

साईबाबा का सर्प के रुप में प्रगट होना

शिरडी के रघु पाटील एक बार नेवासे के बालाजी पाटील के पास गये, जहाँ सन्ध्या को उन्हें ज्ञात हुआ कि एक साँप फुफकारता हुआ गौशाला में घुस गया है। सभी पशु भयभीत होकर भागने लगे। घर के लोग भी घबरा गये, परन्तु बालाजी ने सोचा कि श्रीसाई ही इस रुप में यहाँ प्रगट हुए है। तब वे एक प्याले में दूध ले आये और निर्भय होकर उस सर्प के सम्मुख रखकर उनको इस प्रकार सम्बधित कर कहने लगे कि बाबा आप फुफकार कर शोर क्यों कर रहे है। क्या आप मुझे भयभीत करना चाहते है। यह दूध का प्याला लीजिये और शांतिपूर्वक पी लीजिये। ऐसा कहकर वे बिना किसी भय के उसके समीप ही बैठ गये। अन्य कुटुम्बी जन तो बहुत घबड़ा गये और उनकी समझ में न आ रहा था कि अब वे क्या करें। थोड़ी देर में ही सर्प अदृश्य हो गया और किसी को भी पता न चला कि वह कहाँ गया। गोशाला में सर्वत्र देखने पर भी वहाँ उसका कोई चिन्हृ न दिखाई दिया।

एक ऐसी ही घटना साई-साधु-सुधा (भाग 3 नं. 7-8, जनवरी 43, पृष्ठ 26) में प्रकाशित है कि बाबा कोयंबटूर (दक्षिण भारत) में 7 जनवरी, सन् 43 गुरुवार की सन्ध्या को साढ़े तीन बजे सर्प के रुप में प्रगट हुए, जहाँ उस सर्प ने भजन सुनकर दूध और फूल स्वीकार किये तथा हजारों लोगों की भीड़ को दर्शन देकर अपनी फोटो भी उतारने दिया। फोटो उतारते समय, बाबा का चित्र भी उसके समीप रखकर दोनों की ही फोटो उतारी गई। चित्र और अन्य विवरण के लिये पाठकों से प्रार्थना है कि वे उपयुक्त पत्रिका का अवश्य अवलोकन करें।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

गुरुवार, 11 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-34 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 34

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-34

उदी की महत्ता (2), डॉक्टर का भतीजा, डॉक्टर पिल्ले, शामा की भयाहू, ईरानी कन्या, हरदा के महानुभाव, बम्बई की महिला की प्रसव पीड़ा

इस अध्याय में भी उदी की ही महत्ता क्रमबद्ध है तथा उन घटनाओं का भी उल्लेख किया गया है, जिनमें उसका उपयोग बहुत ही प्रभावकारी सिदृ हुआ।

डॉक्टर का भतीजा


नासिक जिले के मालेगाँव में एक डॉक्टर रहते थे। उनका भतीजा एक असाध्य रोग (एक तरह का तपेदिक) से पीड़ित था। उन्होंने तथा उनके सभी डॉक्टर मित्रों ने समस्त उपचार किये। यहाँ तक कि उसकी शल्य-चिकित्सा भी कराई, फिर भी बालक को कोई लाभ न पहुँचा। उसके कष्टों का पारावार न था। मित्र और सम्बन्धियों ने बालक के माता-पिता को दैविक उपचार करने का परामर्श देकर श्री साईबाबा की शरण में जाने को कहा, जो अपनी दृष्टि मात्र से असाध्य रोग साध्य करने के लिये प्रसिदृ है। अतः माता-पिता बालक को साथ लेकर शिरडी आये। उन्होंने बाबा को साष्टांग प्रणाम कर श्री-चरणों में बालक को डाल दिया और बड़ी नम्रता तथा आदरपूर्वक विनती की कि प्रभु, हम लोगों पर दया करो। आपका संकट-मोचन नाम सुनकर ही हम लोग यहाँ आये है। दया कर इस बालक की रक्षा कीजिये। प्रभु हमें तो केवल आपका ही भरोसा है। प्रार्थना सुनकर बाबा को दया आ गई और उन्होंने सान्त्वना देकर कहा कि जो इस मसजिद की सीढ़ी चढ़ता है, उसे जीवनपर्यन्त कोई दुःख नहीं होता। चिंता न करो, यह उदी ले उस रोग ग्रसित स्थान पर लगाओ। ईश्वर पर विश्वास रखो, वह सप्ताह के अंत में ही पूर्ण स्वस्थ हो जायेगा। यह मसजिद नहीं, यह तो द्धारकावती है और जो इसकी सीढ़ी चढ़ेगा, उसे स्वा्थ्य और सुख की प्राप्ति होगी तथा उसके कष्टों का अंत हो जायेगा। बालक को बाबा के सामने बिठलाया गया। वे उस रोगग्रस्त स्थान पर अपना हाथफेरते हुये दयापूर्ण दृष्टि से बालक की ओर निहाने लगे। रोगी अब प्रसन्न रहने लगा और उदी के लेप से बालक थोड़े समय में ही स्वस्थ हो गया। माता-पिता अपने को बाबा का ऋणी और कृतज्ञ मानकर बालक को लेकर शिरडी से चले गये।



यह लीला देखकर बालक के काका को, जो डॉक्टर थे, महान् आश्चर्य हुआ तथा उन्हें भी बाबा के दर्शनों की तीव्र उत्कंठा हुई। इसी समय जब वे कार्यवश बम्बई जा रहे थे, तभी मालेगाँव और मनमाड के निकट किसी ने बाबा के विरुदृ उनके कान भर दिये, इस कारण वे शिरडी जाने का विचार त्याग कर सीधे बम्बई चले गये। वे अपनी शेष छुट्टियाँ अलीबाग में व्यतीत करना चाहते थे, परन्तु बम्बई में उन्हें लगातार तीन रात्रियों तक एक ही ध्वनि सुनाई पड़ी कि क्या अब भी तुम मुझपर अविश्वास कर रहे हो। तब डॉक्टर ने अपना विचार परिवर्तित कर शिरड को प्रस्थान करने का निश्यय किया। बम्बई में उनके एक रोगी को सांसर्गिक ज्वर आ रहा था, जिसका तापक्रम कम होने का कोई चिन्ह दिखाई न देने के कारण उन्हें ऐसा लग रहा था कि कहीं शिरडी की यात्रा स्थगित न करनी पड़े। उन्होंने अपने मन ही मन एक परीक्षा करने का विचार किया कि यदि रोगी आज अच्छा हो जाये तो कल ही मैं शिरडी के लिये प्रस्थान कर दूँगा। आश्चर्य है कि जिस समय उन्होंने यह निश्चय किया, ठीक उसी समय से ज्वर में उतार होने लगा और ताप क्रमशः साधारण स्थिति पर पहुँच गया। तब वे अपने निश्चयानुसार शिरडी पहुँचे और बाबा का दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया। बाबा ने उन्हें कुछ ऐसे अनुभव दिये कि वे सदा के लिये उनके भक्त हो गये। डॉक्टर वहाँ चार दिन ठहरे और उदी तथा आर्शीवाद प्राप्त कर घर वापस आ गये। एक पखवारे में ही पदोन्नति पाकर उनका स्थानान्तरण वीजापुर को हो गया। भतीजे की रोग-मुक्ता ने उन्हें बाबा के दर्शनों का सौभाग्य दिया तथा शिरडी की यात्रा ने उनकी श्री साई के चरणों में प्रगाढ़ प्रीति उत्पन्न कर दी।

डॉक्टर पिल्ले


डॉक्टर पिल्ले बाब के एक निष्ठ भक्त थे। इसी कारण वे उन पर अधिक स्नेह रखते थे और उन्हें सदा भाऊ कहकर पुकारते तथा हर समय उनसे वार्तालाप करके प्रत्येक विषय में परामर्श भी लिया करते थे। उनकी सदैव यही इच्छा रहती कि वे बाबा के समीप ही बने रहें। एक बार डॉक्टर पिल्ले को नासूर हो गया। वे काकासाहेब दीक्षित से बोले कि मुझे असहृ पीड़ा हो रही है और मैं अब इस जीवन से मृत्यु को अधिक क्षेयस्कर समझता हूँ। मुझे ज्ञात है कि इसका मुख्य कराण मेरे पूर्व जन्मों के कर्म ही है। जाकर बाबा से कहो कि वे मेरी यह पीड़ा अब दूर करें। मैं अपने पिछले जन्म के कर्मों को अगले दस जन्मों में भोगने को तैयार हूँ। तब काका दीक्षित ने बाबा के पास जाकर उनकी प्रार्थना सुनाई। साई तो दया के अवतार ही है। वे अपने भक्तों के कष्ट कैसे देख सकते थे। उनकी प्रार्थना सुनकर उन्हें भी दया आ गई और उन्होंने दीक्षित से कहा कि पिल्ले से जाकर कहो कि घबड़ाने की ऐसी कोई बात नहीं। कर्मों का फल दस जन्मों में क्यों भुगतना पड़ेगा। केवल दस दिनों में ही गत जन्मों के कर्मफल समाप्त हो जायेंगे। मैं तो यहाँ तुम्हें धार्मिक और आध्यात्मिक कल्याण देने के लिये ही बैठा हूँ। प्राण त्यागने की इच्छा कदापि न करनी चाहिये। जाओ, किसी की पीठ पर लादकर उन्हें यहाँ ले आओ, मैं सदा के लिये उनका कष्टों से छुटाकारा कर दूँगा।


तब उसी स्थिति में पिल्ले को वहाँ लाया गया। बाबाने अपने दाहिनी ओर उनके सिरहाने अपनी गादी देकर सुख से लिटाकर कहा कि इसकी मुख्य औषधि तो यह है कि पिछले जन्मों के कर्मफल को अवश्य ही भोग लेना चाहिये, ताकि उनसे सदैव के लिये छुटकारा हो जाये। हमारे कर्म ही सुखःदुख के कारण होते है, इसलिये जैसी भी परिस्थित आये, उसी में सन्तोष करना चाहिये। अल्ला ही सब को फल देने वाला है और वही सबका रक्षण करता है। ऐसा विचार कर सदैव उनका ही स्मरण करो। वे ही तुम्हारी चिन्ता दूर करेंगे। तन-मन-धन और वचन द्धारा उनकी अनन्य शरण में जाओ, फिर देखो कि वे क्या करते है। डॉक्टर पिल्ले ने कहा कि नानासाहेब ने मेरे पैर में एक पट्टी बाँधी है, परन्तु मुझे उससे कोई लाभ नहीं पहुँचा। नाना तो मूर्ख है बाबा ने कहा, वह पट्टी हटाओ, नहीं तो मर जाओगे। थोड़ी देर में ही एक कौआ आयेगा और वह अपनी चोंच इसमें मारेगा। तभी तुम शीघ्र अच्छे हो जाओगे।


जब यह वार्तालाप हो ही रहा था कि उसी समय अब्दुल, जो मसजिद में झाडू लगाने तथा दिया-बत्ती आदि स्वच्छ करने का कार्य करता था, वहाँ आया। जब वह दिया-बत्ती स्वच्छ कर रहा था तो अचानकर ही उसका पैर डॉक्टर पिल्ले के नासूर वाले पर पड़ा। पैर तो सूजा हुआ था ही और फिर अब्दुल के पैर से दबा तो उसमें से नासूर के सात कीड़े बाहर निकल पड़े। कष्ट असहनीय हो गया और डॉक्टर पिल्ले उच्च स्वर में चिल्ला पड़े। किन्तु कुछ काल के ही पश्चात् वे शांत हो कर गीत गाने लगे। तब बाबा ने कहा, देखा, भाऊ अब अच्छा हो गया है और गाना गा रहा है। गाने के बोल थे:

करम कर मेरे हाल पर तू करीम।
तेरा नाम रहमान है और रहीम।
तू ही दोनों आलम का सुलतान है।
जहाँ में नुमायाँ तेरी शान है।
फना होने वाला है सब कारोबार।
रहे नूर तेरा सदा आशकार।
तू आशिक का हरदम मददगार है।

फिर डॉक्टर पिल्ले ने पूछा कि वह कौआ कब आयेगा और चोंच मारेगा। बाबा ने कहा अरे, क्या तुमने कौए को नहीं देखा। अब वह नहीं आयेगा। अब्दुल, जिसने तुम्हारा पैर दबाया, वही कौआ था। उसने चोंच मारकर नासूर को हटा दिया। वह अब पुनः क्यों आयेगा। अब जाकर वाड़े में विश्राम करो। तुम शीघ्र ही स्वस्थ हो जाओगे।

उदी लगाने और पानी के संग पीने से बिना किसी औषधि या चिकित्सा के वे दस दोनों में ही नीरोग हो गये, जैसा कि बाबा ने उनसे कहा था।

शामा के छोटे भाई की पत्नी (भयाहू)

सावली विहीर के समीप शामा के छोटे भाई बापाजी रहते थे। एक बार उनकी पत्नी को गिल्टियों बाला प्लेग हो गया। उसे ज्वर हो आया और उसकी जाँच में प्लेग की दो गिल्टियाँ निकल आई। बापाजी दौड़कर शामा के पास आये और सहायता के लिये चलने को कहा। शामा भयभीत हो उठे। उन्होंने सदैव की भाँति बाबा के पास जाकर उन्हें नमस्कार किया और सहायाता के लिये उनसे प्रार्थना की तथा भ्राता के घर प्रस्थान करने की अनुमति माँगी। बाबा ने कहा कि इतनी रात्रि व्यतीत हो चुकी है। अब इस समय तुम कहाँ जाओगे। केवल उदी ही भेज दो। ज्वर और गिल्टी की चिन्ता क्यों करते हो। भगवान् तो अपने पिता और स्वामी है। वह शीघ्र ही स्वस्थ हो जायेगी। अभी मत जाओ। प्रातःकाल जाना और शीघ्र ही लौट आना।

शामा को तो उस मृत-संजीवनी उदी पर पूर्ण विश्वास था। उसे ले जाकर उसके भ्राता ने थोड़ी सी गिल्टी और माथे पर लगाई और कुछ जल में घोलकर रोगी को पिला दी। जैसे ही उसका सेवन किया गया, वैसे ही पसीन वेग से प्रवाहित होने लगा, ज्वर मन्द पड़ गया और रोगी प्रगाढ़ निद्रा में निमग्न हो गया। दूसरे दिन बापाजी ने अपनी पत्नी को स्वस्थ देखकर बड़ा आश्चर्य किया कि न तो ज्वर ही है और न गिल्टी का कोई चिन्ह ही। दूसरे दिन जब शामा बाबा की अनुज्ञा प्राप्त कर वहाँ पहुँचे तो अपने भाई की स्त्री को चाय बनाते देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। अपने भाई से पूछताछ करने पर उन्हें पता चला कि बाबा की उदी ने एक रात्रि में ही रोग को समूल नष्ट कर दिया है। तब शामा को बाबा के शब्दों का मर्म समझ में आया कि प्रातःकाल जाओ और शीघ्र लौटकर आओ।

चाय पीकर शामा लौट आया और बाबा को प्रणाम करने के पश्चात् कहने लगा कि देवा.. यह तुम्हारा क्या नाटक है। पहले बवंडर उठा कर हमें अशांत कर देते हो, फिर हमारी शीघ्र सहायता कर सब ठीकठाक कर देते हो। बाबा ने उत्तर दिया कि, तुम्हें ज्ञात होगा कि कर्म पथ अति रहस्यपूर्ण है। यद्यपि मैं कुछ भी नहीं करता, फिर भी लोग मुझे ही कर्मों के लिये दोषी ठहराते है। मैं तो एक दर्शक मात्र ही हूँ। केवल ईश्वर ही एक सत्ताधारी और प्रेरणा देने वाले है। वे ही परम दयालु है। मैं न तो ईश्वर हूँ और न मालिक, केवल उनका एक आज्ञाकारी सेवक ही हूँ और सदैव उनका स्मरण किया करता हूँ। जो निरभिमान होकर अपने को कृतज्ञ समझ कर उन पर पूर्ण विश्वास करेगा, उसके कष्ट दूर हो जायेंगे और उसे मुक्ति की प्राप्ति होगी।


ईरानी कन्या

अब एक ईरानी भद्र पुरुष का अनुभव पढ़िये। उनकी छोटी कन्या घंटे-घंटे पर मूर्चिछत हो जाया करती थी। जब दौरा पड़ता, तब उसमें बोलने की भी सक्ति शेष न रह जाती थी। उसके दाँत बैठ जाते थे। उसके हाथ-पैर ऐंठ जाते और वह बेहोश होकर भूमि पर गिर पड़ती थी। जब नाना प्रकार के उपचारों से भी उसे कोई लाभ न हुआ, तब कुछ लोगों ने उस ईरानी से बाबा की उदी की बहुत प्रशंसा की और कहा कि वह वलेपार्ला (बम्बई) में काकासाहेब दीक्षित के पास से ही प्राप्त हो सकती है। तब ईरानी महाशय ने वहाँ से उदी लाकर जल में घोलकर अपनी बेटी को पिलाया। प्रारम्भ में जो दौरे एक घंटे के अन्तर से आया करते थे, बाद में वे सात घंटे के अन्तर से आये और कुछ दिनों के पश्चात् तो वह पूर्ण स्वस्थ हो गई।

हरदा के महानुभाव

हरदा के एक महानुभाव पथरी रोग से ग्रस्त थे। यह पथरी केवल शल्यचिकित्सा द्धारा ही निकाली जा सकती थी। लोगों ने भी उन्हें ऐसा करने का परामर्श दिया। वे बहुत ही वृदृ तथा दुर्बल थे और अपनी दुर्बलता देखकर उन्हें शल्यचिकित्सा कराने का साहस न हो रहा था। इस हालत में उनकी व्याधि का और इलाज ही क्या था। इसी समय नगर के इनामदार भी वहाँ आये हुए थे, जो बाबा के परम भक्त थे तथा उनके पास उदी भी थी। कुछ मित्रों के परामर्श देने पर उनके पुत्र ने उनसे कुछ उदी प्राप्त कर अपने वृदृ पिता को जल में मिलाकर पीने को दी। केवल पाँच मिनट मे ही उदी के पेट में जाते ही पथरी मल-मूत्रेन्द्रय के द्धारा से बाहर निकल गई और वह वृदृ शीघ्र ही स्वस्थ हो गया।

बम्बई की महिला की प्रसव-पीड़ा


बम्बई की कायस्थ प्रभु जाति की एक महिला को प्रसव-काल में असहनीय वेदना हुआ करती थी। जब वह गर्भवती हो जाती तो बहुत घबराती और किंकर्तव्यमूढ़ हो जाया करती थी। इसके उपचारार्थ उनके एक मित्र श्रीराम मारुति ने उसके पति को सुझाव दिया कि यदि इस पीड़ा से मुक्ति चाहते हो तो अपनी पत्नी को शिरडी ले जाओ।

दुबारा जब उनकी स्त्री गर्भवती हुई तो वे दोनों पति-पत्नी शिरडी आये और वहाँ कुछ मास ठहरे। वे बाबा की नित्य सेवा करने लगे। उन्हें बाबा के सत्संग का भी बहुत कुछ लाभ हुआ। कुछ दिनों के पश्चात जब प्रसव-काल समीप आया, तब सदैव की भाँति गर्भाशय के द्धारा में रुकावट के साथ अधिक वेदना होने लगी। उनकी समझ में नहीं आता था कि अब क्या करना चाहिये। थोड़ी ही देर में एक पड़ोसिन आई और उसने मन ही मन बाबा से सहायता की प्रार्थना कर जल में उदी मिल उसे पीने को दी। तब केवल पाँच मिनिट में ही बिना किसी कष्ट के प्रसव हो गया। बालक तो अपने भाग्यानुसार ही उत्पन्न हुआ, परन्तु उसकी माँ की पीड़ा और कष्ट सदा के लिये दूर हो गये। वे अपने को बाबा का बड़ा कृतज्ञ समझने लगे और जीवनपर्यन्त उनके आभारी बने रहे।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।