बुधवार, 10 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-33 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 33

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-33

उदी की महिमा, 
बिच्छू का डंक, 
प्लेग की गाँठ, 
जामनेर का चमत्कार, 
नारायण राव, 
बाला बुवा सुतार, 
अप्पा साहेब कुलकर्णी, 
हरीभाऊ कर्णिक।

पूर्व अध्याय में गुरु की महानता का दिग्दर्शन कराया गया है। अब इस अध्याय में उदी की महिमा का वर्णन किया जायेगा।

प्रस्तावना

आओ, पहले हम सन्तों के चरणों में प्रणाम करें, जनकी कृपादृष्टि मात्र से ही समस्त पापसमूह भस्म होकर हमारे आचरण के दोष नष्ट हो जायेंगे। उनसे वार्तालाप करना हमारे लिये शिक्षाप्रद और अति आनन्ददायक है। वे अपने मन में यह मेरा और वह तुम्हारा ऐसा कोई भेद नहीं रखते। इस प्रकार के भेदभाव की कल्पना उनके हृदय में कभी भी उत्पन्न नहीं होती। उनका ऋण इस जन्म में तो क्या, अनेक जन्मों में भी न चुकाया जा सकेगा।

उदी (विभूति)

यह सर्वविदित है कि बाबा सबसे दक्षिणा लिया करते थे तथा उस धन राशि में से दान करने के पश्चात् जो कुछ भी शेष बचता, उससे वे ईधन मोल लेकर सदैव धूनी प्रज्वलित रखते थे। इसी धूनी की भस्म ही उदी कहलाती है। भक्तों के शिरडी से प्रस्थान करते समय यह भस्म मुक्तहस्त से उन सभी को वितरित कर दी जाती थी।

इस उदी से बाबा हमें क्या शिक्षा देते है। उदी वितरण कर बाबा हमें शिक्षा देते है कि इस अंगारे की नाईं गोचर होने वाले ब्रहमांड का प्रतिबिम्ब भस्म के ही समान है। हमारा तन भी ईधन सदृश ही है, अर्थात् पंचभूतादि से निर्मित है, जो कि सांसारिक भोगादि के उपरांत विनाश को प्राप्त होकर भस्म के रुप में परिणत हो जायेगा।

भक्तों को इस बात की स्मृति दिलाने के हेतु ही कि अन्त में यह देह भस्म सदृश होने वाला है, बाबा उदी वितरण किया करते थे। बाबा इस उदी के द्धारा एक और भी शिक्षा प्रदान करते है कि इस संसार में ब्रहमा ही सत्य और जगत् मिथ्या है। इस संसार में वस्तुतः कोई किसी का पिता, पुत्र अथवा स्त्री नहीं है। हम जगत में अकेले ही आये है और अकेले ही जायेंगे। पूर्व में यह देखने में आ चुका है और अभी भी अनुभव किया जा रहा है कि इस उदी ने अनेक शारीरिक और मानसिक रोगियों को स्वास्थ्य प्रदान किया है। यथार्थ में बाबा तो भक्तों को दक्षिणा और उदी द्धारा सत्य और असत्य में विवेक तथा असत्य के त्याग का सिद्धान्त समझाना चाहते थे। इस उदी से वैराग्य और दक्षिणा से त्याग की शिक्षा मिलती है। इन दोनों के अभाव में इस मायारुपी भवसागर को पार करना कठिन है, इसलिये बाबा दूसरे के भोग स्वयं भोग कर दक्षिणा स्वीकार कर लिया करते थे। जब भक्तगण बिदा लेते, तब वे प्रसाद के रुप में उदी देकर और कुछ उनके मस्तक पर लगाकर अपना वरद-हस्त उनके मस्तक पर रखते थे। जब बाबा प्रसन्न चित्त होते, तब वे प्रेमपूर्वक गीत गाया करते थे। ऐसा ही एक भजन उदी के सम्बन्ध में भी है। भजन के बोल है, रमते राम आओ जो आओ जी, उदिया की गोनियाँ लाओजी। यह बाबा शुदृ और मधुर स्वर में गाते थे।

यह सब तो उदी के आध्यात्मिक प्रभाव के सम्बन्ध में हुआ, परन्तु उसमें भौतिक प्रभाव भी ता, जिससे भक्तों को स्वास्थ्य समृद्धि, चिंतामुक्ति एवं अनेक सांसारिक लाभ प्राप्त हुए। इसलिये उदी हमें आध्यात्मिक और सांसारिक लाभ पहुँचाती है। अब हम उदी की कथाएँ प्रारम्भ करते है।

बिच्छू का डंक

नासिक के श्री. नारायण मोतीराम जानी बाबा के परम भक्त थे। वे बाबा के अन्य भक्त रामचंद्र वामन मोडक के अधीन काम करते थे। एक बार वे अपनी माता के साथ शिरडी गये तथा बाबा के दर्शन का लाभ उठाया। तब बाबा ने उनकी माँ से कहा कि अब तुम्हारे पुत्र को नौकरी छोड़कर स्वतंत्र व्यवसाय करना चाहिये। कुछ दिनों में बाबा के वचन सत्य निकले। नारायण जानी ने नौकरी छोड़कर एक उपाहार गृह आनंदाश्रम चलाना प्रारम्भ कर दिया, जो अच्छी तरह चलने लगा। एक बार नारायण राव के एक मित्र को बिच्छू ने काट खाया, जिससे उसे असहनीय पीड़ा होने लगी। ऐसे प्रसंगों में उदी तो रामबाण प्रसिदृ ही है। काटने के स्थान पर केवल उसे लगा ही तो देना है। नारायण ने उदी खोजी, परन्तु कहीं न मिल सकी। उन्होंने बाबा के चित्र के समक्ष खड़े होकर उनसे सहायता की प्रार्थना की और उनका नाम लेते हुए, उनके चित्र के सम्मुख जलती हुई ऊदबत्ती में से एक चुटकी भस्म बाबा की उदी मानकर बिच्छू के डंक मारने के स्थान पर लेप कर दिया। वहाँ से उनके हाथ हटाते ही पीड़ा तुरंत मिट गई और दोनों अति प्रसन्न होकर चले गये।

प्लेग की गाँठ

एक समय एक भक्त बाँद्रा में था। उसे वहाँ पता चला कि उसकी लड़की, जो दूसरे स्थान पर है, प्लेगग्रस्त है और उसे गिल्टी निकल आई है। उनके पास उस समय उदी नहीं थी, इसलिये उन्होंने नाना चाँदोरकर के पास उदी भेजने के लिये सूचना भेजी। नानासाहेब ठाणे रेल्वे स्टेशन के समीप ही रास्ते में थे। जब उनके पास यह सूचना पहुँची, वे अपनी पत्नी सहित कल्याण जा रहे थे। उनके पास भी उस समय उदी नहीं थी। इसीलिये उन्होंने सड़क पर से कुच धूल उठाई और श्री साईबाबा का ध्यान कर उनसे सहायता की प्रार्थना की तथा उस धूल को अपनी पत्नी के मस्तक पर लगा दिया। वह भक्त खड़े-खड़े यह सब नाटक देख रहा था। जब वह घर लौटा तो उसे जानकर अति हर्ष हुआ कि जिस समय से नानासाहेब ने ठाणे रेल्वे स्टेशन के पास बाबा से सहायता करने की प्रार्थना की, तभी से उनकी लड़की की स्थिति में पर्याप्त सुधार हो चला था, जो गत तीन दिनों से पीड़ित थी।

जामनेर का विलक्षण चमत्कार

सन् 1904-05 में नानासाहेब चाँदोरकर खानदेश जिले के जामनेर में मामलतदार थे। जामनेर शिरडी से लगभग 100 मील से भी अधिक दूरी पर है। उनकी पुत्री मैनाताई गर्भावस्था में थी और प्रसव काल समीप ही था। उसकी स्थिति अति गम्भीर थी। 2-3 दिनों से उसे प्रसव-वेदना हो रही थी। नानासाहेब ने सभी संभव प्रयत्न किये, परन्तु वे सब व्यर्थ ही सिदृ हुए। तब उन्होंने बाबा का ध्यान किया और उनसे सहायता की प्रार्थना की। उस समय शिरडी में एक रामगीर बुवा, जिन्हें बाबा बापूगीर बुवा के नाम से पुकारते थे, अपने घर खानदेश को लौट रहे थे। बाबा ने उन्हें अपने समीप बुलाकर कहा कि तुम घर लौटते समय थोड़ी देर के लिये जामनेर में उतरकर यह उदी और आरती श्री. नानासाहेब को दे देना। रामगीर बुवा बोले कि मेरे पास केवल दो ही रुपये है, जो कठिनाई से जलगाँव तक के किराये को ही पर्याप्त होंगे। फिर ऐसी स्थिति में लगाँव से और 30 मील आगे जाना मुझे संभव होगा। बाबा ने उत्तर दिया कि चिंता की कोई बात नहीं। तुम्हारी सब व्यवस्था हो जायेगी। तब बाबा ने शामा से माधव अडकर द्धारा रचित प्रसिदृ आरती की प्रतिलिपि कराई और उदी के साथ नानासाहेब के पास भेज दी। बाबा के वचनों पर विश्वास कर रामगीर बुवा ने शिरडी से प्रस्थान कर दिया और पौने तीन बजे रात्रि को जलगाँव पहुँचे। इस समय उनके पास केवल दो आने ही शेष थे, जिससे वे बड़ी दुविधा में थे। इतने में ही एक आवाज उनके कानों में पड़ी कि शिरडी से आये हुए बापूगीर बुवा कौन है। उन्होंने आगे बढ़कर बतलाया कि मैं ही शिरडी से आ रहा हूँ और मेरा ही नाम बापूगीर बुवा है। उस चपरासी ने, जो कि अपने आपको नानासाहेब चाँदोरकर द्धारा भेजा हुआ बतला रहा था, उन्हें बाहर लाकर एक शानदार ताँगे में बिठाया, जिसमें दो सुन्दर घोटे जुते हुए थे। अब वे दोनों रवाना हो गये। ताँगा बहुत वेग से चल रहा था। प्रातःकाल वे एक नाले के समीप पहुँचे, जहाँ ताँगेवाले ने ताँगा रोककर घोड़ों को पानी पिलाया। इसी बीच चपरासी ने रामगीर बुवा से थोड़ा सा नाश्ता करने को कहा। उसकी दाढ़ी-मूछें तथा अन्य वेशभूषा से उसे मुसलमान समझकर उन्होंने जलपान करना अस्वीकार कर दिया। तब उस चपरासी ने कहा कि मैं गढ़वाल का क्षत्रिय वंशी हिन्दू हूँ। यह सब नाश्ता नानासाहेब ने आपके लिये ही भेजा है तथा इसमें आपको कोई आपत्ति और संदेह नहीं करना चाहिये। तब वे दोनों जलपान कर पुनः रवाना हुए और सूर्योदय काल में जामनेर पहुँच गये। रामगीर बुवा लघुशंका को गये और थोड़ी देर में जब वे लौटकर आये तो क्या देखते है कि वहाँ पर न तो ताँगा था, और न ताँगेवाला और न ही ताँगे के घोड़े। उनके मुख से एक शब्द भी न निकल रहा था। वे समीप ही कचहरी में पूछताछ करने गये और वहाँ उन्हें बतलाया कि इस समय मामलतदार घर पर ही है। वे नानासाहेब के घर गये और उन्हें बतलाया कि मैं शिरडी से बाबा की आरती और उदी लेकर आ रहा हूँ। उस समय मैनाताई की स्थिति बहुत ही गंभीर थी और सभी को उसके लिये बड़ी चिंता थी। नानासाहेब ने अपनी पत्नी को बुलाकर उदी को जल में मिलाकर अपनी लड़की को पिला देने और आरती करने को कहा। उन्होंने सोचा कि बाबा की सहायता बड़ी सामयिक है। थोड़ी देर में ही समाचार प्राप्त हुआ कि प्रसव कुशलतापूर्वक होकर समस्त पीड़ा दूर हो गई है। जब रामगीर बुवा ने नानासाहेब को चपरासी, ताँगा तथा जलपान आदि रेलवे स्टेशन पर भेजने के लिये धन्यवाद दिया तो नानासाहेब को यह सुनकर महान् आश्चर्य हुआ और वे कहने लगे कि मैंन न तो कोई ताँगा या चपरासी ही भेजा था और न ही मुझे शिरडी से आपके पधारने की कोई पूर्वसूचना ही थी।

ठाणे के सेवानिवृत श्री. बी. व्ही. देव ने नानासाहेब चाँदोरकर के पुत्र बापूसाहेब चाँदोरकर और शिरडी के रामगीर बुवा से इस सम्बन्ध में बड़ी पूछताछ की और फिर संतुष्ट होकर श्री साईलीला पत्रिका, भाग 13 (नं 11,12,13) में गध्य और पध्य में एक सुन्दर रचना प्रकाशित की। भाई श्री. बी. व्ही. नरसिंह स्वामी ने भी (1) मैनाताई (भाग 5, पृष्ठ 14), (2) बापूसाहेब चाँदोरकर (भाग 20, पृष्ठ 50) और (3) रामगीर बुवा (भाग 27, पृष्ठ 83) के कथन लिये है, जो कि क्रमशः 1 जून 1936, 16 सितम्बर 1936 और दिसम्बर 1936 को छपे है और यह सब उन्होंने अपनी पुस्तक भक्तों के अनुभव भाग 3 में प्रकाशित किये है । निम्नलिखि प्रसंग रामगीर बुवा ने कथनानुसार उद्धत किया जाता है।

एक दिन मुझे बाबा ने अपने समीप बुलाकर एक उदी की पुड़िया और एक आरती की प्रतिलिपि देकर आज्ञा दी कि जामनेर जाओ और यह आरती तथा उदी नानासाहेब को दे दो । मैंने बाबा को बताया कि मेरे पास केवल दो रुपये ही है, जो कि कोपरगाँब से जलगाँव जाने और फिर वहाँ से बैलगाड़ी द्धारा जामनेर जाने के लिये अपर्याप्त है। बाबा ने कहा अल्ला देगा। शुक्रवार का दिन था। मैं शीघ्र ही रवाना हो गया। मैं मनमाड 6-30 बजे सायंकाल और जलगाँव रात्रि को 2 बजकर 45 मिनट पर पहुँचा। उस समय प्लेग निवारक आदेश जारी थे, जिससे मुझे असुविधा हुई और मैं सोच रहा था कि कैसे जामनेर पहुँचूँ। रात्रि को 3 बजे एक चपरासी आया, जो पैर में बूट पहिने था, सिर पर पगड़ी बाँधे व अन्य पोशाक भी पहने था। उसने मुझे ताँगे में बिठा लिया और ताँगा चल पड़ा। मैं उस समय भयभीत-सा हो रहा था। मार्ग में भगूर के समीप मैंने जलपान किया। जब प्रातःकाल जामनेर पहुँचा, तब उसी समय मुझे घुशंका करने की इच्छा हुई। जब मैं लौटकर आया, तब देखा कि वहाँ कुछ भी नहीं है। ताँगा और ताँगेवाला अदृश्य है।

नारायण राव

भक्त नारायण राव को बाबा के दर्शनों का तीन बार सौभाग्य प्राप्त हुआ। सन् 1918 में बाबा के महासमाधि लेने के तीन वर्ष पश्चात् वे शिरडी जाना चाहते थे, परन्तु किसी कारणवश उनका जाना न हो सका। बाबा के समाधिस्थ होने के एक वर्ष के भीतर ही वे रुग्ण हो गये। किसी भी उपचार से उन्हें लाभ न हुआ। तब उन्होंने आठों प्रहर बाबा का ध्यान करना प्रारंभ कर दिया। एक रात को उन्हें स्वप्न हुआ। बाबा एक गुफा में से उन्हें आते हुए दिखाई पड़े और सांत्वना देकर कहने लगे कि घबराओ नहीं, तुम्हें कल से आराम हो जायेगा और एक सप्ताह में ही चलने-फिरने लगोगे। ठीक उतने ही समय में नारायणराव स्वस्थ हो गये। अब यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या बाबा देहधारी होने से जीवित कहलाते थे और क्या उन्होंने देह त्याग दी, इसलिये मृत हो गये नहीं। बाबा अमर है, क्योंकि वे जीवन और मृत्यु से परे है। एक बार भी अनन्य भाव से जो उनकी शरण में जाता है, वह कहीं भी हो, उसे वे सहायता पहुँचाते है। वे तो सदा हमारे बाजू में ही खड़े है और चाहे जैसा रुप लेकर भक्त के समक्ष प्रकट होकर उसकी इच्छा पूर्ण कर देते है।

अप्पासाहेब कुलकर्णी

सन् 1917 में अप्पासाहेब कुलकर्णी के शुभ दिन आये। उनका ठाणे को स्थानानंतरण हो गया। उन्होंने बालासाहेब भाटे द्धारा प्राप्त बाबा के चित्र का पूजन करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने सच्चे हृदय से पूजा की। वे हर दिन फूल, चन्दन और नैवेध्य बाबा को अर्पित करते और उनके दर्शनों की बड़ी अभिलाषा रखते थे। इस सम्बन्ध में इतना तो कहा जा सकता है कि उत्सुकतापूर्वक बाबा के चित्र को देखना ही बाबा के प्रत्यक्ष दर्शन के सदृश है। नीचे लिखी कथा से यह बात स्पष्ट हो जाती है।

बाला बुवा सुतार

बम्बई मे एक बालाबुवा नाम के संत थे, जो कि अपनी भक्ति, भजन और आचरण के कारण आधुनिक तुकाराम के नाम से विख्यात थे। सन् 1917 में वे शिरडी आये। जब उन्होंने बाबा को प्रणाम किया तो बाबा कहने लगे कि मैं तो इन्हें चार वर्षों से जानता हूँ। बालाबुवा को आश्चर्य हुआ और उन्होंने सोचा कि मैं तो प्रथम बार ही शिरडी आया हूँ, फिर यह कैसे संभव हो सकता है। गहन चिन्तन करने पर उन्हें स्मरण हुआ कि चार वर्ष पूर्व उन्होंने बम्बई में बाबा के चित्र को नमस्कार किया था। उन्हें बाबा के शब्दों की यथार्थता का बोध हो गया और वे मन ही मन कहने लगे कि संत कितने सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी होते है तथा अपने भक्तों के प्रति उनके हृदय में कितनी दया होती है। मैंने तो केवल उनके चित्र को ही नमस्कार किया था तो भी यह घटना उनको ज्ञात हो गई। इसलिए उन्होंने मुझे इस बात का अनुभव कराया है कि उनके चित्र को देखना ही उनके दर्शन करने के सदृश है।

अप्पासाहेब कुलकर्णी

अब हम अप्पासाहेब की कथा पर आते है। जब वे ठाणे में थे तो उन्हें भिवंडी दौरे पर जाना पड़ा, जहां से उन्हें एक सप्ताह में लौटना संभव न था। उनकी अनुपस्थिति में तीसरे दिन उनके घर में निम्नलिखित विचित्र घटना हुई। दोपहर के समय अप्पासाहेब के गृह पर एक फकीर आया, जिसकी आकृति बाबा के चित्र से ही मिलती-जुलती थी। श्रीमती कुलकर्णी तथा उनके बच्चों ने उनसे पूछा कि आप शिरडी के श्री साईबाबा तो नहीं है। इस पर उत्तर मिला कि वे तो साईबाबा के आज्ञाकारी सेवक है और उनकी आज्ञा से ही आप लोगों की कुशल-क्षेम पूछने यहाँ आये है। फकीर ने दक्षिणा माँगी तो श्रीमती कुलकर्णी ने उन्हें एक रुपया भेंट किया। तब फकीर ने उन्हें उदी की एक पुड़िया देते हुए कहा कि इसे अपने पूजन में चित्र के साथ रखो। इतना कहकर वह वहाँ से चला गया। अब बाबा की अदभुत लीला सुनिये ।

भिवंडी में अप्पासाहेब का घोड़ा बीमार हो गया, जिससे वे दौरे पर आगे न जा सके। तब उसी शाम को वे घर लौट आये। घर आने पर उन्हें पत्नी के द्धारा फकीर के आगमन का समाचार प्राप्त हुआ। उन्हें मन में थोड़ी अशांति-सी हुई कि मैं फकीर के दर्शनों से वंचित रह गया तथा पत्नी द्धारा केवल एक रुपया दक्षिणा देना उन्हें अच्छा न लगा। वे कहने लगे कि यदि मैं उपस्थित होता तो 10 रुपये से कम कभी न देता। तब वे फिर भूखे ही फकीर की खोज में निकल पड़े। उन्होंने मसजिद एवं अन्य कई स्थानों पर खोज की, परन्तु उनकी खोज व्यर्थ ही सिदृ हुई। पाठक अध्याय 32 में कहे गये बाबा के वचनों का स्मरण करें कि भूखे पेट ईश्वर की खोज नहीं करनी चाहिये। अप्पासाहेब को शिक्षा मिल गई। वे भोजन के उपरांत जब अपने मित्र श्री. चित्रे के साथ घूमने को निकले, तब थोड़ी ही दूर जाने पर उन्हें सामने से एक फकीर द्रुतगति से आता हुआ दिखाई पड़ा। अप्पासाहेब ने सोचा कि यह तो वही फकीर प्रतीत होता है, जो मेरे घर पर आया था तथा उसकी आकृति भी बाबा के चित्र के अनुरुप ही है। फकीर ने तुरन्त ही हाथ बढ़ाकर दक्षिणा माँगी। अप्पासाहेब ने उन्हें एक रुपया दे दिया, तब वह और माँगने लगा। अब अप्पासाहेब ने दो रुपये दिये। तब भी उसे संतोष न हुआ। उन्होंने अपने मित्र चित्रे से 3 रुपये उधार लेकर दिये, फिर भी वह माँगता ही रहा। तब अप्पासाहेब ने उसे घर चलने को कहा। सब लोग घर पर आये और अप्पासाहेब ने उन्हें 3 रुपये और दिये अर्थात् कुल 9 रुपये, फिर भी वह असन्तुष्ट प्रतीत होता था और माँगे ही जा रहा था। तब अप्पासाहेब ने कहा कि मेरे पास तो 10 रुपये का नोट है। तब फकीर ने नोट ले लिया और 9 रुपये लौटाकर चला गया। अप्पासाहेब ने 10 रुपये देने को कहा था, इसलिये उनसे 10 रुपये ले लिये और बाबा द्धारा स्पर्शित 9 रुपये उन्हें वापस मिल गये। अंक 9 रुपये अर्थपूर्ण है तथा नवधा भक्ति की ओर इंगित करते है (देखो अध्याय 21)। यहाँ ध्यान दें कि लक्ष्मीबाई को भी उन्होंने अंत समय में 9 रुपये ही दिये थे।

उदी की पुड़िया खोलने पर अप्पासाहेब ने देखा कि उसमें फूल के पत्ते और अक्षत है। जब वे कालान्त में शिरडी गये तो उन्हें बाबा ने अपना एक केश भी दिया। उन्होंने उदी और केश को एक ताबीज में रखा और उसे वे सदैव हाथ पर बाँधते थे। अब अप्पासाहेब को उदी की शक्ति विदित हो चुकी थी। वे कुशाग्र बुद्धि के थे। प्रथम उन्हें 40 रुपये मासिक मिलते थे, परन्तु बाबा की उदी और चित्र प्राप्त होने के पश्चात उनका वेतन कई गुना हो गया तथा उन्हें मान और यश भी मिला। इन अस्थायी आकर्षणों के अतिरिक्त उनकी आध्यात्मिक प्रगति भी शीघ्रता से होने लगी। इसलिये सौभाग्यवश जिनके पास उदी है, उन्हें स्नान करने के पश्चात मस्तक पर धारण करना चाहिये और कुछ जल में मिलाकर वह तीर्थ की नाई ग्रहण करना चाहिये।


हरीभाऊ कर्णिक


सन् 1917 में गुरु पूर्णमा के शुभ दिना डहाणू, जिला ठाणे के हरीभाऊ कर्णिक शिरडी आये तथा उन्होंने बाबा का यथाविधि पूजन किया। उन्होंने वस्तुएं और दक्षिणा आदि भेंट कर शामा के द्धारा बाब से लौटने की आज्ञा प्राप्त की। वे मसजिद की सीढ़ियों पर से उतरे ही थे कि उन्हें विचार आया कि एक रुपया और बाबा को अर्पण करना चाहिये। वे शामा को संकेत से यह सूचना देना चाहते थे कि बाबा से जाने की आज्ञा प्राप्त हो चुकी है, इसलिए मैं लौटना नहीं चाहता हूँ। परन्तु शामा का ध्यान उनकी ओर नहीं गया, इसलिए वे घर को चल पड़े। मार्ग में वे नासिक के मुख्य द्धार के भीतर बैठा करते थे, भक्तों को वहीं छोड़ कर हरीभाऊ के पास आये और उनका हाथ पकड़कर कहने लगे कि मुझे मेरा रुपया दे दो। कर्णिक को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने सहर्ष रुपया दे दिया। उन्हें विचार आया कि मैंने बाबा को रुपया देने का मन में संकल्प किया था और बाबा ने यह रुपया नासिक के नरसिंह महाराज के द्धारा ले लिया। इस कथा से सिदृ होता है कि सब संत अभिन्न है तथा वे किसी न किसी रुप में एक साथ ही कार्य किया करते है।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

सोमवार, 8 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-31 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 31

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-31

मुक्ति-दान - सन्यासी विजयानंद, 
बालाराम मानकर, 
नूलकर, 
मेघा और बाबा के सम्मुख बाघ की मुक्ति।

इस अध्याय में हेमाडपंत बाबा के सामने कुछ भक्तों की मृत्यु तथा बाघ के प्राण-त्याग की कथा का वर्णन करते है।

प्रारम्भ

मृत्यु के समय जो अंतिम इच्छा या भावना होती है, वही भवितव्यता का निर्माण करती है। श्री कृष्ण ने गीता (अध्याय-8) में कहा है कि जो अपने जीवन के अंतिम क्षण में मुझे सम्रण करता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है तथा उस समय वह रजो कुछ भी दृश्य देखता है, उसी को अन्त में पाता है। यह कोई भी निश्चयात्मक रुप से नहीं कह सकता कि उस क्षण हम केवल उत्तम विचार ही कर सकेंगे। जहाँ तक अनुभव में आया है, ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय अनेक कारणों से भयभीत होने की संभावना अधिक होती है। इसके अनेक कारण है। इसलिये मन को इच्छानुसार किसी उत्तम विचार के चिंतन में ही लगाने के लिए नित्याभ्यास अत्यन्त आवश्यक है। इस कारण सभी संतों ने हरिस्मरण और जप को ही श्रेष्ठ बताया है, ताकि मृत्यु के समय हम किसी घरेलू उलझन में न पड़ जायें। अतः ऐसे अवसर पर भक्तगण पूर्णतः सन्तों के शरणागत हो जाते है, ताकि संत, जो कि सर्वज्ञ है, उचित पथप्रदर्शन कर हमारी यथेष्ठ सहायता करें। इसी प्रकार के कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते है।

1. विजयानन्द

एक मद्रासी सन्यासी विजयानंद मानसरोवर की यात्रा करने निकले। मार्ग में वे बाबा की कीर्ति सुनकर शिरडी आये, जहाँ उनकी भेंट हरिद्धार के सोमदेव जी स्वामी से हुई और इनसे उन्होंने मानसरोवर की यात्रा के सम्बन्ध में पूछताछ की। स्वामीजी ने उन्हें बताया कि गंगोत्री से मानसरोवर 500 मील उत्तर की ओर है तथा मार्ग में जो कष्ट होते है, उनका भी उल्लेख किया जैसे कि बर्फ की अधिकता, 50 कोस तक भाषा में भिन्नता तथा भूटानवासियों के संशयी स्वभाव, जो यात्रियों को अधिक कष्ट पहुँचाया करते है। यह सब सुनकर सन्यासी का चित्त उदास हो गया और उसने यात्रा करने का विचार त्यागकर मसजिद में जाकर बाबा के श्री चरणों का स्पर्श किया। बाबा क्रोधित होकर कहने लगे – इस निकम्मे सन्यासी को निकालो यहाँ से। इसका संग करना व्यर्थ है। सन्यासी बाबा के स्वभाव से पूर्ण अपरिचित था। उसे बड़ी निराशा हुई, परन्तु वहाँ जो कुछ भी गतिविधियाँ चल रही थी, उन्हें वह बैठे-बैठे ही देखता रहा। प्रातःकाल का दरबार लोगों से ठसाठस भरा हुआ था और बाबा को यथाविधि अभिषेक कराया जा रहा था। कोई पाद-प्रक्षालन कर रहा था तो कोई चरणों को छूकर तथा कोई तीर्थस्पर्श से अपने नेत्र सफल कर रहा था। कुछ लोग उ्हें चन्दन का लेप लगाते थे तो कोई उनके शरीर में इत्र ही मल रहा था। जातिपाँति का भेदभाव भुलाकर सब भक्त यह कार्य कर रहे थे। यद्यपि बाबा उस पर क्रोधित हो गये थे तो भी सन्यासी के हृदय में उनके प्रति बड़ा प्रेम उत्पन्न हो गया था। उसे यह स्थान छोड़ने की इच्छा ही न होती थी। दो दिन के पश्चात् ही मद्रास से पत्र आया कि उसकी माँ की स्थिति अत्यन्त चिंताजनक है, जिसे पढ़कर उसे बड़ी निराशा हुई और वह अपनी माँ के दर्शन की इच्छा करने लगा, परन्तु बाबा की आज्ञा के बिना वह शिरडी से जा ही कैसे सकता था। इसलिये वह हाथ में पत्र लेकर उनके समीप गया और उनसे घर लौटने की अनुमति माँगी। त्रिकालदर्शी बाबा को तो सबका भविष्य विदित ही था। उन्होंने कह कि जब तुम्हें अपनी माँ से इतना मोह था तो फिर सन्यास धारण करने का कष्ट ही क्यों उठाया। ममता या मोह भगवा वस्त्रधारियों को क्या शोभा देता है। जाओ, चुपचाप अपने स्थान पर रहकर कुछ दिन शांतिपूर्वक बिताओ। परन्तु सावधान। वाड़े में चोर अधिक है। इसलिए द्धार बंद कर सावधानी से रहना, नहीं तो चोर सब कुछ चुराकर ले जायेंगे। लक्ष्मी यानी संपत्ति चंचला है और यह शरीर भी नाशवान् है, ऐसा ही समझ कर इहलौकिक व पालौकिक समस्त पदार्थों का मोह त्याग कर अपना कर्तव्य करो। जो इस प्रकार का आचरण कर श्रीहरि के शरणागत हो जाता है, उसका सब कष्टों से शीघ्र छुटकार हो उसे परमानंद की प्राप्ति हो जाती है। जो परमात्मा का ध्यान व चिंतन प्रेम और भक्तिपूर्वक करता है, परमात्मा भी उसकी अविलम्ब सहायता करते है। पूर्वजन्मों के शुभ संस्कारों के फलस्वरुप ही तुम यहाँ पहुँचे हो और अब जो कुछ मैं कहता हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो और अपने जीवन के अंतिम ध्येय पर विचार करो। इच्छारहित होकर कल से भागवत का तीन सप्ताह तक पठन-पाठन प्रारम्भ करो। तब भगवान् प्रसन्न होंगे और तुम्हारे सब दुःख दूर कर देंगे। माया का आवरण दूर होकर तुम्हें शांति प्राप्त होगी। बाबा ने उसका अंतकाल समीप देखकर उसे यह उपचार बता दिया और साथ ही रामविजय पढ़ने की भी आज्ञा दी, जिससे यमराज अधिक प्रसन्न् होते है। दूसरे दिन स्नानादि तथा अन्य शुद्धि के कृत्य कर उसने लेंडी बाग के एकांत स्थान में बैठकर भागवत का पाठ आरम्भ कर दिया। दूसरी बार का पठन समाप्त होने पर वह बहुत थक गया और वाड़े में आकर दो दिन ठहरा। तीसरे दिन बड़े बाबा की गोद में उसके प्राण पखेरु उड़े गये। बाबा ने दर्शनों के निमित्त एक दिन के लिये उसका शरीर सँभाल कर रखने के लिये कहा। तत्पश्चात् पुलिस आई और यथोचित्त जाँच-पडताल करने के उपरांत मृत शरीर को उठाने की आज्ञा दे दी। धार्मिक कृत्यों के साथ उसकी उपयुक्त स्थान पर समाधि बना दी गई। बाबा ने इस प्रकार सन्यासी की सहायता कर उसे सदगति प्रदान की।

2. बालाराम मानकर

बालाराम मानकर नामक एक गृहस्थबाबा के परम भक्त थे। जब उनकी पत्नी का देहांत हो गया तो वह बड़े निराश हो गये और सब घरबार अपने लड़के को सौंप वे शिरडी में आकर बाबा के पास रहने लगे। उनकी भक्ति देखकर बाबा उनके जीवन की गति परिवर्तित कर देना चाहते थे। इसीलिये उन्होंने उन्हें बारह रुपये देकर मच्छंद्रगढ़ (जिला सातार) में जाकर रहने को कहा। मानकर की इच्छा उनका सानिध्य छोड़कर अन्यत्र कहीं जाने की न थी, परन्तु बाबा ने उन्हें समझाया कि तुम्हारे कल्याणार्थ ही मैं यह उत्तम उपाय तुम्हें बतलता रहा हूँ। इसीलिये वहाँ जाकर दिन में तीन बार प्रभु का ध्यान करो। बाबा के शब्दों में विश्वास कर वह मच्छंद्रगढ़ चाल गया और वहाँ के मनोहर दृश्यों, शीतल जल तथा उत्तम पवन और समीपस्थ दृश्यों को देखकर उसके चित्त को बड़ी प्रसन्नता हुई। बाबा द्धारा बतलाई विधि से उसने प्रभु का ध्यान करना प्रारम्भ कर दिया और कुछ दिनों पश्चात् ही उसे दर्शन प्राप्त हो गया। बहुधा भक्तों को समाधि या तुरीयावस्था में ही दर्शन होते है, परन्तु मानकर जब तुरीयास्था से प्राकृतावस्था में आया, तभी उसे दर्शन हुए। दर्शन होने के पश्चात् मानकर ने बाबा से अपने को वहाँ भेजने का कारण पूछा। बाबा ने कहा कि शिरडी में तुम्हारे मन में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उठने लगे थे। इसी कारण मैंने तुम्हें वहाँ भेजा कि तुम्हारे चंचल मन को शांति प्राप्त हो। तुम्हारी धारणा थी कि मैं शिरडी में ही विद्यमान हूँ और साढ़ेतीन हाथ के इस पंचतत्व के पुतले के अतिरिक्त कुछ नही हूँ, परन्तु अब तुम मुझे देखकर यह धारणा बना लो कि जो तुम्हारे सामने शिरडी में उपस्थित है और जिसके तुमने दर्शन किये, वह दोनों अभिन्न है या नहीं। मानकर वह स्थान छोडकर अपने निवास स्थान बाँद्रा को रवाना हो गया। वह पूना से दादर रेल द्धारा जाना चाहता था। परन्तु जब वह टिकट-घर पर पहुँचा तो वहाँ अधिक भीड़ होने के कारण वह टिकट खरीद न सका। इतने में ही एक देहाती, जिसके कंधे पर एक कम्बल पड़ा था तथा शरीर पर केवल एक लंगोटी के अतिरिक्त कुछ न था, वहाँ आया और मानकर से पूछने लगा कि आप कहाँ जा रहे है। मानकर ने उत्तर दिया कि मैं दादर जा रहा हूँ। तब वह कहने लगा कि मेरा यह दादर का टिकट आप ले लीजिय, क्योंकि मुझे यहाँ एक आवश्यक कार्य आ जाने के कारण मेरा जाना आज न हो सकेगा। मानकर को टिकट पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई और अपनी जेब से वे पैसे निकालने लगे। इतने में ही टिकट देने वाला आदमी भीड़ में कहीं अदृस्य हो गया। मानकर ने भीड़ में पर्याप्त छानबीन की, परन्तु सब व्यर्थ ही हुआ। जब तक गाड़ी नहीं छूटी, मानकर उसके लौटने की ही प्रतीक्षा करता रहा, परन्तु वह अन्त तक न लौटा। इस प्रकार मानकर को इस विचित्र रुप में द्धितीय बार दर्शन हुए। कुछ दिन अपने घर ठहरकर मानकर फिर शिरडी लौट आया और श्रीचरणों में ही अपने दिन व्यतीत करने लगा। अब वह सदैव बाबा के वचनों और आज्ञा का पालन करने लगा। अन्ततः उस भाग्यशाली ने बाबा के समक्ष ही उनका आशीर्वाद प्राप्त कर अपने प्राण त्यागे।

3. तात्यासाहेब नूलकर

हेमाडपंत ने तात्यासाहेब नूलकर के सम्बन्ध में कोई विवरण नहीं लिखा है। केवल इतना ही लिखा है कि उनका देहांत शिरडी में हुआ था। साईलीला पत्रिका में संक्षिप्त विवरण प्रकाशित हुआ था, रजो नीचे उद्धृत है – सन् 1909 में जिस समय तात्यासाहेब पंढरपुर में उपन्यायाधीश थे, उसी समय नानासाहेब चाँदोरकर भी वहाँ के मामलतदार थे। ये दोनो आपस में बहुधा मिला करते और प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया करते थे। तात्यासाहेब सन्तों में अविश्वास करते थे, जबकि नानासाहेब की सन्तों के प्रति विशेष श्रद्धा थी। नानासाहेब ने उन्हें साईबाबा की लीलाएँ सुनाई और एक बार शिरडी जाकर बाब का दर्शन-लाभ उठाने का आग्रह भी किया। वे दो शर्तों पर चलने को तैयार हुए –

उन्हें ब्राहमण रसोइया मिलना चाहिये।

भेंट के लिये नागपुर से उत्तम संतरे आना चाहिये।

शीघ्र ही ये दोनों शर्ते पूर्ण हो गयी। नानासाहेब के पास एक ब्राहमण नौकरी के लिये आया, जिसे उन्होंने तात्यासाहेब के पास भिजवा दिया और एक संतरे का पार्सन भी आया, जिसपर भेजने वाले का कोई पता न लिखा था। उनकी दोनों शर्ते पूरी हो गई थी। इसीलिये अब उन्हें शिरडी जाना ही पड़ा। पहले तो बाबा उन पर क्रोधित हुए, परन्तु जब धीरे-धीरे तात्यासाहेब को विश्वास हो गया कि वे सचमुच ही ईश्वरावतार है तो वे बाबा से प्रभावित हो गये और फिर जीवनपर्यन्त वहीं रहे। जब उनका अन्तकाल समीप आया तो उन्हें पवित्र धार्मिक पाठ सुनाया गया और अंतिम क्षणों में उन्हें बाबा का पद तीर्थ भी दिया गया। उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर बाबा बोल उठे – अरे तात्या तो आगे चला गया । अब उसका पुनः जन्म नहीं होगा ।

4. मेघा


28वें अध्याय में मेघा की कथा का वर्णन किया जा चुका है। जब मेघा का देहांत हुआ तो सब ग्रामबासी उनकी अर्थी के साथ चले और बाबा भी उनके साथ सम्मिलित हुए तथा उन्होंने उसके मृत शरीर पर फूल बरसाये। दाह-संस्कार होने के पश्चात् बाबा की आँखों से आँसू गिरने लगे। एक साधारण मनुष्य के समान उनका भी हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया। उनके शरीर को फूलों से ढँककर एक निकट सम्बन्धी के सदृश रोते-पीटते वे मसजिद को लौटे। सदगति प्रदान करते हुए अनेक संत देखने में आये है, परन्तु बाबा की महानता अद्धितीय ही है। यहाँ तक कि बाघ सरीखा एक हिंसक पशु भी अपनी रक्षा के लिये बाबा की शरण में आया, जिसका वृतान्त नीचे लिखा है -

5. बाघ की मुक्ति


बाबा के समाधिस्थ होने के सात दिन पूर्व शिरडी में एक विचित्र घटना घटी। मसजिद के सामने एक बैलगाड़ी आकर रुकी, जिसपर एक बाघ जंजीरों से बँधा हुआ था। उसका भयानक मुख गाड़ी के पीछे की ओर था। वह किसी अज्ञात पीड़ा या दर्द से दुःखी था। उसके पालक तीन दरवेश थे, जो एक गाँव से दूसरे गाँव में जाकर उसके नित्य प्रदर्शन करते और इस प्रकार यथेएष्ठ द्रव्य संचय करते थे और यही उनके जीविकोपार्जन का एक साधन था। उन्होंने उसकी चिकित्सा के सभी प्रयत्न किये, परन्तु सब कुछ व्यर्थ हुआ। कहीं से बाबा की कीर्ति भी उनके कानों में पड़ गई और वे बाघ को लेकर साई दरबार में आये। हाथों से जंजीरें पकड़कर उन्होंने बाघ को मसजिद के दरवाजे पर खड़ा कर दिया। वह स्वभावतः ही भयानक था, पर रुग्ण होने के कारण वह बेचैन था। लोग भय और आश्चर्य के साथ उसकी ओर देखने लगे। दरवेश अन्दर आये और बाबा को सब हाल बताकर उनकी आज्ञा लेकर वे बाघ को उनके सामने लाये। जैसे ही वह सीढ़ियों के समीप पहुँचा, वैसे ही बाबा के तेजःपुंज स्वरुप का दर्शन कर एक बार पीछे हट गया और अपनी गर्दन नीचे झुका दी। जब दोनों की दृष्टि आपस में एक हुई तो बाघ सीढ़ी पर चढ़ गया और प्रेमपूर्ण दृष्टि से बाबा की ओर निहारने लगा। उसने अपनी पूँछ हिलाकर तीन बार जमीन पर पटकी और फिर तत्क्षम ही अपने प्राण त्याग दिये। उसे मृत देखकर दरवेशी बड़े निराश और दुःखी हुए। तत्पश्चात जब उन्हें बोध हुआ तो उन्होंने सोचा कि प्राणी रोगग्रस्त थी ही और उसकी मृत्यु भी सन्निकट ही थी। चलो, उसके लिये अच्छा ही हुआ कि बाबा सरीखे महान् संत के चरणों में उसे सदगति प्राप्त हो गई। वह दरवेशियों का ऋणी था और जब वह ऋम चुक गया तो वह स्वतंत्र हो गया और जीवन के अन्त में उसे साई चरणों में सदगति प्राप्त हुई। जब कोई प्राणी संतों के चरणों पर अपना मस्तक रखकर प्राण त्याग दे तो उसकी मुक्ति हो जाती है। पूर्व जन्मों के शुभ संस्कारों के अभाव में ऐसा सुखद अंत प्राप्त होना कैसे संभव है।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

रविवार, 7 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-32 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-32

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-32

गुरु और ईश्वर की खोज, 
उपवास अमान्य

इस अध्याय में हेमाडपंत ने दो विषयों का वर्णन किया है ।

किस प्रकार अपने गुरु से बाबा की भेंट हुई और उनके द्धारा ईश्वरदर्शन की प्राप्ति कैसे हुई।

श्रीमती गोखले को जो तीन दिन से उपवास कर रही थी, उसे पूरनपोली के भोजन कराये।

प्रस्तावना

श्री. हेमाडपंत वटवृक्ष का उदाहरण देकर इस गोचर संसार के स्वरुप का वर्णन करते है। गीता के अनुसार वटवृक्ष की जड़ें ऊपर और शाखाएँ नीचे की ओर फैली हुई है। ऊध्र्वमूलमधः शाखाम् (गीता पंद्रहवाँ अध्याय, श्लोक 1)। इस वृक्ष के गुण पोषक और अंकुर इंद्रियों के भोग्य पदार्थ है। जड़ें जिनका कारणीभूत कर्म है, वे सृष्टि के मानवों की ओर फैली हुई है। इस वृक्ष की रचना बड़ी ही विचित्र है। न तो इसके आकार, उद्गम और अन्त का ही भान होता है और न ही इसके आश्रय का। इस कठोर जड़ वाले संसार रुपी वृक्ष को, वैराग्य के अमोघ शस्त्र द्धारा नष्ट करने के हेतु किसी बाह्य मार्ग का अवलंबन करना अत्यंत आवश्यक है, ताकि इस असार-संसार में आवागमन से मुक्ति प्राप्त हो। इस पथ पर अग्रसर होने के लिये किसी योग्य दिग्दर्शक (गुरु) की नितांत आवश्यकता है। चाहे कोई कितना ही विद्धान् अथवा वेद और वेदांत में पारंगत क्यों न हो, वह अपने निर्दिष्ट स्थान पर नहीं पहुँच सकता, जब तक कि उसकी सहायतार्थ कोई योग्य पथ प्रदर्शक न मिल जाये, जिसके पद चिन्हों का अनुसरण करने से ही मार्ग में मिलने वाले गहृरों, खंदकों तथा हिंसक प्राणियों के भय से मुक्त हुआ जा सकता है और इस विधि से ही संसार-यात्रा सुगम तथा कुशलतापूर्वक पूर्ण हो सकती है। इश विषय में बाबा का अनुभव, जो उन्होंने स्वय बतलाया, वास्तव में आश्चर्यजनक है। यदि हम उसका ध्यानपूर्वक अनुसरण करेंगें तो हमें निश्चय ही श्रद्धा, भक्ति और मुक्ति प्राप्त होगी।

अन्वेषण

एक समय हम चार सहयोगी मिलकर धार्मिक एवं अन्य पुस्तकों का अध्ययन कर रहे थे। इस प्रकार प्रबुदृ होकर हम लोग ब्रहृ के मूलस्वरुप पर विचार करने लगे। एक ने कहा कि हमें स्वयं की ही जाति करनी चाहिए। दूसरों पर निर्भर रहना हमें उचित नहीं है। इस पर दूसरे ने कहा कि जिसने मनोनिग्रह कर लिया है, वही धन्य है, हमें अपने संकीर्ण विचारों व भावनाओं से मुक्त होना चाहिए, क्योंकि इस संसार में हमारे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। तीसरे ने कहा कि यह संसार सदैव परिवर्तनशील है केवल निराकार ही शाश्वत है। अतः हमें सत्य और असत्य में विवेक करना चाहिए। तब चौथे (स्वयं बाबा) ने कहा कि केवल पुस्तकीय ज्ञान से कोई लाभ नहीं। हमें तो अपना कर्तव्य करते रहना चाहिये। दृढ़ विश्वास और पूर्ण निष्ठापूर्वक हमें अपना तन, मन, धन और पंचप्राणादि सर्वव्यापक गुरुदेव को अर्पण कर देना चाहिये। गुरु भगवान् है, सबका पालनहार है।

इस प्रकार वादविवाद के उपरांत हम चारों सहयोगी वन में, ईश्वर की खोज को निकले। हम चार विद्धान् बिना किसी से सहायता लिए केवल अपनी स्वतंत्र बुद्धि से ही ईश्वर की खोज करना चाहते थे। मार्ग में हमें एक बंजारा मिला, जिसने हम लोगों से पूछा कि हे सज्जनों, इतनी धूप में आप लोग किस ओर प्रस्थान कर रहे है। प्रत्युत्तर में हम लोगों ने कहा कि वन की ओर। उसने पुनः पूछा, कृपया यह तो बतलाइये कि वन की ओर जाने का क्या उद्देश्य है। हम लोगों ने उसे टालमटोल वाला उत्तर दे दिया। हम लोगों को निरुद्देश्य सघन भयानक जंगलों में भटकते देखकर उसे दया आ गई। तब उसने अति विनम्र होकर हम लोगों से निवेदन किया कि आप अपनी गुप्त खोज का हेतु चाहे मुझे न बतलाये, किन्तु मैं प्रत्यक्ष देखा रहा हूँ कि मध्याहृ के प्रचण्ड मार्त्तण्ड की तीव्र किरणों की उष्णता से आप लोग अधिक कष्ट पा रहे है। कृपया यहाँ पर कुछ क्षण विश्राम कर जल-पान कर लीजिये। आप लोगों को सुहृदय तथा नम्र होना चाहिए। बिना पथ-प्रदर्शक के इस अपरचित भयानक वन में भटकते फिरने से कोई लाभ नहीं है। यदि आप लोगों की तीव्र इच्छा ऐसी ही है तो कृपया किसी योग्य पथ-प्रदर्शक को साथ ले लें। उसकी विनम्र प्रार्थना पर ध्यान न देकर हम लोग आगे बढ़े। हम लोगों ने विचार किया कि हम स्वयं ही अपना लक्ष्य प्राप्त करने में समर्थ है, तब फिर हमें किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं है। जंगल बहुत विशाल और पथहीन था। वृक्ष इतने ऊँचे और घने थे कि सूर्य की किरणों का भी वहाँ पहुँच सकना कठिन था। परिणाम यह हुआ कि हम मार्ग भूल गये और बहुत समय तक यहाँ-वहाँ भटकते रहे। भाग्यवश हम लोग उसी स्थाने पर पुनः जा पहुँचे, जहाँ से पहले प्रस्थान किया था। तब वही बंजारा हमें पुनः मिला और कहने लगा कि अपने चातुर्य पर विश्वास कर आप लोगों को पथ की विस्मृति हो गई है। प्रत्येक कार्य में चाहे वह बड़ा हो या छोटा, मार्ग-दर्शक आवश्यक है। ईश्वर-प्रेरणा के अभाव में सत्पुरुषों से भेंट होना संभव नहीं। भूखे रहकर कोई कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। इसलिये यदि कोई आग्रहपूर्वक भोजन के लिये आमंत्रिित करे तो उसे अस्वीकार न करो। भोजन तो भगवान का प्रसाद है, उसे ठुकराना उचित नहीं। यदि कोई भोजन के लिये आग्रह करे तो उसे अपनी सफलता का प्रतीक जानो। इतना कहकर उसने भोजन करने का पुनः अनुरोध किया। फिर भी हम लोगों ने उसके अनुरोध की उपेक्षा कर भोजन करना अस्वीकार कर दिया। उसके सरल और गूढ़ उपदेशों की परीक्षा किये बिना ही मेरे तीन साथियों ने आगे को प्रस्थान कर दिया। अब पाठक ही अनुमान करें कि वे लोग कितने अहंकारी थे। मैं क्षुधा और तृषा से अत्यंत व्याकुल था ही, बंजारे के अपूर्व प्रेम ने भी मुझे आकर्षित कर लिया। यद्यपि हम लोग अपने को अत्यंत विद्धान समझते थे, परन्तु दया एवं कृपा किसे कहते है, उससे सर्वथा अनभिज्ञ ही थे। बंजारा था तो एक शूद्र, अनपढ़ और गँवार, परन्तु उसके हृदय में महान् दया थी, जिसने बारबार भोजन के लिये आग्रह किया। जो दूसरों पर निःस्वार्थ प्रेम करते है, सचमुच में ही महान् है। मैंनें सोचा कि इसका आग्रह स्वीकार कर लेना ज्ञान-प्राप्ति के हेतु शुभ आवाहन है और मैंने इसी कारण उसके दिये हुए रुखे-सूखे भोजन को आदर व प्रेमपूर्वक स्वीकार कर लिया।

क्षुधा-निवारण होते ही क्या देखता हूँ कि गुरुदेव तुरंत ही प्रगट हो गये और प्रश्न करने लगे कि यह सब क्या हो रहा था। घटित घटना मैंने तुरन्त ही उन्हें सुना दी। उन्होंने आश्वासन दिया कि मैं तुम्हारे हृदय की समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर दूँगा, परन्तु जिसका विश्वास मुझ पर होगा, सफलता केवल उसी को प्राप्त होगी । मेरे तीनों सहयोगी तो उनके वचनों पर अविश्वास कर वहाँ से चले गये। तब मैंने उन्हें आदरसहित प्रणाम किया और उनकी आज्ञा मानना स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् वे मुझे एक कुएँ के समीप ले गये और रस्सी से मेरे पैर बाँधकर मुझे कुएँ में उलटा लटका दिया। मेरा सिर नीचे और पैर ऊपर को थे। मेरा सिर जल से लगभग तीन फुट की ऊँचाई पर था, जिससे न मैं हाथों के द्धारा जल ही छू सकता था और न मुँह में ही उसके जा सकने की कोई सम्भावना थी। मुझे इस प्रकार उलटा लटका कर वे न जाने कहाँ चले गये। लगभग चार-पाँच घंटों के उपरांत वे लौटे और उन्होंने मुझे शीघ्र ही कुएँ से बाहर निकाला। फिर वे मुझसे पूछने लगे कि तुम्हें वहाँ कैसा प्रतीत हो रहा था। मैंने कहा कि मैं परम आनन्द का अनुभव कर रहा था। मेरे समान मूर्ख प्राणी भला ऐसे आनन्द का वर्णन कैसे कर सकता है। मेरे उत्तर सुन कर मेरे गुरुदेव अत्यंत ही प्रसन्न हुए और उन्होंनें मुझे अपने हृदय से लगाकर मेरी प्रशंसा की और मुझे अपने संग ले लिया। एक चिड़िया अपने बच्चों का जितनी सावधानी से लालन पालन करती है, उसी प्रकार उन्होंनें मेरा भी पालन किया। उन्होंने मुझे अपनी शाला में स्थान दिया। कितनी सुन्दर थी वह शाला। वहाँ मुझे अपने माता-पिता की भी विस्मृति हो गई। मेरे अन्य समस्त आकर्षण दूर हो गये और मैंनें सरलतापूर्वक बन्धनों से मुक्ति पाई। मुझे सदा ऐसा ही लगता था कि उनके हृदय से ही चिपके रहकर उनकी ओर निहारा करुँ। यदि उनकी भव्य मूर्ति मेरी दृष्टि में न समाती तो मैं अपने को नेत्रहीन होना ही अधिक श्रेयस्कर समझता। ऐसी प्रिय थी वह शाला कि वहाँ पहुँचकर कोई भी कभी खाली हाथ नहीं लौटा। मेरी समस्त निधि, घर, सम्पत्ति, माता, पिता या क्या कहूँ, वे ही मेरे सर्वस्व थे। मेरी इन्द्रयाँ अपने कर्मों को छोड़कर मेरे नेत्रों में केन्द्रित हो गई और मेरे नेत्र उन पर। मेरे लिये तो गुरु ऐसे हो चुके थे कि दिन-रात मैं उनके ही ध्यान में निमग्न रहता था। मुझे किसी भी बात की सुध न थी। इस प्रकार ध्यान और चिंतन करते हुए मेरा मन और बुद्धि स्थिर हो गई। मैं स्तब्ध हो गया और उन्हें मानसिक प्रणाम करने लगा। अन्य और भी आध्यात्मिक केन्द्र है, जहाँ एक भिन्न ही दृश्य देखने में आता है। साधक वहाँ ज्ञान प्राप्त करने को जाता है तथा द्रव्य और समय का अपव्यय करता है। कठोर पिरश्रम भी करता है, परन्तु अनत् में उसे पश्चाताप ही हाथ लगता है। वहाँ गुरु अपने गुप्त ज्ञान-भंडार का अभिमान प्रदर्शित करते है और अपने को निष्कलंक बतलाते है। वे अपनी पवित्रता और शुदृदता का अभिनय तो करते है, परन्तु उनके अन्तःकरण में दया लेशमात्र भी नहीं होती है। वे उपदेश अधिक देते है और अपनी कीर्ति का स्वयं ही गुणगान करते है, परन्तु उनके शब्द हृदयवेधी नहीं होते, इसलिये साधकों को संतोष प्राप्त नहीं होता। जहाँ तक आत्म-दर्शन का प्रश्न है, वे उससे कोसों दूर होते है। इस प्रकार के केंद्र साधकों को उपयोगी कैसे सिदृ हो सकते है और उनसे किसी उन्नति की आशा कोई कहाँ तक कर सकता है। जिन गुरु के श्री चरणं का मैंने अभी वर्णन किया है, वे भिन्न प्रकार के ही थे। केवल उनकी कृपा-दृष्टि से मुझे स्वतः ही अनुभूति प्राप्त हो गई तथा मुझे न कोई प्रयास और न ही कोई विशेष अध्ययन करना पड़ा। मुझे किसी भी वस्तु के खोजने की आवश्यकता नहीं पड़ी, वरन् प्रत्येक वस्तु मुझे दिन के प्रकाश के समान उज्जवल दिखाई देने लगी। केवल मेरे वे गुरु ही जानते है कि किस प्रकार उनके द्धारा कुएँ में मुझे उल्टा लटकाना मेरे लिये परमानंद का कारण सिदृ हुआ।

उन चार सहयोगियों में से एक महान कर्मकांडी था। किस प्रकार कर्म करना और उससे अलिप्त रहना, यह उसे भली भाँति ज्ञात था। दूसरा ज्ञानी था, जो सदैव ज्ञान के अहंकार में चूर रहता था। तीसरा ईश्वर भक्त था जो कि अनन्य भाव से भगवान् के शरणागत हो चुका था तथा उसे ज्ञात था कि ईश्वर ही कर्ता है। जब वे इस प्रकार परस्पर विचार-विनिमय कर रहे थे, तभी ईश्वर सम्बन्धी प्रश्न उठ पड़ा तथा वे बिना किसी से सहायात प्राप्त किये अपने स्वतंत्र ज्ञान पर निर्भर रहकर ईश्वर की खोज में निकल पड़े। श्री साई, जो विवेक और वैराग्य की प्रत्यक्ष मूर्ति थे, उन चारों लोगों में सम्मिलित थे। यहाँ कोई शंका कर सकता है कि जब साई स्वयं ही ब्रहमा के अवतार थे, तब वे उन लोगों के साथ क्यों सम्मिलित हुए और क्यों उन्होंने इस प्रकार अविदृतापूर्ण आचरण किया। जन-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर ही उन्होने ऐसा आचरण किया। स्वयं अवतार होते हुए भी और यह दृढ़ धारणा कर कि अन्न् ही ब्रहमा है, उन्होंने एक क्षुद्र बंजारे के भोजन को स्वीकार कर लिया तथा बंजारे के भोजन के आग्रह की उपेक्षा करने और बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त करने वालों की क्या दशा होती है, इसका उनके समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत किया। श्रुति (तैत्तिरीय उपतनिषद्) का कथन है कि हमें माता, पिता तथा गुरु का आदरसहित पूजन कर धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिये। ये चित्त-शुद्धि के मार्ग है और जब तक चित्त की शुद्धि नहीं होती, तब तक आत्मानुभूति की आशा व्यर्थ है। आत्मा इंद्रयों, मन और बुद्धि के परे है। इस विषय में ज्ञान और तर्क हमारी कोई सहायता नहीं कर सकते, केवल गुरु की कृपा से ही सब कुछ सम्भव है। धर्म, अर्थ, और काम की प्राप्ति अपने प्रयत्न से हो सकती है, परन्तु मोक्ष की प्राप्ति तो केवल गुरुकृपा से ही सम्भव है। श्री साई के दरबार में तरह-तरह के लोगों का दर्शन होता था। देखो, ज्योतिषी लोग आ रहे है और भविष्य का बखान कर रहे है। दूसरी ओर राजकुमार, श्रीमान्, सम्पन्न और निर्धन, सन्यासी, योगी और गवैये दर्शनार्थ चले आ रहे है। यहाँ तक कि एक अतिशूद्र भी दरबार में आता है और प्रणाम करने के पश्चात् कहता है कि साई ही मेरे माँ या बाप है और वे मेरा जन्म मृत्यु के चक्र से छुटकारा कर देंगें। और भी अनेकों –तमाशा करने वाले, कीर्तन करने वाले, अंधे, पंगु, नाथपन्थी, नर्तक व अन्य मनोरंजन करने वाले दरबार में आते थे, जहाँ उनका उचित मान किया जाता था और इसी प्रकार उपयुक्त समय पर, वह बंजारा भी प्रगट हुआ और जो अभिनय उसे सौंपा गया था, उसने उसको पूर्ण किया।

हमारे विचार से कुएं में 4-5 घंटे उलटे लटके रहना – इसे सामान्य घटना नहीं समझना चाहिए, क्योंकि ऐसा कोई बिरला ही पुरुष होगा, जो इस प्रकार अधिक समय तक, रस्सी से लटकाये जाने पर कष्ट का अनुभव न कर परमानंद का अनुभव करे। इसके विपरीत उसे पीड़ा होने की ही अधिक संभावना है। ऐसा प्रतीत होता है कि समाध-अवस्था का ही यहाँ चित्रण किया गया है। आनंद दो प्रकार के होते है – प्रथम ऐन्द्रिक और द्धितीय आध्यात्मिक। ईश्वर ने हमारी इन्द्रियों व तन मन की प्रवृत्तियों की रचना बाह्यमुखी की है। और जब वे (इन्द्रयाँ और मन) अपने विषयपदार्थों में संलग्न होती है, तब हमें इन्द्रय-चैतन्यता प्राप्त होती है, जिसके फलस्वरुप हमें सुख या दुःख का पृथक् या दोनों का सम्मिलित अनुभव होता है, न कि परमानंद का। जब इन्द्रयों और मन को उनके विषय पदार्थों से हटाकर अंतर्मुख कर आत्मा पर केन्द्रत किया जाता है, तब हमें आध्यात्मिक बोध होता है और उस समय के आनन्द का मुख से वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं परमानन्द में था तथा उस समय का वर्णन मैं कैसे कर सकता हूँ। इन शब्दों से ध्वनित होता है कि गुरु ने उन्हें समाधि अवस्था में रखकर चंचल इन्द्रयों और मनरुपी जल से दूर रखा।

उपवास और श्रीमती गोखले

बाबा ने स्वयं कभी उपवासा नहीं किया, न ही उन्होंने दूसरों को करने दिया। उपवास करने वालों का मन कभी शांत नहीं रहता, तब उन्हें परमार्थ की प्राप्ति कैसे संभव है। प्रथम आत्मा की तृप्ति होना आवश्यक है भूखे रहकर ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि पेट में कुछ अन्न की शीतलता न हो तो हम कौनसी आँख से ईश्वर को देखेंगे, किस जिह्वा से उनकी महानता का वर्णन करेंगे और किन कानों से उनका श्रवण करेंगे। सारांश यह कि जब समस्त इंद्रियों को यथेष्ठ भोजन व शांति मिलती है तथा जब वे बलिष्ठ रहती है, तब ही हम भक्ति और ईश्वर-प्राप्ति की अन्य साधनाएँ कर सकते है, इसलिये न तो हमें उपवास करना चाहिये और न ही अधिक भोजन। भोजन में संयम रखना शरीर और मन दोनों के लिये उत्तम है।

श्रीमती काशीबाई काननिटकर (श्रीसाईबाबा की एक भक्त) से परिचयपत्र लेकर श्रीमती गोखले, दादा केलकर के समीप शिरडी को आई। वे यह दृढ़ निश्चय कर के आई थीं कि बाबा के श्री चरणों में बैठकर तीन दिन उपवास करुँगी। उनके शिरडी पहुँचने के एक दिन पूर्व ही बाबा ने दादा केलकर से कहा कि मैं शिमगा (होली) के दिनों में अपने बच्चों को भूखा नहीं देख सकता है। यदि उन्हें भूखे रहना पड़ा तो मेरे यहाँ वर्तमान होने का लाभ ही क्या है। दूसरे दिन जब वह महिला दादा केलकर के साथ मसजिद में जाकर बाबा के चरण-कमलों के समीप बैठी तो तुरंत बाबा ने कहा, उपवास की आवश्यकता ही क्या है। दादा भट के घर जाकर पूरनपोली तैयार करो। अपने बच्चों को खिलाओ और स्वयं खाओ। वे होली के दिन थे और इस समय श्रीमती केलकर मासिक धर्म से थी। दादा भट के घर में रसोई बनाने के लिये कोई न था और इसलिये बाबा की युक्ति बड़ी सामयिक थी। श्रीमती गोखले ने दादा भट के घर जाकर भोजन तैयार किया और दूसरों को भोजन कराकर स्वयं भी खाया। कितनी सुंदर कथा है और कितनी सुन्दर उसकी शिक्षा।

बाबा के सरकार


बाबा ने अपने बचपन की एक कहानी का इस प्रकार वर्णन किया –

जब मैं छोटा था, तब जीविका उपार्नार्थ मैं बीडगाँव आया। वहाँ मुझे जरी का काम मिल गया और मैं पूर्ण लगन व उम्मीद से अपना काम करने लगा। मेरा काम देखकर सेठ बहुत ही प्रसन्न हुआ। मेरे साथ तीन लड़के और भी काम करते थे। पहले का काम 50 रुपये का, दूसरे का 100 रुपये का और तीसरे का 150 रुपये का हुआ। मेरा काम उन तीनों से दुगुना हो गया। मेरी चतुराई देखकर सेठ बहुत ही प्रसन्न हुआ। वह मुझे अधिक चाहता था और मेरी प्रशंसा भी करता रहता था। उसने मुझे एक पूरी पोशाक प्रदान की, जिसमें सिर के लिये एक पगड़ी और शरीर के लिये एक शेला भी थी। मेरे पास वह पोशक वैसी ही रखी रही। मैंने सोचा कि जो कुछ मुष्य-निर्मित है, वह नाशवान् और अपूर्ण है, परन्तु जो कुछ मेरे सरकार द्धारा प्राप्त होगा, वही अन्त तक रहेगा। किसी भी मनुष्य के उपहार की उससे समानता संभव नहीं है। मेरे सरकार कहते है ले जाओ। परन्तु लोग मेरे पास आकर कहते है मुझे दो, मुझे दो। जो कुछ मैं कहता हूँ उसके अर्थ पर कोई ध्यान देने का प्रयत्न नहीं करता। मेरे सरकार का खजाना (आध्यात्मिक भंडार) भरपूर है और वह ऊपर से बह रहा है। मैं तो कहता हूँ कि खोदकर गाड़ी में भरकर ले जाओ। जो सच्ची माँ का लाल होगा, उसे स्वयं ही भरना चाहिए। मेरे फकीर की कला, मेरे भगवान् की लीला और मेरे सरकार का बर्ताव सर्वथा अद्धितीय है। मेरा क्या, यह शरीर मिट्टी में मिलकर सारे भूमंडल में व्याप्त हो जायेगा तथा फिर यह अवसर कभी प्राप्त न होगा। मैं चाहें कहीं जाता हूँ या कहीं बैठता हूँ, परन्तु माया फिर भी मुझे कष्ट पहुँचाती है। इतना होने पर भी मैं अपने भक्तों के कल्याणार्थ सदैव उत्सुक ही रहता हूँ। जो कुछ भी कोई करता है, एक दिन उसका फल उसको अवश्य प्राप्त होगा और जो मेरे इन वचनों को स्मरण रखेगा, उसे मौलिक आनन्द की प्राप्ति होगी।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

शनिवार, 6 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-30 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 30

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-30

शिरडी को खींचे गये भक्त - वणी के काका वैघ, 
खुशालचंद, 
बम्बई के रामलाल पंजाबी।

इस अध्याय में बतलाया गया है कि तीन अन्य भक्त किस प्रकार शिरडी की ओर खींचे गये।

प्राक्कथन

जो बिना किसी कारण भक्तों पर स्नेह करने वाले दया के सागर है तथा निर्गुण होकर भी भक्तों के प्रेमवश ही जिन्होंने स्वेच्छापूर्वक मानव शरीर धारण किया, जो ऐसे भक्त और समस्त कष्ट दूर हो जाते है, ऐसे श्री साईनाथ महाराज को हम क्यों न नमन करें। भक्तों को आत्मदर्शन कराना ही सन्तों का प्रधान कार्य है। श्री साई, जो सन्त शिरोमणि है, उनका तो मुख्य ध्येय ही यही है। जो उनके श्री-चरणों की शरण में जाते है, उनके समस्त पाप नष्ट होकर निश्चित ही दिन-प्रतिदिन उनकी प्रगति होती है। उनके श्री-चरणों का स्मरण कर पवित्र स्थानों से भक्तगण शिरडी आते और उनके समीप बैठकर श्लोक पढ़कर गायत्री-मंत्र का जप किया करते थे। परन्तु जो निर्बल तथा सर्व प्रकार से दीन-हीन है और जो यह भी नहीं जानते कि भक्ति किसे कहते है, उनका तो केवल इतना ही विश्वास है कि अन्य सब लोग उन्हें असहाय छोड़कर उपेक्षा भले ही कर दे, परन्तु अनाथों के नाथ और प्रभु श्री साई मेरा कभी परित्याग न करेंगे। जिन पर वे कृपा करे, उन्हें प्रचण्ड शक्ति, नित्यानित्य में विवेक तथा ज्ञान सहज ही प्राप्त हो जाता है।

वे अपने भक्तों की इच्छायें पूर्णतः जानकर उन्हें पूर्ण किया करते है, इसीलिये भक्तों को मनोवांछित फल की प्राप्ति हो जाया करती है और वे सदा कृतज्ञ बने रहते है। हम उन्हें साष्टांग प्रणाम कर प्रार्थना करते है कि वे हमारी त्रुटियों की ओर ध्यान न देकर हमें समस्त कष्टों से बचा लें। जो विपति-ग्रस्त प्राणी इस प्रकार श्री साई से प्रार्थना करता है, उनकी कृपा से उसे पूर्ण शान्ति तथा सुख-समृद्धि प्राप्त होती है।

श्री हेमाडपंत कहते है कि हे मेरे प्यारे साई। तुम तो दया के सागर हो। यह तो तुम्हारी ही दया का फल है, जो आज यह साई सच्चरित्र भक्तों के समक्ष प्रस्तुत है, अन्यथा मुझमें इतनी योग्यता कहाँ थी, जो ऐसा कठिन कार्य करने का दुस्साहस भी कर सकता। जब पूर्ण उत्ततरदायित्व साई ने अपने ऊपर ही ले लिया तो हेमाडपंत को तिलमात्र भी भार प्रतीत न हुआ और न ही इसकी उन्हें चिन्ता ही हुई। श्री साई ने इस ग्रन्थ के रुप में उनकी सेवा स्वीकार कर ली। यह केवल उनके पूर्वजन्म के शुभ संस्कारों के कारण ही सम्भव हुआ, जिसके लिये वे अपने को भाग्यशाली और कृतार्थ समझते है।

नीचे लिखी कथा कपोलकल्पित नहीं, वरन् विशुदृ अमृततुल्य है। इसे जो हृदयंगम करेगा, उसे श्री साई की महानता और सर्वव्यापकता विदित हो जायेगी, परन्तु जो वादविवाद और आलोचना करना चाहते है, उन्हें इन कथाओं की ओर ध्यान देने की आवश्यकता भी नहीं है। यहाँ तर्क की नहीं, वरन् प्रगाढ़ प्रेम और भक्ति की अत्यन्त अपेक्षा है। विद्धान् भक्त तथा श्रद्धालु जन अथवा जो अपने को साई-पद-सेवक समझते है, उन्हें ही ये कथाएँ रुचिकर तथा शिक्षाप्रद प्रतीत होगी, अन्य लोगों के लिये तो वे निरी कपोल-कल्पनाएँ ही है। श्री साई के अंतरंग भक्तों को श्री साईलीलाएँ कल्पतरु के सदृश है। श्री साई-लीलारुपी अमृतपान करने से अज्ञानी जीवों को मोक्ष, गृहस्थाश्रमियों को सन्तोष तथा मुमुक्षुओं को एक उच्च साधन प्राप्त होता है। अब हम इस अध्याय की मूल कथा पर आते है।

काका जी वैघ

नासिक जिले के वणी ग्राम में काका जी वैघ नाम के एक व्यक्ति रहते थे। वे श्रीसप्तशृंगी देवी के मुख्य पुजारी थे। एक बार वे विपत्तियों में कुछ इस प्रकार ग्रसित हुए कि उनके चित्त की शांति भंग हो गई और वे बिलकुल निराश हो उठे। एक दिन अति व्यथित होकर देवी के मंदिर में जाकर अन्तःकरण से वे प्रार्थना करने लगे कि हे देवि। हे दयामयी। मुझे कष्टों से शीघ्र मुक्त करो। उनकी प्रार्थना से देवी प्रसन्न हो गई और उसी रात्रि को उन्हें स्वप्न में बोली कि तू बाबा के पास जा, वहाँ तेरा मन शान्त और स्थिर हो जायेगा। बाबा का परिचय जानने को काका जी बड़े उत्सुक थे, परन्तु देवी से प्रश्न करने के पूर्व ही उनकी निद्रा भंग हो गई। वे विचारने लगे कि ऐसे ये कौन से बाबा है, जिनकी ओर देवी ने मुझे संकेत किया है। कुछ देर विचार करने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सम्भव है कि वे त्र्यंबकेश्वर बाबा (शिव) ही हों। इसलिये वे पवित्र तीर्थ त्र्यंबक (नासिक) को गये और वहाँ रहकर दस दिन व्यतीत किये। वे प्रातःकाल उठकर स्नानादि से निवृत्त हो, रुद्र मंत्र का जप कर, साथ ही साथ अभिषेक व अन्य धार्मिक कृत्य भी करने लगे। परन्तु उनका मन पूर्ववत् ही अशान्त बना रहा। तब फिर अपने घर लौटकर वे अति करुण स्वर में देवी की स्तुति करने लगे। उसी रात्रि में देवी ने पुनः स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि तू व्यर्थ ही त्र्यम्बकेश्वर क्यों गया। बाबा से तो मेरा अभिप्राय था शिरडी के श्री साई समर्थ से। अब काका जी के समक्ष मुख्य प्रश्न यह उपस्थित हो गया कि वे कैसे और कब शिरडी जाकर बाबा के श्री दर्शन का लाभ उठायें। यथार्थ में यदि कोई व्यक्ति, किसी सन्त के दर्शने को आतुर हो तो केवल सन्त ही नही, भगवान् भी उसकी इच्छा पूर्ण कर देते है। वस्तुतः यदि पूछा जाय तो सन्त और अनन्त एक ही है और उनमें कोई भिन्नता नही। यदि कोई कहे कि मैं स्वतः ही अमुक सन्त के दर्शन को जाऊँगा तो इसे निरे दम्भ के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है। सन्त की इच्छा के विरुदृ उनके समीप कौन जाकर द्रर्शन ले सकता है। उनकी सत्ता के बिना वृक्ष का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। जितनी तीव्र उत्कंठा संत दर्शन की होती, तदनुसार ही उसकी भक्ति और विश्वास में वृद्धि होती जायेगी और उतनी ही शीघ्रता से उनकी मनोकामना भी सफलतापूर्वक पूर्ण होगी। जो निमंत्रण देता है, वह आदर आतिथ्य का प्रबन्ध भी करता है। काका जी के सम्बन्ध में सचमुच यही हुआ ।

शामा की मान्यता

जब काका जी शिरडी यात्रा करने का विचार कर रहे थे, उसी समय उनके यहाँ एक अतिथि आया (जो शामा के अतिरिक्त और कोई न था)। शामा बाबा के अंतरंग भक्तों में से एक थे। वे ठीक इसी समय वणी में क्यों और कैसे आ पहुँचे, अब हम इस पर दृष्टि डालें। बाल्यावस्था में वे एक बार बहुत बीमार पड़ गये थे। उनकी माता ने अपनी कुलदेवी सप्तशृंगी से प्रार्थना की कि यदि मेरा पुत्र नीरोग हो जाये तो मैं उसे तुम्हारे चरणों पर लाकर डालूँगी। कुछ वर्षों के पश्चात् ही उनकी माता के स्तन में दाद हो गई। तब उन्होंने पुनः देवी से प्रार्थना की कि यदि मैं रोगमुक्त हो जाऊँ तो मैं तुम्हें चाँदी के दो स्तन चाढाऊँगी। पर ये दोनों वचन अधूरे ही रहे। परन्तु जब वे मृत्युशैया पर पड़ी तो उन्होंने अपने पुत्र शामा को समीप बुलाकर उन दोनों वचनों की स्मृति दिलाई तथा उन्हें पूर्ण करने का आश्वासन पाकर प्राण त्याग दिये। कुछ दिनों के पश्चात् वे अपनी यह प्रतिज्ञा भूल गये और इसे भूले पूरे तीस साल व्यतीत हो गये। तभी एक प्रसिदृ ज्योतिषी शिरडी आये और वहाँ लगभग एक मास ठहरे। श्री मान् बूटीसाहेब और अन्य लोगों को बतलाये उनके सभी भविष्य प्रायः सही निकले, जिनसे सब को पूर्ण सन्तोष था। शामा के लघुभ्राता बापाजी ने भी उनसे कुछ प्रश्न पूछे। तब ज्योतिषी ने उन्हें बताया कि तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता ने अपनी माता को मृत्युशैया पर जो वचन दिये थे, उनके अब तक पूर्ण न किये जाने के कारण देवी असन्तुष्ट होकर उन्हें कष्ट पहुँचा रही है। ज्योतिषी की बात सुनकर शामा को उन अपूर्ण वचनों की स्मृति हो आई। अब और विलम्ब करना खतरनाक समझकर उन्होंने सुनार को बुलाकर चाँदी के दो स्तन शीघ्र तैयार कराये और उन्हें मसजिद मे ले जाकर बाबा के समक्ष रख दिया तथा प्रणाम कर उन्हें स्वीकार कर वचनमुक्त करने की प्रार्थना की। शामा ने कहा कि मेरे लिये तो सप्तशृंगी देवी आप ही है, परन्तु बाबा ने साग्रह कहा कि तुम इन्हें स्वयं ले जाकर देवी के चरणों में अर्पित करो। बाबा की आज्ञा व उदी लेकर उन्होंने वणी को प्रस्थान कर दिया। पुजारी का घर पूछते-पूछते वे काका जी के पास जा पहुँचे। काका जी इस समय बाबा के दर्शनों को बड़े उत्सुक थे और ठीक ऐसे ही मौके पर शामा भी वहाँ पहुँच गये। वह संयोग भी कैसा विचित्र था। काका जी ने आगन्तुक से उनका परिचय प्राप्त कर पूछा कि आप कहाँ से पधार रहे है। जब उन्होंने सुना कि वे शिरडी से आ रहे तो वे एकदम प्रेमोन्मत हो शामा से लिपट गये और फिर दोनों का श्री साई लीलाओं पर वार्तालाप आरम्भ हो गया। अपने वचन संबंधी कृत्यों को पूर्ण कर वे काकाजी के साथ शिरडी लौट आये। काकाजी मसजिद पहुँच कर बाबा के श्रीचरणों से जा लिपटे। उनके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगी और उनका चित्त स्थिर हो गया। देवी के दृष्टांतानुसार जैसे ही उन्होंनें बाबा के दर्शन किये, उनके मन की अशांति तुरन्त नष्ट हो गई और वे परम शीतलता का अनुभव करने लगे। वे विचार करने लगे कि कैसी अदभुत शक्ति है कि बिना कोई सम्भाषण या प्रश्नोत्तर किये अथवा आशीष पाये, दर्शन मात्र से ही अपार प्रसन्नता हो रही है। सचमुच में दर्शन का महत्व तो इसे ही कहते है। उनके तृषित नेत्र श्री साई-चरणों पर अटक गये और वे अपनी जिह्वा से एक शब्द भी न बोल सके। बाबा की अन्य लीलाएँ सुनकर उन्हें अपार आनन्द हुआ और वे पूर्णतः बाबा के शरणागत हो गये। सब चिन्ताओं और कष्टों को भूलकर वे परम आनन्दित हुए। उन्होंने वहाँ सुखपूर्वक बारह दिन व्यतीत किये और फिर बाबा की आज्ञा, आशीर्वाद तथा उदी प्राप्त कर अपने घर लौट गये।

खुशालचन्द (राहातानिवासी)

ऐसा कहते है कि प्रातःबेला में जो स्वप्न आता है, वह बहुधा जागृतावस्था में सत्य ही निकलता है। ठीक है, ऐसा ही होता होगा। परन्तु बाबा के सम्बन्ध में समय का ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं था। ऐसा ही एक उदाहरण प्रस्तुत है – बाबा ने एक दिन तृतीय प्रहर काकासाहेब को ताँगा लेकर राहाता से खुशालचन्द को लाने के लिये भेजा, क्योंकि खुशालचन्द से उनकी कई दोनों से भेंट न हुई थी। राहाता पहुँच कर काकासाहेब ने यह सन्देश उन्हें सुना दिया। यह सन्देश सुनकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ और वे कहने लगे कि दोपहर को भोजन के उपरान्त थोड़ी देर को मुझे झपकी सी आ गई थी, तभी बाबा स्वप्न में आये और मुझे शीघ्र ही शिरडी आने को कहा। परन्तु घोडे का उचित प्रबन्ध न हो सकने के कारण मैंने अपने पुत्र को यह सूचना देने के लिये ही उनके पास भेजा था। जब वह गाँव की सीमा तक ही पहुँचा था, तभी आप सामने से ताँगे में आते दिखे।

वे दोनों उस ताँगे में बैठकर शिरडी पहुँचे तथा बाबा से भेंटकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। बाबा की यह लीला देख खुशालचन्द गदगद हो गये।

बम्बई के रामलाल पंजाबी

बम्बई के एक पंजाबी ब्राहमण श्री. रामलाला को बाबा ने स्वप्न में एक महन्त के वेश में दर्शन देकर शिरडी आने को कहा। उन्हें नाम ग्राम का कुछ भी पता चल न रहा था। उनको श्री-दर्शन करने की तीव्र उत्कंठा तो थी, परन्तु पता-ठिकाना ज्ञात न होने के कारण वे बड़े असमंजस में पड़े हुये थे। जो आमंत्रण देता है, वही आने का प्रबन्ध भी करता है और अन्त में हुआ भी वैसा ही। उसी दिन सन्ध्या समय जब वे सड़क पर टहल रहे थे तो उन्होंने एक दुकान पर बाबा का चित्र टंगा देखा। स्वप्न में उन्हें जिस आकृति वाले महन्त के दर्शन हुए थे, वे इस चित्र के समक्ष ही थे। पूछताछ करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि यह चित्र शिरडी के श्री साई समर्थ का है और तब उन्होंने शीघ्र ही शिरडी को प्रस्थान कर दिया तथा जीवनपर्यन्त शिरडी में ही निवास किया।

इस प्रकार बाबा ने अपने भक्तों को अपने दर्शन के लिये शिरडी में बुलाया और उनकी लौकिक तथा पारलौकिक समस्त इच्छाँए पूर्ण की।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

शुक्रवार, 5 मार्च 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-29 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH - 29

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-29

मद्रासी भजनी मेला, तोंडुलकर (पिता व पुत्र), 
डॉक्टर कैप्टन हाटे और वामन नार्वेकर आदि की कथाएँ।

मद्रासी भजनी मेला

लगभग सन् 1916 में एक मद्रासी भजन मंडली पवित्र काशी की तीर्थयात्रा पर निकली। उस मंडली में एक पुरुष, उनकी स्त्री, पुत्री और साली थी। अभाग्यवश, उनके नाम यहाँ नहीं दिये जा रहे है। मार्ग में कहीं उनको सुनने में आया कि अहमदनगर के कोपरगाँव तालुका के शिरडी ग्राम में श्री साईबाबा नाम के एक महान् सन्त रहते है, जो बहुत दयालु और पहुँचे हुए है। वे उदार हृदय और अहेतुक कृपासिन्धु है। वे प्रतिदिन अपने भक्तों को रुपया बाँटा करते है। यदि कोई कलाकार वहाँ जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करता है तो उसे भी पुरस्कार मिलता है। प्रतिदिन दक्षिणा में बाबा के पास बहुत रुपये इकट्ठे हो जाया करते थे। इन रुपयों में से वे नित्य एक रुपया भक्त कोण्डाजी की तीनवर्षीय कन्या अमनी को, किसी को दो रुपये से पाँच रुपये तक, छः रुपये अमनी की माली को और दस से बीस रुपये तक और कभी-कभी पचास रुपये भी अपनी इच्छानुसार अन्य भक्तों को भी दिया करते थे। यह सुनकर मंडली शिरडी आकर रुकी। मंडली बहुत सुन्दर भजन और गायन किया करती थी, परन्तु उनका भीतरी ध्येय तो द्रव्योपार्जन ही था। मंडली में तीन व्यक्ति तो बड़े ही लालची थे। केवल प्रधान स्त्री का ही स्वभाव इन लोगों से सर्वथा भिन्न था। उसके हृदय में बाबा के प्रति श्रद्धा और विश्वास देखकर बाबा प्रसन्न हो गये। फिर क्या था। बाबा ने उसे उसके इष्ट के रुप में दर्शन दिये और केवल उसे ही बाबा सीतानाथ के रुप में दिखलाई दिये, जब कि अन्य उपस्थित लोगों को सदैव की भाँति ही। अपने प्रिय इष्ट का दर्शन पाकर वह द्रवित हो गई तथा उसका कंठ रुँध गया और आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। तभी प्रेमोन्मत हो वह ताली बजाने लगी। उसको इस प्रकार आनन्दित देख लोगों को कौतूहल तो होने लगा, परन्तु कारण किसी को भी ज्ञात न हो रहा था। दोपहर के पश्चात उसने वह भेद अपने पति से प्रगट किया। बाबा के श्रीरामस्वरुप में उसे कैसे दर्शन हुए इत्यादि उसने सब बताया। पति ने सोचा कि मेरी स्त्री बहुत भोली और भावुक है, अतः इसे राम का दर्शन होना एक मानसिक विकार के अतिरिक्त कुछ नहीं है। उसने ऐसा कहकर उसकी उपेक्षा कर दी कि कहीं यह भी संभव हो सकता है कि केवल तुम्हें ही बाबा राम के रुप में दिखे ओर अन्य लोगों को सदैव की भाँति ही। स्त्री ने कोई प्रतिवाद न किया, क्योंकि उसे राम के दर्शन जिस प्रकार उस समय हुए थे, वैसे ही अब भी हो रहे थे। उसका मन शान्त, स्थिर और संतृप्त हो चुका था।

आश्चर्यजनक दर्शन

इसी प्रकार दिन बीतते गये। एक दिन रात्रि में उसके पति को एक विचित्र स्वप्न आया। उसने देखा कि एक बड़े शहर में पुलिस ने गिरफ्तार कर डोरी से बाँधकर उसे कारावास में डाल दिया है। तत्पश्चात् ही उसने देखा कि बाबा शान्त मुद्रा में सींकचों के बाहर उसके समीप खड़े है। उन्हें अपने समीप खड़े देखकर वह गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि आपकी कीर्ति सुनकर ही मैं आपके श्रीचरणों में आया हूँ। फिर आपके इतने निकट होते हुए भी मेरे ऊपर यह विपत्ति क्यों आई।

तब वे बोले कि तुम्हें अपने बुरे कर्मों का फल अवश्य भुगतना चाहिये। वह पुनः बोला कि इस जीवन में मुझे अपने ऐसे कर्म की स्मृति नही, जिसके कारण मुझे ये दुर्दिन देखने का अवसर मिला। बाबा ने कहा कि यदि इस जन्म में नहीं तो गत जन्म की कोई स्मृति नहीं, परन्तु यदि एक बार मान भी लूँ कि कोई बुरा कर्म हो भी गया होगा तो अपने यहाँ होते हुए तो उसे भस्म हो जाना चाहिये, जिस प्रकार सूखी घास अग्नि द्धारा शीघ्र भस्म हो जाती है। बाबा ने पूछा, क्या तुम्हारा सचमुच ऐसा दृढ़ विश्वास है। उसने कहा... हाँ।

बाबा ने उससे अपनी आँखें बन्द करने को कहा और जब उसने आँखें बन्द की, उसे किसी भारी वस्तु के गिरने की आहट सुनाई दी। आँखें खोलने पर उसने अपने को कारावास से मुक्त पाया। पुलिस वाला नीचे गिरा पड़ा है तथा उसके शरीर से रक्त प्रवाहित हो रहा है, यह देखकर वह अत्यन्त भयभीत दृष्टि से बाबा की ओर देखने लगा। तब बाबा बोले कि बच्चू। अब तुम्हारी अच्छी तरह खबर ली जायेगी। पुलिस अधिकारी अभी आवेंगे और तुम्हें गिरफ्तार कर लेंगे। तब वह गिड़गिड़ा कर कहने लगा कि आपके अतिरिक्त मेरी रक्षा और कौन कर सकता है। मुझे तो एकमात्र आपका ही सहारा है। भगवान् मुझे किसी प्रकार बचा लीजिये।

तब बाबा ने फिर उससे आँखें बन्द करने को कहा। आँखे खोलने पर उसने देखा कि वह पूर्णतः मुक्त होकर सींकचों के बाहर खड़ा है और बाबा भी उसके समीप ही कड़े है। तब वह बाबा के श्रीचरणों पर गिर पड़ा।

बाबा ने पूछा कि मुझे बताओ तो, तुम्हारे इस नमस्कार और पिछले नमस्कारों में किसी प्रकार की भिन्नता है या नहीं। इसका उत्तर अच्छी तरह सोच कर दो।

वह बोला कि आकाश और पाताल में जो अन्तर है, वही अंतर मेरे पहले और इस नमस्कारा में है। मेरे पूर्व नमस्कार तो केवल धन-प्राप्ति की आशा से ही थे, परन्तु यह नमस्कार मैंने आपको ईश्वर जानकर ही किया है। पहले मेरी धारणा ऐसी थी कि यवन होने के नाते आप हिन्दुओं का धर्म भ्रष्ट कर रहे है।

बाबा ने पूछा कि क्या तुम्हारा यवन पीरों में विश्वास नहीं। प्रत्युत्तर में उसने कहा – जी नहीं। तब वे फिर पुछने लगे कि क्या तुम्हारे घर में एक पंजा नही। क्या तुम ताबूत की पूजा नहीं करते। तुम्हारे घर में अभी भी एक काडबीबी नामक देवी है, जिसके सामने तुम विवाह तथा अन्य धार्मिक अवसरों पर कृपा की भीख माँगा करते हो।

अन्त में जब उसने स्वीकार कर लिया तो वे बोले कि इससे अधिक अब तुम्हे क्या प्रमाण चाहिये। तब उनके मन में अपने गुरु श्रीरामदास के दर्शनों की इच्छा हुई। बाबा ने ज्यों ही उससे पीछे घूमने को कहा तो उसने देखा कि श्रीरामदास स्वामी उसके सामने खड़े है और जैसे ही वह उनके चरणों पर गिरने को तत्पर हुआ, वे तुन्त अदृश्य हो गये।

तब वह बाबा से कहने लगा कि आप तो वृदृ प्रतीत होते है। क्या आपको अपनी आयु विदित है।

बाबा ने पूछा कि तुम क्या कहते हो कि मैं बूढ़ा हूँ। थोड़ी दूर मेरे साथ दौड़कर तो देखो। ऐसा कहकर बाबा दौड़ने लगे और वह भी उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। दौड़ने से पैरों द्धारा जो धूल उड़ी, उसमें बाबा लुप्त हो गये और तभी उसकी नींद भी खुल गई।

जागृत होते ही वह गम्भीरतापूर्वक इस स्वप्न पर विचार करने लगा। उसकी मानसिक प्रवृत्ति में पूर्ण परिवर्तन हो गया। अब उसे बाबा की महानता विदित हो चुकी थी। उसकी लोभी तथा शंकालु वृत्ति लुप्त हो गयी और हृदय में बाबा के चरणों के प्रति सच्ची भक्ति उमड़ पड़ी। वह था तो एक स्वप्न मात्र ही, परन्तु उसमें जो प्रश्नोत्तर थे, वे अधिक महत्वपूर्ण थे। दूसरे दिन जब सब लोग मसजिद में आरती के निमित्त एकत्रित हुए, तब बाबा ने उसे प्रसाद में लगभग दो रुपये की मिठाई और दो रुपये नगद अपने पास से देकर आर्शीवाद दिया। उसे कुछ दिन और रोककर उन्होंने आशीष देते हुए कहा कि अल्ला तुम्हें बहुत देगा और अब सब अच्छा ही करेगा। बाबा से उसे अधिक द्रव्य की प्राप्ति तो न हुई, परन्तु उनकी कृपा उसे अवश्य ही प्राप्त हो गई, जिससे उसका बहुत ही कल्याण हुआ। मार्ग में उनको यथेष्ठ द्रव्य प्राप्त हुआ और उनकी यात्रा बहुत ही सफल रही। उन्हें यात्रा में कोई कष्ट या असुविधा न हुई और वे अपने घर सकुशल पहुँच गये। उन्हें बाबा के श्रीवचनों तथा आर्शीवाद और उनकी कृपा से प्राप्त उस आनन्द की सदैव स्मृति बनी रही।

इस कथा से विदित होता है कि बाबा किस प्रकार अपने भक्तों के समीप पधारकर उन्हें श्रेयस्कर मार्ग पर ले आते थे और आज भी ले आते है।

तेंडुलकर कुटुम्ब

बम्बई के पास बान्द्रा में एक तेंडुलकर कुटुम्ब रहता था, जो बाबा का पूरा भक्त था। श्रीयुत् रघुनाथराव तेंडुलकर ने मराठी भाषा में श्रीसाईनाथ भजनमाला नामक एक पुस्तक लिखी है, जिसमें लगभग आठ सौ अभंग और पदों का समावेश तथा बाबा की लीलाओं का मधुर वर्णन है। यह बाबा के भक्तों के पढ़ने योग्य पुस्तक है। उनका ज्येष्ठ पुत्र बाबू डॉक्टरी परीक्षा में बैठने के लिये अनवरत अभ्यास कर रहा था। उसने कई ज्योतिषियों को अपनी जन्म-कुंडली दिखाई, परन्तु सभी ने बतलाया कि इस वर्ष उसके ग्रह उत्तम नहीं है किन्तु अग्रिम वर्ष परीक्षा में बैठने से उसे अवश्य सफलता प्राप्त होगी। इससे उसे बड़ी निराशा हुई और वह अशांत हो गया। थोड़े दिनों के पश्चात् उसकी माँ शिरडी गई और उसने वहाँ बाबा के दर्शन किये। अन्य बातों के साथ उसने अपने पुत्र की निराशा तथा अशान्ति की बात भी बाबा से कही। उनके पुत्र को कुछ दिनों के पश्चात् ही परीक्षा में बैठना था। बाबा कहने लगे कि अपने पुत्र से कहो कि मुझ पर विश्वास रखे। सब भविष्य कथन तथा ज्योतिषियों द्धारा बनाई कुंडलियों को एक कोने में फेंक दे और अपना अभ्यास-क्रम चालू रख शान्तचित्त से परीक्षा में बैठे। वह अवश्य ही इस वर्ष उत्तीर्ण हो जायेगा। उससे कहना कि निराश होने की कोई बात नहीं है। माँ ने घर आकर बाब का सन्देश पुत्र को सुना दिया। उसने घोर परिश्रम किया और परीक्षा में बैठ गया। सब प्रश्नों के जवाब बहुत अच्छे लिखे थे। परन्तु फिर भी संशयग्रस्त होकर उसने सोचा कि सम्भव है कि उत्तीर्ण होने योग्य अंक मुझे प्राप्त न हो सकें। इसीलिये उसने मौखिक परीक्षा में बैठने का विचार त्याग दिया। परीक्षक तो उसके पीछे ही लगा था। उसने एक विद्धार्थी द्धारा सूचना भेजी कि उसे लिखित परीक्षा में तो उत्तीर्ण होने लायक अंक प्राप्त है। अब उसे मौखिक परीक्षा में अवश्य ही बैठना चाहिये। इस प्रकार प्रोत्साहन पाकर वह उसमें भी बैठ गया तथा दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गया। उस वर्ष उसकी ग्रह-दशा विपरीत होते हुए भी बाबा की कृपा से उसने सफलता पायी। यहाँ केवल इतनी ही बात ध्यान देने योग्य है कि कष्ट और संशय की उत्पत्ति अन्त में दृढ़ विश्वास में परिणत हो जाती है। जैसी भी हो, परीक्षा तो होती ही है, परन्तु यदि हम बाबा पर दृढ़ विश्वास और श्रद्धा रखकर प्रयत्न करते रहे तो हमें सफलता अवश्य ही मिलेगी ।

इसी बालक के पिता रघुनाथराव बम्बई की एक विदेशी व्यवसायी फर्म में नौकरी करते थे। वे बहुत वृदृ हो चुके थे और अपना कार्य सुचारु रुप से नहीं कर सकते थे। इसलिये वे अब छुट्टी लेकर विश्राम करना चाहते थे। छुट्टी लेने पर भी उनके शारीरिक स्वास्थ्य में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ। अब यह आवश्यक था कि सेवानिवृत्ति की पूर्वकालिक छुट्टी ली जाय। एक वृदृ और विश्वासपात्र नौकर होने के नाते प्रधान मैनेजर ने उन्हें पेन्शन देर सेवा-निवृत्त करने का निर्णय किया। पेन्शन कितनी दी जाय, यह प्रश्न विचाराधीन था। उन्हें 150 रुपये मासिक वेतन मिलता था। इस हिसाब से पेन्शन हुई 75 रुपये, जो कि उनके कुटुम्ब के निर्वाह हेतु अपर्याप्त थी। इसलिये वे बड़े चिन्तित थे। निर्णय होने के पन्द्रह दिन पूर्व ही बाबा ने श्रीमती तेंडुलकर को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि मेरी इच्छा है कि पेन्शन 100 रुपये दी जाय। क्या तुम्हें इससे सन्तोष होगा।

श्रीमती तेंडुलकर ने कहा कि बाबा मुझे दासी से आप क्या पूछते है हमें तो आपके श्री-चरणों में पूर्ण विश्वास है।

यद्यपि बाबा ने 100 रुपये कहे थे, परन्तु उसे विशेष प्रकरण समझकर 10 रुपये अधिक अर्थात् 110 रुपये पेन्शन निश्चित हुई। बाबा अपने भक्तों के लिये कितना अपरिमित स्नेह और कितनी चिन्ता रखते थे।

कैप्टन हाटे

बीकानेर के निवासी कैप्टन हाटे बाबा के परम भक्त थे। एक बार स्वप्न में बाबा ने उनसे पूछा कि क्या तुम्हें मेरी विस्मृति हो गई। श्री. हाटे ने उनके श्रीचरणों से लिफ्ट कर कहा कि यदि बालक अपनी माँ को भूल जाये तो क्या वह जीवित रह सकता है।

इतना कहकर श्री. हाटे शीघ्र बगीचे में जाकर कुछ वलपपडी (सेम) तोड़ लाये और एक थाली में सीधा (सूखी भिश्रा) तथा दक्षिणा रखकर बाबा को भेंट करने आये। उसी समय उनकी आँखें खुल गई और उन्हें ऐसा भान हुआ कि यह तो एक स्वप्न था। फिर वे सब वस्तुएँ जो उन्होंने स्वप्न में देखी थी, बाबा के पास शिरडी भेजने का निश्चय कर लिया। कुछ दिनों के पश्चात् वे ग्वालियर आये और वहाँ से अपने एक मित्र को बारह रुपयों का मनीआर्डर भेजकर पत्र में लिख भेजा कि दो रुपयों में सीधा की सामग्री और वलपपड़ी (सेम) आदि मोल लेकर तथा दस रुपये दक्षिणास्वरुप साथ में रखकर मेरी ओर से बाबा को भेंट देना। उनके मित्र ने शिरडी आकर सब वस्तुएँ तो संग्रह कर ली, परन्तु वलपपड़ी प्राप्त करने में उन्हें अत्यन्त कठिनाई हुई। थोड़ी देर के पश्चात् ही उन्होंने एक स्त्री को सिर पर टोकरी रखे सामने से आते देखा। उन्हें यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि उस टोकरी में वलपपड़ी के अतिरिक्त कुछ भी न था। तब उन्होंने वलपपड़ी खरीद कर सब एकत्रित वस्तुएँ लेकर मसजिद में जाकर श्री. हाटे की ओर से बाबा को भेंट कर दी। दूसरे दिन श्री. निमोणकर ने उसका नैवेध (चावल और वलपपड़ी की सब्जी) तैयार कर बाबा को भोजन कराया। सब लोगों को बड़ा विसमय हुआ कि बाबा ने भोजन में केवल वलपपड़ी ही खाई और अन्य वस्तुओं को स्पर्श तक न किया। उनके मित्र द्धारा जब इस समाचार का पता कैप्टन हाटे को पता चला तो वे गदगद हो उठे और उनके हर्ष का पारावार न रहा।


पवित्र रुपया


एक अन्य अवसर पर कैप्टन हाटे ने विचार किया कि बाबा के पवित्र करकमलों द्धारा स्पर्शित एक रुपया लाकर अपने घर में अवश्य ही रखना चाहिये। अचानक ही उनकी भेंट अपने एक मित्र से हो गई, जो शिरडी जा रहे थे। उनके हाथ ही श्री. हाटे ने एक रुपया भेज दिया। शिरडी पहुँचने पर बाबा को यथायोग्य प्रणाम करने के पश्चात् उसने दक्षिणा भेंट की, जिसे उन्होंने तुरन्त ही अपनी जेब में रख लिया। तत्पश्चात् ही उसने कैप्टन हाटे का रुपया भी अर्पण किया, जिसे वे हाथ में लेकर गौर से निहारने लगे। उन्होंने उसका अंकित चित्र ऊपर की ओर कर अँगूठे पर रख खनखनाया और अपने हाथ में लेकर देखने लगे। फिर वे उनके मित्र से कहने लगे कि उदी सहित यह रुपया अपने मित्र को लौटा देना। मुझे उनसे कुछ नहीं चाहिये। उनसे कहना कि वे आनन्दपूर्वक रहें। मित्र ने ग्वालियर आकर वह रुपया हाटे को देकर वहाँ जो कुछ हुआ था, वह सब उन्हें सुनाया, जिसे सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने अनुभव किया कि बाबा सदैव उत्तम विचारों को प्रोत्साहित करते है। उनकी मनोकामना बाबा ने पूर्ण कर दी।


श्री. वामन नार्वेकर


पाठकगण अब एक भिन्न कथा श्रवण करें। एक महाशय, जिनका नाम वामन नार्वेकर था, उनकी साई-चरणों में प्रगाढ़ प्रीति थी। एक बार वे एक ऐसी मुद्रा लाये, जिसके एक ओर राम, लक्ष्मण और सीता तथा दूसरी ओर करबबदृ मुद्रा में मारुति का चित्र अंकित था। उन्होंने यह मुद्रा बाबा को इस अभिप्राय से भेंट की कि वे इसे अपने कर स्पर्श से पवित्र कर उदी सहित लौटा दे। परन्तु उन्होंने उसे तुरन्त अपनी जेब में रख लिया। शामा ने वामनराव की इच्छा बताकर उनसे मुद्रा वापस करने का अनुरोध किया। तब वे वामनराव के सामने ही कहने लगे कि यह भला उनको क्यों लौटाई जाये। इसे तो हमें अपने पास ही रखना चाहिये। यदि वे इसके बदले में पच्चीस रुपया देना स्वीकार करें तो मैं इसे लौटा दूँगा। वह मुद्रा वापस पाने के हेतु श्री. वामनराव ने पच्चीस रुपयेए कत्रित कर उन्हें भेंट किये। तब बाबा कहने लगे कि इस मुद्रा का मूल्य तो पच्चीस रुपयों से कहीं अधिक है। शामा तुम इसे अपने भंजार में जमा करके अपने देवालय में प्रतिष्ठित कर इसका नित्य पूजन करो। किसी का साहस न था कि वे यह पूछ तो ले कि उन्होंने ऐसी नीति क्यों अपनाई। यह तो केवल बाबा ही जाने कि किसके लिये कब और क्या उपयुक्त है।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।