गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

भ्रमरगीत के अर्थ विस्तार पर चर्चा कीजिए। | SURDAS | BRAMARAGEETH

भ्रमरगीत के अर्थ विस्तार पर चर्चा कीजिए।

रूपरेखा

1. प्रस्तावना

2. भ्रमर का प्रतीकार्थ

3. भ्रमर प्रतीकार्थ कृष्ण

4. उपसंहार

1. प्रस्तावनाः भ्रमरगीत का अर्थ -

'भ्रमर' श्यामवर्ण का उडनेवाला एक जीव होता है। उड़ते समय वह गुंजार भी करता है। 'मधुवृत्त', 'मधुकर', 'मुधुप', 'अति', 'षटपद', 'चंचरीक', 'अलिंद', 'सारंग', 'भौरा', 'भृंग' आदि नामों से भी वह प्रसिद्ध है। उसके शरीर पर पीत रंग का एक सूत्र होता है। 'गीत' का अर्थ है- 'गाना'। अत: 'भ्रमरगीत' का शाब्दिक अर्थ होता है- 'भ्रमर का गाना' अथवा 'भ्रमर को लक्ष्य करके गाया हुआ गान'।

'भ्रमरगीत' शब्द 'भ्रमर' और गीत दो शब्दों के योग से होता है। हिन्दी साहित्य में उपालम्भ काव्य के रूप में 'भ्रमरगीत' का विशेष महत्व है।

2. भ्रमर का प्रतीकार्थः उद्धव :

काव्य में 'भ्रमर' शब्द का प्रयोग कृष्ण और उनके सखा उद्धव केलिए हुआ है। कृष्ण श्याम वर्ण के हैं और वे पीताम्बर धारण करते हैं। कृष्ण के मित्र उद्धव भी श्यामवर्ण के होकर पीताम्बरधारी भी हैं। उद्धव का वर्ण और बेष भ्रमर के समान है। साथ ही वे योगसाधना में रत रहकर कमल- संपुट में बन्द हो मौन- समाधि में मग्न होने वाले भ्रमर से साम्य रखते हैं। आत: 'भ्रमरगीत' काव्य में उद्धव को 'भ्रमर' के प्रतीकार्य में सम्बोधित किया गया है।

इस प्रकार 'भ्रमरगीत' का अर्थ "भ्रमर को लक्ष्य करके लिखा गया गान" माना गया है। भ्रमर के प्रतीकार्य में उद्धव को स्थापित करती हुई गोपियाँ कहती हैं

मधुकर! जानत है सब कोई

जैसे तुम औ मीत तुम्हारे, गुननि निगुन हो दोऊ।

पाये चोर हृदय के कपटी तुम कारे अस दोऊ।

3. भ्रमर का प्रतीकार्थः कृष्ण

भ्रमरगीत में कृष्ण को भ्रमर के प्रतीकार्य में बताया गया है। श्रीकृष्ण का वर्ण भ्रमर के समान श्याम है। वे पीताम्बरधारी हैं और भ्रमर के शरीर पर पीत चिह्न होते हैं। अपने स्वर गुंजार से भ्रमर लोगों के मन को मुग्ध करता है। श्रीकृष्ण अपने मनोहर मुरलीरव से सर्वजीवों को मोहित कर लेते हैं। जिस प्रकार भ्रमर एक पुष्प का प्रेम ठुकराकर दूसरे पुष्प पर चला जाता है, उसी प्रकार कृष्ण गोपियों के प्रेम को ठुकरा कर मथुरा चले जाते हैं। भ्रमर पुष्प - रस चुराता है तो कृष्ण गो - रस की चोरी करते हैं। पुष्प-रस का आस्वादन कर और फिर उसे ठुकरा कर भ्रमर शठता का व्यावहार करता है। श्रीकृष्ण गोपियों के साथ प्रेम करके उनको छोड जाते हैं। ऐसा करना भी शठता ही है।

कोउ कहै री। मधुप भेस उन्हीं को धारयो।

स्याम पीत गुजार बैन किकिन झनकारयौ।

वापुर गोरसि चोरि कै आयो फिरि यहि देश।

इनको जनि मानहु कोऊ कफरी इनको भेस चोरि जनि जा कछु।

जनि पहसहु मम पाँव रे हम मानत तुम चोर।

तुमही - रूप कपटी हुते मोहन नन्दकिशोर।

4. उपसंहार

इस प्रकार हम देखते हैं कि 'भ्रमर' श्रीकृष्ण और उद्धव दोनों के प्रतीकार्थ में प्रयुक्त हुआ है। डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार 'भ्रमर' का अर्थ 'पति' अथवा 'नायक' माना जाता है। भ्रमर शब्द भी अर्थ - विकास की दृष्टि से भ्रमर नामक कीट से अर्थ विस्तार करके कृष्ण का पर्याय हुआ और तब पति का भी पर्याय हो गया। लोक गीतों में भी ‘भ्रमर' - ‘भ्रमर जी' हो कर पति के लिए रुढ़ हो गया है। श्रीकृष्ण गोपियों के परम पति और नायक हैं। 'भ्रमर' शब्द को पति या 'नायक' अर्थ में स्वीकार किया जाय तो 'भ्रमरगीत' का आशय होगा - "पति या नायक को लक्ष्य करके लिखा गया गान”।

हिन्दी - काव्य में कृष्ण, राधा और गोपियों के प्रेम-प्रसंग को लेकर उद्धव और भ्रमर के माध्यम से जो लिखा गया, वह सब 'भ्रमरगीत' क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। भ्रमर षटपद होता है। अतः भ्रमरगीत के लिए षटपदी छन्द विशेष है। इस छन्द में छः चरण होते हैं। लय और गति की दृष्टि से इसके प्रथम दो चरण अर्द्धाली के रूप में होते हैं। भ्रमरगीत लिखते समय सारे कवियों ने भ्रमरगीत - छन्दों को नहीं अपनाया। लेकिन भाव और कला दोनों ही दृष्टियों से भ्रमरगीत काव्य अत्यन्त महत्व रखता है।

ज्ञान पर प्रेम की, और मस्तिष्क पर हृदय की विजय दिखा कर निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना की अपेक्षा सगुण साकार ब्रह्म की भक्ति भावना की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करना भ्रमरगीत काव्य की विशेषता है। काव्य - रचना में कवि सूरदास का उद्देश्य भी यही है।

'विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं, कैसे? | विद्यापति की पदावली का मूल्यांकन कीजिए। | VIDYAPATHI | MIDHILI KOKILA | PAD

'विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं, कैसे?
                            (अथवा)
विद्यापति की पदावली का मूल्यांकन कीजिए।

रूपरेखा : -

1. प्रस्तावना

2. पदावली का रूप

3. पदावली की हस्तलिखित पोथियाँ

4. पदावली की भाषा

5. पदावली की विशेषता

6. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

यद्यपि विद्यापति लगभग एक दर्जन संस्कृत ग्रंथों की रचना की थी, तथापि उनकी प्रसिद्धि का खास कारण है उनकी पदावली। गाने योग्य छंद पद कहे जाते हैं। विद्यापति ने जितने छंद बनाए, सभी संगीत के सुर - लय से बँधे हुए - हैं। विद्यापति ने कविता में अपना आदर्श जयदेव को माना है - लोग इन्हें 'अभिनय जयदेव' कहते भी थे। अतः जयदेव - के ही समान वे संगीत - पूर्ण कोमलकांत पदावली में श्रृङ्गारिक रचना करते थे। जैसाकि पहले लिखा जा चुका है, दरभंगा के वर्तमान अधिपति के पूर्वपुरुष नरपति ठाकुर के समय में लोचन नामक एक कवि थे। उन्होंने अपनी 'रागतरंगिणी' नामक पुस्तक में लिखा है कि सुमति नामक एक कलाविद् कायस्थ कत्थक के लड़के जयत को राजा शिलसिंह ने विद्यापति के निकट रख दिया था। विद्यापति पद तैयार करते थे, जयत उसका 'सुर' ठीक करता था।

सुमति सुतोदय जन्मा जयतः शिवसिंहदेवेन।

पंडितवर कविशेखर विद्यापठये तु सन्यस्तः॥

बिना संगीत का मर्म जाने संगीत की रचना नहीं की जा सकती। मालूम होता है, विद्यापति स्वयं भी गान विद्या में पारंगत थे। विद्यापति के पदों में कहीं-कहीं छंदोभंग से दीख पड़ते हैं। किन्तु यथार्थतः ऐसी बात नहीं है। संगीत के सुर - लय के अनुसार जो पद बनाए जाते हैं, उनमें 'ध्वनि' का ही विचार किया जाता है, अक्षर और मात्रा का नहीं। इसी से संगीत से अपरिचित व्यक्तियों को पदों में छंदोभंग का आभास हो जाता है।

2. पदावली का रूप:

विद्यापति ने कितने पद रचे थे, इसका भी अभी तक पूरा पता नहीं चला है। श्री नगेंद्रनाथ गुप्त ने 945 पदों का संग्रह प्रकाशित किया था। बाबू ब्रजनंदन सहायजी का संग्रह इससे बहुत छोटा है, तथापि उसमें कुछ ऐसे पद हैं, जो गेन्द्रनाथ गुप्त वाले संस्करण में नहीं हैं। सहायजी के नए पदों में नचारियों की ही प्रधानता है। किन्तु अभी तक विद्यापति के बहुत से अनूठे पद अप्रकाशित ही हैं। मिथिला की स्त्रियाँ जिन पदों को विवाह के अवसर पर गाती हैं उनका तथा बहुत सी नचारियों का, अभी संकलन नहीं हुआ है।

पदावली के प्राचीन संस्करणों को देखने से पता चलता है, कि विद्यापति ने पदों की रचना विषय विभाग के अनुसार नहीं की थी। जब वे उमंग में आते थे, तब रचना कर डालते थे। पीछे लोगों ने उन्हें अलग - अलग विभाग कर सजा लिया।

3. पदावली की हस्तलिखित पोथियाँ :

यों तो विद्यापति के अधिकांश पद लोगों को कंठस्थ ही है और उन्हीं का संग्रह 'पदकल्पतरु' आदि बँगला के प्राचीन संग्रह ग्रंथों में है, किन्तु हाल में तीन प्राचीन हस्तलिखित मिले हैं, जिनसे विद्यापति के कितने नवीन पद प्राप्त हुए हैं, एवं पदावली की प्रामाणिकता का पूरा पता चला है।

उन ग्रंथों में सबसे प्राचीन और पौराणिक तालपत्र पर लिखी हुई एक पोथी है। यह पोथी भी विद्यापति लिखित 'भागवत' के साथ तरौनी ग्राम के स्वर्गीय पंडित लोकनाथ झा के घर में सुरक्षित पाई गई है। कहा जाता है कि विद्यापति के प्रपौत्र ने इसे लिखा था। इस पोथी की लिपि और उसके तालपत्र को देखने से मालूम होता है कि कम से कम तीन सौ वर्षे का यह प्राचीन है। लापरवाही से रखने के कारण यह पोथी जीर्ण शीर्ण हो गई। पहला और दूसरा पत्र गायन है। फिर नयाँ नहीं है. इसके बाद 81 से लेकर 99 पत्र एक बार ही नहीं है।

4. पदावली की भाषा :

पदावली की भाषा भी अब तक विवादग्रस्त रही है। बंगाली विद्यापति को बॅगला का प्रथम कवि या बंगभाषा का प्रवर्तक मानते हैं। इसीलिए उन्होंने विद्यापति को बंगाली सिद्ध करने की भी चेष्टा की थी। किन्तु अब तो यह सब प्रकार सिद्ध हो गया कि विद्यापति मैथिल थे। मैथिलों की एक खास बोली है - उसे मैथिली कहते हैं। विद्यापति भी मैथिल थे, अतः मैथिल लोग इन्हें अपनी बोली मैथिली का प्रथम कवि मानते हैं, यथार्थ में यही ठीक है। अतः मैथिल लोग इन्हें अपनी बोली मैथिली का प्रथम कवि मानते हैं, यथार्थ में यही ठीक है।

किन्तु यह मैथिली बोली किस भाषा की शाखा है - बंगभाषा की या हिन्दी भाषा की ? बाबू नगेन्द्रनाथ गुप्त ने मैथिली को ब्रजबोली (या हिन्दी) की एक शखा माना है। गुप्तजी 'प्राचीन विद्या महार्णव' कहे जाते हैं। उनका निर्णय अधिक मूल्य रखता है। अधिकांश विद्वानों की राय भी गुप्तजी से मिलती है। मिथिला बंग देश से सटी हुई है - विद्यापति का जन्म दरभंगे में हुआ था, जो द्वार बंग या बंगला का था। जिस प्रकार कोई हिन्दुस्तानी अँगरेजी पोशाक पहनकर अँगरेज नहीं बन जा सकता, उसी प्रकार मैथिली हिन्दी को छोड़कर बंगभाषी नहीं बन सकते। हाँ बंगभाषा के संसर्ग से इसमें मिठास अवश्य आ गई है।

पदावती की भाषा आजकल की मैथिती से कुछ भिन्न है। यह स्वाभाविक भी है। विद्यापति को हुए पाँच सौ वर्ष हुए। इन पाँच सौ वर्षों में भाषा में अवश्य कुछ न कुछ परिबर्तन होना सम्भव है। कुछ मैथिल महाशय विद्यापति के पदों की भाषा को तोड़ फोड़कर आजकल की मैथिली बोली से मिलाने का अनुचित प्रयत्न करते हैं।

विद्यापति की भाषा की दुर्दशा भी खूब हुई है। बंगालियों ने उसे ठेठ बंगला रूप दे दिया है, मौरंगवालों ने मॉरंग का रंग चढ़ाया है. बाबू ब्रजनंदन सहायजी ने उस पर भोजपुरी की कलई की है और आजकल के मैथिल उस पर अ मैथिली का रोगन चढ़ा रहे हैं। भगवान विद्यापति की कोमलकांत पदावली की रक्षा करें।

5. पदावली की विशेषता :

(क) भावपक्ष:

विद्यापति की पदावली अपना खास स्वरूप, अपना खास रंग-ढंग रखती है। वह कहीं भी रहे, आप उसे कितने ही कविताओं में छिपाकर रखिए, वह स्वयं चिल्ला उठेगी में हिन्दी कोकित की काकती हूँ। जिस प्रकार हजारों पक्षियों के कलरव को चीरती हुई, कोकित की काकती, आकाश पाताल को रसप्लावित करती, अलग से अलग अपना स्वतंत्र अस्तित्व प्रकट करती है, उसी प्रकार विद्यापति की कविता भी अपना परिचय आप देती है। बंगाल के यशोहर जिले में बसंत राय नामक एक कवि हो गये हैं। विद्यापति के पदों का प्रचार देखकर आपने भी विद्यापति के नाम से कविता करना प्रारंम्भ कर दिया था। किन्तु वे अपनी कविताएँ विद्यापति की कविता में नहीं खपा सके, विद्यापति की भाषा उनकी खास अपनी भाषा है, उनकी वर्णन प्रणाली उनकी खास वर्णन प्रणाली है, उनके भाव स्वयं उनके हैं। उनकी पदावली पर "खास की मुहर लगी हुई है। बंगाल के सैकड़ों कवियों ने इनके अनुकरण पर कविताएँ की। किन्तु कोई भी इनकी छाया न छू सके।

विद्यापति एक अजीब कवि हो गए हैं। राजा की गगनचुंची अट्टालिका से लेकर गरीबों की टूटी हुई फूस की झोपड़ी तक में उनके पदों का आदर है। भूतनाथ के मंदिर और 'कोहबर- घर' में इनके पदों का समान रूप से सम्मान है। कोई मिथिला में जाकर तमाशा देखे। एक शिवपुजारी डमरू हाथ में लिए, त्रिपुंड चढ़ाए, जिस प्रकार 'कखन हरब दुख मोर है भोलानाथ' गाते - गाते तनमय होकर अपने आपको भूल जाता है, उसी प्रकार कलकंठी कामिनियाँ नववधू को कोहबर में ले जाती हुई "सुंदरि चललिहुँ पहु- घर ना, जाइतहि लागु परम ढरना' गाकर नव वर-वधू के हृदयों को एक अव्यक्त आनन्द - स्रोत में डुबो देती हैं. जिस प्रकार नवयुवक "ससन - परस खसु अम्बर रे देखलि धनि देह" पढ़ता हुआ एक मधुर कल्पना से रोमांचित हो जाता है, उसी प्रकार एक वृद्ध "तातल सैकत बारिबुन्द सम सुत मित रमनि समाज, ताहे बिसारि मन ताहि समरपिनु अब मझु हब कौन काम, माधव, हम परिनाम निरासा" गाता हुआ अपने नयनों से शत शत अश्रुबूँद गिराने लगताहै। विद्वद्वर ग्रियर्सन का यह कहाना कितना कत्य है -

Even when the sun of Hindu - religion is set, when belief and faith in Krishna and in that medicine of 'disease of existence' the hymns of Krishna's love, is extinct, still the love borne for songs of Vidyapati in which be tells of Krishna & Radha will be never diminished.

डॉक्टर ग्रियर्सन के कथन का प्रमाण बंगाल में जाकर देखिए। सहस्र - सहस्र हिन्दू आज तक विद्यापति के राधा - कृष्ण विषयक पदों का कीर्तन करते हुए अपने आपको विस्मरण कर देते हैं। एक जगह पुनः आप लिखते हैं -

The glowing stanzas of Vidapati are read by the devout Hindu with a litte of the baser part of human sensousness as the songs of the Solomon by the Christian priests.

(ख) कलापक्षः :

विद्यापति की उपमाएँ अनूठी और अछूती हैं, उनकी उत्प्रेक्षाएँ कल्पना के उत्कृष्ट विकास के उदाहरण हैं, रूपक का इन्होंने रूप खड़ा कर दिया है। स्वभावोक्ति से इनकी सारी रचनाएँ ओत-प्रोत हैं, वृत्यानुप्रास इनके पदों का स्वाभाविक आभूषण है, प्रधान काव्यगुण प्रसाद और माधुर्य इनके पद पद से टपकते हैं, प्रकृति - वर्णन में तो इन्होंने कमाल किया है - इनका वसंत और पावस काल का वर्णन पढ़कर मंत्रमुग्ध हो जाना पड़ता है। इनके वसंत और पावस में मिथिला की खास छाप है। वसंत के समय में मिथिला की शस्यश्यामला मही जिस प्रकार अलंकृत और आभूषित हो जाती है, वह दर्शनीय है। पावस में, हिमालय निकट होने के कारण, यहाँ बिजलियाँ बड़ी जोर से कड़कती हैं प्रायः कुलिशपात होता है। विद्यापति ने इसका बड़ा ही अपूर्व वर्णन किया है। विद्यापति का मिलन और विरह का वर्णन भी देखने योग्य है। हिन्दी कवियों ने विरह के नाम पर, हाय-हाय का ही बवंडर उठाया है - उनके विरह वर्णन में, घनआनंद आदि दो - चार को छोड़कर, हृदय - वेदना का सूक्ष्म विश्लेषण प्रायः नहीं देखा जाता। विद्यापति का विरह - वर्णन प्रेमिका के हृदय की तस्वीर है- उसमें वेदना है, व्याकुलता है, प्रियतम के प्रति तल्लीनता है। कोरी हाय - हाय वहाँ है नहीं।

6. उपसंहार :

विद्वान राष्ट्रभाषा के प्रेमियों के निकट उपस्थित करते हुए विनम्र शब्दों में प्रार्थना करते हैं, कि जिस कविता की माधुरी पर मुग्ध होकर महाप्रभु चैतन्य देव गाते - गाते मूर्च्छित हो जाते थे, जिस कविता की खूबियों पर विदेशी विद्वान् ग्रियर्सन लोट- पोट थे, जिस कविता के एकमात्र आधार पर मैथिली बोली आज कलकत्ता विश्वविद्यालय में वह स्थान प्राप्त कर सकी है, जिस स्थान की प्रप्ति के लिए हिन्दी भाषी प्रांतों के विश्वविद्यालय में ही, माँ हिन्दी तड़प रही है, हिन्दी के जयदेव, मैथिल - कोकिल विद्यापति की उस कविता को - उस कोमल - कांत - पदावली को - आप उपेक्षा की दृष्टि से न देखिए। हिन्दी में क्या नहीं है - सूर्य है, चंद्र है, तारे हैं, एक नवीन 'नभमंडल' भी प्राप्त हुए हैं, किन्तु आपका काव्योद्यान आज कोकिलविहीन है - नहीं कोकिल है अवश्य, किन्तु आप अभी तक अनजाने उसे भूले हुए हैं। अहा हा ! सुनिए, सुनिए उस कोकिल की वह काकली। देखिए काव्य - उद्यान का वसंत प्रभात। मैथिल कोकिल विद्यापति की देन हिन्दी साहित्य के लिए अनुपम देन है।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | कहा मानसर चाह सो पाई, पारस - रूप इहाँ लगि आई। | JAYASI | PADMAVATH

जायसी - मानसरोदक खण्ड 


(8)

कहा मानसर चाह सो पाई, पारस - रूप इहाँ लगि आई।

भा निरमल तिन्ह पायन्ह परसें, पावा रूप रूप के दरसें।

मलय - समीर बास तृन आई, भा सीतल, गौ तपपिन बुझाई।

न जनौं कौनु पौन लेइ आवा, पुन्य दसा भै पाप गँवावा।

तनखन हार बेगि उतिराना, पावा सखिन्ह चन्द बिहँसाना।

बिगसे कुमुद दखि ससिरेखा, भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा।

पावा रूप रूप जस चहा, ससि-मुख जनु दरपन होई रहा।

नयन जो देखा कवँल भा, निरमल नीर सरीर।

हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर।

शब्दार्थ:

भा = हुआ । पुन्नि = पुप्य की । ततरवन = तत क्षण । उतिराना भावार्यः = तैर आया। निरमर = निर्मल ।

भावार्यः

मानसरोवर ने कहा मैं जिसे चाहता था, वह मुझे पा गई। पारस रूपी पद्मावती मेरे यहाँ आ पाई। उसके चरण स्पर्श से मैं निर्मल हो गया। उसके रूप दर्शन से मेरा भी स्वच्छ रूप हुआ। उसके शरीर से मलयानिल की सुगन्धि आयी, उसके स्पर्श से मैं भी शीतल हो गया और मेरा ताप बुझ गया। न जाने कौन सी वायु चली जो इसे यहाँ ले आयी, मेरी पुण्य की दशा हुई और पाप नष्ट हो गये। उसी क्षण शीघ्रता से हार उत्पर तैर आया और सखियों को मिल गया। उसे देख कर चन्द्रमा रूपी पद्मावती हँस पडी।

चन्द्रमारूप पद्मावती की मुस्कान देखकर कुमुदिनी रूप सखियाँ भी मुस्कराने लगीं। पद्मावती ने जहाँ - जहाँ जो - जो देखां वह सब उसके रूप के समान ही बना। अन्य वस्तुओं के रूप भी पद्मावती के मुख के समान हुए। इस तरह पद्मावती के मुख के लिए सारे पदार्थ मानो दर्पण हे रहे थे। सब मे पद्मावती का ही रूप चमकता था।

पद्मावती का मुख सरोवर की वस्तुओं में प्रतिबिम्बित होकर दिखलाई देता था। कविवर जायसी यहाँ पदमावती की रूप- विशेषता प्रकट करते हैं। पदमावती के नेत्र सरोवर में कमलों के रूप में पतिबिम्बित थे। उसका शरीर ही सरोवर में • प्रतिबिंबित निर्मल जल था। उसका हास ही मानो सरोवर में प्रतिबिम्बित हंस थे। उसके दाँत सरोवर में नग और हीरों के रूप में प्रतिबिम्बित हो रहे थे।

विशेषताः

1. यहाँ परमात्मा का विश्व - प्रतिबिम्बि भाव व्यक्त होता है।

2. पद्मावती के परमात्मा तत्व की चर्चा हुई है।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | सखी एक तेइँ खेल न जाना, चेत मनिहार गँवाना | JAYASI | PADMAVATH

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(7).

सखी एक तेइँ खेल न जाना, चेत मनिहार गँवाना

कवॅल डार गहि भै बेकरारा, कासौं पुकारौं आपन हारा

कित खेलै आइउँ एहि साथा, हार गँवाइ चलिउँ लेइ हाथा

घर पैठत पूछब यहि हारू, कौनु उत्तर पाउब पैसारू

नेन सीप आँसुन्ह तस भरे, जानौ मोति गिरहि सब ढरे

सखिन कहा वौरी कोकिला, कौन पानि जोहि पौन न मिला?

हारु गँबाइ सो ऐसे रोबा, हेरि हेराइ लेहु जौं खोवा

लागीं सब मिलि हेरे, बूड़ि बूड़ि एक साथ

कोइ उठी मोती लेइ, घोंघा काहू हाथ

शब्दार्थ:

तेइ = वह । बेकरारा = व्याकुल । पैसारू = प्रवेश । पैठत = घुसते ही । औसेहि = ऐसेही । हेरि = ढूँढना । हेराई = ढूँढवाना।

भावार्थ

एक सखी उस खेल को नहीं जानती थी। उसका हार खो गया तो वह बेसुध हो गई। कमल की नाल पकड कर वह व्याकुल हो गई और कहने लगी, "मैं अपने हार का विषय किस से पुकारूँ? मैं इनके साथ खेलने ही क्यों आयी थीं जो कि स्वयं अपने हाथों से अपना हार खो बैठी। घर में घुसते ही इस हार के विषय में पूछा जायेगा तो फिर क्या उत्तर देकर प्रवेश कर पाऊँगी ?” उसके नेत्र रूपी सीपी में आँसू भरे हुए थे। वे सीपी से मोती गिरते जैसे लगते थे। सखियों ने कहा र “हे भोली कोयल। ऐसा कौन - सा पानी है जिसमें पवन न मिली हो । सुख-दुख अथवा अच्छाई - बुराई सर्वत्र व्याप्त हैं। खेल की अच्छाई के साथ हार खोने की बुराई भी वैसे ही मिली हुई है। हार खोनेवाला ऐसा ही रोता है। खोये हुए हार को ढूँढ लो अथवा हम से ढूँढ़वा लो।

वे सब मिल करके ढूँढ़ने लगीं और एक साथ ही सब डुबकी लगाने लगी। किसी के हाथ में मोती आया और उसे लेकर ही ऊपर उठी और किसी के हाथ में घोंघा ही लगा।

विशेषताः

1. जायसी यहाँ साधना में होने विघ्नों की और संकेत करते हैं।

2. उपमा तथा छेकानुप्रास अलंकार प्रयुक्त हुए हैं।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | लागी केलि करै मॅझ नीरा, हंस लजाइ बैठ ओहि तीरा | JAYASI | PADMAVATH

जायसी - मानसरोदक खण्ड 

(6)

लागी केलि करै मॅझ नीरा, हंस लजाइ बैठ ओहि तीरा

पदमावति कौतुक कहँ राखी, तुम ससि होहु तराइन साखी

बाद मेलि के खेल पसारा, हारु देइ जौ खेलत हारा

सॅबरिहि साँबरि गोरिहि गोरी आपनि आपनि लीन्हि सो जोरी

बूझि खेल खेलहु एक साथा, हारु न हइ पराये हाथा

आजुहि खेल बहुरि कित हुई, खेल गये कित खेलै कोई

धनि सो खेल सो पैमा, उइताई और कूसल खेमा?

मुहमद बाजी प्रेम कै, ज्यों भावै त्यों खेल

तिल फूलहि के ज्यों, होइ फुलायल देल

शब्दार्थ:

मँझ = मध्य । बादि = बाजी, मेलिलगाकर । हारु = हार । हारा = हार जाय। रैताई = प्रभुताई । कुसल = कुशल | रवेमा = क्षेम | बारि = जल | परेम = प्रेम । तील = तिल । फुलाएल = फुलेल (सुगन्धि)।

भावार्थः

पद्मावती एवं सखियाँ जल के बीच क्रीडा करने लगीं। उनकी मनोहर क्रीडा देख कर हंस लज्जित होकर किनारे पर बैठ गया। सखियों ने पदमावती को कौतुक देखनेवाली के रूप में बिठाकर कहा, “तुम शशि के रूप में हम तारागण की साक्षी हो कर रहो। फिर उन्होंने बाजी लगाकर खेलना शुरू किया- खेलने में जो हार जाय, वह अपना हार देदे। साँवली ने साँवली के साथ और गोरी ने गोरी के साथ अपनी-अपनी जोडी बनाली थी। समझ बूझ कर एक साथ खेल खेल खेलें, जिस से अपना हार दूसरे के हाथ न जाये। आज ही तो खेल है। फिर यह खेल कहाँ होगा ? खेल के समाप्त हो जाने पर, फिर कोई कहाँ खेलता है ? वह खेल धन्य है जो प्रेम के आनन्ध से युक्त हो। (ससुराल में) प्रभुताई और कुशल क्षेम एक साथ नहीं रह सकते।

मलिक मुहम्मद जायसी कहते हैं, "प्रेम के जल में जैसा भावे, वैसा ही खेलो। जिस प्रकार तिल फूलों के साथ मिलकर सुगन्लित तेल बन ही जाते हैं उसी तरह बाजी खेलनी हैं। जैसे भाव वैसे ही प्रेम की बाजी खेलो।"

विशेषताएँ :

यहाँ समासोक्ति अलंकार प्रयुक्त हुआ है।