गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

रामभक्ति शाखा के प्रवर्तक तुलसीदास के बारे में चर्चा कीजिए। | TULASIDAS |

रामभक्ति शाखा के प्रवर्तक तुलसीदास के बारे में चर्चा कीजिए।
(अथवा)
हिन्दी साहित्य के महान कवि तुलसी के बारे में आप क्या जानते है।
(अथवा)
गोखामी तुलसीदास की भक्ति भावना पर चर्चा कीजिए।
(अथवा)
तुलसी की काव्य पद्धति पर चर्चा कीजिए।

रुपरेखा -

1. प्रस्तावना

2. जीवनी

3.रचनाएँ

4. तुलसी की रामभक्ति

5. अवतार के हेतु

6. राम के विविध रूप

7. शील, शक्ति तथा सौन्दर्य

8. आत्म - धर्म

9. राम नाम की महत्ता

10. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

हिन्दी साहित्याकाश में महाकवि तुलसीदास सतत प्रसन्न चन्द्रमा हैं। किसी ने सही ही कहा - 'सूर सूर तुलसी ससि' गोस्वामी तुलस दास के बारे में बताना सारे आकाश की चित्रकारी करने के समान है।' अथवा सारे समुद्र के पानी को उलीचने के समान है। तुलसीदास को नाभादास ने कलियुग वाल्मीकि का अवतार कहा है। वेदों में पुराणों में, शास्त्रों में, तथा काव्यों में बताये गये, रामतत्त्व को उन्होंने अपने महान काव्य रामचरितमानस में ढालकर जन-मानस में रामभक्ति का संचार कराया। भारतीय संस्कृति, चरित्र चित्रण, रसपरिपाक आदि में रामचरितमानस का समतुल्य करनेवाला काव्य हिन्दी साहित्य जगत में कोई अन्य नहीं। वाल्मीकि रामयण में बताये गये राम के धर्म स्वरूप ( वेग्रहवान धर्मः) को लेकर उन्होंने मर्यादा पुरोषत्तम के रूप में प्रस्तुत किया।

2. जीवनी -

अन्तः तथा बाह्य साक्ष्यों के आधार पर तुलसीदास सरयू पारीण बाह्मण माने जाते हैं। माता का नाम हुलसी और पिता का नाम आत्मारामदुबे था। मूला नक्षत्र में जन्म लेने के कारण और जन्मते ही माना का स्वर्गवास होने के कारण पिता ने तुलसी को त्याग दिया। तुलसीदास जन्म लेते ही राम नाम का स्मपण करने लगे तो उनका नाम रामबोला रखा गया। पिता से परित्यक्त रामबोला (तुलसी) का पालन पोषण मुनिया नामक दासी से हुआ। पाँच वर्ष के बाद मुनिया का स्वर्गवास हो गया, तो तुलसी दास घर- घर भीख माँगते फिरे। तुलसी ने सूकर क्षेत्र में बाबा नरहरिदास से राम की कथा सुनी। शेष सनातन के पास रहकर काशी में उन्होंने वेद, उपनिषत्, शास्त्र, विविध पुराण आदि का अध्ययन किया।

कहा जाता है तुलसी अपनी पत्नी रत्नावली पर अधिक मोहित थे। इस पर एक बार उनको रत्नावली से मीठी भर्त्सना (मजाक से तिरस्कार करना) खानी पड़ी।

लाज न लागत आप को दौरे आयउ नाथ।

अस्तिचर्म मय देह मम ता में जैसी प्रीति॥

पत्नी की भर्त्सना तुलसीदास के लिए उपदेश बन गई। वे बदरीनाथ, काशी, द्वारका, पुरी, चित्रकूट, अयोध्या आदि तीर्थ स्थानों में घूमते रहे। भगवान राम उनके हृदय का केन्द्र बिन्दु बन गये।

3. रचनाएँ : :

तुलसीदास ने राम को केन्द्र बिन्दु बनाकर अनेक काव्यों की रचना की। उन में आज बारह (12) मात्र उपलब्ध हैं -

1. रामचरितमानस, 2. विनय पत्रिका, 3. कवितावली, 4. दोहावली, 5. गीतावली, 6. बरवै रामायण, 7. जानकी मंगल, 8. रामाज्ञा प्रश्न, 9. वैराग्य संदीपनी, 10. रामलला नहछू और समन्वयवादी होने के कारण तुलसीदास ने कृष्णभक्ति से संबन्धित कृष्णगीतावली और शैव भक्ति से संबन्धत पार्वती मंगल काव्य की रचना की है।

4. तुलसी की राम भक्ति

गोस्वामी तुलसीदास क्रमशः निर्गुण, सगुण अवतारबाद को लेकर चलते हैं। उनकी भक्ति श्रुतिसम्मत है। (वेद सम्मत) वे राम परब्रह्मत्व को शिव, ब्रह्मा और विष्णु भी महान मानते हैं जो रूप, नाम और रहित है।

"एक अनीह अरूप अनामा सच्चिदानन्द परधामा।।

व्यापक विश्वरूप भगवाना। तेहि धरि देहचरित कृत नाना॥

राम निर्गुण होते हुए भी सगुण हैं। व्यापक निर्गुण ब्रहम सगुण ब्रह्म के रूप अवतरित हुए थे जिन्हें वेद भी नेति नेति कहते हैं। तुलसी कहते हैं –

सगुन अगुनहि नहि भेदा उभय हरड़ भव संभव खेदा। निर्गुण परब्रह्म भक्तों के प्रेम बस सगुण बन जाता है।

5. राम अवतार हेतु -

राम अवतार हेतु (कारण) अनेक बताये गये हैं। प्रत्येक कल्प में दीन तथा भक्तों की रक्षा के हेतु राम अवतरित होने रहते हैं।

नाना भाँति राम अवतारा। हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता।

जब जब धर्म की हानि होती है,

तब तब प्रभु धरि विविध सरीरा।

इसका आधार भगवतगीता का श्लोक.....।

“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानि.........."|

तुलसी के राम दशरथनन्दन अयोध्या से हैं। महाकवि तुलसीदास बार-बार वक्ता-श्रोता के द्वारा यह विषय याद दिलाते चलते हैं।

“एक राम अवधेस कुमारा तिन्ह कर चरित विदित संसारा॥”

भक्त, भूमि, ब्रह्मण और देवताओं के हित के लिए राम अवतरित हुए हैं। शिवजी पार्वती को राम की महिमा बताते हैं।

“गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुरहित दनुज विमोहन लीला॥”.............................

“जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धाम्॥”

6. राम के विविध रूप : -

राम स्वयम् ‘विष्णु' के रूप में प्रसिद्ध हैं। कभी 'चतुर्भुज' प्रकट करते हैं। त्रिमूर्तियों को वे नचानेवाले हैं। भक्त तुलसी सारे विश्व को राम में देखते हैं।"

“यन्मायावशवर्ति विश्वमखिंल ब्रह्मादिदेवासुरा।"

तुलसी सारे जगत को सीताराममय मानते हैं।

सीय राम मय सब जग जानि। करउ प्रनाम जोरि जुग पानि॥

तुलसी के राम परम कृपालु हैं, प्रनत अनुरागी हैं, और विधि हरि शंभु के नचावनहारे हैं। वे शांत, सनातन, अप्रमेय, निष्काम, मोक्षरूप, शाँति प्रदाता हैं। वेदान्त वेदय, माया मनुष्य, पापहारि, करुणाकर, रघुकुल श्रेष्ठ और जगदीश्वर हैं। तुलसीदास रामचरितमानस के प्रधान पात्रों के द्वारा राम के परब्रह्मत्व को प्रकट करते हैं। देवगण, महर्षिगण, क्षत्रियवर्ग, भकतगण, वानर तथा राक्षसवर्ग भी राम के परब्रह्मत्व को प्रकट करते हैं।

खरदूष्ण मम सम बलवन्ता। को नहिं मारहि बिनु भगवन्ता॥ (रावण)

तुलसी दास स्वयम राम को संबोधित कर कहते हैं- जाउ कहाँ तजि चरण तुम्हारे।

7. शील, शक्ति तथा सौन्दर्य -

रामचरितमानस अधर्म पर धर्म की, असत्य पर सत्य की, नास्तिकता पर आस्तिकता की, तमस (अंधकार) पर सत्त्व की और आन्ततोगत्वा रावणत्व पर रामत्व की विजय स्थापित करता है। इसका कारण तुलसी की रामभक्ति है। तुलसी के रामत्य पर वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, भागवत आदि ग्रन्थों का प्रभाव है। इन सब के समन्वय के रूप में तुलसी के राम शील, शक्ति तथा सौन्दर्य से समन्वित होकर हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं।

8. आत्म - धर्म :

जीवन दो प्रकार का होता है।

1. शारीरिक धर्म और

2. आत्म धर्म

रामायण आत्म धर्म प्रधान काव्य है। राम की कथा ऋग्वेद संहिता में, अथर्व वेद में, शतपथ ब्राह्मण में और उपनिषदों में वर्णित है। इसलिए तुलसी रामचरितमानस को श्रुति सम्मत कहते हैं। रामायण मोक्ष विद्या और दीर्घ शरणागति काव्य है। राम को जन्म देनेवाले कौसल्या तथा दशरथ और महान् ज्ञानी राजा जनक भी राम के चरणों की वंदना करते हैं। राम भक्ति के सामने सारा जगत और बन्धुजन नगण्य हैं। उदाहरण के लिए प्रहलाद ने पिता को, विभीषण ने भाई को, भरत ने माँ को, बलि ने गुरु को और गोपियों ने पतियों को त्याग दिया था। वे सब राम की कृपा के कारण महान श्रेय के भागी रहे।

"तज्यो पिता प्रह्लाद, विभीषण बन्धु, भरत महतारी।

तज्यो कन्त ब्रज बनितनि भये मुद मंगल कारी॥”

जिस प्रकार राम ब्रह्म है उसी प्रकार सीता प्रकृति तत्व है। तुलसी सीता को आदिशक्ति, छविनिधि (सौन्दर्य निधि) और जगमूला के रूप में बताते हैं। उद्भव स्थिति संहारकारिणी तथा क्लेशहारिणी के रूप में सीता की स्तुति करते है। तुलसी लिए सारा जग सीताराममय है। लक्ष्मण को तुलसी जगत के आधार शेष जी के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

"सैष सहस्र सीस जग कारन।"

आचर्य की बात है कि - खलनायक रावण भी सीता और राम के प्रति भक्ति प्रकट करता है। वह सीता चरणों की वंदना करता है।

"मन चरन बंदि सुख माना।"

रामायण सारे अन्य पात्र जीव कोटि के अन्तर्गत आते हैं। राम की भक्ति रखने से कोई जीव माया चंगुल में कि मायाधीस राम भक्तों की रक्षा करते हैं।

9. राम नाम की महत्ता

रामायण बेद संज्ञा है। रामायण कथा जितनी व्यंपक है, राम नाम की महिमा उतनी महान है। श्री मद्भागवत नवविध भक्ति विवरण दिया गया है।

"श्रवणं कीर्थनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनं।

अर्चनं वदनं दास्यं सख्यं आत्मनिवेदनं॥"

सूरदास की भक्ति सख्य है और तुलसी की दास्यभक्ति है। जैसे गीता में बताया गया है, 'यज्ञानां जपयज्ञोस्मि', के • आधार पर वे राम नाम का स्मरण करते हैं। शास्त्र का कथन है - "कलौ स्मरणान मुक्तिः।" बीज मंत्रों की दृष्टि से कर्म का नाश करने वाले अग्नि बीज 'र', ज्ञान को जगाने वाले आदित्यबीज (विष्णु) 'आ' और भक्ति का शीतल और शान्ति चंन्द्र बीज 'म' से राम मंत्र बना हुआ है। 'र' वैराग्य का 'आ' ज्ञान का और 'म' भक्ति का प्रतीक है। ये ही बीजाक्षर क्रमशः शिव, विष्णु तथा ब्रह्मा के प्रतीक हैं । निर्गुण तथा सगुण रूप राम मंत्र वेदों के प्राण हैं। तुलसीदास ने राम मंत्र की महत्ता को विविध रूपों में बताया। राम नाम रूपी मणिदीपक को मुख रूपी द्वार पर रखने से जीव को आंतरिक तथा बाह्य प्रकाश प्राप्त होता है। 'र' कहने मात्र से पहाड जैसा पाप बाहर जाता है। 'म' कार के उच्चारण से फिर वह पाप जीव के अन्दर नहीं आ सकता।

"राम नाम मणि दीप धरु जीह देहरी द्वार।

तुलसी भीतर बाहिरौ जो चाहसि उजियार।।”..............

"तुलसी 'रा' कहते ही बाहर जात पाप पहार।

फिरि भीतर आवत नहिं देत 'म' कार कवाट।"

इसीलिए तुलसी सदा राम नाम का स्मरण करने के लिए कहते हैं।

'राम कहत चलु। राम कहत चलु॥ राम कहत चलु भाई रे॥

10. उपसंहार :

रामकथा 'भारतीय' संस्कृति का उज्ज्वलतम प्रतीक है। शुक्ल जी के अनुसार भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति है। तुलसी की रामभक्ति रामचरितमानस में प्रतिबिंबित होती है। अनेक विद्वानों के अनुसार रामचरितमानस भक्ति या धार्मिक काव्य है। महेश जी ने प्रथमतः इस की रचना की और पार्वती को रामकथा बताकर उन्होंने उसे अपने मानस में रखा। इसी कारण गोस्वामी तुलसीदास ने इस काव्य का नामकरण रामचरितमानस रखा। शील, शक्ति तथा सौन्दर्यमय राम चरित्र की रचना के पीछे दो कारण बताते हैं ।

1. अपनी वाणी को पवित्र करना और

2. आत्म सुख की प्रप्ति के लिए

“निजगिरा पावनि करन राम जसु तुलसी कहयो।"

'स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथाभाषानिबंध मतिमंजुलमातनोति।'

रायणत्व पर रामत्व का स्थापित करना राम काव्य की रचना का मूल उद्देश्य है। इस में धार्मिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक तथा नैतिक विषयों का समन्वय हुआ है जिस से समाज का पथ प्रदर्शन हुआ। तुलसीदास संत समाज को तीर्थराज बताते हैं और राम भक्ति को सुरसरिधारा बताते हैं, जिसे सुनने से (स्नान करने से) जीवन की सफलता मिलिती है। तुलसीदास भक्ति के साथ - साथ मानस में ज्ञान तथा कर्म के विषय भी चर्चा करते हैं। तुलसीदास की भक्ति के बारे में और उनकी कविता के बारे में जो भी, जितना भी बताये वह कम ही है। तुलसीदास कविता करके शोभित नहीं हुए लेकिन कविता उनकी कला पाकर शोभित है।

"कविता करके तुलसी न लसे। लसी कविता पा तुलसी की कला।"

प्रसिद्ध विद्वान मधुसूदन करस्वती ने तुलसी की कविता से प्रसन्न होकर कहा था काशी रूपी आनन्द वन में तुलसीदास चलता फिरता तुलसी का पौधा हैं। उनकी कविता रूपी मंजरी बड़ी सुन्दर है, जिस पर राम रूपी भ्रमर मण्डराता रहता है।

'आनन्द कानने हस्मि जंगम तुलसी तरुः।

कविता मञ्जरी भाति राम भ्रमर भूषिता।"

ऐसे रस सिद्ध कवि जन्म और मारण के भय से रहित रह कर शाश्वत यश की प्राति कर लेते हैं।

"जयन्ति ते सुकृतिनो ससिद्धाः कवीश्वराः।

नास्ति येषां यशः काये जरा मरणजं भयम्॥”

SURDAS | BRAMARAGEETH | 'भ्रमरगीत-सार' विप्रलंभ श्रृंगार की प्रधान रचना है - समीक्षा कीजिए। | 'श्रृंगार रस के क्षेत्र में सूरदास की पैठ अनोखी है।' - इस उक्ति पर अपना विचार प्रकट कीजिए। | 'भ्रमरगीत-सार' में व्यक्त विप्रलंभ श्रृंगार का विवेचन कीजिए।

'भ्रमरगीत-सार' विप्रलंभ श्रृंगार की प्रधान रचना है - समीक्षा कीजिए।
(अथवा)
'भ्रमरगीत-सार' में व्यक्त विप्रलंभ श्रृंगार का विवेचन कीजिए।
(अथवा)
'श्रृंगार रस के क्षेत्र में सूरदास की पैठ अनोखी है।' - इस उक्ति पर अपना विचार प्रकट कीजिए।

रूपरेखा : :

1. प्रस्तावना

2. उद्दीपन विभाव-विधान

3. हृदयग्राही विरह-वर्णन

4. शास्त्रीय नियमों का सफल पालन

5. संचारी भाव

6. आत्मोत्सर्ग की भावना

7. विरहाग्नि प्रेम की पुष्टि

8.धर्म का निर्वाह

9. वक्रतापूर्ण व्यंजना

10. सायुज्य मुक्ति

11. उपसंहार

1. प्रस्तावना

'भ्रमरगीत-सार' एक विप्रलम्भ श्रृंगार प्रधान रचना है। इस में विरह की समस्त दशाओं का सजीव उद्घाटन किया गया है। आचार्य शुक्ल का कथन है – न जाने कितने प्रकार की मानसिक दशाएँ ऐसी मिलेगी जिनके नामकरण तक नहीं हुए।"

2. उद्दीपन विभाव-विधान : -

कृष्ण के वियोग मे गोपियों की दशा चिन्तनीय हो जाती है। कृष्ण की उपस्थिति में जो वस्तुएँ प्रिय एव सुखदायक लगती थीं। कृष्ण के वियोग में वे सबा की सब वस्तुएँ दुःखदायी एव अप्रिय लगती हैं। वे उन्हें काटंखाने को बढ़ती - सी लगती हैं। विप्रलम्भ श्रृंगार का यह उद्दीपन विभाव विधान सूर के वियोग - श्रृंगार की अनुपम देन है।

बिनु गुपाल बैरिन भई कुजै।

तब ये लता लगति अति सीतल अब भई विषम ज्वाल की पुजै।।

3. हृदयग्राही विरह-वर्णन :

गोपियों की जाग्रदवस्था रोने में ही बीतती है। स्वप्न में भी कृष्ण का विरह उनके हृदय में कसकता रहता है। न उनको जागनें में चैन है या सोते हुए ही। वस्तुतः नींद आती ही नही। वे रात को सोती हैं अथवा बैठी हुई रोती रहती हैं।

हमको सपनेई में सोच।

जा दिन ते विछुरे नन्द - नन्दन ता दिन ते यह पोच।

मनु गुपाल आए मेरे गृह हँसि करि भुजा गही।

कहा करौ बैरनि भई निदिया निमिष न और रही।

कृष्ण जब से मथुरा गये हैं तब से गोपिकाओं के नेत्र बरसने लगे हैं। इनकी आँखें श्रावण - भादों के रुप में बरसती रहती हैं। क्षण भर के लिए भी उनके आँसू बन्द नहीं होते।

निस दिन बरसत नैन हमारे।

सदा रहति पावस रितु हम पै, जब तैं स्याम सिधारे।

दृग अंजन लागत नहिं कब हुँ, उर कपोल भए कारे।

कंचुकि पट सूखत नहिं कबहूँ उर बिच बहत पनारे।

4. शास्त्रीय नियमों का सफल पालन :

'भ्रमरगीत-सार' में कवि की भावुकता के साथ शास्त्रीय नियमों का भी पालन दिखाई देता है। साहित्य शास्त्र के अनुसार विरह की दस दशायें मानी जाती हैं। भ्रमरगीत में विरह की दसों दशाओं से सम्बन्धित वर्णन मिलते हैं।

(i) अभिलाषा :

निरखत अक स्याम सुन्दर के बार बार लावत छाती।

लोचन जल कागद मसि मिलिकै है गई स्याम-स्याम की पाती।।

(ii) चिन्ता :

मधुकर ये नैना पै हारे।

निरखि निरखि मग कमल नयन को प्रेम भगन भए भारे।

(III) स्मरण :

मेरे मन इतनी सूल रही।

वे बतियाँ कही छतियाँ बिखि राखीं, जे नन्दलाल कही।

एक दिवस मेरे गृह आए मैं दधि मथति रही।

देख तिन्हें हौं मौन कियौ, सो हरि गुसा गही।

(iv) उद्वेग : -

तिहारी प्रीति किथौ तरबारि।

दृष्टिधार करि भार साँवरे, घायल सब बज नारि।

(v) प्रलाप :

कैसे पनघट जाई सखीरी, डोवा जमुना तीर।

भरि-भरि जमुना उमडि चलति है, गन नैननि के नीरा।

इन नैननि के नीर सखीरी सेज भई घरनाउँ।

चाहति हौं तेहि ऊपर चदि कै स्याम मिलन को जाउँ।

(vi) उन्माद :

माधव यह बज को व्यौहार

मेरो कयो पवन को भुन भयौ गावत नन्द कुमार

(vii) व्याधि :

ऊधो जू तिहारे चरन, लागौं, बारक या ब्रज करउ भाँवरी।

निसि न नींद आवै, दिन न भोजन भावै मग जोवत भाई दृष्टि झाँवरी।

(viii) जडता :

बालक सग लिए दधि चोरत, कात खवाबत डोलत।

सूर सीस सुनि चैंकति नामहि अब काहे न मुख बोलत।

(ix) मूर्च्छा :

सोचति अति पछताति राधिका मूर्छित धरनि ढही।

सूरदास प्रभु के बिछुरै सैं बिथा न जाति सही।

(X) मरण :

जब हरि गवन कियौ पूरब लौ लिखि जोग पठायो।

यह तन जरि कै भसम है निवरयो बहुरि मसान जगायो।

मेरे मोहन आन मिलपओ कै लै चलु हम साथै।

सूरदास अब भरत बन्यौ है पाप तिहारे माथै।

5. संचारी भाव :

गोपियों में प्रिय के क्षमाभाव आदि विविध संचारी भावो का मिलन भ्रमरगीत सार में हुआ है।

ब्रज बसहु, गोकुलनाथ।

बहुरि तुमहि न पठवी गोर्धनन के साथ।

बरजौ न माखन खात कब हूँ देहुँ देन लुटाय।

गोपियों का प्रेम स्वार्थ रहित होकर वे केवल कृष्ण के दर्शन की लालसा मात्र रखती हैं। उनके प्रेम में भोगेच्छा नहीं, बल्कि केवल प्रिय - दर्शन की इच्छा है।

एक बार जो देहु दरसन प्रीतिपथबसाय।

करौ चौर चढ़ाय आसन नैन अंग अंग लाय||

6. आत्मोत्सर्ग की भावना :

गोपियों की दर्दभरी भोली-भाली बातों में अनुपात, अधीनता, और त्याग के उदगार हैं। उनका कृष्ण के प्रति प्रेम शान्त आराधना के रूप में परिणत होता है। सुख - क्रीडा के बदले भ्रमरगीत में भक्तिमार्ग के शान्तरस का स्वरूप दिखाया गया है।

सच्चे प्रेम में आत्मोत्सर्ग की भावना बढ़ती रहती है। अंत में निराश हो कर प्रेमी प्रिय- दर्शन का आग्रह भी छाड देता है। आत्मोत्सर्ग की यह पराकाष्ठा प्रेमी का प्रेम एक अकंचन कामना के रूप में दिखाई देती है। गोपिकाएँ अपने सुख की कामना नहीं करती। वे केवल प्रिय, कृष्ण के सुख की कामना ही सर्वस्व समझती हैं। गोपियों के प्रेम की चरमावस्था देखिए -

जहँ जहँ रहौ राज करौ तहँ तहँ, लेहु कोटि सिर भार।

यह असीस सम देति सूर सुन न्हात खसै जानि बार।

विरहताप के कारण गोपियों को गाय-बछड़े, भेडिये और बाध दिखाई देते हैं। गोपियाँ चाहती हैं कि जब तक गोकुल में कष्ट दूर न हों, कृष्ण वहाँ न आयें। वे नहीं चाहती हैं कि जब तक गोकुल में कष्ट दूर न हों, कृष्ण वहाँ न आवें । वे नहीं चाहती कि कृष्ण कोई कष्ट भोगें। अतः वे उद्धव से कहती है । "जब तक व्रज निरापद न हो जाय, तब कृष्ण गोकुल से दूर ही रहें!" गोपियों का विचार है -

प्रीति करि काहू सुख न लयो।

7. विरहाग्नि प्रेम की पुष्टि : -

विरहाग्नि में प्रेम की निकाई निखरती है। प्रेम रूपी स्वर्ण की परीक्षा विरह रुपी अग्नि में ही होती है।

विरह अग्नि जरि कुन्दन होई। निरमल तन पावै कोई कोई

विरह से प्रेम की पुष्टि होती है। विरह के लेप द्वारा ही प्रेम पक्का होता है। अतः गोपियाँ उद्धव से कहती हैं -

ऊधो। विरहौ प्रेम करै।

ज्यों बिनु पुट पट गहै न रगहि पुट गहे रसहि परै।

जौ आवो घट दहत अनल तनु तौ पुनि अमिय भरै।

बिरहाग्नि चित्त को सर्वथा निर्मल बाना देती है। धृति की व्यंजना करती हुई गोपियाँ कहती हैं -

अब हमरे जिय बैट्यो यह पद होनी होउ सों सोऊ।

मिटि गयो मान परेखो ऊघो, बिरदय दतो तो होऊ।

गोपियों की इच्छा प्रभु पद प्राप्ति मात्र है। अगर प्रभु पद न भी मिले तब भी उनके हृदय में उनका यश गान ही होता रहता है -

हम तो दुहूँ भाँति फल पायो।

जो व्रजनाथ मिलै तो नी को, नातरु जग जैसे गायो।

8. धर्म का निर्वाह : गोपियों का कृष्ण प्रेम उनके लिए धर्म का निर्वाह है। भक्ति अथवा मुक्ति की कामना के लिए किया जानेवाला कोई अनुष्ठान नहीं, उन्हें कृष्ण प्रिय हैं। इस लिए गोपियाँ कृष्ण से प्रेम करती हैं।

कृष्ण और गोपियों का सम्बन्ध परमात्मा और आत्मा का है। कृष्ण भी गोपियों के लिए व्याकुल होते हैं। वे उद्धव के समक्ष अपने प्रेम की चर्चा करते हुए कहते हैं -

उधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।

हंस सुता की सुन्दर कगरी रु कुजन की छाहीं।

वै सुरभी वै बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जागही।

श्रृंगार तथा वात्सल्य के क्षेत्र में कवि सूरदास की जैसी अन्तर्दृष्टि कदाचित् ही किसी अन्य कवि को प्राप्त हो। 'भ्रमरगीत-सार' में श्रृंगार रस के प्रायः समस्त सचारी भावों का अत्यन्त स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटन दिखाई दैत है।

गोपियाँ उद्धव से वार्तालाप करते समय प्रेम की प्रच्छन्न धारा प्रवाहित होती हैं।

रहु रे मधुकर मधु-मतवारे

कहा करौ निर्गुन लैके हौ ? जीत्रहु कान्ह हमारे।

ऊधो? हम हैं तुम्हारी दासी।

काहे को कटु वचन कहत करत आपनी हाँसी।

9. वक्रतापूर्ण व्यंजना :

'भ्रमरगीत' में कुब्जा के नाम के साथ 'असूया' की बडी ही वक्रतापूर्ण व्यंजना मिलती हैं। गोपियाँ कहती हैं कि यह सन्देश कृष्ण का हो ही नहीं सकता। कुब्जा ने ही आपको सिखा पढ़ा कर हमें दुःख देने को भेजा है -

मधुकर। कान्ह कही नहिं होही।

रचि राखी कूबरी पीठ पै ये बातें चकचौं ही।

आजकल उस कुबडी की चाँदी है और उसी का जीवन सार्थक है।

जीवन मुहचाही को नीको।

दरस परस दिन रात करति है कान्ह पियारे पी कौ।

10. सायुज्य मुक्ति

श्रृंगार में भक्ति विषयक पक्ष भी आ जाता है। वैष्णव सम्प्रदाय में मुक्ति की सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य तथा सायुज्य दशायें बतायी गयी हैं। सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य हैं। 'भ्रमरगीत- सार' में गोपियों द्वारा 'सायुज्य मुक्ति' का प्रतिपादन हुआ है।

सीत उष्ण सुख दुःख नहिं मानै, हानि भये कछु सोचन राँचै।

जाय समाय सूर वा निधि में, बहुरि न उलटि जगत में नौचै॥

प्रेम-भाव की चरमसीमा आश्रय और आलम्बन की एकता है। अतः भगवद्भक्ति की साधना के लिए कवि इली प्रेमतत्व लेकर चलते हैं। रतिभाव के तीनों प्रबल और प्रधान रुप भगवद्विषयक रति, वात्सल्य और दाम्पत्य रति भ्रमर्ग सार में अपूर्वता के साथ निभाये गये हैं।

11. उपसंहार - :

इस प्रकार यह सर्वधा स्पष्ट हो जाता है कि श्रृंगर रस के क्षेत्र में सूरदास की पैठ अनोखी है। उसकी कोई बात उनसे छिपी नहीं रही। सूरदास ने प्रेम क्षेत्र को चारों ओर से लोट-पोट कर देखा भी है और दिखाया भी है। इस क्षेत्र में अन्य कवियों की उक्तियाँ जूठन सी लगती हैं। सूर की रचना गीतकाव्य परम्परा के अन्तर्गत आती है। यह परम्परा उनको जयदेव और विद्यापति से प्राप्त हुई। यह परम्परा श्रृंगार रस के अन्तर्गत ही आती है।

गीतकाव्य की सफलता के लिए सगीत, भावनाओं की गहनता, आत्माभिव्यक्ति तथा संक्षिप्तता आवश्यक है! 'भ्रमरगीत सार' की रचना इस कसौटी पर खरी उतरी है। काव्य का प्रत्येक पद चुन कर सजाया गया गुलदस्ता है। अमगीतसार के पद सगीतज्ञों के कण्ठहार हैं। आज भी सूर के पद के गायन के बिना कोई भी संगीत सम्मेलन पूर्ण नहीं समझा जाता है।

'भ्रमरगीत' के उद्भव और विकास पर समीक्षा कीजिए। | SURDAS | BRAMARAGEETH | भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास का स्थान निर्धारित कीजिए। | हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा पर प्रकाश डालिए।

'भ्रमरगीत' के उद्भव और विकास पर समीक्षा कीजिए।
(अथवा)
भ्रमरगीत परम्परा में सूरदास का स्थान निर्धारित कीजिए।
(अथवा)
हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा पर प्रकाश डालिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. भ्रमर का सांकेतिक अर्थ

3. भ्रमरगीत परम्परा का उद्भव-स्रोत

4. हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा का विकास

5. कुछ प्रमुख भ्रमरगीत

6. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

भ्रमरगीत का शाब्दिक अर्थ है- 'भौरे का गीत' या 'भौरे से सम्बन्धित गीत'। भारतीय काव्य में 'भ्रमरगीत' एक विशेष प्रसंग से सम्बद्ध है। कृष्ण मथुरा चल कर राज-काज से व्यस्त हो, उद्धव के द्वारा ब्रजवासियों को सन्देश भेजते हैं। गोकुल आने पर गोपियाँ उद्धव के सम्मुख भ्रमर को सम्बोधित करके कुछ उपालम्भ देती हैं, जो अप्रत्यक्ष रूप से कृष्ण को ही दिये जाते हैं। यही प्रसंग 'भ्रमरगीत' के नाम से प्रख्यात हुआ है। इस प्रकार ‘भ्रमरगीत' गोपी- उद्धव सवाद का सूचक है।

2. 'भ्रमर' का सांकेतिक अर्थ : -

गोपियाँ अपने उपालम्भ केलिए भ्रमर को ही क्यों चुनती है? बात यह है कि भारतीय श्रृंगार काव्य में भ्रमर सदा से ही रसिक वृत्ति का प्रतीक माना जाता है। खिले हुए पुष्पों का रस चूस कर विमुख हो जाना भ्रमंर के स्वभाव की बडी विशेषता है। कृष्ण और गोपियों का सम्बन्ध भी भ्रमर और कलिकाओं सा है। कृष्ण की अन्य विशेषताएँ भी भ्रमर में मिल जाती हैं। भौरा गुंजार करता है तो कृष्ण अपनी बाँसुरी के मधुर स्वर से गोपियों को आकर्षित करते हैं। भ्रमर और कृष्ण दोनों श्यामवर्ण के हैं। उद्धव भी भ्रमर का साम्य रखते हैं। इसी कारण भ्रमर के प्रतीकार्थ में उद्धव को भी लिया जाता है।

3.भ्रमरगीत परम्परा का उद्भव-स्रोत :

भ्रमरगीत परम्परा का मूल उद्भव - स्रोत श्रीमद्भागवत है। गोपियाँ व्यंग्य करती हैं। उनकी प्रत्येक उक्ति में विरह - वेदना, आत्म दैन्य, उपालंभ, प्रेमासक्ति और हास- परिहास का माधुर्य प्रस्फुटित होते हैं।

विसृज शिरसि पाद वेदम्यह चाटुकारै -

रनुनयविदुवस्ते ऽ भ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात।

स्वकृत इह विसृष्टापत्यन्यलोक।

व्यमृजद कृतचेता कि नु सन्थेयमस्मिन्?

प्रेम के क्षेत्र में भ्रमर का उल्लेख कालिदास कृत 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' मे प्राप्त होता है। भ्रमर आकर शकुन्तला के शरीर पर बैठ जाता है तो दुष्यंन्त ईर्ष्या पूर्वक कहता है -

चलापांगं दृष्टि स्पृशसि बहुधा वेपयुमती

रहस्यारुथीव स्वनसि मृदुकर्णन्तिकचरः

कर व्याधुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधुर

वय तत्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती॥

4. हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत परम्परा का विकास :

कटक माझ कुसुम परगास, भ्रमर विकल नहिं पाबए पास।

भ्रमरा मेल घुरए सब ठाम तो हे बिनु मालती नहि बिसराम।

उद्धव- गोरी संबाद का इस छन्द में कोई उल्लेख नहीं है। फिर भी इस में भ्रमर सम्बन्धी धारण का प्रभाव अवश्य परिलक्षित होता है।

हिन्दीं में भ्रमरगीत परम्परा के प्रवर्तक का श्रेय महाकवि सूरदास को दिया जाता है। उनके प्रभाव से प्रायः अन्य सभी कृष्ण - भक्त कवियों ने इस प्रसंग पर थोडे बहुत पद लिखे हैं जिन में ये नाम उल्लेखनीय हैं - नन्ददास, परमानन्ददास, हित बृन्दावनदास, हरिराय, रसखान, मुकुन्ददास, घासीराम आदि। आगे चलकर रीतिकालीन कवियों में देव, पदमाकर ग्वाल कवि, महाराज रघुराज सिंह आदि अनेक कवियों ने कुछ फुटकर छन्दों में भ्रमरगीत प्रसंग की चर्चा की है।

आधुनिक युग में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बदरीनारायण 'प्रेमधन', सत्यनारायण 'कविरत्न', जगन्नाथदास रत्नाकर, मैथिलीशरणगुप्त, हरिऔध, रामशंकर 'रसाल', द्वारिकाप्रसाद मिश्र, हरदेव प्रसाद, जगन्नाथ सहाय आदि कवियों ने उद्धव-गोपी-सवाद का वर्णन किसी न किसी रूप में किया है।

5. कुछ प्रमुख भ्रमरगीत

वैसे तो हिन्दी में प्रायः सभी भक्त एवं श्रृंगारी कवियों ने 'भ्रमरगीत' लिखे हैं। किन्तु विस्तृत रूप से इसी प्रसंग को लेकर काव्य रचना करनेवाले कुछ कवियों की चर्चा करें -

(क) सूरदास का भ्रमरगीत - सूरदास द्वारा रचित 'सूरसागर' में तीन 'भ्रमरगीत' उपलब्ध होते हैं। उनमें दो अत्यन्त संक्षिप्त हैं, किन्तु अन्तिम अत्यन्त विस्तृत है। प्रथम 'भ्रमरगीत' भागवत् से अनुवादित - सा है तथा यह चौपाई छन्द में रचितं है। दूसरा भ्रमरगीत पदशैली में है। तृतीय 'भ्रमरगीत' में लगभग चार सौ पद हैं। रामचन्द्र शुक्ल ने 'भ्रमरगीत' को अलग 'भ्रमरगीत - सार' के नाम से संकलित किया है।

सरदास को भ्रमरगीत रचनां की प्रेरणा स्पष्ट ही भागवत पुराण से मिली होगी। भागवतकार का उद्देश्य केवल धर्मसाधना तथा कृष्ण की व्यापकता, सार्वकालिकता का रूप प्रतिपादन करना है। किन्तु सूरदास इसी से संतुष्ट नहीं होते। वे गोपियों के मुँह से ज्ञान की निन्दा, उसका उपहास और तिरस्कार भी करवाते हैं। यही मानों निर्गुण के ऊपर सगुण की, ज्ञान के ऊपर भक्ति की श्रेष्ठता और सरलता की प्रतिष्ठा है। वे स्पष्ट रूप से ज्ञान को प्रेम की अपेक्षा हेय एवं त्याज्य सिद्ध करते हुए लिखते है।

आयो घोष बडो व्यापारी।

लादि खेप, गुन ज्ञान जोग की ब्रज में आय उतारी।

फाटक देकर हाटक माँगत भोरे निपट सु थारी।

इनके कहे कौन उहकावे ऐसी कौन अजानी।

अपनो दूध छौंडि को पीवै खार कूप को पानी॥

सूर भक्ति विरोधी 'निर्गुण' का गोपियों द्वारा उपहास भी करवाते हैं -

निर्गुन कौन देस को बासी ?

मधुकर! हँसि समुझाय सौह दै बूझति सौचत हाँसी।

को है जनक, जननि को कहयित, कौन नारि को दासी॥

काव्य की दृष्टि से भागवत की तुलना में सूरदास के भ्रमरगीत में अधिक स्वाभाविकता, रोचकता एव मार्मिकता है। चुटकीले व्यग्यों, मीठे उपहासों, भोली मनुहारों, क्रोधपूर्ण तिरस्कारों एव शोकपूर्ण अश्रुओं की अभिव्यक्ति के कारण 'भ्रमरगीत' काव्य के भावपद में विविधता आ गई है। भागवत पुरण में भ्रमरगीत के रूप में जो रस की एक बूँद. थी, वह सूरदास के ग्रमरगीत में आकर अथाह लहरों के रूप में उद्वेलित दिखाई पड़ती है।

(ख) नन्ददास का भ्रमरगीत - सूर के पश्चात नंददास का भ्रमरगीत महत्त्वपूर्ण है। यह नाटकीय प्रश्नोत्तरी शैली में रचा गया है। उद्धव गोपियों को ज्ञान का उपदेश देते हैं। गोपियाँ उसका तर्कबद्ध खण्डन करती हैं। गोपियों के तर्क से पराजित हो कर उद्धव अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं। गोपियों का तर्कबद्ध कथन देखिए -

जो भुख नाहि न हतो, कहाँ किन माखन खायो।

पाँयन बिन मो संग कहाँ वन को धायो।।

सूर की अपेक्षा नन्ददास के भ्रमरगीत में दार्शनिकता की प्रधानता है। सूर के भ्रमरगीत में कुब्जा और राधा दोनों का नाम आया है। परन्तु नन्ददास के भ्रमरगीत में राधा का नाम नहीं है। नन्ददास की गोपियों में सूर की गोपियो के व्यंग्य की अपेक्षा अधिक तीखापन है।

नास्तिक है जे लोग कहा जाने निज रूपै।

प्रगट भानु को छोडि गहत परछाई धूपैं।।

नन्ददास का ‘भ्रमरगीत' अपनी मौलिकता में महत्त्वपूर्ण है। उस में तर्क निपुणता और दार्शनिकता के साथ - साथ सरलता और भाव - व्यंजना भी है। दार्शनिक वाद - विवाद कराकर अन्त में सगुण भक्ति की प्रतिष्ठा की है। 'भ्रमरगीत' छन्द का आविष्कार सर्व प्रथम नन्ददास के ही 'भ्रमरगीत' में मिलता है।

(ग) तुलसीदास - गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीकृष्ण गीतावली और कवितावली में 'भ्रमरगीत' प्रसंग का वर्णन किया है। कवितावली में गोपियों की मार्मिक व्यथा व्यक्त हुई है -

जोग कथा पठई ब्रज को सब सो।

तुलसी सो सुहागिनि नन्दलाल की।

'श्रीकृण गीतावली' में तुलसी ने 'भ्रमरगीत' के प्रसंग को बहुत विस्तार किया है। उनके 'भ्रमरगीत' में भ्रमर का प्रवेश नहीं होता। मर्यादा स्थापन की प्रकृति तुलसी की भ्रमरगीत की समस्त विशेषताएँ पाई जाती हैं। उनकी गोपियाँ सूर और नन्ददास की गोपियों की तरह उद्दण्ड और चंचल नही हैं। वे बडी ही विनम्रता से उद्धव से वार्तालाप करती हैं।

भक्तिकाल मे कृष्णदास, हरिराय, मलूकदास, मुकुन्ददास, घासीराम, रहीम, रसखान आदि ने भी भ्रमरगीत प्रसंग पर स्फुट छन्द लिखे।

(घ) रीतिकाल में भ्रमरगीत-काव्य :- रीतिकाल के कुछ कवियों ने भी भ्रमरगीत प्रसंग पर फुटकल रचनायें की हैं। इनकी रचनाओं में 'मधुकर', 'मधुप', 'भ्रमर' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। मतिराम, देव, भिखारी दास, धनानन्द, पद्माकर, सेनापति आदि कवियों ने भ्रमरगीत प्रसंग पर स्फुट छन्द लिखे हैं।

(ङ) सत्यनारायण 'कविरत्न' का भ्रमरदूत - आधुनिक युग के कवि श्री सत्यनारायण 'कविरत्न' के 'भ्रमरदूत' में मौलिक प्रसंगो का समावेश हुआ है। इस काव्य में न उद्धव है, न गोपियाँ, न ज्ञान योग, न भक्ति का वाद विवाद, न - निर्गुण - सगुण का खण्डन - मण्डन । यशोदा माता ही भ्रमरदूत बना कर कृष्ण के पास भेजती हैं। देश की सामाजिक और राजनीतिक अधोगति का चित्रण ही इसका मुख्य उद्देश्य है। कवि ने पुरानी परम्परा को छोड़ कर यशोदा को भारतमाता के रूप में प्रस्तुत किया है।

विलपति अति कलपति जबे लखी जननि बिज स्याम।

(च) रत्नाकरजी का उद्भव शतक - रत्नाकरजी ने अपने उद्धव शतक में पूर्ववर्ती सभी भ्रमर गीत काव्यों की - विशेषताओं का समन्वय करने का प्रयत्न किया है। यही कारण है कि इसमें सूरदासजी की भावत्मकता, नन्ददास की- सी तार्किकता और रीतिकालीन कवियों का चमत्कार आदि सब गुण मिलते हैं। रत्नाकरजी के भ्रमर गीत की - विशेषता यह है कि इस में कृष्ण और गोपियों में तुल्यानुराग की प्रतिष्ठा की गई है। गोपियों के प्रेम में कृष्ण की व्याकुलता देखिए -विरह-विया की कथा अथाह महा, कहत बने न जो प्रवीन सुकवीनि सौ।

नैकु कही बैननि अनेक कही नैननि सौ, रही-रही सोऊ कहि दीनी हिचकानि सौ॥

रत्नाकर की गोपियो में भवावेश धिक मात्रा में है। उन में सूर की गोपियो का हृदय नन्ददास की गोपियों की बुद्धि और आधुनिक नारी के चतुर्य का मिश्रण है। भाषा में नवीन नवीन प्रयोग भी पाये जाते हैं।

(छ) हरिऔध का प्रियप्रवास - प्रियप्रवास में श्रृगार का चित्रण आधुनिक सुधारवादी दृष्टिकोण से किया गया है। नायिका वासना और प्रेम की सीमाओं से ऊपर उठ कर अपने विश्वप्रेम एवं लोकहित के भाव का परिचय देती है। प्रेम, स्नेह, वात्सल्य, मैत्री आदि भावों की व्यजना भी सफलतापूर्वक हुई है। 'प्रियप्रवास' में गोपियाँ उद्धव को उपालम्भ देने के स्थान पर अपनी हृदयस्थ प्रणय-भावना एव विरह वेदना की ही व्यजना करती हैं।

श्यामा बातें श्रवण करके बालिका एक रोई।

रोते-रोते अरुण उसके हो गये नेत्र दोनों।

ज्यों-ज्यों लज्जा-विवश वह थी रोकती वारिधारा।

त्यों-त्यों आँसू धिकतर थे लोचनों मध्य आते।

गोपियाँ अपनी अज्ञता स्वीकार करती हैं -

भोली भाली ब्रज अवनि क्या योग की रीति जाने।

कैसे बूझे अबुध अबला ज्ञान-विज्ञान की बात।।

हरिऔध की गोपियाँ अन्त में विश्वहित के लिए अपने सुख का बलिदान करना स्वीकार कर लेती हैं। व्यक्तिगत प्रेम की परिणति विश्वप्रेम में होती है।

मेरे जी में हृदय बिजयी विश्व का प्रेम जाग।

मैने देख परम प्रभु को स्वीय प्राणेश ही में।।

6. उपसंहार

इस प्रकार हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत की दीर्घ परम्परा रही है। इस प्रसंग को हिन्दी में प्रचलित करने का श्रेय एकमात्र सूरदास को ही है। उनके भ्रमरगीत की मार्मिकता से ही परवर्ती कवि प्रभावित तथा प्रेरित हुए। भ्रमर की आड में सूरदास की गोपियों ने विरह वेदना, बिवशता, रोष, उपालम्भ, व्यंग्य, उपहास, आत्मदैन्य आदि विभिन्न भावों से युक्त जो युक्तियाँ कही हैं वे युग-युगों तक अमर रहनेवाली हैं।

सूर की गोपियाँ उद्धव से कहती हैं -

ऊधो मन नाही दस बीस

एक हुतो सो गयौ स्याम संग

इस में बढ़ कर प्रेम माधुरी की उक्ति और क्या हो सकती है!

श्रीमदभागवत् और सूरदास के 'भ्रमरगीतों' की तुलना कर स्पष्ट कीजिए कि सूरदास का भ्रमरगीत किन-किन बातों में मौलिक है। | SURDAS | BRAMARAGEETH

श्रीमदभागवत् और सूरदास के 'भ्रमरगीतों' की तुलना कर स्पष्ट कीजिए कि सूरदास का भ्रमरगीत किन-किन बातों में मौलिक है।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. भागवत की कथा

3. भागवतकार का उद्देश्य

4. श्रीमद्भागवत् और सूरदास के भ्रमरगीत के कथानक की तुलना

5. सूरदास की मौलिकता

6. सूरदास के तीन भ्रमरगीत

7. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

हिन्दी साहित्य में उपालम्भ काव्य के रूप में 'भ्रमरगीत' का विशेष महत्त्व है। 'भ्रमरगीत' शब्द 'अमर' और 'गीत' दोनो शब्दों के योग से बना है। 'भ्रमरगीत' शब्द का अर्थ - 'भ्रमर का गान' अथवा 'भ्रमर को लक्ष्य करके गाया हुआ गान' होता है।

'भ्रमरगीत' विप्रलम्भ श्रृंगार का काव्य है। कृष्ण गोपियों से प्रेम- क्रीडायें करके उनको अपने वियोग में तडपते छोड कर मथुरा चले जाते हैं। मथुरा में कंस का वध करके राज-काज में वे इतना अधिक व्यस्त हो जाते हैं कि उन को गोकुल लौटने का अवसर ही नहीं मिलता। वे अपने ज्ञानी मित्र उद्धव को गोकुल में माता-पिता, ग्बाल-बाल और गोपियों को सान्त्वना देने के लिए भेजते हैं। 'गोकुल में उद्धव का गोपियों से वाद-विवाद होता है। उस वादोपबाद में उद्धव हार जाते हैं और गोपियों की प्रमानुभूति में निमग्न होकर वे मयुरा लौट जाते है।

'भ्रमरगीत' का इतना ही सक्षिप्त और सीधा कथानक है। इसका मूल स्रोत श्रीमद्भागवत् है।

2. भागवत की कथा :

भागवत में कृष्ण उद्धव को ब्रज में जाकर माता- पित्ती की कुशल क्षेम जानने और उनको समझा बुझाकर प्रसन्न एवं संतुष्ट करने को प्रेरित करते हैं। साथ ही वे उद्धव को और बताते हैं कि वे गोपियों की वियोगावस्था का शमन करें और सान्त्वना प्रदान करें।

भागवत की गोपियाँ पहले कृष्ण की कुशलक्षेम पूछती हैं और तदुपरान्त उन्हें उपालम्य देती हुई विरह वेदना से व्याकुल हो रो पड़ती हैं। गोपियों के अनन्य प्रेम को देखकर उद्धव मुग्ध हो जाते हैं और उनकी प्रशंसा करने लगते हैं। उसी समय कहीं से एक भ्रमर उड़ता हुआ आता है और एक गोपी के पैर पर बैठ जाता है। वह गोपी भ्रमर को लक्ष्य कर पुरुष द्वारा प्रेम के क्षेत्र में विश्वासधात को लेकर उसकी भर्त्सना करती है। गोपियों की दृढ़ प्रेमासक्ति देख कर उद्धव का हृदय उनके प्रति श्रद्धा से भर जाता है। वे ज्ञान, योग, कर्म आदि की तुलना में गोपियों की इस एकान्तिक भक्ति भावना की प्रशंसा करते हैं।

3. भागवतकार का उद्देश्य :

'भागवत' के उद्धव गोपियों को ज्ञान और योग का उपदेश देने नहीं आते। वे गोपियों को ज्ञान, योग और निर्गुण का उपदेश देना प्रारम्भ नहीं करते।

'भ्रमरगीत' की रचना में भागवतकार का उद्देश्य ज्ञान और भक्ति का द्वन्दव दिखाने का नहीं था। भागवत में ज्ञान, कर्म और भक्ति का सामंजस्य हुआ है। भागवतकार के अनुसार कृण का मथुरा- गमन सोद्देश्य है। गोपियों के प्रेम की दृढता को और भी अधिक गम्भीर एव गहन बनाना भागवतकार व्यासजी का उद्देश्य रहा।

भागवत में कृष्ण गोपियों को एकांत भक्ति की चित साधना सिखाना चाहते हैं और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे मथुरा चले जाते हैं। भागवतकार का उद्देश्य केवल धर्म-साधना का है। गोपियों के चित में स्थिरता लाने के लिए ही कृष्ण जान बूझ कर ब्रज से मथुरा चले जाते हैं।

4. 'श्रीमद्भागवत्' और सूरदास के 'भ्रमरगीत' के कथानक की तुलना

भ्रमरगीत का मूलस्रोत श्रीमद्भागवत् दशम स्कन्ध पुर्वार्ध के ४६ वें अध्याय में है, पिता तथा गोपियों को सान्त्वना प्रदान करें। उस आदेश के अनुसार उद्धव ब्रज पहुँचते हैं। वे वहाँ जाकर प्रजभूमि की कला झाँकी का दर्शन करते हैं। ये नन्द और यशोदा से मिलते हैं। कुशल क्षेम के पश्चात नन्दबाबा तथा यशोदा दुःख निवदेन करते हैं। उन उनके भाग्य की सराहना करते हैं और फिर श्रीकृष्ण के आत्म स्वरूप होने पर एक व्याख्यान-सा देते हैं और बातें करते हुए रात्रि व्यतीत हो जाती है।

प्रातः काल गोपियों से उद्धव की भेंट होती है। वे कहती हैं "उन्होंने आप को माता पिता को सान्त्वना देने के लिए भेजा है। अब हम से क्या मतलब ?" बस, यहीं से उपालम्भ आरम्भ हो जाता है। गोपियाँ कृष्ण की लीलाओं का स्मरण करके ये उठती हैं। इसी समय एक भ्रमर आकर एक गोषी के पैर पर बैठ जाता है। उसी को संबोधित करके गोपियों पुरुषों द्वारा प्रेम में किये गये विश्वासघात को लक्ष्य बना कर उपालम्भ देती हैं।

उद्धव गोपियों की प्रेमानुभूति पर मुग्ध होते हैं और स्वयं व्रज रजकण होने की आकांक्षा प्रकट करते हैं जिससे वे प्राप्त कर सके। गोपियशान्त हो जाती हैं। कुछ महीनों बाद उपस जाने लगते ब्रजांगनाओं की चरणरज है तो गोपगण, नन्दबाबा, यशोदा आदि यही कहते हैं कि उन्हें मोक्ष की इच्छा नहीं है। वे सब यही चाहते हैं कि उन के मन की एक एक वृत्ति, एक एक संकल्प श्रीकृष्ण में ही लगे रहे।

सूरदास के उद्धव तो ब्रज जाने के लिए तैयार होते हैं। कृष्ण के मोह भरे वचनों को सुनकर वे मुस्कराते हैं और मन ही- मन ज्ञान-गर्व प्रकट करते हैं।

श्रीकृष्ण उद्धव से केवल सान्त्वना देने को ही नहीं कहते हैं, अपिंतु निर्गुण उपदेश की बात कहते हैं -

उद्धव ! यह मन निश्चय जानो।

पूरन ब्रह्मा सकल अविनासी ताके तुम हो ज्ञाता।

यह मत दै गोपिन कहँ आवउ॥

सूर की गोपियाँ मानों पहले से ही तैयार रहती हैं। वे उद्धव को आते ही घेर लेती हैं और मथुरा के यादवों पर व्यग्य करने लगती हैं।

“वह मथुरा काज की कोठरि जे आवें तो कारे।” सूरदास की गोपियाँ विकल और वाक्चतुरा हैं।

5. सूरदास की मौलिकता :

भागवतकार का उद्देश्य केवल धर्म साधना का है। कृष्ण गोपियें के चित में स्थिरता लाना चाहते हैं। भागवतकार के उद्धव गोपियों के कृष्ण प्रेम की सराहना करते हैं, जब कि सूरदास के उद्धव उनके कृष्ण प्रेम की निरर्थकता बताते हुए उन्हें ज्ञान और योग का उपदेश देने लगते हैं। गोपयिो के साथ उद्धव का उत्तर प्रत्युत्तर होता है। गोपियों की सरल निष्काम भक्ति के सामने उद्धव निरुत्तर एव पराजित से दिखाई देते हैं।

हम तौ दुहूँ भाँति फल पायौ।

जौ ब्रजराज मिलैं तो नीको नातरु जग जस गायौ।

गोपियों की प्रेम-बिह्नवलता को देखकर उद्धव गद्गद् हो जाते हैं और प्रेमाश्रुपूरित लौट कर कृष्ण के चरणों में गिर पड़ते हैं। कृष्ण अपने पीतमाम्बर से उनके आँसू पोंछकर उनकी दशा पूछते हैं।

प्रेम विह्नवल ऊधौ गिरे नैन जल छाय।

पोंछि पीत पर सों कही, आए जोग सिखाय।

मानो यही निर्गुण के ऊपर सगुण का, ज्ञान के ऊपर भक्ति की श्रेष्ठता और सरलता की प्रतिष्ठा है।

भ्रमरगीतसार में सूरदास ने नारी के तप और योग के स्थान पर उसके समर्पण और अनन्यता पर विशेष बल दिया है। उस सम्बन्ध में डॉ. उपाध्याय का कथन है- "पुराण और काव्य में जो अन्तर है वही भागवत और सूर के भ्रमरगीत में है।"

6. सूरदास के तीन भ्रमरगीत :

हिन्दी में सर्वप्रथम “भ्रमरगीत" रचने का श्रेय सूरदास को है। सूर के भ्रमरगीत में भागवत के भ्रमरगीत की अपेक्षा अनेक विशेषताएँ और मौलिकताएँ हैं।

सूरदास ने तीन भ्रमरगीतों की रचना की।

(क) प्रथम भ्रमर गीत : - सूरदास का प्रथम भ्रमरगीत भागवत के भ्रमरगीत का अनुवाद मात्र है। इसकी रचना दोहा, 'चौपाई' तथा 'सार' छन्द में है। इस में न तो सूर की नयी मान्यताएँ हैं या न ज्ञान वैराग्य की चर्चा ही।

(ख) द्वितीय भ्रमरगीत: :- सूर का द्वितीय भ्रमरगीत केवल एक ही पद में लिखा गया है। इस में उद्धव का गोपियों के प्रति उपदेश, गोपियों के उपालम्भ, उद्धव का मथुरा गमन एवं श्रीकृष्ण के समक्ष गोपियों के विरह का वर्णन तथा उसे सुन कर श्रीकृष्ण का मूर्च्छित हो जाना आदि सब एक ही छन्द में वर्णन किया गया है। इस में न तो भ्रमर का प्रवेश होता है और न गोपियाँ उपालम्भ ही देती हैं।

(ग) तृतीय भ्रमरगीत - सूर ने इस भ्रमरगीत को काव्यत्व का रूप प्रदान किया है। इस में कथा एवं भाव का क्रमबद्ध संयोजन है। इस काव्य में सूरदास भ्रमर के माध्यम से कृष्ण और उद्धव को मन भर कर उपालम्भ दिलाते हैं। अन्त में उद्धव के ज्ञानयोग और निर्गुणोपासना की पराजय होती है। सूरदास ने व्यास विरचित 'भ्रमरगीत' को परम्परानुसार - ग्रहण कर अपनी अद्भुत प्रतिभा से पूर्णता पहुँचा दी है।

7. उपसंहार

सूर के भ्रमरगीत का स्रोत व्यास विरचित भागवत तो है। सूर की कला में भगवत पुराण ने काव्यत्वका रुप धारण किया है। उन के युग में सगुण और निर्गुण की उपासना का भीषण द्वन्दव चल रहा था। सूरदास अपने भ्रमरगीत द्वारा निर्गुणोपासना का खण्डन करके साकारोपासना का प्रतिपादन किया है।

सूर के 'भ्रमरगीत' में ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को श्रेष्ठ सिद्ध किया गया है। ज्ञान का खंडन और भक्ति का मंडन हुआ है।

भ्रमरगीत की कथा और स्वरूप पर प्रकाश डालिए। | SURDAS | BRAMARAGEETH

भ्रमरगीत की कथा और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।

रूपरेखा :

1. संक्षिप्त कथा

2. श्रीकृष्ण का सन्देश

3. मूलस्रोत भागवत

4. काव्य का प्रतिपाद्य

5. प्रेमानुभूति

6. उपसंहार

1. संक्षिप्त कथा :

'भ्रमरगीत' सूरसागर की सर्वोत्कृष्ट रत्नराजि है। यह विप्रलम्भ श्रृगार का काव्य है। कृष्ण गोपियों से प्रेम- क्रीडाएँ करके उनको अपने वियोग में व्यथित होते छोड कर मथुरा चले जाते हैं। मथुरा में कंस का वध करके राजकाज में वे व्यस्त हो जाते हैं। अतः उनको गोकुल लौटने का अवसर नहीं मिलता। तब वे अपने ज्ञानी मित्र उद्धब को गोकुल में माता-पिता, बाल-बाल और गोपिय को सांत्वना देने के लिए भेजते हैं। गोकुल मे जाकर उद्धव का गोपियों से बाद विवाद होता है। उस वाद विवाद में उद्भव हार जाते हैं और गोपियों की प्रेम भावना में निमग्न हो कर वे मथुरा लौट जाते हैं।

2. श्रीकृष्ण का सन्देश

कृष्ण उद्धव को ब्रज में जाकर माता-पिता की कुशलक्षेम जानने और उनको सान्त्वना देकर सन्तुष्ट करने को प्रेरित करते हैं। साथ ही वे उद्धव से यह भी कहते हैं कि वे गोपियों को समझा-बुझा कर उनकी वियोग पीडा का शमन करें और सान्त्वना प्रदान करें।

3. मूलस्रोत भागवत :

भ्रमरगीत का मूल स्रोत व्यास विरचित श्रीमद्भागवत है। भागवतकार गोपी- उद्धव संवाद के बीच एक भ्रमर को ला देते हैं। भ्रमर उडता हुआ आता है और एक गोपी के चरण को कमल समझ कर उस पर बैठ जाता है। गोपियाँ उद्भव को छोड़कर उस भ्रमर के पीछे पड जाती हैं। भ्रमर को लक्ष्य करके वे कृष्ण औ उद्धव को खरी खोटी सुनाने लगती हैं। गोपियों के समक्ष उद्धव का सारा ज्ञान - गर्व चला जाता है। भागवत के उस मूल कथानक के आधार पर 'भ्रमरगीत' की रचना हुई हैं।

4. काव्य का प्रतिपाद्य : -

सूरदास के 'भ्रमरगीत सार' के साथ हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत की परम्परा आरम्भ होती है। ज्ञान के ऊपर भक्ति का विजय घोष इस काव्य की विशेषता है। तर्कशैली का परित्याग करके नाटकीय विधान एव सरस भाषा के आधार पर ज्ञानमार्ग की उपेक्षा भक्तिमार्ग की श्रेष्ठता भ्रमरगीत काव्य का प्रतिपाद्य विषय है।

प्रज्ञाशील कवि सूरदास गोपियों द्वारा भक्तिरस की मधुरता का प्रतिपादन कराते हैं। गोपियाँ अपने भोलेपन, अपनी सरलता एवं कृष्ण प्रेम की अनन्यता के द्वारा उद्धव जैसे ज्ञानी को निरुत्तर करके भक्तिरस में तन्मय भी करा देती हैं।

सुन गोपिन को प्रेम नेम ऊधो को भूल्यो।

गावत गुन गोपाल फिरत कुंजनि में भूल्यो।

छन गोपिन के पग धेरै धन्य तिहारो प्रेम।

कृष्ण का बाल्यकाल गोकुल में व्यतीत होता है। वहीं साथ- साथ खेलते-खाते और गायें चराते हुए उनका गोकुल के ग्वाल एवें वहाँ की ग्वालिनों से प्रेम हो जाता है। लडकपन का साहचर्य - प्रेम किसी भाव में नहीं छूट सकता हैं। इसी लिए उद्धव गोपियों की विवशता को समझ पाते हैं -

लरिकाई को प्रेम कहो अलि कैसे छूटे?

परिस्थितियों के वश में पडकर लडकपन के साथी बिछुड गये। एक दूसरे की याद करके वे सदैव दुःखी बने रहते हैं। बस, उनके वियोग की कथा ही 'भ्रमरगीत सार' का प्रतिपाद्य विषय है।

5. प्रेमानुभूति :

'भ्रमरगीत सार' में श्रीकृष्ण के बाल्यकाल एव यौवनकाल के मनोहर चित्र हैं। कृष्ण उद्धव के समक्ष अपने प्रेम की चर्चा करते हुए कहते हैं -

उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।

हंससुता की सुन्दर कगरी, अरु कुंजन की छाही।

वे सुरभी वै बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जाही।

यह मथुरा कंचन की नगरी मनि मुकताहल जाहीं।

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जबहिं सुरति आवृति वा सुख की जिय उमगत तम नाहीं।

गोपियों और कृष्ण का सम्बन्ध आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध के समान है। गोपियों के प्रेम में आत्मोत्सर्ग की भावना बढ़ती जाती है। कृष्णभक्ति में विह्वल हो गोपियाँ कहती हैं -

ऊधो, भन नाहीं दस बीस

एक हुतो सो गयो स्याम संग को आराधे ईस?

कृष्ण जब से मथुरा गये हैं, तब से गोपियों के नेत्रों में वर्षा आ जाती है। उनकी आँखें श्रावण - भादों के मेघों के रूप में बरसती रहती हैं। क्षण भर के लिए भी आँसू बन्द नहीं होते हैं -

निसि दिन बरसत नैन हमारे,।

सदा रहति पावस रितु हम पै, जब तैं स्याम सिधारे।

ट्टंग अंजन लागत नहिं कबहुँ, उर कपोल भए कारे।

कंचुकि पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे।

गोपियाँ अपनी विरह-वेदना के सम्बन्ध में ढिंढोरा पीटती हुई कहती हैं 'प्रीति करि काहू सुख न लहयौ'।

6. उपसंहार :

गोपियों की प्रेमतन्मयता को देखकर उद्धव का ज्ञान-गर्व चला जाता है और उनकी प्रेम भक्ति पर आस्था हो। जाती है। वे मथुरा लौटकर गोपियों की दशा का वर्णन करते हैं और कृष्ण को निष्ठुर बताते हैं। भागवत का उद्देश्य केवल धर्म साधना है। भगवत की कथा समस्त भ्रमरगीतों का आधार है। -

गोपियों के प्रेमानुभूति के सामने उद्धव निरुत्तर एवं पराजित- से दिखाई देते हैं। गोपियों की प्रेम दिहलता देख कर उद्धव गद्गद् हो जाते हैं। और प्रेमाश्रुपूरित लौट कर कृष्ण के चरणों में गिर पड़ते हैं। कृष्ण पीताम्बर से उन के आँसू पोछ कर उनकी दशा पूछते हैं।

प्रेम विह्वल ऊधो गिरे नैन जैल छाय

पोछि पीत पट सो कही, आए जोग सिखाय

यही निर्गुण के ऊपर सगुण का और ज्ञान के ऊपर भक्ति की श्रेष्ठता और सरलता की प्रतिष्ठा है।