गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

जायसी | मानसरोदक खण्ड | घरीं तीर सब कंचुकि सारी, सरवर महँ पैठी सब बारी | JAYASI | PADMAVATH

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(5)

घरीं तीर सब कंचुकि सारी, सरवर महँ पैठी सब बारी

पाइ नार जानौं सब बेली, हुलसहिं करहि काम कै केली

करिल केस बिसहर बिस - भरे लहरै लेहि कवैल मुख धरे

नवल बसन्त सँवारी करीं, होई परगट चाहहि रसभरीं

उठीं कोंप जस दायिँ दाखा, भइ ओनंत प्रेम कै साखा

सरिवर नहिं समाइ संसारा, चाँद नहाइ पैठ लेइ तारा

धनि सो नीर ससि तरई ऊई, अब कित दीठ कवॅल और कूई

चकई बिछुरि पुकारै, किहाँ मिलौ हो नाहँ।

एक चाँद निसि सरग महँ, दिन दूसर जल माहँ।

शब्दार्थ:

कंचुकि = चोली | बारी = बालाएँ। बेलीं = बेलें, लताएँ। हुलसी = प्रसन्न हुई। नवल = नया । करिल = काले। बिसहर = सर्प । कोंप = कोंपल । ओनंत = झुकना । उईं = उदित हुई। कुई कुमुदिनी। सरग = आकाश।

भावार्थ:

पद्मावती और सखियों ने छिपी हुई अपनी चोलियाँ किनारे पर रख दीं और सब बालाएँ तालाब में घुस गईं। वे सच ऐसे प्रसन्न हुई जैसे लताओं ने जल पा लिया हो। वे सब आनन्दित हुई और काम की क्रीहाएँ करने लगीं। उनके काले काले बाल ऐसे प्रतीत होते थे मानो बिषैले सर्प हों और केश के पास सुन्दर मुख ऐसा लगता ता कि सर्पोड ने अपने मुख में कमल को पकड रखा हो और सब लहराते फिर रहे हो। उनके आधर ऐसे लगते थे मानो आनार और दाख की कोमल कोंपल निकल रही हों। उनके वक्ष स्थल पर थोडे उभरे हुए उरोज प्रकट करते थे मानो उनकी आयु के नये वसन्त ने कलियों को पैदा करदिया हो और थे कलियाँ रसपूर्ण होकर पूर्ण यौवन के रूप में प्रकट होना चाहती हों। किंचित झुकी हुई बालाएँ ऐसी लगती तीं प्रेम की शाखा ही झुक गई। प्रसन्नता के मारे सरोवर फूला हुआ था। अब वह संसार में नहीं समाता क्यों कि पद्मावती रूपी चन्द्रमा अपनी सखियों साथ उसमें नहा रहा है। वह जल धन्य है जहाँ चन्द्रमा और नक्षत्र उदित हो गये। अब वहाँ कमल और कुमुदिनी कहाँ दिखाई पडते हैं ?

चकवी चकवे से बिछुड कर पुकारती है, "हे नाथ! तुम कहाँ मिलोगे ! एक चन्दुमा तो रात्रि को स्वर्ग में रहता है और दूसरा दिन में जल में रहता है।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | सरवर तीर पदुमिनी आई, खोंपा छोरि केस मुकलाई | JAYASI | PADMAVATH

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(4)

सरवर तीर पदुमिनी आई, खोंपा छोरि केस मुकलाई

ससि-मुख अंग मलयगिरि बासा, नागिन झाँपि वीन्ह चहुँ पासा

ओनये मेघ परी जग छाहाँ, ससि कै सरन लीन्ह जनु राहाँ

छपि गौ दिनहि भानु कै दसा, लेइ निसि नखंत चाँद परगसा

भलि चकोर दीठि मुख लावा, मेघ घटा महँ चन्द देखावा

दसन दामिनी कोकिल भाखी, भौंहें धनुखं गगन लेइ राखी

सरवर रूप बिमोहा, हियें हिलोरहि लेइ

पावँ छुवै मकु पावौं, येहि मिस लहरैं देइ

शब्दार्थ 

खोंपा = जूडा। छोरि = खोलकर । मोकराई = फैलाया। अरधानी = सुगन्धि के लिए। ओनए = छाजाने से। राहाँ = रहुने | दिस्टि = दृष्टिं | विमोहा = मोहित हो गया । मकु = स्यात | मिसु = बहाने से।

भावार्थ:

पदिमनी जाति की वे स्त्रियाँ सरोवर के किनारे आयी और अपने जूडे खोलकर बालों को फैला दिया। पद्मावती रानी का मुख चन्द्रमा के समान और शरीर मलयाचल की भाँति है। उस पर बिखरे हुए बाल ऐसे लगते हैं जैसे सर्पों ने सुगंध के लिए उसे ढ़क लिया हो। फिर ऐसा लगता है कि वे बाल मानो मेघ ही उमड आये हों जिससे सारे जगत में छाया फैल गयी। मुख के समीप बाल ऐसे लगते हैं मानो राहुने चन्द्रमा की शरण लेली हो। केश इतने घने और काले हैं कि दिन होते हुए भी सूर्यका प्रकाश छिंप गया है। और चन्द्रमा रात में नक्षत्रों को लेकर प्रकट हो गया। चकोर भूल कर उस ओर लगा रहा क्यों कि उसे मेघों की घटा के बीच पद्मावती का मुख रूपी चन्द्रमा दिखाई दे रहा पद्मावती के दाँत बिजलीके समान चमकीले थे और वह कोयल के समान मधुर भाषिणी थी। भौंहें ओकाश में इन्प्रधनुषलग रही थीं . नेत्र क्रीडाकरनेवाले खंजन पक्षी लग रही थीं।

मानसरोवर पद्मावती के रूप को देख कर मोहित हो गया। हृदय में वह कामना रूपी लहरें भरने लगा। लहरें पद्माती के चरणों को स्पर्श करने के बहाने उभर रही थी।

विशेषताएँ:

यहाँ उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा और भ्रान्तिमान अलंकार प्रयुक्त हुए है।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | मिलहिं रहसि सब चढ़हि हिडोरी झूलि लेहि सुख बारी भोरी।

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(3)

मिलहिं रहसि सब चढ़हि हिडोरी झूलि लेहि सुख बारी भोरी।

झूलि लेहु नैहर जब ताई, फिरि नहिं झूलन देशह साई।

पुनि सासुर लेइ राखिहि तहाँ, नैहर चाह न पाउब जहाँ।

कित यह धूप कहाँ यह छाहाँ, रहब सखी बिनु मंदिर माहाँ।

गुन पूछिहि और लाइहि दोखू, कौन उत्तर पाउब तहँ मोखू।

सासु ननद के भौह सिकोरे, रहब सँकोचि दुवौ कर जोरे।

किन रहसि जो आउब करना ससुरेइ अंत जनम दुख भरना।

कित तैहर पुनि आउब, कित ससुरे यह खेल।

आपु आपु कहँ होइहि, परब पंखि जस डेल।

शब्दार्थः

रहसि = रहेंगी। हिंडोरी = झूला। पाउब = पायेंगी । छाहाँ = छाँव, छाया। मोखू = मोक्ष । सिकोरे = सिकोडेगी। साईं = परमात्मा । परब = भावार्थ: झूठा । परिव = पक्षी । डेल = पिंजहा।

भावार्थ:

सखियाँ आपस में कहती हैं, "अभी हम मिलजुल कर झूला झूलेंगी। कारी बारी से हम झूला झूल कर हम भोली कन्याएँ सुख प्राप्त करेंगी। नैहर में रहने पर ही यह झूला झूलेंगी। फिर भगवान हमें झूलने नीं देगा। फिल हमें ससुराल जाकर रहना पडेगा। तब हम कहाँ नैहर पायेंगी। यह धूप, यह छाँव, यह वातावरण, ग्रह मंदिर, ये सखियाँ आदि फिर हमें कहाँ प्राप्त होंगे। गुणों के बारे में पूछताछ कर के दोष बताये जायेंगे और किस प्रकार का उत्तर देकर वहाँ मोक्ष प्राप्त करेंगी। सास और ननद भौंहे सिकुडेंगी और हमें दोनों हाथ जोड़ कर संकोच में रहना पडेगा। फिर कब यहाँ आना होगा और ससुराल में ही जन्म का दुख भोगते हुए पडा रहना होगा।

कहाँ फिर नैहर में आयेंगी और कहाँ ससुराल पर यह खेल होगा? हम सब अपने-अपने ससुराल पर ही पिंजडे में पक्षी की तरह रहेंगी।

विशेषताएँ:

जायसी ससुराल में बधुओं की दयनीय स्थिति का वर्णन करते हैं।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | सोलन मानससरोवर गई, जापान पर ठाडी भई।

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(2)

सोलन मानससरोवर गई, जापान पर ठाडी भई।

देखि सरोवर रहसई केली पद्मावत सौ कह सहेली।

ये रानी मन देखु विचारी, एहि नैहर रहना दिन चारी।

जो लागे अहै पिता कर राजू, खेलि तेहु जो खेलहु आजू।

पुनि सासुर हम गयनम काली, कित हम कित यह सरवर पाली।

कित आवन पुनि अपने हाथी, कित मिति कै खेलव एक साथी।

सासुननद बोलिन्ह जिउनेही दास्न ससुर न निसरै देहि।

पिउ पिआर सिर ऊपर, सो पुनि करै दहुँ काह।

दहुँ सुख राखै की दुख, दई कस जनम निबाहू।

भावार्थः

सारी सखियाँ खेलती हुई मानसरोवर पर आई और किनारे खडी हुई। मानसरोवर को देख कर वे सब आती क्रीडा करती हैं। सच सहेली पदमावती से कहती है, "हे रानी! मन में विचारकर देखलो। इस नैहर में चार दिन ही रहना है। जब तक पिता का राज्य है, तब तक खेल लो जैसा आज खेल रही हो। फिर हमारा ससुराल चले जाने का समय आयेगा। तब हम न जाने कहाँ होंगे और कहाँ यह सरोवर और कहाँ यह किनारा होगा। फिर आना अपने हाथ कहाँ होगा ? फिर हम सबका कहाँ मिलकर खेलना होगा ? सास और ननद बोलते ही प्राण ले लेंगी। ससुर तो बडा ही कठोर होगा। वह हमें यहाँ आने भी नहीं देगा।"

इन सब के ऊपर प्यारा प्रियतम होगा। न जाने वह भी फिर कैसा व्यवहार करेगा। न जाने वह सुखी रखेगा या दुखी। न जाने जीवन का निर्वाह कैसे होगा।

विशेषताएँ : यहाँ तत्कालीन वघुओं की परतन्त्राता पर चर्चा हुई है। ससुराल में वधुओं की दीन दशा का विवरण हुआ है।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | एक दिवस पून्यौ तिथि आई, मानसरोदक चली अन्हाई।

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(1)

एक दिवस पून्यौ तिथि आई, मानसरोदक चली अन्हाई।

पदमावति सब सखी बुलाई, जनु फुलवारि सबै चलिआई।

कोई चम्पा कोइ कुंद सहेली, कोइ सुकेत करना रसबेली।

कोई सु गुलाल सुदरसन राती कोइ सोबकावरिबकचुन भाती।

कोइ सु मौलसरि पुहुपावती, कोइ जाही जूही सेवती।

कोइ सोनजरद कोइ केसर कोई सिंगारहार नागेसर।

कोइ कूजा सदबरग चॅबेली, कोई कदम सुरस रसबेली।

चलीं सबै मालति सँग, फूले कर्बल कुमोद।

बेधि रहे गन गंधरव, बास परीमल मोद।

शब्दार्थ:

पूनिउँ = पूनोंकी, उन्हाई = स्नान करने, नकौरि = गुलबकावली, बकचुन = गुच्छा, जाही = एक प्रकार फूल, जूही = यूथिका, सेवती = सफेद गुलाब, जेउँ = जसी, गंध्रप = गंधर्व

भावार्थः

एक दिन पूनम की तिथि आयी । पद्मावती मानसरोवर नहाने के लिए चली। उसने अपनी सब सखियों को बुलाया। वे इस प्रकार चलने लगी मानों समस्त फुलवारी ही चली आयी हो। उन सखियों में कोई चम्पा, कोई कुन्द, कोई केतनी, करना, रसबेली, गुलाल, सुदर्शन, गुलबकावली का गुच्छा आदि लग रही थीं, कोई सोनजरद जैसी थी और कोई केसर जैसी थी, कोई हरसंगार तो कोई नागकेसर की तरह थी। कोई कूजा जैसी और कोई सदबरंग और चमेली की तरह भी, कोई कदम्ब की तरह हो तो और कोई सुन्दर रसबेली जैसी थी।

वे सब पद्मावती के साथ ऐसे चली मानो कमल के साथ कुमदिनी हों। उनकी सुगन्धि की व्यापकता के कारण गन्धर्व के समूह भी प्रभावित हो रहे थे।

अलंकारः उत्प्रेक्षा तथा उपमा अलंकार यहाँ प्रयुक्त हुए हैं।