गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

पद्मावत में व्यक्त रहस्यवाद पर प्रकाश डालिए। | पद्मावत के आधार पर जायसी कृत रहस्यवाद की चर्चा कीजिए।

 पद्मावत में व्यक्त रहस्यवाद पर प्रकाश डालिए।
                                        अथवा
पद्मावत के आधार पर जायसी कृत रहस्यवाद की चर्चा कीजिए।

रूपरेखा

1. प्रस्तावना

2. अद्वैतवाद की परिणति: रहस्यवाद

3. सूफी संप्रदाय तथा रहस्यवाद

4. जायसी और रहस्यवाद

5. पद्मावत में व्यक्त रहस्यवाद

6. अन्तर्जगत तथा बाह्य जगत: बिंब - प्रतिबिंब भावना

7. अमरधाम

8. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

भारतीय अद्वैतवाद तथा ब्रह्मवाद को सभी पैगम्बरी मतों ने स्वीकार किया। वही दार्शनिक अद्वैतवाद साहित्य के क्षेत्र में रहस्यवाद के रूप में विलसित हुआ। योरोप में भी अद्वैतवाद ईसाई धर्म के भीतर रहस्य - भावना के रूप में लिया गया था। जिस प्रकार सूफी ईश्वर की भावना प्रियतम के रूप में करते थे उसी प्रकार स्पेन, इटली आदि यूरोपीय देशों के भक्त भी ईश्वर को भावना करते थे।

अद्वैतवाद के दो पक्ष हैं।

1. आत्मा और परमात्मा की एकता तथा

2. ब्रह्म और जगत की एकता

दोनों मिलकर सर्ववाद की प्रतिष्ठा करते हैं - 'सर्वं खलिवदं ब्रह्म'; 'सर्व ब्रह्ममयं जगत्' । ईसा की 19 वीं शताब्दी में यूरप में रहस्यात्मक कविता सर्ववाद के रूप में जागृत हुई। अंगरेज कवि शेली में सर्ववाद की झलक दिखाई देती है। आयलैंड में कीट्स की रहस्यमयी कविवाणी सुनाई देती है। उसी समय भारत में कबीर, खीन्द्र की कलम से रहस्यवादी कविता उतरने लगी।

2. अद्वैतवाद की परिणति :

रहस्यवाद अद्वैतवाद का प्रतिपादन पहले उपनिषदों में मिलता है। उपनिषद भारतीय ज्ञान - कांड के मूल हैं। प्राचीन कवि अद्वैतवाद का तत्व चिन्तन करते थे। अद्वैतवाद मूलतः एक दार्शनिक सिद्धान्त है, कवि कल्पना या भावना नहीं। वह ज्ञान क्षेत्र की वस्तु है। दर्शन का संचार भावक्षेत्र में होने पर उच्च कोटि के भावात्मक रहस्यवाद की प्रतिष्ठा होती है। रहस्यवाद दो प्रकार का होता है -

1. भावात्मक

2. साधनात्मक

हमारे यहाँ का योगमार्ग साधनात्मक रहस्यवाद है। अद्वैतवाद या ब्रह्मवाद को लेकर चलनेवाली भावना से सूक्ष्म तथा उच्च कोटि के रहस्यवाद की प्रतिष्ठा होती है। गीता के दशम अध्याय में सर्ववाद का भावात्मक प्रणाली पर निरूपण हुआ है।

3. सूफी संप्रदाय तथा रहस्यवाद :

निर्गुण भक्ति शाखा के कबीर, दादू आदि सैतों की कविता में व्यक्त ज्ञान मार्ग भारतीय वेदान्त का भारतवर्ष में साधनात्मक रहस्यवाद ही हठयोग तंत्र और रसायन के रूप में प्रचलित था। सूफी मत में भी इसके प्रभाव से 'इला, पिंगला, सुषुम्ना' नाडियों का संचार तथा षट्चक्रों की चर्चा हुई। फलतः (1) रहस्य की प्रवृत्ति और (2) ईश्वर को केवल मन के भीतर देखना सूफी संतों ने अपना लिया। रहस्यवाद का स्फुरण सूफियों में पूरा-पूरा व्याप्त हुआ। कबीर के रहस्यवाद पर भी सूफी प्रभाव है। लेकिन कबीर के रहस्यवाद में साधनात्मक अधिक और भावात्मक कम।

4. जायसी और रहस्यवाद :

जायसी की कविता में रमणीय और सुन्दर अद्वैती रहस्यवाद है। उनकी भावुकता बहुत ही उच्च कोटि की है। सूफियों की भक्तिभावना के अनुसार जगत के नाना रूपों में प्रियतम परमात्मा के रूपमाधुर्य की छाया देखते हैं। सारे प्राकृतिक रूपों और व्यापारों को 'पुरुष' के समागम के हेतु प्रकृति के श्रृंगार उत्कण्ठा या विरह - विकलता का रूप वे अनुभव करते हैं।

5. पद्मावत में व्यक्त रहस्यवाद :

'पद्मावत' के ढंग के रहस्यवाद पूर्ण प्रबन्धों की परंपरा जायसी से पहले की है। मृगावती, मधुमालती आदि रहस्यवादी रचनाएँ जायसी के पहले ही हो चुकी हैं। उस रहस्यमयी अनन्त सत्ता का आभास देने के लिए जायसी पद्मावत में बहुत ही रमणीय और मर्मस्पर्शी दृश्य संकेत उपस्थित करते हैं। उस परोक्ष ज्योति और सौन्दर्यसत्ता की और लौकिक दीप्ति और सौंदर्य के द्वारा जायसी संकेत करते हैं -

जहँ जहँ बिहँसि सुभावहिं हँसी। तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी॥

नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर।

हँसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नग हीर॥

प्रकृति के बीच दिखाई देनेवाली सारी दीप्ति परमात्मा की ही है।

चाँदहि कहाँ जोति औ करा।

सुरुज के जोति चाँद निरमरा॥

मानस के भीतर प्रियतम के सामीप्य से उत्पन्न अपरिमित आनन्द की और विश्वव्यापी आनन्द की यंजना जायसी के काव्य में व्यक्त होती है।

देखि मानसर रूप सोहावा।

हिय हुलास पुरइनि होइ छावा॥

गा अँधियार रैन मसिछूटी। भा भिनसार किरिन रवि फूटी॥

कँवल विगस तस विहँसी देही। भँबर दसन होइ कै रसलेही॥

6. अन्तर्जगत तथा बाह्य जगत: बिंब-प्रतिबिंब भावना

जायसी रहस्यवाद के अन्तर्गत अन्तर्जगत तथा बाह्य जगत और बिंब प्रतिबिंब भावना व्यक्त करते हैं।

बरुनि -चाप अस ओपहँ बेधे रन बन ढाँख।

सौजहि तन सब रोबाँ, पंखिहि तन सब पाँख॥

पृथ्वी और स्वर्ग, जीव और ईश्वर दोनों एक थे; न जाने किस ने बीच में इतना भेद डाल दिया है।

धरती सरग मिले हुतदोऊ। केइ निनार के दीन्ह बिछाऊ॥

जो इस पृथ्वी और स्वर्ग के वियोग तत्त्व को समझेगा और उस वियोग में पूर्णतया सम्मिलित होगा, उसी का बियोग सारी सृष्टि में व्याप्त होगा -

राती सती, अगिनि सब काया, गगन मेघ राते तेहि छाया।

सायं - प्रभात न जाने कितने लोग मेघखंडों को रक्तवर्ण होते देखते हैं। पर किस अनुराग से ये लाल हैं, इसे जायसी जैसे रहस्यदर्शी भावुक ही समझते हैं।

7. अमरधाम :

प्रकृति के महाभूत सारे उस 'अमरधाम' तक पहुँचने का, बराबर पहुँचने का, बराबर प्रयत्न करते रहते हैं। पर, साधना पूरी हुए बिना पहुँचना असंभव है।

चाँद सुरज और नखत तराई। तेहि डर अंतरिख फिरहि सबाई॥

पवन जाइ तहँ पहुँचे चहा। मारा तैस लोटि भुइँ रहा॥

अगिनि उठी, जरि बुझी निआना। धुँआ उठा, उठि बीच बिलाना॥

पानि उठा, उठि जाइ न छूआ बहुरा रोइ, आइ भुइँ चूआ।

8. उपसंहार :

इस अद्वैतवादी रहस्यवाद के अतिरिक्त जायसी कहीं-कहीं उस रहस्यवाद में आ फँसे हैं जो पाश्चात्यों की दृष्टि में झूठा रहस्यवाद है। उन्होंने स्थान स्थान पर हठयोग, रसायन आदि का भी आश्रय लिया है।

जायसी की प्रेम-व्यंजना प्रस्तुत कीजिए।

जायसी की प्रेम-व्यंजना प्रस्तुत कीजिए।

रूपरेखा : -

1. प्रस्तावना

2. जायसी का 'पद्मावत'

(क) कथावस्तु

(ख) नारी (आलंबन) सौंदर्य का वर्णन

(ग) उद्दीपन (प्रकृति) का वर्णन

(घ) प्रेमाश्रय का चित्रण

(ङ) संचारीभाव

(घ) अनुभूतियाँ

(छ) स्थाई भाव का उत्कर्ष

3. उपसंहार

1. प्रस्तावना - भारतीय साहित्य में प्रेमाख्यानों की परम्परा :

भारतीय साहित्य में लगभग पाँचवीं शताब्दी से एक ऐसी काव्य-परम्परा का प्रवर्तन हुआ, जिसमें साहस और प्रेम का चित्रण अद्भुत रूप में मिलता है। इस काव्य परम्परा की आरम्भिक कृतियाँ - वासवदत्ता (सुबन्ध), कादम्बरी (बाण) और दशकुमार चरित (दंडी) हैं। प्राकृत - अपभ्रंश की तरंगवती, समरादित्य - कथा, भुवन - सुन्दरी, मलय - सुन्दरी, सुर - सुन्दरी, नागकुमार चरित, यशोधर चरित, करकंड चरित, पद्म चरित आदि में प्रेम का वही रुप उपलब्ध होता है, जो कि संस्कृत के वासवदत्ता, कादम्बरी एवं दशकुमार- चरितादि में मिलता है। आगे चलकर यही काव्य - परम्परा हिन्दी में विकसित हुई जिसे सूफी प्रेमाख्यान- परम्परा या 'निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा' कहा जाता है। महाकवि जायसी भी इसी काव्य- परम्परा के अन्तर्गत आते हैं।

हमारे विद्वानों का विश्वास है कि जायसी तथा अन्य प्रेमाख्यान रचयिता कवियों ने अपने काव्य में अलौकिक - प्रेम या रहस्यवाद की व्यंजना की हैं। इस मत के समर्थन में ये युक्तियाँ दी गई है –

(१) इन कवियों ने सूफी मत के प्रचार के लिए अपने काव्यों की रचना की।

(२) इन काव्यों में आत्मा और परमात्मा के प्रेम का रूपक बाँधा गया है।

(३) इनमें स्थान - स्थान पर आध्यात्मिक सिद्धान्तों एवं साधना पद्धतियों का निरूपण किया गया है।

(४) इन काव्यों में नायिका (जो कि परमात्मा की प्रतीक है) के व्यक्तित्व एवं सौन्दर्य का इतने व्यापक रूप में चित्रण किया गया है कि जिससे किसी 'अनन्त सौंदर्य - सत्ता' के स्वरूप का आभास होने लगता है।

(५) इनमें प्रेम और विरह का ऐसा वर्णन किया गया है कि जिसमें आध्यात्मिकता का दर्शन होने लगता है।

जायसी ने लिखा है- मैंने यह सोचकर काव्य लिखा है कि संसार में मेरा कोई स्मारक चिन्ह रह जाय। जो लोग इस कहानी को पढ़ेंगे, वे मुझे भी याद करेंगे -

औ मैं जानि कवित अस कीन्हा।

मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा॥

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जो यह पढ़े कहानी, हम्ह सैवरै दुई बोल

पद्मावत के अन्त में कवि जायसी ने घोषित किया है -

प्रेम कथा एहि भांति विचारहु, बूझि लेई जौ बुझे पारहु । इस रूपक में रत्नसेन को मन का तथा पद्मावती को बुद्धि का प्रतीक माना गया है। रत्नसेन के सिंहलगढ़ में पहुँचने के अनन्तर भी पद्मावती को एक कामवासना एवं भोग लिप्सा से विह्वल युवती के रूप में देखते हैं -

जोबन भर भादौं जस गंगा, लहरें देई, समाइ न अंगा।

'यौवन भार' एवं कानोन्माद का जैसा वर्णन किया गया है, उससे स्पष्ट है कि पद्मिनी का प्रेम सर्वथा लौकिक स्तर का

2. 'जायसी का 'पद्मावत' -

(क) कथावस्तु -

हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य परम्परा की सर्वश्रेष्ठ रचना जायसी कृत 'पद्मावत' मानी जाती है। इसका नायक रत्नसेन है, जो कि हीरामन तोते के मुँह से पद्मिनी के रूप सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर उसके प्रेम में बिह्वल हो जाता है। वह अपने घर, परिवार और देश को छोड़कर उसकी प्राप्ति के लिए निकल जाता है तथा अनेक कठिनाइयों के पश्चात् उसकी प्राप्ति में सफल हो पाता है। विवाह के अनन्तर भी पद्मिनी और रत्नसेन को कई कष्टों का सामना करना पड़ता है । अन्त में दिल्ली सुलतान अलाउद्दीन से युद्ध करता हुआ रत्नसेन वीरगति को प्राप्त हो जाता है और पद्मिनी सती हो जाती है। इस काव्य में श्रृंगार रस के सभी अवयवों एवं अनेक दशाओं का मामिंक वर्णन उपलब्ध होता है।

(ख) नारी (आलम्बन) सौन्दर्य का वर्णन :

नारी- सौन्दर्य के चित्रण में जायसी ने परम्परागत नख - शिख वर्णन की शैली का प्रयोग किया है। उन्होंने नारी रूप के सामूहिक प्रभाव की व्यंजना की अपेक्षा उसके अंग प्रत्यंग का अलग-अलग वर्णन किया है। वे अपनी सूक्ष्म - पर्यवेक्षण - शक्ति के बल पर प्रत्येक अवयव की बाह्य एवं आन्तरिक विशेषताओं का उद्घाटन कुशलतापूर्वक कर देते हैं; यथा केशों का एक वर्णन देखिए –

भँवर केस, वह मालति रानी। विसहर लुरहि लेहि अरघानी।

बैनो छोरि झारु जौं बार। सरग पतार होइ अंधियारा॥

यहाँ केशों की श्याम - वर्णता, वक्रता, सुगन्धि एवं मनमोहकता आदि सभी गुणों की व्यंजना भ्रमर, विषधर, अन्धकार, मलयगिरि और श्रृंखला आदि उपमानों की सहायता से कर दी गई है।

वस्तु के सूक्ष्मातिसूक्ष्म चित्रण के जायसी के सौन्दर्य - वर्णन में कुछ प्रवृत्तियाँ और मिलती हैं। एक तो उन्हें वर्णन -विस्तार से इतना अधिक प्रेम है कि उनका नख - शिख - वर्णन एक पूरे सर्ग का रूप ले लेता है। दूसरे, वे अत्युक्तियों एवं अतिशयोक्तियों का अधिक प्रयोग करते हैं।

सुन्दरियों के रूप के प्रभाव सिद्ध करने के लिए भी वे द्रष्टा के आहत हो जाने मूच्छित हो जाने, या प्राण त्याग देने की कल्पना बारम्बार करते हैं। फिर भी सौन्दर्य की व्यंजना उनके काव्य में वर्णन के रूप में ही अधिक होती है। एक एक अंग का अलग अलग विखरा हुआ सौन्दर्य किसी समन्वित प्रभाव की पुष्टि नहीं करता, उनकी अत्युक्तियाँ -

आश्चर्यजनक होते हुए भी पाठकों के हृदय को तरंगित करने में असमर्थ हैं और उनका विस्तृत वर्णन उभार देनेवाला सिद्ध होता है। नारी की सूक्ष्म चेष्टाओं एवं मधुर भाव - भंगिमाओं का चित्रण भी उनके काव्य में बहुत कम हुआ है।

(ग) उद्दीपन (प्रकृति) का वर्णन :

श्रृंगारोद्दीपन के लिए भी जायसी ने ऋतु - वर्णन एवं बारहमासा-कथन की परम्परागत शैलीयों का व्यवहार किया है, फिर भी उनकी कुछ निजी विशिष्टताएँ हैं। संयोग में समय शीघ्र बीत जाता है, किन्तु विरह के क्षण लम्बे होते हैं, अतः जायसी ने दोनों के लिए क्रमशः ऋतु - वर्णन और बारहमासा - वर्णन का आयोजन करके सूक्ष्म बुद्धि का परिचय दिया है।

उदाहरणस्वरूप कुछ पंक्तियाँ देखिए -

रितु पावस बरसौ, पिउ पावा। सावन भादों अधिक सुहावा॥

कोकिल बैन, पाँत बग छूटी। गनि निसरि जेउँ बीरबहूटी॥

संयोगकालीन दृश्यों के चित्रण में कवि के प्रत्येक शब्द से उल्लास की अभिव्यक्ति होती थी, वहाँ उपर्युक्त वर्णन में वातावरण की कठोरता को ऐसे शब्दों में उपस्थित किया गया है कि पाठक का हृदय अनुभूति से ओत-प्रोत हो जाता है। वस्तुतः जायसी का प्रकृति - वर्णन कल्पना और अनुभूति के सुन्दर सामंजस्य से पूर्ण है और वह स्थायीभाव की व्यंजना के अनुरुप पृष्ठभूमि तैयार करने में पूर्णतः समर्थ है।

(घ) प्रेमाश्रय का चित्रण : -

पद्मावत में प्रणय - भावना का आश्रय प्रारम्भ में केवल नायक ही रहता है, जो अपने प्रयत्नों से नायिका के हृदय को भी जीत लेने में सफलता प्राप्त कर लेता है। यद्यपि तोते के मुख से नख - शिख - वर्णन सुनकर रत्नसेन की सौन्दर्यानुभूतियों की व्यंजना अत्यन्त मार्मिक रूप में हुई है।

फूल फूल फिरि पूँछों, जो पहुँचों आहिं केत।

तन निछावर के मिलों, ज्यों मधुकर जिउ देत॥

(ङ) संचारी भाव :

श्रृंगारस के क्षेत्र में रति और निर्वेद जैसे दो विरोधी संचारी भावों की स्थिति एक साथ संभव होती है। रत्नसेन के हृदय में भी प्रणय की गम्भीरता के साथ ही वैराग्य की सृष्टि हो जाती है और वह अपना सब कुछ त्यागकर घर से निकल जाता है।

तजा राज राडा भा जोगी। ओ किंगरो कर गहेउ वियोगी।

तन विसंभर मन बाउर रटा। अरुझा प्रेम परी सिर जटा॥

रत्नसेन का यह निर्वेद संयोग होने तक बराबर प्रणय भावना के साथ चलता रहता है। इसके अतिरिक्त संचारी भावों की भी योजना कवि ने अवसरानुभूति सफलता पूर्वक की है।

(च) अनुभूतियाँ :

पद्मनी की प्रेमानुभूतियाँ - पद्मनी में हम प्रेमानुभूतियों का विकास ऋमिक रूप में पाते हैं। प्रारम्भ में वह काम-वेदना से पीड़ित है -

सुनु हीरामन कहों बुझई, दिन-दिन मदन आई सतावै।

जोवन मोर भयउ जस गंगा, देह-देह हम्ह लाग अनंगा॥

आगे चलकर रत्नसेन के दर्शन के अनन्तर उसकी यह कामवासना प्रेम में परिणत हो जाती है और जब वह सुनती है कि उसका प्रियतम उसी के लिए शूली पर चढ़ रहा है तो उसके हृदय का अणु- अणु पिघलकर मानवता के रूप में बहने लगता है।

संयोगानुभूतियाँ - जायसी ने नायक - नायिका की संयोगानुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए प्रथम समागम, हास - परिहास, शतरंज- चौपट के मनोरंजन, सुरत एवं सुरतान्त आदि का विस्तृत वर्णन किया है। विवाह के अनन्तर प्रथम रात्रि में प्रियतम के पास जाती हुई पद्मावती की हृदय- दशा का परिचय उसके इन शब्दों में मिलता है -

अनचिन्ह पिउ काँपे न माहाँ, का मैं कहब गहब जब बाँहाँ।

जब रत्नसेन अपने प्रेमपूर्ण शब्दों से उसका भय और संकोच दूर कर देता है तो वह भी अपना कृत्रिम भोलापन प्रदर्शित करती हुई अपनी हास- परिहासमयी उक्तियों से छेड़- छाड़ करने लगती है।

अपने मुँह न बढ़ाई छाजा, जोगो कतहुँ न होहि नाहि राजा ।

(छ) स्थायीभाव का उत्कर्ष

पद्मावत में प्रेम भावना के प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उसमें नायक और नायिका में प्रेम का विकास एक साथ नहीं होता। दोनों के प्रेम प्रवृत्ति एवं गति में भी पर्याप्त भेद है। रत्नसेन प्रेम के आदर्श स्वरूप को उपस्थित करता है, जबकि पद्मावती ने यथार्थ एवं व्यावहारिक रूप का लोभ - मात्र सिद्ध किया है।

पद्मावती की प्रणय - भावना में हम क्रमिक विकास पाते हैं। पिरस्थि तियों के अनुसार उसमें प्रेम, कामुकता और रसिकता की सीमा को पार करके अपने विशुद्ध एवं गम्भीर स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, जो मनोवैज्ञानिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से बहुत संगत है। अपने विकास की चरमावस्था में आदर्श प्रेम और यथार्य प्रेम दोनों एक स्तर पर पहुँच जाते हैं। पद्मावती की प्रणय - भावना अन्त में साहस, त्यागादि के सभी गुण से समन्वित हो जाती है, जो रत्नसेन में हम प्रारम्भ से ही पाते है।

रत्नसेन और पद्मावती के प्रणय सम्बन्ध के कारण नागमती का कष्ट - भोग और विवाह के अनन्तर दोनों - सपत्नियों की ईर्ष्या, कलह आदि देखकर कदाचित् कुछ लोग उनके प्रेम को अश्रद्धा की दृष्टि से देखें, अतः इस दुष्टि से विचार करना आवश्यक है। कवि ने आरम्भ में नागमती को रूप - गर्विता एवं तोते की हत्या में प्रयत्नशील दिखाकर पाठक की सहानुभीति के मार्ग में अवरोधक लगा दिया है। अतः उसके प्रति राजा का निष्ठुर व्यवहार उचित प्रतीत होता है। नागमती का दारुण विरह अवश्य हृदयद्रावक है, किन्तु रत्नसेन उसका संदेश प्राप्त होते ही लौट जाता है। सपत्नियों की प्रारम्भिक गुह-कलह भी स्वाभाविक है, जो आगे परिस्थितियों की कठिनता से शान्त हो जाती है।

3. उपसंहार :-

वस्तुतः इस काव्य में प्रेम को आदर्श और यथार्थ - दोनों गुणों से समन्वित करते हुए उसे पूर्ण उत्कर्ष तक पहुँचा दिया गया है। बिना साहस और त्याग के प्रेम पूर्ण गंम्भीरता को प्राप्त करने में असमर्थ रहता है। प्रेम का यह आदर्श भारतीय साहित्य में मुख्यतः प्रेमाख्यानों में पूर्ण शब्दों में व्यंजना करने की दृष्टि से जायसी हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट कवि सिद्ध होते हैं ।

मानसरोदक खण्ड का सारांश लिखिए।

मानसरोदक खण्ड का सारांश लिखिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. अनुपम रूप लावण्य

3. तत्कालीन समाज की बधुओं की परतंत्र स्थिति

4. पद्मावती का पारमात्मिक रूप

5. उपसंहार

1. प्रस्तावना:

मानसरोदक खण्ड की रचना सूफी महान कबि मलिक महम्मद जायसी ने की थी। प्रेम पीर के सच्चे साधक जायसी ने पदमावत काव्य में लौकिक प्रेम के द्वारा अलैकिक प्रेम का निरूपण किया है। इस काव्य में नायिका पदमावती परमात्मा की प्रतीक है। उसके व्यक्तित्व एवं सौंदर्यसत्ता एवं सौंदर्य का इतने व्यापक रूप में चित्रण किया गया है कि जिससे किसी अनंत सौंदर्य- सत्ता के रूप में आभास होने लगता हैं। जायसी का रहस्यवाद मूलतः भारतीय अद्वैत भावना पर अश्रित है।

गंधर्वसेन राजा की रानी चम्पावती के गर्भ से पद्मावती का जन्म होता है। कन्या राशि में उत्पन्न होने से उनका नाम पद्मावती रखा गया। इस काव्य में पद्मावती रूप वर्णन के साथ साथ में पारमात्मिक तत्त्व भी बताया गया है। 'पद्मावत' प्रेममार्गी विचारधारा का काव्य है।

2. अनुपम रूप लावण्यः

किसी पूनम के दिन पदमावती मानसरोवर में स्नान करने के लिए अपनी सब सखियों के साथ निकलती है, मानो समस्त फुलवारी ही निकलती है। वे सब मालती रूप पद्मावती के साथ ऐसे चलीं मानो कमल के साथ कुमुदिनी हो। उनकी सुगन्धि की व्यापकता के कारण गंधर्व के समूह भी प्रभावित हो रहे थे।

“भेली सबै मालनि संग फूले केवल कमोद।

. बेधि रहे गन गंध्रप बास परिमलामोद।"

पद्मिनी की सखियों ने सरोवर के किनारे अपने जूडे खोलकर बालों को फैला दिया। पद्मावती का मुख चन्द्रमा के समान है और शरीर मलयाचल की भाँति है। उस पर बिखरे हुए बाल ऐसे हैं जैसे सर्पों ने सुगन्धि के लिए इसे ढक लिया हो या फिर ये बाल मानो मेध ही उमड़ आये हैं जिससे सारे संसार में छाया हो गई। लहराते बाल ऐसे लगते हैं कि चन्द्रमा को ढक लिया है। केश इतने घने और काले हैं कि दिन होते हुए भी सूर्य का प्रकाश छिप गया, और चंद्रमा रात में नक्षत्रों को लेकर प्रकट हो गया। चकोर आकाश में चंद्रमा और धरती पर विराजमान चद्रमों को देखकर घबरा गयी। पद्मावती के दाँत बिजली जैसे चमकीले थे और वह कोयल की तरह मधुर भाषिणी थी। भौंहें ऐसी थीं जैसे आकाश में इंद्रधनुष हो। नेत्र क्या थे मानो दो खंजन के पक्षी क्रीड़ा कर रहे हों।

मानसरोवर उसके रूप को देखकर मोहित हो गया और इस बहाने से लहरें ले रहा कि किसी तरह पदंमावती के पैर छू सके।

3. तत्कालीन समाज की बधुओं की परतंत्र स्थितिः

सरोवर में स्नान करते समय या सब खेलती हुई सब सहेलियाँ पद्मावती से कहती हैं- हे रानी! मन में विचार करके देख लो। इस पीहर में चार दिन ही रहना है। जब तक पिता का राज्य है तभी तक खेल लो जैसा कि आज फिर हमारा ससुराल जाने का समय आ जाएगा, तो फिर न जाने हम कहाँ होंगे और कहाँ यह तालाब और इसका किनारा होगा? और मिलकरके साथ खेल न पायेंगे। सास और ननद बोलते ही प्राण ले लेंगी। ससुर बडा कठोर होगा। वह आने भी नहीं देगा। न जाने प्रियतम कैसा व्यवहार करेगा।

"पिउ पिआर सब ऊपर सो पुनि करै देह काह।

कहुँ सुख राखै की दुख दहुँ कस जरम नि बाहु॥"

सखियाँ खेलती- खेलती रही, एक सखी का हार पानी में खो गया और वह चित्त से बैसुध हो जाती है। वह अपने आप कहने लगती है - मैं इनके साथ खेलने ही क्यों आई थी। स्वयं अपने हाथों से अपना हार खो चली। घर में घुसते ही इस हार के विषय में पूछे गये तो फिर क्या उत्तर देकर प्रवेश पा सकूँगी ? उसके नेत्र रूपी सीपी में आँसू भर आते हैं। एक सखी कहती है हमारे साथ खेलने की अच्छाई है और हार खोने की बुराई भी। जीवन में अच्छाई और बुराई दोनों होते हैं।

4. पद्मावती का पारमात्मिक रूपः

जब पद्मावती मानसरोवर में स्नान करने के लिए निकलती है तो पानी उसके पाँव छूने के लिए उछलने लगता है, जिस तरह परमात्मा का चरण छूने के लिए भक्त उभरते - ललचाते हैं। मानसरोवर ने कहा कि पारस के स्पर्श से लोहा, कंचन हो जाता है। वैसे ही उसके पैरों के स्पर्श से मैं निर्मल हो गया। उसके शरीर से मलयाचल की सुगंधि से मेरी तपन बुझ गई। मेरी दशा पुण्य की हो गई और पाप नष्ट हो गये।

चंद्रमा रूप पद्मावती की मुस्कान को देखकर कुमुदिनी रूप सखियाँ भी मुस्कराने लगी। जिस तरह भी देखो पद्मावती का रूप ही दर्शाने लगा है। जायसी कहते हैं सरोवर में कमल तो पद्मावती के नेत्र ही मानो प्रतिबिंबित कमल थे। उसका निर्मल शरीर ही मानो सरोवर में प्रतिबिंबित निर्मल जल था। उसका हास ही प्रतिबिंबित हंस थे। उसके दाँत ही मानो सरोवर में प्रतिबिंबित नग और हीरे थे।

इसमें जायसी ने परमेश्वर के बिम्ब - प्रतिबिम्ब भाव को इस प्रसंग के माध्यम से प्रकट करने का प्रयत्न किया है। पद्मावती बिम्ब है और यह सम्पूर्ण जगत उसीका प्रतिबिम्ब है।

5. उपसंहार -

जायसी के काल में यह पता चलता है कि नारी के (सौन्दर्य) नखशिख सौन्दर्य का वर्णन होता था। उन दिनों में प्रचलिय सामाजिक परिस्थितियों में नारी के पति के घर में जीवन का स्वरूप और नारी की मनोचिंतन का विश्लेषण हुआ है। पद्मावती को इस काव्य में परमात्मा के रूप में दर्शाया गया है। स्त्री की पूजा करदे नारी समाज की उन्नति करने का प्रयास किया गया है । पदमावती रूपी पात्र से सौंदर्य की लहर के साथ-साथ परब्रह्म का भी विश्लेषण हुआ है। पारमात्मिक सत्ता पर बल दिया गया है। जायसी के विलक्षण शैली से यह काव्य हिन्दी साहित्य में विशिष्ट बना।

इस प्रकार "पदमावत" काव्य में मानसरोदक खण्ड के द्वारा जायसी रहस्यवाद का प्रतिपादन करते हैं।

कबीरदास | साखी | सबद | रमैनी

कबीरदास :

जीवनवृत नीरू और नीमा द्वारा जुलाहा परिवार में पालित, शास्त्रज्ञान से वंचित पर काशी में आचार्य रामानंद का शिष्यत्व ग्रहण, जीवन का बहुत बड़ा भाग काशी में व्यतीत, अनेक संत-महात्माओं का सत्संग, १२९२ ई में सिकंदर लोदी द्वारा दंडित करने की चेष्टा, जीवन के अंतिम भाग में मगहर में निवास।

निरक्षर होने पर भी परम ब्रह्मज्ञानी, धार्मिक एकत्व और सामाजिक समता के बेजोड़ प्रबक्ता, निर्गुण, मतबाद के पुरस्कर्त्ता, मध्ययुग के सबसे सशक व्यंग्यकार रचनाएँ बीजक (साखी, सबद और रमैनी)।

साखी

गुरु गोबिंद तो एक है दूजा यहु आकार।

आप मेटि जीवत मरै तो पावै करतार।।


कबीर सतगुरु ना मिल्या रही अधूरी सीख।

स्वांग जती का परि घरि घरि भौगो भीख।।


सतगुरु ऐसा चाहिए जैसा सिकलीगर होइ।

सबद मसकला फेरि करि देह द्रपन करे कोइ।।


कबीर सुमिरण सार है सकल जंजाल।

आदि अंत सब सोधिया दूजा देखौ काल।।


कबीर निरभै राम जपि जब लग दीवै बाति।

तेल घट्या बाती बुझी तब सोबैगा दिन राति।।


लावा मारग दूरि घर बिकट पंथ यहु मार।

कहौ संतौ क्यूँ पाइये दुरतभ हरि दीदार।।


चकवी बिछुरे रैणि की आइ मिली परभाति।

जे जन बिछुरे राम सूं ते दिन मिले न राति।।


यह तन जारौँ मसि करौं धुवां जाइ सरग्गि।

मति वे राम दया करै बरसि बुझावे अग्गि।।


बिरह भुवंगम तनि बसै मंत्र न लागौ कोइ।

राम वियोगी ना जिवै जिबै तो वोरा होइ।।


सब रंग ताँत रबाब तन पिरहु बजावै नित्त।

और न कोई सुणि सकै कै सांई के चित्त।।


विपबा बुरहा जिनि कहै बिरहा है सुलितान।

जिस घटि विरह न संचरै सो घट सदा मसांण।।


आँखड़ियाँ झंई पड़ी पंथ निहारि निहारि।

जीभड़ियाँ छाला पडया नाम पुकारि पुकारि।।


इस तन का दीवा करों बनी मेलहुँ जीव।

लोही सीचें तेल त्यूँफकब मुख देखौं पवि।।


जे रोऊं तौ बल घंटै हसौं तो राम रिसाइ।

मन ही मांहि बिसूरणां ज्यूं घुंण काठहिं खाइ।।


कै विरहिनि कूं मींच दै कै आपा दिखलाई।

आठ पहर का दाझणां मोपै सह्या न जाइ।।


हिरदा भीतर दौ बलौ धूंवा न प्रगट होइ।

जाकै लागी सो लखै कै जिनि लाई सोइ।।


अंतरि कवल प्रकासिया ब्रह्म- वास तहां होई।

मन भँवरा तहाँ लुबधिया जाणैगा जन कोई।।


हद्द छाड़ि बेहद गया कीया सुन्नि स्नान।

सुनि जन महल न पार्व तहाँ किया बिश्राम।।


पंजरि प्रेम प्रकासिया जाग्या जोग अनत।

संसा खूटा सुख भया मिल्या पियारा कंत।।


पाणी ही ते हिम भया हिम है गया बिलाइ।

जो कुछ था सोई भया अब कछु कह्या न जाइ।।


जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहि।

सब अंधियारा मिटि गया जब दीपक देख्या मांहि॥


हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराइ।

बूँद समाणी समंद में सो कत हेरी जाइ।।


हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराइ।

समंद समांणां बूँद में सो कत हेरया जाइ।।


कबीर एक न जाणियां तौ बहु जाण्या क्या होइ।

एक तै सब होत हैं सब तैं एक न होइ।।


कबीर कहा गरबियौ इस जोबन की आस।

कसू फूले दिवस चारि खंखड़ भवा पलास।।


कबीर कहा गरबियौ काल गहे कर केस।

ना जाणौं कहां - मारिसी कै धरि कै परदेस।।


यह तन काचा कुंभ है लीयां फिरै या साथि।

ठबका लागा फूटिया कछू न आया हाथि।।


हिरदो भीतरि आरसी मुख देखणां न जाइ।

मुख तौ तौ परि घूंदेखिए जे मन की दुबिधा जाइ।।


काया देवल मन धजा विषै लहरि फहराइ।

मन चालयाँ देवल चलै ताका सरबस।।


कबीर मारग कठिन है कोई न सक।

गए से बहुड़े नहीं कुसल कहै को आई।।


माया मुई नमन वा मरि मरि गया सरीर।

आता त्रिस्नांना भुई यूँ कह गया कबीर।।


सहज सहज सब कोई कसै सहज ने चीन्हे कोई।

जिन्ह सहजै विषया तजी सहज कहोजे सोइ।।


मन मथुरा दिल द्वारिका काया कासो जांगि।

दसवां द्वारा देहुरे तामै जोति पिछांणि।।


पावक रूपी राम है घटि घटिरह्या समा।

चित चकमक लागी नहीं ताते ही धुंधुँआइ।।


गावण ही में रोज है रोवण ही में राग।

इक बैरागी गृह में इक गिरही बेराग।।


हम घर जाल्या आपणां लीया मुराढ़ा हाथि।

अब घर जालों तासका जे तलें हमारे साथि।।

सबद

(1)

संतो धोखा कासूं कहिए।

गुण मैं निर्गुण निर्गुण मैं गुण है बाट छाड़ि क्यूँ बहिर।

अजरा अमर कथै सब कोई अलख न कथणां जाई।

नां तिस रूप बरन नंही जाकै घटि-घटि रह्य समाई।

व्यंड ब्रह्माणअड की सब कोई बाकै आदि अरु अंति न होई।

प्यंड ब्रह्मण्ड छाड़ि जे कधिए कहै कबीर हरि सोई।।

(2)

लोका मति के भोरा रे।

जौ कासी तन तज़े कबीरा तो रामहि कहा निहोरा रे।

तब हम वैसे अब हम ऐसे इहै जनम का लाहा।

ज्यूं जल में जल पैसि न निकसै यूं दुरि मिल्या जुलाहा।

राम भगति परि जाको हित चित ताकी अचिरज काहा।

गुरु प्रसाद साध की संगति जग जीतें जाइ जुलाहा।

कहत कबीरः सुनहु रे संतौ श्रमि पैर जिनि कोई।

जस कासी तस मगहर ऊसर हिरदै राम सति होई।

(3)

पानी विच मीन पियासी।

मोहि सुनि - सुनि आवत हाँसी।

आतम ज्ञान विना सब सूना क्या मथुरा क्या कासी।

घर में वस्तु घरी नहिं सूझै बाहर खोजत जासी।

मृग की नाभि माँहि क्सतूरी वन वन फिरत उदासी।

कहत कबीर सुनो भाई साधो सहज मिले अविनासी।

(4)

बाल्हा आव हमारे गेह रे।

तुम्ह बिन दुखिया देह रे।

सबको कहै तुम्हारी नारी मोकौ इहै अंदेह रे।

एकमेक है सेज न सोवै तब लग कौसा नेह रे।

आन न भावै नींद न आवै ग्रिह बन धेरै न धीर रे।

ज्यूं कामी कौं काम पियारा ज्यूं प्यासे कूं नीर रे।

है कोई ऐसा पर उपगारी हरि सूं कहै सुनाई रे।

ऐसे हाल कबीर भए हैं बिन देखे जीव जाइ रे।

(5)

तो को पीव पिलेंगे घूँघट का पट खेल रे।

घट - घट मे वह साई रहता कटुक वचन मत बोल रे।

धन जौबन को गरव न कीजे झूठा पँच रंग चोल रे।

सून्न महल में दियना बारि ले आसा सों तम डोल रे।

जोग जुगुत सो रँगमहल में पिय पायो अनमोल रे।

कहैं कवीर आनंद भयो है बाजत अनहद ढोल रे।

(6)

झीनी झीनी बीनी चदरिया।

काहे कै ताना काहे कै भरनी कौन तार से बीनी चदरिया।

इंगला पिगला ताना भरती सुखमन तार से बीनी चदरिया।

आठ कँवल दल चरखा डोले पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया।

साई को सियत मास दस लागौ ठोक कै वीनी चदरिया।

सो चादर सुर नर मुनि ओढ़े ओढ़ि कै मैली कीनी चदरिया।

दास कबीर जतन से ओढ़ी त्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।

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ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास की भक्ति का विवेचन कीजिए।

 ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास की भक्ति का विवेचन कीजिए।

रूपरेखा: :

1. प्रस्तावना

2. आत्म निवेदन

3. जीव की लघुता और परमात्मा की महानता

4. शरणागति

5. विरह विग्धता

6. निर्गुण वैष्णव भक्ति

7. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

कबीर और ज्ञानी बताया जाता है। परखने पर ज्ञानी और संत दोनों भक्त के अंतरगत ही आते र मनिार्म की रसात्मक अनुभूति है।" यहाँ रस का अर्थ है परमात्मा में लीन होना। श्रद्धा और क्ति हैं। कबीर वस्तुतः भक्त हैं। ज्ञान, योग, रहस्यवाद आदि भक्ति के समर्थन में आते हैं।

नारद भगवत् में नवधा भक्ति की भविक विश्लेषण हुआ है।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।

अर्चनं वन्दनं दस्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

2. आत्म निवेदन :

भक्ति का प्रधान तत्व आत्म निवेदन है। कबीर परमात्मा से आत्म निवेदन करते हुए कहते हैं –

हे भगवान - साई इतना दीजिए जा में कुटुम्ब समाय......। यह सत्वगुण का लक्षण हैं। इस केलिए आत्म समर्पण की।

3. जीव की लघुता और परमात्मा की महानता :

भक्ति में जीव अपनी लघुता प्रकट करता है और साथ ही परमात्मा की महानता स्वीकार करता है। वह अपने को परमात्मा के अनुयायी और कुत्ते तक बताता है।

कबीर कूता राम का मुतिया मेरा नाम।

गले राम की जेवडी, जित खींचे तित जाऊ॥

4. शरणागत

भक्ति की चरम सीमा शरणागति है। भगवान के नाम पर पूरे रूप से अपना आत्म समर्पण करना शरणागति है। गीताकार के अनुसार - सारे धर्मों कोत्याग कर परमात्मा की शरण में जाना सब से महान धर्म है। तटस्थ जीवन बिताते हुए परमात्मा - का ध्यान करना शरणागति हैं। शरणागति में आत्मोज्जीवन होता हैं। इसीलिए कबीर कहते हैं "मैं किसी अन्य को जानता नहीं केवल राम को जानता हूँ।"

वेद न जानूँ, भेद न जानू जानूँ एकहि रामा॥

5. विरह विदग्धता

भक्ति में तल्लीन होने पर जीव को भगवान के दर्शन का आभास होता है। उस आभास में जीव या भक्त विरह की व्यथा भोगता हैं। कबीर की वाणी में.......

आँखडियाँ झायी पडी, पंथ निहारि निहारि।

जीभडियां छाला पडया., राम पुकारि पुकारि ॥

परमात्मा के दर्शन होने पर भक्त आनन्द विभोर हो कर सर्व जगत में परमात्मा के दर्शन करता है.

लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल ।

लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ॥

6. निर्गुण वैष्णव भक्ति :

कबीर निर्गुण भक्तिधारा के प्रमुख कवि हैं। लेकिन वे राम का जप करते रहते हैं, और कहते है

निरगुण राम निरगुण राम जपहुरे भाई।

रामानन्द के शिष्य होने के कारण कबीर पर वैष्णव भक्ति का प्रभाव अधिक है। उनकी प्रतीक योजना और उलटबाँसियों में वैष्णव संप्रदाय के ही अनेक उदाहरण देखे जाते हैं। वे सारे संसार को भूल सकते हैं, लेकिन राम नाम नहीं भूल सकते। दिन और रात राम के जागरण में वे रहते हैं। कभी-कभी वे रोने भी लगते हैं।

एक न भूला दोइ न भूला, भूला सब संसारा।

सुखिया सब संसार है, खाए और सोये।।

दुखिया दास कबीर है जागे और शेये।।

उपसंहार : -

भक्ति अनुभूति प्रधान है। अनुभूति भावना से समन्वित होने पर भक्ति पल्लवित होती है। जाति-पाँति और ऊँच नीच की भावना रहित निर्गुण भक्ति की रसधारा में निमग्न होनेवाले सर्वप्रथम साधक हैं कबीर। कबीर अलौकिक भावधारा से भक्ति को लौकिक जगत में ले आये। भक्ति में विषय वासनाओं का परित्याग, भजन, कीर्तन, गुरुकृपा, सादाचार, आडम्बर राहित्य, समदृष्टि आदि लक्षण होते हैं। सब से बढ़ कर भगवान के प्रति आत्मसमर्पण होता है। सच्चा भक्त निडर रहता है, क्यों कि परमात्मा सदा उस के साथ रहता है। अतः कबीर का कथन है. -

जाकै रक्खै साइया, मारि न सक्कै कोइ।

बाल न बंका करि सकै, जो जग बैरी होइ।।