गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

कबीर की सामाजिक विचारधारा का मूल्यांकन कीजिए | कबीर की सामाजिक विचारधारा प्रस्तुत कीजिए।

कबीर की सामाजिक विचारधारा का मूल्यांकन कीजिए
                                  (अथवा)
कबीर की सामाजिक विचारधारा प्रस्तुत कीजिए।

रूपरेखा -

1. प्रस्तावना

2. सामाजिक विचारधारा

अ. जाति - पान्त सम्बन्धी विचार

आ. बाह्याडम्बरों का खण्डन

इ. धार्मिक विचार

ई. सात्त्विक विचार

उ. राजनीतिक विचार

ऊ. निन्दा से न डरें

3. उपसंहार

प्रस्तावना :

कवि वस्तुतः सामाजिक प्राणी है। कवि का उद्गम (पैदाइश) समाज से होता है। कवि सदा सामाजिक श्रेय चाहता हैं। उस श्रेय केलिए वह ललचाता रहता है। सामाजिक दोषों को बता कर उनका निर्मूलन करना चाहता है। सामाजिक हित केलिए वह नए मार्गों का भी अन्वेषण करता रहता है।

कबीर वस्तुतः भक्त हैं। भक्त के साथ - साथ वे विचारक भी हैं। विचारक दो प्रकार के होते हैं -

1. भावनापरक विचार और

2. सामाजिक विचार

सामाजिक विचार :

सभ्य मबुव्यों के समूह को समाज कहते हैं। कबीर ने समाज को परखा और समाज से सम्बन्धित अपने विचार के प्रस्तुत किए। कबीर सामाजिक विचारधारा के अन्तरगत निम्न बताये गये विषयों की चर्चा करते हैं।

अ. जाति पान्त सम्बन्धी विचार :

सारे मनुष्य भगवान की सृष्टि हैं। भगवान समदर्शी हैं, तब भगवान से बनाया गया मानव, जाति पान्त के नाम पर क्यों झगडा कर रहा है? मानव केलिए चाहिए- ज्ञान, न कि जाति- पाँत की चर्चा। इसलिए कबीर

का कथन है -

जाति न पूछो साधु कि, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पडा रहने दो म्यान॥

आ. बाह्याडम्बरों का खण्डन :

कबीर काशी के निवासी थे। बडे बडे ग्रन्थों को पढनेवाले बहुत से पंडित होते हैं। लेकिन पुस्तकों का सार ग्रहण करनेवाले बहुत कम। इसलिए वे कहते हैं। -

पोथी पढ़ि- पढि जग मुआ, पण्डित भया न कोय।

एकै अखिर पीव का पदै सो पण्डित होय॥

कपटी भक्तों को कबीर पकड लेते हैं और कहते हैं -

माला तो कर में फिरै जीभ फिरै मुँह माहि।

मनुआ तो दस दिश फिरै, यह तो सुमरिन नाहि॥

ढोंगे गुरुओं की अवहेलना करते हुए वे कहते हैं. ---

ताका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध।

अंधा अंधा ठैलिया, दून्यूँ कूप पडंत॥

इ. धार्मिक विचार : -

कबीर ने तत्कालीन धार्मिक प्रथाओं को परखा। हिन्दू और मुसलमानों में होनेवाले बहुत से रीतिरिवाजों का खण्डन किया। उन्होंने मुसलमानों के रोजा, नमाज, हज आदि और हिन्दुओं के श्राद्ध, एकादशी, तीर्थ, व्रत आदि का खणडन किया। फिर वे कहते हैं- न हिन्दुओं में दया हैं और न मुसलमानों में मेहर, तीर्थयात्राओं का खण्डन करते हुए वे कहते हैं –

मोको कहाँ ढूँढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।

न मैं देवल, न मैं मस्जिद, न काबे कैलास में॥

कबीर धार्मिक प्रवृत्तियों का खण्डन करके, निवृत्ति मार्ग का बोध करते हैं। वे कर्म काण्डों का खण्डन करते हुए कहते हैं - पाहन पूजे हरि मिले मैं पूजूँ पहाड।

सात्विक विचार :

मानव को न्यायशील होना है। न्याय का अर्थ - क प्रकार से 'जीओ' और 'जीने दो' है । आर्थिक लालच में पड कर मानव बेकार धन का संचय करेगा तो आवश्यक लोगों को असुविधा होगी। इसलिए कबीर कहते हैं -

साई इतना दीजिए, जा मैं कुटुम्ब समाय।

मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय॥

उ. राजनीतिक विचार : -

कबीर निडर थे। डट कर शासक की गलतियाँ भी बताते थे और हिन्दू और मुसलमानी धर्मो में मिलने और का समनवय करके बताते थे। कहा जाता है कि एक बार सिकंदर लोडी के दरबार में कबीर पर धार्मिक अभियोग लगाया गया था। उनको बेडियाँ लगा कर गंगा में फेंक दिया गया और अग्नि कुण्ड में फेंक दिया गया, लेकिन वे गंगा से बाहर आये और अग्नि कुणड उनको जला न सका। मस्ति का हाथी भी उनकों न कुचल कर नमस्कार करने लगा। यहाँ कबीर की सत्यवादिता प्रकट होती हैं।

ऊ.. निन्दा से न डरना :

कबीर निर्भीक व्यक्ति हैं। निर्भीक का अर्थ हैं- कोई गलती न करना। गलती न करने से व्यक्ति को जीवन किसी से डरने की आवश्यकता नहीं। इसे कहते - आत्मबल आत्मबल व्यक्ति को अपने पर विश्वास होता है और उसके साथ आत्म विश्वास के साथ वह जीवन बिताता है। कबीर और एक पग आगे बढते है और कहते है – हमारी निन्दा करनेवालों को अपने ही पास में रखना चाहिए ताकि उसके कारण हम सदा जागरूक रहेंगे।

निन्दक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय।

उपसंहार : -

कबीर भक्त और साधु का समन्वित रूप हैं 'भक्त' भगवान को आत्म समर्पण करता हैं। 'साधु' आत्म ज्ञान के साथ - साथ उपदेशक भी होता हैं। एक प्रकार से भक्त अन्तर्मुखीं हैं और साधु बहिर्मुखी हैं। कबीर भक्त और साधु भी होने के कारण वे उपदेशक भी हैं। इसलिए उनके उपदेशों में अनेक सामाजिक विषय भी आते हैं। कबीर इस प्रकार समाज सुधारक हैं।

ऐसे कवि, सुधारक तथा साधु अजर तथा अमर बन जाते हैं।

जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः।

नास्ति एषां यशःकाये जरामरणजं भयम्:।।

कबीर की रहस्यवादी विचारधारा की समीक्षा कीजिए।

कबीर की रहस्यवादी विचारधारा की समीक्षा कीजिए।

रूपरेखा -

1. प्रस्तावना

2. साधना तथा भावुकतापूर्ण रहस्यवाद

अ. साधना पूर्ण रहस्यवाद

आ. भावना पूर्ण रहस्यवाद

3. माधुर्य भावना

4. उलटबाँसियाँ

5. उपसंहार

प्रस्तावना :

आत्मा, परमात्मा सम्बन्धी विचार साहत्य में परम्परागत चर्चित हैं। यह रहस्य जितना भी सोचे और जितना भी खोजें आज तक कोई दार्शनिक, कोई कवि या कोई भक्त या ज्ञानी पूर्णतया बोल न पाये। वे अपने विचार परमात्मा के बारे में प्रस्तुत करते रहे जो रहस्यवाद के अन्तरगत आते हैं। इन सब को समन्वित कर के आचार्य रामचन्द्रशुक्ल जी ने रहस्यवाद की परिभाषा दी है "चिन्तन के क्षेत्र में जो ब्रह्मवाद हैं, वही साहित्यिक क्षेत्र में रहस्यवाद कहलाता है।"

2. साधना तथा भावुकतापूर्ण रहस्यवाद :

कबीर साधु और कवि हैं। इसलिए उन की कविता में साधना प्रधान रहस्यबाद और भावना प्रधान रहस्यवाद दोनों व्यक्त होते हैं।

अ. साधना प्रधान रहस्यवाद :

कबीर के साधनापरख रहस्यवाद पर सिद्ध तथा नाथ साहित्य का प्रभाव, अपभ्रंश साहित्य का प्रभाव, अदद्वैतवाद का प्रभाव, सूफी साहित्य का प्रभाव, हठयोग का प्रभाव आदि हैं। साधक आत्मबल प्रधान होता है। वह सदा भगवान में रत (लीन) रहता है। वह किसी से नहीं डरता, क्यों कि परमात्मा उस के साथ है। इसलिए कबीर कहते हैं -

जाके रक्खे साइया मारि न सक्कै कोइ।

बाल न बँका करि सकै, जो जग वैरी होय।।

कबीर अनन्त परमात्मा के प्रकाश को अनेक सूर्यों की कान्ति से भी महान मानते हैं। वह - अगम्य अगोचर और सदा जगमगानेवाली ज्योति है। •

'अगम अगोचर गमि नहीं, तहाँ जग मगे ज्योति।”

यह ज्योति हर जीव के हृदय में रहती है।

"प्यंजर प्रेम प्रकासिया, अन्तरि भया उजास।

मुखि कस्तूरी मह मही, बाँणी फूटी बास।।"

आत्मा और परमात्मा का मिलन लवण और पानी जैसा होना चाहिए। साधक बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी हो कर साधना में मग्न होता हैं।

"सुरति समणी निरति में, अजपा माहै जाप"।

साधक भगवान के ध्यान में लीन हो, समाधिस्त हो जाता है। तब उसका जप अजप में परिवर्तित हो जाता है। नाडी व्यवस्था इडा, पिंगला और सुषुम्ना के द्वारा सहस्रार पहुँच जाती हैं। तब साधक अमृतत्व सिद्धि प्राप्त करता है। इसी को कबीर उलटबॉसी के द्वारा प्रकट करते हैं।

आकासे मुखि औंधा कुआँ, पाताले पनिहारि।

ताका पाँणी को हंसा पीवै, बिरला आदि बिचारि॥

आ. भावना प्रधान रहस्यवाद :

इसके अन्तर्गत कबीर सूफी सिद्धान्त को कहीं-कहीं अपनाते हैं। साधक स्त्री के रूप में और परमात्मा पुरुष रूप में चित्रित होता हैं। आत्मा परमात्मा केलिए व्याकुल होना और व्यथित होना विरह कहलाता हैं। कबीर में विरह की तीव्रता बढ़ती हैं। वे क्षण-क्षण अपने प्रियतम राम की राह जोहते रहते हैं।

बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम।

जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मति' नाहीं विश्राम।।

राम के वियोग में भक्त कबीर तडपते रहते हैं। उनकी भावना कहती हैं कि- "शरीर में भगवान की छाँह साँप की तरह सदा चलित या चरित होती रहती है। राम के वियोग में भक्त का जीना कठिन हैं। अगर जीयेगा भी तो वह पागल हो जाएँगा।

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र में लागै कोइ।

सम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ।।

कबीर के अनुसार जीवन पानी का बुदबुदा है -

पानी केरा बुदबुदा अस मानुष की जाति।

देखत ही छिप जायेगा, ज्यो तारा पर भाति॥

इस क्षणिक तथा लघु जीवन में मानव भगवान की कृपा प्राप्त करना चाहता है। वह भाव विभोर हो कर -

रोता है, पुकारता है और रस्ता देखता रहता है।

आँखडियाँ झाँई पडी, पंथ निहारि निहारि।

जीभडियाँ छाला पडया, राम पुकारि पुकारि॥

भगवान की झलक प्रप्त होने पर साधक अतुलित आनन्द की प्राप्ति करता है। वह उस आनन्द को भाव में व्यक्त न कर पाता। उसकी वाणी "गूँगे के मुह गुड" बन जाती हैं। कहे कबिर गुड खाया.

यह 'ब्रह्म सूत्रों' का सार हैं - 'अथा तो ब्रह्म-जिज्ञासा'।

कवि कबीर की यह भावना गीता का सार है -

"तेषां नित्य अभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम "

संत कबीर की भावना उस रहस्योल्लास में आनन्द की डुबकियाँ लेती रहती है। तब वाणी से कोई 'वैखरी' शब्द नहीं निकलता "यतोवाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह”

3. माधुर्य भावना :

आत्मा परमात्मा में लीन होने की भावना ही “माधुर्य" हैं। कबीर की आत्मा सतत परमात्मा में लीन होना चाहती है। परमात्मा कहीं बाह्य संसार में नहीं है। वह हर जीव में विद्यमान हैं। वह निर्गुण और भावना प्रधान है। कबीर की आत्मा मूलाधार से निकल कर सहस्रार में पहुँचना माधुर्य भावना की चरम सीमा है। वहाँ मधुर अमृतत्व बिन्दु के रूप में आ कर आत्मा का उज्जीवन होता है। तब सारी नाडियों में 'मधुरता' व्याप्त होती है। इसलिए कबीर कहते हैं –

मोको कहाँ ढूँढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।

न मैं देवल न मैं मसजिद न काबे कैलास में।।

कबीर की माधुर्य भावना अन्तर जगत में लीन है। जिस प्रकार वैष्णवों की सारूप्य, सामीप्य, सालोक्य और सायुज्य दशाएँ होती हैं वही अनुभव कबीर का है। वे भगवान के ध्यान में और भगवान के भाव में लीन रहते हैं। जहाँ कबीर राम के दर्शन अन्तर जगत में करते है, वहाँ - सूरदास, तुलसीदास और मीराबाई परमात्मा का दर्शन (बाह्म) बाह्य जगत में करते हैं। चाहे बाह्य हो या आन्तरिक हो, भगवान के प्रति भावना रखना मधुर है। कबीर का रहस्य परमात्मा को अन्दर देखना है। मानव को नलिनी के रूप में और जल को परमात्मा के रूप में कबीर भावना करते हैं –

"जल में उतपति, जल में वास, जल में नलिनी, तोर निवास।"

बढही को काल के रूप में, वृक्ष को वृद्धावस्था के रूप में और पक्षी को आत्मा के रूप में कबीर भावना करते हैं।

बाढि आवत देखि करि, तरिवर डोलन लाग।

हम कटे की कचु नहीं पँखेरू घर भाग।।

4. उलटबाँसियाँ :

कबीर के काव्य में चमत्कारपूर्ण और रहस्यपूर्ण 'उलटबाँसियाँ' हैं। कठोपनिषद में अनेक रहस्यात्मक विषयों की चर्चा हुई हैं। कबीर पर वेद और उपनिषतों का प्रभाव है। भावजाल में पडे हुए मनुष्यों की उलटी हुई अवस्या को कबीर अपनी उलटबाँसियों द्वारा व्यंजित करते हैं। योग साधना का विवरण कबीर उलटबाँसि के द्वारा व्यक्त करते हैं।

आकासे मुखि औंधा कुवाँ, पाताले पनिहारि।

ताका पाँणी को हंसा पीवै, बिरला आदि बिचारि।।

इसका मूल भगवतगीता के विभूति योग में है - "ऊर्ध्वमूलं अधश्शाखा ...............”

5. उपसंहार :

कबीर अनपढ़ हैं लेकिन वे बडे भावुक और ज्ञानी हैं। वे निर्गुणोपासक हैं और उनका दर्शन परवर्ती कवियों केलिए मार्गदर्शक बन गया। वे स्वयं कहते हैं - वेद न जानूँ, भेद न जानूँ, जानूँ एकहि रामा । वे शब्दों का आवरण पार कर भावना क्षेत्र में पहुँचते हैं। हर जीव में हर वस्तु में और सारे विश्व में वे परमात्मा का दर्शन करते हैं। ये दर्शन दो प्रकार के है -

1. बाह्य दर्शन

2. आन्तरिक दर्शन

कबीर स्वयं योगी हैं। रहस्यवाद योग प्रक्रिया का एक भाग है। कबीर हठयोग को रहस्यवाद से समन्वय करके प्रस्तुत करते हैं और कभी भावना के द्वारा वे रहस्यवाद को प्रस्तुत करते हैं। हिन्दी साहित्य में एक प्रकार से रहस्यवाद कबीर से ही प्रारम्भ हुआ है। कालगति में अनेक विद्वानों ने और कवियों ने रहस्यवाद के बारे में अपना अपना विश्लेषण किया था।

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-22 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH 22

 श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-22

सर्प-विष से रक्षा - 
श्री. बालासाहेब मिरीकर, 
श्री. बापूसाहेब बूटी, 
श्री. अमीर शक्कर, 
श्री. हेमाडपंत, 
बाबा की सर्प मारने पर सलाह

प्रस्तावना



श्री साईबाबा का ध्यान कैसे किया जाय। उस सर्वशक्तिमान् की प्रकृति अगाध है, जिसका वर्णन करने में वेद और सहस्त्रमुखी शेषनाग भी अपने को असमर्थ पाते है। भक्तों की स्वरुप वर्णन से रुचि नहीं। उनकी तो दृढ़ धारणा है कि आनन्द की प्राप्ति केवल उनके श्रीचरणों से ही संभव है। उनके चरणकमलों के ध्यान के अतिरिक्त उन्हें अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति का अन्य मार्ग विदित ही नहीं। हेमाडपंत भक्ति और ध्यान का जो एक अति सरल मार्ग सुझाते है, वह यह है –

कृष्ण पक्ष के आरम्भ होने पर चन्द्र-कलाएँ दिन प्रतिदिन घटती चलती है तथा उनका प्रकाण भी क्रमशः क्षीण होता जाता है और अन्त में अमावस्या के दिन चन्द्रमा के पूर्ण विलीन रहने पर चारों ओर निशा का भयंकर अँधेरा छा जाता है, परन्तु जब शुक्ल पक्ष का प्रारंभ होता है तो लोग चन्द्र-दर्शन के लिए अति उत्सुक हो जाते है। इसके बाद द्धितीया को जब चन्द्र अधिक स्पष्ट गोचर नहीं होता, तब लोगों को वृक्ष की दो शाखाओं के बीच से चन्द्रदर्शन के लिये कहा जाता है और जब इन शाखाओं के बीच उत्सुकता और ध्यानपूर्वक देखने का प्रयत्न किया जाता है तो दूर क्षितिज पर छोटी-सी चन्द्र रेखा के दृष्टिगोचर होते ही मन अति प्रफुल्लि हो जाता है। इसी सिद्धांत का अनुमोदन करते हुए हमें बाबा के श्री दर्शन का भी प्रयत्न करना चाहिये। बाबा के चित्र की ओर देखो। अहा, कितना सुन्दर है। वे पैर मोड़ कर बैठे है और दाहिना पैर बायें घुटने पर रखा गया है। बांये हाथ की अँगुलियाँ दाहिने चरण पर फैली हुई है। दाहिने पैर के अँगूठे पर तर्जनी और मध्यमा अँगुलियाँ फैली हुई है। इस आकृति से बाबा समझा रहे है कि यदि तुम्हें मेरे आध्यात्मिक दर्शन करने की इच्छा हो तो अभिमानशून्य और विनम्र होकर उक्त दो अँगुलियों के बीच से मेरे चरण के अँगूठे का ध्यान करो। तब कहीं तुम उस सत्य स्वरुप का दर्शन करने में सफल हो सकोगे। भक्ति प्राप्त करने का यह सब से सुगम पंथ है।


अब एक क्षण श्री साईबाबा की जीवनी का भी अवलोकन करें। साईबाबा के निवास से ही शिरडी तीर्थस्थल बन गया है। चारों ओर के लोगों की वहाँ भीड़ प्रतिदिन बढ़ने लगी है तथा धनी और निर्धन सभी को किसी न किसी रुप में लाभ पहुँच रहा है। बाबा के असीम प्रेम, उनके अदभुत ज्ञानभंडार और सर्वव्यापकता का वर्णन करने की सामर्थ्य किसे है। धन्य तो वही है, जिसे कुछ अनुभव हो चुका है। कभी-कभी वे ब्रहा में निमग्न रहने के कारण दीर्घ मौन धारण कर लिया करते थे। कभी-कभी वे चैतन्यघन और आनन्द मूर्ति बन भक्तों से घरे हुए रहते थे। कभी दृष्टान्त देते तो कभी हास्य-विनोद किया करते थे। कभी सरल चित्त रहते तो कभी कुदृ भी हो जाया करते थे। कभी संझिप्त और कभी घंटो प्रवचन किया करते थे। लोगों की आवश्यकतानुसार ही भिन्न-भिन्न प्रकारा के उपदेश देते थे। उनका जीवनी और अगाध ज्ञान वाचा से परे थे। उनके मुखमंडल के अवलोकन, वार्तालाप करने और लीलाएँ सुनने की इच्छाएँ सदा अतृप्त ही बनी रही। फिर भी हम फूले न समाते थे। जलवृष्टि के कणों की गणना की जा सकती है, वायु को भी चर्मकी थैल में संचित किया जा सकता है, परन्तु बाबा की लीलाओं का कोई भी अंत न पा सका। अब उन लीलाओं में से एक लीला का यहाँ भी दर्शन करें। भक्तों के संकटों के घटित होने के पूर्व ही बाबा उपयुक्त अवसर पर किस प्रकार उनकी रक्षा किया करते थे। श्री. बालासाहेब मिरीकर, जो सरदार काकासाहेब के सुपुत्र तथा कोपरगाँव के मामलतदार थे, एक बार दौरे पर चितली जा रहे थे। तभी मार्ग में, वे साईबाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे। उन्होंने मसजिद में जाकर बाबा की चरण-वन्दना की और सदैव की भाँति स्वास्थ्य तथा अन्य विषयों पर चर्चा की। बाबा ने उन्हें चेतावनी देकर कहा कि क्या तुम अपनी द्धारकामाई को जानते हो। श्री. बालासाहेब इसका कुछ अर्थ न समझ सके, इसीलिए वे चुप ही रहे। बाबा ने उनसे पुनः कहा कि जहाँ तुम बैठे हो, वही द्धारकामाई है। जो उसकी गोद में बैठता है, वह अपने बच्चों के समस्त दुःखों और कठिनाइयों को दूर कर देती है। यह मसजिद माई परम दयालु है। सरल हृदय भक्तों की तो वह माँ है और संकटों में उनकी रक्षा अवश्य करेगी। जो उसकी गोद में एक बार बैठता है, उसके समस्त कष्ट दूर हो जाते है। जो उसकी छत्रछाया में विश्राम करता है, उसे आनन्द और सुख की प्राप्ति होती है। तदुपरांत बाबा ने उन्हें उदी देकर अपना वरद हस्त उनके मस्तक पर रख आर्शीवाद दिया।


जब श्री. बालासाहेब जाने के लिये उठ खड़े हुए तो बाबा बोले कि क्या तुम ल्मबे बाबा (अर्थात् सर्प) से परिचित हो । और अपनी बाई मुट्ठी बन्द कर उसे दाहिने हाथ की कुहनी के पास ले जाकर दाहिने हाथ को साँप के सदृश हिलाकर बोले कि वह अति भयंकर है, परन्तु द्धारकामाई के लालों का वह कर ही क्या सकता है। जब स्वंय ही द्धारकामाई उनकी रक्षा करने वाली है तो सर्प की सामर्थ्य ही क्या है। वहाँ उपस्थित लोग इसका अर्थ तथा मिरीकर को इस प्रकार चेतावनी देने का कारण जानना चाहते थे, परन्तु पूछने का साहस किसी में भी न होता था। बाबा ने शामा को बुलाया और बालासाहेब के साथ जाकर चितली यात्रा का आनन्द लेने की आज्ञा दी। तब शामा ने जाकर बाबा का आदेश बालासाहेब को सुनाया। वे बोले कि मार्ग में असुविधायें बहुत है, अतः आपको व्यर्थ ही कष्ट उठाना उचित नहीं है। बालासाहेब ने जो कुछ कहा, वह शामा ने बाबा को बताया। बाबा बोले कि अच्छा ठीक है, न जाओ। सदैव उचित अर्थ ग्रहणकर श्रेष्ठ कार्य ही करना चाहिये। जो कुछ होने वाला है, सो तो होकर ही रहेगा।

बालासाहेब ने पुनः विचार कर शामा को अपने साथ चलने के लिये कहा। तब शामा पुनः बाबा की आज्ञा प्राप्त कर बालासाहेब के साथ ताँगे में रवाना हो गये। वे नौ बजे चितली पहुँचे और मारुति मंदिर में जाकर ठहरे। आफिस के कर्मचारीगण अभी नहीं आये थे, इस कारण वे यहाँ-वहाँ की चर्चायें करने लगे। बालासाहेब दैनिक पत्र पढ़ते हुए चटाई पर शांतिपूर्वक बैठे थे। उनकी धोती का ऊपरी सिरा कमर पर पड़ा हुआ था और उसी के एक भाग पर एक सर्प बैठा हुआ था। किसी का भी ध्यान उधर न था। वह सी-सी करता हुआ आगे रेंगने लगा। यह आवाज सुनकर चपरासी दौड़ा और लालटेन ले आया। सर्प को देखकर वह साँप साँप कहकर उच्च स्वर में चिल्लाने लगा। तब बालासाहेब अति भयभीत होकर काँपने लगे। शामा को भी आश्चर्य हुआ। तब वे तथा अन्य व्यक्ति वहाँ से धीरे से हटे और अपने हाथ में लाठियाँ ले ली। सर्प धीरे-धीरे कमर से नीचे उतर आया। तब लोगों ने उसका तत्काल ही प्राणांत कर दिया। जिस संकट की बाबा ने भविष्यवाणी की थी, वह टल गया और साई-चरणों में बालासाहेब का प्रेम दृढ़ हो गया।

बापूसाहेब बूटी



एक दिन महान् ज्योतिषी श्री. नानासाहेब डेंगलें ने बापूसाहेब बूटी से (जो उस समय शिरडी में ही थे) कहा आज का दिन तुम्हारे लिये अत्यन्त अशुभ है और तुम्हारे जीवन को भयप्रद है। यह सुनकर बापूसाहेब बडे अधीर हो गये। जब सदैव की भाँति वे बाबा के दर्शन करने गये तो वे बोले कि ये नाना क्या कहते है। वे तुम्हारी मृत्यु की भविष्यवाणी कर रहे है, परन्तु तुम्हें भयभीत होने की किंचित् मात्र भी आवश्यकता नहीं है। इनसे दृढ़तापूर्वक कह दो कि अच्छा देखे, काल मेरा किस भाँति अपहरण करता है। जब संध्या समय बापू अपने शौच-गृह में गये तो वहाँ उन्हें एक सर्पत दिखाई दिया। उनके नौकर ने भी सर्प को देख लिया और उसे मारने को एक पत्थर उठाया। बापूसाहेब ने एक लम्बी लकड़ी मँगवाई, परन्तु लकड़ी आने से पूर्व ही वह साँप दूरी पर रेंगता हुआ दिखाई दिया। और तुरन्त ही दृष्टि से ओझल हो गया। बापूसाहेब को बाबा के अभयपूर्ण वचनों का स्मरण हुआ और बड़ा ही हर्ष हुआ।

अमीर शक्कर

अमीर शक्कर कोरले गाँव का निवासी था, जो कोपरगाँव तालुके में है। वह जाति का कसाई था और बान्द्रा में दलाली का धंधा किया करता था। वह प्रसिदृ व्यक्तियों में से एक था। एक बार वह गठिया रोग से अधिक कष्ट पा रहा था। जब उसे खुदा की स्मृति आई, तब काम-धंधा छोड़कर वह शिरडी आया और बाबा से रोग-निवृत्ति की प्रार्थना करने लगा। तब बाबा ने उसे चावड़ी में रहने की आज्ञा दे दी। चावड़ी उस समय एक अस्वास्थ्यकारक स्थान होने के कारण इस प्रकार के रोगियों के लिये सर्वथा ही अयोग्य था। गाँव का अन्य कोई भी स्थान उसके लिये उत्तम होता, परन्तु बाबा के शब्द तो निर्णयात्मक तथा मुख्य औषधिस्वरुप थे। बाबा ने उसे मसजिद में न आने दिया और चावड़ी में ही रहने की आज्ञा दी। वहाँ उसे बहुत लाभ हुआ। बाबा प्रातः और सायंकाल चावड़ी पर से निकलते थे तथा एक दिन के अंतर से जुलूस के साथ वहाँ आते और वहीं विश्राम किया करते थे। इसलिये अमीर को बाबा का सानिध्य सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाया करता था। अमीर वहाँ पूरे नौ मास रहा। जब किसी अन्य कारणवश उसका मन उस स्थान से ऊब गया, तब एक रात्रि में वह चोरी से उस स्थान को छोड़कर कोपरगाँव की धर्मशाला में जा ठहरा। वहाँ पहुँचकर उसने वहाँ एक फकीर को मरते हुए देखा, जो पानी माँग रहा था। अमीर ने उसे पानी दिया, जिसे पीते ही उसका देहांत हो गया। अब अमीर किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गया। उसे विचार आया कि अधिकारियों को इसकी सूचना दे दूँ तो मैं ही मृत्यु के लिये उत्तरदायी ठहराया जाऊँगा और प्रथम सूचना पहुँचाने के नाते कि मुझे अवश्य इस विषय की अधिक जानकारी होगी, सबसे प्रथम मैं ही पकड़ा जाऊँगा। तब विना आज्ञा शिरडी छोड़ने की उतावली पर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने बाबा से मन ही मन प्रार्थना की और शिरडी लौटने का निश्चय कर उसी रात्रि बाबा का नाम लेते हुए पौ फटने से पूर्व ही शिरडी वापस पहुँचकर चिंतामुक्त हो गया। फिर वह चावड़ी में बाबा की इच्छा और आज्ञानुसार ही रहने लगा और शीघ्र ही रोगमुक्त हो गया।


एक समय ऐसा हुआ कि अर्दृ रात्रि को बाबा ने जोर से पुकारा कि ओ अब्दुल कोई दुष्ट प्राणी मेरे बिस्तर पर चढ़ रहा है। अब्दुल ने लालटेन लेक बाबा का बिस्तर देखा, परन्तु वहाँ कुछ भी न दिखा। बाबा ने ध्यानपूर्वक सारे स्थान का निरीक्षण करने को कहा और वे अपना सटका भी जमीन पर पटकने लगे। बाबा की यह लीला देखकर अमीर ने सोचा कि हो सकता है कि बाबा को किसी साँप के आने की शंका हुई हो।

दीर्घ काल तक बाबा की संगति में रहने के कारण अमीर को उनके शब्दों और कार्यों का अर्थ समझ में आ गया था। बाबा ने अपने बिस्तर के पास कुछ रेंगता हुआ देखा, तब उन्होंने अब्दुल से बत्ती मँगवाई और एक साँप को कुंडली मारे हुये वहाँ बैठे देखा, जो अपना फन हिला रहा था। फिर वह साँप तुरन्त ही मार डाला गया। इस प्रकार बाबा ने सामयिक सूचना देकर अमीर के प्राणों की रक्षा की।

हेमाडपंत (बिच्छू और साँप)

बाबा की आज्ञानुसार काकासाहेब दीक्षित श्रीएकनाथ महाराज के दो ग्रन्थों भागवत और भावार्थरामायण का नित्य पारायण किया करते थे। एक समय जब रामायण का पाठ हो रहा था, तब श्री हेमाडपंत भी श्रोताओं में सम्मिलित थे। अपनी माँ के आदेशानुसार किस प्रकार हनुमान ने श्री राम की महानता की परीक्षा ली – यह प्रसंग चल रहा था, सब श्रोता-जन मंत्रमुग्ध हो रहे थे तथा हेमाडपंत की भी वही स्थिति थी। पता नहीं कहाँ से एक बड़ा बिच्छू उनके ऊपर आ गिरा और उनके दाहिने कंधे पर बैठ गया, जिसका उन्हें कोई भान तक न हुआ। ईश्वर को श्रोताओं की रक्षा स्वयं करनी पड़ती है। अचानक ही उनकी दृष्टि कंधे पर पड़ गई। उन्होंने उस बिच्छू को देख लिया। वह मृतप्राय.-सा प्रतीत हो रहा था, मानो वह भी कथा के आनन्द में तल्लीन हो। हरि-इच्छा जान कर उन्होंने श्रोताओं में बिना विघ्न डाले उसे अपनी धोती के दोनों सिरे मिलाकर उसमें लपेट लिया और दूर ले जाकर बगीचे में छोड़ दिया।

एक अन्य अवसर पर संध्या समय काकासाहेब वाड़े के ऊपरी खंड में बैठे हुये थे, तभी एक साँप खिड़की की चौखट के एक छिद्र में से भीतर घुस आया और कुंडली मारकर बैठ गया। बत्ती लाने पर पहले तो वह थोड़ा चमका, फिर वहीं चुपचार बैठा रहा और अपना फन हिलाने लगा। बहुत-से लोग छड़ी और डंडा लेकर वहाँ दौड़े। परन्तु वह एक ऐसे सुरक्षित स्थान पर बैठा था, जहाँ उस पर किसी के प्रहार का कोई भी असर न पड़ता था। लोगों का शोर सुनकर वह शीघ्र ही उसी छिद्र में से अदृश्य हो गया, तब कहीं सब लोगों की जान में जान आई।

बाबा के विचार

एक भक्त मुक्ताराम कहने लगा कि चलो, अच्छा ही हुआ, जो एक जीव बेचारा बच गया। श्री. हेमाडपंत ने उसकी अवहेलना कर कहा कि साँप को मारना ही उचित है। इस कारण इस विषय पर वादविवाद होने लगा। एक का मत था कि साँप तथा उसके सदृश जन्तुओं को मार डालना ही उचित है, किन्तु दूसरे का इसके विपरीत मत था। रात्रि अधिक हो जाने के कारण किसी निष्कर्ष पर पहुँचे बिना ही उन्हें विवाद स्थगित करना पड़ा। दूसरे दिन यह प्रश्न बाबा के समक्ष लाया गया। तब बाबा निर्णयात्मक वचन बोले कि सब जीवों में और समस्त प्राणियों में ईश्वर का निवास है, चाहे वह साँप हो या बिच्छू। वे ही इस विश्व के नियंत्रणकर्ता है और सब प्राणी साँप, बिच्छू इत्यादि उनकी आज्ञा का ही पालन किया करते है। उनकी इच्छा के बिना कोई भी दूसरों को नहीं पहुँचा सकता। समस्त विश्व उनके अधीन है तथा स्वतंत्र कोई भी नहीं है। इसलिये हमें सब प्राणियों से दया और स्नेह करना चाहिए। संघर्ष एवं बैमनस्य या संहार करना छोड़कर शान्त चित्त से जीवन व्यतीत करना चाहिए। ईश्वर सबका ही रक्षक है।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-21 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH -21

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-21

श्री. व्ही. एच. ठाकुर, 
अनंतराव पाटणकर और पंढ़रपुर के वकील की कथाएँ


इस अध्याय में हेमाडपंत ने श्री विनायक हरिश्चन्द्र ठाकुर, बी. ए., श्री. अनंतराव पाटणकर, पुणे निवासी तथा पंढरपुर के एक वकील की कथाओं का वर्णन किया है। ये सब कथाएँ अति मनोरंजक है। यदि इनका सारांश मननपूर्वक ग्रहण कर उन्हें आचरण में लाया जाय तो आध्यात्मिक पंथ पर पाठकगण अवश्य अग्रसर होंगें।

प्रारम्भ



यह एक साधारण-सा नियम है कि गत जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही हमें संतों का सान्ध्य और उनकी कृपा प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ हेमाडपंत स्वयं अपनी घटना प्रस्तुत कर्ते है। वे अनेक वर्षों तक बम्बई के उपनगर बांद्रा के स्थानीय न्यायाधीश रहे। पीर मौलाना नामक एक मुस्लिम संत भी वहीं निवास करते थे। उनके दर्शनार्थ अनेक हिन्दू, पारसी और अन्य धर्मावलंबी वहाँ जाया करते थे। उनके मुजावर (पुजारी) ने हेमाडपंत से भी उलका दर्शन करने के लिये बहुत आग्रह किया, परन्तु किसी न किसी कारण वश उनकी भेंट उनसे न हो सकी। अनेक वर्षों के उपरान्त जब उनका शुभ काल आया, तब वे शिरडी पहुँचे और बाबा के दरबार में जाकर स्थायी रुप से सम्मिलित हो गए। भाग्यहीनों को संतसमागम की प्राप्ति कैसे हो सकती है। केवल वे ही सौभाग्यशाली हे, जिन्हें ऐसा अवसर प्राप्त हो।

संतों द्धारा लोकशिक्षा

संतों द्धारा लोकशिक्षा का कार्य चिरकाल से ही इस विश्व में संपादित होता आया है। अनेकों संत भिन्न-भिन्न स्थानों पर किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिये स्वयं प्रगट होते है। यद्यपि उनका कार्यस्थल भिन्न होता है, परन्तु वे सब पूर्णतः एक ही है। वे सब उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की संचालनशक्ति के अंतर्गत एक ही लहर में कार्य करते है। उन्हें प्रत्येक के कार्य का परस्पर ज्ञान रहता है और आवश्यकतानुसार परस्पर कमी की पूर्ति करते है, जो निम्नलिखित घटना द्धारा स्पष्ट है।

श्री. ठाकुर



श्री. व्ही. एच. ठाकुर, बी. ए. रेव्हेन्यू विभाग में एक कर्मचारी थे। वे एक समय भूमिमापक दल के साथ कार्य करते हुए बेलगाँव के समीप वडगाँव नामक ग्राम में पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक कानड़ी संत पुरुष (आप्पा) के दर्शन कर उनकी चरण वन्दना की। वे अपने भक्तों को निश्चलदासकृत विचार-सागर नामक ग्रंथ (जो वेदान्त के विषय में है) का भावार्थ समझा रहे थे । जब श्री. ठाकुर उनसे विदाई लेने लगे तो उन्होंने कहा, तुम्हें इस ग्रंथ का अध्ययन अवश्य करना चाहिये और ऐसा करने से तुम्हारी इच्छाएँ पूर्ण हो जायेंगी तथा जब कार्य करते-करते कालान्तर में तुम उत्तर दिशा में जाओगे तो सौभाग्यवश तुम्हारी एक महान् संत से भेंट होगी, जो मार्ग- प्रदर्शन कर तुम्हारे हृदय को शांति और सुख प्रदान करेंगे।

बाद में उनका स्थानांतरण जुन्नर को हो गया, जहाँ कि नाणेघाट पार करके जाना पड़ता था। यह घाट अधिक गहरा और पार करने में कठिन था। इसलिये उन्हें भैंसे की सवारी कर घाट पार करना पड़ा, जो उन्हें अधिक असुविधाजनक तथा कष्टकर प्रतीत हुआ। इसके पश्चात् ही उनका स्थानांतरण कल्याण में एक उच्च पद पर हो गया और वहाँ उनका नानासाहेब चाँदोरकर से परिचय हो गया। उनके द्धारा उन्हें श्री साईबाबा के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात हुआ और उन्हें उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा हुई। दूसरे दिन ही नानासाहेब शिरडी को प्रस्थान कर रहे थे। उन्होंने श्री. ठाकुर से भी अपने साथ चलने का आग्रह किया। ठाणे के दीवानी-न्यायालय में एक मुकदमे के संबंध में उनकी उपस्थिति आवश्यक होने के कारण वे उनके साथ न जा सके। इस कारण नानासाहेब अकेले ही रवाना हो गये। ठाणे पहुँचने पर मुकदमे की तारीख आगे के लिए बढ़ गई। इसलिए उन्हें ज्ञात हुआ कि नानासाहेब पिछले दिन ही यहाँ से चले गये है। वे अपने कुछ मित्रों के साथ, जो उन्हें वहीं मिल गये थे, श्री साईबाबा के दर्शन को गए। उन्होंने बाबा के दर्शन किये और उनके चरणकमलों की आराधना कर अत्यन्त हर्षित हुए। उन्हें रोमांच हो आया और उनकी आँखों से अश्रुधाराएँ प्रवाहित होने लगी। त्रिकालदर्शी बाबा ने उनसे कहा – इस स्थान का मार्ग इतना सुगम नही, जितना कि कानड़ी संत अप्पा के उपदेश या नाणेघाट पर भैंसे की सवारी थी। आध्यात्मिक पथ पर चलने के लिये तुम्हें घोर परिश्रम करना पडेगा, क्योंकि वह अत्यन्त कठिन पथ है। जब श्री. ठाकुर ने हेतुगर्भ शब्द सुने, जिनका अर्थ उनके अतिरिक्त और कोई न जानता था तो उनके हर्ष का पारावार न रहा और उन्हें कानड़ी संत के वचनों की स्मृति हो आई। तब उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर बाबा के चरणों पर अपना मस्तक रखा और उनसे प्रार्थना की कि प्रभु, मुझ पर कृपा करो और इस अनाथ को अपने चरण कमलों की शीतलछाया में स्थान दो। तब बाबा बोले, जो कुछ अप्पा ने कहा, वह सत्य था। उसका अभ्यास कर उसके अनुसार ही तुम्हें आचरण करना चाहिये। व्यर्थ बैठने से कुछ लाभ न होगा। जो कुछ तुम पठन करते हो, उसको आचरण में भी लाओ, अन्यथा उसका उपयोग ही क्या। गुरु कृपा के बिना ग्रंथावलोकन तथा आत्मानुभूति निरर्थक ही है। श्री. ठाकुर ने अभी तक केवल विचार सागर ग्रन्थ में सैद्धांतिक प्रकरण ही पढ़ा था, परन्तु उसकी प्रत्यक्ष व्यवहार प्रणाली तो उन्हें शिरडी में ही ज्ञात हुई। एक दूसरी कथा भी इस सत्य का और अधिक सशक्त प्रमाण है।

श्री. अनंतराव पाटणकर



पूना के एक महाशय, श्री. अनंतराव पाटणकर श्री साईबाबा के दर्शनों के इच्छुक थे। उन्होंने शिरडी आकर बाबा के दर्शन किये। दर्शनों से उनके नेत्र शीतल हो गये और वे अति प्रसन्न हुए। उन्होंने बाबा के श्री चरण छुए और यथायोग्य पूजन करने के उपरान्त बोले, मैंने बहुत कुछ पठन किया। वेद, वेदान्त और उपनिषदों का भी अध्ययन किया तथा अन्य पुराण भी श्रवण किये, फिर भी मुझे शान्ति न मिल सकी। इसलिये मेरा पठन व्यर्थ ही सिदृ हुआ। एक निरा अज्ञानी भक्त मुझसे कहीं श्रेष्ठ है। जब तक मन को शांति नहीं मिलती, तब तक ग्रन्थावलोकन व्यर्थ ही है। मैंने ऐसा सुना है कि आप केवल अपनी दृष्टि मात्र से और विनोदपूर्ण वचनों द्धारा दूसरों के मन को सरलतापूर्वक शान्ति प्रदान कर देते है। यही सुनकर मैं भी यहाँ आया हूँ। कृपा कर मुझे दास को भी आर्शीवाद दीजिये। तब बाबा ने निम्नलिखित कथा कही -

घोड़ी की लीद के लौ गोले (नवधा भक्ति)

एक समय एक सौदागर यहाँ आया। उसके सम्मुख ही एक घोड़ी ने लीद की। जिज्ञासु सौदागर ने अपनी धोती का एक छोर बिछाकर उसमें लीद के नौ गोले रख लिये और इस प्रकार उसके चित्त को शांति प्राप्त हुई। श्री. पाटणकर इस कथा का कुछ भी अर्थ न समझ सके। इसलिये उन्होंने श्री. गणेश दामोदर उपनाम दादा केलकर से अर्थ समझाने की प्रार्थना की और पूछा कि बाबा के कहने का अभिप्राय क्या है। वे बोले कि जो कुछ बाबा कहते है, उसे मैं स्वयं भी अच्छी तरह नहीं समझ सकता, परंतु उनकी प्रेरणा से ही मैं जो कुछ समझ सका हूँ, वह तुम से कहता हूँ। घोड़ी है ईश-कृपा, और नौ एकत्रित गोले है नवविधा भक्ति-यथा –
श्रवण
कीर्तन
नामस्मरण
पादसेवन
अर्चन
वन्दन
दास्य या दासता
सख्यता और
आत्मनिवेदन ।

ये भक्ति के नौ प्रकार है। इनमें से यदि एक को भी सत्यता से कार्यरुप में लाया जाय तो भगवान श्रीहरि अति प्रसन्न होकर भक्त के घर प्रगट हो जायेंगे। समस्त साधनाये अर्थात् जप, तप, योगाभ्यास तथा वेदों के पठन-पाठन में जब तक भक्ति का समपुट न हो, बिल्कुल शुष्क ही है। वेदज्ञानी या व्रहमज्ञानी की कीर्ति भक्तिभाव के अभाव में निरर्थक है। आवश्यकता है तो केवल पूर्ण भक्ति की। अपने को भी उसी सौदागर के समान ही जानकर और व्यग्रता तथा उत्सुकतापूर्वक सत्य की खोज कर नौ प्रकार की भक्ति को प्राप्त करो। तब कहीं तुम्हें दृढ़ता तथा मानसिक शांति प्राप्त होगी।


दूसरे दिन जब श्री. पाटणकर बाबा को प्रणाम करने गये तो बाबा ने पूछा कि क्या तुमने लीद के नौ गोले एकत्रित किये। उन्होंने कहा कि मैं अनाश्रित हूँ। आपकी कृपा के बिना उन्हें सरलतापूर्वक एकत्रित करना संभव नहीं है। बाबा ने उन्हें आर्शीवाद देकर सांत्वना दी कि तुम्हें सुख और शांति प्राप्त हो जायेगी, जिसे सुनकर श्री. पाटणकर के हर्षे का पारावार न रहा।

पंढ़रपुर के वकील

भक्तों के दोष दूर कर, उन्हें उचित पथ पर ला देने की बाबा की त्रिकालज्ञता की एक छोटी-सी कथा का वर्णन कर इस अध्याय को समाप्त करेंगे। एक समय पंढरपुर से एक वकील शिरडी आये। उन्होंने बाबा के दर्शन कर उन्हें प्रणाम किया तथा कुछ दक्षिणा भेंट देकर एक कोने में बैठ वार्तालाप सुनने लगे। बाबा उनकी ओर देख कर कहने लगे कि लोग कितने धूर्त है, जो यहाँ आकर चरणों पर गिरते और दक्षिणा देते है, परंतु भीतर से पीठ पीछे गालियाँ देते रहते है। कितने आश्चर्य की बात है न। यह पगड़ी वकील के सिर पर ठीक बैठी और उन्हें उसे पहननी पड़ी। कोई भी इन शब्दों का अर्थ न समझ सका। परन्तु वकील साहब इसका गूढ़ार्थ समझ गये, फिर भी वे नतशिर बैठे ही रहे। वाड़े को लौटकर वकील साहब ने काकासाहेब दीक्षित को बतलाया कि बाबा ने जो कुछ उदाहरण दिया और जो मेरी ही ओर लक्ष्य कर कहा गया था, वह सत्य है। वह केवल चेतावनी ही थी कि मुझे किसी की निन्दा न करनी चाहिए। एक समय जब उपन्यायाधीश श्री. नूलकर स्वास्थ्य लाभ करने के लिये पंढरपुर से शिरडी आकर ठहरे तो बाररुम में उनके संबंध में चर्चा हो रही थी। विवाद का विषय था कि जिस व्याधि से उपन्यायाधीश अस्वस्थ है, क्या बिना औषधि सेवन किये केवल साईबाबा की शरण में जाने से ही उससे छुटकारा पाना सम्भव है। और क्या श्री. नूलकर सदृश एक शिक्षित व्यक्ति को इस मार्ग का अवलम्बन करना उचित है। उस समय नूलकर का और साथ ही श्री साईबाबा का भी बहुत उपहास किया गया। मैंने भी इस आलोचना में हाथ बँटाया था। श्री साईबाबा ने मेरे उसी दूषित आचरण पर प्रकाश डाला है। यह मेरे लिये उपहास नही, वरन् एक उपकार है, जो केवल परामर्श है कि मुझे किसी की निंदा न करनी चाहिए और न ही दूसरों के कार्यों में विघ्न डालना चाहिए।


शिरडी और पंढरपुर में लगभग 300 मील का अन्तर है। फिर भी बाबा ने अपनी सर्वज्ञता द्धारा जान लिया कि बाररुम में क्या चल रहा था। मार्ग में आने वाली नदियाँ, जंगल और पहाड़ उनकी सर्वज्ञता के लिये रोड़ा न थे। वे सबके हृदय की गुहृ बात जान लेते थे और उनसे कुछ छिपा न था। समीपस्थ या दूरस्थ प्रत्येक वस्तु उन्हें दिन के प्रकाश के समान जाज्वल्यमान थी तथा उनकी सर्वव्यापक दृष्टि से ओझल न थी। इस घटना से वकीलसाहब को शिक्षा मिली कि कभी किसी का छिद्रान्वेषण एवं निंदा नहीं करनी चाहिए। यह कथा केवल वकीलसाहब को ही नहीं, वरन सबको शिक्षाप्रद है। श्री साईबाबा की महानता कोई न आँक सका और न ही उनकी अदभुत लीलाओं का अंत ही पा सका। उनकी जीवनी भी तदनुरुप ही है, क्योंकि वे परब्रहास्वरुप है।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय - 20 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH -20

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय - 20

विलक्षण समाधान - 
श्री. काकासाहेब की नौकरानी द्धारा श्री. दासगणू की समस्या का समाधान।


श्री. काकासाहेब की नौकरानी द्धारा श्री. दासगणू की समस्या किस प्रकार हल हुई, इसका वर्णन हेमाडपंत ने इस अध्याय में किया है।


प्रारम्भ

श्री साई मूलतः निराकार थे, परन्तु भक्तों के प्रेमवश ही वे साकार रुप में प्रगट हुए। माया रुपी अभिनेत्री की सहायता से इस विश्व की वृहत् नाट्यशाला में उन्होंने एक महान् अभिनेता के सदृश अभिनय किया। आओ, श्री साईबाबा का ध्यान व स्मरण करें और फिर शिरडी चलकर ध्यानपूर्वक मध्याहृ की आरती के पश्चात का कार्यक्रम देखें। जब आरती समाप्त हो गई, तब श्री साईबाबा ने मसजिद से बाहर आकर एक किनारे खड़े होकर बड़ी करुणा तथा प्रेमपूर्वक भक्तों को उदी वितरण की। भक्त गण भी उनके समक्ष खड़े होकर उनकी ओर निहारकर चरण छूते और उदी वृष्टि का आनंद लेते थे। बाबा दोनों हाथों से भक्तों को उदी देते और अपने हाथ से उनके मस्तक पर उदी का टीका लगाते थे। बाबा के हृदय में भक्तों के प्रति असीम प्रेम था। वे भक्तों को प्रेम से सम्बोधित करते, ओ भाऊ। अब जाओ, भोजन करो। इसी प्रकार वे प्रत्येक भक्त से सम्भाषण करते और उन्हें घर लौटाया करते थे। आह। क्या थे वे दिन, जो अस्त हुए तो ऐसे हुए कि फिर इस जीवन में कभी न मिलें। यदि तुम कल्पना करो तो अभी भी उस आनन्द का अनुभव कर सकते हो। अब हम साई की आनन्दमयी मूर्ति का ध्यान कर नम्रता, प्रेम और आदरपूर्वक उनकी चरणवन्दना कर इस अध्याय की कथा आरम्भ करते है।

ईशोपनिषद्

एक समय श्री दासगणू ने ईशोपनिषद् पर टीका (ईशावास्य-भावार्थबोधिनी) लिखना प्रारम्भ किया। वर्णन करने से पूर्व इस उपनिषद का संक्षिप्त परिचय भी देना आवश्यक है। इसमें बैदिक संहिता के मंत्रों का समावेश होने के कारण इसे मन्त्रोपनिषद् भी कहते है और साथ ही इसमें यजुर्वेद के अंतिम (40वें) अध्याय का अंश सम्मलित होने के कारण यह वाजसनेयी (यदुः) संहितोशनिषद् के नाम से भी प्रसिदृ है। वैदिक संहिता का समावेश होने के कारण इसे उन अन्य उपनिषदों की अपेक्षा श्रेष्ठकर माना जाता है, जो कि ब्राहमण और आरण्यक (अर्थात् मन्त्र और धर्म) इन विषयों के विवरणात्मक ग्रंथ की कोटि में आते है। इतना ही नही, अन्य उपनिषद् तो केवन ईशोपनिषद् में वर्णित गूढ़ तत्वों पर ही आधारित टीकायें है। पण्डित सातवलेकर द्धारा रचित वृहदारण्यक उपनिषद् एवं ईशोपनिषद् की टीका प्रचलित टीकाओं में सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है।

प्रोफेसर आर. डी. रानाडे का कथन है कि ईशोपनिषद् एक लघु उपनिषद् होते हुए भी, उसमें अनेक विषयों का समावेश हे, जो एक असाधारण अन्तर्दृष्टि प्रदान करता है। इसमें केवल 18 श्लोकों में ही आत्मतत्ववर्णन, एक आदर्श संत की जीवनी, जो आकर्षण और कष्टों के संसर्ग में भी अचल रहता है, कर्मयोग के सिद्धान्तों का प्रतिबिम्ब, जिसका बाद में सूत्रीकरण किया गया, तथा ज्ञान और कर्तव्य के पोषक तत्वों का वर्णन है, जिसके अन्त में आदर्श, चामत्कारिक और आत्मासंबंधी गूढ़ तत्वों का संग्रह है।



इस उपनिषद् के संबंध में संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि इसका प्राकृत भाषा में वास्तविक अर्थ सहित अनुवाद करना कितना दुष्कर कार्य है। श्री. दासगणू ने वहीं छन्दों में अनुवाद तो किया, परन्तु उसके सार तत्व को ग्रहण न कर सकने के कारण उन्हें अपने कार्य से सन्तोष न हुआ। इस प्रकार असंतुष्ट होकर उन्होंने कई अन्य विद्धानों से शंका-निवारणार्थ परामर्श और वादविवाद भी अधिक किया, परन्तु समस्या पूर्ववत् जटिल ही बनी रही और सन्तोषजनक अर्थ करने में कोई भी सफल न हो सका। इसी कारण श्री. दासगणू बहुत ही असंतुष्ट हुए।

केवल सदगुरु ही अर्थ समझाने में समर्थ

यह उपनिषद वेदों का महान् विवरणात्मक सार है। इस अस्त्र के प्रयोग से जन्म-मरण का बन्धन छिन्न भिन्न हो जाता है और मुक्ति की प्राप्ति होती है। अतः श्री. दासगणू को विचार आया कि जिसे आत्मसाक्षात्कार हो चुका हो, केवल वही इस उपनिषद् का वास्तविक अर्थ कर सकता है। जब कोई भी उनकी शंका का निवारण न कर सका तो उन्होंने शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करने का निश्चय किया। जब उन्हें शिरडी जाने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ तो उन्होंने बाबा से भेंट की और चरण-वन्दना करने के पश्चात् उपनिषद् में आई हुई कठिनाइयाँ उलके समक्ष रखकर उनसे हल करने की प्रार्थना की। श्री साईबाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं। उसमें कठिनाई ही क्या है। जब तुम लौटोगे तो विलेपार्ला में काका दीक्षित की नौकरानी तुम्हारी शंका का निवारण कर देगी। उपस्थित लोगों ने जब ये वचन सुने तो वे सोचने लगे कि बाबा केवल विनोद ही कर रहे है और कहने लगे कि क्या एक अशिक्षित नौकरानी भी ऐसी जटिल समस्या हल कर सकती है। परन्तु दासगणू को तो पूर्ण विश्वास था कि बाबा के वचन कभी असत्य नहीं हो सकते, क्योंकि बाबा के वचन तो साक्षात् ब्रहमवाक्य ही है।

काका की नौकरानी



बाबा के वचनों में पूर्ण विश्वास कर वे शिरडी से विलेपार्ला (बम्बई के उपनगर) में पहुँचकर काका दीक्षित के यहाँ ठहरे। दूसरे दिन दासगणू सुबह मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे, तभी उन्हें एक निर्धन बालिका के सुन्दर गीत का स्पष्ट और मधुर स्वर सुनाई पड़ा। गीत का मुख्य विषय था – एक लाल रंग की साड़ी। वह कितनी सुन्दर थी, उसका जरी का आँचल कितना बढ़िया था, उसके छोर और किनारे कितनी सुन्दर थी, इत्यादि। उन्हें वह गीत अति रुचिकर प्रतीत हुआ। इस कारण उन्हो्ने बाहर आकर देखा कि यह गीत एक बालिका - नाम्या की बहन - जो काकासाहेब दीक्षित की नौकरानी है – गा रही है। बालिका बर्तन माँज रही थी और केवल एक फटे कपड़े से तन ढँकें हुए थी। इतनी दरिद्री-परिस्थिति में भी उसकी प्रसन्न-मुद्रा देखकर श्री. दासगणू को दया आ गई और दूसरे दिन श्री. दासगणू ने श्री. एम्. व्ही. प्रधान से उस निर्धन बालिका को एक उत्म साड़ी देने की प्रार्थना की। जब रावबहादुर एम. व्ही. प्रधान ने उस बालिका को एक धोती का जोड़ा दिया, तब एक क्षुधापीड़ित व्यक्ति को जैसे भाग्यवश मधुर भोजन प्राप्त होने पर प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता होती है, वैसे ही उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा। दूसरे दिन उसने नई साड़ी पहनी और अत्यन्त हर्षित होकर सानन्द नाचने-कूदने लगी एवं अन्य बालिकाओं के साथ वह फुगड़ी खेलने में मग्न रही। अगले दिन उसने नई साड़ी सँभाल कर सन्दूक में रख दी और पूर्ववत् फटे पुराने कपड़े पहनकर आई, परन्तु फिर भी पिछले दिन के समान ही प्रसन्न दिखाई दी। यह देखकर श्री. दासगणू की दया आश्चर्य में परिणत हो गई। उनकी ऐसी धारणा थी कि निर्धन होने के ही कारण उसे फटे चिथड़े कपड़े पहनने पड़ते है, परन्तु अब तो उसके पास नई साड़ी थी, जिसे उसने सँभाल कर रख लिया और फटे कपडे पहनकर भी उसी गर्व और आनन्द का अनुभव करती रही। उसके मुखपर दुःख या निराशा का कोई निशान भी नही रहा। इस प्रकार उन्हें अनुभव हुआ कि दुःख और सुख का अनुभव केवल मानसिक स्थिति पर निर्भर है। इस घटना पर गूढ़ विचार करने के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचें कि भगवान ने जो कुछ ददिया है, उसी में समाधान वृत्ति रखनी चाहिये और यह निश्चयपूर्वक समझना चाहिये कि वह सब चराचर में व्याप्त है और जो कुछ भी स्थिति उसकी दया से अपने को प्राप्त है, वह अपने लिये अवश्य ही लाभप्रद होगी। इस विशिष्ट घटना में बालिका की निर्धनावस्था, उसके पटे पुराने कपड़े और नई साड़ी देने वाला तथा उसकी स्वीकृति देने वाला यह सब ईश्वर द्धारा ही प्रेरित कार्य था। श्री. दासगणू को उपनिषद् के पाठ की प्रत्यक्ष शिक्षा मिल गई अर्थात् जो कुछ अपने पास है, उसी में समाधानवृत्ति माननी चाहिए। सार यह है कि जो कुछ होता है, सब उसी की इच्छा से नियंत्रित है, अतः उसी में संतुष्ट रहने में हमारा कल्याण है।

अद्धितीय शिक्षापद्धति



उपयुक्त घटना से पाठकों को विदित होगा कि बाबा की पदृति अद्धितीय और अपूर्व थी। बाबा शिरडी के बाहर कभी नहीं गये, परन्तु फिर भी उन्होंने किसी को मच्छिन्द्रगढ़, किसी को कोल्हापुर या सोलापुर साधनाओं के लिये भेजा। किसी को दिन में और किसी को रात्रि में दर्शन दिये। किसी को काम करते हुए, तो किसी को निद्रावस्था में दर्शन दिये और उनकी इच्छाएँ पूर्ण की। भक्तों को शिक्षा देने के लिये उन्होंने कौन कौन-सी युक्तियाँ काम में लाई, इसका वर्णन करना असम्भव है। इस विशिष्ट घटना में उन्होंने श्री. दासगणू को विलेपार्ला भेज कर वहाँ उनकी नौकरानी द्धारा समस्या हल कराई। जिनका ऐसा विचार हो कि श्री. दासगणू को बाहर भेजने की आवश्यकता ही क्या थी, क्या वे स्वयं नही समझा सकते थे। उनसे मेरा कहना है कि बाबा ने उचित मार्ग ही अपनाया। अन्यथा श्री. दासगणू किस प्रकार एक अमूल्य शिक्षा उस निर्धन नौकरानी और उसकी साड़ी द्धारा प्राप्त करते, जिसकी रचना स्वयं साई ने की थी।

ईशोपनिषद् की शिक्षा

ईशोपनिषद् की मुख्य देन नीति-शास्त्र सम्बन्धी उपदेश है। हर्ष की बात है कि इस उपनिषद् की नीति निश्चित रुप से आध्यात्मिक विषयों पर आधारित है, जिसका इसमें बृहत् रुप से वर्णन किया गया है। उपनिषद् का प्रारम्भ ही यहीं से होता है कि समस्त वस्तुएँ ईश्वर से ओत-प्रोत है। यह आत्मविषयक स्थिति का भी एक उपसिद्धान्त है और जो नीतिसंबंधी उपदेश उससे ग्रहण करने योग्य है, वह यह है कि जो कुछ ईशकृपा से प्राप्त है, उसमें ही आनन्द मानना चाहिये और दृढ़ भावना रखनी चाहिये कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान् है और इसलिए जो कुछ उसने दिया है, वही हमारे लिये उपयुक्त है। यह भी उसमें प्राकृतिक रुप से वर्णित है कि पराये धन की तृष्णा की प्रवृत्ति को रोकना चाहिये। सारांश यह है कि अपने पास जो कुछ है, उसी में सन्तुष्ट रहना, क्योंकि यही ईश्वरेच्छा है। चरित्र सम्बन्धी द्धितीय उपदेश यह है कि कर्तव्य को ईश्वरेच्छा समझते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिये, विशेषतः उन कर्मों को जिनको शास्त्र में वर्णित किया गया है। इस विषय में उपनिषद् का कहना है कि आलस्य से आत्मा का पतन हो जाता है और इस प्रकार निरपेक्ष कर्म करते हुए जीवन व्यतीत करने वाला ही अकर्मणमयता के आदर्श को प्राप्त कर सकता है। अन्त में कहा है कि जो सब प्राणियों को अपना ही आत्मस्वरुप समझता है तथा जिसे समस्त प्राणी और पदार्थ आत्मस्वरुप हो चुके है, उसे मोह कैसे उत्पन्न हो सकता है। ऐसे व्यक्ति को दुःख का कोई कारण नहीं हो सकता।

सर्व भूतों में आत्मदर्शन न कर सकने के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के शोक, मोह और दुःखों की वृद्धि होती है। जिसके लिये सब वस्तुएँ आत्मस्वरुप बन गई हो, वह अन्य सामान्य मनुष्यों का छिद्रान्वेषण क्यों करने लगता है।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।