सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 18/19 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH -18/19

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 18/19

श्री. हेमाडपंत पर बाबा की कृपा कैसे हुई,
श्री. साठे और श्रीमती देशमुख की कथा, 
आनन्द प्राप्ति के लिये उत्तम विचारों को प्रोत्साहन, 
उपदेश में नवीनता, 
निंदा सम्बंधी उपदेश और परिश्रम के लिए मजदूरी।


ब्रहमज्ञान हेतु लालायित एक धनी व्यक्ति के साथ बाबा ने किस प्रकारा व्यवहारा किया, इसका वर्णन हेमाडपंत ने गत दो अध्यायों में किया है। अब हेमाडपंत पर किस प्रकार बाबा ने अनुग्रह कर, उत्तम विचारों को प्रोत्साहन देकर उन्हें सफलीभूत किया तथा आत्मोन्नति व परिश्रम के प्रतिफल के सम्बन्ध में किस प्रकार उपदेश किये, इनका इन दो अध्यायों में वर्णन किया जायेगा।


यह विदित ही है कि सदगुरु पहले अपने शिष्य की योग्यता पर विशेष ध्यान देते है। उनके चित्त को किंचितमात्र भी डावाँडोल न कर वे उपयुक्त उपदेश देकर उन्हें आत्मानुभूति की ओर प्रेरित करते है। इस सम्बन्ध में कुछ लोगों का विचार है कि जो शिक्षा या उपदेश सदगुरु द्धारा प्राप्त हो, उसे अन्य लोगों में प्रसारित न करना चाहिये। उनकी ऐसी भी धारणा है कि उसे प्रकट कर देने से उसका महत्व घट जाता है। यथार्थ में यह  दुष्टिकोण संकुचित है। सदगुरु तो वर्षा ऋतु के मेघसदृश है, जो सर्वत्र एक समान बरसते है, अर्थात वे अपने अमृततुल्य उपदेशों को विस्तृत श्रेत्र में प्रसारित करते है। प्रथमतः उनके सारांश को ग्रहण कर आत्मसात् कर लें और फिर संकीर्णता से रहित होकर अन्य लोगों में प्रचार करें। यह नियम जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं में प्राप्त उपदेशों के लिए है। उदाहरणार्थ बुधकौशिक ऋषि ने स्वप्न में प्राप्त प्रसिदृ रामरक्षा स्तोत्र साधारण जनता के हितार्थ प्रगट कर दिया था।

जिस प्रकार एक दयालु माता, बालक के उपचारार्थ कड़वी औषधि का बलपूर्वक प्रयोग करती है, उसी प्रकार श्री साईबाबा भी अपने भक्तों के कल्याणार्थ ही उपदेश दिया करते थे। वे अपनी पद्धति गुप्त न रखकर पूर्ण स्पष्टता को ही अधिक महत्व देते थे। इसी कारण जिन भक्तों ने उनके उपदेशों का पूर्णताः पालन किया, वे अपने ध्येय की प्राप्ति में सफल हुए। श्री साईबाबा जैसे सदगुरु ही ज्ञान-चक्षुओं को खोलकर आत्मा की दिव्यता का अनुभव करा देने में समर्थ है। विषयवासनाओं से आसक्ति नष्ट कर वे भक्तों की इच्छाओं को पूर्ण कर देते है, जिसके फलस्वरुप ही ज्ञान और वैराग्य प्राप्त होकर, ज्ञान की उत्तरोत्तर उन्नति होती रहती है। यह सब केवल उसी समय सम्भव है, जब हमें सदगुरु का सानिध्य प्राप्त हो तथा सेवा के पश्चात् हम उनके प्रेम को प्राप्त कर सकें। तभी भगवान भी, जो भक्तकामकल्पतरु है, हमारी सहायतार्थ आ जाते है। वे हमें कष्टों और दुःखों से मुक्त कर सुखी बना देते है। यह सब प्रगति केवल सदगुरु की कृपा से ही सम्भव है, जो कि स्वयं ईश्वर के प्रतीक है। इसीलिये हमें सदगुरु की खोज में सदैव रहना चाहिये। अब हम मुख्य विषय की ओर आते है।

श्री साठे



एक महानुभाव का नाम श्री. साठे था। क्रापर्ड के शासनकाल में कई वर्ष पूर्व, उन्हें कुछ ख्यति प्राप्त हो चुकी थी। इस शासन का बम्बई के गवर्नर लार्ड रे ने दमन कर दिया था। श्री. साठे को व्यापार में अधिक हानि हुई और परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने के कारण उन्हें बड़ा धक्का लगा। वे अत्यन्त दुःखित और निराश हो गये और अशान्त होने के कारण वे घर छोड़कर किसी एकान्त स्थान में वास करने का विचार करने लगे। बहुधा मनुष्यों को ईश्वर की स्मृति आपत्तिकाल तथा दुर्दिनों में ही आती है और उनका विश्वास भी ईश्वर की ओर ऐसे ही समय में बढ़ जाता है। तभी वे कष्टों के निवारणार्थ उनसे प्रार्थना करने लगते है। यदि उनके पापकर्म शेष न रहे हो तो भगवान भी उनकी भेंट किसी संत से करा देते है, जो उनके कल्याणार्थ ही उचित मार्ग का निर्देश कर देते है। ऐसा ही श्री. साठे के साथ भी हुआ। उनके एक मित्र ने उन्हें शिरडी जाने की सलाह दी, जहाँ मन की शांति प्राप्त करने और इच्छा पूर्ति के निमित्त, देश के कोने कोने से लोगों के झुंड के झुंड आते जा रहे है। उन्हें यह विचार अति रुचिकर प्रतीत हुआ और सन् 1917 में वे शिरडी गये। बाबा के सनातन, पूर्ण-ब्रहृ, स्वयं दीप्तिमान, निर्मल शान्त एवं स्थिर हो गया। उन्होंने सोचा कि गत जन्मों के संचित शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही आज मैं श्री साईबाबा के पवित्र चरणों तक परहुँचने में समर्थे हो सका हूँ। श्री. साठे दृढ़ संकल्प के व्यक्ति थे। इसलिये उन्होंने शीघ्र ही गुरुचरित्र का पारायण प्रारम्भ कर दिया। जब एक सप्ताह में ही चरित्र की प्रथम आवृत्ति समाप्त हो गई, तब बाबा ने उसी रात्रि को उन्हें एक स्वप्न दिया, जो इस प्रकार है –

बाबा अपने हाथ में चरित्र लिये हुए है और श्री. साठे को कोई विषय समझा रहे है तथा श्री. साठे सम्मुख बैठे ध्यानपूर्वक श्रवण कर रहे है। जब उनकी निद्रा भंग हुई तो स्वप्न को स्मरण कर वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने विचार किया कि यह बाबा की अत्यंत कृपा हे, जो इस प्रकार अचेतनावस्था में पड़े हुओं को जागृत कर उन्हें गुरुचरित्र का अमृतपान करने का अवसर प्रदान करते है। उन्होंने यह स्वप्न श्री. काकासाहेब दीक्षित को सुनाया और श्री साईबाबा के पास प्रार्थना करने को कहा कि इसका यथार्थ अर्थ क्या है और क्या एक सप्ताह का पारायण ही मेरे लिये पर्याप्त है अथवा उसे पुनः प्रारम्भ करुँ। श्री. काकासाहेब दीक्षित ने उचित अवसर पाकर बाबा से पूछा कि हे देव! उस दृष्टांत से आपने श्री. साठे को क्या उपदेश दिया है। क्या वे पारायण सप्ताह स्थगित कर दे। वे एक सरलहृदय भक्त है। इसलिए उनकी मनोकामना आप पूर्ण करें और हे देव! कृपाकर उन्हें एक स्वप्न का यथार्थ अर्थ भी समझा दें। तब बाबा बोले कि उन्हें गुरु चरित्र का एक सप्ताह और पारायण करना उचित है। यदि वे ध्यानपूर्वक पाठ करेंगे तो उनका चित्त शुदृ हो जायेगा और शीघ्र ही कल्यण होगा। ईश्वर भी प्रसन्न होकर उन्हें भव-बन्धन से मुक्त कर देंगे। इस अवसर पर श्री. हेमाडपंत भी वहाँ उपस्थित थे और बाबा के चरणकमलों की सेवा कर रह थे। बाबा के वचन सुनकर उन्हें विचार आया कि साठे को केवल सप्ताह के पारायण से ही मनोवांछित फल की प्राप्ति हो गई, जब कि मैं गत 40 बर्षों से गुरुचरित्र का पारायण कर रहा हूँ, जिसका कोई परिणाम अब तक न निकला। उनका केवल सात दिनों तक शिरडी निवास ही सफल हुआ और मेरा गत सात वर्ष का (1910-17) सहवास क्या व्यर्थ हो गया। चातक पक्षी के समान मैं सदा उसके कृपा की रहा देखा करता हूँ, जो मेरे ऊपर मस्तिष्क में आया ही था कि बाबा को सब ज्ञात हो गया। ऐसा भक्तों ने सदैव ही अनुभव किया है कि उनके समस्त विचारों को जानकर बाबा तुरन्त कुविचारों का दमन कर उत्तम विचारों को प्रोत्साहित करते थे। हेमाडपंत का ऐसा विचार जानकर बाबा ने तुरन्त ही आज्ञा दी कि शामा के यहाँ जाओ और कुछ समय उनसे वार्तालाप कर, 15 रु. दक्षिणा ले आओ। बाबा को दया आ गई थी। इसी कारण उन्होंने ऐसी आज्ञा दी। उनकी अवज्ञा करने का साहस भी किसे था। श्री. हेमाडपंत शीघ्र शामा के घर पहुँचे। इस समय पर शामा स्नान कर धोती पहन रहे थे। उन्होंने बाहर आकर हेमाडपंत से पूछा कि आप यहाँ कैसे। जान पड़ता है कि आप मसजिद से ही आ रहे है तथा आप ऐसे व्यथित और उदास क्यों है आप अकेले ही क्यों आये है। आइये, बैठिये, और थोड़ा विश्राम तो करिये। जब तक मैं पूजनादि से भी निवृत्त हो जाऊँ, तब तक आप कृपा करके पान आदि ले। इसके पश्चात् ही हम और आप सुखपूर्वक वार्तालाप करें। ऐसा कहकर वे भीतक चले गए। दालान में बैठे-बैठे हेमाडपंत की दृष्टि अचानक खिड़की पर रखी नाथ भागवत पर पड़ी। नाथ भागवत श्री एकनाथ द्धारा रचित महाभारत के 11 वें स्कन्ध पर मराठी भाषा में की हुई एक टीका है। श्री साईबाबा की आज्ञानुसार श्री. बापूसाहेब जोग और श्री. काकासाहेब दीक्षित शिरडी में नित्य भगवदगीता का मराठी टीकासहित, जिसका नाम भावार्थ दीपिका या ज्ञानेश्वरी है (कृष्ण और भक्त अर्जुन संवाद), नाथ भागवत (श्रीकृष्ण उद्धव संवाद) और एकनाथ का महान् ग्रन्थ भावा्र्थ रामायण का पठन किया करते थे। जब भक्तगण बाबा से कोई प्रश्न पूछने आते तो वे कभी आंशिक उत्तर देते और कभी उनको उपयुक्त भागवत तथा प्रमुख ग्रंथों का श्रवण करने को कहते थे, जिन्हें सुनने पर भक्तों को अपने प्रश्नों के पूर्णतया संतोषप्रद उत्तर प्राप्त हो जाते थे। श्री. हेमाडपंत भी नित्य प्रति नाथ भागवत के कुछ अंशों का पाठ किया करते थे।


आज प्रातः मसजिद को जाते समय कुछ भक्तों के सत्संग के कारण उन्होंने अपना नित्य नियमानुसार पाठ अधूरा ही छोड़ दिया था। उन्होंने जैसे ही वह ग्रन्थ उठाकर खोला तो अपने अपूर्ण भाग का पृष्ठ सामने देखकर उनको आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि बाबा ने इसी कारण ही मुझे यहाँ भेजा है, ताकि मैं अपना शेष पाठ पूरा कर लूँ और उन्होंने शेष अंश का पाठ आरम्भ कर दिया। पाठ पूर्ण होते ही शामा भी बाहर आये और उन दोनों में वार्तालाप होने लगा। हेमाडपंत ने कहा कि मैं बाबा का एक संदेश लेकर आपके पास आया हूँ। उन्होंने मुझे आपसे 15 रु. दक्षिणा लाने तथा थोड़ी देर वार्तालाप कर आपको अपने साथ लेकर मसजिद वापस आने की आज्ञा दी है। शामा आश्चर्य से बोले मेरे पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। इसलिये आप रुपयों के बदले दक्षिणा मे मेरे 15 नमस्कार ही ले आओ। तब हेमाडपंत ने कहा कि ठीक है, मुझे आपके 15 नमस्कार ही स्वीकार है। आइये, अब हम कुछ वार्तालाप करें और कृपा कर बाबा की कुछ लीलाएँ आप मुझे सुनाये, जिससे पाप नष्ट हो। शामा बोले, तो कुछ देर बैठो। इस ईश्वर (बाबा) की लीला अदभुत है। कहाँ मैं एक अशिक्षित देहाती और कहाँ आप एक विद्धान्, यहाँ आने के पश्चात् तो आप बाबा की अनेक लीलाएँ स्वयं देख ही चुके है, जिनका अब मैं आपके समक्ष कैसे वर्णन कर सकता हूँ। अच्छा, यह पान-सुपारी तो खाओ, तब तक मैं कपड़े पहिनलूँ।

थोडी देर में शामा बाहर आये और फिर उन दोनों में इस प्रकार वार्तालाप होने लगा -

शामा बोले – इस परमेश्वर (बाबा) की लीलायें आगाध है, जिसका कोई पार नहीं। वे तो लीलाओं से अलिप्त रहकर सदैव विनोद किया करते है। इसे हम अज्ञानी जीव क्या समझ सकें। बाबा स्वयं ही क्यों नही कहते। आप सरीखे विद्धान को मुझ जैसे मूर्ख के पास क्यों भेजा हैं। उनकी कार्यप्रणाली ही कल्पना के परे है। मैं तो इस विषय में केवल इतना ही कह सकता हूँ कि वे लौकिक नहीं है। इस भूमिका के साथ ही साथ शामा ने कहा कि अब मुझे एक कथा की स्मृति हो आई है, जिसे मैं व्यक्तिगत रुप से जानता हूँ। जैसी भक्त की निष्ठा और भाव होता हे, बाबा भी उसी प्रकार उनको सहायता करते है। कभी कभी तो बाबा भक्त की कठिन परीक्षा लेकर ही उसे उपदेश दिया करते हैं। उपदेश शब्द सुनकर साठे के गुरुचरित्र-पारायण की घटना का तत्काल ही स्मरण करके हेमाडपंत को रोमांच हो आया। उन्होंने सोचा, कदाचित् बाबा ने मेरे चित्त की चंचलता नष्ट करने के लिये ही मुझे यहाँ भेजा है। फिर भी वे अपने विचार प्रकट न कर, शामा की कथा को ध्यानपूर्वक सुनने लगे। उन सब कथाओं का सार केवल यही था कि अपने भक्तों के प्रति बाबा के मन में कितनी दया और स्नेह है। इन कथाओं को श्रवण कर हेमाडपंत को आंतरिक उल्लास का अनुभव होने लगा। तब शामा ने नीचे लिखी कथा कही –

श्रीमती राधाबाई देशमुख



एक समय एक वृद्धा, श्रीमती राधाबाई, जो खाशाबा देशमुख की माँ थी, बाबा की कीर्ति सुनकर संगमनेर के लोगों के साथ शिरडी आई। बाबा के श्री दर्शन कर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई। श्री साई चरणों में उनकी अटल श्रद्धा थी। इसलिये उन्होंने यह निश्चय किया कि जैसे भी हो, बाबा को अपना गुरु बना, उनसे उपदेश ग्रहण किया जाय।

आमरण अनशन का दृढ़ निश्चय कर अपने विश्राम गृह में आकर उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और इस प्रकार तीन दिन व्यतीत हो गये। मैं इस वृद्धा की अग्निपरीक्षा से बिल्कुल भयभीत हो गया और बाबा से प्रार्थना करने लगा कि देव! आपने अब यह क्या करना आरम्भ कर दिया है। ऐसे कितने लोगों को आप यहाँ आकर्षित किया करते है। आप उस वृद्धा महिला से पूर्ण परिचित ही है, जो हठपूर्वक आप पर अवलम्बित है। यदि आपने कृपादृष्टि कर उसे उपदेश न दिया और यदि दुर्भाग्यवश उसे कुछ हो गया तो लोग व्यर्थ ही आपको दोषी ठहरायेंगे और कहेंगे कि बाबा से उपदेश प्राप्त न होने की वजह से ही उसकी मृत्यु हो गई है। इसलिये अब दया कर उसे आशीष और उपदेश दीजिये। वृद्धा का ऐसा दृढ़ निश्चय देख कर बाबा ने उसे अपने पास बुलाया और मधुर उपदेश देकर उसकी मनोवृत्ति परिवर्तित कर कहा कि हे माता! क्यों व्यर्थ ही तुम यातना सहकर मृत्यु का आलिंगन करना चाहती हो। तुम मेरी माँ और मैं तुम्हारा बेटा। तुम मुझ पर दया करो और जो कुछ मैं कहूँ, उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो। मैं अपनी स्वयं की कथा तुमसे कहता हूँ और यदि तुम उसे ध्यानपूर्वक श्रवण करोगी तो तुम्हें अवश्य परम शान्ति प्राप्त होगी। मेरे एक गुरु, जो बड़े सिदृ पुरुष थे, मुझ पर बड़े दयालु थे। दीर्घ काल तक मैं उनकी सेवा करता रहा, फिर भी उन्होंने मेरे कानों में कोई मंत्र न फूँका। मैं उनसे कभी अलगावा भी नहीं चाहता था। मेरी प्रबल उत्कंठा थी कि उनकी सेवा कर जिस प्रकार भी सम्भव हो, मंत्र प्राप्त करुँ। परन्तु उनकी रीति तो न्यारी ही थी। उन्होंने पहले मेरा मुंडन कर मुझसे दो पैसे दक्षिणा में माँगे, जो मैंने तुरन्त ही दे दिये। यदि तुम प्रश्न करो कि मेरे गुरु जब पूर्णकाम थे तो उन्हें पैसे माँगना क्या शोभनीय था। और फिर उन्हें विरक्त भी कैसे कहा जा सकता था। इसका उत्तर केवल यह है कि वे कांचन को ठुकराया करते थे, क्योंकि उन्हें उसकी स्वप्न में भी आवश्यकता न थी। उन दो पैसों का अर्थ था – दृढ़ निष्ठा और धैर्य।

जब मैंने ये दोनों वस्तुएँ उन्हें अर्पित कर दी तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। मैंने बारह वर्ष उनके श्री चरणों की सेवा में ही व्यतीत किये। उन्होंने ही मेरा भरण-पोषण किया। अतः मुझे भोजन और वस्त्रों का कोई अभाव न था। वे प्रेम की मूर्ति थे अथवा यों कहो कि वे प्रेम के साक्षात् अवतार थे। मैं उनका वर्णन ही कैसे कर सकता हूँ, क्योंकि उनका तो मुझ पर अधिक स्नेह था और उनके समान गुरु कोई बिरला ही मिलेगा। जब मैं उनकी ओर निहारता तो मुझे प्रतीत होता कि वे गम्भीर मुद्रा में ध्यानमग्न है और तब हम दोनों आनंददित हो जाते थे। आठों प्रहर मैं एक टक उनके ही श्रीमुख की ओर निहारा करता था। मैं भूख और प्यास की सुध-बुध खो बैठा। उनके दर्शनों के बिना मैं अशान्त हो उठता था। गुरु सेवा की चिन्ता के अतिरिक्त मेरे लिये कोई और चिन्तनीय विषय या पदार्थ न था। मुझे तो सदैव उन्हीं का ध्यान रहता था। अतः मेरा मन उनके चरण-कमलों में मग्न हो गया। यह हुई एक पैसे की दक्षिणा। धैर्य है दूसरा पैसा। मैं धैर्यपूर्वक बहुत काल तक प्रतीक्षा कर गुरुसेवा करता रहा। यही धैर्य तुम्हें भी भवसागर से पार उतार देगा। धैर्य ही मनुष्य में मनुष्यत्व है। धैर्य धारण करने से समस्त पाप और मोह नष्ट होकर उनके हर प्रकार के संकट दूर होते तथा भय जाता रहता है। इसी प्रकार तुम्हें भी अपने ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी। धैर्य तो गुणों की खान व उत्तम विचारों की जननी है। निष्ठा और धैर्य दो जुड़वाँ बहिनों के समान ही है, जिनमें परस्पर प्रगाढ़ प्रेम है।


मेरे गुरु मुझसे किसी वस्तु की आकांक्षा न रखते थे। उन्होंने कभी मेरी उपेक्षा न की, वरन् सदैव रक्षा करते रहे। यद्यपि मैं सदैव उनके चरणों के समीप ही रहता था, फिर भी कभी किन्हीं अन्य स्थानों पर यदि चला जाता तो भी मेरे प्रेम में कभी कमी न हुई। वे सदा मुझ पर कृपा दृष्टि रखते थे। जिस प्रकार कछुवी प्रेमदृष्टि से अपने बच्चों का पालन करती है, चाहे वे उसके समीप हों अथवा नदी के उस पार हो हे माँ! मेरे गुरु ने तो मुझे कोई मंत्र सिखाया ही नही, तब मैं तुम्हारे कान में कैसे कोई मंत्र फूँकूँ। केवल इतना ही ध्यान रखो कि गुरु की भी कछुवी के समान ही प्रेम-दृष्टि से हमें संतोष प्राप्त होता है। इस कारण व्यर्थ में किसी से उपदेश प्राप्त करने का प्रयत्न न करो। मुझे ही अपने विचारों तथा कर्मों का मुख्य ध्येय बना लो और तब तुम्हें निस्संदेह ही परमार्थ की प्रप्ति हो जायेगी। मेरी और अनन्य भाव से देखो तो मैं भी तुम्हारी ओर वैसे ही देखूँगा। इस मसजिद में बैठकर मैं सत्य ही बोलूँगा कि किन्हीं साधनाओं या शास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता नही, वरन् केवल गुरु में विश्वास ही पर्याप्त है। पूर्ण विश्वास रखो कि गुरु की कर्ता है और वह धन्य है, जो गुरु की महानता से परिचित हो उसे हरि, हर और ब्रहृ (त्रिमूर्ति) का अवतार समझता है।

इस प्रकार समझाने से वृदृ महिला को सान्तवना मिली और उसने बाबा को नमन कर अपना उपवास त्याग दिया। यह कथा ध्यानपूर्वक एकाग्रता से श्रवण कर तथा उसके उपयुक्त अर्थ पर विचार कर हेमाडपंत को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनका कंठ रुँध गया और वे मुख से एक शब्द भी न बोल सके। उनकी ऐसी स्थति देख शामा ने पूछा कि आप ऐसे स्तब्ध क्यों हो गये। बात क्या है। बाबा की तो इस प्रकार की लीलायें अगणित है, जिनका वर्णन मैं किस मुख से करुँ।

ठीक उसी समय मसजिद में घण्टानाद होने लगा, जो कि मध्याहृ पूजन तथा आरती के आरम्भ का धोतक था। तब शामा और हेमाडपंत भी शीघ्र ही मसजिद की ओर चले। बापूसाहेब जोग ने पूजन आरम्भ कर दिया था, स्त्रियां मसजिद में ऊपर खड़ी थीं और पुरुष वर्ग नीचे मंडप में। सब उच्च स्वर में वाघों के साथ-साथ आरती गा रहे थे। तभी हेमाडपंत का हाथ पकड़े हुए शामा भी ऊपर पहुँचे और वे बाबा के दाहिनी ओर तथा हेमाडपंत बाबा के सामने बैठ गये। उन्हें देख बाबा ने शामा से लाई हुई दक्षिणा देने के लिये कहा। तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि रुपयों के बदले शामा ने मेरे द्धारा आपको पन्द्रह नमस्कार भेजे है तथा स्वयं ही यहाँ आकर उपस्थित हो गये है। बाबा ने कहा, अच्छा, ठीक है। तो अब मुझे यह बताओ कि तुम दोनों में आपस में किस बिषय पर वार्तालाप हुआ था। तब घंटे, ढोल और सामूहिक गान की ध्वनि की चिंता की चिंता करते हुए हेमाडपंत उत्कंठापूर्वक उन्हें वह वार्तालाप सुनाने लगे। बाबा भी सुनने को अति उत्सुक थे। इसलिये वे तकिया छोड़कर थोड़ा आगे झुक गये। हेमाडपंत ने कहा कि वार्ता अति सुखदायी थी, विशेषकर उस वृदृ महिला की कथा तो ऐसी अदभुत थी कि जिसे श्रवण कर मुझे तुरन्त ही विचार आया कि आपकी लीलाएँ अगाध है और इस कथा की ही ओट में आपने मुझ पर विशेष कृपा की है। तब बाबा ने कहा, वह तो बहुत ही आश्चर्यपूर्ण है। अब मेरी तुम पर कृपा कैसे हुई, इसका पूर्ण विवरण सुनाओ। कुछ काल पूर्व सुना वार्तालाप जो उनके हृदय पटल पर अंकित हो चुका था, वह सब उन्होने बाबा को सुना दिया। वार्ता सुनकर बाबा अति प्रसन्न हो कहने लगे कि क्या कथा से प्रभावित होकर उसका अर्थ भी तुम्हारी समझ में आया है। तब हेमाडपंत ने उत्तर दिया कि हाँ, बाबा, आया तो है। उससे मेरे चित्त की चंचलता नष्ट हो गई है। अब यथा्रथ में मैं वास्तविक शांति और सुख का अनुभव कर रहा हूँ तथा मुझे सत्य मार्ग का पता चल गया है। तब बाबा बोले, सुनो, मेरी पद्धति भी अद्धितीय है। यदि इस कथा का स्मरण रखोगे तो यह बहुत ही उपयोगी सिदृ होगी। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिये ध्यान अत्यंत आवश्यक है और यदि तुम इसका निरन्तर अभ्यास करते रहोगे तो कुप्रवृत्तियाँ शांत हो जायेंगी। तुम्हें आसक्ति रहित होकर सदैव ईश्वर का ध्यान करना चाहिये, जो सर्व प्राणियों में व्याप्त है और जब इस प्रकार मन एकाग्र हो जायेगा तो तुम्हें ध्येय की प्राप्ति हो जायेगी। मेरे निराकार सच्चिदानन्द स्वरुप का ध्यान करो। यदि तुम ऐसा करने में अपने को असमर्थ मानो तो मेरे साकार रुप का ही ध्यान करो, जैसा कि तुम मुझे दिन-रात यहाँ देखते हो। इस प्रकार तुम्हारी वृत्तियाँ केन्द्रित हो जायेंगी तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय का पृथकत्व नष्ट होकर, ध्याता चैतन्य से एकत्व को प्राप्त कर ब्रहृ के साथ अभिन्न हो जायेगा। कछुवी नदी के इस किनारे पर रहती है और उसके बच्चे दूसरे किनारे पर। न वह उन्हें दूध पिलाती है और न हृदय से ही लगाकर लेती है, वरन् केवल उसकी प्रेम-दृष्टि से ही उनका भरण-पोषण हो जाता है। छोटे बच्चे भी कुछ न करके केवल अपनी माँ का ही स्मरण करते रहते है। उन छोटे-छोटे बच्चों पर कछुवी की केवल दृष्टि ही उन्हें अमृततुल्य आहार और आनन्द प्रदान करती है। ऐसी ही गुरु और शिष्य का भी सम्बन्ध है। बाबा ने ये अंतिम शब्द कहे ही थे कि आरती समाप्त हो गई और सबने उच्च स्वर से – श्री सच्चिदानन्द सदगुरु साईनाथ महाराज की जय बोली। प्रिय पाठको! कल्पना करो कि हम सब भी इस समय उसी भीड़ और जयजयकार में सम्मिलित है ।


आरती समाप्त होने पर प्रसाद वितरण हुआ। बापूसाहेब जोग हमेशा की तरह आगे बढ़े और बाबा को नमस्कार कर कुछ मिश्री का प्रसाद दिया। यह मिश्री हेमाडपंत को देकर वे बोले कि यदि तुम इस कथा को अच्छी तरह से सदैव स्मरण रखोगे तो तुम्हारी भी स्थिति इस मिश्री के समान मधुर होकर समस्त इच्छायें पूर्ण हो जायेंगी और तुम सुखी हो जाओगे। हेमाडपंत ने बाबा को साष्टांग प्रणाम किया और स्तुति की कि प्रभो इसी प्रकार दया कर सदैव मेरी रक्षा करते रहो। तब बाबा ने आर्शीवाद देकर कहा कि इन कथाओं को श्रवण कर, नित्य मनन तथा निदिध्यासन कर, सारे तत्व को ग्रहण करो, तब तुम्हें ईश्वर का सदा स्मरण तथा ध्यान बना रहेगा और वह स्वयं तुम्हारे समक्ष अपने स्वरुप को प्रकट कर देगा। प्यारे पाठको! हेमाडपंत को उस समया मिश्री का प्रसाद भली भाँति मिला, जो आज हमें इस कथामृत के पान करने का अवसर प्राप्त हुआ। आओ, हम भी उस कथा का मनन करें तथा उसका सारग्रहण कर बाबा की कृपा से स्वस्थ और सुखी हो जाये।

19वे अध्याय के अन्त में हेमाडपंत ने कुछ और भी विषयों का वर्णन किया है, जो यहाँ दिये जाते है।

अपने बर्ताव के सम्बन्ध में बाबा का उपदेश

नीचे दिये हुए अमूल्य वचन सर्वसाधारण भक्तों के लिये है और यदि उन्हें ध्यान में रखकर आचरण में लाया गया तो सदैव ही कल्याण होगा। जब तक किसी से कोई पूर्व नाता या सम्बन्ध न हो, तब तक कोई किसी के समीप नहीं जाता। यदि कोई मनुष्य या प्राणी तुम्हारे समीप आये तो उसे असभ्यता से न ठुकराओ। उसका स्वागत कर आदरपूर्वक बर्ताव करो। यदि तृषित को जल, क्षुधा-पीड़ित को भोजन, नंगे को वस्त्र और आगन्तुक को अपना दालान विश्राम करने को दोगे तो भगवान श्री हरि तुमसे निस्सन्देह प्रसन्न होंगे। यदि कोई तुमसे द्रव्य-याचना करे और तुम्हारी इच्छा देने की न हो तो न दो, परन्तु उसके साथ कुत्ते के समान ही व्यवहार न करो। तुम्हारी कोई कितनी ही निंदा क्यों न करे, फिर भी कटु उत्तर देकर तुम उस पर क्रोध न करो। यदि इस प्रकार ऐसे प्रसंगों से सदैव बचते रहे तो यह निश्चित ही है कि तुम सुखी रहोगे। संसार चाहे उलट-पलट हो जाये, परन्तु तुम्हें स्थिर रहना चाहिये। सदा अपने स्थान पर दृढ़ रहकर गतिमान दृश्य को शान्तिपूर्वक देखो। एक को दूसरे से अलग रखने वाली भेद (द्धैत) की दीवार नष्ट कर दो, जिससे अपना मिलन-पथ सुगम हो जाये। द्धैत भाव (अर्थात मैं और तू) ही भेद-वृति है, जो शिष्य को अपने गुरु से पृथक कर देती है। इसलिये जब तक इसका नाश न हो जाये, तब तक अभिन्नता प्राप्त करना सम्भव नही हैं। अल्लाह मालिक अर्थात ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है और उसके सिवा अन्य कोई संरक्षणकर्ता नहीं है। उनकी कार्यप्रणाली अलौकिक, अनमोन और कल्पना से परे है। उनकी इच्छा से ही सब कार्य होते है। वे ही मार्ग-प्रदर्शन कर सभी इच्छाएँ पूर्ण करते है। ऋणानुबन्ध के कारण ही हमारा संगम होता है, इसलिये हमें परस्पर प्रेम कर एक दूसरे की सेवा कर सदैव सन्तुष्ट रहना चाहिये। जिसने अपने जीवन का ध्येय (ईश्वर दर्शन) पा लिया है, वही धन्य औ सुखी है । दूसरे तो केवल कहने को ही जब तक प्राण है, तब तक जीवित हैं।

उत्तम विचारों को प्रोत्साहन



यह ध्यान देने योग्य बात है कि श्री साईबाबा सदैव उत्तम विचारों को प्रोत्साहन दिया करते थे। इसलिये यदि हम प्रेम और भक्तिपू्र्वक अनन्य भाव से उनकी शरण जायें तो हमें अनुभव हो जायेगा कि वे अनेक अवसरों पर हमें किस प्रकार सहायता पहुँचाते है। किसी सन्त का कथन है कि यदि प्रातःकाल तुम्हारे हृदय में कोई उत्तम विचार उत्पन्न हो और यदि तुम उसकी पुष्टि दिनभर करो तो वह तुम्हारा विवेक अत्यन्त विकसित और चित्त प्रसन्न कर देगा। हेमाडपंत भी इसका अनुभव करना चाहते थे। इसलिये इस पवित्र शिरडी भूमि पर अगले शुभ गुरुवार के समूचे दिन नामस्मरण और कीर्तन में ही व्यतीत करुँ, ऐसा विचार कर वे सो रहे। दूसरे दिन प्रातःकाल उठने पर उन्हे सहज ही राम-नाम का स्मरण हो आया, जिससे वे प्रसन्न हुए और नित्य कर्म समाप्त कर कुछ पुष्प लेकर बाबा के दर्शन करने को गये। जब वे दीक्षित का वाड़ा पार कर बूटी-वाड़े के समीप से जा रहे थे तो उन्हें एक मधुर भजन की ध्वनि, जो मसजिद की ओर से आ रही थी, सुनाई पडी। यह एकनाथ का रोचक भजन औरंगाबादकर मधुर लयपूर्वक बाबा के समक्ष गा रहे थे।

गुरुकृपांजन पायो मेरे भाई। राम बिना कुछ मानत नाही ।। धु. ।।
अन्दर रामा बाहर रामा। सपने में देखत सीतारामा ।। 1 ।। गुरु. ।।
जागत रामा सोवत रामा। जहाँ देखे वहीं पूरन कामा ।। 2 ।। गुरु. ।।
एका जनार्दनी अनुभव नीका। जहाँ देखे वहाँ रामसरीखा ।। 3 ।। गुरु. ।।

भजन अनेकों है, परन्तु विशेषकर यह भजन ही क्यों औरंगाबाद करने चुना। क्या यह बाबा द्धारा ही संयोजित विचित्र अनुरुपता नहीं है। और क्या यह हेमाडपंत के गत दिन अखंड रामनाम स्मरण के संकल्प को प्रोत्साहन नहीं है। सभी संतों का इस सम्बन्ध में एक ही मत है और सभी रामनाम के जप को प्रभावकारी तथा भक्तों की इच्छापूर्ति और सभी कष्टों से छुटकारा पाने के लिये इसे एक अमोघ इलाज बतलाते है।

निन्दा सम्बन्धी उपदेश

उपदेश देने के लिये किसी विशेष समय या स्थान की प्रतीक्षा न कर बाबा यथायोग्य समय पर ही स्वतन्त्रतापूर्वक उपदेश दिया करते थे। एक बार एक भक्त ने बाबा की अनुपस्थिति में दूसरे लोगों के सम्मुख किसी को अपशब्द कहे। गुणों की उपेक्षा कर उसने अपने भाई के दोषारोपण में इतने बुरे से कटु वाक्यों का प्रयोग किया कि सुनने वालों को भी उसके प्रति घृणा होने लगी। बहुधा देखने में आता है कि लोग व्यर्थ ही दूसरों की निंदा कर झगड़ा और बुराइयाँ उत्पन्न करते है। संत तो परदोषों को दूसरी ही दृष्टि से देखा करते है। उनका कथन है कि शुद्धि के लिये अनेक विधियों में मिट्टी, जल और साबुन पर्याप्त है, परन्तु निंदा करने वालों की युक्ति भिन्न ही होती है। वे दूसरों के दोषों को केवल अपनी जिहृा से ही दूर करते है और इस प्रकार वे दूसरों की निंदा कर उनका उपकार ही किया करते है, जिसके लिये वे धन्यवाद के पात्र है। निंदक को उचित मार्ग पर लाने के लिये साईबाबा की पदृति सर्वथा ही भिन्न थी। वे तो सर्वज्ञ थे ही, इसलिये उस निंदक के कार्य को वे समझ गये। मध्याहृकाल में जब लेण्डी के समीप उससे भेंट हुई, तब उन्होंने विष्ठा खाते हुए एक सुअर की ओर उँगली उठाकर उससे कहा कि देखो, वह कितने प्रेमपूर्वक विष्ठा खा रहा है। तुम भी जी भर कर अपने भाइयों को सदा अपशब्द कहा करते हो और यह तुम्हारा आचरण भी ठीक उसी के सदृश ही है। अनेक शुभ कर्मों के परिणामस्वरुप ही तुम्हें मानव-तन प्राप्त हुआ और इसलिये यदि तुमने इसी प्रकार आचरण किया तो शिरडी तुम्हारी सहायता ही क्या कर सकेगी। कहने का तात्पर्य केवल यह है कि भक्त ने उपदेश ग्रहण कर लिया और वह वहाँ से चला गया। इस प्रकार प्रसंगानुसार ही वे उपदेश दिया करते थे। यदि उन पर ध्यान देकर नित्य उनका पालन किया जाय तो आध्यात्मिक ध्येय अधिक दूर न होगा। एक कहावत प्रचनित है कि – यदि मेरा श्रीहरि होगा तो वह मुझे चारपाई पर बैठे-बैठे ही भोजन पहुँचायेगा। यह कहावत भोजन और वस्त्र के विषय में सत्य प्रतीत हो सकती है, परन्तु यदि कोई इस पर विश्वास कर आलस्यवशबैठा रहे तो वह आध्यात्मिक क्षेत्र में कुछ भी प्रगति न कर उलटे पतन के घोर अंधकार में मग्न हो जायेगा। इसलिये आत्मानुभूति प्राप्ति के लिये प्र्तेक को अनवरत परिश्रम करना चाहिये और जितना प्रयत्न वह करेगा, उतना ही उसके लिए लाभप्रद भी हो। बाबा ने कहा कि मैं तो सर्वव्यापी हूँ और विश्व के समस्त भूतों तथा चराचर में व्याप्त रहकर भी अनंत हूँ। केवल उनके भ्रम-निवारणार्थ ही जिनकी दृष्टि में वे साढ़े तीन हाथ के मानव थे, स्वयं सगुण रुप धारण कर अवतीर्ण हुए। इसलिये जो भक्त अनन्य भाव से उनकी शरण आये और जिन्होंने दिन-रात ही उनका ध्यान किया, उन्हें उनसे अभिन्नता प्राप्त हुई, जिस प्रकार कि माधुर्य और मिश्री, लहर और सममुद्र तथा नेत्र और कांति में अभिन्नता हुआ करती है। जो आवागमन के चक्र से मुक्त होना चाहे, वे शांत और स्थिर होकर अपना धार्मिक जीवन व्यतीत करें। दुःखदायी कटु शब्दों के प्रयोग से किसी को दुःखित न कर सदैव उत्तम कार्यों में संलग्न रहकर अपना कर्तव्य करते हुए अनन्य भाव से भयरहित हो उनकी शरण में जाना चाहिये। जो पूर्ण विश्वास से उनकी लीलाओं का श्रवण कर उनका मनन करेगा तथा अन्य वस्तुओं की चिंता त्याग देगा, उसे निस्संदेह ही आत्मानुभूति की प्राप्ति होगी। उन्होंने अनेकों से नाम का जपकर अपनी शरण में आने को कहा। जो यह जानने को उत्सुक थे कि मैं कौन हूँ। बाबा ने उन्हें भी लीलायें श्रवण और मनन करने का परामर्श दिया। किसी को भगवत् लीलाओं का श्रवण, किसी को भगवत्पादपूजन तो किसी को अध्यात्मरामायण व ज्ञानेश्वरी तथा धार्मिक ग्रन्थों का पठन एवं अध्ययन करने को कहा। अनेकों को अपने चरणों के समीप ही रखकर बहुतों को खंडोबा के मन्दिर में भेजा तथा अनेकों को विष्णु सहस्त्रनाम का जप करने व छान्दोग्य उपनिषद तथा गीता का अध्ययन करने को कहा। उनके उपदेशों की कोई सीमा न थी। उन्होंने किन्हीं को प्रत्यक्ष और बहुतों को स्वप्न में दृष्टांत दिये। एक बार वे एक मदिरा-सेवी के स्वप्न में प्रगट होकर उसकी छाती पर चढ़ गये और जब उसने मध्य पान त्यागने की शपथ खाई, तभी उसे छोड़ा। किसी-किसी को मंत्र जैसे गुरुब्रर्हा आदि का अर्थ स्वप्न में समझाया तथा कुछ हठयोगियों को हठयोग छोड़ने की राय देकर चुपचाप बैठ धैर्य रखने को कहा। उनके सुगम पथ और विधि का वर्णन ही असम्भव है। साधारण सांसारिक व्यवहारों में उन्होंने अपने आचरण द्धारा ऐसे अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किये, जिनमें से एक यहाँ नीचे दिया जाता है।

परिश्रम के लिये मजदूरी



एक दिन बाबा ने राधाकृष्णमाई के घर के समीप आकर एक सीढ़ी लाने को कहा। तब एक भक्त सीढ़ी ले आया और उनके बतलाये अनुसार वामन गोंदकर के घर पर उसे लगाया। वे उनके घर पर चढ़ गये और राधाकृष्णमाई के छप्पर पर से होकर दूसरे छोर से नीचे उतर आये। इसका अर्थ किसी की समझ में न आया। राधाकृष्णमाई इस समय ज्वर से काँप रही थी। इसलिये हो सकता है कि उनका ज्वर दूर करने के लिये ही उन्होंने ऐसा कार्य किया हो। नीचे उतरने के पश्चात् शीघ्र ही उन्होंने सीढ़ी लाने वाले को दो रु. पारिश्रमिक स्वरुप दिये। तब एक ने साहस कर उनसे पूछा कि इतने अधिक पैसे देना क्या अर्थ रखता है। उन्होंने कहा कि किसी से बिना परिश्रम का मूल्य चुकाये कार्य न कराना चाहिये और कार्य करनेवाले को उसके श्रम का शीघ्र निपटारा कर उदार हृदय से मजदूरी देनी चाहिये। यदि बाबा के इस नियम का पालन किया जाये अर्थात् मजदूरी का भुगतान शीघ्र और मजदूरों के लिये सन्तोषप्रद हो तो वे अधिक उत्तम कार्य करेंगे, लगन से कार्य करेंगें। फिर कार्य छोड़ने एवं हड़तालों की कोई समस्या ही नहीं रह जायेगी और न ही मालिक और मजदूरों में वैमनस्य पैदा होगा।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 16/17 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-16/17

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 16/17

 शीघ्र ब्रहृज्ञान की प्राप्ति

इन दो अध्यायों में एक धनाढ्य ने किस प्रकार साईबाबा से शीघ्र ब्रहृज्ञान प्राप्त करना चाहा था, उसका वर्णन हैं।
*****
गत अध्याय में श्री. चोलकर का अल्प संकल्प किस प्रकार पूर्णतः फलीभूत हुआ, इसका वर्णन किया गया हैं। उस कथा में श्री साईबाबा ने दर्शाया था कि प्रेम तथा भक्तिपूर्वक अर्पित की हुई तुच्छ वस्तु भी वे सहर्श स्वीकार कर लेते थे, परन्तु यदि वह अहंकारसहित भेंट की गई तो वह अस्वीकृत कर दी जाती थी। पूर्ण सच्चिदानन्द होने के कारण वे बाहृ आचार-विचारों को विशेष महत्त्व न देते थे और विनम्रता और आदरसहित भेंट की गई वस्तु का स्वागत करते थे।


यथार्थ में देखा जाय तो सद्तगुरु साईबाबा से अधिक दयालु और हितैषी दूसरा इस संसार में कौन हो सकता है। उनकी तुला (समानता) समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली चिन्तामणि या कामधेनु से भी नहीं हो सकती। जिस अमूल्य निधि की उपलब्धि हमें सदगुरु से होती है, वह कल्पना से भी परे है।

ब्रहृज्ञान-प्राप्ति की इच्छा से आये हुए एक धनाढ्य व्यक्ति को श्री साईबाबा ने किस प्रकार उपदेश किया, उसे अब श्रवण करें।

एक धनी व्यक्ति (दुर्भाग्य से मूल ग्रंथ में उसका नाम और परिचय नहीं दिया गया है) अपने जीवन में सब प्रकार से संपन्न था। उसके पास अतुल सम्पत्ति, घोडे, भूमि और अनेक दास और दासियाँ थी। जब बाबा की कीर्ति उसके कानों तक पहुँची तो उसने अपने एक मित्र से कहा कि मेरे लिए अब किसी वस्तु की अभिलाषा शेष नहीं रह गई है, इसलिये अब शिरडी जाकर बाबा से ब्रहृज्ञान-प्राप्त करना चाहिये और यदि किसी प्रकार उसकी प्राप्ति हो गई तो फिर मुझसे अधिक सुखी और कौन हो सकता है। उनके मित्र ने उन्हें समझाया कि ब्रहृज्ञान की प्राप्ति सहज नहीं है, विशेषकर तुम जैसे मोहग्रस्त को, जो सदैव स्त्री, सन्तान और द्रव्योपार्जन में ही फँसा रहता है। तुम्हारी ब्रहृज्ञान की आकांक्षा की पूर्ति कौन करेगा, जो भूलकर भी कभी एक फूटी कौड़ी का भी दान नहीं देता।

अपने मित्र के परामर्श की उपेक्षा कर वे आने-जाने के लिये एक ताँगा लेकर शिरडी आये और सीधे मसजिद पहुँचे। साईबाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिरे और प्रार्थना की कि आप यहाँ आनेवाले समस्त लोगों को अल्प समय में ही ब्रहृ-दर्शन करा देते है, केवल यही सुनकर मैं बहुत दूर से इतना मार्ग चलकर आया हूँ। मैं इस यात्रा से अधिक थक गया हूँ। यदि कहीं मुझे ब्रहृज्ञान की प्राप्ति हो जाय तो मैं यह कष्ट उठाना अधिक सफल और सार्थक समझूँगा।

बाबा बोले, मेरे प्रिय मित्र! इतने अधीर न होओ। मैं तुम्हें शीघ्र ही ब्रहृ का दर्शन करा दूँगा। मेरे सब व्यवहार तो नगद ही है और मैं उधार कभी नहीं करता। इसी कारण अनेक लोग धन, स्वास्थ्य, शक्ति, मान, पद आरोग्य तथा अन्य पदार्थों की इच्छापूर्ति के हेतु मेरे समीप आते है। ऐसा तो कोई बिरला ही आता है, जो ब्रहृज्ञान का पिपासु हो। भौतिक पदार्थों की अभिलाषा से यहाँ अने वाले लोगो का कोई अभाव नही, परन्तु आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का आगमन बहुत ही दुर्लभ हैं। मैं सोचता हूँ कि यह क्षण मेरे लिये बहुत ही धन्य तथा शुभ है, जब आप सरीखे महानुभाव यहाँ पधारकर मुझे ब्रहृज्ञान देने के लिये जोर दे रहे है। मैं सहर्ष आपको ब्रहृ-दर्शन करा दूँगा।


यह कहकर बाबा ने उन्हें ब्रहृ-दर्शन कराने के हेतु अपने पास बिठा लिया और इधर-उधर की चर्चाओं में लगा दिया, जिससे कुछ समय के लिये वे अपना प्रश्न भूल गये। उन्होंने एक बालक को बुलाकर नंदू मारवाड़ी के यहाँ से पाँच रुपये उधार लाने को भेजा। लड़के ने वापस आकर बतलाया कि नन्दू का तो कोई पता नहीं है और उसके घर पर ताला पड़ा है। फिर बाबा ने उसे दूसरे व्यापारी के यहाँ भेजा। इस बार भी लड़का रुपये लाने में असफल ही रहा। इस प्रयोग को दो-तीन बार दुहराने पर भी उसका परिणाम पूर्ववत् ही निकला।

हमें ज्ञात ही है कि बाबा स्वंय सगुण ब्रहृ के अवतार थे। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि इस पाँच रुपये सरीखी तुच्छ राशि की यथार्थ में उन्हें आवश्यकता ही क्या थी और उस श्रण को प्राप्त करने के लिये इतना कठिन परिश्रम क्यों किया गया। उन्हें तो इसकी बिल्कुल आवश्यकता ही न थी। वे तो पूर्ण रीति से जानते होंगे कि नन्दूजी घर पर नहीं है। यह नाटक तो उन्होंने केवल अन्वेषक के परीक्षार्थ ही रचा था। ब्रहाजिज्ञासु महाशय जी के पास नोटों की अनेक गड्डियाँ थी और यदि वे सचमुच ही ब्रहृज्ञान के आकांक्षी होते तो इतने समय तक शान्त न बैठते। जब बाबा व्यग्रतापूर्वक पाँच रुपये उधार लाने के लिये बालक को यहाँ-वहाँ दौड़ा रहे थे तो वे दर्शक बने ही न बैठे रहते। वे जानते थे कि बाबा अपने वचन पूर्ण कर श्रण अवश्य चुकायेंगे। यद्यपि बाबा द्वारा इच्छित राशि बहुत ही अल्प थी, फिर भी वह स्वयं संकल्प करने में असमर्थ ही रहा और पाँच रुपया उधार देने तक का साहस न कर सका। पाठक थोड़ा विचार करें कि ऐसा व्यक्ति बाबा से ब्रहृज्ञान, जो विश्व की अति श्रेष्ठ वस्तु है, उसकी प्राप्ति के लिये आया हैं। यदि बाबा से सचमुच प्रेम करने वाला अन्य कोई व्यक्ति होता तो वह केवल दर्शक न बनकर तुरन्त ही पाँच रुपये दे देता। परन्तु इन महाशय की दशा तो बिल्कुल ही विपरीत थी। उन्होंने न रुपये दिये और न शान्त ही बैठे, वरन वापस जल्द लौटने की तैयारी करने लगे और अधीर होकर बाबा से बोले कि अरे बाबा! कृपया मुझे शीघ्र ब्रहृज्ञान दो। बाबा ने उत्तर दिया कि मेरे प्यारे मित्र! क्या इस नाटक से तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया। मैं तुमहें ब्रहृ-दर्शन कराने का ही तो प्रयत्न कर रहा था।


संक्षेप में तात्पर्य यह हो कि ब्रहृ का दर्शन करने के लिये पाँच वस्तुओं का त्याग करना पड़ता हैं -
पाँच प्राण
पाँच इन्द्रयाँ
मन
बुद्धि तथा
अहंकार।

यह हुआ ब्रहृज्ञान। आत्मानुभूति का मार्ग भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार तलवार की धार पर चलना। श्री साईबाबा ने फिर इस विषय पर विस्तृत वत्तव्य दिया, जिसका सारांश यह है –

ब्रहृज्ञान या आत्मानुभूति की योग्यताएँ



सामान्य मनुष्यों को प्रायः अपने जीवन-काल में ब्रहृ के दर्णन नहीं होते। उसकी प्राप्ति के लिये कुछ योग्यताओं का भी होना नितान्त आवश्यक है।

1. मुमुक्षुत्व (मुक्ति की तीव्र उत्कण्ठा)

जो सोचता है कि मैं बन्धन में हूँ और इस बन्धन से मुक्त होना चाहे तो इस ध्येय की प्राप्ति के लिये उत्सुकता और दृढ़ संकल्प से प्रयत्न करता रहे तथा प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने को तैयार रहे, वही इस आध्यात्मिक मार्ग पर चलने योग्य है।

2. विरक्ति

लोक-परलोक के समस्त पदार्थों से उदासीनता का भाव । ऐहिक वस्तुएँ, लाभ और प्रतिष्ठा, जो कि कर्मजन्य हैं – जब तक इनसे उदासीनता उत्पन्न न होगी, तब तक उसे आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करने का अधिकार नहीं ।

3. अन्तमुर्खता

ईश्वर ने हमारी इन्द्रयों की रचना ऐसी की है कि उनकी स्वाभाविक वृत्ति सदैव बाहर की और आकृष्ट करती है। हमें सदैव बाहर का ही ध्यान रहता है, न कि अन्तर का जो आत्मदर्शन और दैविक जीवन के इच्छुक है, उन्हें अपनी दृष्टि अंतमुर्खी बनाकर अपने आप में ही होना चाहिये।

4. पाप से शुद्धि

जब तक मनुष्य दुष्टता त्याग कर दुष्कर्म करना नहीं छोड़ता, तब तक न तो उसे पूर्ण शान्ति ही मिलती है और न मन ही स्थिर होता है । वह मात्र बुद्घि बल द्घारा ज्ञान-लाभ कदारि नहीं कर सकता।

5. उचित आचरण

जब तक मनुष्य सत्यवादी, त्यागी और अन्तर्मुखी बनकर ब्रहृचर्य ब्रत का पालन करते हुये जीवन व्यतीत नहीं करता, तब तक उसे आत्मोपलब्धि संभव नहीं।

6. सारवस्तु ग्रहण करना

दो प्रकार की वस्तुएँ है – नित्य और अनित्य। पहली आध्यात्मिक विषयों से संबंधित है तथा दूसरी सांसारिक विषयों से। मनुष्यों को इन दोनो का सामना करना पड़ता है। उसे विवेक द्घारा किसी एक का चुनाव करना पड़ता है। विद्घान् पुरुष अनित्य से नित्य को श्रेयस्कर मानते है, परन्तु जो मूढ़मति है, वे आसक्तियों के वशीभूत होकर अनित्य को ही श्रेष्ठ जानकर उस पर आचरण करते है।

7. मन और इन्द्रयों का निग्रह

शरीर एक रथ हैं। आत्मा उसका स्वामी तथा बुद्धिरथी हैं। मन लगाम है और इन्द्रयाँ उसके घोड़े। इन्द्रिय-नियंत्रण ही उसका पथ है। जो अल्प बुद्धि है और जिनके मन चंचल है तथा जिनकी इन्द्रयाँ सारथी के दुष्ट घोड़ों के समान है, वे अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुँचते तथा जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमते रहते है। परंतु जो विवेकशील है, जिन्होंने अपने मन पर नियंत्रण में है, वे ही गन्तव्य स्थान पर पहुँच पाते है, अर्थात् उन्हें परम पद की प्राप्ति हो जाती है और उनका पुनर्जन्म नहीं होता। जो व्यक्ति अपनी बुद्धि द्धारा मन को वश में कर लेता है, वह अन्त में अपना लक्ष्य प्राप्त कर, उस सर्वशक्तिमान् भगवान विष्णु के लोक में पहुँच जाता है।

8.मन की पवित्रता

जब तक मनुष्य निष्काम कर्म नहीं करता, तब तक उसे चित्त की शुद्धि एवं आत्म-दर्शन संभव नहीं है। विशुदृ मन में ही विवेक और वैराग्य उत्पन्न होते है, जिससे आत्म-दर्शन के पथ में प्रगति हो जाती है। अहंकारशून्य हुए बिना तृष्णा से छुटकारा पाना संभव नहीं है। विषय-वासना आत्मानुभूति के मार्ग में विशेष बाधक है। यह धारणा कि मैं शरीर हूँ, एक भ्रम है। यदि तुम्हें अपने जीवन के ध्येय (आत्मसाक्षात्कार) को प्राप्त करने की अभिलाषा है तो इस धारणा तथा आसक्ति का सर्वथा त्याग कर दो।

9. गुरु की आवश्यकता

आत्मज्ञान इतना गूढ़ और रहस्यमय है कि मात्र स्वप्रयत्न से उसकी प्राप्ति संभव नहीं। इस कारण आत्मानुभूति प्राप्त गुरु की सहायता परम आवश्यक है। अत्यन्त कठिन परिश्रम और कष्टों के उपरान्त भी दूसरे क्या दे सकते है, जो ऐसे गुरु की कृपा से सहज में ही प्राप्त हो सकता है । जिसने स्वयं उस मार्ग का अनुसरण कर अनुभव कर लिया हो, वही अपने शिष्य को भी सरलतापूर्वक पग-पग पर आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है।

10. अन्त में ईश-कृपा परमावश्यक है ।

जब भगवान किसी पर कृपा करते है तो वे उसे विवेक और वैराग्य देकर इस भवसागर से पार कर देते है। यह आत्मानुभूति न तो नाना प्रकार की विधाओं और बुद्धि द्धारा हो सकती है और न शुष्क वेदाध्ययन द्धारा ही। इसके लिए जिस किसी को यह आत्मा वरण करती है, उसी को प्राप्त होती है तथा उसी के सम्मुख वह अपना स्वरुप प्रकट करती है – कठोपनिषद में ऐसा ही वर्णन किया गया है।

बाबा का उपदेश



जब यह उपदेश समाप्त हो गया तो बाबा उन महाशय से बोले कि अच्छा, महाशय। आपकी जेब में पाँच रुपये के पचास गुने रुपयों के रुप में ब्रहृ है, उसे कृपया बाहर निकालिये। उसने नोटों की गड्डी बाहर निकाली और गिनने पर सबको अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि वे दस-दस के पच्चीस नोट थे। बाबा की यह सर्वज्ञता देखकर वे महाशय द्रवित हो गये और बाबा के चरणों पर गिरकर आशर्वाद की प्रार्थना करने लगे। तब बाबा बोले कि अपना ब्रहा का (नोटों का) यह बण्डल लपेट लो। जब तक तुम्हारा लोभ और ईष्र्या से पूर्ण छुटकारा नही हो जाता, तबतक तुम ब्रहृ के सत्यस्वरुप को नहीं जान सकते। जिसका मन धन, सन्तान और ऐश्वर्य में लगा है, वह इन सब आसक्तियों को त्यागे बिना कैसे ब्रहृ को जानने की आशा कर सकता है। आसक्ति का भ्रम और धन की तृष्णा दुःख का एक भँवर (विवर्त) है, जिसमेंअहंकारा और ईष्र्या रुपी मगरों को वास है। जो निरिच्छ होगा, केवल वही यह भवसागर पार कर सकता है। तृष्णा और ब्रहृ के पारस्परिक संबंध इसी प्रकार के है। अतः वे परस्पर कट्टर शत्रु है।

तुलसीदास जी कहते है –

जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम। तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम।।

जहाँ लोभ है, वहाँ ब्रहृ के चिन्तन या ध्यान की गुंजाइश ही नहीं है। फिर लोभी पुरुष को विरक्ति और मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है। लालची पुरुष को न तो शान्ति है और न सन्तोष ही, और न वह दृढ़ निश्चयी ही होता है। यदि कण मात्र भी लोभ मन में शेष रह जाये तो समझना चाहिये कि सब साधनाएँ व्यर्थ हो गयी। एक उत्तम साधक यदि फलप्राप्ति की इच्छा या अपने कर्तव्यों का प्रतिफल पाने की भावना से मुक्त नहीं है और यदि उनके प्रति उसमें अरुचि उत्पन्न न हो तो सब कुछ व्यर्थ ही हुआ। वह आत्मानुभूति प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकता। जो अहंकारी तथा सदैव विषय-चिंतन में रत है, उन पर गुरु के उपदेशों तथा शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अतः मन की पवित्रता अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना आध्यात्मिक साधनाओं का कोई महत्व नहीं तथा वह निरादम्भ ही है। इसीलिये श्रेयस्कर यही है कि जिसे जो मार्ग बुद्धिगम्य हो, वह उसे ही अपनाये। मेरा खजाना पूर्ण है और मैं प्रत्येक की इच्छानुसार उसकी पूर्ति कर सकता हूँ, परन्तु मुझे पात्र की योग्यता-अयोग्यता का भी ध्यान रखना पड़ता है। जो कुछ मैं कह रहा हूँ, यदि तुम उसे एकाग्र होकर सुनोगे तो तुम्हें निश्चय ही लाभ होगा। इस मसजिद में बैठकर मैं कभी असत्य भाषण नहीं करता। जब घर में किसी अतिथि को निमंत्रण दिया जाता है तो उसके साथ परिवार, अन्य मित्र और सम्बन्धी आदि भी भोजन करने के लिये आमंत्रित किये जाते है। बाबा द्धारा धनी महाशय को दिये गये इस ज्ञान-भोज में मसजिद में उपस्थित सभी जन सम्मलित थे। बाबा का आशीर्वाद प्राप्त कर सभी लोग उन धनी महाशय के साथ हर्ष और संतोषपूर्वक अपने-अपने घरों को लौट गये।

बाबा का वैशिष्टय



ऐसे सन्त अनेक है, जो घर त्याग कर जंगल की गुफाओं या झोपड़ियों में एकान्त वास करते हुए अपनी मुक्ति या मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न करते रहते है। वे दूसरों की किंचित मात्र भी अपेक्षा न कर सदा ध्यानस्थ रहते है। श्री साईबाबा इस प्रकृति के न थे। यद्यपि उनके कोई घर द्घार, स्त्री और सन्तान, समीपी या दूर के संबंधी न थे, फिर भी वे संसार में ही रहते थे। वे केवल चार-पाँच घरों से भिक्षा लेकर सदा नीमवृक्ष के नीचे निवास करते तथा समस्त सांसारिक व्यवहार करते रहते थे। इस विश्व में रहकर किस प्रकार आचरण करना चाहिये, इसकी भी वे शिक्षा देते थे। ऐसे साधु या सन्त प्रायः बिरले ही होते है, जो स्वयं भगवत्प्राप्ति के पश्चात् लोगों के कल्याणार्थ प्रयत्न करें। श्री साईबाबा इन सब में अग्रणी थे, इसलिये हेमाडपंत कहते है -

वह देश धन्य है, वह कुटुम्ब धन्य है तथा वे माता-पिता धन्य है, जहाँ साईबाबा के रुप में यह असाधारण परम श्रेष्ठ, अनमोल विशुदृ रत्न उत्पन्न हुआ।

।।श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु।।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-15 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-15

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-15

नारदीय कीर्तन पदृति, 
श्री. चोलकर की शक्कररहित चाय, 
दो छिपकलियाँ।

पाठकों को स्मरण होगा कि छठें अध्याय के अनुसार शिरडी में राम नवमी उत्सव मनाया जाता था। यह कैसे प्रारम्भ हुआ और पहले वर्ष ही इस अवसर पर कीर्तन करने के लिये एक अच्छे हरिदास के मिलने में क्या-क्या कठिनाइयाँ हुई, इसका भी वर्णन वहाँ किया गया है। इस अध्याय में दासगणू की कीर्तन पदृति का वर्णन होगा।

नारदीय कीर्तन पदृति



बहुधा हरिदास कीर्तन करते समय एक लम्बा अंगरखा और पूरी पोशाक पहनते है। वे सिर पर फेंटा या साफा बाँधते है और एक लम्बा कोट तथा भीतर कमीज, कन्धे पर गमछा और सदैव की भाँति एक लम्बी धोती पहनते है। एक बार गाँव में कीर्तन के लिये जाते हुए दासगणू भी उपयुक्त रीति से सज-धज कर बाबा को प्रणाम करने पहुँचे। बाबा उन्हें देखते ही कहने लगे, अच्छा। दूल्हा राजा। इस प्रकार बनकर कहाँ जा रहे हो। उत्तर मिला कि कीर्तन के लिये। बाबा ने पूछा कि कोट, गमछा और फेंटे इन सब की आवश्यकता ही क्या है। इनकों अभी मेरे सामने ही उतारो। इस शरीर पर इन्हें धारण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। दासगणू ने तुरन्त ही वस्त्र उतार कर बाबा के श्री चरणों पर रख दिये। फिर कीर्तन करते समय दासगणू ने इन वस्त्रों को कभी नहीं पहना। वे सदैव कमर से ऊपर अंग खुले रखकर हाथ में करताल और गले में हार पहन कर ही कीर्तन किया करते थे। यह पदृति यद्यपि हरिदासों द्धारा अपनाई गई पदृति के अनुरुप नहीं है, परन्तु फिर भी शुदृ तथा पवित्र हैं। कीर्तन पदृति के जन्मदाता नारद मुनि कटि से ऊपर सिर तक कोई वस्त्र धारण नहीं करते थे। वे एक हाथ में वीणा ही लेकर हरि-कीर्तन करते हुए त्रैलोक्य में घूमते थे।

श्री. चोलकर की शक्कररहित चाय



बाबा की कीर्ति पूना और अहमदनगर जिलों में फैल चुकी थी, परन्तु श्री नानासाहेब चाँदोरकर के व्यक्तिगत वार्ताँलाप तथा दासगणू के मधुर कीर्तन द्धारा बाबा की कीर्ति कोकण (बम्बई प्रांत) में भी फैल गई। इसका श्रेय केवल श्री दासगणू को ही है। भगवान् उन्हें सदैव सुखी रखे। उन्होंने अपने सुन्दर प्राकृतिक कीर्तन से बाबा को घर-घर पहुँचा दिया। श्रोताओं की रुचि प्रायः भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। किसी को हरिदासों की विदृता, किसी को भाव, किसी को गायन, तो किसी को चुटकुले तथा किसी को वेदान्त-विवेचन और किसी को उनकी मुख्य कथा रुचिकर प्रतीत होती है। परन्तु ऐसे बिरले ही है, जिनके हृदय में संत-कथा या कीर्तन सुनकर श्रद्धा और प्रेम उमड़ता हो। श्री दासगणू का कीर्तन श्रोताओं के हृदय पर स्थायी प्रभाव डालता था। एक ऐसी घटना नीचे दी जाती है।

एक समय ठाणे के श्रीकौपीनेश्वर मन्दिर में श्री दासगणू कीर्तन और श्री साईबाबा का गुणगान कर रहे थे। श्रोताओं मे एक चोलकर नामक व्यक्ति, जो ठाणे के दीवानी न्यायालय में एक अस्थायी कर्मचारी था, भी वहाँ उपस्थित था। दासगणू का कीर्तन सुनकर वह बहुत प्रभावित हुआ और मन ही मन बाबा को नमन कर प्रार्थना करने लगा कि हे बाबा! मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ और अपने कुटुम्ब का भरण-पोशण भी भली भाँति करने में असमर्थ हूँ। यदि मै आपकी कृपा से विभागीय परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया तो आपके श्री चरणों में उपस्थित होकर आपके निमित्त मिश्री का प्रसाद बाँटूँगा। भाग्य ने पल्टा खाया और चोलकर परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। उसकी नौकरी भी स्थायी हो गई। अब केवल संकल्प ही शेष रहा। शुभस्य शीघ्रम। श्री. चोलकर निर्धन तो था ही और उसका कुटुम्ब भी बड़ा था। अतः वह शिरडी यात्रा के लिये मार्ग-व्यय जुटाने में असमर्थ हुआ। ठाणे जिले में एक कहावत प्रचलित है कि नाठे घाट व सहाद्रि पर्वत श्रेणियाँ कोई भी सरलतापूर्वक पार कर सकता है, परन्तु गरीब को उंबर घाट (गृह-चक्कर) पार करना बड़ा ही कठिन होता हैं। श्री. चोलकर अपना संकल्प शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने के लिये उत्सुक था। उसने मितव्ययी बनकर, अपना खर्च घटाकर पैसा बचाने का निश्चय किया। इस कारण उसने बिना शक्कर की चाय पीना प्रारम्भ किया और इस तरह कुछ द्रव्य एकत्रित कर वह शिरडी पहुँचा। उसने बाबा का दर्शन कर उनके चरणों पर गिरकर नारियल भेंट किया तथा अपने संकल्पानुसार श्रद्धा से मिश्री वितरित की और बाबा से बोला कि आपके दर्शन से मेरे हृदय को अत्यंत प्रसन्नता हुई है। मेरी समस्त इच्छायें तो आपकी कृपादृष्टि से उसी दिन पूर्ण हो चुकी थी। मसजिद में श्री. चोलकर का आतिथ्य करने वाले श्री बापूसाहेब जोग भी वहीं उपस्थित थे। जब वे दोनों वहाँ से जाने लगे तो बाबा जोग से इस प्रकार कहने लगे कि अपने अतिथि को चाय के प्याले अच्छी तरह शक्कर मिलाकर देना। इन अर्थपूर्ण शब्दों को सुनकर श्री. चोलकर का हृदय भर आया और उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके नेत्रों से अश्रु-धाराएँ प्रवाहित होने लगी और वे प्रेम से विहृल होकर श्रीचरणों पर गिर पड़े। श्री. जोग को अधिक शक्कर सहित चाय के प्याले अतिथि को दो यह विचित्र आज्ञा सुनकर बड़ा कुतूहल हो रहा था कि यथार्थ में इसका अर्थ क्या है बाबा का उद्देश्य तो श्री. चोलकर के हृदय में केवल भक्ति का बीजारोपण करना ही था । बाबा ने उन्हें संकेत किया था कि वे शक्कर छोड़ने के गुप्त निश्चय से भली भाँति परिचित है।


बाबा का यह कथा था कि यदि तुम श्रद्धापूर्वक मेरे सामने हाथ फैलाओगे तो मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूँगा। यद्यपि मैं शरीर से तो यहाँ हूँ, परन्तु मुझे सात समुद्रों के पार भी घटित होने वाली घटनाओं का ज्ञान है। मैं तुम्हारे हृदय में विराजीत, तुम्हारे अन्तरस्थ ही हूँ। जिसका तुम्हारे तथा समस्त प्राणियों के हृदय में वास है, उसकी ही पूजा करो। धन्य और सौभाग्यशाली वही है, जो मेरे सर्वव्यापी स्वरुप से परिचित हैं। बाबा ने श्री. चोलकर को कितनी सुन्दर तथा महत्वपूर्ण शिक्षा प्रदान की।

दो छिपकलियों का मिलन

अब हम दो छोटी छिपकलियों की कथा के साथ ही यह अध्याय समाप्त करेंगे। एक बार बाबा मसजिद में बैठे थे कि उसी समय एक छिपकली चिकचिक करने लगी। कौतूहलवश एक भक्त ने बाबा से पूछा कि छिपकली के चिकचिकाने का क्या कोई विशेष अर्थ है। यह शुभ है या अशुभ। बाबा ने कहा कि इस छिपकली की बहन आज औरंगाबाद से यहाँ आने वाली है। इसलिये यह प्रसन्नता से फूली नहीं समा रही है। वह भक्त बाबा के शब्दों का अर्थ न समझ सका। इसलिये वह चुपचाप वहीं बैठा रहा।

इसी समय औरंगाबाद से एक आदमी घोडे पर बाबा के दर्शनार्थ आया। वह तो आगे जाना चाहता था, परन्तु घोड़ा अधिक भूखा होने के कारण बढ़ता ही न था। तब उसने चना लाने को एक थैली निकाली और धूल झटकारने के लिये उसे भूमि पर फटकारा तो उसमें से एक छिपकली निकली और सब के देखते-देखते ही वह दीवार पर चढ़ गई। बाबा ने प्रश्न करने वाले भक्त से ध्यानपूर्वक देखने को कहा। छिपकली तुरन्त ही गर्व से अपनी बहन के पास पहुँच गई थी। दोनों बहनें बहुत देर तक एक दूसरे से मिलीं और परस्पर चुंबन व आलिंगन कर चारों ओर घूमघूम कर प्रेमपूर्वक नाचने लगी। कहाँ शिरडी और कहाँ औरंगाबाद। किस प्रकार एक आदमी घोड़े पर सवार होकर, थैली में छिपकली को लिये हुए वहाँ पहुँचता है और बाबा को उन दो बहिनों की भेंट का पता कैसे चल जाता है - यह सब घटना बहुत आश्चर्यजनक है और बाबा की सर्वव्यापकता की द्योतक है।

शिक्षा

जो कोई इस अध्याय का ध्यानपूर्वक पठन और मनन करेगा, साईकृपा से उसके समस्त कष्ट दूर हो जायेंगे और वह पूर्ण सुखी बनकर शांति को प्राप्त होगा।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

कबीर की दार्शनिक विचारधारा के बारे में एक लेख प्रस्तुत कीजिए | kabirdas | kabir

कबीर की दार्शनिक विचारधारा के बारे में एक लेख प्रस्तुत कीजिए।

(अथवा)

कबीर के दर्शन सम्बन्धी विचार क्या थे, विवेचन कीजिए।

रुपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. ब्रह्म सम्बन्धी विचार

योग मर्यादा

3. जीव सम्बन्धी विचारधारा

4. जगत सम्मबन्धी विचारधारा

5. रहस्यवाद

6. जीवन की अस्थिरता

7. सामाजिक दर्शन

8. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

भारतीय साहित्य में दर्शन भी साथ-साथ चलता रहता है। किसी भी साहित्यिक विशेष को सावधानी के साथ अवलोकन (परखना, देखना) करना दर्शन कहलाता है। दर्शन और साहित्य परस्पर पूरक हैं। कबीरदास वस्तुतः भक्त थे। संतों के साथ उनका सम्पर्क था। इसलिए उनकी विचारधारा में परमात्मा, प्रकृति, जीव, माया आदि पर चर्चा हुई हैं।

ब्रह्म, जीव, तथा दगत सम्बन्धी विषयों पर चर्चा करना ही 'दर्शन' कहलाता हैं।

तत् + त्वं - तत्त्वं

वह (परमात्मा) तुम - तुम परमात्मा

कबीर निर्गुण परमात्मा को मानते हैं। यह एक प्रकार से भारतीय 'ब्रह्मवाद' है। कबीर अनपढ़ होने के कारण उन्होंने ब्रह्मवाद का अध्ययन नहीं किया। लेकिन साधु-संतों के संपर्क से जो ब्रह्म सम्बन्धी विचार बने वे भारतीय ब्रह्मवाद के अन्तर्गत आते हैं। अपने परमात्मा को कबीर राम रहीम, अल्लाह, गोविन्द आदि नामों से पुकारते हैं। वे निर्गुणेपासक होने के कारण निर्गुण परमात्मा की उपासना करने की सलाह देते हैं।

2. ब्रह्म सम्बन्धी विचार :

निरगुण राम, निरगुण राम जपहुरे भाई।

हिन्दु तुरक न कोई।।

परमात्मा हर जीव के अन्दर ही रहता है

न मैं मंदिर न मैं मसजिद। न काबे न कैलास में।।

हर जीव की साँस में परमात्मा रहता है। जिसप्रकार कस्तूरी मृग की नाभि में कस्तूरी रहती हैं। उसी प्रकार परमात्मा हर जीव के अन्दर रहता है। भगवान को न पहचान होने के कारण मानव भौतिक संसार में कहीं-कहीं भटकता रहता है।

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।

ऐसे घटि-घटि रॉम है, दुनियाँ देखे नाहिं।।

कबीर ज्ञानाश्ररी शाखा के प्रवर्तक होने के कारण सारे विश्व में परमात्मा के दर्शन करते हैं। वे कहते हैं कि- 'घटि- घटि' राम है। कबीर को कुछ लोग 'साधक' कहते हैं। कुछ लोग 'ज्ञानी' कहते हैं। कुछ लोग 'भक्त' कहते हैं और कुछ लोग 'कवि' कहते हैं। लेकिन वस्तुतः कबीर इन सब का समन्वय रूप हैं। परमात्मा को वे हर जीव में अंतर्लीन मानते हैं।

योग मर्यादा :

कबीर हठयोगी हैं। वे मूलाधार से निकलनेवाली इडा, पिंगला और सुषुम्ना नाडियों की चर्चा करते हैं। मूलाधार से निकलनेवाली चेतना इन नाड़ियों द्वारा सहस्रार तक पहुँचना ही कबीर कैलास, सहस्रार या सहस्रदल कमल कहते हैं। सहस्रार में से निकलनेवाले नाद को. "अनहदनाद" कहा है। मूलाधार से प्राण सहस्रार तक पहुँचना ही अमृतत्त्व सिद्धि कहलाती हैं।

3. जीव सम्बन्धी विचार : -

आत्मा शरीर धारण करने पर 'जीव' कहलाती हैं। जीव अस्वतन्त्र है। सदा परमात्मा की आराधना से जीव मुक्ति प्राप्त-कर लेता है। मोक्ष प्राप्ति केलिए कबीर ज्ञान, भक्ति, योग, ध्यान आदि की आवश्यकता प्रकट करते हैं। परमात्मा को बतानेवाला गुरु है। इसलिए कबीर गुरु को परमात्मा से भी महान मानते है।

गुरू गोविन्द दोख उडे, काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय॥

जीव अस्वतन्त्र है। उसे ज्ञान - मार्ग पर ले आनेवाला गुरु होता है। इसलिए कबीर गुरु की महत्ता अनुपम मानते हैं। सारी धरती को 'कागज' बना कर, सारे वृक्षों को 'लेखिनियाँ' बना कर, और सात समुद्रों का पानी 'स्याही' बना कर लिखने से भी गुरु की महिमा लिखी न जाती। वे कहते है -

गुरु धोबी शिष्य कपडा साबुन सिरजनहार।

सुरति सिला पर धोयिएँ।

4. जगत सम्बन्धी विचार :

कबीर सारे जगत को भ्रमात्मक तथा माया जनित मानते हैं। माया मानव को भगवान से अलग कर या दूर करके विविध सांसारिक बंधनों में या मोहों में डाल देती है। गुरु के ज्ञान से जीव उस माया से बच सकता हैं।

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवै पडंत।

कहे कबीर गुरु ग्यान ते एक आध उबरंत॥

माया को कबीर मोहिणी, पापिणी, डाकिनी आदि नामों से बुलाते हैं।

वे करते है कि -

राम सुमरि राम सुमरि भाई।

भगवान के प्रति आत्म समर्पण करना ही जीव का लक्षण हैं। माया के भ्रम में जीव न पड़ कर भगवान में लगन होना ही "भक्ति" हैं। इसीलिए कबीर अपने को राम के कुत्ते तक मानते हैं।

कबीर कूता राम का, मुतियाँ मेरा नाम।

गले राम की जेवडी, जित खींचे तित जाऊँ॥

5. रहस्यवाद :

प्रकृति में परमात्मा को देखना और परमात्मा की उपासना करना 'रहस्यवाद' है। कबीर बडे रहस्यवादी हैं। कभी साधनात्मक और कभी भावात्मक रहस्यवाद में वे अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। जीव परमात्मा से आता है। शरीर के अन्त हो जाने पर जीव पुनः परमात्मा में जा कर लीन हो जाता है।

जल मैं कुम्भ, कुम्भ में जल हैं, बाहर भीतर पानी।

फूटा कुम्भ जल जलहि समानाँ इहि तथ कयौ ग्यानी॥

जीव परमात्मा के दर्शन केलिए तड़पता रहता हैं। कबीर परमात्मा के दर्शन के लिए व्यथित होनेवाली आत्मा को प्रस्तुत करते है।

आँखडियाँ झाई पडी पंथ निहारि निहारि।

जीभडियाँ छाला पडया राम पुकारि पुकारि॥

ज्ञानी कबीर को परमात्मा की झलक दर्शित होने पर वे भाव विभोर हो कर कहते हैं।

लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल।

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।

यहाँ कबीर का रहस्यवाद अद्वैतवाद से परिपुष्ट हैं। अद्वैतवाद में वैष्णाव शब्दों को समन्वित करना कबीर की साहित्यिक सार्वभौमता है सदा वे परमात्मा को राम शब्द से सम्बोधित करते हैं। इसीलिए हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को "वाणी के डिक्टेटर" कहते हैं।

6. जीवन की अस्थिरता :

कबीर सदा परमात्मा, जीव और जगत के बारे में ही सोचते रहते हैं। समाज में लोग विध्या, धन, प्रभुता (power) कीर्ति आदि पर गर्व करते हैं। लेकिन वे नहीं सोचते कि जीवन क्षणिक हैं। इसलिए गर्व न करें।

कबीर की बाणी कहती हैं।

पानी केरा बुदबुदा अस मनुष की जाति।

देखत ही छिप जायेगा ज्यों तारा परभाति॥

मृत्यु सदा मानवों को चुन चुन कर ले जाती है। प्रतीक योजना के द्वारा कबीर मानव जीवन की क्षण भंगुरता व्यक्त करते है।

माली आवत देखि के कलियाँ करी पुकार।

फूली फूली चुन लिए काल्ह हमारी बार।।

7. सामाजिक दर्शन :

कबीर का समय साहित्यक, धार्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक तथा राजनीतिक दशाओं में संक्रामक था। मिथ्याडम्बरों में पण्डित पल्लवित हो रहे थे। समाज में सच्चाई का नाम नहीं था। इसलिए मिध्याबादी पण्डितों की अवहेलना करते हुए।

पोथी पढ़ि-पढि जग मुआ पंडित भया न कोइ।

ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होइ।।

आदमी को सत्य निष्ठ बनने केलिए उस की गलितियों को पकड़ने वाला साथ रहना चाहिए।

निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाइ।

बिन साबुन पानी बिना निरमल करै सुभाइ।।

वे कहते हैं - हिन्दू, दया की चर्चा करते हैं और मुसलमान, मेहर की चर्चा करते हैं। लेकिन व्यवहार में आ कर हिन्दुओं में न दया हैं और मुसलमानों में न मेहर हैं। इसप्रकार समाज में होनेवाले अनेक तृटियों का वे डट कर खण्डन करते हैं।

8. उपसंहार :

कबीर भक्त हैं, ज्ञानी हैं, साधु हैं, पति, पिता, कर्मठ (काम करनेवाला) और सब से बढ़ कर बडे दार्शनिक हैं। हर विषय में उनकी दार्शनिक विचारधारा अन्तर्लीन रहती है। ये योगी होने के कारण योग साधना के साथ-साथ राम और जगत पर प्रेम भावना रखते हैं। सब से बढ़ कर दार्शनिक लालच नहीं होता। लालच माया जनित है। इसलिए वे भगवान से कहते हैं।

साई इतना दीजिए जा में कुटुंब समाय।

मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय।।

ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास की विचारधारा का अवलोकन कीजिए | KABIRDAS | kabir

ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास की विचारधारा का अवलोकन कीजिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. निर्गुण ब्रह्म ती उपासना

3. अवतारवाद का खण्डन

4. गुरु का महत्व

5. जाति - पांत का खण्डन

6. बाह्याडंबरों का खण्डन

7. रहस्यवाद

8. नाम स्मरण

9. अनुभूति की तीव्रता

10. समाज सुधार

11. दार्शनिक विचारधारा

12. भाषा - शैली

13. उपसंहार

प्रस्तावना :

हिन्दी साहित्य क्षेत्र के निर्गुण भक्ति शाखा के प्रधान कवि कबीर माने जाते हैं। वे ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक हैं। वे एकेश्वरवादी हैं और उनका एकेश्वरवाद मुसलमानों के एकेश्वरवाद से भिन्न है। वह अलख तथा अगोचर है। कबीर भक्त, ज्ञानी समाज सुधारक, रहस्यवादी, साधक, जाति-पाँत का खण्डन करने वाला, विचारक, मूर्ति पूजा का खण्डन करने वाला आदि के रूप में हमारे सामने आते हैं। ध्यान से देखने पर कबीर में वैष्णवों की भक्ति, जैनों का अहिंसावाद और बौद्धों का बुद्धिवाद दिखाई देते हैं। कबीर बाह्याडंबरों का खण्डन करके उपनिषदों का अद्वैतवाद प्रतिपादित करते हैं। वे अनपढ़ थे। लेकिन साधु-संतों की संगति गुरु रामानन्द की कृपा, सतत प्राकृतिक-सामाजिक निरीक्षण, दार्शनिक चिन्तन, आडंबर रहति जीवन, राम भक्ति में तल्लीन होना आदि के कारण उनकी वाणी कविता की लहरों में पल्लवित होती है। यह एक बडी चर्चा का विषय है कि - कबीर कवि थे या भक्त थे या दर्शनिक थे। लेकिन हमारे विचार में कबीर इन तीनों का समन्वय रूप है। इन को अलग अलग दृष्टियों से देखना कठिन है।

कबीर समाज में विविध विषयों का अनुशीलन करते जाते थे। उनके शिष्य भी विविध प्रकार के प्रश्न करते थे। समय समय पर विचारधारा में पल्लवित हुई उनकी वाणी को शिष्यों ने ग्रन्थ का रूप दिया है जो बीजक नाम से विख्यात है। इस के तीन भाग हैं, साखी, सबद तथा रमैनी। वे नीराकार राम के अनन्य भक्त हैं। कबीर उस समय पंजाब से लेकर बंगाल तक सारे हिन्दुस्तान में विचरते थे। साधु-संतों के शब्द उनके साहित्य में प्रचलित होने के कारण उनकी भाषा सधुक्कडी कहलाती है और विवधि भाषाओं का मिश्रम होने के कारण खिचडी कहलाती है। कबीर जो भी भाव या विचार उनके मन में आते थे, निर्भीकता के साथ डटकर समाज के सामने प्रस्तुत करते थे। -

2. निर्गुण बह्म की उपासना :

संत कबीर राम के अनन्य भक्त होने के कारण वे निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते हैं। वे कहते हैं -

"निरगुण राम निरगुण राम जपहु रे भाई।

हिन्दु तुरक न कोई"।।

उनके राम निराकार थे। वे दशारथनन्दन राम को नहीं मनते थे।

"दशरथ सुत का लोक बखाना

राम नाम का मरम है आना”

वे राम के बारे में इस प्रकार कहते हैं -

"न मैं मंदिर न मैं मसजिद न काबे कैलास में"

वे कहते हैं कि निर्गुण राम हर जीव की साँसों में रहते हैं।

3. अवतारवाद का खण्डन:

संत कबीर निर्गुण परब्रह्म के उपासक थे। वे अवतारवाद का डटकर खण्डन करते थे। अवतार के बहाने परमात्मा को जन्म - मरण के बन्धनों में डालना वे नहीं चाहते थे। इसलिए कबीर अवतार वाद का खण्डन करते हैं।

4. गुरु का महत्त्व:

संत कबीर गुरु को भगवान से भी बढ़कर मानते हैं क्यों कि गुरु ज्ञान प्रदाता है। गुरु के द्वारा ही हम भगवान को जान सकते हैं। इसलिए कबीर कहते हैं कि - सारी पृथ्वी को कागज बनौकर, सारे समुद्रों के पानी को स्याही बनाकर और सारे वृक्षों को कलमें बनाकर लिखने पर भी गुरु की महत्ता पूर्णरूप से नहीं लिख पाते।

धरती सब कागद करौं लेखिनि सब बनराइ।

सात समंद की मसि करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ।।

इसलिए वे कहते है -

“गुरु गोविन्द दोऊ खडे काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय'।।"

5. जाति - पांत का खण्डन :

परमात्मा एक ही है। सारे जीव उसी के बनाये हुए पुतले हैं। जाति-पान्त मानव निर्मित हैं। जाति से संसार को कोई लाभ नहीं। लाभ होता है ज्ञान से। इसलिए कबीर कहते हैं -

"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पडा रहने दो म्यान।।"

6. बाहयाडंबरों का खण्डन :

धर्म के नाम पर होनेवाले व्रत, तीर्थ, रोजा, नमाज, मूर्ति पूजा आदि का खण्डन कबीर ने कटु किया है। समाज में लोग दया तथा करुणा के बारे में चर्चा करते हैं। लेकिन सच्चा दयावान कहीं भी दिखाई नहीं देता। बकरी कहीं जंगल में जाकर घास - पत्ते खा लेती है, मानव उसकी खाल निकाल देता है और खा लेता है। फिर, मानव को कौन खाये?

"बकरी पाती खात है ताकि खाई खाल।

जे जन बकरी खात है, तिन को कौन हवाल।।"

कंकड और पत्थर जोडकर मसजित बना देते हैं। मुल्ला उस पर चढ़कर ऐसे तनाव के साथ पुकारता है मानो अल्लाह बहरा हुआ है। इसी प्रकार मंदिर में पत्थर की मूर्ति रखकर पूजा करनेवाले भी कबीर से छूटे नहीं।

"कंकर पत्थर जोरि के मसजिद लई बनाय।

उसपर चढ़ी मुल्ला बांग दे बहिरा हुआ खुदाय।।"

"पाहन पूजे हरि मिले मैं, पूजू पहार।

ताते से यह चाकी भली, पीस खाय संसार।।"

7. रहस्यवाद :

संत कबीर महान साधक थे। वे सदा आत्मानुभूति में विचरते थे। वे हठयोग की साधना करते थे। उनके साहित्य में नाड़ी व्यवस्था की चर्चा होती थी। अपने पदों में और दोहों में वे इस पिंगला और सुशुम्ना की चर्चा करते जाते थे। यह सारा संसार ब्रह्मय है। ब्रह्म से जीव आता है, और फिर ब्रह्म में ही वह तीन हरे जाता है। इसी विषय को दार्शनिक कबीर प्रतीकात्मक विधान में प्रस्तुत करते हैं।

"जल में कुंभ कुंभ में जल है, भीतर बाहर पानी।

फूटा कुंभ जल जलहि समाना यह तथ्य कहियो ग्यानि”।

8. नाम स्मरण :

कबीरदास सदा निराकार राम का स्मरण करते थे। भगवान की भक्ति प्रधान है। भगवान के सामने सब कुछ समर्पित करना है। अभिमान को त्याग कर भगवान का स्मरण करे। विविध पुस्तकें पढ़ने से कोई लाभ नहीं।

"पोथी पदि पदि जग मुआ पंडित भया न कोय।

ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।"

प्रेम की गली इतनी संकरी है, उस में एक ही चल सकता है। जब व्यक्ति अंधकार पूर्ण हता है तब भगनान उस में आ नहीं पाता। अंहकार को त्याग ने पर भगवान उस गली में आ सकता है।

9. अनुभूति की तीव्रता

कबीर सरल हृदयी थे। जो भी विषय वे निष्कलंक तथा कपट रहित होकर पस्तुत करते थे। यह सारा संसार भ्रमात्मक है। नर को माया जनित संसार आकर्षित करता है और वह नर अंत में नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।

"माया दीपक नर पतंग भ्रमि भ्रमि इवै पडंत।

कहै कबीर गुरु म्यान ते एक आध उबरंत।।"

10. समाज सुधार : -

कबर की वाणी में समाज सुधार की चेतना दिखाई देती है। हमारी गलतियों को बताने वाला सब से हमारा हितैषी होता है। बिन साबुन और पानी के बिना वह हमें धोता चलता है।

"निंदक नियरे रखिए आँगन कुटी छवाय।

बिन साबुन पानी बिना निरमल करै सुभाइ।।"

11. दार्शनिक विचार धारा :

कबीर महान दार्शनिक हैं। वस्तुतः उनकी विचारधारा अद्वैतवाद से समन्वित है। उनकी विचारधारा रसात्मक अनुभूति से समन्वित है। अनुभूति की तीव्रता में वे भगवान के मिलन के लिए ललचाते हैं। जीवात्मा परमात्मा के मिलन के लिए तडपना कबीर के साहित्य में हृदयस्थित है। राम से मिलने के लिए वे पुकारते हैं.

"आँखडिया झाई पडी पंथ निहारि – निहारि।

जीभडिया छाला पडिया राम पुकारि – पुकारि।।"

कभी- कभी उस तीव्रानुभूति में परमात्मा की झलक-दीप्ति दर्शित होती है, तो वे आनन्द विभोर होकर कहते हैं

“लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल।

लाली देखन मैं गई मैं भी हो गयी लाल ॥”

रहस्यवाद के तीन स्तर होते हैं ।

1. भावत्मक

2. साधनात्मक और

3. अभिव्यंजनात्मक

कबीरदास का रहस्यवाद भावात्मक तथा साधनात्मक है।

12. भाषा - शैली :

कबीर के काव्य में गेय मुक्तक शैली का प्रयोग हुआ है। गीतिकाव्य के सारे तत्त्व - भावात्मकता, संगीतात्मकता, सूक्ष्मता, वैयक्तिकता और भाषा की कोमलता कबीर की वाणी में मिलते हैं। कबीर का साहित्य अवधी; व्रज, खडीबोली, अर्ध मागधी, फारसी, अरबी, राजस्थानी, पंजाबी आदि भाषाओं के शब्दों का सम्मिश्रण है।

सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, राजनीतिक आदि विषयों पर चलने पर भी कबीर की वाणी आडंबरहीन होकर एक दम सरल होती है।

13. उपसंहार :

कबीर का साहित्य अपना अलग महत्त्व रखता है। सामाजिक पक्ष तथा दार्शनिक पक्ष दोनों पर कबीर का समान अधिकार दिखाई देता है। प्रतीकात्मक योजना में चलने पर भी उनकी वाणी समाज के हृदयों पर अपनी छाप डालती है। भाषा पर उनका जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। इसीलिए साहित्यिक क्षेत्र में कबीर का स्थान अमर बन गया है।

अंत में हम यही कहना चाहते हैं कि कबीर संत पहले हैं और कवि बाद में उनकी वाणी में धार्मिक दृष्टिकोण प्रधान है। और काव्यगत दृटिकोण गौण है।