शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-9 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-9

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-9

विदा होते समय बाबा की आज्ञा का पालन और अवज्ञा करने के परिणामों के कुछ उदाहरण, 
भिक्षा वृत्ति और उसकी आवश्यकता, 
भक्तों (तर्खड कुटुम्ब) के अनुभव



गत अध्याय के अन्त में केवल इतना ही संकेत किया गया था कि लौटते समय जिन्होंने बाबा के आदेशों का पालन किया, वे सकुशल घर लौटे और जिन्होंने अवज्ञा की, उन्हें दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ा। इस अध्याय में यह कथन अन्य कई पुष्टिकारक घटनाओं और अन्य विषयों के साथ विस्तारपूर्वक समझाया जायेगा।

शिरडी यात्रा की विशेषता

शिरडी यात्रा की एक विशेषता यह थी कि बाबा की आज्ञा के बिना कोई भी शिरडी से प्रस्थान नहीं कर सकता था और यदि किसी ने किया भी, तो मानो उसने अनेक कष्टों को निमन्त्रण दे दिया। परन्तु यदि किसी को शिरडी छोड़ने की आज्ञा हुई तो फिर वहाँ उसका ठहरना नहीं हो सकता था। जब भक्तगण लौटने के समय बाबा को प्रणाम करने जाते तो बाबा उन्हें कुछ आदेश दिया करते थे, जिनका पालन अति आवश्यक था। यदि इन आदेशों की अवज्ञा कर कोई लौट गया तो निश्चय ही उसे किसी न किसी दुर्घटना का सामना करना पड़ता था। ऐसे कुछ उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं।

तात्या कोते पाटील

एक समय तात्या कोते पाटील ताँगे में बैठकर कोपरगाँव के बाजार को जा रहे थे। वे शीघ्रता से मसजिद में आये। बाबा को नमन किया और कहा कि मैं कोपरगाँव के बाजार को जा रहा हूँ। बाबा ने कहा, शीघ्रता न करो, थोड़ा ठहरो। बाजार जाने का विचार छोड़ दो और गाँव के बाहर न जाओ। उनकी उतावली को देखकर बाबा ने कहा अच्छा, कम से कम शामा को साथ लेते जाओ। बाबा की आज्ञा की अवहेलना करके उन्होंने तुरन्त ताँगा आगे बढ़ाया। ताँगे के दो घोड़ो में से एक घोड़ा, जिसका मूल्य लगभग तीन सौ रुपया था, अति चंचल और द्रुतगामी था। रास्ते में सावली विहीर ग्राम पार करने के पश्चात ही वह अधिक वेग से दौड़ने लगा। अकस्मात ही उसकी कमी में मोच आ गई। वह वहीं गिर पड़ा। यद्यपि तात्या को अधिक चोट तो न आई, परन्तु उन्हें अपनी साई माँ के आदेशों की स्मृति अवश्य हो आई। एक अन्य अवसर पर कोल्हार ग्राम को जाते हुए भी उन्होंने बाबा के आदेशों की अवज्ञा की थी और ऊपर वर्णित घटना के समान ही दुर्घटना का उन्हें सामना करना पड़ता था।

एक यूरोपियन महाशय



एक समय बम्बई के एक यूरोपियन महाशय, नानासाहेब चांदोरकर से परिचय-पत्र प्राप्त कर किसी विशेष कार्य से शिरडी आये। उन्हें एक आलीशान तम्बू में ठहराया गया। वे तो बाबा के समक्ष नत होकर करकमलों का चुम्बन करना चाहते थे। इसी कारण उन्होंने तीन बार मसजिद की सीढ़ियों पर चढ़ने का प्रयत्न किया, परन्तु बाबा ने उन्हें अपने समीप आने से रोक दिया। उन्हें आँगन में ही ठहरने और वहीं से दर्शन करने की आज्ञा मिली। इस विचित्र स्वागत से अप्रसन्न होकर उन्होंने शीघ्र ही शिरडी से प्रस्थान करने का विचार किया और बिदा लेने के हेतु वे वहाँ आये। बाबा ने उन्हें दूसरे दिन जाने और शीघ्रता न करने की राय दी। अन्य भक्तों ने भी उनसे बाबा के आदेश का पालन करने की प्रार्थना की। परन्तु वे सब की उपेक्षा कर ताँगे में बैठकर रवाना हो गये। कुछ दूर तक तो घोड़े ठीक-ठीक चलते रहे। परन्तु सावली विहीर नामक गाँव पार करने पर एक बाइसिकिल सामने से आई, जिसे देखकर घोड़े भयभीत हो गये और द्रुत गति से दौड़ने लगे। फलस्वरुप ताँगा उलट गया और महाशय जी नीचे लुढ़क गये और कुछ दूर तक ताँगे के साथ-साथ घिसटते चले गये । लोगों ने तुरन्त अस्पताल में शरण लेनी पड़ी। इस घटना से भक्तों ने शिक्षा ग्रहण की कि जो बाबा के आदेशों की अवहेलना करते हैं, उन्हें किसी न किसी प्रकार की दुर्घटना का शिकार होना ही पड़ता है और जो आज्ञा का पालन करते है, वे सकुशल और सुखपूर्वक घर पहुँच जाते हैं।

भिक्षावृत्ति की आवश्यकता



अब हम भिक्षावृत्ति के प्रश्न पर विचार करेंगें। संभव है, कुछ लोगों के मन में सन्देह उत्पन्न हो कि जब बाबा इतने श्रेष्ठ पुरुष थे तो फिर उन्होंने आजीवन भिक्षावृत्ति पर ही क्यों निर्वाह किया।

इस प्रश्न को दो दृष्टिकोण समक्ष रख कर हल किया जा सकता हैं।

पहला दृष्टिकोण – भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करने का कौन अधिकारी है।

शास्त्रानुसार वे व्यक्ति, जिन्होंने तीन मुख्य आसक्तियों – कामिनी, कांचन और कीर्ति का त्याग कर, आसक्ति-मुक्त हो सन्यास ग्रहण कर लिया हो – वे ही भिक्षावृत्ति के उपयुक्त अधिकारी है, क्योंकि वे अपने गृह में भोजन तैयार कराने का प्रबन्ध नहीं कर सकते। अतः उन्हें भोजन कराने का भार गृहस्थों पर ही है। श्री साईबाबा न तो गृहस्थ थे और न वानप्रस्थी। वे तो बालब्रहृमचारी थे। उनकी यह दृढ़ भावना थी कि विश्व ही मेरा गृह है। वे तो स्वया ही भगवान् वासुदेव, विश्वपालनकर्ता तथा परब्रहमा थे। अतः वे भिक्षा-उपार्जन के पूर्ण अधिकारी थे।

दूसरा दृष्टिकोण

पंचसूना – (पाँच पाप और उनका प्रायश्चित) – सब को यह ज्ञात है कि भोजन सामग्री या रसोई बनाने के लिये गृहस्थाश्रमियों को पाँच प्रकार की क्रयाएँ करनी पड़ती है –

कंडणी (पीसना)
पेषणी (दलना)
उदकुंभी (बर्तन मलना)
मार्जनी (माँजना और धोना)
चूली (चूल्हा सुलगाना)

इन क्रियाओं के परिणामस्वरुप अनेक कीटाणुओं और जीवों का नाश होता है और इस प्रकार गृहस्थाश्रमियों को पाप लगता है। इन पापों के प्रायश्चित स्वरुप शास्त्रों ने पाँच प्रकार के याग (यज्ञ) करने की आज्ञा दी है, अर्थात्

ब्रहमयज्ञ अर्थात् वेदाध्ययन - ब्रहम को अर्पण करना या वेद का अध्ययन करना
पितृयज्ञ – पूर्वजों को दान।
देवयज्ञ – देवताओं को बलि।
भूतयज्ञ – प्राणियों को दान।
मनुष्य (अतिथि) यज्ञ – मनुष्यों (अतिथियों) को दान।

यदि ये कर्म विधिपूर्वक शास्त्रानुसार किये जायें तो चित्त शुदृ होकर ज्ञान और आत्मानुभूति की प्राप्ति सुलभ हो जाती हैं। बाबा दृार-दृार जाकर गृहस्थाश्रमियों को इस पवित्र कर्तव्य की स्मृति दिलाते रहते थे और वे लोग अत्यन्त भाग्यशाली थे, जिन्हें घर बैठे ही बाबा से शिक्षा ग्रहण करने का अवसर मिल जाता था।

भक्तों के अनुभव



अब हम अन्य मनोरंजक विषयों का वर्णन करते हैं। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है – जो मुझे भक्तिपूर्वक केवल एक पत्र, फूल, फल या जल भी अर्पण करता है तो मैं उस शुदृ अन्तःकरण वाले भक्त के दृारा अर्पित की गई वस्तु को सहर्ष स्वीकार कर लेता हूँ।

यदि भक्त सचमुच में श्री साईबाबा की कुछ भेंट देना चाहता था और बाद में यदि उसे अर्पण करने की विस्मृति भी हो गई तो बाबा उसे या उसके मित्र दृारा उस भेंट की स्मृति कराते और भेंट देने के लिये कहते तथा भेंट प्राप्त कर उसे आशीष देते थे। नीचे कुछ ऐसी घटनाओं का वर्णन किया जाता हैं ।

तर्खड कुटुम्ब (पिता और पुत्र) श्री रामचन्द्र आत्माराम उपनाम बाबासाहेब तर्खड पहले प्रार्थनासमाजी थे। वे बाबा के परमभक्त थे। उनकी स्त्री और पुत्र तो बाबा के एकनिष्ठ भक्त थे। एक बार उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि पुत्र व उसकी माँ ग्रीष्मकालीन छुट्टियाँ शिरडी में ही व्यतीत करें। परन्तु पुत्र बाँद्रा छोड़ने को सहमत न हुआ। उसे भय था कि बाबा का पूजन घर में विधिपूर्वक न हो सकेगा, क्योंकि पिताजी प्रार्थना-समाजी है और संभव है कि वे श्री साईबाबा के पूजनादि का उचित ध्यान न रख सके। परन्तु पिता के आश्वासन देने पर पूजन यथाविधि ही होता रहेगा, माँ और पुत्र ने एक शुक्रवार की रात्रि में शिरडी को प्रस्थान कर दिया।


दूसरे दिन शनिवार को श्रीमान् तर्खड ब्रहमा मुहूर्त में उठे और स्नानादि कर, पूजन प्रारम्भ करने के पूर्व, बाबा के समक्ष साष्टांग दण्डवत् करके बोले- हे बाबा मैं ठीक वैसा ही आपका पूजन करता रहूँगा, जैसे कि मेरा पुत्र करता रहा है, परन्तु कृपा कर इसे शारीरिक परिश्रम तक ही सीमित न रखना। ऐसा कहकर उन्होंने पूजन आरम्भ किया और मिश्री का नैवेघ अर्पित किया, जो दोपहर के भोजन के समय प्रसाद के रुप में वितरित कर दिया गया।

उस दिन की सन्ध्या तथा अगला दिन इतवार भी निर्विघ्र व्यतीत हो गया। सोमवार को उन्हें ऑफिस जाना था, परन्तु वह दिन भी निर्विघ्र निकल गय। श्री तर्खड ने इस प्रकार अपने जीवन में कभी पूजा न की थी। उनके हृदय में अति सन्तोष हुआ कि पुत्र को दिये गये वचनानुसार पूजा यथाक्रम संतोषपूर्वक चल रही है। अगले दिन मंगलवार को सदैव की भाँति उन्होंने पूजा की और ऑफिस को चले गये। दोपहर को घर लौटने पर जब वे भोजन को बैठे तो थाली में प्रसाद न देखकर उन्होंने अपने रसोइये से इस सम्बन्ध में प्रश्न किया। उसने बतलाया कि आज विस्मृतिवश वे नैवेघ अर्पण करना भूल गये है। यह सुनकर वे तुरन्त अपने आसन से उठे और बाबा को दंडवत् कर क्षमा याचना करने लगे तथा बाबा से उचित पथ-प्रदर्शन न करने तथा पूजन को केवल शारीरिक परिश्रम तक ही सीमित रखने के लिये उलाहना देने लगे। उन्होंने संपूर्ण घटना का विवरण अपने पुत्र को पत्र दृारा सूचित किया और उससे प्रार्थना की कि वह पत्र बाबा के श्री चरणों पर रखकर उनसे कहना कि वे इस अपराध के लिये क्षमाप्रार्थी है। यह घटना बांद्रा में लगभग दोपहर को हुई थी और उसी समय शिरडी में जब दोपहर की घटना बाँद्रा में लगभग दोपहर को हुई थी और उसी समय शिरडी में जब दोपहर की आरती प्रारम्भ होने ही वाली थी कि बाबा ने श्रीमती तर्खड से कहा – माँ, मैं कुछ भोजन पाने के विचार से तुम्हारे घर बाँद्रा गया था, दृार में ताला लगा देखकर भी मैंने किसी प्रकार गृह में प्रवेश किया। परन्तु वहाँ देखा कि भाऊ (श्री. तर्खड) मेरे लिये कुछ भी खाने को नहीं रख गये है। अतः आज मैं भूखा ही लौट आया हूँ। किसी को भी बाबा के वचनों का अभिप्राय समझ में नहीं आया, परन्तु उनका पुत्र जो समीप ही खड़ा था, सब कुछ समझ गया कि बाँद्रा में पूजन में कुछ तो भी त्रुटि हो गई है, इसलिये वह बाबा से लौटने की अनुमति माँगने लगा। परन्तु बाबा ने आज्ञा न दी और वहीं पूजन करने का आदेश दिया। उनके पुत्र ने शिरडी में जो कुछ हुआ, उसे पत्र में लिख कर पिता को भेजा और भविष्य में पूजन में सावधानी बर्तने के लिये विनती की। दोनों पत्र डाक दृारा दूसरे दिन दोनों पश्रों को मिले। क्या यह घटना आश्चर्यपूर्ण नहीं है।

श्रीमती तर्खड



एक समय श्रीमती तर्खड ने तीन वस्तुएँ अर्थात् भरित (भुर्ता यानी मसाला मिश्रित भुना हुआ बैगन और दही) काचर्या (बैगन के गोल टुकड़े घी में तले हुए) और पेड़ा (मिठाई) बाबा के लिये भेजी। बाबा ने उन्हे किस प्रकार स्वीकार किया, इसे अब देखेंगे।

बाँद्रा के श्री रघुवीर भास्कर पुरंदरे बाबा के परम भक्त थे। एक समय वे शिरडी को जा रहे थे। श्रीमती तर्खड ने श्रीमती पुरंदरे को दो बैगन दिये और उनसे प्रार्थना की कि शिरडी पहुँचने पर वे एक बैगन का भुर्ता और दूसरे का काचर्या बनाकर बाबा को भेंट कर दें। शिरडी पहुँचने पर श्रीमती पुरंदरे भुर्ता लेकर मसजिद को गई। बाबा उसी समय भोजन को बैठे ही थे। बाबा को वह भुर्ता बड़ा स्वादिष्ट प्रतीत हुआ, इस कारण उन्होंने थोडा़-थोड़ा सभी को वितरित किया। इसके पश्चात ही बाबा ने काचर्या माँग रहे है। वे बड़े राधाकृष्णमाई के पास सन्देशा भेजा गया कि बाबा काचर्या माँग रहे है। वे बड़े असमंजस में पड़ गई कि अव क्या करना चाहिये। बैंगन की तो अभी ऋतु  नही है। अब समस्या उत्पन्न हुई कि बैगन किस प्रकार उपलब्ध हो। जब इस बात का पता लगाया गया कि भर्ता लाया कौन था। तब ज्ञात हुआ कि बैगन श्रीमती पुरंदरे लाई थी तथा उन्हें ही काचर्या बनाने का कार्य सौंपा गया था। अब प्रत्येक को बाबा की इस पूछताछ का अभिप्राय विदित हो गया और सब को बाबा की सर्वज्ञता पर महान् आश्चर्य हुआ ।

दिसम्बर, सन् 1915 में श्री गोविन्द बालाराम मानकर शिरडी जाकर वहाँ अपने पिता की अन्त्येष्चि-क्रिया करना चाहते थे  प्रस्थान करने से पूर्व वे श्रीमती तर्खड से मिलने आये। श्रीमती तर्खड बाबा के लिये कुछ भेंट शिरडी भेजना चाहती थी। उन्होंने घर छान डाला, परन्तु केवल एक पेड़े के अतिरिक्त कुछ न मिला और वह पेड़ा भी अर्पित नैवेघ का था। बालक गोविन्द ऐसी परिस्थिति देखकर रोने लगा। परन्तु फिर भी अति प्रेम के कारण वही पेड़ा बाबा के लिये भेज दिया। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि बाबा उसे अवश्य स्वीकार कर लेंगे। शिरडी पहुँचने पर गोविन्द मानकर बाबा के दर्शनार्थ गये, परन्तु वहाँ पेड़ा ले जाना भूल गये। बाबा यह सब चुपचाप देखते रहे। परन्तु जब वह पुनः सन्ध्या समय बिना पेड़ा लिये हुए वहाँ पहुँचा तो फिर बाबा शान्त न रह सके और उन्होंने पूछा कि तुम मेरे लिये क्या लाये हो। उत्तर मिला – कुछ नहीं। बाबा ने पुनः प्रश्न किया और उसने वही उपयुर्क्त उत्तर फिर दुहरा दिया। अब बाबा ने स्पष्ट शब्दों में पूछा, क्या तुम्हें माँ (श्रीमती तर्खड) ने चलते समय कुछ मिठाई नहीं दी थी। अब उसे स्मृति हो आई और वह बहुत ही लज्जित हुआ तथा बाबा से क्षमा-याचना करके वह दौड़कर शीघ्र ही वापस गया और पेड़ा लाकर बाबा के सम्मुख रख दिया। बाबा ने तुरन्त ही पेड़ा खा लिया। इस प्रकार श्रीमती तर्खड की भेंट बाबा ने स्वीकार की और भक्त मुझ पर विश्वास करता है इसलिये मैं स्वीकार कर लेता हूँ। यह भगवदृचन सिदृ हुआ।

बाबा का सन्तोषपूर्वक भोजन



एक समय श्रीमती तर्खड शिरडी आई हुई थी। दोपहर का भोजन प्रायः तैयार हो चुका था और थालियाँ परोसी ही जा रही थी कि उसी समय वहाँ एक भूखा कुत्ता आया और भौंकने लगा। श्रीमती तर्खड तुरन्त उठी और उन्होंने रोटी का एक टुकड़ा कुत्ते को डाल दिया। कुत्ता बड़ी रुचि के साथ उसे खा गया। सन्ध्या के समय जब वे मसजिद में जाकर बैठी तो बाबा ने उनसे कहा माँ आज तुमने बड़े प्रेम से मुझे खिलाया, मेरी भूखी आत्मा को बड़ी सान्त्वना मिली है। सदैव ऐसा ही करती रहो, तुम्हें कभी न कभी इसका उत्तम फल अवश्य प्राप्त होगा। इस मसजिद में बैठकर मैं कभी असत्य नहीं बोलूँगा। सदैव मुझ पर ऐसा ही अनुग्रह करती रहो। पहले भूखों को भोजन कराओ, बाद में तुम भोजन किया करो। इसे अच्छी तरह ध्यान में रखो। बाबा के शब्दों का अर्थ उनकी समझ में न आया, इसलिये उन्होंने प्रश्न किया, भला। मैं किस प्रकार भोजन करा सकती हूँ मैं तो स्वयं दूसरों पर निर्भर हूँ और उन्हें दाम देकर भोजन प्राप्त करती हूँ। बाबा कहने लगे, उस रोटी को ग्रहण कर मेरा हृदय तृप्त हो गया है और अभी तक मुझे डकारें आ रही है। भोजन करने से पूर्व तुमने जो कुत्ता देखा था और जिसे तुमने रोटी का टुकडा़ दिया था, वह यथार्थ में मेरा ही स्वरुप था और इसी प्रकार अन्य प्राणी (बिल्लियाँ, सुअर, मक्खियाँ, गाय आदि) भी मेरे ही स्वरुप हैं। मै ही उनके आकारों में ड़ोल रहा हूँ। जो इन सब प्राणियों में मेरा दर्शन करता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। इसलिये दैत या भेदभाव भूल कर तुम मेरी सेवा किया करो।

इस अमृत तुल्य उपदेश को ग्रहण कर वे द्रवित हो गई और उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी, गला रुँध गया और उनके हर्ष का पारावार न रहा।

शिक्षा



समस्त प्राणियों में ईश्वर-दर्शन करो – यही इस अध्याय की शिक्षा है। उपनिषद्, गीता और भागवत का यही उपदेश है कि ईशावास्यमिदं सर्वम् – सब प्राणियों में ही ईश्वर का वास है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव करो।

अध्याय के अन्त में बतलाई घटना तथा अन्य अनेक घटनायें, जिनका लिखना अभी शेष है, स्वयं बाबा ने प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत कर दिखाया कि किस प्रकार उपनिषदों की शिक्षा को आचरण में लाना चाहिये।

इसी प्रकार श्री साईबाबा शास्त्रग्रंथों की शिक्षा दिया करते थे ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-8 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-8

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-8

मानव जन्म का महत्व, 
श्री साईबाबा की भिक्षा-वृत्ति, 
बायजाबई की सेवा-शुश्रूशा, 
श्री साईबाबा का शयनकक्ष, 
खुशालचन्द पर प्रेम।

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जैसा कि गत अध्याय में कहा गया है, अब श्री हेमाडपन्त मानव जन्म की महत्ता को विस्तृत रुप में समझाते हैं। श्री साईबाबा किस प्रकार भिक्षा उपार्जन करते थे, बायजाबाई उनकी किस प्रकार सेवा-शुश्रूशा करती थी, वे मसजिद में तात्या कोते और म्हालसापति के साथ किस प्रकार शयन करते तथा खुशानचन्द पर उनका कैसा स्नेह था, इसका आगे वर्णन किया जायेगा ।

मानव जन्म का महत्व



इस विचित्र संसार में ईश्वर ने लाखों प्राणियों (हिन्दू शास्त्र के अनुसार 84 लाख योनियों) को उत्पन्न किया है (जिनमें देव, दानव, गन्धर्व, जीवजन्तु और मनुष्य आदि सम्मिलित है), जो स्वर्ग, नरक, पृथ्वी, समुद्र तथा आकाश में निवास करते और भिन्न-भिन्न धर्मों का पालन करते हैं। इन प्राणियों में जिनका पुण्य प्रबल है, वे स्वर्ग में निवास करते और अपने सत्कृत्यों का फल भोगते हैं। पुण्य के क्षीण होते ही वे फिर निम्न स्तर में आ जाते हैं और वे प्राणी, जिन्होंने पाप या दुष्कर्म किये हैं, नरक को जाते और अपने कुकर्मों का फल भोगते हैं। जब उनके पाप और पुण्यों का समन्वय हो जाता है, तब उन्हें मानव-जन्म और मोक्ष प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता है। जब पाप और पुण्य दोनों नष्ट हो जाते है, तब वे मुक्त हो जाते हैं। अपने कर्म तथा प्रारब्ध के अनुसार ही आत्माएँ जन्म लेतीं या काया-प्रवेश करती हैं।

मनुष्य शरीर अनमोल



यह सत्य है कि समस्त प्राणियों में चार बातें एक समान है – आहार, निद्रा, भय और मैथुन। मानव प्राणी को ज्ञान एक विशेष देन हैं, जिसकी सहायता से ही वह ईश्वर-दर्शन कर सकता है, जो अन्य किसी योनि में सम्भव नहीं। यही कारण है कि देवता भी मानव योनि से ईर्श्या करते हैं तथा पृथ्वी पर मानव-जन्म धारण करने के हेतु सदैव लालायित रहते है, जिससे उन्हें अंत में मुक्ति प्राप्त हो।

किसी-किसी का ऐसा भी मत है कि मानव-शरीर अति दोषयुक्त है। यह कृमि, मज्जा और कफ से परिपूर्ण, क्षण-भंगुर, रोग-ग्रस्त तथा नश्वर है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कथन अंशतः सत्य है। परन्तु इतना दोषपूर्ण होते हुए भी मानव शरीर का मूल्य अधिक है, क्योंकि ज्ञान की प्राप्ति केवल इसी योनि में संभव है। मानव-शरीर प्राप्त होने पर ही तो ज्ञात होता है कि यह शरीर नश्वर और विश्व परिवर्तनशीन है और इस प्रकार धारणा कर इन्द्रिय-जन्य विषयों को तिलांजलि देकर तथा सत्-असत् का विवेक कर ईश्वर-साक्षात्कार किया जा सकता है। इसलिये यदि हम शरीर को तुच्छ और अपवित्र समझ कर उसकी उपेक्षा करे तो हम ईश्वर दर्शन के अवसर से वंचित रह जायेंगे। यदि हम उसे मूल्यवान समझ कर उसका मोह करेंगे तो हम इन्द्रिय-सुखों की ओर प्रवृत्त हो जायेंगे और तब हमारा पतन भी सुनिशि्चत ही हैं।


इसलिये उचित मार्ग, जिसका अवलम्बन करना चाहिये, यह है कि न तो देह की उपेक्षा ही करो और न ही उसमें आसक्ति रखो। केवल इतना ही ध्यान रहे कि किसी घुड़सवार का अपनी यात्रा में अपने घोड़े पर तब तक ही मोह रहता है, जब तक वह अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच कर लौट न आये।

इसलिये ईश्वर दर्शन या आत्मसाक्षात्कार के निमित्त शरीर को सदा ही लगाये रखना चाहिये, जो जीवन का मुख्य ध्येय है। ऐसा कहा जाता है कि अनेक प्राणियों की उत्पत्ति करने के पश्चात् भी ईश्वर को संतोष नहीं हुआ, कारण यह है कि कोई भी प्राणी उसकी अलौकिक रचना और सृष्टि को समझने में समर्थ न हो सका और इसी कारण उसने एक विशेष प्राणी अर्थात् मानव जाति की उत्पत्ति की और उसे ज्ञान की विशेष सुविधा प्रदान की। जब ईश्वर ने देखा कि मानव उसकी लीला, अद्भभुत रचनाओं तथा ज्ञान को समझने के योग्य है, तब उन्हें अति हर्ष एवं सन्तोष हुआ। (भागवत स्कंध 11-9-28 के अनुसार)। इसलिये मानव जन्म प्राप्त होना बड़े सौभाग्य का सूचक है। उच्च ब्राहमण कुल में जन्म लेना तो परम सौभाग्य का लक्षण है, परन्तु श्री साई-चरणाम्बुजों में प्रीति और उनकी शरणागति प्राप्त होना इन सभी में अति श्रेष्ठ हैं।

मानव का प्रत्यन



इस संसार में मानव-जन्म अति दुर्लभ है। हर मनुष्य की मृत्यु तो निश्चित ही है और वह किसी भी क्षण उसका आलिंगन कर सकती है। ऐसी ही धारणा कर हमें अपने ध्येय की प्राप्ति में सदैव तत्पर रहना चाहिये। जिस प्रकार खोये हुये राजकुमार की खोज में राजा प्रत्येक सम्भव उपाय प्रयोग में लाता है, इसी प्रकार किंचित् मात्र भी विलंब न कर हमें अपने अभीष्ट की सिदि्ध के हेतु शीघ्रता करनी ही सर्वथा उचित है। अतः पूर्ण लगन और उत्सुकतापूर्वक अपने ध्येय, आलस्य और निद्रा को त्याग कर हमें ईश्वर का सर्वदा ध्यान रखना चाहिये। यदि हम ऐसा न कर सकें तो हमें पशुओं के स्तर पर ही अपने को समझना पड़ेगा।

कैसे प्रवृत्त होना



अधिक सफलतापूर्वक और सुलभ साक्षात्कार को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है-किसी योग्य संत या सदगुरु के चरणों की शीतल छाया में आश्रय लेना, जिसे कि ईश्वर-साक्षात्कार हो चुका हो। जो लाभ धार्मिक व्याख्यानों के श्रवण करने और धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन करने से प्राप्त नहीं हो सकता, वह इन उच्च आत्मज्ञानियों की संगति से सहज ही में प्राप्त हो जाता है। जो प्रकाश हमें सूर्य से प्राप्त होता है, वैसा विश्व के समस्त तारे भी मिल जायें तो भी नहीं दे सकते। इसी प्रकार जिस आध्यात्मिक ज्ञान की उपलब्धि हमें सदगुरु की कृपा से हो सकती है, वह ग्रन्थों और उपदेशों से किसी प्रकार संभव नहीं है। उनकी प्रत्येक गतिविधि, मृदु-भाषण, गुहा उपदेश, क्षमाशीलता, स्थरता, वैराग्य, दान और परोपकारिता, मानव शरीर का नियंत्रण, अहंकार-शून्यता आदि गुण, जिस प्रकार भी वे इस पवित्र मंगल-विभूति दृारा व्यवहार में आते है, सत्संग दृारा भक्त लोगों को उसके प्रत्यक्ष दर्शन होते है। इससे मस्तिष्क की जागृति होती तथा उतत्रोत्तर आध्यात्मिक उन्नति होती रहती है। श्री साईबाबा इसी प्रकार के एक संत या सदगुरु थे। यद्यपि वे बाहृरुप से एक फकीर का अभिनय करते थे, परन्तु वे सदैव आत्मलीन रहते थे। वे समस्त प्राणियों से प्रेम करते और उनमें भगवत्-दर्शन का अनुभव करते थे। सुखों का उनको कोई आकर्षण न था और न वे आपत्तियों से विचलित होते थे। उनके लिये अमीर और फकीर दोनों ही एक समान थे। जिनकी उपार्जन किया करते थे। यह कार्य वे इस प्रकार करते थे –

श्री साईबाबा की भिक्षा-वृत्ति



शिरडीवासियों के भाग्य की कौन कल्पना कर सकता है कि जिनके दृार पर परब्रहा भिक्षुक के रुप में खड़े रहकर पुकार करते थे, और साई को एक रोटी का टुकड़ा मिले और उसे प्राप्त करने के लिये अपना हाथ फैलाते थे। एक हाथ में वे सदा टमरेल लिये रहते तथा दूसरे में एक झोली। कुछ गृहों में तो वे प्रतिदिन ही जाते और किसी-किसी के दृार पर केवल फेरी ही लगाते थे। वे साग, दूध या छाँछ आदि पदार्थ तो टिनपाट में लेते तथा भात व रोटी आदि अन्य सूखी वस्तुएँ झोली में डाल लेते थे। बाबा की जिहृा को कोई स्वाद-रुचि न थी, क्योंकि उन्होंने उसे अपने वश में कर लिया था। इसलिये वे भिन्न-भिन्न वस्तुओं के स्वाद की चिन्ता क्यों करते। जो कुछ भी भिक्षा में उन्हें मिल जाता, उसे ही वे मिश्रित कर सन्तोषपूर्वक ग्रहण करते थे ।

अमुक पदार्थ स्वादिष्ट है या नही, बाबा ने इस ओर कभी ध्यान ही न दिया, मानो उनकी जिहृा में स्वाद बोध ही न हो। वे केवल मध्याहृ तक ही भिक्षा-उपार्जन करते थे। यह कार्य बहुत अनियमित था। किसी दिन तो वो छोटी सी फेरी ही लगाते तथा किसी दिन बारह बजे तक। वे एकत्रित भोजन एक कुण्डी में डाल देते, जहाँ कुत्ते, बिल्लियाँ, कौवे आदि स्वतंत्रतापूर्वक भोजन करते थे। बाबा ने उन्हें कभी नहीं भगाया। एक स्त्री भी, जो मसजिद में झाडू लगाया करती थी, रोटी के दस-बारह टुकड़े उठाकर अपने घर ले जाती थी, परन्तु किसी ने कभी उसे नहीं रोका। जिन्होंने स्वप्न में भी बिल्लियों और कुत्तों को कभी दुतकार कर नहीं भगाया, वे भला निस्सहाय गरीबों को रोटी के कुछ टुकड़ो को उठाने से क्यों रोकते। ऐसे महान् पुरुष का जीवन धन्य हैं। शिरडीवासी तो पहले पहल उन्हें केवल एक पागल ही समझते थे और वे शिरडी में इसी नाम से विख्यात भी हो गये थे। जो भिक्षा के कुछ टुकडो पर निर्वाह करता हो, भला उसका कोई आदर कैसे करता। परंतु ये तो उदार हृदय, त्यागी और धर्मात्मा थे। यद्यपि वे बाहर से चंचल और अशान्त प्रतीत होते थे, परन्तु अन्तःकरण से दृढ़ और गंभीर थे। उनका मार्ग गहन तथा गूढ़ था। फिर भी ग्राम में कुछ ऐसे श्रदृावान् और सौभाग्यशाली व्यक्ति थे, जिन्होंने उन्हें पहिचान कर एक महान् पुरुष माना। ऐसी ही एक घटना नीचे दी जाती हैं।

बायजाबई की सेवा



तात्या कोते की माता, जिनका नाम बायजाबाई था, दोपहर के समय एक टोकरी में रोटी और भाजी लेकर जंगल को जाया करती थीं। वे जंगल में कोसों दूर जाती और बाबा को ढूँढ़कर उनके चरण पकड़ती थीं। बाबा तो शान्त और ध्यानमग्न बैठे रहते थे। वे एक पत्तल बिछाकर उस पर सब प्रकार के व्यंजनादि जैसे-रोटी, साग आदि परोसती और बाबा से भोजन कर लेने के लिये आग्रह करती। उनकी सेवा तथा श्रदृा की रीति बड़ी ही विलक्षण थी – प्रतिदिन दोपहर को जंगल में बाबा को ढूँढ़ना और भोजन के लिये आग्रह करना। उनकी सेवा और उपासना की स्मृति बाबा को अपने अन्तिंम क्षणों तक बनी रही। उनकी सेवा का ध्यान कर बाबा ने उनके पुत्र को बहुत लाभ पहुँचाया। माँ और बेटे दोनों की ही फकीर पर दृढ़ निष्ठा थी। उन्होंने बाबा को सदैव ईश्वर के समान ही पूजा करती थी। बाबा उनसे कभी-कभी कहा करते थे कि फकीरी ही सच्ची अमीरी है। उसका कोई अन्त नहीं। जिसे अमीरी के नाम से पुकारा जाता है, वह शीघ्र ही लुप्त हो जाने वाली है। कुछ वर्षों के अनन्तर बाबा ने जंगल में विचरना त्याग दिया। वे गाँव में ही रहने और मसजिद में ही भोजन करने लगे। इस कारण बायजाबाई को भी उन्हें जंगल में ढूँढ़ने के कष्ट से छुटकारा मिल गया।

तीनों का शयन-कक्ष

वे सन्त पुरुष धन्य है, जिनके हृदय में भगवान वासुदेव सदैव वास करते है। वे भक्त भी भाग्यशाली है, जिन्हें उनका सानिध्य प्राप्त होता है। ऐसे ही दो भाग्यशाली भक्त थे।

1. तात्या कोते पाटील और

2. भगवत म्हालसापति ।

दोनों ने बाबा के सानिध्य का सदैव पूर्ण लाभ उठाया। बाबा दोनों पर एक समान प्रेम रखते थे। ये तीनों महानुभाव मसजिद में अपने सिर पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर की ओर करते और केन्द्र में एक दूसरे के पैर से पैर मिलाकर शयन किया करते थे। बिस्तर में लेटे-लेटे ही वे आधी रात तक प्रेमपूर्वक वार्तालाप और इधर-उधर की चर्चायें किया करते थे। यदि किसी को भी निद्रा आने लगती तो दूसरा उसे जगा देता था। यदि तात्या खुर्रार्टे लेने लगते तो बाबा शीघ्र ही उठकर उसे हिलाते और सिर पकड़ कर जोर से दबाते थे। यदि कहीं वह म्हालसापति हुए तो उन्हें भी अपनी ओर खींचते और पैंरों पर धक्का देकर पीठ थपथपाते थे। इस प्रकार तात्या ने 14 वर्षों तक अपने माता-पिता को गृह ही पर छोड़कर बाबा के प्रेमवश मसजिद में निवास किया। कैसे सुहाने दिन थे वे। उनकी क्या कभी विस्मृति हो सकती है। उस प्रेम के क्या कहना। बाबा की कृपा का मूल्य कैसे आँका जा सकता था। पिता की मृत्यु होने के पश्चात तात्या पर घरबार की जिम्मेदारी आ पड़ी, इसलिये वे अपने घर जाकर रहने लगे।

राहाता निवासी खुशालचन्द



शिरडी के गणपत तात्या कोते को बाबा बहुत ही चाहते थे। वे राहाता के मारवाड़ी सेठ श्री. चन्द्रभान को भी बहुत प्यार करते थे। सेठजी का देहान्त होने के उपरांत बाबा उसके भतीजे खुशालचन्द को भी अधिक प्रेम करते थे। वे उनके कल्याण की दिनरात फिक्र किया करते थे। कभी बैलगाड़ी में तो कभी ताँगें में वे अपने अंतरंग मित्रों के साथ राहाता को जाया करते थे। ग्रामवासी बाबा के गाँव के फाटक पर आते ही उनका अपूर्व स्वागत करते और उन्हें प्रणाम कर बड़ी धूमधाम से गाँव में ले जाते थे। खुशालचन्द बाबा को अपने घर ले जाते और कोमल आसन पर बिठाकर उत्तम सुस्वादु भोजन कराते और आनन्द तथा प्रसन्न चित्त से कुछ काल तक वार्तालाप किया करते थे। फिर बाबा सबको आनंदित कर और आर्शीवाद देकर शिरडी वारिस लौट आते थे।

एक ओर राहाता (दक्षिण में) तथा दूसरी ओर नीमगाँव (उत्तर में) था। इन दोनों ग्रामों के मध्य में शिरडी स्थित हैं। बाबा अपने जीवनकाल में कभी भी इन सीमाओं के पार नहीं गये। उन्होंने कभी रेलगाड़ी नहीं देखी और न कभी उसमें प्रवास ही किया, परन्तु फिर भी उन्हें सब गाड़ियों के आवागमन का समय ठीक-ठीक ज्ञात रहता था। जो भक्तगण बाबा से लौटने की आनुमति माँगते और जो आदेशानुकूल चलते, वे कुशलतापूर्वक घर पहुँच जाते थे। परन्तु इसके विपरीत जो अवज्ञा करते, उन्हें दुर्भाग्य व दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ता था। इस विषय से सम्बन्धित घटनाओं और अन्य विषयों का अगले अध्याय में विस्तारपूर्वक वर्णन किया जायेगा।

विशेष

इस अध्याय के नीचे दी हुई टिप्पणी बाबा के खुशालचन्द पर प्रेम के संबंध में है। किस प्रकार उन्होंने काकासाहेब दीक्षित को राहाता जाकर खुशालचन्द को लिवा लाने को कहा और उसी दोपहर को खुशालचन्द से स्वप्न में शिरडी आने को कहा, इसका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया है, क्योंकि इसका वर्णन इस सच्चरित्र के 30वें अध्याय में किया जायेगा।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-7 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-7

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-7

अद्भुत अवतार। श्री साईबाबा की प्रकृति, उनकी यौगिक क्रियाएँ, उनकी सर्वव्यापकता, कुष्ठ रोगी की सेवा, खापर्डे के पुत्र को प्लेग, पंढरीपुर गमन, अदभुत अवतार।

*****

श्री साईबाबा की समस्त यौगिक क्रियाओं में पारंगत थे। छः प्रकार की क्रियाओं के तो वे पूर्ण ज्ञाता थे। छः क्रियायें, जिनमें धौति (एक 3 चौड़े व 22 ½ लम्बे कपड़े के भीगे हुए टुकड़े से पेट को स्वच्छ करना), खण्ड योग (अर्थात् अपने शरीर के अवयवों को पृथक-पृथक कर उन्हें पुनः पूर्ववत जोड़ना) और समाधि आदि भी सम्मिलित हैं। यदि कहा जाये कि वे हिन्दू थे तो आकृति से वे यवन-से प्रतीत होते थे। कोई भी यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता था कि वे हिन्दू थे या यवन। वे हिन्दुओं का रामनवमी उत्सव यथाविधि मनाते थे और साथ ही मुसलमानों का चन्दनोत्सव भी। वे उत्सव में दंगलों को प्रोत्साहन तथा विजेताओं को पर्याप्त पुरस्कार देते थे। गोकुल अष्टमी को वे गोपाल-काला उत्सव भी बड़ी धूमधाम से मनाते थे। ईद के दिन वे मुसलमानों को मसजिद में नमाज पढ़ने के लिये आमंत्रित किया करते थे। एक समय मुहर्रम के अवसर पर मुसलमानों ने मसजिद में ताजिये बनाने तथा कुछ दिन वहाँ रखकर फिर जुलूस बनाकर गाँव से निकालने का कार्यक्रम रचा। श्री साईबाबा ने केवल चार दिन ताजियों को वहाँ रखने दिया और बिना किसी राग-देष के पाँचवे दिन वहाँ से हटवा दिया।



यदि कहें कि वे यवन थे तो उनके कान (हिन्दुओं की रीत् के अनुसार) थिदे हुए थे और यदि कहें कि वे हिन्दू थे तो वे सुन्ता कराने के पक्ष में थे। (नानासाहेब चाँदोरकर, जिन्होंने उनको बहुत समीप से देखा था, उन्होंने बतलाया कि उनकी सुन्नत नहीं हुई थी । साईलीला-पत्रिका श्री. बी. व्ही. देव दृारा लिखित शीर्षक बाबा यवन की हिन्दू पृष्ठ 562 देखो ।) यदि कोई उन्हें हिन्दू घोषित करें तो वे सदा मसजिद में निवास करते थे और यदि यवन कहें तो वे सदा वहाँ धूनी प्रज्वलित रखते थे तथा अन्य कर्म, जो कि इस्लाम धर्म के विरुदृ है, जैसे - चक्की पीसना, शंख तथा घंटानाद, होम आदि का कार्य करना, अन्नदान और अध्य दृारा पूजन आदि सदैव वहाँ चलते रहते थे।

यदि कोई कहे कि वे यवन थे तो कुलीन ब्राहमण और अग्निहोत्री भी अपने नियमों का उल्लंघन कर सदा उनको साष्टांग नमस्कार किया करते थे। जो उसके स्वदेश का पता लगाने गये, उन्हें अपना प्रश्न ही विस्मृत हो गया और वे उनके दर्शन मात्र से मोहित हो गया। अस्तु इसका निर्णय कोई न कर सका कि यथार्थ में साईबाबा हिन्दू थे या यवन। इसमें आश्चर्य ही क्या है जो अहं व इन्द्रियजन्य सुखों को तिलांजजलि देकर ईश्वर की शरण में आ जाता है तथा जब उसे ईश्वर के साथ अभिन्नता प्राप्त हो जाती है, तब उसकी कोई जाति-पाति नहीं रह जाती। इसी कोटि में श्री साईबाबा थे। दो जातियों और प्राणियों में किंचित् मात्र भी भेदभाव नहीं रखते थे। फकीरों के साथ वे अमिष और मछलीका सेवन भी कर लेते थे। कुत्ते भी उनके भोजन-पात्र में मुँह डालकर स्वतंत्रतापूर्वक खाते थे, परन्तु उन्होंने कभी कोई भी आपत्चि नहीं की। ऐसा अपूर्व और अद्भभुत श्री साईबाबा का अवतार था।

गत जन्मों के शुभ संस्कारों के परिणामस्वरुप मुझे भी उनके श्री चरणों के समीर बैठने और उनका सत्संग-लाभ उठाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मुझे जिस आनन्द व सुख का अनुभव हुआ, उसका वर्णन मैं किस प्रकार कर सकता हूँ। यथार्थ में बाबा अखण्ड सच्चिदानन्द थे। उनकी महानता और अद्वितीय का बखान कौन कर सकता है। जिसने उनके श्री चरण-कमलों की शरण ली, उसे साक्षात्कार की प्राप्ति हुई। अनेक सन्यासी, साधक और अन्य मुमुक्षु जन भी श्री साईबाबा के पास आया करते थे। बाबा भी सदैव उसके साथ चलते-फिरते, उठते-बैठते, उनसे वार्तालाप कर उनका चित्तरंजन किया करते थे। अल्लाह मालिक सदैव उनके होठों पर था। वे कभी भी विवाद और मतभेद में नहीं पडते थे तथा सदा शान्त और स्थिर रहते थे। परन्तु कभी-कभी वे क्रोधित हो जाया करते थे। वे सदैव ही वेदान्त की शिक्षा दिया करते थे। अमीर और गरीब दोनों उनके लिए एक समान थे। वे लोगों के गुहा व्यापार को पूर्णतया जानते थे और जब वे गुहा रहस्य स्पष्ट करते तो सब विस्मत हो जाते थे। स्वयं ज्ञानावतार होकर भी वे सदैव अज्ञानता का प्रदर्शन किया करते थे। उन्हें आदरसत्कार से सदैव अरुचि थी। इस प्रकार का श्री साईबाबा का वैशिष्टय था। थे तो वे शरीरधारी, परन्तु कर्मों से उनकी ईश्वरीयता स्पष्ट झलकती थी। शिरडी के सकल नर-नारी उन्हें परब्रहमा ही मानते थे।

विशेष



श्री साईबाबा के एक अंतरंग भक्त म्हालसापति, जो कि बाबा के साथ मसजिद तथा चावड़ी में शयन करते थे, उन्हें बाबा ने बतलाया था कि मेरा जन्म पाथर्डी के एक ब्राहमण परिवार में हुआ था। मेरे माता-पिता ने मुझे बाल्यावस्था में ही एक फकीर को सौंप दिया था। जब यह चर्चा चल रही थी, तभी पाथर्डी से कुछ लोग वहाँ आये तथा बाबा ने उनसे कुछ लोगों के सम्बन्ध में पुछताछ भी की।

श्रीमती काशीबाई कानेटकर (पूना की एक प्रसिदृ विदुषी महिला) ने साईलीला-पत्रिका, भाग 2 (सन् 1934) के पृष्ठ 79 पर अनुभव नं. 5 में प्रकाशित किया है कि बाबा के चमत्कारों को सुनकर हम लोग अपनी ब्रहमवादी समस्था की पदृति के अनुसार विवेचन कर रहे थे। विवाद का विषय था कि श्री साईबाबा ब्रहमवादी हैं या वाममार्गी। कालान्तर में जब मैं शिरडी को गई तो मुझे इस सम्वन्ध में अनेक विचार आ रहे थे। जैसे ही मैंने मसजिद की सीढ़ियों पर पैर रखा कि बाबा उठ कर सामने आ गये और अपने हृदय की ओर संकेत कर, मेरी ओर घुरते हुये क्रोधित हो बोले – यह ब्राहमण है, शुदृ ब्राहमण। इसे वाममार्ग से क्या प्रयोजन यहाँ कोई भी यवन प्रवेश करने का दुस्साहस नहीं कर सकता और न ही वह करे। पुनः अपने हृदय की ओर इंगित करते हुए बोले, या ब्राहमण लाखों मनुष्यों का पथ प्रदर्शन कर सकता है और उनको अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति कर सकता है। यह ब्राहमण की मसजिद है। मै यहाँ किसी वाममार्गी की छाया भी न पडने दूँगा।

*बाबा की प्रकृति*



मैं मूर्ख जो हूँ, श्री साईबाबा की अद्भभुत लीलाओं का वर्णन नहीं कर सकता। शिरडी के प्रायः समस्त मंदिरों का उन्होंने जीर्णोधार किया। श्री तात्या पाटील के दृारा शनि, गणपति, शंकर, पार्वती, ग्राम्यदेवता और हनुमानजी आदि के मंदिर ठीक करवाये। उनका दान भी विलक्षण था। दक्षिणा के रुप में जो धन एकत्रित होता था, उसमें से वे किसी को बीस रुपये, किसी को पंद्रह रुपये या किसी को पचास रुपये, इसी प्रकार प्रतिदिन स्वच्छन्दतापूर्वक वितरण कर देते थे। प्राप्तिकर्ता उसे शुदृ दान समझता था। बाबा की भी सदैव यही इच्छा थी कि उसका उपयुक्त रीति से व्यय किया जाय।

बाबा के दर्शन से भक्तों को अनेक प्रकार का लाभ पहुँचता था। अनेकों निष्कपट और स्वस्थ बन गये, दुष्टात्मा पुण्यात्मा में परिणत हो गये। अनेकों कुष्ठ रोग से मुक्त हो गए और अनेकों को मनोवांछित फल की प्राप्ति हो गई। बिना कोई रस या औषधि सेवन किये, बहुत से अंधों को पुनः दृष्टि प्राप्त हो गई, पंगुओं की पंगुता नष्ट हो गई। कोई भी उनकी महानता का अन्त न पा सका। उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैलती गई और भिन्न-भिन्न स्थानों से यात्रियों के झुंड के झुंड शिरडी आने लगे। बाबा सदा धूनी के पास ही आसन जमाये रहते और वहीं विश्राम किया करते थे। वे कभी स्नान करते और कभी स्नान किये बिना ही समाधि में लीन रहते थे। वे सिर पर एक छोटी सी साफी, कमर में एक धोती और तन ढँकने के लिए एक अंगरखा धारण करते थे। प्रारम्भ से ही उनकी वेशभूषा इसी प्रकार थी। अपने जीवनकाल के पू्र्वार्दृ में वे गाँव में चिकित्साकार्य भी किया करते थे। रोगियों का निदान कर उन्हें औषधि भी देते थे और उनके हाथ में अपरिमित यश था। इस कारण से वे अल्प काल में ही योग्य चिकित्सक विख्यात हो गये। यहाँ केवल एक ही घटना का उल्लेख किया जाता है, जो बड़ी विचित्र सी है।

विलक्षण नेत्र चिकित्सा

एक भक्त की आँखें बहुत लाल हो गई थी। उन पर सूजन भी आ गई थी। शिरडी सरीखे छोटे ग्राम में डाक्टर कहाँ। तब भक्तगण ने रोगी को बाबा के समक्ष उपस्थित किया। इस प्रकार की पीडा में डॉक्टर प्रायः लेप, मरहम, अंजन, गाय का दूध तथा करपूरयुक्त औषधियों को प्रयोग में लाते हैं। पर बाबा की औषधि तो सर्वथा ही भिन्न थी। उन्होंने भिलावाँ पीस कर उसकी दो गोलियाँ बनायीं और रोगी के नेत्रों में एक-एक गोली चिपका कर कड़े की पट्टी से आँखें बाँध दी। दूसरे दिन पट्टी हटाकर नेत्रों के ऊपर जल के छींटे छोड़े गये। सूजन कम हो गई और नेत्र प्रायः नीरोग हो गये । नेत्र शरीर का एक अति सुकोमल अंग है, परन्तु बाबा की औषधि से कोई हानि नहीं पहुँची, वरन् नेत्रों की व्याधि दूर हो गई। इस प्रकार अनेक रोगी नीरोग हो गये। यह घटना तो केवन उदाहरणस्वरुप ही यहाँ लिखी गई है।

बाबा की यौगिक क्रियाएँ



बाबा को समस्त यौगिक प्रयोग और क्रियाएँ ज्ञात थी । उनमें से केवल दो का ही उल्लेख यहाँ किया जाता है –

धौति क्रिया (आतें स्वच्छ करने की क्रिया) - प्रति तीसरे दिन बाबा मसजिद से प्रयाप्त दूरी पर, एक वट वृक्ष के नीचे किया करते थे। एक अवसर पर लोगों ने देखा कि उन्होंने अपनी आँतों को उदर के बाहर निकालकर उन्हें चारों ओर से स्वच्छ किया और समीप के वृक्ष पर सूखने के लिये रख दिया। शिरडी में इस घटना की पुष्टि करने वाले लोग अभी भी जीवित हैं। उन्होंने इस सत्य की परीक्षा भी की थी।

साधारण धौति क्रिया एक 3” चौडे व 22 ½ फुट लम्बे गीले कपड़े के टुकड़े से की जाती है। इस कपड़े को मुँह के दृारा उदर में उतार लिया जाता हैं तथा इसे लगभग आधा घंटे तक रखे रहते है, ताकि उसका पूरा-पूरा प्रभाव हो जावे। तत्पश्चात् उसे बाहर निकाल  लेते हैं। पर बाबा की तो यह धौति क्रिया सर्वथा विचित्र और असाधारण ही थी।

खण्डयोग – एक समय बाबा ने अपने शरीर के अवयव पृथक-पृथक कर मसजिद के भिन्न-भिन्न स्थानों में बिकेर दिये। अकस्मात् उसी दिन एक महाशय मसजिद में पधारे और अंगों को इस प्रकार यहाँ-वहाँ बिखरा देखकर बहुत ही भयभीत हुए। पहले उनकी इच्छा हुई कि लौटकर ग्राम अधिकारी के पास यह सूचना भिजवा देनी चाहिये कि किसी ने बाबा का खून कर उनके टुकडे-टुकडे कर दिये हैं। परन्तु सूचना देने वाला ही पहले पकड़ा जाता हैं, यह सोचकर वे मौन रहे। दूसरे दिन जब वे मसजिद में गये तो बाबा को पूर्ववत् हष्ट पुष्ट और स्वस्थ देखकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन्हें ऐसा लगा कि पिछले दिन जो दृश्य देखा था, वह कहीं स्वप्न तो नहीं था।

बाबा बाल्यकाल से ही यौगिक क्रियायें किया करते थे और उन्हें जो अवस्था प्राप्त हो चुकी थी, उसका सत्य ज्ञान किसी को भी नहीं था। चिकित्सा के नाम से उन्होंने कभी किसी से एक पैसा भी स्वीकार नहीं किया। अपने उत्तम लोकप्रिय गुणों के कारण उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। उन्होंने अनेक निर्धनों और रोगियों को स्वास्थ्य प्रदान किया। इस प्रसिदृ डॉक्टरों के डॉक्टर (मसीहों के मसीहा) ने कभी अपने स्वार्थ की चिन्ता न कर अनेक विघ्नों का सामना किया तथा स्वयं असहनीय वेदना और कष्ट सहन कर सदैव दूसरों की भलाई की और उन्हें विपत्तियों में सहायता पहुँचाई। वे सदा परकल्याणार्थ चिंतित रहते थे। ऐसी एक घटना नीचे लिखी जाती है, जो उनकी सर्वव्यापकता तथा महान् दयालुता की धोतक हैं।

बाबा की सर्वव्यापकता और दयालुता

सन् 1910 में बाबा दीवाली के शुभ अवसर पर धूनी के समीप बैठे हुए अग्नि ताप रहे थे तथा साथ ही धूनी में लकड़ी भी डालते जी रहे थे। धूनी प्रचण्डता से प्रज्वलित थी। कुछ समय पश्चात उन्होंने लकड़ियाँ डालने के बदले अपना हाथ धूनी में डाल दिया। हाथ बुरी तरह से जल गया। नौकर माधव तथा माधवराव देशपांडे ने बाबा को धूनी में हाथ डालते देखकर तुरन्त दौड़कर उन्हें बलपूर्वक पीछे खींच लिया।

माधवराव ने बाबा से कहा, देवा आपने ऐसा क्यों किया। बाबा सावधान होकर कहने लगे, यहाँ से कुछ दूरी पर एक लुहारिन जब भट्टी धौंक रही थी, उसी समय उसके पति ने उसे बुलाया। कमर से बँधे हुए शिशु का ध्यान छोड़ वह शीघ्रता से वहाँ दौड़कर गई। अभाग्यवश शिशु फिसल कर भट्टी में गिर पड़ा। मैंने तुरन्त भट्टी में हाथ डालकर शिशु के प्राण बचा लिये हैं। मुझे अपना हाथ जल जाने का कोई दुःख नहीं हैं, परन्तु मुझे हर्ष हैं कि एक मासूम शिशु के प्राण बच गये।

कुष्ठ रोगी की सेवा

माधवराव देशपांडे के दृारा बाबा का हाथ जल जाने का समाचार पाकर श्री नानासाहेव चाँदोरकर, बम्बई के सुप्रसिदृ डॉक्टर श्री परमानंद के साथ दवाईयाँ, लेप, लिंट तथा पट्टियाँ आदि साथ लेकर शीघ्रता से शिरडी को आये। उन्होंने बाबा से डॉक्टर परमानन्द को हाथ की परीक्षा करने और जले हुए स्थान में दवा लगाने की अनुमति माँगी। यह प्रार्थना अस्वीकृत हो गई। हाथ जल जाने के पश्चात एक कुष्ठ-पीडित भक्त भागोजी सिंदिया उनके हाथ पर सदैव पट्टी बाँधते थे। उनका कार्य था प्रतिदिन जले हुए स्थान पर घी मलना और उसके ऊपर एक पत्ता रखकर पट्टियों से उसे पुनः पूर्ववत् कस कर बाँध देना। घाव शीघ्र भर जाये, इसके लिये नानासाहेब चाँदोरकर ने पट्टी छोड़ने तथा डॉ. परमानन्द से जाँच व चिकित्सा कराने का बाबा से बारंबार अनुरोध किया। यहाँ तक कि डॉ. परमानन्द ने भी अनेक बार प्रार्थना की, परन्तु बाबा ने यह कहते हुए टाल दिया कि केवल अल्लाह ही मेरा डॉक्टर है। उन्होंने हाथ की परीक्षा करवाना अस्वीकार कर दिया। डॉ. परमानन्द की दवाइयाँ शिरडी के वायुमंडल में न खुल सकीं और न उनका उपयोग ही हो सका। फिर भी डॉक्टर साहेब की अनुमति मिल गई। कुछ दिनों के उपरांत जब घाव भर गया, तब सब भक्त सुखी हो गये, परन्तु यह किसी को भी ज्ञात न हो सका कि कुछ पीडा अवशेष रही थी या नहीं। प्रतिदिन प्रातःकाल वही क्रम-घृत से हाथ का मर्दन और पुनः कस कर पट्टी बाँधना-श्री साई बाबा की समाधि पर्यन्त यह कार्य इसी प्रकार चलता रहा। श्री साई बाबा सदृश पूर्ण सिदृ को यथार्थ में इस चिकित्सा की भी कोई आवश्यकता नहीं थी, परन्तु भक्तों के प्रेमवश, उन्होंने भागोजी की यह सेवा (अर्थात् उपासना) निर्विघ्र स्वीकार की। जब बाबा लेण्डी को जाते तो भागोजी छाता लेकर उनके साथ ही जाते थे। प्रतिदिन प्रातःकाल जब बाबा धूनी के पास आसन पर विराजते, तब भागोजी वहाँ पहले से ही उपस्थित रहकर अपना कार्य प्रारम्भ कर देते थे। भागोजी ने पिछले जन्म में अनेक पाप-कर्म किये थे। इस कारण वे कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। उनकी उँगलियाँ गल चुकी थी और शरीर पीप आदि से भरा हुआ था, जिससे दुर्गन्ध भी आती थी। यद्यपि बाहृ दृष्टि से वे दुर्भागी प्रतीत होते थे, परंतु बाबा का प्रधान सेवक होने के नाते, यथार्थ में वे ही अधिक भाग्यशाली तथा सुखी थे। उन्हें बाबा के सानिध्य का पूर्ण लाभ प्राप्त हुआ।

बालक खापर्डे को प्लेग

अब मैं बाबा की एक दूसरी अद्भभुत लीला का वर्णन करुँगा। श्रीमती खापर्डे (अमरावती के श्री दादासाहेब खापर्डे की धर्मपत्नी) अपने छोटे पुत्र के साथ कई दिनों से शिरडी में थी। पुत्र तीव्र ज्वर से पीड़ित था, पश्चात उसे प्लेग की गिल्टी (गाँठ) भी निकल आई। श्रीमती खापर्डे भयभीत होकर बहुत घबराने लगी और अमरावती लौट जाने का विचार करने लगी। संध्या-समय जब बाबा वायुसेवन के लिए वाड़े (अब जो समाधि मंदिर कहा जाता है) के पास से जा रहे थे, तब उन्होंने उनसे लौटने की अनुमति माँगी तथा कम्पित स्वर में कहने लगी कि मेरा प्रिय पुत्र प्लेग से ग्रस्त हो गया है, अतः अब मैं घर लौटना चाहती हूँ। प्रेमपूर्वक उनका समाधान करते हुए बाबा ने कहा, आकाश में बहुत बादल छाये हुए हैं। उनके हटते ही आकाश पूर्ववत् स्वच्छ हो जायगा। ऐसा कहते हुए उन्होंने कमर तक अपनी कफनी ऊपर उठाई और वहाँ उपस्थित सभी लोगों को चार अंडों के बराबर गिल्टियाँ दिखा कर कहा, देखो, मुझे अपने भक्तों के लिये कितना कष्ट उठाना पड़ता हैं। उनके कष्ट मेरे हैं। यह विचित्र और असाधारण लीला देखकर लोगों को विश्वास हो गया कि सन्तों को अपने भक्तों के लिये किस प्रकार कष्ट सहन करने पड़ते हैं। संतों का हृदय मोम से भी नरम तथा अन्तर्बाहृ मक्खन जैसा कोमल होता है। वे अकारण ही भक्तों से प्रेम करते और उन्हे अपना निजी सम्बंधी समझते हैं।

पंढरीपुर-गमन और निवास



बाबा अपने भक्तों से कितना प्रेम करते और किस प्रकार उनकी समस्त इच्छाओं तथा समाचारों को पहले से ही जान लेते थे, इसका वर्णन कर मैं यह अध्याय समाप्त करुँगा।

नानासाहेव चाँदोरकर बाबा के परम भक्त थे। वे खानदेश में नंदुरबार के मामलतदार थे। उनका पंढरपुर को स्थानांतरण हो गया और श्री साई बाबा की भक्ति उन्हें सफल हो गई, क्योंकि उन्हें पंढरपुर जो भूवैकुण्ठ (पृख्वी का स्वर्ग) सदृश ही साझा जाता है, उसमें रहने का अवसर प्राप्त हो गया। नानासाहेव के शीघ्र ही कार्यभार सम्भालना था, इसलिये वे किसी के पूर्व पत्र या सूचना दिये बिना ही शीघ्रता से शिरडी को रवाना हो गये। वे अपने पंढरपुर (शिरडी) में अचानक ही पहुँचकर अपने विठोबा (बाबा) को नमस्कार कर फिर आगे प्रस्थान करना चाहते थे। नानासाहेब के आगमन की किसी को भी सूचना न थी। परन्तु बाबा से क्या छिपा था। वे तो सर्वज्ञ थे। जैसे ही नानासाहेब नीमगाँव पहुँचे (जो शिरडी से कुछ ही दूरी पर है), बाबा पास बैठे हुए म्हालसापति, अप्पा शिंदे और काशीराम से वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय मसजिद में स्तब्धता छा गई और बाबा ने अचानक ही कहा, चलो, चारों मिलकर भजन करें। पंढरपुर के दृार खुले हुए हैं – यह भजन प्रेमपूर्वक गावें। (पंढरपुरला जायाचें जायाचें तिथेंच मजला राह्याचें। तिथेच मजला राह्याचे, घर तें माईया रायांचे ।।) सब मिलकर गाने लगे । (भावार्थ-मुझे पंढरपुर जाकर वहीं रहना है, क्योंकि वह मेरे स्वामी (ईश्वर) का घर है।) बाबा गाते जाते और दुहराते जाते थे। कुछ समय में नानासाहेब ने वहाँ सहकुटुम्ब पहुँचकर बाबा को प्रणाम किया। उन्होंने बाबा से पंढरपुर को साथ पधारने तथा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की। पाठकों अब इस प्रार्थना की आवश्यकता ही कहाँ थी। भक्तगण ने नानासाहेब को बतलाया कि बाबा पंढरपुर निवास के भाव में पहले ही से हैं। यह सुनकर नानासाहेब द्रवित हो श्री-चरणों पर गिर पड़े और बाबा की आज्ञा, उदी तथा आर्शीवाद प्राप्त कर वे पंढरपुर को रवाना हो गये।

बाबा की कथायें अनन्त हैे। अन्य विषय जैसे – मानव जन्म का महत्व, बाबा का भिक्षा-वृत्ति पर निर्वाह, बायजाबई की सेवा तथा अन्य कथाओं को आगे अध्याय के लिये शेष रखकर अब मुझे यहाँ विश्राम करना चाहिये ।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-6 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-6

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-6 

श्री रामनवमी उत्सव व मसजिद का जीर्णोदृार, 

गुरु के कर-स्पर्श की महिमा,  श्री रामनवमी - उत्सव, 
उर्स की प्राथमिक अवस्था और रुपान्तर एवं मसजिद का जीर्णोदृार 
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गुरु के कर-स्पर्श के गुण



जब सद्गगुरु ही नाव के खिवैया हों तो वे निश्चय ही कुशलता तथा सरलतापूर्वक इस भवसागर के पार उतार देंगे। सद्गगुरु शब्द का उच्चारण करते ही मुझे श्री साई की स्मृति आ रही है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह स्वयं मेरे सामने ही खड़े है और मेरे मस्तक पर उदी लगा रहे हैं। देखो, देखो, वे अब अपना वरद्-हस्त उठाकर मेरे मस्तक पर रख रहे है। अब मेरा हृदय आनन्द से भर गया है। मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बह रहे है। सद्गगुरु के कर-स्पर्श की शक्ति महान् आश्चर्यजनक है। लिंग (सूक्ष्म) शरीर, जो संसार को भष्म करने वाली अग्नि से भी नष्ट किया जा सकता है, वह केवल गुरु के कर-स्पर्श से ही पल भर में नष्ट हो जाता है। अनेक जन्मों के समस्त पाप भी मन स्थिर हो जाते है। श्री साईबाबा के मनोहर रुप के दर्शन कर कंठ प्रफुल्लता से रुँध जाता है, आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है और जब हृदय भावनाओं से भर जाता है, तब सह्रदय भाव की जागृति होकर आत्मानुभव के आनंन्द का आभास होने लगता है। मैं और तू का भेद (दैृतभाव) नष्ट हो जाता है और तत्क्षण ही ब्रहृा के साथ अभिन्नता प्राप्त हो जाती है। जब मैं धार्मिक ग्रन्थों का पठन करता हूँ तो क्षण-क्षण में सद्गगुरु की स्मृति हो आती है। बाबा राम या कृष्ण का रुप धारण कर मेरे सामने खड़े हो जाते है और स्वयं अपनी जीवन-कथा मुझे सुनाने लगते है। अर्थात् जब मैं भागवत का श्रवण करता हूँ, तब बाबा श्री कृष्ण का स्वरुप धारण कर लेते हैं और तब मुझे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि वे ही भागवत या भक्तों के कल्याणार्थ उदृवगीता सुना रहे है। जब कभी भी मै किसी से वार्तालाप  किया करता हूँ तो मैं बाबा की कथाओं को ध्यान में लाता हूँ, जिससे उनका उपयुक्त अर्थ समझाने में सफल हो सकूँ। जब मैं लिखने के लिये बैठता हूँ, तब एक शब्द या वाक्य की रचना भी नहीं कर पाता हूँ, परन्तु जब वे स्वयं कृपा कर मुझसे लिखवाने लगते है, तब फिर उसका कोई अंत नहीं होता। जब भक्तों में अहंकार की वृदिृ होने लगती है तो वे शक्ति प्रदान कर उसे अहंकार शून्य बनाकर अंतिम ध्येय की प्राप्ति करा देते है तथा उसे संतुष्ट कर अक्षय सुख का अधिकारी बना देते है। जो बाबा को नमन कर अनन्य भाव से उनकी शरण जाता है, उसे फिर कोई साधना करने की आवस्यकता नहीं है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उसे सहज ही में प्राप्त हो जाते हैं। ईश्वर के पास पहुँचने के चार मार्ग हैं – कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति। इन सबमें भक्तिमार्ग अधिक कंटकाकीर्ण, गड्ढों और खाइयों से परिपूर्ण है। परन्तु यदि सद्गुरु पर विश्वास कर गडढों और खाइयों से बचते और पदानुक्रमण करते हुए सीधे अग्रसर होते जाओगे तो तुम अपने ध्येय अर्थात् ईश्वर के समीप आसानी से पहुँच जाओगे। श्री साईबाबा ने निश्चयात्मक स्वर में कहा है कि स्वयं ब्रहा और उनकी विश्व उत्पत्ति, रक्षण और लय करने आदि की भिन्न-भिन्न शक्तियों के पृथकत्व में भी एकत्व है। इसे ही ग्रन्थकारों ने दर्शाया है। भक्तों के कल्याणार्थ श्री साईबाबा ने स्वयं जिन वचनों से आश्वासन दिया था, उनको नीचे उदृत किया जाता है –

मेरे भक्तों के घर अन्न तथा वस्त्रों का कभी अभाव नहीं होगा। यह मेरा वैशिष्टय है कि जो भक्त मेरी शरण आ जाते है और अंतःकरण से मेरे उपासक है, उनके कल्याणार्थ मैं सदैव चिंतित रहता हूँ। कृष्ण भगवान ने भी गीता में यही समझाया है। इसलिये भोजन तथा वस्त्र के लिये अधिक चिंता न करो। यदि कुछ माँगने की ही अभिलाषा है तो ईश्वर को ही भिक्षा में माँगो। सासारिक मान व उपाधियाँ त्यागकर ईश-कृपा तथा अभयदान प्राप्त करो और उन्ही के दृारा सम्मानित हो। सांसारिक विभूतियों से कुपथगामी मत बनो। अपने इष्ट को दृढ़ता से पकड़े रहो। समस्त इन्द्रियों और मन को ईश्वरचिंतन में प्रवृत रखो। किसी पदार्थ से आकर्षित न हो, सदैव मेरे स्मरण में मन को लगाये रखो, ताकि वह देह, सम्पत्ति व ऐश्वर्य की ओर प्रवृत न हो। तब चित्त स्थिर, शांत व निर्भय हो जायगा। इस प्रकार की मनःस्थिति प्राप्त होना इस बात का प्रतीक है कि वह सुसंगति में है। यदि चित्त की चंचलता नष्ट न हुई तो उसे एकाग्र नहीं किया जा सकता।

बाबा के उपयुक्त को उदृत कर ग्रन्थकार शिरडी के रामनवमी उत्सव का वर्णन करता है। शिरडी में मनाये जाते वाले उत्सवों में रामनवमी अधिक धूमधाम से मनायी जाती है। अतएव इस उत्सव का पूर्ण विवरण जैसा कि साईलीला-पत्रिका (1925) के पृष्ठ 197 पर प्रकाशित हुआ था, यहाँ संक्षेप में दिया जाता है –

प्रारम्भ



कोपरगाँव में श्री गोपालराव गुंड नाम के एक इन्सपेक्टर थे। वे बाबा के परम भक्त थे। उनकी तीन स्त्रियाँ थी, परन्तु एक के भी संतान न थी। श्री साईबाबा की कृपा से उन्हें एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। इस हर्ष के उपलक्ष्य में सन् 1897 में उन्हें विचार आया कि शिरडी में मेला अथवा उरुस भरवाना चाहिये। उन्होंने यह विचार शिरडी के अन्य भक्त-तात्या पाटील, दादा कोते पाटील और माधवराव के समक्ष विचारणार्थ प्रगट किया। उन सभी को यह विचार अति रुचिकर प्रतीत हुआ तथा उन्हें बाबा की भी स्वीकृत और आश्वासन प्राप्त हो गया। उरुस भरने के लिये सरकारी आज्ञा आवश्यक थी। इसलिये एक प्रार्थना-पत्र कलेक्टर के पास भेजा गया, परन्तु ग्राम कुलकर्णी (पटवारी) के आपत्ति उठाने के कारण स्वीकृति प्राप्त न हो सकी। परन्तु बाबा का आश्वासन तो प्राप्त हो ही चुका था, अतः पुनः प्रत्यन करने पर स्वीकृति प्राप्त हो गयी। बाबा की अनुमति से रामनवमी के दिन उरुस भरना निश्चित हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ निष्कर्ष ध्यान में रख कर ही उन्होंने ऐसी आज्ञा दी। अर्थात् उरुस व रामनवमी के उत्सवों का एकीकरण तथा हिन्दू-मुसलिम एकता, जो भविष्य की घटनाओं से ही स्पष्ट है कि यह ध्येय पूर्ण सफल हुआ। प्रथम बाधा तो किसी प्रकार हल हुई। अब दितीय कठिनाई जल के अभाव की उपस्थित हुई। शिरडी तो एक छोटा सा ग्राम था और पूर्व काल से ही वहाँ जल का अभाव बना रहता था। गाँव में केवल दो कुएँ थे, जिनमें से एक तो प्रायः को सूख जाया करता था और दूसरे का पानी खारा था। बाबा ने उसमें फूल डालकर उसके खारे जल को मीठा बना दिया। लेकिन एक कुएँ का जल कितने लोगों को पर्याप्त हो सकता था। इसलिये तात्या पाटील ने बाहर से जल मंगवाने का प्रबन्ध किया। लकड़ी व बाँसों की कच्ची दुकानें बनाई गई तथा कुश्तियों का भी आयोजन किया गया। गोपालपाव गुंड के एक मित्र दामू-अण्णा कासार अहमदनगर में रहते थे। वे भी संतानहीन होने के कारण दुःखी थे। श्री साईबाबा की कृपा से उन्हें भी एक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई थी। श्री गुंड ने उनसे एक ध्वज देने को कहा। एक ध्वज जागीरदार श्री नानासाहेब निमोणकर ने भी दिया। ये दोनों ध्वज बड़े समारोह के साथ गाँव में से निकाले गये और अंत में उन्हें मसजिद, जिसे बाबा दृारकामाई के नाम से पुकारते थे, उसके कोनों पर फहरा दिया गया। यह कार्यक्रम अभी पूर्ववत् ही चल रहा है।


चन्दन समारोह

इस मेले में एक अन्य कार्यक्रम का भी श्री गणेश हुआ, जो चन्दनोत्सव के नाम से प्रसिदृ है। यह कोरहल के एक मुसलिम भक्त श्री अमीर सक्कर दलाल के मस्तिष्क की सूझ थी। प्रायः इस प्रकार का उत्सव सिदृ मुसलिम सन्तों के सम्मान में ही किया जाता है। बहुत-सा चन्दन घिसकर बहुत सी चन्दन-धूप थालियों में भरी जाती है तथा लोहवान जलाते है और अंत में उन्हें मसजिद में पहुँचा कर जुलूस समाप्त हो जाता है। थालियों का चन्दन और धूप नीम पर और मसजिद की दीवारों पर डाल दिया जाता है। इस उत्सव का प्रबन्ध प्रथम तीन वर्षों तक श्री. अमीर सक्कर ने किया और उनके पश्चात उनकी धर्मपत्नी ने किया। इस प्रकार हिन्दुओं दृारा ध्वज व मुसलमानों के दृारा चन्दन का जुलूस एक साथ चलने लगा और अभी तक उसी तरह चल रहा है।

प्रबन्ध

रामनवमी का दिन श्री साईबाबा के भक्तों को अत्यन्त ही प्रिय और पवित्र है। कार्य करने के लिये बहुत से स्वयंसेवक तैयार हो जाते थे और वे मेले के प्रबन्ध में सक्रिय भाग लेते थे। बाहर के समस्त कार्यों का भार तात्या पाटील और भीतर के कार्यों को श्री साईबाबा की एक परम भक्त महिला राधाकृष्णमाई सम्बालती थी। इस अवसर पर उनका निवास स्थान अतिथियों से परिपूर्ण रहता और उन्हें सब लोगों की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना पड़ता था। साथ ही वे मेले की समस्त आवश्यक वस्तुओं का भी प्रबन्ध करती थीं। दूसरा कार्य जो वे स्वयं खुशी से किया करती, वह था मसजिद की सफाई करना, चूना पोतना आदि। मसजिद की फर्श तथा दीवारें निरन्तर धूनी जलने के कारण काली पड़ गयी थी। जब रात्रि को बाबा चावड़ी में विश्राम करने चले जाते, तब वे यह कार्य कर लिया करती थी। समस्त वस्तुएँ धूनी सहित बाहर निकालनी पड़ती थी और सफई व पुताई हो जाने के पश्चात् वे पूर्ववत् सजा दी जाती थी। बाबा का अत्यन्त प्रिय कार्य गरीबों को भोजन कराना भी इस कार्यक्रम का एक अंग था। इस कार्य के लिये वृहद् भोज का आयोजन किया जाता था और अनेक प्रकार की मिठाइयाँ बनाई जाती थी। यह सब कार्य राधाकृष्णमाई के निवास स्थान पर ही होता था। बहुत से  श्रीमंत भक्त इस कार्य में आर्थिक सहायता पहुँचाते थे।

उर्स का रामनवमी के त्यौहार में समन्वय



सब कार्यक्रम इसी तरह उत्तम प्रकार से चलता रहा और मेले का महत्व शनैः शनैः बढ़ता ही गया। सन् 1911 में एक परिवर्तन हुआ। एक भक्त कृष्णराव जोगेश्वर भीष्म (श्री साई सगुणोपासना के लेखक) अमरावती के दादासाहेब खापर्डे के साथ मेले के एक दिन पूर्व शिरडी के दीक्षित-वाड़े में ठहरे। जब वे दालान में लेटे हुए विश्राम कर रहे थे, तब उन्हें एक कल्पना सूझी। इसी समय श्री. लक्ष्मणराव उपनाम काका महाजनी पूजन सामग्री लेकर मसजिद की ओर जा रहे थे। उन दोनों में विचार-विनिमय होने लगा और उन्होने सोचा कि शिरडी में उरुस व मेला ठीक रामनवमी के दिन ही भरता है, इसमें अवश्य ही कोई गुढ़ रहस्य निहित है। रामनवमी का दिन हिन्दुओं को बहुत ही प्रिय है। कितना अच्छा हो, यदि रामनवमी उत्सव (अर्थात् श्री राम का जन्म दिवस) का भी श्री गणेश कर दिया जाय। काका महाजनी को यह विचार रुचिकर प्रतीत हुआ। अब मुख्य कठिनाई हरिदास के मिलने की थी, जो इस शुभ अवसर पर कीर्तन व ईश्वर-गुणानुवाद कर सकें। परन्तु भीष्म ने इस समस्या को हल कर दिया। उन्होंने कहा कि मेरा स्वरचित राम आख्यान, जिसमें रामजन्म का वर्णन है, तैयार हो चुका है। मैं उसका ही कीर्तन करुँगा और तुम हारमोनियम के साथ करना तथा राधाकृष्णमाई सुंठवडा़ (सोंठ का शक्कर मिश्रित चूर्ण) तैयार कर देंगी। तब वे दोनों शीघ्र ही बाबा की स्वीकृति प्राप्त करने हेतु मसजिद को गये। बाबा तो अंतर्यामी थे। उन्हें तो सब ज्ञान था कि वाड़े में क्या-क्या हो रहा है। बाबा ने महाजनी से प्रश्न किया कि वहाँ क्या चल रहा था। इस आकस्मिक प्रश्न से महाजनी घबडा गये और बाबा के शब्दों से पुछा कि क्या बात है। भीष्म ने रामनवमी-उत्सव मनाने का विचार बाबा के समक्ष प्रस्तुत किया तथा स्वीकृति देने की प्रार्थना की। बाबा ने भी सहर्ष अनुमति दे दी। सभी भक्त हर्षित हुये और रामजन्मोत्सव मनाने की तैयारियाँ करने लगे। दूसरे दिन रंग-बिरंगी झंडियों से मसजिद सजा दी गई। श्रीमती राधाकृष्णमाई ने एक पालना लाकर बाबा के आसन के समक्ष रख दिया और फिर उत्सव प्रारम्भ हो गया। भीष्म कीर्तन करने को खड़े हो गये और महाजनी हारमोनियम पर उनके साथ करने लगे। तभी बाबा ने महाजनी को बुलाबा भेजा। यहाँ महाजनी शंकित थे कि बाबा उत्सव मनाने की आज्ञा देंगे भी या नहीं। परन्तु जब वे बाबा के समीप पहुँचे तो बाबा ने उनसे प्रश्न किया यह सब क्या है, यह पलना क्यों रखा गया है महाजनी ने बतलाया कि रामनवमी का कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया और इसी कारण यह पालना यहाँ रखा गया। बाबा ने निम्बर पर से दो हार उठाये। उनमें से एक हार तो उन्होंने काका जी के गले में डाल दिया तथा दूसरा भीष्म के लिये भेज दिया। अब कीर्तन प्रारम्भ हो गया था। कीर्तन समाप्त हुआ, तब श्री राजाराम की उच्च स्वर से जयजयकार हुई। कीर्तन के स्थान पर गुलाल की वर्षा की गई। जब हर कोई प्रसन्नता से झूम रहा था, अचानक ही एक गर्जती हुई ध्वनि उनके कानों पर पड़ी। वस्तुतः जिस समय गुलाल की वर्षा हो रही थी तो उसमें से कुछ कण अनायास ही बाबा की आँख में चले गये। तब बाबा एकदम क्रुदृ होकर उच्च स्वर में अपशव्द कहने व कोसने लगे। यह दृश्य देखकर सब लोग भयभीत होकर सिटपिटाने लगे। बाबा के स्वभाव से भली भाँति परिचित अंतरंग भक्त भला इन अपशब्दों का कब बुरा माननेवाले थे। बाबा के इन शब्दों तथा वाक्यों को उन्होंने आर्शीवाद समझा। उन्होंने सोचा कि आज राम का जन्मदिन है, अतः रावण का नाश, अहंकार एवं दुष्ट प्रवृतिरुपी राक्षसों के संहार के लिये बाबा को क्रोध उत्पन्न होना सर्वथा उचित ही है। इसके साथ-साथ उन्हें यह विदित था कि जब कभी भी शिरडी में कोई नवीन कार्यक्रम रचा जाता था, तब बाबा इसी प्रकार कुपित या क्रुदृ हो ही जाया करते थे। इसलिये वे सब स्तब्ध ही रहे। इधर राधाकृष्णमाई भी भयभीत थी कि कही बाबा पालना न तोड़-फोड़ डालें, इसलिये उन्होंने काका महाजनी से पालना हटाने के लिए कहा। परन्तु बाबा ने ऐसा करने से उन्हें रोका। कुछ समय पश्चात् बाबा शांत हो गये और उस दिन की महापूजा और आरती का कार्यक्रम निर्विध्र समाप्त हो गया। उसके बाद काका महाजनी ने बाबा से पालना उतारने की अनुमति माँगी परन्तु बाबा ने अस्वीकृत करते हुये कहा कि अभी उत्सव सम्पूर्ण नहीं हुआ है। अगले दिन गोपाल काला उत्सव मनाया गया, जिसके पश्चात् बाबा ने पालना उतारने की आज्ञा दे दी। उत्सव में दही मिश्रित पौहा एक मिट्टी के बर्तन में लटका दिया जाता है और कीर्तन समाप्त होने पर वह बर्तन फोड़ दिया जाता है, और प्रसाद के रुप में वह पौहा सब को वितरित कर दिया जाता है, जिस प्रकार कि श्री कृष्ण ने ग्वालों के साथ किया था। रामनवमी उत्सव इसी तरह दिन भर चलता रहा। दिन के समय दो ध्वजों जुलूस और रात्रि के समय चन्दन का जुलूस बड़ी धूमधाम और समारोह के साथ निकाला गया। इस समय के पश्चात ही उरुस का उत्सव रामनवमी के उत्सव में परिवर्तित हो गया। अगले वर्ष (सन् 1912) से रामनवमी के कार्यक्रमों की सूची में वृदिृ होने लगी। श्रीमती राधाकृष्णमाई ने चैत्र की प्रतिपदा से नामसप्ताह प्रारम्भ कर दिया। (लगातार दिन रात 7 दिन तक भगवत् नाम लेना नामसप्ताह कहलाता है) सब भक्त इसमें बारी-बारी से भागों से भाग लेते थे। वे भी प्रातःकाल सम्मिलित हो जाया करती थीं। देश के सभी भागों में रामनवमी का उत्सव मनाया जाता है। इसलिये अगले वर्ष हरिदास के मिलने की कठिनाई पुनः उपस्थित हुई, परन्तु उत्सव के पूर्व ही यह समस्या हल हो गई। पाँच-छः दिन पूर्व श्री महाजनी की बाला बुवा से अकस्मात् भेंट होगी। बुवासाहेब अधुनिक तुकाराम के नाम से प्रसिदृ थे और इस वर्ष कीर्तन का कार्य उन्हें ही सौंपा गया। अगले वर्ष सन् 1913 में श्री हरिदास (सातारा जिले केबाला बुव सातारकर) बृहद्सिदृ कवटे ग्राम में प्लेग का प्रकोप होने के कारण अपने गाँव में हरिदास का कार्य नहीं कर सकते थे। इस वर्ष वे शिरडी में आये। काकासाहेब दीक्षित ने उनके कीर्तन के लिये बाबा से अनुमति प्राप्त की। बाबा ने भी उन्हें यथेष्ट पुरस्कार दिया। सन् 1914 से हरिदास की कठिनाई बाबा ने सदैव के लिये हल कर दी। उन्होंने यह कार्य स्थायी रुप से दासगणू महाराज के सौंप दिया। तब से वे इस कार्य को उत्तम रीति से सफलता और विदृतापूर्वक पूर्ण लगन से निभाते रहे। सन् 1912 से उत्सव के अवसर पर लोगों की संख्या में उत्तरोत्तर वृदि होने लगी। चैत्र शुक्ल अष्टमी से दृादशी तक शिरडी में लोगों की संख्या में इतनी अधिक वृदि हो जाया करती थी, मानो मधुमक्खी का छत्ता ही लगा हो। दुकानों की संख्या में बढ़ती हो गई। प्रसिदृ पहलवानों की कुश्तियाँ होने लगी। गरीबों को वृहद् स्तर पर भोजन कराया जाने लगा। राधाकृष्णमाई के घोर परिश्रम के फलस्वरुप शिरडी को संस्थान का रुप मिला। सम्पत्ति भी दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। एक सुन्दर घोड़ा, पालकी, रथ और चाँदी के अन्य पदार्थ, बर्तन, पात्र, शीशे इत्याति भक्तों ने उपहार में भेंट किये। उत्सव के अवसर पर हाथी भी बुलाया जाता था। यद्यपि सम्पत्ति बहुत बढ़ी, परन्तु बाबा उन सब से सदा साधारण वेशभूषा घारण करते थे। यह ध्यान देने योग्य है कि जुलूस तथा उत्सव में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही साथ-साथ कार्य करते थे। परन्तु आज तक न उनमें कोई विवाद हुआ और न कोई मतभेद ही। पहले पहल तो लोगों की संख्या 5000-7000 के लगभग ही होता थी। परन्तु किसी-किसी वर्ष तो यह संख्या 75000 तक पहुँच जाती थी। फिर भी न कभी कोई बीमारी फैली और न कोई दंगा ही हुआ ।


मसजिद का जीर्णोदृार

जिस प्रकार उरुस या मेला भराने का विचार प्रथमतः श्री गोपाल गुंड को आया था, उसी प्रकार मसजिद के जीर्णोदृार का विचार भी प्रथमतः उन्हें ही आया। उन्होंने इस कार्य के निमित्त पत्थर एकत्रित कर उन्हें वर्गाकार करवाया। परन्तु इस कार्य का श्रेय उन्हें प्राप्त नहीं होना था। वह सुयश तो नानासाहेब चाँदोरकर के लिये ही सुरक्षित था और फर्श का कार्य काकासाहेब दीक्षित के लिये। प्रारम्भ में बाबा ने इन कार्यों के लिये स्वीकृति नहीं दी, परन्तु स्थानीय भक्त म्हालसापति के आग्रह करने सा बाबा की स्वीकृति प्राप्त हो गई और एक रात में ही मसजिद का पूरा फर्श बन गया। अभी तक बाबा एक टाट के ही टुकड़े पर बैठते थे। अब उस टाट के टुकड़े को वहाँ से हटाकर, उसके स्थान पर एक छोटी सी गादी बिछा दी गई। सन् 1911 में सभामंडप भी घोर परिश्रम के उपरांत ठीक हो गया। मसजिद का आँगन बहुत छोटा तथा असुविधाजनक था। काकासाहेब दीक्षित आँगन को बढ़कर उसके ऊपर छप्पर बनाना चाहते थे। यथेष्ठ द्रव्यराशि व्यय कर उन्होंने लोहे के खम्भे, बल्लियाँ व कैंचियाँ मोल लीं और कार्य भी प्रारम्भ हो गया। दिन-रात परिश्रम कर भक्तों ने लोहे के खम्भे जमीन में गाड़े। जब दूसरे दिन बाबा चावड़ी से लौटे, उन्होंने उन खम्भों को उखाड़ कर फेंक दिया और अति क्रोधित हो गये। वे एक हाथ से खम्भा पकड़ कर उसे उखाड़ने लगे और दूसर हाथ से उन्होंने तात्या का साफा उतार लिया और उसमें आग लगाकर गड्ढे में फेंक दिया। बाबा के नेत्र जलते हुए अंगारे के सदृश लाल हो गये। किसी को भी उनकी ओर आँख उठा कर देखने का साहस नहीं होता था सभी बुरी तरह भयभीत होकर विचलित होने लगे कि अब क्या होगा। भागोजी शिंदे (बाबा के एक कोढ़ी भक्त) कुछ साहस कर आगे बढ़े, पर बाबा ने उन्हें धक्का देकर पीछे ढकेल दिया। माधवराव की भी वही गति हुई। बाबा उनके ऊपर भी ईंट के ढेले फेंकने लगे। जो भी उन्हें शान्त करने गया, उसकी वही दशा हुई।


कुछ समत के पश्चात् क्रोध शांत होने पर बाबा ने एक दुकानदार को बुलाया और एक जरीदार फेंटा खरीद कर अपने हाथों से उसे तात्या के सिर पर बाँधने लगे, जैसे उन्हें विशेष सम्मान दिया गया हो। यह विचित्र व्यवहार देखकर भक्तों को आश्चर्य हुआ। वे समझ नहीं पा रहे थे कि किस अज्ञात कारण से बाबा इतने क्रोधित हुए। उन्होंने तात्या को क्यों पीटा और तत्क्षण ही उनका क्रोध क्यों शांत हो गया। बाबा कभी-कभी अति गंभीर तथा शांत मुद्रा में रहते थे और बड़े प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया करते थे। परन्तु अनायास ही बिना किसी गोचर कारण के वे क्रोधित हो जाया करते थे। ऐसी अनेक घटनाएँ देखने में आ चुकी है, परन्तु मैं इसका निर्णय नहीं कर सकता कि उनमें से कौन सी लिखूँ और कौन सी छोडूँ। अतः जिस क्रम से वे याद आती जायेंगी, उसी प्रकार उनका वर्णन किया जायगा। अगले अध्याय में बाबा यवन हैं या हिन्दू, इसका विवेचन किया जायेगा तथा उनके योग, साधन, शक्ति और अन्य विषयों पर भी विचार किया जायेगा।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-5 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-5

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-5 

चाँद पाटील की बारात के साथ श्री साई बाबा का पुनः आगमन, 
अभिनंदन तथा श्री साई शब्द से सम्बोधन, 
अन्य संतों से भेंट, 
वेश-भूषा व नित्य कार्यक्रम, 
पादुकाओं की कथा, 
मोहिद्दीन के साथ कुश्ती, 
मोहिद्दीन का जीवन परिवर्तन, 
जल का तेल में रुपान्ततर, 
मिथ्या गरु जौहरअली।
 
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जैसा गत अध्याय में कहा गया है, मैं अब श्री साई बाबा के शिरडी से अंतर्दृान होने के पश्चात् उनका शिरडी में पुनः किस प्रकार आगमन हुआ, इसका वर्णन करुँगा।

चाँद पाटील की बारात के साथ श्री साई बाबा का पुनः आगमन 



जिला औरंगाबाद (निजाम स्टेट) के धूप ग्राम में चाँद पाटील नामक एक धनवान् मुस्लिम रहते थे। जब वे औरंगाबाद जा रहे थे तो मार्ग में उनकी घोड़ी खो गई। दो मास तक उन्होंने उसकी खोज में घोर परिश्रम किया, परन्तु उसका कहीं पता न चल सका। अन्त में वे निराश होकर उसकी जीन को पीट पर लटकाये औरंगाबाद को लौट रहे थे। तब लगभग 14 मील चलने के पश्चात उन्होंने एक आम्रवृक्ष के नीचे एस फकीर को चिलम तैयार करते देखा, जिसके सिर पर एक टोपी, तन पर कफनी और पास में एक सटका था। फकीर के बुलाने पर चाँद पाटील उनके पास पहुँचे। जीन देखते ही फकीर ने पूछा यह जीन कैसी। चाँद पाटील ने निराशा के स्वर में कहा क्या कहूँ मेरी एक घोड़ी थी, वह खो गई है और यह उसी की जीन है। 

फकीर बोले – थोड़ा नाले की ओर भी तो ढूँढो। चाँद पाटील नाले के समीप गये तो अपनी घोड़ी को वहाँ चरते देखकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि फकीर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, वरन् कोई उच्च कोटि का मानव दिखलाई पड़ता है। घोड़ी को साथ लेकर जब वे फकीर के पास लौटकर आये, तब तक चिलम भरकर तैयार हो चुकी थी। केवल दो वस्तुओं की और आवश्यकता रह गई थी। एक तो चिलम सुलगाने के लिये अग्नि और दितीय साफी को गीला करने के लिये जल की। फकीर ने अपना चिमटा भूमि में घुसेड़ कर ऊपर खींचा तो उसके साथ ही एक प्रज्वलित अंगारा बाहर निकला और वह अंगारा चिलम पर रखा गया। फिर फकीर ने सटके से ज्योंही बलपूर्वक जमीन पर प्रहार किया, त्योंही वहाँ से पानी निकलने लगा और उसने साफी को भिगोकर चिलम को लपेट लिया। इस प्रकार सब प्रबन्ध कर फकीर ने चिलम पी और तत्पश्चात् चाँद पाटील को भी दी। यह सब चमत्कार देखकर चाँद पाटील को बड़ा विस्मय हुआ। चाँद पाटील ने फकीर को अपने घर चलने का आग्रह किया। दूसरे दिन चाँद पाटील के साथ फकीर उनके घर चला गया। और वहाँ कुछ समय तक रहा। पाटील धूप ग्राम की अधिकारी था और बारात शिरडी को जाने वाली थी। इसलिये चाँद पाटील शिरडी को प्रस्थान करने का पूर्ण प्रबन्ध करने लगा। फकीर भी बारात के साथ ही गया। विवाह निर्विध्र समाप्त हो गया और बारात कुशलतापू्र्वक धूप ग्राम को लौट आई। परन्तु वह फकीर शिरडी में ही रुक गया और जीवनपर्यन्त वहीं रहा। 

फकीर को साई नाम कैसे प्राप्त हुआ



जब बारात शिरडी में पहुँची तो खंडोबा के मंदिर के समीप म्हालसापति के खेत में एक वृक्ष के नीचे ठहराई गई। खंडोबा के मंदिर के सामने ही सब बैलगाड़ियाँ खोल दी गई और बारात के सब लोग एक-एक करके नीचे उतरने लगे। तरुण फकीर को उतरते देख म्हालसापति ने आओ साई कहकर उनका अभिनन्दन किया तथा अन्य उपस्थित लोगों ने भी साई शब्द से ही सम्बोधन कर उनका आदर किया। इसके पश्चात वे साई नाम से ही प्रसिदृ हो गये। 

अन्त संतों से सम्पर्क 

शिरडी आने पर श्री साई बाबा मसजिद में निवास रहने लगे। बाबा के शिरडी में आने के पूर्व देवीदास नाम के एक सन्त अनेक वर्षों से वहाँ रहते थे। बाबा को वे बहुत प्रिय थे। वे उनके साथ कभी हनुमान मन्दिर में और कभी चावड़ी में रहते थे। कुछ समय के पश्चात् जानकीदास नाम के एक संत का भी शिरडी में आगमन हुआ। अब बाबा जानकीदास से वार्तालाप करने में अपना बहुत-सा समय व्यतीत करने लगे। जानकीदास भी कभी-कभी बाबा के स्थान पर चले आया करते थे और पुणताम्बे के श्री गंगागीर नामक एक पारिवारिक वैश्य संत भी बहुधा बाबा के पास आया-जाया करते थे। जब प्रथम बार उन्होंने श्री साई बाबा को बगीचा-सिंचन के लिये पानी ढोते देखा तो उन्हें बड़ा अचम्भा हुआ। वे स्पष्ट शब्दों में कहने लगे कि शिरडी परम भाग्यशालिनी है, जहाँ एक अमूल्य हीरा है। जिन्हें तुम इस प्रकार परिश्रम करते हुए देख रहे हो, वे कोई सामान्य पुरुष नहीं है। अपितु यह भूमि बहुत भाग्यशालिनी तथा महान् पुण्यभूमि है, इसी कारण इसे यह रत्न प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार श्री अक्कलकोटकर महाराज के एक प्रसिदृ शिष्य पधारे, उन्होंने भी स्पष्ट कहा कि यद्यपि बाहृदृष्टि से ये साधारण व्यक्ति जैसे प्रतीत होते है, परंतु ये सचमुच असाधारण व्यक्ति है। इसका तुम लोगों को भविष्य में अनुभव होगा। ऐसा कहकर वह येवला को लौट गये। यह उस समय की बात है, जब शिरडी बहुत ही साधारण-सा गाँव था और साई बाबा बहुत छोटी उम्र के थे। 

बाबा का रहन-सहन व नित्य कार्यक्रम 

तरुण अवस्था में श्री साई बाबा ने अपने केश कभी भी नहीं कटाये और वे सदैव एक पहलवान की तरह रहते थे। जब वे रहाता जाते (जो कि शिरडी से 3 मील दूर है)तो वहाँ से वे गेंदा, जाई और जुही के पौधे मोल ले आया करते थे। वे उन्हें स्वच्छ करके उत्तम भूमि खोदकर लगा देते और स्वंय सींचते थे। वामन तात्या नाम के एक भक्त इन्हें नित्य प्रति दो मिट्टी के घडे़ दिया करते थे। इन घड़ों दृारा बाबा स्वंय ही पौधों में पानी डाला करते थे। वे स्वंय कुएँ से पानी खींचते और संध्या समय घड़ों को नीम वृक्ष के नीचे रख देते थे। जैसे ही घड़े वहाँ रखते, वैसे ही वे फूट जाया करते थे, क्योंकि वे बिना तपाये और कच्ची मिट्टी का बने रहते थे। दूसरे दिन तात्या उन्हें फिर दो नये घड़े दे दिया करते थे। यह क्रम 3 वर्षों तक चला और श्री साई बाबा इसी स्थान पर बाबा के समाधि-मंदिर की भव्य इमारत शोभायमान है, जहाँ सहस्त्रों भक्त आते-जाते है। 

नीम वृक्ष के नीचे पादुकाओं की कथा



श्री अक्कलकोटकर महाराज के एक भक्त, जिनका नाम भाई कृष्ण जी अलीबागकर था, उनके चित्र का नित्य-प्रति पूजन किया करते थे। एक समय उन्होंने अक्कलकोटकर (शोलापुर जिला) जाकर महाराज की पादुकाओं का दर्शन एवं पूजन करने का निश्चय किया। परन्तु प्रस्थान करने के पूर्व अक्कलकोटकर महाराज ने स्वप्न में दर्शन देकर उनसे कहा कि आजकल शिरडी ही मेरा विश्राम-स्थल है और तुम वहीं जाकर मेरा पूजन करो। इसलिये भाई ने अपने कार्यक्रम में परिवर्तन कर शिरडी आकर श्री साईबाबा की पूजा की। वे आनन्दपूर्वक शिरडी में छः मास रहे और इस स्वप्न की स्मृति-स्वरुप उन्होंने पादुकायें बनवाई। शके सं. 1834 में श्रावण में शुभ दिन देखकर नीम वृक्ष के नीचे वे पादुकायें स्थापित कर दी गई। दादा केलकर तथा उपासनी महाराज ने उनका यथाविधि स्थापना-उत्सव सम्पन्न किया। एक दीक्षित ब्राहृमण पूजन के लिये नियुक्त कर दिया गया और प्रबन्ध का कार्य एक भक्त सगुण मेरु नायक को सौंप गया। 

कथा का पूर्ण विवरण 

ठाणे के सेवानिवृत मामलतदार श्री.बी.व्ही.देव जो श्री साईबाबा के एक परम भक्त थे, उन्होंने सगुण मेरु नायक और गोविंद कमलाकर दीक्षित से इस विषय में पूछताछ की। पादुकाओं का पूर्ण विवरण श्री साई लीला भाग 11, संख्या 1, पृष्ठ 25 में प्रकाशित हुआ है, जो निम्नलिखित है – शक 1834 (सन् 1912) में बम्बई के एक भक्त डाँ. रामराव कोठारे बाबा के दर्शनार्थ शिरडी आये। उनका कम्पाउंडर और उलके एक मित्र भाई कृष्ण जी अलीबागकर भी उनके साथ में थे। कम्पाउंडर और भाई की सगुण मेरु नायक तथा जी. के. दीक्षित से घनिष्ठ दोस्ती हो गई। अन्य विषयों पर विवाद करते समय इन लोगों को विचार आया कि श्री साई बाबा के शिरडी में प्रथम आगमन तथा पवित्र नीम वृक्ष के नीचे निवास करने की ऐतिहासिक स्मृति के उपलक्ष्य में क्यों न पादुकायें स्थापित की जायें। अब पादुकाओं के निर्माण पर विचार विमर्श होने लगा। तब भाई के मित्र कम्पाउंडर ने कहा कि यदि यह बात मेरे स्वामी कोठारी को विदित हो जाय तो वे इस कार्य के निमित्त अति सुन्दर पादुकायें बनवा देंगे। यह प्रस्ताव सबको मान्य हुआ और डॉ. कोठारे को इसकी सूचना दी गई। उन्होंने शिरडी आकर पादुकाओं की रुपरेखा बनाई तथा इस विषय में उपासनी महाराज से भी खंडोवा के मंदिर में भेंट की । उपासनी महाराज ने उस में बहुत से सुधार किये और कमल फूलादि खींच दिये तथा नीचे लिखा श्लोक भी रचा, जो नीम वृक्ष के माहात्म्य व बाबा की योगशक्ति का धोतक था, जो इस प्रकार है - 

सदा निंबवृक्षस्य मूलाधिवासात् 
सुधास्त्राविणं तित्तमप्यप्रियं तम्। 
तरुं कल्पवृक्षाधिकं साधयन्तं 
नमानीश्वरं सद्गगुरुं साईनाथम् ।। 

अर्थात् मैं भगवान साईनाथ को नमन करता हूँ, जिनका सानिध्य पाकर नीम वृक्ष कटु तथा अप्रिय होते हुए भी अमृत वर्षा करता था । (इस वृक्ष का रस अमृत कहलाता है) इसमें अनेक व्याधियों से मुक्ति देने के गुण होने के कारण इसे कल्पवृक्ष से भी श्रेष्ठ कहा गया है । 



उपासनी महाराज का विचार सर्वमान्य हुआ और कार्य रुप में भी परिणत हुआ। पादुकायें बम्बई में तैयार कराई गई और कम्पाउंडर के हाथ शिरडी भेज दी गई। बाबा की आज्ञानुसार इनकी स्थापना श्रावण की पूर्णिमा के दिन की गई। इस दिन प्रातःकाल 11 बजे जी.के. दीक्षित उन्हें अपने मस्तक पर धारण कर खंडोबा के मंदिर से बड़े समारोह और धूमधाम के साथ दृारका माई में लाये। बाबा ने पादुकायें स्पर्श कर कहा कि ये भगवान के श्री चरण है। इनकी नीम वृक्ष के नीचे स्थापना कर दो। इसके एक दिन पूर्व ही बम्बई के एक पारसी भक्त पास्ता शेट ने 25 रुपयों का मनीआर्डर भेजा। बाबा ने ये रुपये पादुकाओं की स्थापना के निमित्त दे दिये। स्थापना में कुल 100 रुपये हुये, जिनमें 75 रुपये चन्दे दृारा एकत्रित हुए। प्रथम पाँच वर्षों तक डॉ. कोठारे दीपक के निमित्त 2 रुपये मासिक भेजते रहे। उन्होंने पादुकाओं के चारों ओर लगाने के लिये लोहे की छडे़ भी भेजी। स्टेशन से छड़े ढोने और छप्पर बनाने का खर्च (7 रु. 8 आने) सगुण मेरु नायक ने दिये। आजकल जरबाड़ी (नाना पुजारी) पूजन करते है और सगुण मेरु नायक नैवेध अर्पण करते तथा संध्या को दीपक जलाते है। भाई कृष्ण जी पहले अक्कलकोटकर महाराज के शिष्य थे। अक्कलकोटकर जाते हुए, वे शक 1834 में पादुका स्थापन के शुभ अवसर पर शिरडी आये और दर्शन करने के पश्चात् जब उन्होंने बाबा से अक्कलकोटकर प्रस्थान करने की आज्ञा माँगी, तब बाबा कहने लगे, अरे अक्कलकोटकर में क्या है। तुम वहाँ व्यर्थ क्यों जाते हो। वहाँ के महाराज तो यही (मैं स्वयं) हैं यह सुनकर भाई ने अक्कलकोटकर जाने का विचार त्याग दिया। पादुकाएँ स्थापित होने के पश्चात् वे बहुधा शिरडी आया करते थे। श्री बी.व्ही, देव ने अंत में ऐसा लिखा है कि इन सब बातों का विवरण हेमाडपंत को विदित नहीं था। अन्यथा वे श्री साई सच्चरित्र में लिखना कभी नहीं भूलते। 

मोहिद्दीन तम्बोली के साथ कुश्ती और जीवन परिवर्तन 

शिरडी में एक पहलवान था, जिसका नाम मोहिद्दीन तम्बोली था। बाबा का उससे किसी विषय पर मतभेद हो गया। फलस्वरुप दोनों में कुश्ती हुई और बाबा हार गये। इसके पश्चात् बाबा ने अपनी पोशाक और रहन-सहन में परिवर्तन कर दिया। वे कफनी पहनते, लंगोट बाँधते और एक कपडे़ के टुकड़े से सिर ढँकते थे। वे आसन तथा शयन के लिये एक टाट का टुकड़ा काम में लाते थे। इस प्रकार फटे-पुराने चिथडे़ पहिन कर वे बहुत सन्तुष्ट प्रतीत होते थे। वे सदैव यही कहा करते थे कि गरीबी अब्बल बादशाही, अमीरी से लाख सवाई, गरीबों का अल्ला भाई। गंगागीर को भी कुश्ती से बड़ा अनुराग था। एक समय जब वह कुश्ती लड़ रहा था, तब इसी प्रकार उसको भी त्याग की भावना जागृत हो गई। इसी उपयुक्त अवसर पर उसे देव वाणी सुनाई दी भगवान के साथ खेल में अपना शरीर लगा देना चाहिये। इस कारण वह संसार छोड़ आत्म-अनुभूति की ओर झुक गया। पुणताम्बे के समीप एक मठ स्थापित कर वह अपने शिष्यों सहित वहाँ रहने लगा। श्री साई बाबा लोगों से न मिलते और न वार्तालाप ही करते थे। जब कोई उनसे कुछ प्रश्न करता तो वे केवल उतना ही उत्तर देते थे। दिन के समय वे नीम वृक्ष के नीचे विराजमान रहते थे। कभी-कभी वे गाँव की मेंड पर नाले के किनारे एक बबूल-वृक्ष की छाया में भी बैठे रहते थे। और संध्या को अपनी इच्छानुसार कहीं भी वायु-सेवन को निकल जाया करते थे। नीमगाँव में वे बहुधा बालासाहेब डेंगले के गृह पर जाया करते थे। बाबा श्री बालासाहेब को बहुत प्यार करते थे। उनके छोटे भाई, जिसका नाम नानासाहेब था, के दितीय विवाह करने पर भी उनको कोई संतान न थी। बालासाहेब ने नानासाहेब को श्री साई बाबा के दर्शनार्थ शिरडी भेजा। कुछ समय पश्चात उनकी श्री कृपा से नानासाहेब के यहाँ एक पुत्ररत्न हुआ। इसी समय से बाबा के दर्शनार्थ लोगों का अधिक संख्या में आना प्रारंभ हो गया तथा उनकी कीर्ति भी दूर दूर तक फैलने लगी। अहमदनगर में भी उनकी अधिक प्रसिदिृ हो गई। तभी से नानासाहेब चांदोरकर, केशव चिदम्बर तथा अन्य कई भक्तों की शिरडी में आगमन होने लगा। बाबा दिनभर अपने भक्तों से फिरे रहते और रात्रि में जीर्ण-शीर्ण मसजिद में शयन करते थे। इस समय बाबा के पास कुल सामग्री – चिलम, तम्बाखू, एक टमरेल, एक लम्बी कफनी, सिर के चारों ओर लपेट ने का कपड़ा और एक सटका था, जिसे वे सदा अपने पास रखते थे। सिर पर सफेद कपडे़ का एक टुकड़ा वे सदा इस प्रकार बाँधते थे कि उसका एक छोर बायें कान पर से पीठ पर गिरता हुआ ऐसा प्रतीत होता था, मानो बालों का जूड़ा हो। हफ्तों तक वे इन्हें स्वच्छ नहीं करते थे। पैर में कोई जूता या चप्पल भी नहीं पहनते थे। केवल एक टाट का टुकड़ा ही अधिकांश दिन में उनके आसन का काम देता था। वे एक कौपीन धारण करते और सर्दी से बचने के लिये दक्षिण मुख हो धूनी से तपते थे। वे धूनी में लकड़ी के टुकड़े डाला करते थे तथा अपना अहंकार, समस्त इच्छायें और समस्त कुविचारों को उसमें आहुति दिया करते थे। वे अल्लाह मालिक का सदा जिहृा से उच्चारण किया करते थे। जिस मसजिद में वे पधारे थे, उसमें केवल दो कमरों के बराबर लम्बी जगह थी और यहीं सब भक्त उनके दर्शन करते थे। सन् 1912 के पश्चात् कुछ परिवर्तन हुआ। पुरानी मसजिद का जीर्णोदार हो गया और उसमें एक फर्श भी बनाया गया। मसजिद में निवास करने के पूर्व बाबा दीर्घ काल तक तकिया में रहे। वे पैरों में घुँघरु बाँधकर प्रेमविहृल होकर सुन्दर नृत्य व गायन भी करते थे। 

जल का तेल में परिवर्तन



बाबा को प्रकाश से बड़ा अनुराग था। वे संध्या समय दुकानदारों से भिक्षा में तेल माँग लेते थे तथा दीपमालाओं से मसजिद को सजाकर, रात्रिभर दीपक जलाया करते थे। यह क्रम कुछ दिनों तक ठीक इसी प्रकार चलता रहा। अब बलिये तंग आ गये और उन्होंने संगठित होकर निश्चय किया कि आज कोई उन्हें तेल की भिक्षा न दे। नित्य नियमानुसार जब बाबा तेल माँगने पहुँचें तो प्रत्येक स्थान पर उनका नकारात्मक उत्तर से स्वागत हुआ। किसी से कुछ कहे बिना बाबा मसजिद को लौट आये और सूखी बत्तियाँ दियों में डाल दीं। बनिये तो बड़े उत्सुक होकर उन पर दृष्टि जमाये हुये थे। बाबा ने टमरेल उठाया, जिसमें बिलकुल थोड़ा सा तेल था। उन्होंने उसमें पानी मिलाया और वह तेल-मिश्रित जल वे पी गये। उन्होंने उसे पुनः टीनपाट में उगल दिया और वही तेलिया पानी दियों में डालकर उन्हें जला दिया। उत्सुक बिनयों ने जब दीपकों को पूर्ववत् रात्रि भर जलते देखा, तब उन्हें अपने कृत्य पर बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने बाबा से क्षमा-याचना की। बाबा ने उन्हें क्षमा कर भविष्य में सत्य व्यवहार रखने के लिये सावधान किया। 

मिथ्या गुरु जौहर अली 



उपयुक्त वर्णित कुश्ती के 5 वर्ष पश्चात जौहर अली नाम के एक फकीर अपने शिष्यों के साथ राहाता आये। वे वीरभद्र मंदिर के समीप एक मकान में रहने लगे। फकीर विदृान था। कुरान की आयतें उसे कंठस्थ थी। उसका कंठ मधुर था। गाँव के बहुत से धार्मिक और श्रदृालु जन उसके पास आने लगे और उसका यथायोग्य आदर होने लगा। लोगों से आर्थिक सहायता प्राप्त कर, उसने वीरभद्र मंदिर के पास एक ईदगाह बनाने का निश्चय किया। इस विषय को लेकर कुछ झगड़ा हो गया, जिसके फलस्वरुप जौहर अली राहाता छोड़ शिरडी आया और बाबा के साथ मसजिद में निवास करने लगा। उसने अपनी मधुर वाणी से लोगों के मन को हार लिया। वह बाबा को भी अपना एक शिष्य बताने लगा। बाबा ने कोई आपत्ति नहीं की और उसका शिष्य होना स्वीकार कर लिया। तब गुरु और शिष्य दोनों पुनः राहाता में आकर रहने लगे। गुरु शिष्य की योग्यता से अनभिज्ञ था, परंतु शिष्य गुरु के दोषों से पूर्ण से परिचित था। इतने पर भी बाबा ने कभी इसका अनादर नहीं किया और पूर्ण लगन से अपना कर्तव्य निबारते रहे और उसकी अनेक प्रकार से सेवा की। वे दोनों कभी-कभी शिरडी भी आया करते थे, परंतु मुख्य निवास राहाता में ही था। श्री बाबा के प्रेमी भक्तों को उनका दूर राहाता में ऱहना अच्छा नहीं लगता था। इसलिये वे सब मिलकर बाबा को शिरडी वापस लाने के लिये गये। इन लोगों की ईदगाह के समीप बाबा से भेंट हुई और उन्हें अपने आगमन का हेतु बतलाया। बाबा ने उन लोगों को समझाया कि फकीर बडे़ क्रोधी और दुष्ट स्वभाव के व्यक्ति है, वे मुझे नहीं छोडेंगे। अच्छा हो कि फकीर के आने के पूर्व ही आप लौट जाये। इस प्रकार वार्तालाप हो ही रहा था कि इतने में फकीर आ पहुँचे। इस प्रकार अपने शिष्य को वहाँ से न जाने के कुप्रत्यन करते देखकर वे बहुत ही क्रोध हुए। कुछ वादविवाद के पश्चात् स्थति में परिवर्तन हो गया और अंत में यह निर्णय हुआ कि फकीर व शिष्य दोनों ही शिरडी में निवास करें और इसीलिये वे शिरडी में आकर रहने लगे। कुछ दिनों के बाद देवीदास ने गुरु की परीक्षा की और उसमें कुछ कमी पाई। चाँद पाटील की बारात के साथ जब बाबा शिरडी आये और उससे 12 वर्ष पूर्व देवीदास लगभग 10 या 11 वर्ष की अवस्था में शिरडी आये और हनुमान मंदिर में रहते थे। देवीदास सुडौल, सुनादर आकृति तथा तीक्ष्ण बुदि के थे। वे त्याग की साक्षात्मूर्ति तथा अगाध ज्ञानी थे। बहुत-से सज्जन जैसे तात्या कोते, काशीनाथ व अन्य लोग, उन्हें अपने गुरु-समान मानते थे। लोग जौहर अली को उनके सम्मुख लाये। विवाद में जौहर अली बुरी तरह पराजित हुआ और शिरडी छोड़ वैजापूर को भाग गया। वह अनेक वर्षों के पश्चात शिरडी आया और श्री साईबाबा की चरण-वन्दना की। उसका यह भ्रम कि वह स्वयः गुरु था और श्री साईबाबा उसके शिष्य अब दूर हो चुका था। श्री साईबाबा उसे गुरु-समान ही आदर करते थे, उसका स्मरण कर उसे बहुत पश्चाताप हुआ। इस प्रकार श्री साईबाबा ने अपने प्रत्यक्ष आचरण से आदर्श उपस्थित किया कि अहंकार से किस प्रकार छुटकारा पाकर शिष्य के कर्तव्यों का पालन कर, किस तरह आत्मानुभव की ओर अग्रसर होना चाहिये। ऊपर वर्णित कथा म्हिलसापति के कथानुसार है। अगले अध्याय में रामनवमी का त्यौहार, मसजिद की पहली हालत एवं पश्चात् उसके जीर्णोंधार इत्यादि का वर्णन होगा। 

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।