सोमवार, 20 जनवरी 2025

कर्ण | महाभारत कथा | bal mahabhart katha | cbse 7th | hindi

महाभारत कथा - कर्ण


पांडवों ने पहले कृपाचार्य से और बाद में द्रोणाचार्य से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा पाई। उनको जब विद्या में काफ़ी निपुणता प्राप्त हो गई, तो एक भारी समारोह किया गया, जिसमें सबने अपने कौशल का प्रदर्शन किया। सारे नगरवासी इस समारोह को देखने आए थे। तरह-तरह के खेल हुए और हरेक राजकुमार यही चाहता था कि वही सबसे बढ़कर निकले। आपस में प्रतिस्पर्धा बड़े ज़ोर की थी, परंतु तीर चलाने में पांडु पुत्र अर्जुन का कोई सानी न था। अर्जुन ने धनुष-विद्या में कमाल का खेल दिखाया। उसकी अद्भुत चतुरता को देखकर सभी दर्शक और राजवंश के सभी उपस्थित लोग दंग रह गए। यह देखकर दुर्योधन का मन ईर्ष्या से जलने लगा। अभी खेल हो ही रहा था कि इतने में रंगभूमि के द्वार पर खम ठोंकते हुए एक रोबीला और तेजस्वी युवक मस्तानी चाल से आकर अर्जुन के सामने खड़ा हो गया। यह युवक और कोई नहीं, अधिरथ द्वारा पोषित कुंती-पुत्र कर्ण ही था, लेकिन उसके कुंती-पुत्र होने की बात किसी को मालूम न थी।

रंगभूमि में आते ही उसने अर्जुन को ललकारा- "अर्जुन! जो भी करतब तुमने यहाँ दिखाए हैं, उनसे बढ़कर कौशल मैं दिखा सकता हूँ। क्या तुम इसके लिए तैयार हो?"

इस चुनौती को सुनकर दर्शक मंडली में बड़ी खलबली मच गई, पर ईर्ष्या की आग से जलनेवाले दुर्योधन को बड़ी राहत मिली। वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने तपाक से कर्ण का स्वागत किया और उसे छाती से लगाकर बोला-"कहो कर्ण, कैसे आए? बताओ, हम तुम्हारे लिए क्या कर सकते हैं?"

कर्ण बोला- "राजन्! मैं अर्जुन से द्वंद्व युद्ध और आपसे मित्रता करना चाहता हूँ।"

कर्ण की चुनौती को सुनकर अर्जुन को बड़ा तैश आया। वह बोला- "कर्ण! सभा में जो बिना बुलाए आते हैं और जो बिना किसी के पूछे बोलने लगते हैं, वे निंदा के योग्य होते हैं।"

यह सुनकर कर्ण ने कहा- "अर्जुन, यह उत्सव केवल तुम्हारे लिए ही नहीं मनाया जा रहा है। सभी प्रजाजन इसमें भाग लेने का अधिकार रखते हैं। व्यर्थ डींगें मारने से फ़ायदा क्या? चलो, तीरों से बात कर लें!"

जब कर्ण ने अर्जुन को यों चुनौती दी, तो दर्शकों ने तालियाँ बजाईं। उनके दो दल बन गए। एक दल अर्जुन को बढ़ावा देने लगा और दूसरा कर्ण को। इसी प्रकार वहाँ इकट्ठी स्त्रियों के भी दो दल बन गए। कुंती ने कर्ण को देखते ही पहचान लिया और भय तथा लज्जा के मारे मूच्छित-सी हो गई। उसकी यह हालत देखकर विदुर ने दासियों को बुलाकर उसे चेत करवाया।

इसी बीच कृपाचार्य ने उठकर कर्ण से कहा- "अज्ञात वीर! महाराज पांडु का पुत्र और कुरुवंश का वीर अर्जुन तुम्हारे साथ द्वंद्व युद्ध करने के लिए तैयार है, किंतु तुम पहले अपना परिचय तो दो! तुम कौन हो, किसके पुत्र हो, किस राजकुल को तुम विभूषित करते हो? द्वंद्व युद्ध बराबर वालों में ही होता है। कुल का परिचय पाए बगैर राजकुमार कभी द्वंद्व करने को तैयार नहीं होते।" कृपाचार्य की यह बात सुनकर कर्ण का सिर झुक गया।

कर्ण को इस तरह देखकर दुर्योधन उठ खड़ा हुआ और बोला- "अगर बराबरी की बात है, तो मैं आज ही कर्ण को अंगदेश का राजा बनाता हूँ।" यह कहकर दुर्योधन ने तुरंत पितामह भीष्म एवं पिता धृतराष्ट्र से अनुमति लेकर वहीं रंगभूमि में ही राज्याभिषेक की सामग्री मँगवाई और कर्ण का राज्याभिषेक करके उसे अंगदेश का राजा घोषित कर दिया।

इतने में बूढ़ा सारथी अधिरथ, जिसने कर्ण को पाला था, लाठी टेकता हुआ और भय के मारे काँपता हुआ सभा में प्रविष्ट हुआ। कर्ण, जो अभी-अभी अंगदेश का नरेश बना दिया गया था, उसको देखते ही धनुष नीचे रखकर उठ खड़ा हुआ और पिता मानकर बड़े आदर के साथ उसके आगे सिर नवाया। बूढ़े ने भी 'बेटा' कहकर उसे गले लगा लिया। यह देखकर भीम खूब कहकहा मारकर हँस पड़ा और बोला "सारथी के बेटे, धनुष छोड़कर हाथ में चाबुक लो, चाबुक ! वही तुम्हें शोभा देगा। तुम भला कब से अर्जुन के साथ द्वंद्व युद्ध करने के योग्य हो गए?"

यह सब देखकर सभा में खलबली मच गई। इस समय सूरज भी डूब रहा था। इस कारण सभा विसर्जित हो गई। मशालों और दीपकों की रोशनी में दर्शक-वृंद अपनी-अपनी पसंद के अनुसार अर्जुन, कर्ण और दुर्योधन की जय बोलते जाते थे।

इस घटना के बहुत समय बाद एक बार इंद्र बूढ़े ब्राह्मण के वेश में अंग-नरेश कर्ण के पास आए और उसके जन्मजात कवच और कुंडलों की भिक्षा माँगी। इंद्र को डर था कि भावी युद्ध में कर्ण की शक्ति से अर्जुन पर विपत्ति आ सकती है। इस कारण कर्ण की ताकत कम करने की इच्छा से ही उन्होंने उससे यह भिक्षा माँगी थी।

कर्ण को सूर्यदेव ने पहले ही सचेत कर दिया था कि उसे धोखा देने के लिए इंद्र ऐसी चाल चलनेवाले हैं, परंतु कर्ण इतना दानी था कि किसी के कुछ माँगने पर वह मना कर ही नहीं सकता था। इस कारण यह जानते हुए भी कि भिखारी के वेश में इंद्र धोखा कर रहे हैं, कर्ण ने अपने जन्मजात कवच और कुंडल निकालकर भिक्षा में दे दिए।

इस अद्भुत दानवीरता को देखकर इंद्र चकित रह गए। कर्ण की प्रशंसा करते हुए बोले- "कर्ण, तुमसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जो भी वरदान चाहो, माँगो।"

कर्ण ने देवराज से कहा- "आप प्रसन्न हैं, तो शत्रुओं का संहार करनेवाला अपना 'शक्ति' नामक शस्त्र मुझे प्रदान करें!"

बड़ी प्रसन्नता के साथ अपना वह शस्त्र कर्ण को देते हुए देवराज ने कहा- "युद्ध में तुम जिस किसी को लक्ष्य करके इसका प्रयोग करोगे, वह अवश्य मारा जाएगा, परंतु एक ही बार तुम इसका प्रयोग कर सकोगे। तुम्हारे शत्रु को मारने के बाद यह मेरे पास वापस आ जाएगा।" इतना कहकर इंद्र चले गए।

एक बार कर्ण को परशुराम जी से ब्रह्मास्त्र सीखने की इच्छा हुई। इसलिए वह ब्राह्मण के वेश में परशुराम जी के पास गया और प्रार्थना की कि उसे शिष्य स्वीकार करने की कृपा करें। परशुराम जी ने उसे ब्राह्मण समझकर शिष्य बना लिया। इस प्रकार छल से कर्ण ने ब्रह्मास्त्र चलाना सीख लिया।

एक दिन परशुराम कर्ण की जाँघ पर सिर रखकर सो रहे थे। इतने में एक काला भौंरा कर्ण की जाँघ के नीचे घुस गया और काटने लगा। कीड़े के काटने से कर्ण को बहुत पीड़ा हुई और जाँघ से लहू की धारा बहने लगी, पर कर्ण ने इस भय से कि कहीं गुरुदेव की नींद न खुल जाए, जाँघ को जरा भी हिलाया-डुलाया नहीं। जब खून से परशुराम की देह भीगने लगी, तो उनकी नींद खुली। उन्होंने देखा कि कर्ण की जाँघ से खून बह रहा है। यह देखकर परशुराम बोले-"बेटा, सच बताओ, तुम कौन हो?" तब कर्ण असली बात न छिपा सका। उसने स्वीकार कर लिया कि वह ब्राह्मण नहीं, बल्कि सूत-पुत्र है। यह जानकर परशुराम को बड़ा क्रोध आया। अतः उन्होंने उसी घड़ी कर्ण को शाप देते हुए कहा- "चूँकि तुमने अपने गुरु को ही धोखा दिया है, इसलिए जो विद्या तुमने मुझसे सीखी है, वह अंत समय में तुम्हारे किसी काम न आएगी। ऐन वक्त पर तुम उसे भूल जाओगे और रणक्षेत्र में तुम्हारे रथ का पहिया पृथ्वी में धँस जाएगा।"

परशुराम जी का यह शाप झूठा न हुआ। जीवनभर कर्ण को उनकी सिखाई हुई ब्रह्मास्त्र- विद्या याद रही, पर कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन से युद्ध करते समय कर्ण को वह याद न रही। दुर्योधन के घनिष्ठ मित्र कर्ण ने अंत समय तक कौरवों का साथ न छोड़ा। कुरुक्षेत्र के युद्ध में भीष्म तथा आचार्य द्रोण के आहत हो जाने के बाद दुर्योधन ने कर्ण को ही कौरव-सेना का सेनापति बनाया था। कर्ण ने दो दिन तक अद्भुत कुशलता के साथ युद्ध का संचालन किया। आखिर जब शापवश उसके रथ का पहिया ज़मीन में धँस गया और वह धनुष-बाण रखकर ज़मीन में धँसा हुआ पहिया निकालने का प्रयत्न करने लगा, तभी अर्जुन ने उस महारथी पर प्रहार किया। माता कुंती ने जब यह सुना, तो उसके दुख का पार न रहा।

भीम | महाभारत कथा | bal mahabhart katha | cbse 7th | hindi

महाभारत कथा - भीम

पाँचों पांडव तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्र, जो कौरव कहलाते थे, हस्तिनापुर में साथ-साथ रहने लगे। खेलकूद, हँसी-मज़ाक सब में वे साथ ही रहते थे। शरीर-बल में पांडु का पुत्र भीम सबसे बढ़कर था। खेलों में वह दुर्योधन और उसके भाइयों को खूब तंग किया करता। यद्यपि भीम मन में किसी से वैर नहीं रखता था और बचपन के जोश के कारण ही ऐसा करता था, फिर भी दुर्योधन तथा उसके भाइयों के मन में भीम के प्रति द्वेषभाव बढ़ने लगा। इधर सभी बालक उचित समय आने पर कृपाचार्य से अस्त्र-विद्या के साथ-साथ अन्य विद्याएँ भी सीखने लगे। विद्या सीखने में भी पांडव कौरवों से आगे ही रहते थे। इससे कौरव और खीझने लगे। दुर्योधन पांडवों को हर प्रकार से नीचा दिखाने का प्रयत्न करता रहता था। भीम से तो उसकी ज़रा भी नहीं पटती थी। एक बार सब कौरवों ने आपस में सलाह करके यह निश्चय किया कि भीम को गंगा में डुबोकर मार डाला जाए और उसके मरने पर युधिष्ठिर-अर्जुन आदि को कैद करके बंदी बना लिया जाए। दुर्योधन ने सोचा कि ऐसा करने से सारे राज्य पर उनका अधिकार हो जाएगा।

एक दिन दुर्योधन ने धूमधाम से जल-क्रीड़ा का प्रबंध किया और पाँचों पांडवों को उसके लिए न्यौता दिया। बड़ी देर तक खेलने और तैरने के बाद सबने भोजन किया और अपने-अपने डेरों में जाकर सो गए। दुर्योधन ने छल से भीम के भोजन में विष मिला दिया था। सब लोग खूब खेले-तैरे थे, सो थक-थकाकर सो गए। भीम को विष के कारण गहरा नशा हो गया। वह डेरे पर भी न पहुँच पाया और नशे में चूर होकर गंगा-किनारे रेत में ही गिर गया। उसी हालत में दुर्योधन ने लताओं से उसके हाथ-पैर बाँधकर उसे गंगा में बहा दिया। लताओं से जकड़ा हुआ भीम का शरीर गंगा की धारा में बहता हुआ दूर निकल गया।

इधर दुर्योधन मन-ही-मन यह सोचकर खुश हो रहा था कि भीम का तो काम ही तमाम हो गया होगा। जब युधिष्ठिर आदि जागे और भीम को न पाया, तो चारों भाइयों ने मिलकर सारा जंगल तथा गंगा का वह किनारा, जहाँ जल-क्रीड़ा की थी, छान डाला। पर भीम का कहीं पता न चला। अंत में निराश होकर दुखी हृदय से वे अपने महल को लौट आए। इतने में ही क्या देखते हैं कि भीम झूमता-झामता चला आ रहा है। पांडवों और कुंती के आनंद का ठिकाना न रहा! युधिष्ठिर, कुंती आदि ने भीम को गले से लगा लिया। पर यह सब हाल देखकर कुंती को बड़ी चिंता हुई। उसने विदुर को बुला भेजा और अकेले में उनसे बोली- "दुष्ट दुर्योधन ज़रूर कोई-न-कोई चाल चल रहा है। राज्य के लोभ में वह भीम को मार डालना चाहता है। मुझे इसकी चिंता हो रही है।"

राजनीति-कुशल विदुर कुंती को समझाते हुए बोले- "तुम्हारा कहना सही है, परंतु कुशल इसी में है कि इस बात को अपने तक ही रखो। प्रकट रूप से दुर्योधन की निंदा कदापि न करना, नहीं तो इससे उसका द्वेष और बढ़ेगा।"

इस घटना से भीम बहुत उत्तेजित हो गया था। उसे समझाते हुए युधिष्ठिर ने कहा- " भाई भीम, अभी समय नहीं आया है। तुम्हें अपने आपको सँभालना होगा। इस समय तो हम पाँचों भाइयों को यही करना है कि किसी प्रकार एक-दूसरे की रक्षा करते हुए बचे रहें।"

भीम के वापस आ जाने पर दुर्योधन को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसको हृदय और जलने लगा।

कुंती | महाभारत कथा | bal mahabhart katha | cbse 7th | hindi

महाभारत कथा - कुंती

यदुवंश के प्रसिद्ध राजा शूरसेन श्रीकृष्ण के पितामह थे। इनके पृथा नाम की कन्या थी। उसके रूप और गुणों की कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई थी। शूरसेन के फुफेरे भाई कुंतिभोज के कोई संतान न थी। शूरसेन ने कुंतिभोज को वचन दिया था कि उनकी जो पहली संतान होगी, उसे कुंतिभोज को गोद दे देंगे। उसी के अनुसार शूरसेन ने कुंतिभोज को पृथा गोद दे दी। कुंतिभोज के यहाँ आने पर पृथा का नाम कुंती पड़ गया।

कुंती के बचपन में ऋषि दुर्वासा एक बार कुंतिभोज के यहाँ पधारे। कुंती ने एक वर्ष तक बड़ी सावधानी व सहनशीलता के साथ उनकी सेवा-सुश्रूषा की। उसकी सेवा-टहल से दुर्वासा ऋषि प्रसन्न हुए और उसे उपदेश दिया और बोले-"कुंतिभोज-कन्ये, तुम किसी भी देवता का ध्यान करोगी, तो वह अपने ही समान एक तेजस्वी पुत्र तुम्हें प्रदान करेगा।"

इस प्रकार सूर्य के संयोग से कुमारी कुंती ने सूर्य के समान तेजस्वी एवं सुंदर बालक को जन्म दिया। जन्मजात कवच और कुंडलों से शोभित वही बालक आगे चलकर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण के नाम से विख्यात हुआ। लेकिन अब कुंती को लोक-निंदा का डर हुआ। उसने बच्चे को छोड़ देना ही उचित समझा। इसलिए बच्चे को एक पेटी में बड़ी सावधानी के साथ बंद करके उसे गंगा की धारा में बहा दिया। बहुत आगे जाकर अधिरथ नाम के एक सारथी की नजर उस पर पड़ी। उसने पेटी निकाली और खोलकर देखा, तो उसमें एक सुंदर बच्चा सोता हुआ मिला। अधिरथ निःसंतान था। बालक को पाकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। सूर्यपुत्र कर्ण इस तरह एक सारथी के घर पलने लगा।

इधर कुंती विवाह के योग्य हुई। राजा कुंतिभोज उसका स्वयंवर रचा। उससे विवाह करने की छा से देश-विदेश के अनेक राजकुमार स्वयंवर आए। हस्तिनापुर के राजा पांडु भी स्वयंवर में टीक हुए थे। कुंती ने उन्हीं के गले में वरमाला ल दी। महाराज पांडु का कुंती से ब्याह हो या और वह कुंती सहित हस्तिनापुर लौट आए। उन दिनों राजवंशों में एक से अधिक ब्याह करने की प्रथा प्रचलित थी। इसी रिवाज के अनुसार पितामह भीष्म की सलाह से महाराज पांडु ने मद्रराज की कन्या माद्री से भी ब्याह कर लिया।

एक दिन महाराजा पांडु वन में शिकार खेलने गए। वहीं जंगल में हिरण के रूप में एक ऋषि-दम्पति भी विहार कर रहे थे। पांडु ने अपने तीर से हिरण को मार गिराया। उनको यह पता नहीं था कि ये ऋषि-दम्पति हैं। ऋषि ने मरते-मरते पांडु को शाप दिया। ऋषि के शाप से पांडु को बड़ा दुख हुआ, साथ ही वह अपनी भूल से खिन्न होकर नगर को लौटे और पितामह भीष्म तथा विदुर को राज्य का भार सौंपकर अपनी पत्नियों के साथ वन में चले गए और वहाँ पर ब्रह्मचारी जैसा जीवन व्यतीत करने लगे। कुंती ने देखा कि महाराज को संतान-लालसा तो है, लेकिन ऋषि के शापवश वह संतानोत्पत्ति नहीं कर सकते। अतः उसने विवाह से पूर्व दुर्वासा ऋषि से पाए वरदानों का पांडु से जिक्र किया।

उनके अनुरोध से कुंती और माद्री ने देवताओं के अनुग्रह से पाँच पांडवों को जन्म दिया। वन में ही पाँचों का जन्म हुआ और वहीं तपस्वियों के संग वे पलने लगे। अपनी दोनों स्त्रियों तथा बेटों के साथ महाराज पांडु कई बरस वन में रहे।

वसंत ऋतु थी। सारा वन आनंद में डूबा हुआ-सा प्रतीत हो रहा था। महाराज पांडु माद्री के साथ प्रकृति की इस उद्‌गारमय सुषमा को निहार रहे थे। ऋषि के शाप का असर हो गया। तत्काल उनकी मृत्यु हो गई। माद्री के दुख का पार न रहा। पति की मृत्यु का वह कारण बनी, यह सोचकर पांडु के साथ ही वह भी मर गई।

इस दुर्घटना से कुंती और पाँचों पांडवों के शोक की सीमा न रही। पर वन के ऋषि-मुनियों ने बहुत समझा-बुझाकर उनको शांत किया और उन्हें हस्तिनापुर ले जाकर पितामह भीष्म के सुपुर्द किया। युधिष्ठिर की उम्र उस समय सोलह वर्ष की थी। हस्तिनापुर के लोगों ने जब ऋषियों से सुना कि वन में पांडु की मृत्यु हो गई है, तो उनके शोक की सीमा न रही। पोते की मृत्यु पर शोक करती हुई सत्यवती अपनी दोनों विधवा पुत्रवधुओं- अंबिका और अंबालिका को साथ लेकर वन में चली गई। तीनों वृद्धाएँ कुछ दिन तपस्या करती रहीं और बाद में स्वर्ग सिधार गई। अपने कुल में जो छल-प्रपंच तथा अन्याय होने वाले थे, उन्हें न देखना ही संभवत: उन्होंने उचित समझा।