गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

श्रीमदभागवत् और सूरदास के 'भ्रमरगीतों' की तुलना कर स्पष्ट कीजिए कि सूरदास का भ्रमरगीत किन-किन बातों में मौलिक है। | SURDAS | BRAMARAGEETH

श्रीमदभागवत् और सूरदास के 'भ्रमरगीतों' की तुलना कर स्पष्ट कीजिए कि सूरदास का भ्रमरगीत किन-किन बातों में मौलिक है।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. भागवत की कथा

3. भागवतकार का उद्देश्य

4. श्रीमद्भागवत् और सूरदास के भ्रमरगीत के कथानक की तुलना

5. सूरदास की मौलिकता

6. सूरदास के तीन भ्रमरगीत

7. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

हिन्दी साहित्य में उपालम्भ काव्य के रूप में 'भ्रमरगीत' का विशेष महत्त्व है। 'भ्रमरगीत' शब्द 'अमर' और 'गीत' दोनो शब्दों के योग से बना है। 'भ्रमरगीत' शब्द का अर्थ - 'भ्रमर का गान' अथवा 'भ्रमर को लक्ष्य करके गाया हुआ गान' होता है।

'भ्रमरगीत' विप्रलम्भ श्रृंगार का काव्य है। कृष्ण गोपियों से प्रेम- क्रीडायें करके उनको अपने वियोग में तडपते छोड कर मथुरा चले जाते हैं। मथुरा में कंस का वध करके राज-काज में वे इतना अधिक व्यस्त हो जाते हैं कि उन को गोकुल लौटने का अवसर ही नहीं मिलता। वे अपने ज्ञानी मित्र उद्धव को गोकुल में माता-पिता, ग्बाल-बाल और गोपियों को सान्त्वना देने के लिए भेजते हैं। 'गोकुल में उद्धव का गोपियों से वाद-विवाद होता है। उस वादोपबाद में उद्धव हार जाते हैं और गोपियों की प्रमानुभूति में निमग्न होकर वे मयुरा लौट जाते है।

'भ्रमरगीत' का इतना ही सक्षिप्त और सीधा कथानक है। इसका मूल स्रोत श्रीमद्भागवत् है।

2. भागवत की कथा :

भागवत में कृष्ण उद्धव को ब्रज में जाकर माता- पित्ती की कुशल क्षेम जानने और उनको समझा बुझाकर प्रसन्न एवं संतुष्ट करने को प्रेरित करते हैं। साथ ही वे उद्धव को और बताते हैं कि वे गोपियों की वियोगावस्था का शमन करें और सान्त्वना प्रदान करें।

भागवत की गोपियाँ पहले कृष्ण की कुशलक्षेम पूछती हैं और तदुपरान्त उन्हें उपालम्य देती हुई विरह वेदना से व्याकुल हो रो पड़ती हैं। गोपियों के अनन्य प्रेम को देखकर उद्धव मुग्ध हो जाते हैं और उनकी प्रशंसा करने लगते हैं। उसी समय कहीं से एक भ्रमर उड़ता हुआ आता है और एक गोपी के पैर पर बैठ जाता है। वह गोपी भ्रमर को लक्ष्य कर पुरुष द्वारा प्रेम के क्षेत्र में विश्वासधात को लेकर उसकी भर्त्सना करती है। गोपियों की दृढ़ प्रेमासक्ति देख कर उद्धव का हृदय उनके प्रति श्रद्धा से भर जाता है। वे ज्ञान, योग, कर्म आदि की तुलना में गोपियों की इस एकान्तिक भक्ति भावना की प्रशंसा करते हैं।

3. भागवतकार का उद्देश्य :

'भागवत' के उद्धव गोपियों को ज्ञान और योग का उपदेश देने नहीं आते। वे गोपियों को ज्ञान, योग और निर्गुण का उपदेश देना प्रारम्भ नहीं करते।

'भ्रमरगीत' की रचना में भागवतकार का उद्देश्य ज्ञान और भक्ति का द्वन्दव दिखाने का नहीं था। भागवत में ज्ञान, कर्म और भक्ति का सामंजस्य हुआ है। भागवतकार के अनुसार कृण का मथुरा- गमन सोद्देश्य है। गोपियों के प्रेम की दृढता को और भी अधिक गम्भीर एव गहन बनाना भागवतकार व्यासजी का उद्देश्य रहा।

भागवत में कृष्ण गोपियों को एकांत भक्ति की चित साधना सिखाना चाहते हैं और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे मथुरा चले जाते हैं। भागवतकार का उद्देश्य केवल धर्म-साधना का है। गोपियों के चित में स्थिरता लाने के लिए ही कृष्ण जान बूझ कर ब्रज से मथुरा चले जाते हैं।

4. 'श्रीमद्भागवत्' और सूरदास के 'भ्रमरगीत' के कथानक की तुलना

भ्रमरगीत का मूलस्रोत श्रीमद्भागवत् दशम स्कन्ध पुर्वार्ध के ४६ वें अध्याय में है, पिता तथा गोपियों को सान्त्वना प्रदान करें। उस आदेश के अनुसार उद्धव ब्रज पहुँचते हैं। वे वहाँ जाकर प्रजभूमि की कला झाँकी का दर्शन करते हैं। ये नन्द और यशोदा से मिलते हैं। कुशल क्षेम के पश्चात नन्दबाबा तथा यशोदा दुःख निवदेन करते हैं। उन उनके भाग्य की सराहना करते हैं और फिर श्रीकृष्ण के आत्म स्वरूप होने पर एक व्याख्यान-सा देते हैं और बातें करते हुए रात्रि व्यतीत हो जाती है।

प्रातः काल गोपियों से उद्धव की भेंट होती है। वे कहती हैं "उन्होंने आप को माता पिता को सान्त्वना देने के लिए भेजा है। अब हम से क्या मतलब ?" बस, यहीं से उपालम्भ आरम्भ हो जाता है। गोपियाँ कृष्ण की लीलाओं का स्मरण करके ये उठती हैं। इसी समय एक भ्रमर आकर एक गोषी के पैर पर बैठ जाता है। उसी को संबोधित करके गोपियों पुरुषों द्वारा प्रेम में किये गये विश्वासघात को लक्ष्य बना कर उपालम्भ देती हैं।

उद्धव गोपियों की प्रेमानुभूति पर मुग्ध होते हैं और स्वयं व्रज रजकण होने की आकांक्षा प्रकट करते हैं जिससे वे प्राप्त कर सके। गोपियशान्त हो जाती हैं। कुछ महीनों बाद उपस जाने लगते ब्रजांगनाओं की चरणरज है तो गोपगण, नन्दबाबा, यशोदा आदि यही कहते हैं कि उन्हें मोक्ष की इच्छा नहीं है। वे सब यही चाहते हैं कि उन के मन की एक एक वृत्ति, एक एक संकल्प श्रीकृष्ण में ही लगे रहे।

सूरदास के उद्धव तो ब्रज जाने के लिए तैयार होते हैं। कृष्ण के मोह भरे वचनों को सुनकर वे मुस्कराते हैं और मन ही- मन ज्ञान-गर्व प्रकट करते हैं।

श्रीकृष्ण उद्धव से केवल सान्त्वना देने को ही नहीं कहते हैं, अपिंतु निर्गुण उपदेश की बात कहते हैं -

उद्धव ! यह मन निश्चय जानो।

पूरन ब्रह्मा सकल अविनासी ताके तुम हो ज्ञाता।

यह मत दै गोपिन कहँ आवउ॥

सूर की गोपियाँ मानों पहले से ही तैयार रहती हैं। वे उद्धव को आते ही घेर लेती हैं और मथुरा के यादवों पर व्यग्य करने लगती हैं।

“वह मथुरा काज की कोठरि जे आवें तो कारे।” सूरदास की गोपियाँ विकल और वाक्चतुरा हैं।

5. सूरदास की मौलिकता :

भागवतकार का उद्देश्य केवल धर्म साधना का है। कृष्ण गोपियें के चित में स्थिरता लाना चाहते हैं। भागवतकार के उद्धव गोपियों के कृष्ण प्रेम की सराहना करते हैं, जब कि सूरदास के उद्धव उनके कृष्ण प्रेम की निरर्थकता बताते हुए उन्हें ज्ञान और योग का उपदेश देने लगते हैं। गोपयिो के साथ उद्धव का उत्तर प्रत्युत्तर होता है। गोपियों की सरल निष्काम भक्ति के सामने उद्धव निरुत्तर एव पराजित से दिखाई देते हैं।

हम तौ दुहूँ भाँति फल पायौ।

जौ ब्रजराज मिलैं तो नीको नातरु जग जस गायौ।

गोपियों की प्रेम-बिह्नवलता को देखकर उद्धव गद्गद् हो जाते हैं और प्रेमाश्रुपूरित लौट कर कृष्ण के चरणों में गिर पड़ते हैं। कृष्ण अपने पीतमाम्बर से उनके आँसू पोंछकर उनकी दशा पूछते हैं।

प्रेम विह्नवल ऊधौ गिरे नैन जल छाय।

पोंछि पीत पर सों कही, आए जोग सिखाय।

मानो यही निर्गुण के ऊपर सगुण का, ज्ञान के ऊपर भक्ति की श्रेष्ठता और सरलता की प्रतिष्ठा है।

भ्रमरगीतसार में सूरदास ने नारी के तप और योग के स्थान पर उसके समर्पण और अनन्यता पर विशेष बल दिया है। उस सम्बन्ध में डॉ. उपाध्याय का कथन है- "पुराण और काव्य में जो अन्तर है वही भागवत और सूर के भ्रमरगीत में है।"

6. सूरदास के तीन भ्रमरगीत :

हिन्दी में सर्वप्रथम “भ्रमरगीत" रचने का श्रेय सूरदास को है। सूर के भ्रमरगीत में भागवत के भ्रमरगीत की अपेक्षा अनेक विशेषताएँ और मौलिकताएँ हैं।

सूरदास ने तीन भ्रमरगीतों की रचना की।

(क) प्रथम भ्रमर गीत : - सूरदास का प्रथम भ्रमरगीत भागवत के भ्रमरगीत का अनुवाद मात्र है। इसकी रचना दोहा, 'चौपाई' तथा 'सार' छन्द में है। इस में न तो सूर की नयी मान्यताएँ हैं या न ज्ञान वैराग्य की चर्चा ही।

(ख) द्वितीय भ्रमरगीत: :- सूर का द्वितीय भ्रमरगीत केवल एक ही पद में लिखा गया है। इस में उद्धव का गोपियों के प्रति उपदेश, गोपियों के उपालम्भ, उद्धव का मथुरा गमन एवं श्रीकृष्ण के समक्ष गोपियों के विरह का वर्णन तथा उसे सुन कर श्रीकृष्ण का मूर्च्छित हो जाना आदि सब एक ही छन्द में वर्णन किया गया है। इस में न तो भ्रमर का प्रवेश होता है और न गोपियाँ उपालम्भ ही देती हैं।

(ग) तृतीय भ्रमरगीत - सूर ने इस भ्रमरगीत को काव्यत्व का रूप प्रदान किया है। इस में कथा एवं भाव का क्रमबद्ध संयोजन है। इस काव्य में सूरदास भ्रमर के माध्यम से कृष्ण और उद्धव को मन भर कर उपालम्भ दिलाते हैं। अन्त में उद्धव के ज्ञानयोग और निर्गुणोपासना की पराजय होती है। सूरदास ने व्यास विरचित 'भ्रमरगीत' को परम्परानुसार - ग्रहण कर अपनी अद्भुत प्रतिभा से पूर्णता पहुँचा दी है।

7. उपसंहार

सूर के भ्रमरगीत का स्रोत व्यास विरचित भागवत तो है। सूर की कला में भगवत पुराण ने काव्यत्वका रुप धारण किया है। उन के युग में सगुण और निर्गुण की उपासना का भीषण द्वन्दव चल रहा था। सूरदास अपने भ्रमरगीत द्वारा निर्गुणोपासना का खण्डन करके साकारोपासना का प्रतिपादन किया है।

सूर के 'भ्रमरगीत' में ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को श्रेष्ठ सिद्ध किया गया है। ज्ञान का खंडन और भक्ति का मंडन हुआ है।

भ्रमरगीत की कथा और स्वरूप पर प्रकाश डालिए। | SURDAS | BRAMARAGEETH

भ्रमरगीत की कथा और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।

रूपरेखा :

1. संक्षिप्त कथा

2. श्रीकृष्ण का सन्देश

3. मूलस्रोत भागवत

4. काव्य का प्रतिपाद्य

5. प्रेमानुभूति

6. उपसंहार

1. संक्षिप्त कथा :

'भ्रमरगीत' सूरसागर की सर्वोत्कृष्ट रत्नराजि है। यह विप्रलम्भ श्रृगार का काव्य है। कृष्ण गोपियों से प्रेम- क्रीडाएँ करके उनको अपने वियोग में व्यथित होते छोड कर मथुरा चले जाते हैं। मथुरा में कंस का वध करके राजकाज में वे व्यस्त हो जाते हैं। अतः उनको गोकुल लौटने का अवसर नहीं मिलता। तब वे अपने ज्ञानी मित्र उद्धब को गोकुल में माता-पिता, बाल-बाल और गोपिय को सांत्वना देने के लिए भेजते हैं। गोकुल मे जाकर उद्धव का गोपियों से बाद विवाद होता है। उस वाद विवाद में उद्भव हार जाते हैं और गोपियों की प्रेम भावना में निमग्न हो कर वे मथुरा लौट जाते हैं।

2. श्रीकृष्ण का सन्देश

कृष्ण उद्धव को ब्रज में जाकर माता-पिता की कुशलक्षेम जानने और उनको सान्त्वना देकर सन्तुष्ट करने को प्रेरित करते हैं। साथ ही वे उद्धव से यह भी कहते हैं कि वे गोपियों को समझा-बुझा कर उनकी वियोग पीडा का शमन करें और सान्त्वना प्रदान करें।

3. मूलस्रोत भागवत :

भ्रमरगीत का मूल स्रोत व्यास विरचित श्रीमद्भागवत है। भागवतकार गोपी- उद्धव संवाद के बीच एक भ्रमर को ला देते हैं। भ्रमर उडता हुआ आता है और एक गोपी के चरण को कमल समझ कर उस पर बैठ जाता है। गोपियाँ उद्भव को छोड़कर उस भ्रमर के पीछे पड जाती हैं। भ्रमर को लक्ष्य करके वे कृष्ण औ उद्धव को खरी खोटी सुनाने लगती हैं। गोपियों के समक्ष उद्धव का सारा ज्ञान - गर्व चला जाता है। भागवत के उस मूल कथानक के आधार पर 'भ्रमरगीत' की रचना हुई हैं।

4. काव्य का प्रतिपाद्य : -

सूरदास के 'भ्रमरगीत सार' के साथ हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत की परम्परा आरम्भ होती है। ज्ञान के ऊपर भक्ति का विजय घोष इस काव्य की विशेषता है। तर्कशैली का परित्याग करके नाटकीय विधान एव सरस भाषा के आधार पर ज्ञानमार्ग की उपेक्षा भक्तिमार्ग की श्रेष्ठता भ्रमरगीत काव्य का प्रतिपाद्य विषय है।

प्रज्ञाशील कवि सूरदास गोपियों द्वारा भक्तिरस की मधुरता का प्रतिपादन कराते हैं। गोपियाँ अपने भोलेपन, अपनी सरलता एवं कृष्ण प्रेम की अनन्यता के द्वारा उद्धव जैसे ज्ञानी को निरुत्तर करके भक्तिरस में तन्मय भी करा देती हैं।

सुन गोपिन को प्रेम नेम ऊधो को भूल्यो।

गावत गुन गोपाल फिरत कुंजनि में भूल्यो।

छन गोपिन के पग धेरै धन्य तिहारो प्रेम।

कृष्ण का बाल्यकाल गोकुल में व्यतीत होता है। वहीं साथ- साथ खेलते-खाते और गायें चराते हुए उनका गोकुल के ग्वाल एवें वहाँ की ग्वालिनों से प्रेम हो जाता है। लडकपन का साहचर्य - प्रेम किसी भाव में नहीं छूट सकता हैं। इसी लिए उद्धव गोपियों की विवशता को समझ पाते हैं -

लरिकाई को प्रेम कहो अलि कैसे छूटे?

परिस्थितियों के वश में पडकर लडकपन के साथी बिछुड गये। एक दूसरे की याद करके वे सदैव दुःखी बने रहते हैं। बस, उनके वियोग की कथा ही 'भ्रमरगीत सार' का प्रतिपाद्य विषय है।

5. प्रेमानुभूति :

'भ्रमरगीत सार' में श्रीकृष्ण के बाल्यकाल एव यौवनकाल के मनोहर चित्र हैं। कृष्ण उद्धव के समक्ष अपने प्रेम की चर्चा करते हुए कहते हैं -

उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।

हंससुता की सुन्दर कगरी, अरु कुंजन की छाही।

वे सुरभी वै बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जाही।

यह मथुरा कंचन की नगरी मनि मुकताहल जाहीं।

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जबहिं सुरति आवृति वा सुख की जिय उमगत तम नाहीं।

गोपियों और कृष्ण का सम्बन्ध आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध के समान है। गोपियों के प्रेम में आत्मोत्सर्ग की भावना बढ़ती जाती है। कृष्णभक्ति में विह्वल हो गोपियाँ कहती हैं -

ऊधो, भन नाहीं दस बीस

एक हुतो सो गयो स्याम संग को आराधे ईस?

कृष्ण जब से मथुरा गये हैं, तब से गोपियों के नेत्रों में वर्षा आ जाती है। उनकी आँखें श्रावण - भादों के मेघों के रूप में बरसती रहती हैं। क्षण भर के लिए भी आँसू बन्द नहीं होते हैं -

निसि दिन बरसत नैन हमारे,।

सदा रहति पावस रितु हम पै, जब तैं स्याम सिधारे।

ट्टंग अंजन लागत नहिं कबहुँ, उर कपोल भए कारे।

कंचुकि पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे।

गोपियाँ अपनी विरह-वेदना के सम्बन्ध में ढिंढोरा पीटती हुई कहती हैं 'प्रीति करि काहू सुख न लहयौ'।

6. उपसंहार :

गोपियों की प्रेमतन्मयता को देखकर उद्धव का ज्ञान-गर्व चला जाता है और उनकी प्रेम भक्ति पर आस्था हो। जाती है। वे मथुरा लौटकर गोपियों की दशा का वर्णन करते हैं और कृष्ण को निष्ठुर बताते हैं। भागवत का उद्देश्य केवल धर्म साधना है। भगवत की कथा समस्त भ्रमरगीतों का आधार है। -

गोपियों के प्रेमानुभूति के सामने उद्धव निरुत्तर एवं पराजित- से दिखाई देते हैं। गोपियों की प्रेम दिहलता देख कर उद्धव गद्गद् हो जाते हैं। और प्रेमाश्रुपूरित लौट कर कृष्ण के चरणों में गिर पड़ते हैं। कृष्ण पीताम्बर से उन के आँसू पोछ कर उनकी दशा पूछते हैं।

प्रेम विह्वल ऊधो गिरे नैन जैल छाय

पोछि पीत पट सो कही, आए जोग सिखाय

यही निर्गुण के ऊपर सगुण का और ज्ञान के ऊपर भक्ति की श्रेष्ठता और सरलता की प्रतिष्ठा है।

भ्रमरगीत के अर्थ विस्तार पर चर्चा कीजिए। | SURDAS | BRAMARAGEETH

भ्रमरगीत के अर्थ विस्तार पर चर्चा कीजिए।

रूपरेखा

1. प्रस्तावना

2. भ्रमर का प्रतीकार्थ

3. भ्रमर प्रतीकार्थ कृष्ण

4. उपसंहार

1. प्रस्तावनाः भ्रमरगीत का अर्थ -

'भ्रमर' श्यामवर्ण का उडनेवाला एक जीव होता है। उड़ते समय वह गुंजार भी करता है। 'मधुवृत्त', 'मधुकर', 'मुधुप', 'अति', 'षटपद', 'चंचरीक', 'अलिंद', 'सारंग', 'भौरा', 'भृंग' आदि नामों से भी वह प्रसिद्ध है। उसके शरीर पर पीत रंग का एक सूत्र होता है। 'गीत' का अर्थ है- 'गाना'। अत: 'भ्रमरगीत' का शाब्दिक अर्थ होता है- 'भ्रमर का गाना' अथवा 'भ्रमर को लक्ष्य करके गाया हुआ गान'।

'भ्रमरगीत' शब्द 'भ्रमर' और गीत दो शब्दों के योग से होता है। हिन्दी साहित्य में उपालम्भ काव्य के रूप में 'भ्रमरगीत' का विशेष महत्व है।

2. भ्रमर का प्रतीकार्थः उद्धव :

काव्य में 'भ्रमर' शब्द का प्रयोग कृष्ण और उनके सखा उद्धव केलिए हुआ है। कृष्ण श्याम वर्ण के हैं और वे पीताम्बर धारण करते हैं। कृष्ण के मित्र उद्धव भी श्यामवर्ण के होकर पीताम्बरधारी भी हैं। उद्धव का वर्ण और बेष भ्रमर के समान है। साथ ही वे योगसाधना में रत रहकर कमल- संपुट में बन्द हो मौन- समाधि में मग्न होने वाले भ्रमर से साम्य रखते हैं। आत: 'भ्रमरगीत' काव्य में उद्धव को 'भ्रमर' के प्रतीकार्य में सम्बोधित किया गया है।

इस प्रकार 'भ्रमरगीत' का अर्थ "भ्रमर को लक्ष्य करके लिखा गया गान" माना गया है। भ्रमर के प्रतीकार्य में उद्धव को स्थापित करती हुई गोपियाँ कहती हैं

मधुकर! जानत है सब कोई

जैसे तुम औ मीत तुम्हारे, गुननि निगुन हो दोऊ।

पाये चोर हृदय के कपटी तुम कारे अस दोऊ।

3. भ्रमर का प्रतीकार्थः कृष्ण

भ्रमरगीत में कृष्ण को भ्रमर के प्रतीकार्य में बताया गया है। श्रीकृष्ण का वर्ण भ्रमर के समान श्याम है। वे पीताम्बरधारी हैं और भ्रमर के शरीर पर पीत चिह्न होते हैं। अपने स्वर गुंजार से भ्रमर लोगों के मन को मुग्ध करता है। श्रीकृष्ण अपने मनोहर मुरलीरव से सर्वजीवों को मोहित कर लेते हैं। जिस प्रकार भ्रमर एक पुष्प का प्रेम ठुकराकर दूसरे पुष्प पर चला जाता है, उसी प्रकार कृष्ण गोपियों के प्रेम को ठुकरा कर मथुरा चले जाते हैं। भ्रमर पुष्प - रस चुराता है तो कृष्ण गो - रस की चोरी करते हैं। पुष्प-रस का आस्वादन कर और फिर उसे ठुकरा कर भ्रमर शठता का व्यावहार करता है। श्रीकृष्ण गोपियों के साथ प्रेम करके उनको छोड जाते हैं। ऐसा करना भी शठता ही है।

कोउ कहै री। मधुप भेस उन्हीं को धारयो।

स्याम पीत गुजार बैन किकिन झनकारयौ।

वापुर गोरसि चोरि कै आयो फिरि यहि देश।

इनको जनि मानहु कोऊ कफरी इनको भेस चोरि जनि जा कछु।

जनि पहसहु मम पाँव रे हम मानत तुम चोर।

तुमही - रूप कपटी हुते मोहन नन्दकिशोर।

4. उपसंहार

इस प्रकार हम देखते हैं कि 'भ्रमर' श्रीकृष्ण और उद्धव दोनों के प्रतीकार्थ में प्रयुक्त हुआ है। डॉ. सत्येन्द्र के अनुसार 'भ्रमर' का अर्थ 'पति' अथवा 'नायक' माना जाता है। भ्रमर शब्द भी अर्थ - विकास की दृष्टि से भ्रमर नामक कीट से अर्थ विस्तार करके कृष्ण का पर्याय हुआ और तब पति का भी पर्याय हो गया। लोक गीतों में भी ‘भ्रमर' - ‘भ्रमर जी' हो कर पति के लिए रुढ़ हो गया है। श्रीकृष्ण गोपियों के परम पति और नायक हैं। 'भ्रमर' शब्द को पति या 'नायक' अर्थ में स्वीकार किया जाय तो 'भ्रमरगीत' का आशय होगा - "पति या नायक को लक्ष्य करके लिखा गया गान”।

हिन्दी - काव्य में कृष्ण, राधा और गोपियों के प्रेम-प्रसंग को लेकर उद्धव और भ्रमर के माध्यम से जो लिखा गया, वह सब 'भ्रमरगीत' क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। भ्रमर षटपद होता है। अतः भ्रमरगीत के लिए षटपदी छन्द विशेष है। इस छन्द में छः चरण होते हैं। लय और गति की दृष्टि से इसके प्रथम दो चरण अर्द्धाली के रूप में होते हैं। भ्रमरगीत लिखते समय सारे कवियों ने भ्रमरगीत - छन्दों को नहीं अपनाया। लेकिन भाव और कला दोनों ही दृष्टियों से भ्रमरगीत काव्य अत्यन्त महत्व रखता है।

ज्ञान पर प्रेम की, और मस्तिष्क पर हृदय की विजय दिखा कर निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना की अपेक्षा सगुण साकार ब्रह्म की भक्ति भावना की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करना भ्रमरगीत काव्य की विशेषता है। काव्य - रचना में कवि सूरदास का उद्देश्य भी यही है।

'विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं, कैसे? | विद्यापति की पदावली का मूल्यांकन कीजिए। | VIDYAPATHI | MIDHILI KOKILA | PAD

'विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं, कैसे?
                            (अथवा)
विद्यापति की पदावली का मूल्यांकन कीजिए।

रूपरेखा : -

1. प्रस्तावना

2. पदावली का रूप

3. पदावली की हस्तलिखित पोथियाँ

4. पदावली की भाषा

5. पदावली की विशेषता

6. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

यद्यपि विद्यापति लगभग एक दर्जन संस्कृत ग्रंथों की रचना की थी, तथापि उनकी प्रसिद्धि का खास कारण है उनकी पदावली। गाने योग्य छंद पद कहे जाते हैं। विद्यापति ने जितने छंद बनाए, सभी संगीत के सुर - लय से बँधे हुए - हैं। विद्यापति ने कविता में अपना आदर्श जयदेव को माना है - लोग इन्हें 'अभिनय जयदेव' कहते भी थे। अतः जयदेव - के ही समान वे संगीत - पूर्ण कोमलकांत पदावली में श्रृङ्गारिक रचना करते थे। जैसाकि पहले लिखा जा चुका है, दरभंगा के वर्तमान अधिपति के पूर्वपुरुष नरपति ठाकुर के समय में लोचन नामक एक कवि थे। उन्होंने अपनी 'रागतरंगिणी' नामक पुस्तक में लिखा है कि सुमति नामक एक कलाविद् कायस्थ कत्थक के लड़के जयत को राजा शिलसिंह ने विद्यापति के निकट रख दिया था। विद्यापति पद तैयार करते थे, जयत उसका 'सुर' ठीक करता था।

सुमति सुतोदय जन्मा जयतः शिवसिंहदेवेन।

पंडितवर कविशेखर विद्यापठये तु सन्यस्तः॥

बिना संगीत का मर्म जाने संगीत की रचना नहीं की जा सकती। मालूम होता है, विद्यापति स्वयं भी गान विद्या में पारंगत थे। विद्यापति के पदों में कहीं-कहीं छंदोभंग से दीख पड़ते हैं। किन्तु यथार्थतः ऐसी बात नहीं है। संगीत के सुर - लय के अनुसार जो पद बनाए जाते हैं, उनमें 'ध्वनि' का ही विचार किया जाता है, अक्षर और मात्रा का नहीं। इसी से संगीत से अपरिचित व्यक्तियों को पदों में छंदोभंग का आभास हो जाता है।

2. पदावली का रूप:

विद्यापति ने कितने पद रचे थे, इसका भी अभी तक पूरा पता नहीं चला है। श्री नगेंद्रनाथ गुप्त ने 945 पदों का संग्रह प्रकाशित किया था। बाबू ब्रजनंदन सहायजी का संग्रह इससे बहुत छोटा है, तथापि उसमें कुछ ऐसे पद हैं, जो गेन्द्रनाथ गुप्त वाले संस्करण में नहीं हैं। सहायजी के नए पदों में नचारियों की ही प्रधानता है। किन्तु अभी तक विद्यापति के बहुत से अनूठे पद अप्रकाशित ही हैं। मिथिला की स्त्रियाँ जिन पदों को विवाह के अवसर पर गाती हैं उनका तथा बहुत सी नचारियों का, अभी संकलन नहीं हुआ है।

पदावली के प्राचीन संस्करणों को देखने से पता चलता है, कि विद्यापति ने पदों की रचना विषय विभाग के अनुसार नहीं की थी। जब वे उमंग में आते थे, तब रचना कर डालते थे। पीछे लोगों ने उन्हें अलग - अलग विभाग कर सजा लिया।

3. पदावली की हस्तलिखित पोथियाँ :

यों तो विद्यापति के अधिकांश पद लोगों को कंठस्थ ही है और उन्हीं का संग्रह 'पदकल्पतरु' आदि बँगला के प्राचीन संग्रह ग्रंथों में है, किन्तु हाल में तीन प्राचीन हस्तलिखित मिले हैं, जिनसे विद्यापति के कितने नवीन पद प्राप्त हुए हैं, एवं पदावली की प्रामाणिकता का पूरा पता चला है।

उन ग्रंथों में सबसे प्राचीन और पौराणिक तालपत्र पर लिखी हुई एक पोथी है। यह पोथी भी विद्यापति लिखित 'भागवत' के साथ तरौनी ग्राम के स्वर्गीय पंडित लोकनाथ झा के घर में सुरक्षित पाई गई है। कहा जाता है कि विद्यापति के प्रपौत्र ने इसे लिखा था। इस पोथी की लिपि और उसके तालपत्र को देखने से मालूम होता है कि कम से कम तीन सौ वर्षे का यह प्राचीन है। लापरवाही से रखने के कारण यह पोथी जीर्ण शीर्ण हो गई। पहला और दूसरा पत्र गायन है। फिर नयाँ नहीं है. इसके बाद 81 से लेकर 99 पत्र एक बार ही नहीं है।

4. पदावली की भाषा :

पदावली की भाषा भी अब तक विवादग्रस्त रही है। बंगाली विद्यापति को बॅगला का प्रथम कवि या बंगभाषा का प्रवर्तक मानते हैं। इसीलिए उन्होंने विद्यापति को बंगाली सिद्ध करने की भी चेष्टा की थी। किन्तु अब तो यह सब प्रकार सिद्ध हो गया कि विद्यापति मैथिल थे। मैथिलों की एक खास बोली है - उसे मैथिली कहते हैं। विद्यापति भी मैथिल थे, अतः मैथिल लोग इन्हें अपनी बोली मैथिली का प्रथम कवि मानते हैं, यथार्थ में यही ठीक है। अतः मैथिल लोग इन्हें अपनी बोली मैथिली का प्रथम कवि मानते हैं, यथार्थ में यही ठीक है।

किन्तु यह मैथिली बोली किस भाषा की शाखा है - बंगभाषा की या हिन्दी भाषा की ? बाबू नगेन्द्रनाथ गुप्त ने मैथिली को ब्रजबोली (या हिन्दी) की एक शखा माना है। गुप्तजी 'प्राचीन विद्या महार्णव' कहे जाते हैं। उनका निर्णय अधिक मूल्य रखता है। अधिकांश विद्वानों की राय भी गुप्तजी से मिलती है। मिथिला बंग देश से सटी हुई है - विद्यापति का जन्म दरभंगे में हुआ था, जो द्वार बंग या बंगला का था। जिस प्रकार कोई हिन्दुस्तानी अँगरेजी पोशाक पहनकर अँगरेज नहीं बन जा सकता, उसी प्रकार मैथिली हिन्दी को छोड़कर बंगभाषी नहीं बन सकते। हाँ बंगभाषा के संसर्ग से इसमें मिठास अवश्य आ गई है।

पदावती की भाषा आजकल की मैथिती से कुछ भिन्न है। यह स्वाभाविक भी है। विद्यापति को हुए पाँच सौ वर्ष हुए। इन पाँच सौ वर्षों में भाषा में अवश्य कुछ न कुछ परिबर्तन होना सम्भव है। कुछ मैथिल महाशय विद्यापति के पदों की भाषा को तोड़ फोड़कर आजकल की मैथिली बोली से मिलाने का अनुचित प्रयत्न करते हैं।

विद्यापति की भाषा की दुर्दशा भी खूब हुई है। बंगालियों ने उसे ठेठ बंगला रूप दे दिया है, मौरंगवालों ने मॉरंग का रंग चढ़ाया है. बाबू ब्रजनंदन सहायजी ने उस पर भोजपुरी की कलई की है और आजकल के मैथिल उस पर अ मैथिली का रोगन चढ़ा रहे हैं। भगवान विद्यापति की कोमलकांत पदावली की रक्षा करें।

5. पदावली की विशेषता :

(क) भावपक्ष:

विद्यापति की पदावली अपना खास स्वरूप, अपना खास रंग-ढंग रखती है। वह कहीं भी रहे, आप उसे कितने ही कविताओं में छिपाकर रखिए, वह स्वयं चिल्ला उठेगी में हिन्दी कोकित की काकती हूँ। जिस प्रकार हजारों पक्षियों के कलरव को चीरती हुई, कोकित की काकती, आकाश पाताल को रसप्लावित करती, अलग से अलग अपना स्वतंत्र अस्तित्व प्रकट करती है, उसी प्रकार विद्यापति की कविता भी अपना परिचय आप देती है। बंगाल के यशोहर जिले में बसंत राय नामक एक कवि हो गये हैं। विद्यापति के पदों का प्रचार देखकर आपने भी विद्यापति के नाम से कविता करना प्रारंम्भ कर दिया था। किन्तु वे अपनी कविताएँ विद्यापति की कविता में नहीं खपा सके, विद्यापति की भाषा उनकी खास अपनी भाषा है, उनकी वर्णन प्रणाली उनकी खास वर्णन प्रणाली है, उनके भाव स्वयं उनके हैं। उनकी पदावली पर "खास की मुहर लगी हुई है। बंगाल के सैकड़ों कवियों ने इनके अनुकरण पर कविताएँ की। किन्तु कोई भी इनकी छाया न छू सके।

विद्यापति एक अजीब कवि हो गए हैं। राजा की गगनचुंची अट्टालिका से लेकर गरीबों की टूटी हुई फूस की झोपड़ी तक में उनके पदों का आदर है। भूतनाथ के मंदिर और 'कोहबर- घर' में इनके पदों का समान रूप से सम्मान है। कोई मिथिला में जाकर तमाशा देखे। एक शिवपुजारी डमरू हाथ में लिए, त्रिपुंड चढ़ाए, जिस प्रकार 'कखन हरब दुख मोर है भोलानाथ' गाते - गाते तनमय होकर अपने आपको भूल जाता है, उसी प्रकार कलकंठी कामिनियाँ नववधू को कोहबर में ले जाती हुई "सुंदरि चललिहुँ पहु- घर ना, जाइतहि लागु परम ढरना' गाकर नव वर-वधू के हृदयों को एक अव्यक्त आनन्द - स्रोत में डुबो देती हैं. जिस प्रकार नवयुवक "ससन - परस खसु अम्बर रे देखलि धनि देह" पढ़ता हुआ एक मधुर कल्पना से रोमांचित हो जाता है, उसी प्रकार एक वृद्ध "तातल सैकत बारिबुन्द सम सुत मित रमनि समाज, ताहे बिसारि मन ताहि समरपिनु अब मझु हब कौन काम, माधव, हम परिनाम निरासा" गाता हुआ अपने नयनों से शत शत अश्रुबूँद गिराने लगताहै। विद्वद्वर ग्रियर्सन का यह कहाना कितना कत्य है -

Even when the sun of Hindu - religion is set, when belief and faith in Krishna and in that medicine of 'disease of existence' the hymns of Krishna's love, is extinct, still the love borne for songs of Vidyapati in which be tells of Krishna & Radha will be never diminished.

डॉक्टर ग्रियर्सन के कथन का प्रमाण बंगाल में जाकर देखिए। सहस्र - सहस्र हिन्दू आज तक विद्यापति के राधा - कृष्ण विषयक पदों का कीर्तन करते हुए अपने आपको विस्मरण कर देते हैं। एक जगह पुनः आप लिखते हैं -

The glowing stanzas of Vidapati are read by the devout Hindu with a litte of the baser part of human sensousness as the songs of the Solomon by the Christian priests.

(ख) कलापक्षः :

विद्यापति की उपमाएँ अनूठी और अछूती हैं, उनकी उत्प्रेक्षाएँ कल्पना के उत्कृष्ट विकास के उदाहरण हैं, रूपक का इन्होंने रूप खड़ा कर दिया है। स्वभावोक्ति से इनकी सारी रचनाएँ ओत-प्रोत हैं, वृत्यानुप्रास इनके पदों का स्वाभाविक आभूषण है, प्रधान काव्यगुण प्रसाद और माधुर्य इनके पद पद से टपकते हैं, प्रकृति - वर्णन में तो इन्होंने कमाल किया है - इनका वसंत और पावस काल का वर्णन पढ़कर मंत्रमुग्ध हो जाना पड़ता है। इनके वसंत और पावस में मिथिला की खास छाप है। वसंत के समय में मिथिला की शस्यश्यामला मही जिस प्रकार अलंकृत और आभूषित हो जाती है, वह दर्शनीय है। पावस में, हिमालय निकट होने के कारण, यहाँ बिजलियाँ बड़ी जोर से कड़कती हैं प्रायः कुलिशपात होता है। विद्यापति ने इसका बड़ा ही अपूर्व वर्णन किया है। विद्यापति का मिलन और विरह का वर्णन भी देखने योग्य है। हिन्दी कवियों ने विरह के नाम पर, हाय-हाय का ही बवंडर उठाया है - उनके विरह वर्णन में, घनआनंद आदि दो - चार को छोड़कर, हृदय - वेदना का सूक्ष्म विश्लेषण प्रायः नहीं देखा जाता। विद्यापति का विरह - वर्णन प्रेमिका के हृदय की तस्वीर है- उसमें वेदना है, व्याकुलता है, प्रियतम के प्रति तल्लीनता है। कोरी हाय - हाय वहाँ है नहीं।

6. उपसंहार :

विद्वान राष्ट्रभाषा के प्रेमियों के निकट उपस्थित करते हुए विनम्र शब्दों में प्रार्थना करते हैं, कि जिस कविता की माधुरी पर मुग्ध होकर महाप्रभु चैतन्य देव गाते - गाते मूर्च्छित हो जाते थे, जिस कविता की खूबियों पर विदेशी विद्वान् ग्रियर्सन लोट- पोट थे, जिस कविता के एकमात्र आधार पर मैथिली बोली आज कलकत्ता विश्वविद्यालय में वह स्थान प्राप्त कर सकी है, जिस स्थान की प्रप्ति के लिए हिन्दी भाषी प्रांतों के विश्वविद्यालय में ही, माँ हिन्दी तड़प रही है, हिन्दी के जयदेव, मैथिल - कोकिल विद्यापति की उस कविता को - उस कोमल - कांत - पदावली को - आप उपेक्षा की दृष्टि से न देखिए। हिन्दी में क्या नहीं है - सूर्य है, चंद्र है, तारे हैं, एक नवीन 'नभमंडल' भी प्राप्त हुए हैं, किन्तु आपका काव्योद्यान आज कोकिलविहीन है - नहीं कोकिल है अवश्य, किन्तु आप अभी तक अनजाने उसे भूले हुए हैं। अहा हा ! सुनिए, सुनिए उस कोकिल की वह काकली। देखिए काव्य - उद्यान का वसंत प्रभात। मैथिल कोकिल विद्यापति की देन हिन्दी साहित्य के लिए अनुपम देन है।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | कहा मानसर चाह सो पाई, पारस - रूप इहाँ लगि आई। | JAYASI | PADMAVATH

जायसी - मानसरोदक खण्ड 


(8)

कहा मानसर चाह सो पाई, पारस - रूप इहाँ लगि आई।

भा निरमल तिन्ह पायन्ह परसें, पावा रूप रूप के दरसें।

मलय - समीर बास तृन आई, भा सीतल, गौ तपपिन बुझाई।

न जनौं कौनु पौन लेइ आवा, पुन्य दसा भै पाप गँवावा।

तनखन हार बेगि उतिराना, पावा सखिन्ह चन्द बिहँसाना।

बिगसे कुमुद दखि ससिरेखा, भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा।

पावा रूप रूप जस चहा, ससि-मुख जनु दरपन होई रहा।

नयन जो देखा कवँल भा, निरमल नीर सरीर।

हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर।

शब्दार्थ:

भा = हुआ । पुन्नि = पुप्य की । ततरवन = तत क्षण । उतिराना भावार्यः = तैर आया। निरमर = निर्मल ।

भावार्यः

मानसरोवर ने कहा मैं जिसे चाहता था, वह मुझे पा गई। पारस रूपी पद्मावती मेरे यहाँ आ पाई। उसके चरण स्पर्श से मैं निर्मल हो गया। उसके रूप दर्शन से मेरा भी स्वच्छ रूप हुआ। उसके शरीर से मलयानिल की सुगन्धि आयी, उसके स्पर्श से मैं भी शीतल हो गया और मेरा ताप बुझ गया। न जाने कौन सी वायु चली जो इसे यहाँ ले आयी, मेरी पुण्य की दशा हुई और पाप नष्ट हो गये। उसी क्षण शीघ्रता से हार उत्पर तैर आया और सखियों को मिल गया। उसे देख कर चन्द्रमा रूपी पद्मावती हँस पडी।

चन्द्रमारूप पद्मावती की मुस्कान देखकर कुमुदिनी रूप सखियाँ भी मुस्कराने लगीं। पद्मावती ने जहाँ - जहाँ जो - जो देखां वह सब उसके रूप के समान ही बना। अन्य वस्तुओं के रूप भी पद्मावती के मुख के समान हुए। इस तरह पद्मावती के मुख के लिए सारे पदार्थ मानो दर्पण हे रहे थे। सब मे पद्मावती का ही रूप चमकता था।

पद्मावती का मुख सरोवर की वस्तुओं में प्रतिबिम्बित होकर दिखलाई देता था। कविवर जायसी यहाँ पदमावती की रूप- विशेषता प्रकट करते हैं। पदमावती के नेत्र सरोवर में कमलों के रूप में पतिबिम्बित थे। उसका शरीर ही सरोवर में • प्रतिबिंबित निर्मल जल था। उसका हास ही मानो सरोवर में प्रतिबिम्बित हंस थे। उसके दाँत सरोवर में नग और हीरों के रूप में प्रतिबिम्बित हो रहे थे।

विशेषताः

1. यहाँ परमात्मा का विश्व - प्रतिबिम्बि भाव व्यक्त होता है।

2. पद्मावती के परमात्मा तत्व की चर्चा हुई है।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | सखी एक तेइँ खेल न जाना, चेत मनिहार गँवाना | JAYASI | PADMAVATH

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(7).

सखी एक तेइँ खेल न जाना, चेत मनिहार गँवाना

कवॅल डार गहि भै बेकरारा, कासौं पुकारौं आपन हारा

कित खेलै आइउँ एहि साथा, हार गँवाइ चलिउँ लेइ हाथा

घर पैठत पूछब यहि हारू, कौनु उत्तर पाउब पैसारू

नेन सीप आँसुन्ह तस भरे, जानौ मोति गिरहि सब ढरे

सखिन कहा वौरी कोकिला, कौन पानि जोहि पौन न मिला?

हारु गँबाइ सो ऐसे रोबा, हेरि हेराइ लेहु जौं खोवा

लागीं सब मिलि हेरे, बूड़ि बूड़ि एक साथ

कोइ उठी मोती लेइ, घोंघा काहू हाथ

शब्दार्थ:

तेइ = वह । बेकरारा = व्याकुल । पैसारू = प्रवेश । पैठत = घुसते ही । औसेहि = ऐसेही । हेरि = ढूँढना । हेराई = ढूँढवाना।

भावार्थ

एक सखी उस खेल को नहीं जानती थी। उसका हार खो गया तो वह बेसुध हो गई। कमल की नाल पकड कर वह व्याकुल हो गई और कहने लगी, "मैं अपने हार का विषय किस से पुकारूँ? मैं इनके साथ खेलने ही क्यों आयी थीं जो कि स्वयं अपने हाथों से अपना हार खो बैठी। घर में घुसते ही इस हार के विषय में पूछा जायेगा तो फिर क्या उत्तर देकर प्रवेश कर पाऊँगी ?” उसके नेत्र रूपी सीपी में आँसू भरे हुए थे। वे सीपी से मोती गिरते जैसे लगते थे। सखियों ने कहा र “हे भोली कोयल। ऐसा कौन - सा पानी है जिसमें पवन न मिली हो । सुख-दुख अथवा अच्छाई - बुराई सर्वत्र व्याप्त हैं। खेल की अच्छाई के साथ हार खोने की बुराई भी वैसे ही मिली हुई है। हार खोनेवाला ऐसा ही रोता है। खोये हुए हार को ढूँढ लो अथवा हम से ढूँढ़वा लो।

वे सब मिल करके ढूँढ़ने लगीं और एक साथ ही सब डुबकी लगाने लगी। किसी के हाथ में मोती आया और उसे लेकर ही ऊपर उठी और किसी के हाथ में घोंघा ही लगा।

विशेषताः

1. जायसी यहाँ साधना में होने विघ्नों की और संकेत करते हैं।

2. उपमा तथा छेकानुप्रास अलंकार प्रयुक्त हुए हैं।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | लागी केलि करै मॅझ नीरा, हंस लजाइ बैठ ओहि तीरा | JAYASI | PADMAVATH

जायसी - मानसरोदक खण्ड 

(6)

लागी केलि करै मॅझ नीरा, हंस लजाइ बैठ ओहि तीरा

पदमावति कौतुक कहँ राखी, तुम ससि होहु तराइन साखी

बाद मेलि के खेल पसारा, हारु देइ जौ खेलत हारा

सॅबरिहि साँबरि गोरिहि गोरी आपनि आपनि लीन्हि सो जोरी

बूझि खेल खेलहु एक साथा, हारु न हइ पराये हाथा

आजुहि खेल बहुरि कित हुई, खेल गये कित खेलै कोई

धनि सो खेल सो पैमा, उइताई और कूसल खेमा?

मुहमद बाजी प्रेम कै, ज्यों भावै त्यों खेल

तिल फूलहि के ज्यों, होइ फुलायल देल

शब्दार्थ:

मँझ = मध्य । बादि = बाजी, मेलिलगाकर । हारु = हार । हारा = हार जाय। रैताई = प्रभुताई । कुसल = कुशल | रवेमा = क्षेम | बारि = जल | परेम = प्रेम । तील = तिल । फुलाएल = फुलेल (सुगन्धि)।

भावार्थः

पद्मावती एवं सखियाँ जल के बीच क्रीडा करने लगीं। उनकी मनोहर क्रीडा देख कर हंस लज्जित होकर किनारे पर बैठ गया। सखियों ने पदमावती को कौतुक देखनेवाली के रूप में बिठाकर कहा, “तुम शशि के रूप में हम तारागण की साक्षी हो कर रहो। फिर उन्होंने बाजी लगाकर खेलना शुरू किया- खेलने में जो हार जाय, वह अपना हार देदे। साँवली ने साँवली के साथ और गोरी ने गोरी के साथ अपनी-अपनी जोडी बनाली थी। समझ बूझ कर एक साथ खेल खेल खेलें, जिस से अपना हार दूसरे के हाथ न जाये। आज ही तो खेल है। फिर यह खेल कहाँ होगा ? खेल के समाप्त हो जाने पर, फिर कोई कहाँ खेलता है ? वह खेल धन्य है जो प्रेम के आनन्ध से युक्त हो। (ससुराल में) प्रभुताई और कुशल क्षेम एक साथ नहीं रह सकते।

मलिक मुहम्मद जायसी कहते हैं, "प्रेम के जल में जैसा भावे, वैसा ही खेलो। जिस प्रकार तिल फूलों के साथ मिलकर सुगन्लित तेल बन ही जाते हैं उसी तरह बाजी खेलनी हैं। जैसे भाव वैसे ही प्रेम की बाजी खेलो।"

विशेषताएँ :

यहाँ समासोक्ति अलंकार प्रयुक्त हुआ है।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | घरीं तीर सब कंचुकि सारी, सरवर महँ पैठी सब बारी | JAYASI | PADMAVATH

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(5)

घरीं तीर सब कंचुकि सारी, सरवर महँ पैठी सब बारी

पाइ नार जानौं सब बेली, हुलसहिं करहि काम कै केली

करिल केस बिसहर बिस - भरे लहरै लेहि कवैल मुख धरे

नवल बसन्त सँवारी करीं, होई परगट चाहहि रसभरीं

उठीं कोंप जस दायिँ दाखा, भइ ओनंत प्रेम कै साखा

सरिवर नहिं समाइ संसारा, चाँद नहाइ पैठ लेइ तारा

धनि सो नीर ससि तरई ऊई, अब कित दीठ कवॅल और कूई

चकई बिछुरि पुकारै, किहाँ मिलौ हो नाहँ।

एक चाँद निसि सरग महँ, दिन दूसर जल माहँ।

शब्दार्थ:

कंचुकि = चोली | बारी = बालाएँ। बेलीं = बेलें, लताएँ। हुलसी = प्रसन्न हुई। नवल = नया । करिल = काले। बिसहर = सर्प । कोंप = कोंपल । ओनंत = झुकना । उईं = उदित हुई। कुई कुमुदिनी। सरग = आकाश।

भावार्थ:

पद्मावती और सखियों ने छिपी हुई अपनी चोलियाँ किनारे पर रख दीं और सब बालाएँ तालाब में घुस गईं। वे सच ऐसे प्रसन्न हुई जैसे लताओं ने जल पा लिया हो। वे सब आनन्दित हुई और काम की क्रीहाएँ करने लगीं। उनके काले काले बाल ऐसे प्रतीत होते थे मानो बिषैले सर्प हों और केश के पास सुन्दर मुख ऐसा लगता ता कि सर्पोड ने अपने मुख में कमल को पकड रखा हो और सब लहराते फिर रहे हो। उनके आधर ऐसे लगते थे मानो आनार और दाख की कोमल कोंपल निकल रही हों। उनके वक्ष स्थल पर थोडे उभरे हुए उरोज प्रकट करते थे मानो उनकी आयु के नये वसन्त ने कलियों को पैदा करदिया हो और थे कलियाँ रसपूर्ण होकर पूर्ण यौवन के रूप में प्रकट होना चाहती हों। किंचित झुकी हुई बालाएँ ऐसी लगती तीं प्रेम की शाखा ही झुक गई। प्रसन्नता के मारे सरोवर फूला हुआ था। अब वह संसार में नहीं समाता क्यों कि पद्मावती रूपी चन्द्रमा अपनी सखियों साथ उसमें नहा रहा है। वह जल धन्य है जहाँ चन्द्रमा और नक्षत्र उदित हो गये। अब वहाँ कमल और कुमुदिनी कहाँ दिखाई पडते हैं ?

चकवी चकवे से बिछुड कर पुकारती है, "हे नाथ! तुम कहाँ मिलोगे ! एक चन्दुमा तो रात्रि को स्वर्ग में रहता है और दूसरा दिन में जल में रहता है।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | सरवर तीर पदुमिनी आई, खोंपा छोरि केस मुकलाई | JAYASI | PADMAVATH

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(4)

सरवर तीर पदुमिनी आई, खोंपा छोरि केस मुकलाई

ससि-मुख अंग मलयगिरि बासा, नागिन झाँपि वीन्ह चहुँ पासा

ओनये मेघ परी जग छाहाँ, ससि कै सरन लीन्ह जनु राहाँ

छपि गौ दिनहि भानु कै दसा, लेइ निसि नखंत चाँद परगसा

भलि चकोर दीठि मुख लावा, मेघ घटा महँ चन्द देखावा

दसन दामिनी कोकिल भाखी, भौंहें धनुखं गगन लेइ राखी

सरवर रूप बिमोहा, हियें हिलोरहि लेइ

पावँ छुवै मकु पावौं, येहि मिस लहरैं देइ

शब्दार्थ 

खोंपा = जूडा। छोरि = खोलकर । मोकराई = फैलाया। अरधानी = सुगन्धि के लिए। ओनए = छाजाने से। राहाँ = रहुने | दिस्टि = दृष्टिं | विमोहा = मोहित हो गया । मकु = स्यात | मिसु = बहाने से।

भावार्थ:

पदिमनी जाति की वे स्त्रियाँ सरोवर के किनारे आयी और अपने जूडे खोलकर बालों को फैला दिया। पद्मावती रानी का मुख चन्द्रमा के समान और शरीर मलयाचल की भाँति है। उस पर बिखरे हुए बाल ऐसे लगते हैं जैसे सर्पों ने सुगंध के लिए उसे ढ़क लिया हो। फिर ऐसा लगता है कि वे बाल मानो मेघ ही उमड आये हों जिससे सारे जगत में छाया फैल गयी। मुख के समीप बाल ऐसे लगते हैं मानो राहुने चन्द्रमा की शरण लेली हो। केश इतने घने और काले हैं कि दिन होते हुए भी सूर्यका प्रकाश छिंप गया है। और चन्द्रमा रात में नक्षत्रों को लेकर प्रकट हो गया। चकोर भूल कर उस ओर लगा रहा क्यों कि उसे मेघों की घटा के बीच पद्मावती का मुख रूपी चन्द्रमा दिखाई दे रहा पद्मावती के दाँत बिजलीके समान चमकीले थे और वह कोयल के समान मधुर भाषिणी थी। भौंहें ओकाश में इन्प्रधनुषलग रही थीं . नेत्र क्रीडाकरनेवाले खंजन पक्षी लग रही थीं।

मानसरोवर पद्मावती के रूप को देख कर मोहित हो गया। हृदय में वह कामना रूपी लहरें भरने लगा। लहरें पद्माती के चरणों को स्पर्श करने के बहाने उभर रही थी।

विशेषताएँ:

यहाँ उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा और भ्रान्तिमान अलंकार प्रयुक्त हुए है।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | मिलहिं रहसि सब चढ़हि हिडोरी झूलि लेहि सुख बारी भोरी।

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(3)

मिलहिं रहसि सब चढ़हि हिडोरी झूलि लेहि सुख बारी भोरी।

झूलि लेहु नैहर जब ताई, फिरि नहिं झूलन देशह साई।

पुनि सासुर लेइ राखिहि तहाँ, नैहर चाह न पाउब जहाँ।

कित यह धूप कहाँ यह छाहाँ, रहब सखी बिनु मंदिर माहाँ।

गुन पूछिहि और लाइहि दोखू, कौन उत्तर पाउब तहँ मोखू।

सासु ननद के भौह सिकोरे, रहब सँकोचि दुवौ कर जोरे।

किन रहसि जो आउब करना ससुरेइ अंत जनम दुख भरना।

कित तैहर पुनि आउब, कित ससुरे यह खेल।

आपु आपु कहँ होइहि, परब पंखि जस डेल।

शब्दार्थः

रहसि = रहेंगी। हिंडोरी = झूला। पाउब = पायेंगी । छाहाँ = छाँव, छाया। मोखू = मोक्ष । सिकोरे = सिकोडेगी। साईं = परमात्मा । परब = भावार्थ: झूठा । परिव = पक्षी । डेल = पिंजहा।

भावार्थ:

सखियाँ आपस में कहती हैं, "अभी हम मिलजुल कर झूला झूलेंगी। कारी बारी से हम झूला झूल कर हम भोली कन्याएँ सुख प्राप्त करेंगी। नैहर में रहने पर ही यह झूला झूलेंगी। फिर भगवान हमें झूलने नीं देगा। फिल हमें ससुराल जाकर रहना पडेगा। तब हम कहाँ नैहर पायेंगी। यह धूप, यह छाँव, यह वातावरण, ग्रह मंदिर, ये सखियाँ आदि फिर हमें कहाँ प्राप्त होंगे। गुणों के बारे में पूछताछ कर के दोष बताये जायेंगे और किस प्रकार का उत्तर देकर वहाँ मोक्ष प्राप्त करेंगी। सास और ननद भौंहे सिकुडेंगी और हमें दोनों हाथ जोड़ कर संकोच में रहना पडेगा। फिर कब यहाँ आना होगा और ससुराल में ही जन्म का दुख भोगते हुए पडा रहना होगा।

कहाँ फिर नैहर में आयेंगी और कहाँ ससुराल पर यह खेल होगा? हम सब अपने-अपने ससुराल पर ही पिंजडे में पक्षी की तरह रहेंगी।

विशेषताएँ:

जायसी ससुराल में बधुओं की दयनीय स्थिति का वर्णन करते हैं।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | सोलन मानससरोवर गई, जापान पर ठाडी भई।

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(2)

सोलन मानससरोवर गई, जापान पर ठाडी भई।

देखि सरोवर रहसई केली पद्मावत सौ कह सहेली।

ये रानी मन देखु विचारी, एहि नैहर रहना दिन चारी।

जो लागे अहै पिता कर राजू, खेलि तेहु जो खेलहु आजू।

पुनि सासुर हम गयनम काली, कित हम कित यह सरवर पाली।

कित आवन पुनि अपने हाथी, कित मिति कै खेलव एक साथी।

सासुननद बोलिन्ह जिउनेही दास्न ससुर न निसरै देहि।

पिउ पिआर सिर ऊपर, सो पुनि करै दहुँ काह।

दहुँ सुख राखै की दुख, दई कस जनम निबाहू।

भावार्थः

सारी सखियाँ खेलती हुई मानसरोवर पर आई और किनारे खडी हुई। मानसरोवर को देख कर वे सब आती क्रीडा करती हैं। सच सहेली पदमावती से कहती है, "हे रानी! मन में विचारकर देखलो। इस नैहर में चार दिन ही रहना है। जब तक पिता का राज्य है, तब तक खेल लो जैसा आज खेल रही हो। फिर हमारा ससुराल चले जाने का समय आयेगा। तब हम न जाने कहाँ होंगे और कहाँ यह सरोवर और कहाँ यह किनारा होगा। फिर आना अपने हाथ कहाँ होगा ? फिर हम सबका कहाँ मिलकर खेलना होगा ? सास और ननद बोलते ही प्राण ले लेंगी। ससुर तो बडा ही कठोर होगा। वह हमें यहाँ आने भी नहीं देगा।"

इन सब के ऊपर प्यारा प्रियतम होगा। न जाने वह भी फिर कैसा व्यवहार करेगा। न जाने वह सुखी रखेगा या दुखी। न जाने जीवन का निर्वाह कैसे होगा।

विशेषताएँ : यहाँ तत्कालीन वघुओं की परतन्त्राता पर चर्चा हुई है। ससुराल में वधुओं की दीन दशा का विवरण हुआ है।

जायसी | मानसरोदक खण्ड | एक दिवस पून्यौ तिथि आई, मानसरोदक चली अन्हाई।

जायसी - मानसरोदक खण्ड

(1)

एक दिवस पून्यौ तिथि आई, मानसरोदक चली अन्हाई।

पदमावति सब सखी बुलाई, जनु फुलवारि सबै चलिआई।

कोई चम्पा कोइ कुंद सहेली, कोइ सुकेत करना रसबेली।

कोई सु गुलाल सुदरसन राती कोइ सोबकावरिबकचुन भाती।

कोइ सु मौलसरि पुहुपावती, कोइ जाही जूही सेवती।

कोइ सोनजरद कोइ केसर कोई सिंगारहार नागेसर।

कोइ कूजा सदबरग चॅबेली, कोई कदम सुरस रसबेली।

चलीं सबै मालति सँग, फूले कर्बल कुमोद।

बेधि रहे गन गंधरव, बास परीमल मोद।

शब्दार्थ:

पूनिउँ = पूनोंकी, उन्हाई = स्नान करने, नकौरि = गुलबकावली, बकचुन = गुच्छा, जाही = एक प्रकार फूल, जूही = यूथिका, सेवती = सफेद गुलाब, जेउँ = जसी, गंध्रप = गंधर्व

भावार्थः

एक दिन पूनम की तिथि आयी । पद्मावती मानसरोवर नहाने के लिए चली। उसने अपनी सब सखियों को बुलाया। वे इस प्रकार चलने लगी मानों समस्त फुलवारी ही चली आयी हो। उन सखियों में कोई चम्पा, कोई कुन्द, कोई केतनी, करना, रसबेली, गुलाल, सुदर्शन, गुलबकावली का गुच्छा आदि लग रही थीं, कोई सोनजरद जैसी थी और कोई केसर जैसी थी, कोई हरसंगार तो कोई नागकेसर की तरह थी। कोई कूजा जैसी और कोई सदबरंग और चमेली की तरह भी, कोई कदम्ब की तरह हो तो और कोई सुन्दर रसबेली जैसी थी।

वे सब पद्मावती के साथ ऐसे चली मानो कमल के साथ कुमदिनी हों। उनकी सुगन्धि की व्यापकता के कारण गन्धर्व के समूह भी प्रभावित हो रहे थे।

अलंकारः उत्प्रेक्षा तथा उपमा अलंकार यहाँ प्रयुक्त हुए हैं।

पद्मावत में व्यक्त रहस्यवाद पर प्रकाश डालिए। | पद्मावत के आधार पर जायसी कृत रहस्यवाद की चर्चा कीजिए।

 पद्मावत में व्यक्त रहस्यवाद पर प्रकाश डालिए।
                                        अथवा
पद्मावत के आधार पर जायसी कृत रहस्यवाद की चर्चा कीजिए।

रूपरेखा

1. प्रस्तावना

2. अद्वैतवाद की परिणति: रहस्यवाद

3. सूफी संप्रदाय तथा रहस्यवाद

4. जायसी और रहस्यवाद

5. पद्मावत में व्यक्त रहस्यवाद

6. अन्तर्जगत तथा बाह्य जगत: बिंब - प्रतिबिंब भावना

7. अमरधाम

8. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

भारतीय अद्वैतवाद तथा ब्रह्मवाद को सभी पैगम्बरी मतों ने स्वीकार किया। वही दार्शनिक अद्वैतवाद साहित्य के क्षेत्र में रहस्यवाद के रूप में विलसित हुआ। योरोप में भी अद्वैतवाद ईसाई धर्म के भीतर रहस्य - भावना के रूप में लिया गया था। जिस प्रकार सूफी ईश्वर की भावना प्रियतम के रूप में करते थे उसी प्रकार स्पेन, इटली आदि यूरोपीय देशों के भक्त भी ईश्वर को भावना करते थे।

अद्वैतवाद के दो पक्ष हैं।

1. आत्मा और परमात्मा की एकता तथा

2. ब्रह्म और जगत की एकता

दोनों मिलकर सर्ववाद की प्रतिष्ठा करते हैं - 'सर्वं खलिवदं ब्रह्म'; 'सर्व ब्रह्ममयं जगत्' । ईसा की 19 वीं शताब्दी में यूरप में रहस्यात्मक कविता सर्ववाद के रूप में जागृत हुई। अंगरेज कवि शेली में सर्ववाद की झलक दिखाई देती है। आयलैंड में कीट्स की रहस्यमयी कविवाणी सुनाई देती है। उसी समय भारत में कबीर, खीन्द्र की कलम से रहस्यवादी कविता उतरने लगी।

2. अद्वैतवाद की परिणति :

रहस्यवाद अद्वैतवाद का प्रतिपादन पहले उपनिषदों में मिलता है। उपनिषद भारतीय ज्ञान - कांड के मूल हैं। प्राचीन कवि अद्वैतवाद का तत्व चिन्तन करते थे। अद्वैतवाद मूलतः एक दार्शनिक सिद्धान्त है, कवि कल्पना या भावना नहीं। वह ज्ञान क्षेत्र की वस्तु है। दर्शन का संचार भावक्षेत्र में होने पर उच्च कोटि के भावात्मक रहस्यवाद की प्रतिष्ठा होती है। रहस्यवाद दो प्रकार का होता है -

1. भावात्मक

2. साधनात्मक

हमारे यहाँ का योगमार्ग साधनात्मक रहस्यवाद है। अद्वैतवाद या ब्रह्मवाद को लेकर चलनेवाली भावना से सूक्ष्म तथा उच्च कोटि के रहस्यवाद की प्रतिष्ठा होती है। गीता के दशम अध्याय में सर्ववाद का भावात्मक प्रणाली पर निरूपण हुआ है।

3. सूफी संप्रदाय तथा रहस्यवाद :

निर्गुण भक्ति शाखा के कबीर, दादू आदि सैतों की कविता में व्यक्त ज्ञान मार्ग भारतीय वेदान्त का भारतवर्ष में साधनात्मक रहस्यवाद ही हठयोग तंत्र और रसायन के रूप में प्रचलित था। सूफी मत में भी इसके प्रभाव से 'इला, पिंगला, सुषुम्ना' नाडियों का संचार तथा षट्चक्रों की चर्चा हुई। फलतः (1) रहस्य की प्रवृत्ति और (2) ईश्वर को केवल मन के भीतर देखना सूफी संतों ने अपना लिया। रहस्यवाद का स्फुरण सूफियों में पूरा-पूरा व्याप्त हुआ। कबीर के रहस्यवाद पर भी सूफी प्रभाव है। लेकिन कबीर के रहस्यवाद में साधनात्मक अधिक और भावात्मक कम।

4. जायसी और रहस्यवाद :

जायसी की कविता में रमणीय और सुन्दर अद्वैती रहस्यवाद है। उनकी भावुकता बहुत ही उच्च कोटि की है। सूफियों की भक्तिभावना के अनुसार जगत के नाना रूपों में प्रियतम परमात्मा के रूपमाधुर्य की छाया देखते हैं। सारे प्राकृतिक रूपों और व्यापारों को 'पुरुष' के समागम के हेतु प्रकृति के श्रृंगार उत्कण्ठा या विरह - विकलता का रूप वे अनुभव करते हैं।

5. पद्मावत में व्यक्त रहस्यवाद :

'पद्मावत' के ढंग के रहस्यवाद पूर्ण प्रबन्धों की परंपरा जायसी से पहले की है। मृगावती, मधुमालती आदि रहस्यवादी रचनाएँ जायसी के पहले ही हो चुकी हैं। उस रहस्यमयी अनन्त सत्ता का आभास देने के लिए जायसी पद्मावत में बहुत ही रमणीय और मर्मस्पर्शी दृश्य संकेत उपस्थित करते हैं। उस परोक्ष ज्योति और सौन्दर्यसत्ता की और लौकिक दीप्ति और सौंदर्य के द्वारा जायसी संकेत करते हैं -

जहँ जहँ बिहँसि सुभावहिं हँसी। तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी॥

नयन जो देखा कँवल भा, निरमल नीर सरीर।

हँसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नग हीर॥

प्रकृति के बीच दिखाई देनेवाली सारी दीप्ति परमात्मा की ही है।

चाँदहि कहाँ जोति औ करा।

सुरुज के जोति चाँद निरमरा॥

मानस के भीतर प्रियतम के सामीप्य से उत्पन्न अपरिमित आनन्द की और विश्वव्यापी आनन्द की यंजना जायसी के काव्य में व्यक्त होती है।

देखि मानसर रूप सोहावा।

हिय हुलास पुरइनि होइ छावा॥

गा अँधियार रैन मसिछूटी। भा भिनसार किरिन रवि फूटी॥

कँवल विगस तस विहँसी देही। भँबर दसन होइ कै रसलेही॥

6. अन्तर्जगत तथा बाह्य जगत: बिंब-प्रतिबिंब भावना

जायसी रहस्यवाद के अन्तर्गत अन्तर्जगत तथा बाह्य जगत और बिंब प्रतिबिंब भावना व्यक्त करते हैं।

बरुनि -चाप अस ओपहँ बेधे रन बन ढाँख।

सौजहि तन सब रोबाँ, पंखिहि तन सब पाँख॥

पृथ्वी और स्वर्ग, जीव और ईश्वर दोनों एक थे; न जाने किस ने बीच में इतना भेद डाल दिया है।

धरती सरग मिले हुतदोऊ। केइ निनार के दीन्ह बिछाऊ॥

जो इस पृथ्वी और स्वर्ग के वियोग तत्त्व को समझेगा और उस वियोग में पूर्णतया सम्मिलित होगा, उसी का बियोग सारी सृष्टि में व्याप्त होगा -

राती सती, अगिनि सब काया, गगन मेघ राते तेहि छाया।

सायं - प्रभात न जाने कितने लोग मेघखंडों को रक्तवर्ण होते देखते हैं। पर किस अनुराग से ये लाल हैं, इसे जायसी जैसे रहस्यदर्शी भावुक ही समझते हैं।

7. अमरधाम :

प्रकृति के महाभूत सारे उस 'अमरधाम' तक पहुँचने का, बराबर पहुँचने का, बराबर प्रयत्न करते रहते हैं। पर, साधना पूरी हुए बिना पहुँचना असंभव है।

चाँद सुरज और नखत तराई। तेहि डर अंतरिख फिरहि सबाई॥

पवन जाइ तहँ पहुँचे चहा। मारा तैस लोटि भुइँ रहा॥

अगिनि उठी, जरि बुझी निआना। धुँआ उठा, उठि बीच बिलाना॥

पानि उठा, उठि जाइ न छूआ बहुरा रोइ, आइ भुइँ चूआ।

8. उपसंहार :

इस अद्वैतवादी रहस्यवाद के अतिरिक्त जायसी कहीं-कहीं उस रहस्यवाद में आ फँसे हैं जो पाश्चात्यों की दृष्टि में झूठा रहस्यवाद है। उन्होंने स्थान स्थान पर हठयोग, रसायन आदि का भी आश्रय लिया है।

जायसी की प्रेम-व्यंजना प्रस्तुत कीजिए।

जायसी की प्रेम-व्यंजना प्रस्तुत कीजिए।

रूपरेखा : -

1. प्रस्तावना

2. जायसी का 'पद्मावत'

(क) कथावस्तु

(ख) नारी (आलंबन) सौंदर्य का वर्णन

(ग) उद्दीपन (प्रकृति) का वर्णन

(घ) प्रेमाश्रय का चित्रण

(ङ) संचारीभाव

(घ) अनुभूतियाँ

(छ) स्थाई भाव का उत्कर्ष

3. उपसंहार

1. प्रस्तावना - भारतीय साहित्य में प्रेमाख्यानों की परम्परा :

भारतीय साहित्य में लगभग पाँचवीं शताब्दी से एक ऐसी काव्य-परम्परा का प्रवर्तन हुआ, जिसमें साहस और प्रेम का चित्रण अद्भुत रूप में मिलता है। इस काव्य परम्परा की आरम्भिक कृतियाँ - वासवदत्ता (सुबन्ध), कादम्बरी (बाण) और दशकुमार चरित (दंडी) हैं। प्राकृत - अपभ्रंश की तरंगवती, समरादित्य - कथा, भुवन - सुन्दरी, मलय - सुन्दरी, सुर - सुन्दरी, नागकुमार चरित, यशोधर चरित, करकंड चरित, पद्म चरित आदि में प्रेम का वही रुप उपलब्ध होता है, जो कि संस्कृत के वासवदत्ता, कादम्बरी एवं दशकुमार- चरितादि में मिलता है। आगे चलकर यही काव्य - परम्परा हिन्दी में विकसित हुई जिसे सूफी प्रेमाख्यान- परम्परा या 'निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा' कहा जाता है। महाकवि जायसी भी इसी काव्य- परम्परा के अन्तर्गत आते हैं।

हमारे विद्वानों का विश्वास है कि जायसी तथा अन्य प्रेमाख्यान रचयिता कवियों ने अपने काव्य में अलौकिक - प्रेम या रहस्यवाद की व्यंजना की हैं। इस मत के समर्थन में ये युक्तियाँ दी गई है –

(१) इन कवियों ने सूफी मत के प्रचार के लिए अपने काव्यों की रचना की।

(२) इन काव्यों में आत्मा और परमात्मा के प्रेम का रूपक बाँधा गया है।

(३) इनमें स्थान - स्थान पर आध्यात्मिक सिद्धान्तों एवं साधना पद्धतियों का निरूपण किया गया है।

(४) इन काव्यों में नायिका (जो कि परमात्मा की प्रतीक है) के व्यक्तित्व एवं सौन्दर्य का इतने व्यापक रूप में चित्रण किया गया है कि जिससे किसी 'अनन्त सौंदर्य - सत्ता' के स्वरूप का आभास होने लगता है।

(५) इनमें प्रेम और विरह का ऐसा वर्णन किया गया है कि जिसमें आध्यात्मिकता का दर्शन होने लगता है।

जायसी ने लिखा है- मैंने यह सोचकर काव्य लिखा है कि संसार में मेरा कोई स्मारक चिन्ह रह जाय। जो लोग इस कहानी को पढ़ेंगे, वे मुझे भी याद करेंगे -

औ मैं जानि कवित अस कीन्हा।

मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा॥

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जो यह पढ़े कहानी, हम्ह सैवरै दुई बोल

पद्मावत के अन्त में कवि जायसी ने घोषित किया है -

प्रेम कथा एहि भांति विचारहु, बूझि लेई जौ बुझे पारहु । इस रूपक में रत्नसेन को मन का तथा पद्मावती को बुद्धि का प्रतीक माना गया है। रत्नसेन के सिंहलगढ़ में पहुँचने के अनन्तर भी पद्मावती को एक कामवासना एवं भोग लिप्सा से विह्वल युवती के रूप में देखते हैं -

जोबन भर भादौं जस गंगा, लहरें देई, समाइ न अंगा।

'यौवन भार' एवं कानोन्माद का जैसा वर्णन किया गया है, उससे स्पष्ट है कि पद्मिनी का प्रेम सर्वथा लौकिक स्तर का

2. 'जायसी का 'पद्मावत' -

(क) कथावस्तु -

हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य परम्परा की सर्वश्रेष्ठ रचना जायसी कृत 'पद्मावत' मानी जाती है। इसका नायक रत्नसेन है, जो कि हीरामन तोते के मुँह से पद्मिनी के रूप सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर उसके प्रेम में बिह्वल हो जाता है। वह अपने घर, परिवार और देश को छोड़कर उसकी प्राप्ति के लिए निकल जाता है तथा अनेक कठिनाइयों के पश्चात् उसकी प्राप्ति में सफल हो पाता है। विवाह के अनन्तर भी पद्मिनी और रत्नसेन को कई कष्टों का सामना करना पड़ता है । अन्त में दिल्ली सुलतान अलाउद्दीन से युद्ध करता हुआ रत्नसेन वीरगति को प्राप्त हो जाता है और पद्मिनी सती हो जाती है। इस काव्य में श्रृंगार रस के सभी अवयवों एवं अनेक दशाओं का मामिंक वर्णन उपलब्ध होता है।

(ख) नारी (आलम्बन) सौन्दर्य का वर्णन :

नारी- सौन्दर्य के चित्रण में जायसी ने परम्परागत नख - शिख वर्णन की शैली का प्रयोग किया है। उन्होंने नारी रूप के सामूहिक प्रभाव की व्यंजना की अपेक्षा उसके अंग प्रत्यंग का अलग-अलग वर्णन किया है। वे अपनी सूक्ष्म - पर्यवेक्षण - शक्ति के बल पर प्रत्येक अवयव की बाह्य एवं आन्तरिक विशेषताओं का उद्घाटन कुशलतापूर्वक कर देते हैं; यथा केशों का एक वर्णन देखिए –

भँवर केस, वह मालति रानी। विसहर लुरहि लेहि अरघानी।

बैनो छोरि झारु जौं बार। सरग पतार होइ अंधियारा॥

यहाँ केशों की श्याम - वर्णता, वक्रता, सुगन्धि एवं मनमोहकता आदि सभी गुणों की व्यंजना भ्रमर, विषधर, अन्धकार, मलयगिरि और श्रृंखला आदि उपमानों की सहायता से कर दी गई है।

वस्तु के सूक्ष्मातिसूक्ष्म चित्रण के जायसी के सौन्दर्य - वर्णन में कुछ प्रवृत्तियाँ और मिलती हैं। एक तो उन्हें वर्णन -विस्तार से इतना अधिक प्रेम है कि उनका नख - शिख - वर्णन एक पूरे सर्ग का रूप ले लेता है। दूसरे, वे अत्युक्तियों एवं अतिशयोक्तियों का अधिक प्रयोग करते हैं।

सुन्दरियों के रूप के प्रभाव सिद्ध करने के लिए भी वे द्रष्टा के आहत हो जाने मूच्छित हो जाने, या प्राण त्याग देने की कल्पना बारम्बार करते हैं। फिर भी सौन्दर्य की व्यंजना उनके काव्य में वर्णन के रूप में ही अधिक होती है। एक एक अंग का अलग अलग विखरा हुआ सौन्दर्य किसी समन्वित प्रभाव की पुष्टि नहीं करता, उनकी अत्युक्तियाँ -

आश्चर्यजनक होते हुए भी पाठकों के हृदय को तरंगित करने में असमर्थ हैं और उनका विस्तृत वर्णन उभार देनेवाला सिद्ध होता है। नारी की सूक्ष्म चेष्टाओं एवं मधुर भाव - भंगिमाओं का चित्रण भी उनके काव्य में बहुत कम हुआ है।

(ग) उद्दीपन (प्रकृति) का वर्णन :

श्रृंगारोद्दीपन के लिए भी जायसी ने ऋतु - वर्णन एवं बारहमासा-कथन की परम्परागत शैलीयों का व्यवहार किया है, फिर भी उनकी कुछ निजी विशिष्टताएँ हैं। संयोग में समय शीघ्र बीत जाता है, किन्तु विरह के क्षण लम्बे होते हैं, अतः जायसी ने दोनों के लिए क्रमशः ऋतु - वर्णन और बारहमासा - वर्णन का आयोजन करके सूक्ष्म बुद्धि का परिचय दिया है।

उदाहरणस्वरूप कुछ पंक्तियाँ देखिए -

रितु पावस बरसौ, पिउ पावा। सावन भादों अधिक सुहावा॥

कोकिल बैन, पाँत बग छूटी। गनि निसरि जेउँ बीरबहूटी॥

संयोगकालीन दृश्यों के चित्रण में कवि के प्रत्येक शब्द से उल्लास की अभिव्यक्ति होती थी, वहाँ उपर्युक्त वर्णन में वातावरण की कठोरता को ऐसे शब्दों में उपस्थित किया गया है कि पाठक का हृदय अनुभूति से ओत-प्रोत हो जाता है। वस्तुतः जायसी का प्रकृति - वर्णन कल्पना और अनुभूति के सुन्दर सामंजस्य से पूर्ण है और वह स्थायीभाव की व्यंजना के अनुरुप पृष्ठभूमि तैयार करने में पूर्णतः समर्थ है।

(घ) प्रेमाश्रय का चित्रण : -

पद्मावत में प्रणय - भावना का आश्रय प्रारम्भ में केवल नायक ही रहता है, जो अपने प्रयत्नों से नायिका के हृदय को भी जीत लेने में सफलता प्राप्त कर लेता है। यद्यपि तोते के मुख से नख - शिख - वर्णन सुनकर रत्नसेन की सौन्दर्यानुभूतियों की व्यंजना अत्यन्त मार्मिक रूप में हुई है।

फूल फूल फिरि पूँछों, जो पहुँचों आहिं केत।

तन निछावर के मिलों, ज्यों मधुकर जिउ देत॥

(ङ) संचारी भाव :

श्रृंगारस के क्षेत्र में रति और निर्वेद जैसे दो विरोधी संचारी भावों की स्थिति एक साथ संभव होती है। रत्नसेन के हृदय में भी प्रणय की गम्भीरता के साथ ही वैराग्य की सृष्टि हो जाती है और वह अपना सब कुछ त्यागकर घर से निकल जाता है।

तजा राज राडा भा जोगी। ओ किंगरो कर गहेउ वियोगी।

तन विसंभर मन बाउर रटा। अरुझा प्रेम परी सिर जटा॥

रत्नसेन का यह निर्वेद संयोग होने तक बराबर प्रणय भावना के साथ चलता रहता है। इसके अतिरिक्त संचारी भावों की भी योजना कवि ने अवसरानुभूति सफलता पूर्वक की है।

(च) अनुभूतियाँ :

पद्मनी की प्रेमानुभूतियाँ - पद्मनी में हम प्रेमानुभूतियों का विकास ऋमिक रूप में पाते हैं। प्रारम्भ में वह काम-वेदना से पीड़ित है -

सुनु हीरामन कहों बुझई, दिन-दिन मदन आई सतावै।

जोवन मोर भयउ जस गंगा, देह-देह हम्ह लाग अनंगा॥

आगे चलकर रत्नसेन के दर्शन के अनन्तर उसकी यह कामवासना प्रेम में परिणत हो जाती है और जब वह सुनती है कि उसका प्रियतम उसी के लिए शूली पर चढ़ रहा है तो उसके हृदय का अणु- अणु पिघलकर मानवता के रूप में बहने लगता है।

संयोगानुभूतियाँ - जायसी ने नायक - नायिका की संयोगानुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए प्रथम समागम, हास - परिहास, शतरंज- चौपट के मनोरंजन, सुरत एवं सुरतान्त आदि का विस्तृत वर्णन किया है। विवाह के अनन्तर प्रथम रात्रि में प्रियतम के पास जाती हुई पद्मावती की हृदय- दशा का परिचय उसके इन शब्दों में मिलता है -

अनचिन्ह पिउ काँपे न माहाँ, का मैं कहब गहब जब बाँहाँ।

जब रत्नसेन अपने प्रेमपूर्ण शब्दों से उसका भय और संकोच दूर कर देता है तो वह भी अपना कृत्रिम भोलापन प्रदर्शित करती हुई अपनी हास- परिहासमयी उक्तियों से छेड़- छाड़ करने लगती है।

अपने मुँह न बढ़ाई छाजा, जोगो कतहुँ न होहि नाहि राजा ।

(छ) स्थायीभाव का उत्कर्ष

पद्मावत में प्रेम भावना के प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उसमें नायक और नायिका में प्रेम का विकास एक साथ नहीं होता। दोनों के प्रेम प्रवृत्ति एवं गति में भी पर्याप्त भेद है। रत्नसेन प्रेम के आदर्श स्वरूप को उपस्थित करता है, जबकि पद्मावती ने यथार्थ एवं व्यावहारिक रूप का लोभ - मात्र सिद्ध किया है।

पद्मावती की प्रणय - भावना में हम क्रमिक विकास पाते हैं। पिरस्थि तियों के अनुसार उसमें प्रेम, कामुकता और रसिकता की सीमा को पार करके अपने विशुद्ध एवं गम्भीर स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, जो मनोवैज्ञानिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से बहुत संगत है। अपने विकास की चरमावस्था में आदर्श प्रेम और यथार्य प्रेम दोनों एक स्तर पर पहुँच जाते हैं। पद्मावती की प्रणय - भावना अन्त में साहस, त्यागादि के सभी गुण से समन्वित हो जाती है, जो रत्नसेन में हम प्रारम्भ से ही पाते है।

रत्नसेन और पद्मावती के प्रणय सम्बन्ध के कारण नागमती का कष्ट - भोग और विवाह के अनन्तर दोनों - सपत्नियों की ईर्ष्या, कलह आदि देखकर कदाचित् कुछ लोग उनके प्रेम को अश्रद्धा की दृष्टि से देखें, अतः इस दुष्टि से विचार करना आवश्यक है। कवि ने आरम्भ में नागमती को रूप - गर्विता एवं तोते की हत्या में प्रयत्नशील दिखाकर पाठक की सहानुभीति के मार्ग में अवरोधक लगा दिया है। अतः उसके प्रति राजा का निष्ठुर व्यवहार उचित प्रतीत होता है। नागमती का दारुण विरह अवश्य हृदयद्रावक है, किन्तु रत्नसेन उसका संदेश प्राप्त होते ही लौट जाता है। सपत्नियों की प्रारम्भिक गुह-कलह भी स्वाभाविक है, जो आगे परिस्थितियों की कठिनता से शान्त हो जाती है।

3. उपसंहार :-

वस्तुतः इस काव्य में प्रेम को आदर्श और यथार्थ - दोनों गुणों से समन्वित करते हुए उसे पूर्ण उत्कर्ष तक पहुँचा दिया गया है। बिना साहस और त्याग के प्रेम पूर्ण गंम्भीरता को प्राप्त करने में असमर्थ रहता है। प्रेम का यह आदर्श भारतीय साहित्य में मुख्यतः प्रेमाख्यानों में पूर्ण शब्दों में व्यंजना करने की दृष्टि से जायसी हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट कवि सिद्ध होते हैं ।

मानसरोदक खण्ड का सारांश लिखिए।

मानसरोदक खण्ड का सारांश लिखिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. अनुपम रूप लावण्य

3. तत्कालीन समाज की बधुओं की परतंत्र स्थिति

4. पद्मावती का पारमात्मिक रूप

5. उपसंहार

1. प्रस्तावना:

मानसरोदक खण्ड की रचना सूफी महान कबि मलिक महम्मद जायसी ने की थी। प्रेम पीर के सच्चे साधक जायसी ने पदमावत काव्य में लौकिक प्रेम के द्वारा अलैकिक प्रेम का निरूपण किया है। इस काव्य में नायिका पदमावती परमात्मा की प्रतीक है। उसके व्यक्तित्व एवं सौंदर्यसत्ता एवं सौंदर्य का इतने व्यापक रूप में चित्रण किया गया है कि जिससे किसी अनंत सौंदर्य- सत्ता के रूप में आभास होने लगता हैं। जायसी का रहस्यवाद मूलतः भारतीय अद्वैत भावना पर अश्रित है।

गंधर्वसेन राजा की रानी चम्पावती के गर्भ से पद्मावती का जन्म होता है। कन्या राशि में उत्पन्न होने से उनका नाम पद्मावती रखा गया। इस काव्य में पद्मावती रूप वर्णन के साथ साथ में पारमात्मिक तत्त्व भी बताया गया है। 'पद्मावत' प्रेममार्गी विचारधारा का काव्य है।

2. अनुपम रूप लावण्यः

किसी पूनम के दिन पदमावती मानसरोवर में स्नान करने के लिए अपनी सब सखियों के साथ निकलती है, मानो समस्त फुलवारी ही निकलती है। वे सब मालती रूप पद्मावती के साथ ऐसे चलीं मानो कमल के साथ कुमुदिनी हो। उनकी सुगन्धि की व्यापकता के कारण गंधर्व के समूह भी प्रभावित हो रहे थे।

“भेली सबै मालनि संग फूले केवल कमोद।

. बेधि रहे गन गंध्रप बास परिमलामोद।"

पद्मिनी की सखियों ने सरोवर के किनारे अपने जूडे खोलकर बालों को फैला दिया। पद्मावती का मुख चन्द्रमा के समान है और शरीर मलयाचल की भाँति है। उस पर बिखरे हुए बाल ऐसे हैं जैसे सर्पों ने सुगन्धि के लिए इसे ढक लिया हो या फिर ये बाल मानो मेध ही उमड़ आये हैं जिससे सारे संसार में छाया हो गई। लहराते बाल ऐसे लगते हैं कि चन्द्रमा को ढक लिया है। केश इतने घने और काले हैं कि दिन होते हुए भी सूर्य का प्रकाश छिप गया, और चंद्रमा रात में नक्षत्रों को लेकर प्रकट हो गया। चकोर आकाश में चंद्रमा और धरती पर विराजमान चद्रमों को देखकर घबरा गयी। पद्मावती के दाँत बिजली जैसे चमकीले थे और वह कोयल की तरह मधुर भाषिणी थी। भौंहें ऐसी थीं जैसे आकाश में इंद्रधनुष हो। नेत्र क्या थे मानो दो खंजन के पक्षी क्रीड़ा कर रहे हों।

मानसरोवर उसके रूप को देखकर मोहित हो गया और इस बहाने से लहरें ले रहा कि किसी तरह पदंमावती के पैर छू सके।

3. तत्कालीन समाज की बधुओं की परतंत्र स्थितिः

सरोवर में स्नान करते समय या सब खेलती हुई सब सहेलियाँ पद्मावती से कहती हैं- हे रानी! मन में विचार करके देख लो। इस पीहर में चार दिन ही रहना है। जब तक पिता का राज्य है तभी तक खेल लो जैसा कि आज फिर हमारा ससुराल जाने का समय आ जाएगा, तो फिर न जाने हम कहाँ होंगे और कहाँ यह तालाब और इसका किनारा होगा? और मिलकरके साथ खेल न पायेंगे। सास और ननद बोलते ही प्राण ले लेंगी। ससुर बडा कठोर होगा। वह आने भी नहीं देगा। न जाने प्रियतम कैसा व्यवहार करेगा।

"पिउ पिआर सब ऊपर सो पुनि करै देह काह।

कहुँ सुख राखै की दुख दहुँ कस जरम नि बाहु॥"

सखियाँ खेलती- खेलती रही, एक सखी का हार पानी में खो गया और वह चित्त से बैसुध हो जाती है। वह अपने आप कहने लगती है - मैं इनके साथ खेलने ही क्यों आई थी। स्वयं अपने हाथों से अपना हार खो चली। घर में घुसते ही इस हार के विषय में पूछे गये तो फिर क्या उत्तर देकर प्रवेश पा सकूँगी ? उसके नेत्र रूपी सीपी में आँसू भर आते हैं। एक सखी कहती है हमारे साथ खेलने की अच्छाई है और हार खोने की बुराई भी। जीवन में अच्छाई और बुराई दोनों होते हैं।

4. पद्मावती का पारमात्मिक रूपः

जब पद्मावती मानसरोवर में स्नान करने के लिए निकलती है तो पानी उसके पाँव छूने के लिए उछलने लगता है, जिस तरह परमात्मा का चरण छूने के लिए भक्त उभरते - ललचाते हैं। मानसरोवर ने कहा कि पारस के स्पर्श से लोहा, कंचन हो जाता है। वैसे ही उसके पैरों के स्पर्श से मैं निर्मल हो गया। उसके शरीर से मलयाचल की सुगंधि से मेरी तपन बुझ गई। मेरी दशा पुण्य की हो गई और पाप नष्ट हो गये।

चंद्रमा रूप पद्मावती की मुस्कान को देखकर कुमुदिनी रूप सखियाँ भी मुस्कराने लगी। जिस तरह भी देखो पद्मावती का रूप ही दर्शाने लगा है। जायसी कहते हैं सरोवर में कमल तो पद्मावती के नेत्र ही मानो प्रतिबिंबित कमल थे। उसका निर्मल शरीर ही मानो सरोवर में प्रतिबिंबित निर्मल जल था। उसका हास ही प्रतिबिंबित हंस थे। उसके दाँत ही मानो सरोवर में प्रतिबिंबित नग और हीरे थे।

इसमें जायसी ने परमेश्वर के बिम्ब - प्रतिबिम्ब भाव को इस प्रसंग के माध्यम से प्रकट करने का प्रयत्न किया है। पद्मावती बिम्ब है और यह सम्पूर्ण जगत उसीका प्रतिबिम्ब है।

5. उपसंहार -

जायसी के काल में यह पता चलता है कि नारी के (सौन्दर्य) नखशिख सौन्दर्य का वर्णन होता था। उन दिनों में प्रचलिय सामाजिक परिस्थितियों में नारी के पति के घर में जीवन का स्वरूप और नारी की मनोचिंतन का विश्लेषण हुआ है। पद्मावती को इस काव्य में परमात्मा के रूप में दर्शाया गया है। स्त्री की पूजा करदे नारी समाज की उन्नति करने का प्रयास किया गया है । पदमावती रूपी पात्र से सौंदर्य की लहर के साथ-साथ परब्रह्म का भी विश्लेषण हुआ है। पारमात्मिक सत्ता पर बल दिया गया है। जायसी के विलक्षण शैली से यह काव्य हिन्दी साहित्य में विशिष्ट बना।

इस प्रकार "पदमावत" काव्य में मानसरोदक खण्ड के द्वारा जायसी रहस्यवाद का प्रतिपादन करते हैं।

कबीरदास | साखी | सबद | रमैनी

कबीरदास :

जीवनवृत नीरू और नीमा द्वारा जुलाहा परिवार में पालित, शास्त्रज्ञान से वंचित पर काशी में आचार्य रामानंद का शिष्यत्व ग्रहण, जीवन का बहुत बड़ा भाग काशी में व्यतीत, अनेक संत-महात्माओं का सत्संग, १२९२ ई में सिकंदर लोदी द्वारा दंडित करने की चेष्टा, जीवन के अंतिम भाग में मगहर में निवास।

निरक्षर होने पर भी परम ब्रह्मज्ञानी, धार्मिक एकत्व और सामाजिक समता के बेजोड़ प्रबक्ता, निर्गुण, मतबाद के पुरस्कर्त्ता, मध्ययुग के सबसे सशक व्यंग्यकार रचनाएँ बीजक (साखी, सबद और रमैनी)।

साखी

गुरु गोबिंद तो एक है दूजा यहु आकार।

आप मेटि जीवत मरै तो पावै करतार।।


कबीर सतगुरु ना मिल्या रही अधूरी सीख।

स्वांग जती का परि घरि घरि भौगो भीख।।


सतगुरु ऐसा चाहिए जैसा सिकलीगर होइ।

सबद मसकला फेरि करि देह द्रपन करे कोइ।।


कबीर सुमिरण सार है सकल जंजाल।

आदि अंत सब सोधिया दूजा देखौ काल।।


कबीर निरभै राम जपि जब लग दीवै बाति।

तेल घट्या बाती बुझी तब सोबैगा दिन राति।।


लावा मारग दूरि घर बिकट पंथ यहु मार।

कहौ संतौ क्यूँ पाइये दुरतभ हरि दीदार।।


चकवी बिछुरे रैणि की आइ मिली परभाति।

जे जन बिछुरे राम सूं ते दिन मिले न राति।।


यह तन जारौँ मसि करौं धुवां जाइ सरग्गि।

मति वे राम दया करै बरसि बुझावे अग्गि।।


बिरह भुवंगम तनि बसै मंत्र न लागौ कोइ।

राम वियोगी ना जिवै जिबै तो वोरा होइ।।


सब रंग ताँत रबाब तन पिरहु बजावै नित्त।

और न कोई सुणि सकै कै सांई के चित्त।।


विपबा बुरहा जिनि कहै बिरहा है सुलितान।

जिस घटि विरह न संचरै सो घट सदा मसांण।।


आँखड़ियाँ झंई पड़ी पंथ निहारि निहारि।

जीभड़ियाँ छाला पडया नाम पुकारि पुकारि।।


इस तन का दीवा करों बनी मेलहुँ जीव।

लोही सीचें तेल त्यूँफकब मुख देखौं पवि।।


जे रोऊं तौ बल घंटै हसौं तो राम रिसाइ।

मन ही मांहि बिसूरणां ज्यूं घुंण काठहिं खाइ।।


कै विरहिनि कूं मींच दै कै आपा दिखलाई।

आठ पहर का दाझणां मोपै सह्या न जाइ।।


हिरदा भीतर दौ बलौ धूंवा न प्रगट होइ।

जाकै लागी सो लखै कै जिनि लाई सोइ।।


अंतरि कवल प्रकासिया ब्रह्म- वास तहां होई।

मन भँवरा तहाँ लुबधिया जाणैगा जन कोई।।


हद्द छाड़ि बेहद गया कीया सुन्नि स्नान।

सुनि जन महल न पार्व तहाँ किया बिश्राम।।


पंजरि प्रेम प्रकासिया जाग्या जोग अनत।

संसा खूटा सुख भया मिल्या पियारा कंत।।


पाणी ही ते हिम भया हिम है गया बिलाइ।

जो कुछ था सोई भया अब कछु कह्या न जाइ।।


जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहि।

सब अंधियारा मिटि गया जब दीपक देख्या मांहि॥


हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराइ।

बूँद समाणी समंद में सो कत हेरी जाइ।।


हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराइ।

समंद समांणां बूँद में सो कत हेरया जाइ।।


कबीर एक न जाणियां तौ बहु जाण्या क्या होइ।

एक तै सब होत हैं सब तैं एक न होइ।।


कबीर कहा गरबियौ इस जोबन की आस।

कसू फूले दिवस चारि खंखड़ भवा पलास।।


कबीर कहा गरबियौ काल गहे कर केस।

ना जाणौं कहां - मारिसी कै धरि कै परदेस।।


यह तन काचा कुंभ है लीयां फिरै या साथि।

ठबका लागा फूटिया कछू न आया हाथि।।


हिरदो भीतरि आरसी मुख देखणां न जाइ।

मुख तौ तौ परि घूंदेखिए जे मन की दुबिधा जाइ।।


काया देवल मन धजा विषै लहरि फहराइ।

मन चालयाँ देवल चलै ताका सरबस।।


कबीर मारग कठिन है कोई न सक।

गए से बहुड़े नहीं कुसल कहै को आई।।


माया मुई नमन वा मरि मरि गया सरीर।

आता त्रिस्नांना भुई यूँ कह गया कबीर।।


सहज सहज सब कोई कसै सहज ने चीन्हे कोई।

जिन्ह सहजै विषया तजी सहज कहोजे सोइ।।


मन मथुरा दिल द्वारिका काया कासो जांगि।

दसवां द्वारा देहुरे तामै जोति पिछांणि।।


पावक रूपी राम है घटि घटिरह्या समा।

चित चकमक लागी नहीं ताते ही धुंधुँआइ।।


गावण ही में रोज है रोवण ही में राग।

इक बैरागी गृह में इक गिरही बेराग।।


हम घर जाल्या आपणां लीया मुराढ़ा हाथि।

अब घर जालों तासका जे तलें हमारे साथि।।

सबद

(1)

संतो धोखा कासूं कहिए।

गुण मैं निर्गुण निर्गुण मैं गुण है बाट छाड़ि क्यूँ बहिर।

अजरा अमर कथै सब कोई अलख न कथणां जाई।

नां तिस रूप बरन नंही जाकै घटि-घटि रह्य समाई।

व्यंड ब्रह्माणअड की सब कोई बाकै आदि अरु अंति न होई।

प्यंड ब्रह्मण्ड छाड़ि जे कधिए कहै कबीर हरि सोई।।

(2)

लोका मति के भोरा रे।

जौ कासी तन तज़े कबीरा तो रामहि कहा निहोरा रे।

तब हम वैसे अब हम ऐसे इहै जनम का लाहा।

ज्यूं जल में जल पैसि न निकसै यूं दुरि मिल्या जुलाहा।

राम भगति परि जाको हित चित ताकी अचिरज काहा।

गुरु प्रसाद साध की संगति जग जीतें जाइ जुलाहा।

कहत कबीरः सुनहु रे संतौ श्रमि पैर जिनि कोई।

जस कासी तस मगहर ऊसर हिरदै राम सति होई।

(3)

पानी विच मीन पियासी।

मोहि सुनि - सुनि आवत हाँसी।

आतम ज्ञान विना सब सूना क्या मथुरा क्या कासी।

घर में वस्तु घरी नहिं सूझै बाहर खोजत जासी।

मृग की नाभि माँहि क्सतूरी वन वन फिरत उदासी।

कहत कबीर सुनो भाई साधो सहज मिले अविनासी।

(4)

बाल्हा आव हमारे गेह रे।

तुम्ह बिन दुखिया देह रे।

सबको कहै तुम्हारी नारी मोकौ इहै अंदेह रे।

एकमेक है सेज न सोवै तब लग कौसा नेह रे।

आन न भावै नींद न आवै ग्रिह बन धेरै न धीर रे।

ज्यूं कामी कौं काम पियारा ज्यूं प्यासे कूं नीर रे।

है कोई ऐसा पर उपगारी हरि सूं कहै सुनाई रे।

ऐसे हाल कबीर भए हैं बिन देखे जीव जाइ रे।

(5)

तो को पीव पिलेंगे घूँघट का पट खेल रे।

घट - घट मे वह साई रहता कटुक वचन मत बोल रे।

धन जौबन को गरव न कीजे झूठा पँच रंग चोल रे।

सून्न महल में दियना बारि ले आसा सों तम डोल रे।

जोग जुगुत सो रँगमहल में पिय पायो अनमोल रे।

कहैं कवीर आनंद भयो है बाजत अनहद ढोल रे।

(6)

झीनी झीनी बीनी चदरिया।

काहे कै ताना काहे कै भरनी कौन तार से बीनी चदरिया।

इंगला पिगला ताना भरती सुखमन तार से बीनी चदरिया।

आठ कँवल दल चरखा डोले पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया।

साई को सियत मास दस लागौ ठोक कै वीनी चदरिया।

सो चादर सुर नर मुनि ओढ़े ओढ़ि कै मैली कीनी चदरिया।

दास कबीर जतन से ओढ़ी त्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।

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