रविवार, 21 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 16/17 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-16/17

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 16/17

 शीघ्र ब्रहृज्ञान की प्राप्ति

इन दो अध्यायों में एक धनाढ्य ने किस प्रकार साईबाबा से शीघ्र ब्रहृज्ञान प्राप्त करना चाहा था, उसका वर्णन हैं।
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गत अध्याय में श्री. चोलकर का अल्प संकल्प किस प्रकार पूर्णतः फलीभूत हुआ, इसका वर्णन किया गया हैं। उस कथा में श्री साईबाबा ने दर्शाया था कि प्रेम तथा भक्तिपूर्वक अर्पित की हुई तुच्छ वस्तु भी वे सहर्श स्वीकार कर लेते थे, परन्तु यदि वह अहंकारसहित भेंट की गई तो वह अस्वीकृत कर दी जाती थी। पूर्ण सच्चिदानन्द होने के कारण वे बाहृ आचार-विचारों को विशेष महत्त्व न देते थे और विनम्रता और आदरसहित भेंट की गई वस्तु का स्वागत करते थे।


यथार्थ में देखा जाय तो सद्तगुरु साईबाबा से अधिक दयालु और हितैषी दूसरा इस संसार में कौन हो सकता है। उनकी तुला (समानता) समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली चिन्तामणि या कामधेनु से भी नहीं हो सकती। जिस अमूल्य निधि की उपलब्धि हमें सदगुरु से होती है, वह कल्पना से भी परे है।

ब्रहृज्ञान-प्राप्ति की इच्छा से आये हुए एक धनाढ्य व्यक्ति को श्री साईबाबा ने किस प्रकार उपदेश किया, उसे अब श्रवण करें।

एक धनी व्यक्ति (दुर्भाग्य से मूल ग्रंथ में उसका नाम और परिचय नहीं दिया गया है) अपने जीवन में सब प्रकार से संपन्न था। उसके पास अतुल सम्पत्ति, घोडे, भूमि और अनेक दास और दासियाँ थी। जब बाबा की कीर्ति उसके कानों तक पहुँची तो उसने अपने एक मित्र से कहा कि मेरे लिए अब किसी वस्तु की अभिलाषा शेष नहीं रह गई है, इसलिये अब शिरडी जाकर बाबा से ब्रहृज्ञान-प्राप्त करना चाहिये और यदि किसी प्रकार उसकी प्राप्ति हो गई तो फिर मुझसे अधिक सुखी और कौन हो सकता है। उनके मित्र ने उन्हें समझाया कि ब्रहृज्ञान की प्राप्ति सहज नहीं है, विशेषकर तुम जैसे मोहग्रस्त को, जो सदैव स्त्री, सन्तान और द्रव्योपार्जन में ही फँसा रहता है। तुम्हारी ब्रहृज्ञान की आकांक्षा की पूर्ति कौन करेगा, जो भूलकर भी कभी एक फूटी कौड़ी का भी दान नहीं देता।

अपने मित्र के परामर्श की उपेक्षा कर वे आने-जाने के लिये एक ताँगा लेकर शिरडी आये और सीधे मसजिद पहुँचे। साईबाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिरे और प्रार्थना की कि आप यहाँ आनेवाले समस्त लोगों को अल्प समय में ही ब्रहृ-दर्शन करा देते है, केवल यही सुनकर मैं बहुत दूर से इतना मार्ग चलकर आया हूँ। मैं इस यात्रा से अधिक थक गया हूँ। यदि कहीं मुझे ब्रहृज्ञान की प्राप्ति हो जाय तो मैं यह कष्ट उठाना अधिक सफल और सार्थक समझूँगा।

बाबा बोले, मेरे प्रिय मित्र! इतने अधीर न होओ। मैं तुम्हें शीघ्र ही ब्रहृ का दर्शन करा दूँगा। मेरे सब व्यवहार तो नगद ही है और मैं उधार कभी नहीं करता। इसी कारण अनेक लोग धन, स्वास्थ्य, शक्ति, मान, पद आरोग्य तथा अन्य पदार्थों की इच्छापूर्ति के हेतु मेरे समीप आते है। ऐसा तो कोई बिरला ही आता है, जो ब्रहृज्ञान का पिपासु हो। भौतिक पदार्थों की अभिलाषा से यहाँ अने वाले लोगो का कोई अभाव नही, परन्तु आध्यात्मिक जिज्ञासुओं का आगमन बहुत ही दुर्लभ हैं। मैं सोचता हूँ कि यह क्षण मेरे लिये बहुत ही धन्य तथा शुभ है, जब आप सरीखे महानुभाव यहाँ पधारकर मुझे ब्रहृज्ञान देने के लिये जोर दे रहे है। मैं सहर्ष आपको ब्रहृ-दर्शन करा दूँगा।


यह कहकर बाबा ने उन्हें ब्रहृ-दर्शन कराने के हेतु अपने पास बिठा लिया और इधर-उधर की चर्चाओं में लगा दिया, जिससे कुछ समय के लिये वे अपना प्रश्न भूल गये। उन्होंने एक बालक को बुलाकर नंदू मारवाड़ी के यहाँ से पाँच रुपये उधार लाने को भेजा। लड़के ने वापस आकर बतलाया कि नन्दू का तो कोई पता नहीं है और उसके घर पर ताला पड़ा है। फिर बाबा ने उसे दूसरे व्यापारी के यहाँ भेजा। इस बार भी लड़का रुपये लाने में असफल ही रहा। इस प्रयोग को दो-तीन बार दुहराने पर भी उसका परिणाम पूर्ववत् ही निकला।

हमें ज्ञात ही है कि बाबा स्वंय सगुण ब्रहृ के अवतार थे। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि इस पाँच रुपये सरीखी तुच्छ राशि की यथार्थ में उन्हें आवश्यकता ही क्या थी और उस श्रण को प्राप्त करने के लिये इतना कठिन परिश्रम क्यों किया गया। उन्हें तो इसकी बिल्कुल आवश्यकता ही न थी। वे तो पूर्ण रीति से जानते होंगे कि नन्दूजी घर पर नहीं है। यह नाटक तो उन्होंने केवल अन्वेषक के परीक्षार्थ ही रचा था। ब्रहाजिज्ञासु महाशय जी के पास नोटों की अनेक गड्डियाँ थी और यदि वे सचमुच ही ब्रहृज्ञान के आकांक्षी होते तो इतने समय तक शान्त न बैठते। जब बाबा व्यग्रतापूर्वक पाँच रुपये उधार लाने के लिये बालक को यहाँ-वहाँ दौड़ा रहे थे तो वे दर्शक बने ही न बैठे रहते। वे जानते थे कि बाबा अपने वचन पूर्ण कर श्रण अवश्य चुकायेंगे। यद्यपि बाबा द्वारा इच्छित राशि बहुत ही अल्प थी, फिर भी वह स्वयं संकल्प करने में असमर्थ ही रहा और पाँच रुपया उधार देने तक का साहस न कर सका। पाठक थोड़ा विचार करें कि ऐसा व्यक्ति बाबा से ब्रहृज्ञान, जो विश्व की अति श्रेष्ठ वस्तु है, उसकी प्राप्ति के लिये आया हैं। यदि बाबा से सचमुच प्रेम करने वाला अन्य कोई व्यक्ति होता तो वह केवल दर्शक न बनकर तुरन्त ही पाँच रुपये दे देता। परन्तु इन महाशय की दशा तो बिल्कुल ही विपरीत थी। उन्होंने न रुपये दिये और न शान्त ही बैठे, वरन वापस जल्द लौटने की तैयारी करने लगे और अधीर होकर बाबा से बोले कि अरे बाबा! कृपया मुझे शीघ्र ब्रहृज्ञान दो। बाबा ने उत्तर दिया कि मेरे प्यारे मित्र! क्या इस नाटक से तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया। मैं तुमहें ब्रहृ-दर्शन कराने का ही तो प्रयत्न कर रहा था।


संक्षेप में तात्पर्य यह हो कि ब्रहृ का दर्शन करने के लिये पाँच वस्तुओं का त्याग करना पड़ता हैं -
पाँच प्राण
पाँच इन्द्रयाँ
मन
बुद्धि तथा
अहंकार।

यह हुआ ब्रहृज्ञान। आत्मानुभूति का मार्ग भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार तलवार की धार पर चलना। श्री साईबाबा ने फिर इस विषय पर विस्तृत वत्तव्य दिया, जिसका सारांश यह है –

ब्रहृज्ञान या आत्मानुभूति की योग्यताएँ



सामान्य मनुष्यों को प्रायः अपने जीवन-काल में ब्रहृ के दर्णन नहीं होते। उसकी प्राप्ति के लिये कुछ योग्यताओं का भी होना नितान्त आवश्यक है।

1. मुमुक्षुत्व (मुक्ति की तीव्र उत्कण्ठा)

जो सोचता है कि मैं बन्धन में हूँ और इस बन्धन से मुक्त होना चाहे तो इस ध्येय की प्राप्ति के लिये उत्सुकता और दृढ़ संकल्प से प्रयत्न करता रहे तथा प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने को तैयार रहे, वही इस आध्यात्मिक मार्ग पर चलने योग्य है।

2. विरक्ति

लोक-परलोक के समस्त पदार्थों से उदासीनता का भाव । ऐहिक वस्तुएँ, लाभ और प्रतिष्ठा, जो कि कर्मजन्य हैं – जब तक इनसे उदासीनता उत्पन्न न होगी, तब तक उसे आध्यात्मिक जगत में प्रवेश करने का अधिकार नहीं ।

3. अन्तमुर्खता

ईश्वर ने हमारी इन्द्रयों की रचना ऐसी की है कि उनकी स्वाभाविक वृत्ति सदैव बाहर की और आकृष्ट करती है। हमें सदैव बाहर का ही ध्यान रहता है, न कि अन्तर का जो आत्मदर्शन और दैविक जीवन के इच्छुक है, उन्हें अपनी दृष्टि अंतमुर्खी बनाकर अपने आप में ही होना चाहिये।

4. पाप से शुद्धि

जब तक मनुष्य दुष्टता त्याग कर दुष्कर्म करना नहीं छोड़ता, तब तक न तो उसे पूर्ण शान्ति ही मिलती है और न मन ही स्थिर होता है । वह मात्र बुद्घि बल द्घारा ज्ञान-लाभ कदारि नहीं कर सकता।

5. उचित आचरण

जब तक मनुष्य सत्यवादी, त्यागी और अन्तर्मुखी बनकर ब्रहृचर्य ब्रत का पालन करते हुये जीवन व्यतीत नहीं करता, तब तक उसे आत्मोपलब्धि संभव नहीं।

6. सारवस्तु ग्रहण करना

दो प्रकार की वस्तुएँ है – नित्य और अनित्य। पहली आध्यात्मिक विषयों से संबंधित है तथा दूसरी सांसारिक विषयों से। मनुष्यों को इन दोनो का सामना करना पड़ता है। उसे विवेक द्घारा किसी एक का चुनाव करना पड़ता है। विद्घान् पुरुष अनित्य से नित्य को श्रेयस्कर मानते है, परन्तु जो मूढ़मति है, वे आसक्तियों के वशीभूत होकर अनित्य को ही श्रेष्ठ जानकर उस पर आचरण करते है।

7. मन और इन्द्रयों का निग्रह

शरीर एक रथ हैं। आत्मा उसका स्वामी तथा बुद्धिरथी हैं। मन लगाम है और इन्द्रयाँ उसके घोड़े। इन्द्रिय-नियंत्रण ही उसका पथ है। जो अल्प बुद्धि है और जिनके मन चंचल है तथा जिनकी इन्द्रयाँ सारथी के दुष्ट घोड़ों के समान है, वे अपने गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुँचते तथा जन्म-मृत्यु के चक्र में घूमते रहते है। परंतु जो विवेकशील है, जिन्होंने अपने मन पर नियंत्रण में है, वे ही गन्तव्य स्थान पर पहुँच पाते है, अर्थात् उन्हें परम पद की प्राप्ति हो जाती है और उनका पुनर्जन्म नहीं होता। जो व्यक्ति अपनी बुद्धि द्धारा मन को वश में कर लेता है, वह अन्त में अपना लक्ष्य प्राप्त कर, उस सर्वशक्तिमान् भगवान विष्णु के लोक में पहुँच जाता है।

8.मन की पवित्रता

जब तक मनुष्य निष्काम कर्म नहीं करता, तब तक उसे चित्त की शुद्धि एवं आत्म-दर्शन संभव नहीं है। विशुदृ मन में ही विवेक और वैराग्य उत्पन्न होते है, जिससे आत्म-दर्शन के पथ में प्रगति हो जाती है। अहंकारशून्य हुए बिना तृष्णा से छुटकारा पाना संभव नहीं है। विषय-वासना आत्मानुभूति के मार्ग में विशेष बाधक है। यह धारणा कि मैं शरीर हूँ, एक भ्रम है। यदि तुम्हें अपने जीवन के ध्येय (आत्मसाक्षात्कार) को प्राप्त करने की अभिलाषा है तो इस धारणा तथा आसक्ति का सर्वथा त्याग कर दो।

9. गुरु की आवश्यकता

आत्मज्ञान इतना गूढ़ और रहस्यमय है कि मात्र स्वप्रयत्न से उसकी प्राप्ति संभव नहीं। इस कारण आत्मानुभूति प्राप्त गुरु की सहायता परम आवश्यक है। अत्यन्त कठिन परिश्रम और कष्टों के उपरान्त भी दूसरे क्या दे सकते है, जो ऐसे गुरु की कृपा से सहज में ही प्राप्त हो सकता है । जिसने स्वयं उस मार्ग का अनुसरण कर अनुभव कर लिया हो, वही अपने शिष्य को भी सरलतापूर्वक पग-पग पर आध्यात्मिक उन्नति कर सकता है।

10. अन्त में ईश-कृपा परमावश्यक है ।

जब भगवान किसी पर कृपा करते है तो वे उसे विवेक और वैराग्य देकर इस भवसागर से पार कर देते है। यह आत्मानुभूति न तो नाना प्रकार की विधाओं और बुद्धि द्धारा हो सकती है और न शुष्क वेदाध्ययन द्धारा ही। इसके लिए जिस किसी को यह आत्मा वरण करती है, उसी को प्राप्त होती है तथा उसी के सम्मुख वह अपना स्वरुप प्रकट करती है – कठोपनिषद में ऐसा ही वर्णन किया गया है।

बाबा का उपदेश



जब यह उपदेश समाप्त हो गया तो बाबा उन महाशय से बोले कि अच्छा, महाशय। आपकी जेब में पाँच रुपये के पचास गुने रुपयों के रुप में ब्रहृ है, उसे कृपया बाहर निकालिये। उसने नोटों की गड्डी बाहर निकाली और गिनने पर सबको अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि वे दस-दस के पच्चीस नोट थे। बाबा की यह सर्वज्ञता देखकर वे महाशय द्रवित हो गये और बाबा के चरणों पर गिरकर आशर्वाद की प्रार्थना करने लगे। तब बाबा बोले कि अपना ब्रहा का (नोटों का) यह बण्डल लपेट लो। जब तक तुम्हारा लोभ और ईष्र्या से पूर्ण छुटकारा नही हो जाता, तबतक तुम ब्रहृ के सत्यस्वरुप को नहीं जान सकते। जिसका मन धन, सन्तान और ऐश्वर्य में लगा है, वह इन सब आसक्तियों को त्यागे बिना कैसे ब्रहृ को जानने की आशा कर सकता है। आसक्ति का भ्रम और धन की तृष्णा दुःख का एक भँवर (विवर्त) है, जिसमेंअहंकारा और ईष्र्या रुपी मगरों को वास है। जो निरिच्छ होगा, केवल वही यह भवसागर पार कर सकता है। तृष्णा और ब्रहृ के पारस्परिक संबंध इसी प्रकार के है। अतः वे परस्पर कट्टर शत्रु है।

तुलसीदास जी कहते है –

जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम। तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम।।

जहाँ लोभ है, वहाँ ब्रहृ के चिन्तन या ध्यान की गुंजाइश ही नहीं है। फिर लोभी पुरुष को विरक्ति और मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है। लालची पुरुष को न तो शान्ति है और न सन्तोष ही, और न वह दृढ़ निश्चयी ही होता है। यदि कण मात्र भी लोभ मन में शेष रह जाये तो समझना चाहिये कि सब साधनाएँ व्यर्थ हो गयी। एक उत्तम साधक यदि फलप्राप्ति की इच्छा या अपने कर्तव्यों का प्रतिफल पाने की भावना से मुक्त नहीं है और यदि उनके प्रति उसमें अरुचि उत्पन्न न हो तो सब कुछ व्यर्थ ही हुआ। वह आत्मानुभूति प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकता। जो अहंकारी तथा सदैव विषय-चिंतन में रत है, उन पर गुरु के उपदेशों तथा शिक्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अतः मन की पवित्रता अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना आध्यात्मिक साधनाओं का कोई महत्व नहीं तथा वह निरादम्भ ही है। इसीलिये श्रेयस्कर यही है कि जिसे जो मार्ग बुद्धिगम्य हो, वह उसे ही अपनाये। मेरा खजाना पूर्ण है और मैं प्रत्येक की इच्छानुसार उसकी पूर्ति कर सकता हूँ, परन्तु मुझे पात्र की योग्यता-अयोग्यता का भी ध्यान रखना पड़ता है। जो कुछ मैं कह रहा हूँ, यदि तुम उसे एकाग्र होकर सुनोगे तो तुम्हें निश्चय ही लाभ होगा। इस मसजिद में बैठकर मैं कभी असत्य भाषण नहीं करता। जब घर में किसी अतिथि को निमंत्रण दिया जाता है तो उसके साथ परिवार, अन्य मित्र और सम्बन्धी आदि भी भोजन करने के लिये आमंत्रित किये जाते है। बाबा द्धारा धनी महाशय को दिये गये इस ज्ञान-भोज में मसजिद में उपस्थित सभी जन सम्मलित थे। बाबा का आशीर्वाद प्राप्त कर सभी लोग उन धनी महाशय के साथ हर्ष और संतोषपूर्वक अपने-अपने घरों को लौट गये।

बाबा का वैशिष्टय



ऐसे सन्त अनेक है, जो घर त्याग कर जंगल की गुफाओं या झोपड़ियों में एकान्त वास करते हुए अपनी मुक्ति या मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न करते रहते है। वे दूसरों की किंचित मात्र भी अपेक्षा न कर सदा ध्यानस्थ रहते है। श्री साईबाबा इस प्रकृति के न थे। यद्यपि उनके कोई घर द्घार, स्त्री और सन्तान, समीपी या दूर के संबंधी न थे, फिर भी वे संसार में ही रहते थे। वे केवल चार-पाँच घरों से भिक्षा लेकर सदा नीमवृक्ष के नीचे निवास करते तथा समस्त सांसारिक व्यवहार करते रहते थे। इस विश्व में रहकर किस प्रकार आचरण करना चाहिये, इसकी भी वे शिक्षा देते थे। ऐसे साधु या सन्त प्रायः बिरले ही होते है, जो स्वयं भगवत्प्राप्ति के पश्चात् लोगों के कल्याणार्थ प्रयत्न करें। श्री साईबाबा इन सब में अग्रणी थे, इसलिये हेमाडपंत कहते है -

वह देश धन्य है, वह कुटुम्ब धन्य है तथा वे माता-पिता धन्य है, जहाँ साईबाबा के रुप में यह असाधारण परम श्रेष्ठ, अनमोल विशुदृ रत्न उत्पन्न हुआ।

।।श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु।।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-15 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-15

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-15

नारदीय कीर्तन पदृति, 
श्री. चोलकर की शक्कररहित चाय, 
दो छिपकलियाँ।

पाठकों को स्मरण होगा कि छठें अध्याय के अनुसार शिरडी में राम नवमी उत्सव मनाया जाता था। यह कैसे प्रारम्भ हुआ और पहले वर्ष ही इस अवसर पर कीर्तन करने के लिये एक अच्छे हरिदास के मिलने में क्या-क्या कठिनाइयाँ हुई, इसका भी वर्णन वहाँ किया गया है। इस अध्याय में दासगणू की कीर्तन पदृति का वर्णन होगा।

नारदीय कीर्तन पदृति



बहुधा हरिदास कीर्तन करते समय एक लम्बा अंगरखा और पूरी पोशाक पहनते है। वे सिर पर फेंटा या साफा बाँधते है और एक लम्बा कोट तथा भीतर कमीज, कन्धे पर गमछा और सदैव की भाँति एक लम्बी धोती पहनते है। एक बार गाँव में कीर्तन के लिये जाते हुए दासगणू भी उपयुक्त रीति से सज-धज कर बाबा को प्रणाम करने पहुँचे। बाबा उन्हें देखते ही कहने लगे, अच्छा। दूल्हा राजा। इस प्रकार बनकर कहाँ जा रहे हो। उत्तर मिला कि कीर्तन के लिये। बाबा ने पूछा कि कोट, गमछा और फेंटे इन सब की आवश्यकता ही क्या है। इनकों अभी मेरे सामने ही उतारो। इस शरीर पर इन्हें धारण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। दासगणू ने तुरन्त ही वस्त्र उतार कर बाबा के श्री चरणों पर रख दिये। फिर कीर्तन करते समय दासगणू ने इन वस्त्रों को कभी नहीं पहना। वे सदैव कमर से ऊपर अंग खुले रखकर हाथ में करताल और गले में हार पहन कर ही कीर्तन किया करते थे। यह पदृति यद्यपि हरिदासों द्धारा अपनाई गई पदृति के अनुरुप नहीं है, परन्तु फिर भी शुदृ तथा पवित्र हैं। कीर्तन पदृति के जन्मदाता नारद मुनि कटि से ऊपर सिर तक कोई वस्त्र धारण नहीं करते थे। वे एक हाथ में वीणा ही लेकर हरि-कीर्तन करते हुए त्रैलोक्य में घूमते थे।

श्री. चोलकर की शक्कररहित चाय



बाबा की कीर्ति पूना और अहमदनगर जिलों में फैल चुकी थी, परन्तु श्री नानासाहेब चाँदोरकर के व्यक्तिगत वार्ताँलाप तथा दासगणू के मधुर कीर्तन द्धारा बाबा की कीर्ति कोकण (बम्बई प्रांत) में भी फैल गई। इसका श्रेय केवल श्री दासगणू को ही है। भगवान् उन्हें सदैव सुखी रखे। उन्होंने अपने सुन्दर प्राकृतिक कीर्तन से बाबा को घर-घर पहुँचा दिया। श्रोताओं की रुचि प्रायः भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। किसी को हरिदासों की विदृता, किसी को भाव, किसी को गायन, तो किसी को चुटकुले तथा किसी को वेदान्त-विवेचन और किसी को उनकी मुख्य कथा रुचिकर प्रतीत होती है। परन्तु ऐसे बिरले ही है, जिनके हृदय में संत-कथा या कीर्तन सुनकर श्रद्धा और प्रेम उमड़ता हो। श्री दासगणू का कीर्तन श्रोताओं के हृदय पर स्थायी प्रभाव डालता था। एक ऐसी घटना नीचे दी जाती है।

एक समय ठाणे के श्रीकौपीनेश्वर मन्दिर में श्री दासगणू कीर्तन और श्री साईबाबा का गुणगान कर रहे थे। श्रोताओं मे एक चोलकर नामक व्यक्ति, जो ठाणे के दीवानी न्यायालय में एक अस्थायी कर्मचारी था, भी वहाँ उपस्थित था। दासगणू का कीर्तन सुनकर वह बहुत प्रभावित हुआ और मन ही मन बाबा को नमन कर प्रार्थना करने लगा कि हे बाबा! मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ और अपने कुटुम्ब का भरण-पोशण भी भली भाँति करने में असमर्थ हूँ। यदि मै आपकी कृपा से विभागीय परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया तो आपके श्री चरणों में उपस्थित होकर आपके निमित्त मिश्री का प्रसाद बाँटूँगा। भाग्य ने पल्टा खाया और चोलकर परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। उसकी नौकरी भी स्थायी हो गई। अब केवल संकल्प ही शेष रहा। शुभस्य शीघ्रम। श्री. चोलकर निर्धन तो था ही और उसका कुटुम्ब भी बड़ा था। अतः वह शिरडी यात्रा के लिये मार्ग-व्यय जुटाने में असमर्थ हुआ। ठाणे जिले में एक कहावत प्रचलित है कि नाठे घाट व सहाद्रि पर्वत श्रेणियाँ कोई भी सरलतापूर्वक पार कर सकता है, परन्तु गरीब को उंबर घाट (गृह-चक्कर) पार करना बड़ा ही कठिन होता हैं। श्री. चोलकर अपना संकल्प शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने के लिये उत्सुक था। उसने मितव्ययी बनकर, अपना खर्च घटाकर पैसा बचाने का निश्चय किया। इस कारण उसने बिना शक्कर की चाय पीना प्रारम्भ किया और इस तरह कुछ द्रव्य एकत्रित कर वह शिरडी पहुँचा। उसने बाबा का दर्शन कर उनके चरणों पर गिरकर नारियल भेंट किया तथा अपने संकल्पानुसार श्रद्धा से मिश्री वितरित की और बाबा से बोला कि आपके दर्शन से मेरे हृदय को अत्यंत प्रसन्नता हुई है। मेरी समस्त इच्छायें तो आपकी कृपादृष्टि से उसी दिन पूर्ण हो चुकी थी। मसजिद में श्री. चोलकर का आतिथ्य करने वाले श्री बापूसाहेब जोग भी वहीं उपस्थित थे। जब वे दोनों वहाँ से जाने लगे तो बाबा जोग से इस प्रकार कहने लगे कि अपने अतिथि को चाय के प्याले अच्छी तरह शक्कर मिलाकर देना। इन अर्थपूर्ण शब्दों को सुनकर श्री. चोलकर का हृदय भर आया और उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके नेत्रों से अश्रु-धाराएँ प्रवाहित होने लगी और वे प्रेम से विहृल होकर श्रीचरणों पर गिर पड़े। श्री. जोग को अधिक शक्कर सहित चाय के प्याले अतिथि को दो यह विचित्र आज्ञा सुनकर बड़ा कुतूहल हो रहा था कि यथार्थ में इसका अर्थ क्या है बाबा का उद्देश्य तो श्री. चोलकर के हृदय में केवल भक्ति का बीजारोपण करना ही था । बाबा ने उन्हें संकेत किया था कि वे शक्कर छोड़ने के गुप्त निश्चय से भली भाँति परिचित है।


बाबा का यह कथा था कि यदि तुम श्रद्धापूर्वक मेरे सामने हाथ फैलाओगे तो मैं सदैव तुम्हारे साथ रहूँगा। यद्यपि मैं शरीर से तो यहाँ हूँ, परन्तु मुझे सात समुद्रों के पार भी घटित होने वाली घटनाओं का ज्ञान है। मैं तुम्हारे हृदय में विराजीत, तुम्हारे अन्तरस्थ ही हूँ। जिसका तुम्हारे तथा समस्त प्राणियों के हृदय में वास है, उसकी ही पूजा करो। धन्य और सौभाग्यशाली वही है, जो मेरे सर्वव्यापी स्वरुप से परिचित हैं। बाबा ने श्री. चोलकर को कितनी सुन्दर तथा महत्वपूर्ण शिक्षा प्रदान की।

दो छिपकलियों का मिलन

अब हम दो छोटी छिपकलियों की कथा के साथ ही यह अध्याय समाप्त करेंगे। एक बार बाबा मसजिद में बैठे थे कि उसी समय एक छिपकली चिकचिक करने लगी। कौतूहलवश एक भक्त ने बाबा से पूछा कि छिपकली के चिकचिकाने का क्या कोई विशेष अर्थ है। यह शुभ है या अशुभ। बाबा ने कहा कि इस छिपकली की बहन आज औरंगाबाद से यहाँ आने वाली है। इसलिये यह प्रसन्नता से फूली नहीं समा रही है। वह भक्त बाबा के शब्दों का अर्थ न समझ सका। इसलिये वह चुपचाप वहीं बैठा रहा।

इसी समय औरंगाबाद से एक आदमी घोडे पर बाबा के दर्शनार्थ आया। वह तो आगे जाना चाहता था, परन्तु घोड़ा अधिक भूखा होने के कारण बढ़ता ही न था। तब उसने चना लाने को एक थैली निकाली और धूल झटकारने के लिये उसे भूमि पर फटकारा तो उसमें से एक छिपकली निकली और सब के देखते-देखते ही वह दीवार पर चढ़ गई। बाबा ने प्रश्न करने वाले भक्त से ध्यानपूर्वक देखने को कहा। छिपकली तुरन्त ही गर्व से अपनी बहन के पास पहुँच गई थी। दोनों बहनें बहुत देर तक एक दूसरे से मिलीं और परस्पर चुंबन व आलिंगन कर चारों ओर घूमघूम कर प्रेमपूर्वक नाचने लगी। कहाँ शिरडी और कहाँ औरंगाबाद। किस प्रकार एक आदमी घोड़े पर सवार होकर, थैली में छिपकली को लिये हुए वहाँ पहुँचता है और बाबा को उन दो बहिनों की भेंट का पता कैसे चल जाता है - यह सब घटना बहुत आश्चर्यजनक है और बाबा की सर्वव्यापकता की द्योतक है।

शिक्षा

जो कोई इस अध्याय का ध्यानपूर्वक पठन और मनन करेगा, साईकृपा से उसके समस्त कष्ट दूर हो जायेंगे और वह पूर्ण सुखी बनकर शांति को प्राप्त होगा।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

कबीर की दार्शनिक विचारधारा के बारे में एक लेख प्रस्तुत कीजिए | kabirdas | kabir

कबीर की दार्शनिक विचारधारा के बारे में एक लेख प्रस्तुत कीजिए।

(अथवा)

कबीर के दर्शन सम्बन्धी विचार क्या थे, विवेचन कीजिए।

रुपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. ब्रह्म सम्बन्धी विचार

योग मर्यादा

3. जीव सम्बन्धी विचारधारा

4. जगत सम्मबन्धी विचारधारा

5. रहस्यवाद

6. जीवन की अस्थिरता

7. सामाजिक दर्शन

8. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

भारतीय साहित्य में दर्शन भी साथ-साथ चलता रहता है। किसी भी साहित्यिक विशेष को सावधानी के साथ अवलोकन (परखना, देखना) करना दर्शन कहलाता है। दर्शन और साहित्य परस्पर पूरक हैं। कबीरदास वस्तुतः भक्त थे। संतों के साथ उनका सम्पर्क था। इसलिए उनकी विचारधारा में परमात्मा, प्रकृति, जीव, माया आदि पर चर्चा हुई हैं।

ब्रह्म, जीव, तथा दगत सम्बन्धी विषयों पर चर्चा करना ही 'दर्शन' कहलाता हैं।

तत् + त्वं - तत्त्वं

वह (परमात्मा) तुम - तुम परमात्मा

कबीर निर्गुण परमात्मा को मानते हैं। यह एक प्रकार से भारतीय 'ब्रह्मवाद' है। कबीर अनपढ़ होने के कारण उन्होंने ब्रह्मवाद का अध्ययन नहीं किया। लेकिन साधु-संतों के संपर्क से जो ब्रह्म सम्बन्धी विचार बने वे भारतीय ब्रह्मवाद के अन्तर्गत आते हैं। अपने परमात्मा को कबीर राम रहीम, अल्लाह, गोविन्द आदि नामों से पुकारते हैं। वे निर्गुणेपासक होने के कारण निर्गुण परमात्मा की उपासना करने की सलाह देते हैं।

2. ब्रह्म सम्बन्धी विचार :

निरगुण राम, निरगुण राम जपहुरे भाई।

हिन्दु तुरक न कोई।।

परमात्मा हर जीव के अन्दर ही रहता है

न मैं मंदिर न मैं मसजिद। न काबे न कैलास में।।

हर जीव की साँस में परमात्मा रहता है। जिसप्रकार कस्तूरी मृग की नाभि में कस्तूरी रहती हैं। उसी प्रकार परमात्मा हर जीव के अन्दर रहता है। भगवान को न पहचान होने के कारण मानव भौतिक संसार में कहीं-कहीं भटकता रहता है।

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।

ऐसे घटि-घटि रॉम है, दुनियाँ देखे नाहिं।।

कबीर ज्ञानाश्ररी शाखा के प्रवर्तक होने के कारण सारे विश्व में परमात्मा के दर्शन करते हैं। वे कहते हैं कि- 'घटि- घटि' राम है। कबीर को कुछ लोग 'साधक' कहते हैं। कुछ लोग 'ज्ञानी' कहते हैं। कुछ लोग 'भक्त' कहते हैं और कुछ लोग 'कवि' कहते हैं। लेकिन वस्तुतः कबीर इन सब का समन्वय रूप हैं। परमात्मा को वे हर जीव में अंतर्लीन मानते हैं।

योग मर्यादा :

कबीर हठयोगी हैं। वे मूलाधार से निकलनेवाली इडा, पिंगला और सुषुम्ना नाडियों की चर्चा करते हैं। मूलाधार से निकलनेवाली चेतना इन नाड़ियों द्वारा सहस्रार तक पहुँचना ही कबीर कैलास, सहस्रार या सहस्रदल कमल कहते हैं। सहस्रार में से निकलनेवाले नाद को. "अनहदनाद" कहा है। मूलाधार से प्राण सहस्रार तक पहुँचना ही अमृतत्त्व सिद्धि कहलाती हैं।

3. जीव सम्बन्धी विचार : -

आत्मा शरीर धारण करने पर 'जीव' कहलाती हैं। जीव अस्वतन्त्र है। सदा परमात्मा की आराधना से जीव मुक्ति प्राप्त-कर लेता है। मोक्ष प्राप्ति केलिए कबीर ज्ञान, भक्ति, योग, ध्यान आदि की आवश्यकता प्रकट करते हैं। परमात्मा को बतानेवाला गुरु है। इसलिए कबीर गुरु को परमात्मा से भी महान मानते है।

गुरू गोविन्द दोख उडे, काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय॥

जीव अस्वतन्त्र है। उसे ज्ञान - मार्ग पर ले आनेवाला गुरु होता है। इसलिए कबीर गुरु की महत्ता अनुपम मानते हैं। सारी धरती को 'कागज' बना कर, सारे वृक्षों को 'लेखिनियाँ' बना कर, और सात समुद्रों का पानी 'स्याही' बना कर लिखने से भी गुरु की महिमा लिखी न जाती। वे कहते है -

गुरु धोबी शिष्य कपडा साबुन सिरजनहार।

सुरति सिला पर धोयिएँ।

4. जगत सम्बन्धी विचार :

कबीर सारे जगत को भ्रमात्मक तथा माया जनित मानते हैं। माया मानव को भगवान से अलग कर या दूर करके विविध सांसारिक बंधनों में या मोहों में डाल देती है। गुरु के ज्ञान से जीव उस माया से बच सकता हैं।

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवै पडंत।

कहे कबीर गुरु ग्यान ते एक आध उबरंत॥

माया को कबीर मोहिणी, पापिणी, डाकिनी आदि नामों से बुलाते हैं।

वे करते है कि -

राम सुमरि राम सुमरि भाई।

भगवान के प्रति आत्म समर्पण करना ही जीव का लक्षण हैं। माया के भ्रम में जीव न पड़ कर भगवान में लगन होना ही "भक्ति" हैं। इसीलिए कबीर अपने को राम के कुत्ते तक मानते हैं।

कबीर कूता राम का, मुतियाँ मेरा नाम।

गले राम की जेवडी, जित खींचे तित जाऊँ॥

5. रहस्यवाद :

प्रकृति में परमात्मा को देखना और परमात्मा की उपासना करना 'रहस्यवाद' है। कबीर बडे रहस्यवादी हैं। कभी साधनात्मक और कभी भावात्मक रहस्यवाद में वे अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। जीव परमात्मा से आता है। शरीर के अन्त हो जाने पर जीव पुनः परमात्मा में जा कर लीन हो जाता है।

जल मैं कुम्भ, कुम्भ में जल हैं, बाहर भीतर पानी।

फूटा कुम्भ जल जलहि समानाँ इहि तथ कयौ ग्यानी॥

जीव परमात्मा के दर्शन केलिए तड़पता रहता हैं। कबीर परमात्मा के दर्शन के लिए व्यथित होनेवाली आत्मा को प्रस्तुत करते है।

आँखडियाँ झाई पडी पंथ निहारि निहारि।

जीभडियाँ छाला पडया राम पुकारि पुकारि॥

ज्ञानी कबीर को परमात्मा की झलक दर्शित होने पर वे भाव विभोर हो कर कहते हैं।

लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल।

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।

यहाँ कबीर का रहस्यवाद अद्वैतवाद से परिपुष्ट हैं। अद्वैतवाद में वैष्णाव शब्दों को समन्वित करना कबीर की साहित्यिक सार्वभौमता है सदा वे परमात्मा को राम शब्द से सम्बोधित करते हैं। इसीलिए हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को "वाणी के डिक्टेटर" कहते हैं।

6. जीवन की अस्थिरता :

कबीर सदा परमात्मा, जीव और जगत के बारे में ही सोचते रहते हैं। समाज में लोग विध्या, धन, प्रभुता (power) कीर्ति आदि पर गर्व करते हैं। लेकिन वे नहीं सोचते कि जीवन क्षणिक हैं। इसलिए गर्व न करें।

कबीर की बाणी कहती हैं।

पानी केरा बुदबुदा अस मनुष की जाति।

देखत ही छिप जायेगा ज्यों तारा परभाति॥

मृत्यु सदा मानवों को चुन चुन कर ले जाती है। प्रतीक योजना के द्वारा कबीर मानव जीवन की क्षण भंगुरता व्यक्त करते है।

माली आवत देखि के कलियाँ करी पुकार।

फूली फूली चुन लिए काल्ह हमारी बार।।

7. सामाजिक दर्शन :

कबीर का समय साहित्यक, धार्मिक, सांस्कृतिक, नैतिक तथा राजनीतिक दशाओं में संक्रामक था। मिथ्याडम्बरों में पण्डित पल्लवित हो रहे थे। समाज में सच्चाई का नाम नहीं था। इसलिए मिध्याबादी पण्डितों की अवहेलना करते हुए।

पोथी पढ़ि-पढि जग मुआ पंडित भया न कोइ।

ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होइ।।

आदमी को सत्य निष्ठ बनने केलिए उस की गलितियों को पकड़ने वाला साथ रहना चाहिए।

निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाइ।

बिन साबुन पानी बिना निरमल करै सुभाइ।।

वे कहते हैं - हिन्दू, दया की चर्चा करते हैं और मुसलमान, मेहर की चर्चा करते हैं। लेकिन व्यवहार में आ कर हिन्दुओं में न दया हैं और मुसलमानों में न मेहर हैं। इसप्रकार समाज में होनेवाले अनेक तृटियों का वे डट कर खण्डन करते हैं।

8. उपसंहार :

कबीर भक्त हैं, ज्ञानी हैं, साधु हैं, पति, पिता, कर्मठ (काम करनेवाला) और सब से बढ़ कर बडे दार्शनिक हैं। हर विषय में उनकी दार्शनिक विचारधारा अन्तर्लीन रहती है। ये योगी होने के कारण योग साधना के साथ-साथ राम और जगत पर प्रेम भावना रखते हैं। सब से बढ़ कर दार्शनिक लालच नहीं होता। लालच माया जनित है। इसलिए वे भगवान से कहते हैं।

साई इतना दीजिए जा में कुटुंब समाय।

मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय।।

ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास की विचारधारा का अवलोकन कीजिए | KABIRDAS | kabir

ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कबीरदास की विचारधारा का अवलोकन कीजिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. निर्गुण ब्रह्म ती उपासना

3. अवतारवाद का खण्डन

4. गुरु का महत्व

5. जाति - पांत का खण्डन

6. बाह्याडंबरों का खण्डन

7. रहस्यवाद

8. नाम स्मरण

9. अनुभूति की तीव्रता

10. समाज सुधार

11. दार्शनिक विचारधारा

12. भाषा - शैली

13. उपसंहार

प्रस्तावना :

हिन्दी साहित्य क्षेत्र के निर्गुण भक्ति शाखा के प्रधान कवि कबीर माने जाते हैं। वे ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रवर्तक हैं। वे एकेश्वरवादी हैं और उनका एकेश्वरवाद मुसलमानों के एकेश्वरवाद से भिन्न है। वह अलख तथा अगोचर है। कबीर भक्त, ज्ञानी समाज सुधारक, रहस्यवादी, साधक, जाति-पाँत का खण्डन करने वाला, विचारक, मूर्ति पूजा का खण्डन करने वाला आदि के रूप में हमारे सामने आते हैं। ध्यान से देखने पर कबीर में वैष्णवों की भक्ति, जैनों का अहिंसावाद और बौद्धों का बुद्धिवाद दिखाई देते हैं। कबीर बाह्याडंबरों का खण्डन करके उपनिषदों का अद्वैतवाद प्रतिपादित करते हैं। वे अनपढ़ थे। लेकिन साधु-संतों की संगति गुरु रामानन्द की कृपा, सतत प्राकृतिक-सामाजिक निरीक्षण, दार्शनिक चिन्तन, आडंबर रहति जीवन, राम भक्ति में तल्लीन होना आदि के कारण उनकी वाणी कविता की लहरों में पल्लवित होती है। यह एक बडी चर्चा का विषय है कि - कबीर कवि थे या भक्त थे या दर्शनिक थे। लेकिन हमारे विचार में कबीर इन तीनों का समन्वय रूप है। इन को अलग अलग दृष्टियों से देखना कठिन है।

कबीर समाज में विविध विषयों का अनुशीलन करते जाते थे। उनके शिष्य भी विविध प्रकार के प्रश्न करते थे। समय समय पर विचारधारा में पल्लवित हुई उनकी वाणी को शिष्यों ने ग्रन्थ का रूप दिया है जो बीजक नाम से विख्यात है। इस के तीन भाग हैं, साखी, सबद तथा रमैनी। वे नीराकार राम के अनन्य भक्त हैं। कबीर उस समय पंजाब से लेकर बंगाल तक सारे हिन्दुस्तान में विचरते थे। साधु-संतों के शब्द उनके साहित्य में प्रचलित होने के कारण उनकी भाषा सधुक्कडी कहलाती है और विवधि भाषाओं का मिश्रम होने के कारण खिचडी कहलाती है। कबीर जो भी भाव या विचार उनके मन में आते थे, निर्भीकता के साथ डटकर समाज के सामने प्रस्तुत करते थे। -

2. निर्गुण बह्म की उपासना :

संत कबीर राम के अनन्य भक्त होने के कारण वे निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते हैं। वे कहते हैं -

"निरगुण राम निरगुण राम जपहु रे भाई।

हिन्दु तुरक न कोई"।।

उनके राम निराकार थे। वे दशारथनन्दन राम को नहीं मनते थे।

"दशरथ सुत का लोक बखाना

राम नाम का मरम है आना”

वे राम के बारे में इस प्रकार कहते हैं -

"न मैं मंदिर न मैं मसजिद न काबे कैलास में"

वे कहते हैं कि निर्गुण राम हर जीव की साँसों में रहते हैं।

3. अवतारवाद का खण्डन:

संत कबीर निर्गुण परब्रह्म के उपासक थे। वे अवतारवाद का डटकर खण्डन करते थे। अवतार के बहाने परमात्मा को जन्म - मरण के बन्धनों में डालना वे नहीं चाहते थे। इसलिए कबीर अवतार वाद का खण्डन करते हैं।

4. गुरु का महत्त्व:

संत कबीर गुरु को भगवान से भी बढ़कर मानते हैं क्यों कि गुरु ज्ञान प्रदाता है। गुरु के द्वारा ही हम भगवान को जान सकते हैं। इसलिए कबीर कहते हैं कि - सारी पृथ्वी को कागज बनौकर, सारे समुद्रों के पानी को स्याही बनाकर और सारे वृक्षों को कलमें बनाकर लिखने पर भी गुरु की महत्ता पूर्णरूप से नहीं लिख पाते।

धरती सब कागद करौं लेखिनि सब बनराइ।

सात समंद की मसि करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ।।

इसलिए वे कहते है -

“गुरु गोविन्द दोऊ खडे काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय'।।"

5. जाति - पांत का खण्डन :

परमात्मा एक ही है। सारे जीव उसी के बनाये हुए पुतले हैं। जाति-पान्त मानव निर्मित हैं। जाति से संसार को कोई लाभ नहीं। लाभ होता है ज्ञान से। इसलिए कबीर कहते हैं -

"जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का, पडा रहने दो म्यान।।"

6. बाहयाडंबरों का खण्डन :

धर्म के नाम पर होनेवाले व्रत, तीर्थ, रोजा, नमाज, मूर्ति पूजा आदि का खण्डन कबीर ने कटु किया है। समाज में लोग दया तथा करुणा के बारे में चर्चा करते हैं। लेकिन सच्चा दयावान कहीं भी दिखाई नहीं देता। बकरी कहीं जंगल में जाकर घास - पत्ते खा लेती है, मानव उसकी खाल निकाल देता है और खा लेता है। फिर, मानव को कौन खाये?

"बकरी पाती खात है ताकि खाई खाल।

जे जन बकरी खात है, तिन को कौन हवाल।।"

कंकड और पत्थर जोडकर मसजित बना देते हैं। मुल्ला उस पर चढ़कर ऐसे तनाव के साथ पुकारता है मानो अल्लाह बहरा हुआ है। इसी प्रकार मंदिर में पत्थर की मूर्ति रखकर पूजा करनेवाले भी कबीर से छूटे नहीं।

"कंकर पत्थर जोरि के मसजिद लई बनाय।

उसपर चढ़ी मुल्ला बांग दे बहिरा हुआ खुदाय।।"

"पाहन पूजे हरि मिले मैं, पूजू पहार।

ताते से यह चाकी भली, पीस खाय संसार।।"

7. रहस्यवाद :

संत कबीर महान साधक थे। वे सदा आत्मानुभूति में विचरते थे। वे हठयोग की साधना करते थे। उनके साहित्य में नाड़ी व्यवस्था की चर्चा होती थी। अपने पदों में और दोहों में वे इस पिंगला और सुशुम्ना की चर्चा करते जाते थे। यह सारा संसार ब्रह्मय है। ब्रह्म से जीव आता है, और फिर ब्रह्म में ही वह तीन हरे जाता है। इसी विषय को दार्शनिक कबीर प्रतीकात्मक विधान में प्रस्तुत करते हैं।

"जल में कुंभ कुंभ में जल है, भीतर बाहर पानी।

फूटा कुंभ जल जलहि समाना यह तथ्य कहियो ग्यानि”।

8. नाम स्मरण :

कबीरदास सदा निराकार राम का स्मरण करते थे। भगवान की भक्ति प्रधान है। भगवान के सामने सब कुछ समर्पित करना है। अभिमान को त्याग कर भगवान का स्मरण करे। विविध पुस्तकें पढ़ने से कोई लाभ नहीं।

"पोथी पदि पदि जग मुआ पंडित भया न कोय।

ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।"

प्रेम की गली इतनी संकरी है, उस में एक ही चल सकता है। जब व्यक्ति अंधकार पूर्ण हता है तब भगनान उस में आ नहीं पाता। अंहकार को त्याग ने पर भगवान उस गली में आ सकता है।

9. अनुभूति की तीव्रता

कबीर सरल हृदयी थे। जो भी विषय वे निष्कलंक तथा कपट रहित होकर पस्तुत करते थे। यह सारा संसार भ्रमात्मक है। नर को माया जनित संसार आकर्षित करता है और वह नर अंत में नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।

"माया दीपक नर पतंग भ्रमि भ्रमि इवै पडंत।

कहै कबीर गुरु म्यान ते एक आध उबरंत।।"

10. समाज सुधार : -

कबर की वाणी में समाज सुधार की चेतना दिखाई देती है। हमारी गलतियों को बताने वाला सब से हमारा हितैषी होता है। बिन साबुन और पानी के बिना वह हमें धोता चलता है।

"निंदक नियरे रखिए आँगन कुटी छवाय।

बिन साबुन पानी बिना निरमल करै सुभाइ।।"

11. दार्शनिक विचार धारा :

कबीर महान दार्शनिक हैं। वस्तुतः उनकी विचारधारा अद्वैतवाद से समन्वित है। उनकी विचारधारा रसात्मक अनुभूति से समन्वित है। अनुभूति की तीव्रता में वे भगवान के मिलन के लिए ललचाते हैं। जीवात्मा परमात्मा के मिलन के लिए तडपना कबीर के साहित्य में हृदयस्थित है। राम से मिलने के लिए वे पुकारते हैं.

"आँखडिया झाई पडी पंथ निहारि – निहारि।

जीभडिया छाला पडिया राम पुकारि – पुकारि।।"

कभी- कभी उस तीव्रानुभूति में परमात्मा की झलक-दीप्ति दर्शित होती है, तो वे आनन्द विभोर होकर कहते हैं

“लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल।

लाली देखन मैं गई मैं भी हो गयी लाल ॥”

रहस्यवाद के तीन स्तर होते हैं ।

1. भावत्मक

2. साधनात्मक और

3. अभिव्यंजनात्मक

कबीरदास का रहस्यवाद भावात्मक तथा साधनात्मक है।

12. भाषा - शैली :

कबीर के काव्य में गेय मुक्तक शैली का प्रयोग हुआ है। गीतिकाव्य के सारे तत्त्व - भावात्मकता, संगीतात्मकता, सूक्ष्मता, वैयक्तिकता और भाषा की कोमलता कबीर की वाणी में मिलते हैं। कबीर का साहित्य अवधी; व्रज, खडीबोली, अर्ध मागधी, फारसी, अरबी, राजस्थानी, पंजाबी आदि भाषाओं के शब्दों का सम्मिश्रण है।

सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, राजनीतिक आदि विषयों पर चलने पर भी कबीर की वाणी आडंबरहीन होकर एक दम सरल होती है।

13. उपसंहार :

कबीर का साहित्य अपना अलग महत्त्व रखता है। सामाजिक पक्ष तथा दार्शनिक पक्ष दोनों पर कबीर का समान अधिकार दिखाई देता है। प्रतीकात्मक योजना में चलने पर भी उनकी वाणी समाज के हृदयों पर अपनी छाप डालती है। भाषा पर उनका जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। इसीलिए साहित्यिक क्षेत्र में कबीर का स्थान अमर बन गया है।

अंत में हम यही कहना चाहते हैं कि कबीर संत पहले हैं और कवि बाद में उनकी वाणी में धार्मिक दृष्टिकोण प्रधान है। और काव्यगत दृटिकोण गौण है।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-14 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-14

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-14

नांदेड के रतनजी वाडिया, 
संत मौला साहेब, 
दक्षिणा मीमांसा।

श्री साईबाबा के वचनों और कृपा द्धारा किस प्रकार असाध्य रोग भी निर्मूल हो गये, इसका वर्णन पिछले अध्याय में किया जा चुका है। अब बाबा ने किस प्रकार रतन जी वाडिया को अनुगृहीत किया तथा किस प्रकार उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, इसका वर्णन इस अध्याय में होगा।



इस संत की जीवनी सर्व प्रकार से प्राकृतिक और मधुर हैं। उनके अन्य कार्य भी जैसे भोजन, चलना-फिरना तथा स्वाभाविक अमृतोपदेश बड़े ही मधुर हैं। वे आनन्द के अवतार है। इस परमानंद का उन्होंने अपने भक्तों को भी रसास्वादन कराया और इसीलिये उन्हें उनकी चिरस्मृति बनी रही। भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्म और कर्तव्यों की अनेक कथाएँ भक्तों को उनके द्धारा प्राप्त हुई, जिससे वे सत्व मार्ग का अवलम्बन करें और वे सदैव जागरुक रहकर अपने जीवन का परम लक्ष्य, आत्मानुभूति (या ईश्वरदर्शन) अवश्य प्राप्त करें। पिछले जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरुप ही यह देह प्राप्त हुई है और उसकी सार्थकता तभी है, जब उसकी सहायता से हम इस जीवन में भक्ति और मोश्र प्राप्त कर सकें। हमें अपने अन्त और जीवन के लक्ष्य के हेतु सदैव सावधान तथा तत्पर रहना चाहिए।

यदि तुम नित्य श्री साई की लीलाओं का श्रवण करोगे तो तुम्हें उनका सदैव दर्शन होता रहेगा। दिनरात उनका हृदय में स्मरण करते रहो। इस प्रकार आचरण करने से मन की चंचलता शीघ्र नष्ट हो जायेगी। यदि इसका निरंतर अभ्यास किया गया तो तुम्हें चैतन्य-घन से अभिन्नता प्राप्त हो जायेगी।

नांदेड के रतनजी



अब हम इस अध्याया की मूल कथा का वर्णन करते है। नांदेड़ (निजाम रियासत) में रतनजी शापुरजी वाडिया नामक एक प्रसिदृ व्यापारी रहते थे। उन्होंने व्यापार में यथेष्ठ धनराशि संग्रह कर ली थी। उनके पास अतुलनीय सम्पत्ति, खेत और चरोहर तथा कई प्रकार के पशु, घोडे़, गधे, खच्चर आदि और गाडि़याँ भी थी। वे अत्यन्त भाग्यशाली थे। यद्यपि बाहृ दृष्टि से वे अधिक सुखी और सन्तुष्ट प्रतीत होते थे, परन्तु भावार्थ में वे वैसे न थे। विधाता की रचना कुछ ऐसी विचित्र है कि इस संसार में पूर्ण सुखी कोई नहीं और धनाद्य रतनजी भी इसके अपवाद न थे। वे परोपकारी तथा दानशील थे। वे दीनों को भोजन और वस्त्र वितरण करते तथा सभी लोगों की अनेक प्रकार से सहायता किया करते थे। उन्हें लोग अत्यन्त सुखी समझते थे। किन्तु दीर्घ काल तक संतान न होने के कारण उनके हृदय में संताप अधिक था। जिस प्रकार प्रेम तथा भक्तिरहित कीर्तन, वाद्यरहित संगीत, यज्ञोपवीतरहित ब्राहृमण, व्यावहारिक ज्ञानरहित कलाकार, पश्चातापरहित तीर्थयात्रा और कंठमाला (मंगलसूत्र) रहित अलंकार, उत्तम प्रतीत नहीं होते, उसी प्रकार संतानरहित गृहस्थ का घर भी सूना ही रहता है। रतनजी सदैव इसी चिन्ता में निमग्न रहते थे। वे मन ही मन कहते, क्या ईश्वर की मुझ पर कभी दया न होगी। क्या मुझे कभी पुत्र की पुत्र की प्राप्ति न होगी। इसके लिये वे सदैव उदास रहते थे। उन्हें भोजन से भी अरुचि हो गई। पुत्र की प्राप्ति कब होगी, यही चिन्ता उन्हें सदैव घेरे रहती थी। उनकी दासगणू महाराज पर दृढ़ निष्ठा थी। उन्होंने अपना हृदय उनके सम्मुख खोल दिया, तब उन्होंने श्रीसाई सार्थ की शरण जाने और उनसे संता-प्राप्ति के लिये प्रार्थना करने का परामर्श दिया। रतनजी को भी यह विचार रुचिकर प्रतीत हुआ और उन्होंने शिरडी जाने का निश्चय किया। कुछ दिनों के उपरांत वे शिरडी आये और बाबा के दर्शन कर उनके चरणों पर गिरे। उन्होंने एक सुन्दर हार बाबा को पहना कर बहुत से फल-फूल भेंट किये। तत्पश्चात् आदर सहित बाबा के पास बैठकर इस प्रकार प्रार्थना करने लगे, अनेक आपत्तिग्रस्त लोग आप के पास आते है और आप उनके कष्ट तुरंत दूर कर देते है। यही कीर्ति सुनकर मैं भी बड़ी आशा से आपके श्रीचरणों में आया हूँ। मुझे बड़ा भरोसा हो गया है, कृपया मुझे निराश न कीजिये। श्रीसाईबाबा ने उनसे पाँच रुपये दक्षिणा माँगी, जो वे देना ही चाहते थे। परन्तु बाबा ने पुनः कहा, मुझे तुमसे तीन रुपये चौदह आने पहने ही प्राप्त हो चुके है। इसलिये केवल शेष रुपये ही दो। यह सुनकर रतनजी असमंजस में पड़ गये। बाबा के कथन का अभिप्राय उनकी समझ में न आया। वे सोचने लगे कि यह शिरडी आने का मेरा प्रथम ही अवसर है और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इन्हें तीन रुपये चौदह आने पहले ही प्राप्त हो चुके है। वे यह पहेली हल न कर सकें। वे बाबा के चरणों के पास ही बैठे रहे तथा उन्हें शेष दक्षिणा अर्पित कर दी। उन्होंने अपने आगमन का हेतु बतलाया और पुत्र-प्राप्ति की प्रार्थना की। बाबा को दया आ गई। वे बोले, चिन्ता त्याग दे, अब तुम्हारे दुर्दिन समाप्त हो गये है। इसके बाद बाबा ने उदी देकर अपना वरद हस्त उनके मस्तक पर रखकर कहा, अल्ल्ह तुम्हारी इच्छा पूरी करेगा।


बाबा की अनुमति प्राप्त कर रतनजी नांदेड़ लौट आये और शिरडी में जो कुछ हुआ, उसे दासगणू को सुनाया। रतनजी ने कहा, सब कार्य ठीक ही रहा। बाबा के शुभ दर्शन हुए, उनका आशीर्वाद और प्रसाद भी प्राप्त हुआ, परन्तु वहाँ की एक बात समझ में नहीं आई। वहाँ पर बाबा ने कहा था कि मुझे तीन रुपये चौदह आने पहले ही प्राप्त हो चुके हैं। कृपया समझाइये कि इसका क्या अर्थ है इससे पूर्व मैं शिरडी कभी भी नहीं गया। फिर बाबा को वे रुपये कैसे प्राप्त हो गये, जिसका उन्होंने उल्लेख किया। दासगणू के लिये भी यह एक पहेली ही थी। बहुत दिनों तक वे इस पर विचार करते रहे। कई दिनों के पश्चात उन्हें स्मरण हुआ कि कुछ दिन पहले रतनजी ने एक यवन संत मौला साहेब को अपने घर आतिथ्य के लिये निमंत्रित किया था तथा इसके निमित्त उन्होंने कुछ धन व्यय किया था। मौला साहेब नांदेड़ के एक प्रसिदृ सन्त थे, जो कुली का काम किया करते थे। जब रतनजी ने शिरडी जाने का निश्चय किया था, उसके कुछ दिन पूर्व ही मौला साहेब अनायास ही रतनजी के घर आये। रतनजी उनसे अच्छी तरह परिचित थे तथा उनसे प्रेम भी अधिक किया करते थे। इसलिये उनके सत्कार में उन्होने एक छोटे से जलपान की व्यवस्थ की थी। दासगणू ने रतनजी से आतिथ्य के खर्च की सूची माँगी और यह जानकर सबको आश्चर्य हुआ कि खर्चा ठीक तीन रुपये चौदह आने ही हुआ था, न इससे कम था और न अधिक। सबको बाबा की त्रिकालज्ञता विदित हो गई। यद्यपि वे शिरडी में विराजमान थे, परन्तु शिरडी के बाहर क्या हो रहा है, इसका उन्हें पूरा-पूरा ज्ञान था। यथार्थ में बाबा भूत, भविष्यत् और वर्तमान के पूर्ण ज्ञाता और प्रत्येक आत्मा तथा हृदय के साथ संबंध थे। अन्यथा मौला साहेब के स्वागतार्थ खर्च की गई रकम बाबा को कैसे विदित हो सकती थी।

रतनजी इस उत्तर से सन्तुष्ट हो गये और उनकी साईचरणों में प्रगाढ़ प्रीति हो गई। उपयुक्त समय के पश्चात उनके यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ, जिससे उनके हर्ष का पारावार न रहा। कहते है कि उनके यहाँ बारह संताने हुई, जिनमें से केवल चार शेष रहीं।

इस अध्याय के नीचे लिखा है कि बाबा ने रावबहादुर हरी विनायक साठे को उनकी पहली पत्नी की मृत्यु के पश्चात् दूसरा ब्याह करने पर पुत्ररत्न की प्राप्ति बतलाई। रावबहादुर साठे ने द्वितीय विवाह किया। प्रथम दो कन्यायें हुई, जिससे वे बड़े निराश हुए, परन्तु तृतीय बार पुत्र प्राप्त हुआ। इस तरह बाबा के वचन सत्य निकले और वे सन्तुष्ट हो गये।

दक्षिणा मीमांसा



दक्षिणा के सम्बन्ध में कुछ अन्य बातों का निरुपण कर हम यह अध्याय समाप्त करेंगें। यह तो विदित ही है कि जो लोग बाबा के दर्शन को आते थे, उनसे बाबा दक्षिणा लिया करते थे। यहाँ किसी को भी शंका उत्पन्न हो सकती है कि जब बाबा फकीर और पूर्ण विरक्त थे तो क्या उनका इस प्रकार दक्षिणा ग्रहण करना और कांचन को महत्व देना उचित था। अब इस प्रश्न पर हम विस्तृत रुप से विचार करेंगें।

बहुत काल तक बाबा भक्तों से कुछ भी स्वीकार नहीं करते थे। वे जली हुई दियासलाइयाँ एकत्रित कर अपनी जेब में भर लेते थे। चाहे भक्त हो या और कोई, वे कभी किसी से कुछ भी नहीं माँगते थे। यदि किसी ने उनके सामने एक पैसा रख दिया तो वे उसे स्वीकार करके उससे तम्बाखू अथवा तेल आदि खरीद लिया करते थे। वे प्रायः बीडी या चिलम पिया करते थे। कुछ लोगों ने सोचा कि बिना कुछ भेंट किये सन्तों के दर्शन उचित नही है। इसलिये वे बाबा के सामने पैसे रखने लगे। यदि एक पैसा होता तो वे उसे जेब में रख लेते और यदि दो पैसे हुए तो तुरन्त उसमें से एक पैसा वापस कर देते थे। जब बाबा की कीर्ति दूर-दूर तक फैली और लोगों के झुण्ड के झुण्ड बाबा के दर्शनार्थ आने लगे, तब बाबा ने उनसे दक्षिणा लेना आरम्भ कर दिया। श्रुति कहती है कि स्वर्ण मुद्रा के अभाव में भगवतपूजन भी अपूर्ण है। अतः जब ईश्वर-पूजन में मुद्रा आवश्यक है तो सन्तपूजन में क्यों न हो। इसलिये शास्त्रों में कहा है कि ईश्वर, राजा, सन्त या गुरु के दर्शन, अपनी सामर्थ्यानुसार बिना कुछ अर्पण किये, कभी न करना चाहिये। उन्हों क्या भेंट दी जाये। अधिकतर मुद्रा या धन। इस सम्बन्ध में उपनिषदों में वर्णत नियमों का अवलोकन करें। बृहदारण्यक उपनिषद् में बताया गया है कि दक्ष प्रजापति ने देवता, मनुष्य और राक्षसों के सामने एक अक्षर दम का उच्चारण किया। देवताओं ने इसका अर्थ लगाया कि उन्हें दम अर्थात् आत्म-नियंत्रण का अभ्यास करना चाहिये। मनुष्यों ने समझा कि उन्हें दान का अभ्यास करना चाहिये तथा राक्षसों ने सोचा कि हमें दया का अभ्यास करना चाहिए। मनुष्यों को दान की सलाह दी गई। तैतिरीय उपनिषद में दान व अन्य सत्व गुणों को अभ्यास में लाने की बात कही गयी है। दान के संबंध में लिखा है – विश्वासपू्रर्वक दान करो, उस के बिना दान व्यर्थ है। उदार हृदय तथा विनम्र बनकर, आदर और सहानुभूतिपूर्वक दान करो। भक्तों को कांचन-त्याग का पाठ पढ़ाने तथा उनकी आसक्ति दूर करने और चित्त शुदृ कराने के लिए ही बाबा सबसे दक्षिणा लिया करते थे। परन्तु उनकी एक विशेषता भी थी। बाबा कहा करते थे कि जो कुछ भी मैं स्वीकार करता हूँ, मुझे उसके शत गुणों से अधिक वापस करना पडता है। इसके अनेकप्रमाण हैं।

एक घटना



श्री गणपतराव बोडस, प्रसिदृ कलाकार, अपनी आत्म-कथा में लिखते है कि बाबा के बार-बार आग्रह करने पर उन्होने अपने रुपयों की थैली उनके सामने उँडेल दी। श्री बोडस लिखते है कि इसका परिणाम यह हुआ कि जीवन में फिर उन्हें धन का कभी अभाव न हुआ तथा प्रचुर मात्रा में लाभ ही होता रहा है। इसका एक भिन्न अर्थ भी है। अनेकों बार बाबा ने किसी प्रकार की दक्षिणा स्वीकार भी नहीं की। इसके दो उदाहरण है। बाबा ने प्रो.सी.के. नारके से 15 रुपये दक्षिणा माँगी। वे प्रत्युत्तर में बोले कि मेरे पास तो एक पाई नहीं है। तब बाबा ने कहा कि मैं जानता हूँ, तुम्हारे पास कोई द्रव्य नहीं है, परन्तु तुम योगवासिष्ठ का अध्ययन तो करते हो, उसमें से ही दक्षिणा दो। यहाँ दक्षिणा का अर्थ है – पुस्तक से शिक्षा ग्रहण कर हृदयगम करना, जो कि बाबा का निवासस्थान हैं।

एक दूसरी घटना में उन्होंने एक महिला श्री मती आर.ए. तर्खड से 6 रुपये दक्षिणा माँगी। महिला बहुत दुःखी हुई, क्योंकि उनके पास देने को कुछ भी न था। उनके पति ने उन्हें समझाया कि बाबा का अर्थ तो षडि्पुओं से है, जिन्हे बाबा को समर्पित कर देना चाहिए। बाबा इस अर्थ से सहमत हो गये।

यह ध्यान देने योग्य है कि बाबा के पास दक्षिणा के रुप में बहुत-सा द्रव्य एकत्रित हो जाता था। सब द्रव्य वे उसी दिन व्यय कर देते और दूसरे दिन फिर सदैव की भाँति निर्धन बन जाते थे। जब उन्होंने महासमाधि ली तो 10 वर्ष तक हजारों रुपया दक्षिणा मिलने पर भी उनके पास स्वल्प राशि ही शेष थी।

संक्षेप में दक्षिणा लेने का मुख्य ध्येय तो भक्तों को केवल शुद्धीकरण का पाठ ही सिखाना था।

दक्षिणा का मर्म



ठाणे के श्री. बी. व्ही. देव, (सेवा-नीवृत्त प्रान्त मामलतदार, जो बाबा के परमा भक्त थे) ने इस विषय पर एक लेख (साई लीला पत्रिका, भाग 7 पृष्ठ 626) अन्य विषयों सहित प्रकाशित किया है, जो निम्न प्रकार है – बाबा प्रत्येक से दक्षिणा नहीं लेते थे। यदि बाबा के बिना माँगे किसी ने दक्षिणा भेंट की तो वे कभी तो स्वीकार कर लेते थे। कभी अस्वीकार भी कर देते थे। वे केवल भक्तों से ही कुछ माँगा करते थे। उन्होंने उन लोगों से कभी कुछ न माँगा, जो सोचते थे कि बाबा के माँगने पर ही दक्षिणा देंगे। यदि किसी ने उनकी इच्छा के विरुदृ दक्षिणा दे दी तो वे वहाँ से उसे उठाने को कह देते थे। वे यथायोग्य राशि भक्तों की इच्छा, भक्ति और सुविधा के अनुसार ही उनसे माँगा करता था। स्त्री और बालकों से भी वे दक्षिणा ले लेते थे। उन्होंने निर्धनों से कभी दक्षिणा नहीं माँगी। बाबा के माँगने पर भी जिन्होंने दक्षिणा न दी उनसे वे कभी क्रोधित नहीं हुए। यदि किसी मित्र द्धारा उन्हें दक्षिणा भिजवाई गई होती और उसका स्मरण न रहता तो बाबा किसी न किसी प्रकार उसे स्मरण कराकर वह दक्षिणा ले लेते थे। कुछ अवसरों पर वे दक्षिणा की राशि में से कुछ अंश लौटा भी देते और देने वालों को सँभाल कर रखने या पूजन में रखने के लिये कह देते थे। इससे दाता या भक्त को बहुत लाभ पहुँचता था। यदि किसी ने अपनी इच्छित राशि से अधिक भेंट की तो वे वह अधिक राशि लौटा देते थे। किसी-किसी से तो वे उसकी इच्छित राशि से भी अधिक माँग बैठते थे और यदि उसके पास नहीं होती तो दूसरे से उधार लेने या दूसरों से माँगने को भी कहते थे। किसी-किसी से तो दिन में 3-4 बार दक्षिणा माँगा करते थे।

दक्षिणा में एकत्रित राशि में से बाबा अपने लिये बहुत थोड़ा खर्च किया करते थे। जैसे- जिलम पीने की तंबाखू और धूनी के लिए लकडियाँ मोल लेने के लिये आदि। शेष अन्य व्यक्तियों को विभिन्न राशियों में भिक्षास्वरुप दे देते थे। शिरडी संस्थान की समस्त सामग्रियाँ राधाकृष्णमाई की प्रेरणा से ही धनी भक्तों ने एकत्र की थी। अधिक मूल्यवाले पदार्थ लाने वालों से बाबा अति क्रोधित हो जाते और अपशब्द कहने लगते। उन्होंने श्री नानासाहेब चाँदोरकर से कहा कि मेरी सम्पत्ति केवल एक कौपीन और टमरेल हैं। लोग बिना कारण ही मूल्यवान पदार्थ लाकर मुझे दुःखित करते है। कामिनी और कांचन मार्ग में दो मुख्य बाधायें हो और बाबा ने इसके लिए दो पाठशालायें खोली थी। यथा – दक्षिणा ग्रहण करना और राधाकृष्णमाई के यहाँ भेजना – इस बात की परीक्षा करने के लिये कि क्या उनके भक्तों ने इन आसक्तियों से छुटकारा पा लिया है या नहीं। इसीलिये जब कोई आता तो वे उनसे शाला में (राधाकृष्णमाई के घर) जाने को कहते। यदि वे इन परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गये अर्थात् यह सिदृ हुआ कि वे कामिनी और कांचन की आसक्ति से विरक्त है तो बाबा की कृपा और आशीर्वाद से उनकी आध्यात्मिक उन्नति निश्चय ही हो जाती थी।

श्री देव ने गीता और उपनिषद् से घटनाएँ उदृत की है और कहते है कि किसी तीर्थस्थान में किसी पूज्य सन्त को दिया हुआ दान दाता को बहुत कल्याणकारी होता है। शिरडी और शिरडी के प्रमुख देवता साईबाबा से पवित्र और है ही क्या।

।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।

बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-13 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-13

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-13

अन्य कई लीलाएँ: रोगनिवारण - भीमाजी पाटील, 

बाला दर्जी, बापूसाहेब बूटी, 

आलंदीस्वामी, काका महाजना, 

हरदा के दत्तोपंत ।

माया की अभेघ शक्ति



बाबा के शब्द सदैव संक्षिप्त, अर्थपूर्ण, गूढ़ और विदृतापूर्ण तथा समतोल रहते थे। वे सदा निश्चिंत और निर्भय रहते थे। उनका कथन था कि मैं फकीर हूँ, न तो मेरे स्त्री ही है और न घर-द्धार ही। सब चिंताओं को त्याग कर, मैं एक ही स्थान पर रहता हूँ। फिर भी माया मुझे कष्ट पहुँचाया करती हैं। मैं स्वयं को तो भूल चुका हूँ, परन्तु माया को कदापि नहीं भूल सकता, क्योंकि वह मुझे अपने चक्र में फँसा लेती है। श्रीहरि की यह माया ब्रहादि को भी नहीं छोड़ती, फिर मुझे सरीखे फकीर का तो कहना ही क्या हैं। परन्तु जो हरि की शरण लेंगे, वे उनकी कृपा से मायाजाल से मुक्त हो जायेंगे। इस प्रकार बाबा ने माया की शक्ति का परिचय दिया। भगवान श्रीकृष्ण भागवत में उदृव से कहते कि सन्त मेरे ही जीवित स्वरुप हैं और बाबा का भी कहना यही था कि वे भाग्यशाली, जिसके समस्त पाप नष्ट हो गये हो, वे ही मेरी उपासना की ओर अग्रसर होते है, यदि तुम केवल साई साई का ही स्मरण करोगे तो मैं तुम्हें भवसागर से पार उतार दूँगा। इन शब्दों पर विश्वास करो, तुम्हें अवश् लाभ होगा। मेरी पूजा के निमित्त कोई सामग्री या अष्टांग योग की भी आवश्यकता नहीं है। मैं तो भक्ति में ही निवास करता हूँ। अब आगे देखिये कि अनाश्रितों के आश्रयदाता साई ने भक्तों के कल्याणार्थ क्या-क्या किया।

भीमाजी पाटील: सत्य साई व्रत



नारायण गाँव (तालुका जुन्नर, जिला पूना) के एक महानुभाव भीमाजी पाटील को सन् 1909 में वक्षस्थल में एक भयंकर रोग हुआ, जो आगे चलकर क्षय रोग में परिणत हो गया। उन्होंने अनेक प्रकार की चिकित्सा की, परन्तु लाभ कुछ न हुआ। अन्त में हताश होकर उन्होंने भगवान से प्रार्थना की, हे नारायण! हे प्रभो! इस अनाथ की कुछ सहायता करो। यह तो विदित ही है कि जब हम सुखी रहते है तो भगवत्-स्मरण नहीं करते, परन्तु ज्यों ही दुर्भाग्य घेर लेता है और दुर्दिन आते है, तभी हमें भगवान की याद आती है। इसीलिए भीमाजी ने भी ईश्वर को पुकारा। उन्हें विचार आया कि क्यों न साईबाबा के परम भक्त श्री. नानासाहेब चाँदोरकर से इस विषय में परामर्श लिया जाय और इसी हेतु उन्होंने अपना स्थिति पूर्ण विवरण सहित उनके पास लिख भेजी और उचित मार्गदर्शन के लिये प्रार्थना की। प्रत्युत्तर में श्री. नानासाहेब ने लिख दिया कि अब तो केवल एक ही उपाय शेष है और वह है साई बाबा के चरणकमलों की शरणागति। नानासाहेब के वचनों पर विश्वास कर उन्होंने शिरडी-प्रस्थान की तैयारी की। उन्हें शिरडी में लाया गया और मसजिद में ले जाकर लिटाया गया। श्री. नानासाहेब और शामा भी इस समय वहीं उपस्थित थे। बाबा बोले कि यह पूर्व जन्म के बुरे कर्मों का ही फल है। इस कारण मै इस झंझट में नहीं पड़ना चाहता। यह सुनकर रोगी अत्यन्त निराश होकर करुणपूर्ण स्वर में बोला कि मैं बिल्कुल निस्सहाय हूँ और अन्तिम आशा लेकर आपके श्री-चरणों में आया हूँ। आपसे दया की भीख माँगता हूँ। हे दीनों के शरण! मुझ पर दया करो! इस प्रार्थना से बाबा का हृदय द्रवित हो आया और वे बोले कि अच्छा, ठहरो। चिन्ता न करो। तुम्हारे दुःखों का अन्त शीघ्र होगा। कोई कितना भी दुःखित और पीड़ित क्यों न हो, जैसे ही वह मसजिद की सीढ़ियों पर पैर रखता है, वह सुखी हो जाता हैं। मसजिद का फकीर बहुत दयालु है और वह तुम्हारा रोग भी निर्मूल कर देगा। वह तो सब लोंगों पर प्रेम और दया रखकर रक्षा करता हैं। रोगी को हर पाँचवे मिनट पर खून की उल्टियाँ हुआ करती थी, परन्तु बाबा के समक्ष उसे कोई उल्टी न हुई। जिस समय से बाबा ने अपने श्री-मुख से आशा और दयापूर्ण शब्दों में उक्त उदगार प्रगट किये, उसी समय से रोग ने भी पल्टा खाया। बाबा ने रोगी को भीमाबाई के घर में ठहरने को कहा। यह स्थान इस प्रकार के रोगी को सुविधाजनक और स्वास्थ्यप्रद तो न था, फिर भी बाबा की आज्ञा कौन टाल सकता था। वहाँ पर रहते हुए बाबा ने दो स्वप्न देकर उसका रोग हरण कर लिया। पहने स्वप्न में रोगी ने देखा कि वह एक विद्यार्थी है और शिक्षक के सामने कविता मुखाग्र न सुना सकने के दण्डस्वरुप बेतों की मार से असहनीय कष्ट भोग रहा है। दूसरे स्वप्न में उसने देखा कि कोई हृदय पर नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे की ओर पत्थार घुमा रहा है, जिससे उसे असहृय पीड़ हो रही हैं। स्वप्न में इस प्रकार कष्ट पाकर वह स्वस्थ हो गया और घर लौट आया। फिर वह कभी-कभी शिऱडी आता और साईबाबा की दया का स्मरण कर साष्टांग प्रणाम करता था। बाबा अपने भक्तों से किसी वस्तु की आशा न रखते थे। वे तो केवल स्मरण, दृढ़ निष्ठा और भक्ति के भूखे थे। महाराष्ट्र के लोग प्रतिपक्ष या प्रतिमास सदैव सत्यनारायण का व्रत किया करते है। परन्तु अपने गाँव पहुँचने पर भीमाजी पाटीन ने सत्यनारायण व्रत के स्थान पर एक नया ही सत्य साई व्रत प्रारम्भ कर दिया।

बाला गणपत दर्जी



एक दूसरे-भक्त, जिनका नांबाला गणपत दर्जी था, एक समय जीर्ण ज्वर से पीड़ित हुए। उन्होंने सब प्रकार की दवाइयाँ और काढ़े लिये, परन्तु इनसे कोई लाभ न हुआ। जब ज्वर तिलमात्र भी न घटा तो वे शिरडी दौडे़ आये और बाबा के श्रीचरणों की शरण ली। बाबा ने उन्हें विचित्र आदेश दिया कि लक्ष्मी मंदिर के पास जाकर एक काले कुत्ते को थोड़ासा दही और चावल खिलाओ। वे यह समझ न सके कि इस आदेश का पालन कैसे करें। घर पहुँचकर चावल और दही लेकर वे लक्ष्मी मंदिर पहुँचे, जहाँ उन्हें एक काला कुत्ता पूँछ हिलाते हुए दिखा। उन्होंने वह चावल और दही उस कुत्ते के सामने रख दिया, जिसे वह तुरन्त ही खा गया। इस चरित्र की विशेषता का वर्णन कैसे करुँ कि उपयुर्क्त क्रिया करने मात्र से ही बाला दर्जी का ज्वर हमेशा के लिये जाता रहा।

बापूसाहेब बूटी

श्रीमान् बापूसाहेब बूटी एक बार अम्लपित्त के रोग से पीड़ित हुए। उनकी आलमारी में अनेक औषधियाँ थी, परन्तु कोई भी गुणकारी न हो रही थी। बापूसाहेब अम्लपित्त के काण अति दुर्बल हो गये और उनकी स्थिति इतनी गम्भीर हो गई कि वे अब मसजिद में जाकर बाबा के दर्शन करने में भी असमर्थ थे। बाबा ने उन्हें बुलाकर अपने सम्मुख बिठाया और बोले, सावधान, अब तुम्हें दस्त न लगेंगे। अपनी उँगली उठाकर फिर कहने लगे उलटियाँ भी अवश्य रुक जायेंगी। बाबा ने ऐसी कृपा की कि रोग समूल नष्ट हो गया और बापूसाहेब पूर्ण स्वस्थ हो गये।

एक अन्य अवसर पर भी वे हैजा से पीडि़त हो गये। फलस्वरुप उनकी प्यास अधिक तीव्र हो गई। डॉ. पिल्ले ने हर तरह के उपचार किये, परन्तु स्थिति न सुधरी। अन्त में वे फिर बाबा के पास पहुँचे और उनसे तृशारोग निवारण की औशधि के लिये प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना सुनकर बाबा ने उन्हें मीठे दूध में उबाला हुआ बादाम, अखरोट और पिस्ते का काढ़ा पियो। - यह औषधि बतला दी।

दूसरा डॉक्टर या हकीम बाबा की बतलाई हुई इस औषधि को प्राणघातक ही समझता, परन्तु बाबा की आज्ञा का पालन करने से यह रोगनाशक सिदृ हुई और आश्चर्य की बात है कि रोग समूल नष्ट हो गया।

आलंदी के स्वामी

आलंदी के एक स्वामी बाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे। उनके कान में असहृ पीड़ा थी, जिसके कारण उन्हें एक पल भी विश्राम करना दुष्कर था। उनकी शल्य चिकित्सा भी हो चुकी थी, फिर भी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन न हुआ था। दर्द भी अधिक था। वे किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वापिस लौटने के लिये बाबा से अनुमति माँगने गये। यह देखकर शामा ने बाबा से प्रार्थना की कि स्वामी के कान में अधिक पीड़ा है। आप इन पर कृपा करो। बाबा आश्वासन देकर बोले, अल्लाह अच्छा करेगा। स्वामीजी वापस पुना लौट गये और एक सप्ताह के बाद उन्होंने शिरडी को पत्र भेजा कि पीड़ा शान्त हो गई है। परन्तु सूजन अभी पूर्ववत् ही है। सूजन दूर हो जाय, इसके लिए वे शल्यचिकित्सा (आपरेशन) कराने बम्बई गये। शल्यचिकित्सा विशेषक्ष (सर्जन) ने जाँच करने के बाद कहा कि शल्यचिकित्सा (आपरेशन) की कोई आवश्यकता नहीं। बाबा के शब्दों का गूढ़ार्थ हम निरे मूर्ख क्या समझें ।

काका महाजनी



काका महाजनी नाम के एक अन्य भक्त को अतिसार की बीमारी हो गई। बाबा का सेवा-क्रम कहीं टूट न जाय, इस कारण वे एक लोटा पानी भरकर मसजिद के एक कोने में रख देते थे, ताकि शंका होने पर शीघ्र ही बाहर जा सकें। श्री साईबाबा को तो सब विदित ही था। फिर भी काका ने बाबा को सूचना इसलिये नहीं दी कि वे रोग से शीघ्र ही मुक्ति पा जायेंगे। मसजिद में फर्श बनाने की स्वीकृति बाबा से प्राप्त हो ही चुकी थी, परन्तु जब कार्य प्रारम्भ हुआ तो बाबा क्रोधित हो गये और उत्तेजित होकर चिल्लाने लगे, जिससे भगदड़ मच गई। जैसे ही काका भागने लगे, वैसे ही बाबा ने उन्हें पकड़ लिया और अपने सामने बैठा लिया। इस गडबड़ी में कोई आदमी मूँगफली की एक छोटी थैली वहाँ भूल गया। बाबा ने एक मुट्ठी मूँगफली उसमें से निकाली और छील कर दाने काका को खाने के लिये दे दिये। क्रोधित होना, मूँगफली छीलना और उन्हें काका को खिलाना, यह सब कार्य एक साथ ही चलने लगा। स्वंय बाबाने भी उसमें से कुछ मूँगफली खाई। जब थैली खाली हो गई तो बाबा ने कहा कि मुझे प्यास लगी है। जाकर थोड़ा जल ले आओ। काका एक घड़ा पाना भर लाये और दोनों ने उसमें से पानी पिया। फिर बाबा बोले कि अब तुम्हारा अतिसार रोग दूर हो गया। तुम अपने फर्श के कार्य की देखभाल कर सकते हो। थोडे ही समय में भागे हुए लोग भी लौट आये। कार्य पुनः प्रारम्भ हो गया। काका का रोग अब प्रायः दूर हो चुका था। इस कारण वे कार्य में संलग्न हो गये। क्या मूँगफली अतिसार रोग की औषधि है। इसका उत्तर कौन दे। वर्तमान चिकित्सा प्रणाली के अनुसार तो मूँगफली से अतिसार में वृद्धि ही होती है, न कि मुक्ति। इस विषय में सदैव की भाँति बाबा के श्री वचन ही औषधिस्वरुप थे।

हरद के दत्तोपन्त



हरदा के एक सज्जन, जिनका नाम श्री दत्तोपन्त था, 14 वर्ष से उदररोग से पीड़ित थे। किसी भी औषधि से उन्हें लाभ न हुआ। अचानक कहीं से बाबा की कीर्ति उनके कानों में पड़ी कि उनकी दृष्टि मात्र से ही रोगी स्वस्थ हो जाते हैं। अतः वे भी भाग कर शिरडी आये और बाबा के चरणों की शरण ली। बाबा ने प्रेम-दृष्टि से उनकी ओर देखकर आशीर्वाद देकर अपना वरद हस्त उनके मस्तक पर रखा। आशीष और उदी प्राप्त कर वे स्वस्थ हो गये तथा भविष्य में फिर कोई पीड़ा न हुई।

इसी तरह के निम्नलिखित तीन चमत्कार इस अध्याय के अन्त में टिप्पणी में दिये गये हैं –

माधवराव देशपांडे बवासीर रोग से पीडि़त थे। बाबा की आज्ञानुसार सोनामुखी का काढ़ा सेवन करने से वे नीरोग हो गये। दो वर्ष पश्चात् उन्हें पुनः वही पीड़ा उत्पन्न हुई। बाबा से बिना परामर्श लिये वे उसी काढ़े का सेवन करने लगे। परिणाम यह हुआ कि रोग अधिक बढ़ गया। परन्तु बाद में बाबा की कृपा से शीघ्र ही ठीक हो गया।

काका महाजनी के बड़े भाई गंगाधरपन्त को कुछ वर्षों से सदैव उदर में पीड़ा बनी रहती थी। बाबा की कीर्ति सुनकर वे भी शिरडी आये और आरोग्य-प्राप्ति के लिये प्रार्थना करने लगे। बाबा ने उनके उदर को स्पर्श कर कहा, अल्लाह अच्छा करेगा। इसके पश्चात् तुरन्त ही उनकी उदर-पीड़ा मिट गई और वे पूर्णतः स्वस्थ हो गये।

श्री नानासाहेब चाँदोरकर को भी एक बार उदर में बहुत पीड़ा होने लगी। वे दिन रात मछली के समान तड़पने लगे। डॉ. ने अनेक उपचार किये, परन्तु कोई परिणाम न निकला। अन्त में वे बाबा की शरण में आये। बाबा ने उन्हें घी के साथ बर्फी खाने की आज्ञा दी। इस औषधि के सेवन से वे पूर्ण स्वस्थ हो गये।

इन सब कथाओं से यही प्रतीत होता है कि सच्ची औषधि, जिससे अनेंकों को स्वास्थ्य-लाभ हुआ, वह बाबा के केवल श्रीमुख से उच्चरित वचनों एवं उनकी कृपा का ही प्रभाव था ।

।।श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु।।

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-12 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-12

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-12

काका महाजनी, धुमाल वकील, 

श्रीमती निमोणकर, मुले शास्त्री, 

एक डॉक्टर के द्धारा बाबा की लीलाओं का अनुभव।


इस अध्याय में बाबा किस प्रकार भक्तों से भेंट करते और कैसा बर्ताव करते थे, इसका वर्णन किया गया हैं ।

सन्तों का कार्य



हम देख चुके है कि ईश्वरीय अवतार का ध्येय साधुजनों का परित्राण और दुष्टों का संहार करना है। परन्तु संतों का कार्य तो सर्वथा भिन्न ही है। सन्तों के लिए साधु और दुष्ट प्रायः एक समान ही है। यथार्थ में उन्हें दुष्कर्म करने वालों की प्रथम चिन्ता होती है और वे उन्हें उचित पथ पर लगा देते है। वे भवसागर के कष्टों को देखने के लिए अगस्त्य के सदृश है और अज्ञान तथा अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य के समान है। सन्तों के हृदय में भगवान वासुदेव निवास करते है। वे उनसे पृथक नहीं है। श्री साई भी उसी कोटि में है, जो कि भक्तों के कल्याण के निमित्त ही अवतीर्ण हुए थे। वे ज्ञानज्योति स्वरुप थे और उनकी दिव्यप्रभा अपूर्व थी। उन्हें समस्त प्राणियों से समान प्रेम था। वे निष्काम तथा नित्यमुक्त थे। उनकी दृष्टि में शत्रु, मित्र, राजा और भिक्षुक सब एक समान थे। पाठको.. अब कृपया उनका पराक्रम श्रवण करें। भक्तों के लिये उन्होंने अपना दिव्य गुणसमूह पूर्णतः प्रयोग किया और सदैव उनकी सहायता के लिये तत्पर रहे। उनकी इच्छा के बिना कोई भक्त उनके पास पहुँच ही न सकता था। यदि उनके शुभ कर्म उदित नहीं हुए है तो उन्हे बाबा की स्मृति भी कभी नहीं आई और न ही उनकी लीलायें उनके कानों तक पहुँच सकी। तब फिर बाबा के दर्शनों का विचार भी उन्हें कैसे आ सकता था। अनेक व्यक्तियों की श्री साईबाबा के दर्शन सी इच्छा होते हुए भी उन्हें बाबा के महासमाधि लेने तक कोई योग प्राप्त न हो सका। अतः ऐसे व्यक्ति जो दर्शनलाभ से वंचित रहे है, यदि वे श्रद्धापूर्वक साईलीलाओं का श्रवण करेंगे तो उनकी साई-दर्शन की इच्छा बहुत कुछ अंशों तक तृप्त हो जायेगी। भाग्यवश यदि किसी को किसी प्रकार बाबा के दर्शन हो भी गये तो वह वहाँ अधिक ठहर न सका। इच्छा होते हुए भी केवल बाबा की आज्ञा तक ही वहाँ रुकना संभव था और आज्ञा होते ही स्थान छोड़ देना आवश्यक हो जाता था। अतः यह सव उनकी शुभ इच्छा पर ही अवलंबित था।

काका महाजनी

एक समय काका महाजनी बम्बई से शिरडी पहुँचे। उनका विचार एक सप्ताह ठहरने और गोकुल अष्टमी उत्सव में सम्मिलित होने का था। दर्शन करने के बाद बाबा ने उनसे पूछा, तुम कब वापस जाओगे। उन्हें बाबा के इस प्रश्न पर आश्चर्य-सा हुआ। उत्तर देना तो आवश्यक ही था, इसलिये उन्होंने कहा, जब बाबा आज्ञा दे। बाबा ने अगले दिन जाने को कहा। बाबा के शब्द कानून थे, जिनका पालन करना नितान्त आवश्यक था। काका महाजनी ने तुरन्त ही प्रस्थान किया। जब वे बम्बई में अपने आफिस में पहुँचे तो उन्होंने अपने सेठ को अति उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करते पाया। मुनीम के अचानक ही अस्वस्थ हो जाने के कारण काका की उपस्थिति अनिवार्य हो गई थी। सेठ ने शिरडी को जो पत्र काका के लिये भेजा था, वह बम्बई के पते पर उनको वापस लौटा दिया गया।

भाऊसाहेब धुमाल



अब एक विपरीत कथा सुनिये। एक बार भाऊसाहेब धुमाल एक मुकदमे के सम्बन्ध में निफाड़ के न्यायालय को जा रहे थे। मार्ग में वे शिरडी उतरे। उन्होंने बाबा के दर्शन किये और तत्काल ही निफाड़ को प्रस्थान करने लगे, परन्तु बाबा की स्वीकृति प्राप्त न हुई। उन्होने उन्हे शिरडी में एक सप्ताह और रोक लिया। इसी बीच में निफाड़ के न्यायाधीश उदर-पीड़ा से ग्रस्त हो गये। इस कारण उनका मुकदमा किसी अगले दिन के लिये बढ़ाया गया। एक सप्ताह बाद भाऊसाहेब को लौटने की अनुमति मिली। इस मामले की सुनवाई कई महीनों तक और चार न्यायाधीशों के पास हुई। फलस्वरुप धुमाल ने मुकदमे में सफलता प्राप्त की और उनका मुवक्किल मामले में बरी हो गया।

श्रीमती निमोणकर

श्री नानासाहेब निमोणकर, जो निमोण के निवासी और अवैतनिक न्यायाधीश थे, शिरडी में अपनी पत्नी के साथ ठहरे हुए थे। निमोणकर तथा उनकी पत्नी बहुत-सा समय बाबा की सेवा और उनकी संगति में व्यतीत किया करते थे। एक बार ऐसा प्रसंग आया कि उनका पुत्र और अन्य संबंधियों से मिलने तथा कुछ दिन वहीं व्यतीत करने का निश्चय किया। परन्तु श्री नानासाहेब ने दूसरे दिन ही उन्हें लौट आने को कहा। वे असमंजस में पड़ गई कि अब क्या करना चाहिए, परन्तु बाबा ने सहायता की। शिरडी से प्रस्थान करने के पूर्व वे बाबा के पास गई। बाबा साठेवाड़ा के समीप नानासाहेब और अन्य लोगों के साथ खड़े हुये थे। उन्होंने जाकर चरणवन्दना की और प्रस्थान करने की अनुमति माँगी। बाबा ने उनसे कहा, शीघ्र जाओ, घबड़ाओ नही, शान्त चित्त से बेलापुर में चार दिन सुखपूर्वक रहकर सब सम्बन्धियों से मिलो और तब शिरडी आ जाना। बाबा के शब्द कितने सामयिक थे। श्री निमोणकर की आज्ञा बाबा द्धारा रद्द हो गई।

नासिक के मुले शास्त्रीः ज्योतिषी



नासिक के एक मर्मनिष्ठ, अग्नहोत्री ब्राहमण थे, जिनका नाम मुले शास्त्री था। इन्होंने 6 शास्त्रों का अध्ययन किया था और ज्योतिष तथा सामुद्रिक शास्त्र में भी पारंगत थे। वे एक बार नागपुर के प्रसिदृ करोड़पति श्री बापूसाहेब बूटी से भेंट करने के बाद अन्य सज्जनों के साथ बाबा के दर्शन करने मसजिद में गये। बाबा ने फल बेचने वाले से अनेक प्रकार के फल और अन्य पदार्थ खरीदे और मसजिद में उपस्थित लोंगों में उनको वितरित कर दिया। बाबा आम को इतनी चतुराई से चारों ओर से दबा देते थे कि चूसते ही सम्पूर्ण रस मुँह में आ जाता तथा गुठली और छिलका तुरन्त फेंक दिया जा सकता था बाबा ने केले छीलकर भक्तों में बाँट दिये और उनके छिलके अपने लिये रख लिये। हस्तरेखा विशारद होने के नाते, मुले शास्त्री ने बाबा के हाथ की परीक्षा करने की प्रार्थना की। परन्तु बाबा ने उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान न देकर उन्हें चार केले दिये इसके बाद सब लोग वाड़े को लौट आये। अब मुने शास्त्री ने स्नान किया और पवित्र वस्त्र धारण कर अग्निहोत्र आदि में जुट गये। बाबा भी अपने नियमानुसार लेण्डी को पवाना हो गये। जाते-जाते उन्होंने कहा कि कुछ गेरु लाना, आज भगवा वस्त्र रँगेंगे। बाबा के शब्दों का अभिप्राय किसी की समझ में न आया। कुछ समय के बाद बाबा लौटे। अब मध्याहृ बेला की आरती की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गई थी। बापूसाहेब जोग ने मुले से आरती में साथ करने के लिये पूछा। उन्होंने उत्तर दिया कि वे सन्ध्या समय बाबा के दर्शनों को जायेंगे। तब जोग अकेले ही चले गये। बाबा के आसन ग्रहण करते ही भक्त लोगों ने उनकी पूजा की। अब आरती प्रारम्भ हो गई। बाबा ने कहा, उस नये ब्राहमण से कुछ दक्षिणा लाओ। बूटी स्वयं दक्षिणा लेने को गये और उन्होंने बाबा का सन्देश मुले शास्त्री को सुनाया। वे बुरी तरह घबड़ा गये। वे सोचने लगे कि मैं तो एक अग्निहोत्री ब्राहमण हूँ, फिर मुझे दक्षिणा देना क्या उचित है। माना कि बाबा महान् संत है, परन्तु मैं तो उनका शिष्य नहीं हूँ। फिर भी उन्होंने सोचा कि जब बाबा सरीखे महानसंत दक्षिणा माँग रहे है और बूटी सरीखे एक करोड़पति लेने को आये है तो वे अवहेलना कैसे कर सकते है। इसलिये वे अपने कृत्य को अधूरा ही छोड़कर तुरन् बूटी के साथ मसजिद को गये। वे अपने को शुद्घ और पवित्र तथा मसजिद को अपवित्र जानकर, कुछ अन्तर से खड़े हो गये और दूर से ही हाथ जोड़कर उन्होंने बाबा के ऊपर पुष्प फेंके। एकाएक उन्होंने देखा कि बाबा के आसन पर उनके कैलासवासी गुरु घोलप स्वामी विराजमान हैं। अपने गुरु को वहाँ देखकर उन्हें महान् आश्चर्य हुआ। कहीं यह स्वप्न तो नहीं है। नही। नही। यह स्वप्न नहीं हैं। मैं पूर्ण जागृत हूँ। परन्तु जागृत होते हुये भी, मेरे गुरु महाराज यहाँ कैसे आ पहुँचे। कुछ समय तक उनके मुँह से एक भी शब्द न निकला। उन्होंने अपने को चिकोटी ली और पुनः विचार किया। परन्तु वे निर्णय न कर सके कि कैलासवासी गुरु घोलप स्वामी मसजिद में कैसे आ पहुँचे। फिर सब सन्देह दूर करके वे आगे बढ़े और गुरु के चरणों पर गिर हाथ जोड़ कर स्तुति करने लगे। दूसरे भक्त तो बाबा की आरती गा रहे थे, परन्तु मुले शास्त्री अपने गुरु के नाम की ही गर्जना कर रहे थे। फिर सब जातिपाँति का अहंकार तथा पवित्रता और अपवित्रता की कल्पना त्याग कर वे गुरु के श्रीचरणों पर पुनः गिर पड़े। उन्होंने आँखें मूँद ली, परन्तु खड़े होकर जब उन्होंने आँखें खोलीं तो बाबा को दक्षिणा माँगते हुए देखा। बाबा का आनन्दस्वरुप और उनकी अनिर्वचनीय शक्ति देख मुले शास्त्री आत्मविस्मृत हो गये। उनके हर्ष का पारावार न रहा। उनकी आँखें अश्रुपूरित होते हुए भी प्रसन्नता से नाच रही थी। उन्होंने बाबा को पुनः नमस्कार किया और दक्षिणा दी। मुले शास्त्री कहने लगे कि मेरे सब समस्या दूर हो गये। आज मुझे अपने गुरु के दर्शन हुए। बाबा की यह अदभुत लीला देखकर सब भक्त और मुले शास्त्री द्रवित हो गये। गेरु लाओ, आज भगवा वस्त्र रंगेंगे – बाबा के इन शब्दों का अर्थ अब सब की समझ में आ गया। ऐसी अदभुत लीला श्री साईबाबा की थी।

डॉक्टर



एक समय एक मामलतदार अपने एक डॉक्टर मित्र के साथ शिरडी पधारे। डॉक्टर का कहना था कि मेरे इष्ट श्रीराम हैं। मैं किसी यवन को मस्तक न नमाऊँगा। अतः वे शिरडी जाने में असहमत थे। मामलतदार ने समझाया कि तुम्हें नमन करने को कोई बाध्य न करेगा और न ही तुम्हें कोई ऐसा करने को कहेगा। अतः मेरे साथ चलो, आनन्द रहेगा। वे शिरडी पहुँचे और बाबा के दर्शन को गये। परन्तु डॉक्टर को ही सबसे आगे जाते देखा और बाब की प्रथम ही चरण वन्दना करते देखकर सब को बढ़ा विस्मय हुआ। लोगों ने डॉक्टर से अपना निश्चय बदलने और इस भाँति एक यवन को दंडवत् करने का कारण पूछा। डॉक्टर ने बतलाया कि बाबा के स्थान पर उन्हें अपने प्रिय इष्ट देव श्रीराम के दर्शन हुए और इसलिये उन्होंने नमस्कार किया। जब वे ऐसा कह ही रहे थे, तभी उन्हें साईबाबा का रुप पुनः दीखने लगा। वे आश्चर्यचकित होकर बोले – क्या यह स्वप्न हो। ये यवन कैसे हो सकते हैं। अरे! अरे! यह तो पूर्ण योग-अवतार है। दूसरे दिन से उन्होंने उपवास करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक बाबा स्वयं बुलाकर आशीर्वाद नहीं देंगे, तब तक मसजिद में कदापि न जाऊँगा। इस प्रकार तीन दिन व्यतीत हो गये। चौथे दिन उनका एक इष्ट मित्र थानदेश से शरडी आया। वे दोनों मसजिद में बाबा के दर्शन करने गये। नमस्कार होने के बाद बाबा ने डॉक्टर से पूछा, आपको बुलाने का कष्ट किसने किया। आप यहाँ कैसे पधारे। यह जटिल और सूचक प्रश्न सुनकर डॉक्टर द्रवित हो गये और उसी रात्रि को बाबा ने उनपर कृपा की। डॉक्टर को निद्रा में ही परमानन्द का अनुभव हुआ। वे अपने शहर लौट आये तो भी उन्हें 15 दिनों तक वैसा ही अनुभव होता रहा। इस प्रकार उनकी साईभक्ति कई गुनी बढ़ गई।

उपर्यु्क्त कथाओं की शिक्षा, विशेषतः मुले शास्त्री की, यही है कि हमें अपने गुरु में दृढ़ विश्वास होना चाहिये।

अगले अध्याय में बाबा की अन्य लीलाओं का वर्णन होगा।

।।श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु। शुभं भवतु।।

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-11 | SHIRDI SAI BABA - SAI SATHCHARITH-11

 

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय-11

सगुण ब्रहम श्री साईबाबा, 
डाँक्टर पंडित का पूजन, 
हाजी सिद्दीक फालके, 
तत्वों पर नियंत्रण।

इस अध्याय में अब हम श्री साईबाबा के सगुण ब्रहम स्वरुप, उनका पूजन तथा तत्वनियंत्रण का वर्णन करेंगे ।

*सगुण ब्रहम श्री साईबाबा*



ब्रहमा के दो स्वरुप है – निर्गुण और सगुण । निर्गुण निराकार है और सगुण साकार है । सत्द्गुरु वे एक ही ब्रहमा के दो रुप है, फिर भी किसी को निर्गुण और किसी को सगुण उपासना में दिलचस्पी होती है, जैसा कि गीता के अध्याय 12 में वर्णन किया गया है । सगुण उपासना सरल और श्रेष्ठ है । मनुष्य स्वंय आकार (शरीर, इन्द्रय आदि) में है, इसीलिये उसे ईश्वर की साकार उपासना स्वभावताः ही सरल हैं । जब तक कुछ काल सगुण ब्रहमा की उपासना न की जाये, तब तक प्रेम और भक्ति में वृद्धि ही नहीं होती । सगुणोपासना में जैसे-जैसे हमारी प्रगति होती जाती है, हम निर्गुण ब्रहमा की ओर अग्रसर होते जाते हैं । इसलिये सगुण उपासना से ही श्री गणेश कहना अति उत्तम है । मूर्ति, वेदी, अग्नि, प्रकाश, सूर्य, जल और ब्राहमण आदि सप्त उपासना की वस्तुएँ होते हुए भी, सदगुरु ही इन सभी में श्रेष्ठ हैं ।

श्री साई का स्वरुप आँखों के सम्मुख लाओ, जो वैराग्य की प्रत्यक्ष मूर्ति और अनन्य शरणागत भक्तों के आश्रयदाता है । उनके शब्दों में विश्वास लाना ही आसन और उनके पूजन का संकल्प करना ही समस्त इच्छाओं का त्याग हैं ।

कोई-कोई श्रीसाईबाबा की गणना भगवदभक्त अथवा एक महाभागवत (महान् भक्त) में करते थे या करते है । परन्तु हम लोगों के लिये तो वे ईश्वरावतार है । वे अत्यन्त क्षमाशील, शान्त, सरल और सन्तुष्ट थे, जिनकी कोई उपमा ही नहीं दी जा सकती । यदि वे शरीरधारी थे, पर यथार्थ में निर्गुण, निराकार,अनन्त और नित्यमुक्त थे । गंगा नदी समुद्र की ओर जाती हुई मार्ग में ग्रीष्म से व्यथित अनेकों प्रगणियों को शीतलता पहुँचा कर आनन्दित करती, फसलों और वृक्षों को जीवन-दान देती और जिस प्रकार प्राणियों की क्षुधा शान्त करती है, उसी प्रकार श्री साई सन्त-जीवन व्यतीत करते हुए भी दूसरों को सान्त्वना और सुख पहुँचाते है । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है संत ही मेरी आत्मा है । वे मेरी जीवित प्रतिमा और मेरे ही विशुद्घ रुप है । मैं सवयं वही हूँ । यह अवर्णनीय शक्तियाँ या ईश्वर की शक्ति, जो कि सत्, चित्त् और आनन्द हैं । शिरडी में साई रुप में अवर्तीण हुई थी । श्रुति (तैतिरीय उपनिषद्) में ब्रहमा को आनन्द कहा गया है । अभी तक यह विषय केवल पुस्तकों में पढ़ते और सुनते थे, परन्तु भक्तगण ने शिरडी में इस प्रकार का प्रत्यक्ष आनन्द पा लिया है । बाबा सब के आश्रयदाता थे, उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता न थी । उनके बैठने के लिये भक्तगण एक मुलायम आसन और एक बड़ा तकिया लगा देते थे । बाबा भक्तों के भावों का आदर करते और उनकी इच्छानुसार पूजनादि करने देने में किसी प्रकार की आपत्ति न करते थे । कोई उनके सामने चँवर डुलाते, कोई वाघ बजाते और कोई पादप्रक्षालन करते थे । कोई इत्र और चन्दन लगाते, कोई सुपारी, पान और अन्य वस्तुएँ भेंट करते और कोई नैवेघ ही अर्पित करते थे । यघपि ऐसा जान पड़ता था कि उनका निवासस्थान शिरडी में है, परन्तु वे तो सर्वव्यापक थे । इसका भक्तों ने नित्य प्रति अनुभव किया । ऐसे सर्वव्यापक गुरुदेव के चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार हैं ।

*डॉक्टर पंडित की भक्ति*


एक बार श्री तात्या नूलकर के मित्र डाँक्टर पंडित बाबा के दर्शनार्थ शिरडी पधारे बाबा को प्रणाम कर वे मसजिद में कुछ देर तक बैठे । बाबा ने उन्हें श्री दादा भट केलकर के पास भेजा, जहाँ पर उनका अच्छा स्वागत हुआ । फिर दादा भट और डाँक्टर पंडित एक साथ पूजन के लिये मसजिद पहुँचे । दादा भट ने बाबा का पूजन किया । बाबा का पूजन तो प्रायः सभी किया करते थे, परन्तु अभी तक उनके शुभ मस्तक पर चन्दन लगाने का किसी ने भी साहस नहीं किया था । केवल एक म्हालसापति ही उनके गले में चन्दन लगाया करते थे । डाँक्टर पंडित ने पूजन की थाली में से चन्दन लेकर बाबा के मस्तक पर त्रिपुण्डाकार लगाया । लोगों ने महान् आश्चर्य से देखा कि बाबा ने एक शब्द भी नहीं कहा । सन्ध्या समय दादा भट ने बाबा से पूछा, क्या कारण है कि और दूसरों को तो मस्तक पर चन्दन नहीं लगाने देते, परन्तु डाँक्टर पंडित को आपने कुछ भी नहीं कहा बाबा कहने लगे, डॉक्टर पंडित ने मुझे अपने गुरु श्री रघुनाथ महाराज धोपेश्वरकर, जो कि काका पुराणिक के नाम से प्रसिदृ है, के ही समान समझा और अपने गुरु को वे जिस प्रकार चन्दन लगाते थे, उसी भावना से उन्होंने मुझे चन्दन लगाया । तब मैं कैसे रोक सकता था । पुछने पर डाँक्टर पंडित ने दादा भट से कहा कि मैंने बाबा को अपने गुरु काका पुराणिक के समान ही डालकर उन्हें त्रिपुण्डाकार चन्दन लगाया है, जिस प्रकार मैं अपने गुरु को सदैव लगाया करता था ।

यघपु बाबा भक्तों को उनकी इच्छानुसार ही पूजन करने देते थे, परन्तु कभी-कभी तो उनका व्यवहार विचित्र ही हो जाया करता था । जब कभी वे पूजन की थाली फेंक कर रुद्रावतार धारण कर लेते, तब उनके समीप जाने का साहस ही किसी को न हो सकता था । कभी वे भक्तों को झिड़कते और कभी मोम से भी नरम होकर शान्ति तथा क्षमा की मूर्ति-से प्रतीत होते थे । कभी-कभी वे क्रोधावस्था में कम्पायमान हो जाते और उनके लाल नेत्र चारों ओर घूमने लगते थे, तथापि उनके अन्तःकरण में प्रेम और मातृ-स्नेह का स्त्रोत बहा ही करता था । भक्तों को बुलाकर वे कहा करते थे कि उनहें तो कुछ ज्ञात ही नहीं हे कि वे कब उन पर क्रोधित हुए । यदि यह सम्भव हो कि माताएँ अपने बालकों को ठुकरा दें और समुद्र नदियों को लौटा दे तो ही वे भक्तों के कल्याण की भी उपेक्षा कर सकते हैं । वे तो भक्तों के समीप ही रहते हैं और जब भक्त उन्हें पुकारते है तो वे तुरन्त ही उपस्थित हो जाते है । वे तो सदा भक्तों के प्रेम के भूखे है ।

*हाजी सिद्दीक फालके*


यह कोई नहीं कह सकता था कि कब श्री साईबाबा अपने भक्त को अपना कृपापात्र बना लेंगे । यह उनकी सदिच्छा पर निर्भर था । हाजी सिद्दीक फालके की कथा इसी का उदाहरण है । कल्याणनिवासी एक यवन, जिनका नाम सिद्दीक फालके था, मक्का शरीफ की हज करने के बाद शिरडी आये । वे चावड़ी में उत्तर की ओर रहने लगे । वे मसजिद के सामने खुले आँगन में बैठा करते थे । बाबा ने उन्हें 9 माह तक मसजिद में प्रविष्ट होने की आज्ञा न दी और न ही मसजिद की सीढ़ी चढ़ने दी । फालके बहुत निराश हुँ और कुछ निर्णय न कर सके कि कौनसा उपाय काम में लाये । लोगों ने उन्हें सलाह दी कि आशा न त्यागो । शामा श्रीसाई बाबा के अंतरंग भक्त है । तुम उनके ही द्घारा बाबा के पास पहुँचने का प्रयत्न करो । जिस प्रकार भगवान शंकर के पास पहुँचने के लिये नन्दी के पास जाना आवश्यक होता है, उसी प्रकार बाबा के पास भी शामा के द्घारा ही पहुँचना चाहिये । फालके को यह विचार उचित प्रतीत हुआ और उन्होने शामा से सहायता की प्रार्थना की । शामा ने भी आश्वासन दे दिया और अवसर पाकर वे बाबा से इस प्रकार बोले कि, बाबा, आप उस बूढ़े हाजी को मसजिद में किस कारण नहीं आने देते । अन्य भक्त स्वेच्छापूर्वक आपके दर्शन को आया-जाया करते है । कम से कम एक बार तो उसे आशीष दे दो । बाबा बोले, शामा, तुम अभी नादान हो । यदि फकीर अल्लाह) नहीं आने देता है तो मै क्या करुँ । उनकी कृपा के बिना कोई भी मसजिद की सीढ़ियाँ नहीं चढ़ सकता । अच्छा, तुम उससे पूछ आओ कि क्या वह बारवी कुएँ निचली पगडंडी पर आने को सहमत है । शामा स्वीकारात्मक उत्तर लेकर पहुँचे । फिर बाबा ने पुनः शामा से कहा कि उससे फिर पुछो कि क्या वह मुझे चार किश्तों में चालीस हजार रुपये देने को तैयार है । फिर शामा उत्तर लेकर लौटे कि आप कि आप कहें तो मैं चालीस लाख रुपये देने को तैयार हूँ । मैं मसजिद में एक बकरा हलाल करने वाला हूँ, उससे पूछी कि उसे क्या रुचिकर होगा – बकरे का मांस, नाध या अंडकोष । शामा यह उत्तर लेकर लौटे कि यदि बाबा के यदि बाबा के भोजन-पात्र में से एक ग्रास भी मिल जाय तो हाजी अपने को सौभाग्यशाली समझेगा । यह उत्तर पाकर बाबा उत्तेजित हो गये और उन्होंने अपने हाथ से मिट्टी का बर्तन (पानी की गागर) उठाकर फेंक दी और अपनी कफनी उठाये हुए सीधे हाजी के पास पहुँचे । वे उनसे कहने लगे कि व्यर्थ ही नमाज क्यों पढ़ते हो । अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन क्यों करते हो । यह वृदृ हाजियों के समान वे्शभूषा तुमने क्यों धारण की है । क्या तुम कुरान शरीफ का इसी प्रकार पठन करते हो । तुम्हें अपने मक्का हज का अभिमान हो गया है, परन्तु तुम मुझसे अनभिज्ञ हो । इस प्रकार डाँट सुनकर हाजी घबडा गया । बाबा मसजिद को लौट आयो और कुछ आमों की टोकरियाँ खरीद कर हाजी के पास भेज दी । वे स्वयं भी हाजी के पास गये और अपने पास से 55 रुपये निकाल कर हाजी को दिये । इसके बाद से ही बाबा हाजी से प्रेेम करने लगे तथा अपने साथ भोजन करने को बुलाने लगे । अब हाजी भी अपनी इच्छानुसार मसजिद में आने-जाने लगे । कभी-कभी बाबा उन्हें कुछ रुपये भी भेंट में दे दिया करते थे । इस प्रकार हाजी बाबा के दरबार में सम्मिलित हो गये ।


*बाबा का तत्वों पर नियंत्रण*

बाबा के तत्व-नियंत्रण की दो घटनाओं के उल्लेख के साथ ही यह अध्याय समाप्त हो जायेगा ।


एक बार सन्ध्या समय शिरडी में भयानक झंझावात आया । आकाश में घने और काले बादल छाये हुये थे । पवन झकोरों से बह रहा था । बादल गरजते और बिजली चमक रही थी । मूसलाधार वर्षा प्रारंभ हो गई । जहाँ देखो, वहाँ जल ही जल दृष्टिगोचर होने लगा । सब पशु, पक्षी और शिरडीवासी अधिक भयभीत होकर मसजिद में एकत्रित हूँ । शिरडी में देवियाँ तो अनेकों है, परन्तु उस दिन सहायतार्थ कोई न आई । इसलिये सभी ने अपने भगवान साई से, जो भक्ति के ही भूखे थे, संकट-निवारण करने की प्रार्थना की । बाबा को भी दया आ गई और वे बाहर निकल आये । मसजिद के समीप खड़े हो जाओ । कुछ समय के बाद ही वर्षा का जोर कम हो गया । और पवन मन्द पड़ गया तथा आँधी भी शान्त हो गई । आकाश में चन्द्र देव उदित हो गये । तब सब लोग अति प्रसन्न होकर अपने-अपने घर लौट आये ।

एक अन्य अवसर पर मध्याहृ के समय धूनी की अग्नि इतनी प्रचण्ड होकर जलने लगी कि उसकी लपटें ऊपर छत तक पहुँचने लगी । मसजिद में बैठे हुए लोगों की समझ में न आता था कि जल डाल कर अग्नि शांत कर दें अथवा कोई अन्य उपाय काम में लावें । बाबा से पूछने का साहस भी कोई नहीं कर पा रहा था ।


परन्तु बाबा शीघ्र परिस्थिति को जान गये । उन्होंने अपना सटका उठाकर सामने के थम्भे पर बलपूर्वक प्रहार किया और बोले नीचो उतरो और शान्त हो जाओ । सटके की प्रत्येक ठोकर पर लपटें कम होने लगी और कुछ मिनटों में ही धूनी शान्त और यथापूर्व हो गई । श्रीसाई ईश्वर के अवतार हैं । जो उनके सामने नत हो उनके शरणागत होगा, उस पर वे अवश्य कृपा करेंगे । जो भक्त इस अध्याय की कथायें प्रतिदिन श्रद्घा और भक्तिपूर्वक पठन करेगा, उसका दुःखों से शीघ्र ही छुटकारा हो जायेगा । केवल इतना ही नही, वरन् उसे सदैव श्रीसाई चरणों का स्मरण बना रहेगा और उसे अल्प काल में ही ईश्वर-दर्शन की प्राप्ति होकर, उसकी समस्त इच्छायें पूर्ण हो जायेंगी और इस प्रकार वह निष्काम बन जायेगा ।

*।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु । शुभं भवतु ।।*